Book Title: Aacharya Kundakunda Dravyavichar
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Jain Vidya Samsthan

View full book text
Previous | Next

Page 29
________________ 35 जिस प्रकार दूध मे डाला हुआ पद्मराग रत्न दूध को प्रकाशित __ करता है, उसी प्रकार देह मे स्थित प्रात्मा स्वदेहमात्र को प्रकाशित करता है। 36-37-38 जो जीव सचमुच ससार (मानसिक तनाव) मे स्थित (होता है), (उसमे) उस कारण से ही (अशुद्ध) भाव (समूह) उत्पन्न होता है। (अशुद्ध) भाव (समूह) से कर्म (उत्पन्न होता है) और कर्म से गतियो मे गमन होता है। (किसी भी) गति मे गये हुए जीव से देह (उत्पन्न होता है), देह से इन्द्रियाँ उत्पन्न होती है। उनके (इन्द्रियो के) द्वारा ही विषयो का ग्रहण (होता है) । (और) उस कारण से (जीव मे) राग और द्वेप (उत्पन्न होता है)। इस प्रकार जीव के आवागमन के समय (उसमे) मनोभाव (समूह) उत्पन्न होता है (जो) या (तो) आदि और अन्तरहित (होता है) या अन्त-सहित होता है । यह अर्हन्तो द्वारा कहा गया है। 39 जिन (व्यक्तियो) के (जीवन मे) (इन्द्रिय) विषयो मे रस है, उनके (जीवन मे) दुख (मानसिक तनाव) (एक) वास्तविकता (है) । (इस बात को) (तुम) समझो, क्योकि यदि वह (दु ख) वास्तविकता न (होता), (तो) (इन्द्रिय) विपयो के लिए प्रवृत्ति (बार-बार) न (होती)। 40 निस्सन्देह (भिन्न-भिन्न) कारणो से वह आत्मा तीन प्रकार का है-परम (आत्मा), अान्तरिक (आत्मा) और बहिर (आत्मा)। (तुम) वहिरात्मा को छोडो, (चूंकि) उस (परम) अवस्था मे प्रातरिक (प्रात्मा) के साधन से परम (आत्मा) ध्याया जाता है। 41 (जो व्यक्ति यह मानता है कि) इन्द्रियां (ही) (परम सत्य है), (वह) वहिरात्मा (है), (जिस व्यक्ति मे) (शरीर से भिन्न) आत्मा की विचारणा विना किसी सन्देह के है, (वह) अन्तरात्मा (है) (तथा) कर्म-कलक से मुक्त (जीव) परम आत्मा (है) । (परम आत्मा) (ही) देव कहा गया (है)। द्रव्य-विचार 13

Loading...

Page Navigation
1 ... 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123