Book Title: Laghu Siddhant Kaumudi me aaye hue Varttiko ka Samikshatmaka Adhyayan
Author(s): Chandrita Pandey
Publisher: Ilahabad University
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघु सिद्धान्त कौमुदी में आये हुए वार्तिकों का समीक्षात्मक अध्ययन इलाहाबाद विश्वविद्यालय की डी0 फिल० उपाधि के लिए प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध अनुसन्धात्री वन्द्रिता पाण्डेय निर्देशक डा० रामकिशोर शास्त्री व्याख्याता संस्कृत-विभाग इलाहाबाद विश्वविद्यालय ALLAH INERSITY QUOD COTNARY संस्कृत-विभाग इलाहाबाद विश्वविद्यालय 1992 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्म-निवेदन आदि मानव ने इस वसुन्धरा के स्वर्णिम क्षितिज पर जब नेत्रोन्मीलन किया, तो धरती ने उसे अपनी दुलार भरी गोद में उठा लिया, मृद समीर ने उसे झुलाया, मधुर-भाषी पक्षियों ने लोरिया गायीं, जिनके स्वर में उसने अपना स्वर मिलाया और यहीं से भाषा की परस्पर आदान-प्रदान की Vडखला का सूत्रपात हुआ। भाषा के इसी ज्ञान-विज्ञान को शूदखला के शाश्वत सम्बन्ध के परिवेश में आज का विकसित चेतन प्राणी धरती से उठकर चन्द्रलोक तक की भाषा सम्झने लगा । हमारे देश में विभिन्न भाषाओं में विभिन्न वाइमय विद्यमान हैं। भारतीय मनीषा सभी वाडमय का हृदय से सम्मान करती है । अपनी सामथ्यानुसार सभी मानव-जाति के कल्याण के प्रति सचेष्ट है किन्तु स्वदेश की सीमा से बाहर विश्वबन्धुत्व एवं समूची मानव जाति की जो सेवा, सभी भाषाओं की आदि जननी संस्कृत भाषा ने किया है तदवत् किसी भाषा ने नहीं। जीव से ब्रह्म बनाने की क्षमता का विकास संस्कृत भाषा में ही विहित है । संस्कृत भाषा के इसी विशिष्ट गुणों के कारण मेरी दा इस भाषा के सम्पर्क में आने के कारण प्रगाढ हुई। किसी भाषा के साधु एवम् असाधु स्वरूप के नीर-क्षीर विवेक के लिए उप्त भाषा के व्याकरण का क्रमबद्ध ज्ञान परमावश्यक होता है । संस्कृत के निगूट तत्त्वों को समझने के लिए तो व्याकरणशास्त्र का अध्ययन और भी अपेक्षित है, इस लिए पूर्व कक्षाओं में मेरे प्रदेय गुस्खनों के द्वारा पाणिनीय प्रवेशाय लघुसिद्धान्त को मुदीम्' का जो अहकुर मेरे जिज्ञासु मन में फूटा था। प्रस्तुत गोध-प्रबन्ध उसी का पल्लवित, पुष्पित एवम् फलित रूप .. Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानव जाति विधाता की अनुपम कृति है और भाषा उस के लिए ईश का अमूल्य वरदान है । मूकं करोति वाचालम् ----- सुभाषित प्रसिद्ध है। शब्दों के समुदाय से वाक्य तदनन्तर भाषा की सष्टि होती है । व्याकरणशास्त्र भाषा का विवेचन करता है तथा साथ ही भाषा को शुद्ध रूप में बोलना, समझना और लिखना सिखाता है । व्याकरण का व्युत्पत्तिपरक अर्थ है - 'पदों की मीमासा करने वाला शास्त्र ।