Book Title: Aacharya Kundakunda Dravyavichar
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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57. पत्थि परोक्खं किचिवि समंत सव्वक्खगुरगसमिद्धस्स ।
अक्खातीदस्स सदा सयमेव हि गारगजादस्स ॥
58. गेण्हदि णेव ण मुचदि ण परं परिणमदि केवली भगवं ।
पेच्छदि समतदो सो जाररादि सन्वं रिगखसेसं ॥
59. सोक्खं वा पुरण दुक्खं केवलणारिणस्स गत्यि देहगदं ।
जम्हा अदिदियत्तं जादं तम्हा दु तं यं ॥
60. अस्थि अमुत्तं मुत्तं अदिदियं इंदिय च प्रत्येसु ।
गाणं च तधा सोक्खं जं तेसु परं च तं णेयं ।।
61. जं केवलत्ति वाण तं सोक्खं परिणमं च सो चेव ।
खेदो तस्स ए भणिदो जम्हा घादी खयं जादा ।
62. जादं सयं समत्तं गाणमणंतत्यवित्थिदं विमलं ।
रहिदं तु उग्गहादिहि सुहत्ति एयंतियं भरिणदं ।
63. जादो सयं स चेदा सव्वण्ह सव्वलोगदरसी य ।
पप्पोदि सुहमणंतं अव्वावाधं सगममुत्तं ॥
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प्राचार्य कुन्दकुन्द

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