Book Title: Aacharya Kundakunda Dravyavichar
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 41
________________ 79 किन्तु व्यवहारनय के ( अनुसार ) ग्रात्मा अनेक प्रकार के पुद्गल कर्मों को करता है (तथा) उस अनेक प्रकार के पुद्गल कर्म को ही भागता है । 80 आत्मा उपयोग स्वभाववाला ( है ) । उपयोग ज्ञान-दर्शन कहा गया ( है ) और श्रात्मा का वह उपयोग शुभ अथवा अशुभ होता है । 81 यदि वह श्रात्मा स्वय ग्रपने भाव ( स्व-सकल्प ) से शुभ रूप अथवा शुभ रूप नही होवे, (तो) किसी भी जीव के ससार (मानसिक तनाव / शाति) ही न होवे । 82 देव, साधु (तथा) गुरु की भक्ति मे, दान मे, शीलो ( व्रतो) मे तथा उपवास आदि मे सलग्न आत्मा शुभोपयोगवाला ( कहा जाता है) । 83. जीव का शुभ परिणाम पुण्य होता है और ( उसका ) अशुभ (परिणाम) पाप ( होता है) । दोनो कारणो से भाव ने कर्मत्व को प्राप्त किया ( है ) । (यह ) ( कर्मत्व) पुद्गल की राशि ( है ) । 84 जिसके (जीवन मे ) शुभ राग (होता है ) श्राश्रित भाव (होता है) तथा ( जिसके ) (होती है), ( उस) जीव के ( जीवन मे होता है । ) (और) अनुकपा पर मन मे मलिनता नही पुण्य का आगमन 85 अरहतो, सिद्धो श्रीर साधुओ की (जो) भक्ति ( है ) तथा धर्म (नैतिक - प्राध्यात्मिक मूल्यो ) मे जो प्रवृत्ति ( है ) एव पूज्य व्यक्तियो का जो अनुसरण (है), (वे) (सब) शुभ राग ( है ) । ( आचार्यों द्वारा ) शुभ राग के अन्तर्गत ( ये ) ( बात ) कही जाती है । 86 भूखे प्यासे प्रथवा ( किसी ) दुखी (प्राणी) को देखकर जो भी कोई दुखी मनवाला ( होकर ) उसके प्रति दयालुता से व्यवहार करता है, उसके यह अनुकपा होती है । द्रव्य- विचार 25

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