- "व्याक्रियन्ते शब्दा अनेनेति व्याकरणम्" अET "व्याक्रियन्ते विविच्यन्ते प्रकृतिप्रत्ययादयो नेन अस्मिन् वा तदव्याकरणम् वि + आइ. + कृ + ल्युदा । . प्रकृति और प्रत्यय के विवेचन द्वारा यह किसी भाषा के टुकड़े-टुकड़े करके उसके ठीक स्वरूप को हमारे सामने दशाता है। भर्तहरि का स्पष्ट उल्लेख है - "साधुत्वज्ञानविषया सैषा व्याकरण स्मृतिः - वाक्यपदीया यह शुद्र और अशुद्र प्रयोग का ज्ञान कराता है । इस प्रकार किसी भी भाषा के सम्यक् ज्ञान के लिए व्याकरणशास्त्र का जान परमावश्यक है । करणीय-अकरणीय प्रयोगों का ज्ञान कराने के कारण वह शास्त्र कहा जाता है। हमारे प्राचीन अधियों ने व्याकरण की उपयोगिता का प्रतिपादन बड़े ही गम्भीर शब्दों में किया है । ज्ञान-विज्ञान के अEFय भाडार हमारी वैदिक संहिताओं में व्याकरणास्त्र की प्रक्षिा में अनेक मंत्र विभिन्न स्थलों में बिखरे पड़े हैं । ऋग्वेद के एक महत्त्वपूर्ण मंत्र में शब्द शास्त्र अधात व्याकरण का 'वृषभ से रूपक बांधा गया है जिसके द्वारा व्याकरण ही कामों अर्थात इच्छा तुष्टि करने के कारण 'कृषभ' . नाम से सकेतित किया गया है। उपर्युक्त 'वृषभ' के चार सींग हैं :- I. नाम, 2. अध्यात क्रिया।, 3. उपसर्ग एवम् 4. निपात । इसके तीन पाद हैं - Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्तमान, भूत और भविष्य तथा दो सिर हैं सुप् और तिइ.। सप्त विर्भाक्तयाँ - प्रथमा, द्वितीया एवम् तृतीयादि इसके सात हाँध हैं । उर, कण्ठ और सिर इन तीनों स्थानों में बांधा गया है । इस प्रकार यह महान् देव है, जो मनुष्यों में समाहित है। वररुचि के अनुसार व्याकरण के अध्ययन के पांच प्रयोजन अधोलिखित हैं : 1. रक्षा - व्याकरण के अध्ययन का प्रधान लक्ष्य वेद की रक्षा है । 2. उह - ह का अर्थ नये पदों की कल्पना से है। 3. आगम - स्वयं श्रुतिही व्याकरण के अध्ययन के लिये प्रमाणभूत है । 4. लघु - लछुता के लिए भी व्याकरण का पठन-पाठन आवश्यक है । 5. सन्देह - वैदिक शब्दों के विषय में उत्पन्न सन्देह का निराकरण व्याकरण ही कर सकता है । व्याकरण की इसी भूयसी उपयोगिता के कारण प्रस्तुत विषय मेरे शोध-प्रबनः का प्रयोजन बना । मुझे शिक्षा के सवोच्च सोपान तक पहुंचाने में प्रमेरी ममतामयी जननी श्रीमती चन्द्रमोहनी मिश्रा, प्रवत्री राजकीय बालिका इण्टर कालेज, शंकरगढ़, इलाहाबाद, एवम् पूज्य पिता श्री राधेयाम मिश्र, प्रोफेसर संस्कृत विभाग, रीवा विश्वविद्यालय, का सर्वोपरि योगदान है जिसके लिए किसी भी प्रकार का आभारप्रदर्शन उस निबनुष वात्सल्य एवम् सहज स्नेह के गौरव का अपकर्षक होगा । वस्तुतः प्रस्तुत गोध-प्रबन्ध मेरी माता एवं पिता के अन्ड सौभाग्यशाली पुण्यों का ही फल Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। यही नहीं अपनी मातृस्वरूपा सात श्रीमती इसराजी देवी के प्रति भी आभार व्यक्त करना मेरी ता होगी, जिन्होंने मुझे 'गृहकारज नाना जंबाला' के 'विषम व्यूह' से मुक्त करके अपना चिरस्मरणीय सहयोग, प्यार एवम् आशीर्वाद प्रदान किया है । अन्यथा प्रकृत शोध-प्रबन्/ प्रस्तुत कर पाना सम्भव न हो पाता । 