Book Title: Aacharya Kundakunda Dravyavichar
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 45
________________ 94 यदि जीव का उपयोग शुभ (होता है), (तो) (जीव ) पुण्य सग्रह करता है और (यदि ) ( उसका ) अशुभ ( उपयोग होता है), तो उसी तरह (जीव ) पाप ( सग्रह करता है) । उन (शुभ-अशुभ) के प्रभाव मे (पुण्य-पाप कर्म का ) सग्रह नही होता है । 95 यदि (मनुष्य) आत्मा को नही चाहता है, किन्तु ( वह) ( केवल ) सकल पुण्यो ( शुभो ) को ( ही ) करता है, तो भी ( वह) परम शाति नही पाता है और ( वह) ससार ( मानसिक तनाव / शान्ति ) मे ही स्थित कहा गया ( है ) । 96 व्रत और नियमो को धारण करते हुए तथा शीलो और तप का पालन करते हुए ( भी ) जो (व्यक्ति) परमार्थ (शुद्ध आत्म-तत्व ) से अपरिचित ( है ), वे परम शान्ति को प्राप्त नही करते है । 97 पर के प्रति शुभ भाव पुण्य ( है ), अशुभ (भाव) पाप ( है ) । इस प्रकार यह कहा गया ( है ) । पर मे न झुका हुआ भाव आगम मे दुख के नाश का कारण ( कहा गया है ) । 98 आत्म-स्वभाव से अन्य ( जो ) सचित्त - श्रचित्त (तथा) मिश्रित ( द्रव्य) होता है, वह सर्वज्ञ द्वारा सच्चाईपूर्वक परद्रव्य कहा गया है । 99 जिस (व्यक्ति) के हृदय मे परद्रव्य पर अणु के बराबर भी राग ( श्रासक्ति) विद्यमान है, वह समस्त आगमों का धारण करनेवाला ( होकर) भी आत्मा के आचरण को नही समझता है । 100 जो व्यक्ति सम्पूर्ण श्रासक्ति से रहित (होता हुआ ) ( श्रात्मा मे ) तल्लीन ( होकर ) श्रात्मा को स्वभाव से जानता - देखता है, वह निश्चयात्मक रूप से आत्मा मे आचरण करता है । द्रव्य- विचार 29

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