Book Title: Aacharya Kundakunda Dravyavichar
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Jain Vidya Samsthan

View full book text
Previous | Next

Page 38
________________ 11. रत्तो बंद कम्म मुच्चदि कम्मेहिं रागरहिदप्पा । एसो बंधसमासो जीवाणं जारण पिच्छयदो ॥ 72. जो इंदियादिविजई भवीय उवयोगमप्पगं झादि । कम्मेहि सो ण रंजदि किह तं पारणा अणुचरंति ।। 73. परिणमदि यमलु रणादा जदि णेव खाइगं तस्स । गाणंत्ति तं निरिणदा खवयं कम्ममेवुत्ता ।। 74. जं भावं सुहमसुहं करेदि आदा स तस्स खलु कत्ता । तं तस्स होदि कम्मं सो तस्स दु वेदगो अप्पा ॥ 75. जं कुणदि भावमादा कत्ता सो होदि तस्स कम्मस्स । गाणिस्स दु णारणमनो अण्णाणमनो अणाणिस्स ॥ 76-77. कणयमया भावादो जायते कुडलादयो भावा । अयमयया भावादो जह जायंते दु कडयादी । अण्णाणमया भावा प्रणाणिणो बहुविहा वि जायते । णारिणस्स दु गारगमया सव्वे भावा तहा होति । 78. णिच्छयणयस्स एवं आदा अप्पारणमेव हि करेदि । वेदयदि पुरणो तं चेव जाण अत्ता दु अत्तारणं ॥ प्राचार्य कुन्दकुन्द

Loading...

Page Navigation
1 ... 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123