'ज्ञानपंथ' की 'अथ से इति' तक की इस धरत्यधारा निषिता दुरत्यया' सदृश दुर्गमयात्रा के सफल समापन में गुस्वर्य डॉ रामकिशोर शास्त्री ने विषय को बोधगम्य बनाने में अभूतपूर्व योगदान दिया है । प्रदेय गुस्नी ने विष्य-चयन से लेकर शोधप्रबन्ध की पूर्णाहुति तक मेरा सफल मार्ग-निर्देशन किया, जिसके लिए मैं हृदय से दावनत हूँ। • व्याकरण की दुर्गम वीथियों में कने से बचाने का कार्य अभिनव पाणिनि 'काशी विद्वत्परिषद के अध्यक्ष, भूतपूर्व व्याकरण विभागाध्यक्ष एवम् वेदवेदाङ्ग संकायाध्यक्षा, संस्कृत विश्वभारती एवम् राष्ट्रपति पुरष्कृत सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी के सम्मानित प्रोफेसर डा0 रामप्रसाद त्रिपाठीजी ने किया। जिनसे में जन्म-जन्मान्तरपर्यन्त अनृण नहीं हो सकती । इलाहाबाद विश्वविद्यालय के संस्कृत विभागाध्यक्ष एवम संस्कृत जगत् की आधुनिक परम्परा के मूर्धन्य मीधी प्रोफेसर सुरेशचन्द्र श्रीवास्तव के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन मेरा पुनीत कर्तव्य है, जिनका उदार हृदय जिज्ञासुमन की तृप्ति हेतु अहर्निश खुला रहा Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ0 रामेवर प्रसाद त्रिपाठी, अध्यक्षा दर्शन विभाग, नेशन्न पोस्ट ग्रेजुएट कालेज, बड़हलगंज गोरखपुर, प्रोफेसर डॉ0 पारसनाथ द्विवेदी, डॉ जयप्रकाश त्रिपाठी सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी का मैं हृदय से आभारी हूँ जिनके द्वारा समय-समय पर प्रदत्त प्रोत्साहन मेरे लिए ज्योति-स्तम्भ बन गया । श्री गङ्गानाथ झा केन्द्रीय संस्कृत विद्यापीठ के प्राचार्य डॉ0 गयाचरण त्रिपाठी जी के प्रति भी मैं कृतज्ञ हूँ जिनकी सदस्यता से मुझे विद्यापीठीय पुस्तकालय की सुविधा प्राप्त हो सकी। शोध-प्रबन्ध के महगल समापन की पृष्ठभूमि में मेरे पति श्री व्रतदेव पाण्डेय का विशेष योगदान है जिन्होंने मार्ग को सुगम, सरल एवं निष्कण्टक बनाकर गन्तव्य तक पहुंचाया। उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापन अपना परम पावन कर्तव्य सम्झती हूँ । इसी के साथ मैं श्री अखिलेशमणि त्रिपाठी, मनोरंजन कर निरीक्षक, इलाहाबाद, यंग साइंटिस्ट पुरस्कार प्राप्त डॉ0 कु0 हरवंश कौर, बेरी, बनस्पति विज्ञान विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद, श्री कमलेशचन्द्र त्रिपाठी, श्री उमानाथ दुबे, श्री सत्यनाथ पाण्डेय के प्रति भी आभार व्यक्त करती हूँ जिनकी सदभावना परिप्रान्त मन के लिए पाथ्य सिद्ध हुई हैं । ... अन्त में मैं विभाग के उन गुस्खनों तथा वाताजात शुभेच्छ व्यक्तियों, मित्रों एवं सहयोगियों के प्रति भी हार्दिक कृता हूँ, जिनके आशीवाद एवं सदभावनाओं ने शोध-प्रबन्ध की पूर्णाहुति में मन्त्र का काम किया है। स्वच्छ एवम् रोचक हकण हेतु श्री देवेन्द्र यादव के प्रति धन्यवाद ज्ञापन करती हूँ। Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका । । अध्याय/प्रकरण विष्य पृष्ठ संख्या आत्म-निवेदन क-ग 1-38 | - 6 7 - 12 - 15 व्याकरणशास्त्र का इतिहास एवं महत्त्व 1. व्याकरणशास्त्र का मूल स्त्रोत 2. महर्षि पाणिनि से पूर्वभावी व्याकरण प्रवक्ता 3. पाणितीय अष्टाध्यायी में स्मृत आचार्य 4. पाणिनि एवम् उनका व्याकरणशास्त्र 5. अScाध्यायी के वार्तिककार 6. वार्तिकों के भाष्यकार तथा भाष्य का लक्षण 7. अटाध्यायी के वृत्तिकार 8. पाणिनीय व्याकरण के प्रक्रिया ग्रन्धकार - 18 - 25 -28 28 -31 3। -:38 ला सिद्धान्त कौमदी में आए हुए वार्तिकों का समीक्षात्मक अध्ययन 39 - 215 1. संज्ञा प्रकरणम् : अलुवर्णयोर्मियः सावायें वाच्यम् । 39 - 45 46 - 82 46-49 50-52 53-57 2. संनिप्रकरणम् ।. यणः प्रतियो वाच्यः 2. अवपरिमाणेच 3. दुहिन्यामुपसंख्यानम् 4. प्रादहोटोटयेष्येषु 5. अते व तृतीयासमासे 6. प्रवत्सतर कम्बन वसनाणदशानामृगे 7. शकन्या दिनु पररूपं वाच्यम् A. न ममाले मिति च .... 58-59 59-60 60-61 61-63 64-68 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -------पूष्ठ अध्याय/प्रकरण विषय संख्या १. अना म्नवति नगरीणा मिति वाच्यम् 69-71 10. प्रत्यये भाषायां नित्यम् 71-74 11. यवलपरे यवला वा 74-76 12. चयो द्वितीया: शरि पौष्करतादेरिति वाच्यम् 76-77 13. संपुंकानां सो वक्तव्यः । 78-82 83-125 सबन्त प्रकरणम् 1. तीयस्य डि त्सु वा 83-85 2. नुम-अचि-र-तृत्वदभावेभ्यो नु पूर्व विप्रतिधन 86-89 3. दन-कर-पुनः-पूर्वस्य भुवो यण् वक्तव्यः 90-95 ५. अवर्णनस्य गत्वं वाच्यम् 96-99 5. औडः श्याप्रतिषेधो वाच्यः 99-101 6. एकतरात् प्रतिषेधो वक्तव्यः 1027. वृद्धयो त्वन्वतृज्वदभावगुणेभ्योनुमपूर्वविप्रतिषेधेन 103-106 8. डावुत्तरपदे प्रतिषेधो वक्तव्यः 106-109 १. • परी जेः षः पदान्ते 110. 10. एकवाक्ये युष्मदस्मदादेशा वक्तव्याः 110-113 ।।. एते वान्नावादयो नन्वादेश वावक्तव्या: 12. अस्य सम्बद्रो वा नइ. नलोपश्च वाच्यः 13. अन्वादेशो नपंस के एनद वक्तव्यः 118-124 14. सम्बद्री नपंसकानां नलोपो वा वाच्यः 124-125 114-116 116-118 126-140 বিনা সুক ।. दुरः प्रवणत्वयोस्पसर्गत्वप्रतियो वक्तव्यः 126. Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज ------ . अध्याय/प्रकरण विष्य । संख्या । 1 26-127 127. 128. 129. 129-130 130-132 132-134 2. अन्तः शब्दस्याडड विधिणत्वेषपसर्ग त्वं वाच्यम् 3. सिलोप एकादेशे सिद्धा वाच्यः 4. कास्यनेकाच आम वक्तव्य : 5. कमेनचलेश्चइ. वाच्यः 6. उणोतराम नेति वाच्यम् . 7. इर इत्संज्ञा वाच्या 8. वुग्युटौ उवइ. यणो: सिदो वक्तव्यो। १. किडति रमागमं बाधित्वा सम्प्रसारणं पूर्व विप्रतिषेधेन 10. स्पा-मृा-कृष्-तृप-दृपां ने : सिज्वा वाच्यः II. शे तृम्मादीनां नुम्वाच्यः 12. मस्जेरन्त्यात पूर्वी नुम् वाच्यः 13. अइ. अभ्यास-व्ययाये पि सुट कात्पूर्व इति वक्तव्यम् 14. सर्व प्रातिपदिकेभ्यः क्किब्बा क्क्तव्यः 15. प्रातिपदिकादधात्वर्थ बहुलम् इष्ठवच्य . 134-135 135. 136-137 137-138 138-139 139. 140. 141-143 कृदन्त प्रकरणम् 1. केलिमर उपसंख्यानम् 2. मूल-विभुजा दिभ्यः कः 3. कि ।ए। ब वचि-प्रच्छ यायत-स्तु-कटपू-जु-श्रीणां टीवों सम्प्रसारणं च ५. पणय क-विधानम् 5. अल्वादिभ्यः क्तिनिष्ठाववाच्यः 6. सम्पदादिभ्यः क्वि 142. 142-143 143. 143. समास प्रकर 1414-166 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - -- अध्याय/प्रकरण वषय • पृष्ठ संख्य' 144. 2. 145. 1. इवेन् समासो विभक्त्यलोपश्च समाहारे चा यमियते 3. अन नित्यसमासो विशेष्यालिद्गता चेति वक्तव्यम् 146-149 सर्वनाम्नो वृत्तिः मात्रे पुंबदभावः 149-150 5. द्वन्द्र तत्पु योरुत्तरपदे नित्यसमासवचनम् 151-152 6. शाक पार्थिवा दीनां सिद्धये उत्तरपदलोपस्योपसंख्यानम् 152-153 7. प्राऽऽदयो गताधथे प्रथमया 153. 8. अत्यादयः क्रान्ता द्यर्थे अद्वितीयया 153. १. अवादयः कुष्टा द्यर्थे तृतीयया 153. 10. पर्यादयो ग्लाना द्यर्थे चतुा निरादयः क्रान्ता द्यर्थे प चम्या 154-155 12. गति-कारकोपपदानां कृदिभः सह समास-वचनं प्राक् सुबुत्पत्तेः 155-159 13. संख्यापूर्व रात्रं क्लीबम् 159-160 दिगु प्राप्ता पन्ना लपूर्व-गतिम मासेषु प्रतिषेधो वाच्यः 460-163 15.. . प्रादिभ्यो धातुजस्य वाच्यो वा चोत्तरपदलोप: 164-165 16. नमोऽस्त्यांना वाच्यो वा चोत्तरपदलोप: 165. 17. धा दिष्वनियमः 166 153. 11. 14. 167-200 तद्वितप्रकरणम् 1. स्वतिभ्यामेव 2. देवाद या अनो 3. वहिष्टि-लोपो याच 167 167-168 168 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । . . अध्याय/प्रकरण विष्य • पृष्ठ संख्या । 11. 12. 13. 4. ईकक्च 169. 5. सर्वत्र गो: ।। अच् ।। आदि प्रसङ्गेयत 169-170 लोम्नो पत्येषुबहुष्वकारोवक्तव्यः 171-173 7. राज्ञो जातवेव इति वाच्यम् 173-174 8. क्षत्रिय समान शब्दाद जनपदात् तस्य राजनि अपत्यवत् 174-175 १. पूरोरण वक्तव्यः 175-176 पाण्डोउर्य 176-177 कम्बोजा दिभ्य इति वक्तव्यम् 177-178 तिष्य पुष्ययोत्रा णि यलोप इति वाच्यम् 178-179 भस्या टे तद्विते । इति वंदभावे कृते 179-180 गज सहायाभ्यां चेति वक्तव्यम् 180-181 अहः रवः क्रतो 181-182 अवारपाराद विगृहीतादपि विपरीताव च इति वक्तव्यम्।8217. अमेह क्क-तति-त्रेभ्य एव 183. 18... त्यब् ने हमे इति वक्तव्यम् 184. 19. वा नामधेयस्य वृद्ध संज्ञा वक्तव्या 184-185 20. अध्ययानां भ-मात्रे टि-लोपः 185-186 21. अध्यात्मा देः 'ठ' इष्यते 186 अमनो विकारे टि-लोपो वक्तव्यः 187. अधर्मात इति वक्तव्यम् 187-188 24. नाभि नभं च 188 पृथु-मृदु-ना-का-दृढ़-परिवृद्धानाम एव रत्वम् 26. 'गुण-धचनेभ्यो मतुपो लुग् इष्टः 189-190 16. 25. 189. Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय/प्रकरण विष्य पृष्ठ संख्या 190. 191. 191-192 192-193 193-194 27. प्राण्यड्गाद एव 28. अन्येभ्योऽपि दृश्यते असोडलोपश्च 30. दृशिग्रहणाद् भवदआदियोग एव 31. एतदोऽपि वाच्यः ओकार-सका र-भकारा दौ सुपि सर्वनाम्नष्टे: प्राग् ॐ कच अन्यत्र तु सुबन्तस्य ट: प्राग् अकच् सर्व-प्रातिपदिकेभ्यः स्वाथै कन् आधादिभ्यस्त रूपसंख्यानम् 35. अभूत-तदभाव इति वक्तव्यम् 36. अव्ययस्य च्वावीत्वं न - इतिवाच्यम् 37. डाचि च देबहुलम् । 38. नित्यम् आमेडिते डाचि इति वक्तव्यम् 194-195 195-196 196. 197-198 198. 199. 200. 201-215 स्त्रीप्रत्यय प्रकरणम् 1. ना-स्न-ई कक्-८ युन्- तप-तनुनानाम् उपसंख्यानम् 2. आम् अनहः स्त्रियां वा । 3. पालकाऽन्तात् न सूयदि देवतायां चाप वाच्यः 5. सूर्याऽगस्त्ययोश्छे च इयां च य-लोपः 6. : हिमाऽरण्ययोर्ममहत्त्वे 7. यवाद दोघे 8. यवनात लिप्याम् 201-202 202-203 203-204 204-205 205-206 206-207 207 207-208 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय / प्रकरण 9. 10. 11. 12. 13. 14. ਰਿਧ अधीत ग्रन्थ- माला 어 मातुलोपाध्याययोः 'आनुकू' वा आचार्यादि अणत्वं च अर्थ-क्षत्रियाभ्यां वा स्वार्थे योपध-प्रतिषेधे - गवय-मुकय- मनुष्य-मत्स्यानाम् अप्रतिषेधः मत्स्यस्य ड्याम् श्वशुरस्योकारा कार- लोपश्च 208-209 209-210 210-211 211-212 212-213 213-215 पृष्ठ संख्या 216-217 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx व्याकरण शास्त्र का इतिहास एवम् महत्त्व % 3D Rxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याकरणशास्त्र का मूल प्रोत वेद समस्त ज्ञान-विज्ञान का अय भण्डार है । पौराणिक ऋषियों, महर्षियों से लेकर अधुनातन मनीषियों की यही सम्मति रही है। सर्वदेवमय मनु ने देद को सर्वज्ञानमय कहा है।' वेद अपौरय एवं सनातन सत्य होने के कारण लौकिक दोषों से परे है वहीं पुरुषार्थ चतुष्टय की प्राप्ति में सर्वथा सहायक है । समस्त ज्ञान-विज्ञान का मूल स्रोत होने के कारण व्याकरण के अनेक शब्दों एवं पदों की व्युत्पत्तियाँ वैदिक अचाओं में भरी पड़ी हैं। “यन यज्ञमयजन्त देवा:-2 में यज्ञ शब्द को यज् धातु से सिद्ध किया गया है । “यज्ञः कस्मात् १ - प्रख्यातं यति कर्मेति नैसक्ताः । -3 "यजयाचयतिविच्छप्रच्छरक्षोनइ. 14 तथा "ये सहांसि सहसा सहन्ते 5 में स:धातो: असुन्-' प्रत्यय सिद्धि की गई है । - - - - - - - - - - - - - - - - . 'व्याकरण' पद जिस धातु से बना है उसके वास्तविक अर्थ का प्रयोग भी यजुर्वेद में विद्यमान है ।' व्याकरणशास्त्र की सृष्टि का विवेचन यदि असम्भव नहीं तो दुष्प्राप्य अवश्य है किन्तु इतना स्पष्ट है वैदिक ध्वनि पाठों के सृष्टि से पूर्व ------ 1. "सर्वज्ञानमयो हि सः' । ।मनु 2/1/मेधातिथि की टीका। । 2. अग्वेद ।/164/50. 3. निरूक्त 3/1१. 4. अष्टाध्यायी 3/3/90 युधिष्ठिरमीमांसा भाग ।। 5. अग्वेद 6/66/90. 6. 2030.9/49/430 4/1941 इत्यसुन् 7. यजुर्वेद 19/17. Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का 13200 वि0पू01 व्याकरण-शास्त्र ने परिपक्वता प्राप्त कर लिया था। बाल्मीकि रामायण के अनुशीलन से यह बात प्रमाणित हो जाती है । रामराज्य में व्याकरणशास्त्र/ध्ययन अध्यापन विधिवत् हो रहा था ।' यास्कीय निरुक्त में महाभारतयुद्ध के समकालीन अनेक वैय्याकरण विशारदों का परिचय मिलता है 12 महाभाष्यकार महर्षि पत जालि ने व्याकरण शास्त्र के पठन-पाठन को चिरातीत से जोड़ा है। उपर्युक्त तथ्यों एवम् उपलब्ध ग्रन्योल्लेख/ से हम इस निष्कर्ष में पहुँच सकते हैं कि व्याकरण शास्त्र की आदि सृष्टि सुदीर्घ प्राचीनकाल में हो चुकी थी। तिथि एवम् काल निर्देश दुष्कर है किन्तु हम इतना स्पष्ट रूप से सकेतित कर सकते हैं । रामायणकाल में व्याकरण शास्त्र का पठन-पाठन प्रौढ़तम रूप से हो रहा था । 'व्याकरण' शब्द की प्राचीनता के विषय में इतना उल्लेख ही पर्याप्त होगा कि 'व्याकरण' शब्द का प्रयोग रामायण, गोपथब्राह्मण, मुण्डकोपनिषद, और महाभारत 'प्रभृति सुप्रसिद्ध ग्रन्थों में उपलब्ध होता है । 'व्याकरण' शब्द की प्राचीनता का प्रमाण । 'वेदाइगों' के अनुशीलन से भी प्राप्त होता है । वेदागों के : भेद बताये गए हैं i. रिक्षा, 2. व्याकरण, 3. निरुक्त, 4. छन्द, 5. कल्प 6. ज्योतिष्य। 1. नूनं व्याकरणं क्रित्त्नमन बहुधाश्रुतम् । बहु व्याहतानन न कि चदपि भाषितम् || किष्किंधाकाण्ड 3/29 11. . 2. न सर्वागीति गाग्योवैय्याकरणानां चैके - निरूक्त ।/12. 3. पुरा कल्परतदातीत, संस्कारोत्तरकालं ब्राह्मणा व्याकरणं समाधीयते । - महाभाष्य 30 1, पा0 1, 30 i. Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 महर्षि पत जलि ने सुप्रसिद्ध आगम वचन का उल्लेख कर के वेदाइगों के अध्ययन की ओर संकेत किया है - "ब्राह्मणेन निष्कारणोधर्मः ष्टद्धगोवेदेध्येयो यश्च ।। ब्रहमा भारतीय विचारधारा एवम् मनीषा के क्षेत्र में जगत्का ब्रह्मा को ही सभी विद्याओं का आदिसृष्टा निरू पित किया गया है। इस सनातन मान्यतानुसार ब्रह्मा ही व्याकरणशास्त्र के प्रथम प्रवक्ता हैं। जैसा कि अक्तन्त्राकार का उल्लेख है "ब्रह्माबृहस्पतये प्रोवाच, बृहस्पतिरिन्द्राय, इन्द्रोभरद्वाजाय, भरद्वाजन षिभ्यः, अषयो ब्राह्मणेभ्यः ।-2 अक्तन्त्रकार के द्वारा प्रस्तुत प्रामाणिक तथ्यों के आधार पर एकमा ही व्याकरण शब्द ज्ञान के एकमात्र आदि प्रवक्ता हैं। भारतीय पौराणिक मान्यतानुसार प्रादिप्रवक्ता ब्रह्मा सटिलीला के पूर्व तथा जलप्लावन के पश्चात हुआ था । 'यह नाम परवर्तीकाल में जाकर अनेक व्यक्तियों के लिए उपाधि रूप में प्रयोग होने लगा, फिर भी ऐतिहासिक मान्यताओं के अनुसार सभी विद्याओं का सर्वप्रथम प्रवक्ता ब्रह्मा ही माना जाता है। यह सर्वविदित एवम् सनातन मान्यता है । कालक्रमानुसार ब्रह्मा का निश्चित काल लगभग 16 सहस्त्र वर्ष पूर्व है । आर्यावर्त के समस्त पौराणिक एवम् ऐतिहासिक विशेषज्ञों की यह आदि सम्मति रही है कि मष्टि में जितनी भी विद्याओं का प्रचलन हुआ है उन सभी 1. महाभाष्य 30 I, पा0 1, 30 1. 2. प्रक्तनं ।। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्याओं का पारायण एवं प्रवचन ब्रह्मा ने ही किया है जो कि अतिविस्तृत एवं प्रभूत HTकार का था । ब्रह्मा का यही आदि वचन ही भविष्य में चल कर 'शास्त्र अध्या नाम से प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ । ब्रह्मा का यही सर्वप्रथम प्रवचन ही अनेकों अनुगामी प्रवचनों का उपजीव्य बना । किन्तु क्रममाः संक्षिप्त से संक्षिप्ततर होता गया । इसी लिए आगामी उत्तरवर्ती प्रवचनों को अनुशास्त्र, अनुतन्त्रअथवा अनुशासन कहा जाने लगा । एतदर्थ में 'शास्त्र' अथवा 'त' शब्द का प्रयोग गौणी वृत्ति से किया जात जाता है ।। ब्रह्मा को समस्त विद्याओं एवम् शास्त्रों का आदि प्रवक्ता माना गया है उनमें बाइस शास्त्रों का सर्वमान्य सड़केत पण्डित भगवदत्त जी द्वारा लिखित 'भारतवर्ष का वृहद इतिहास में दर्शाया गया है। नामोल्लेखा एतदानुसार है - वेदज्ञान, ब्रह्मज्ञान, योगविद्या, आयुर्वेद, धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र कामशास्त्र, गणितशास्त्र, ज्योतिष शास्त्र, नाट्यवेद, इतिहास-पुराण, मीमांसाशास्त्र, व्याकरणशास्त्र इत्यादि । बृहस्पति % 3D ब्रह्मा के पश्चात् व्याकरण्मास्त्र का द्वितीय सृष्टा बृहस्पति है । अक्तत्रानुसार अद्विगरा का पुत्र होने के कारण ही बृहस्पति ही अगिरस नाम से विख्यात हैं । ब्राह्मण ग्रन्थों में इसे देवों का पुरोहित लिखा है 12 तथा कोष ग्रन्थों में इसे 'सरों का आचार्य' भी कहा है । - - - - 1. "भिवतंत्रम् .. 2. बृहस्पति देवानां पुरोहितः । ऐब्रा0 8/26. Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहस्पति ने भी अनेक शास्त्रों का प्रवचन किया था। उनमें से कतिपय शास्त्रों का उल्लेख प्राचीन ग्रन्थों में उपलब्ध होता है, वे इस प्रकार हैं - सामगान, अर्थशास्त्र, इतिहास-पुराण, वेदाइग, व्याकरण, ज्योति, वास्तुशास्त्र, अगदतन्त्र । पत जलि के महामाष्य से ज्ञात होता है कि बृहस्पति' ने इन्द्र के लिए प्रतिपद पाठ द्वारा शब्दोपदेश किया था 12 उस समय तक प्रकृति-प्रत्यय का विभाग नहीं हुआ था । सर्वप्रथम इन्द्र ने ही शब्दोपदेश की प्रतिपद पाठ रूपी प्रक्रिया की दुरूहता को समझा और उसने पदों के प्रकृति-प्रत्यय विभाग द्वारा शब्दोपदेश प्रक्रिया की परिकल्पना की। 'वाग्वै पराच्यव्याकृतावदत् । ते देवा इन्द्रम् ब्रुवन् , इमा नो वाचं व्याकुर्विति ------ तामिन्द्रो मध्यतो वक्रम्य व्याकरोत् । ' उपर्युक्त कथन की व्याख्या सायणाचार्य ने इस प्रकार प्रस्तुत किया है - "तामबाडा वाचं मध्ये विधि 1. यही बृहस्पति देवों का पुरोहित था। इसने अर्थशास्त्र की रचना की थी। यह चक्रवर्ती मरुत्त से महले हुआ था । द्र0 महाभारत प्रानिपा, 7516 2. बृहस्पतिरिन्द्राय दिव्यं वर्षसहस्त्रं प्रतिपदोक्तानां शब्दाना शब्दपारायणं प्रोवाच। महाभाष्य 10 I, पा0 1, 30 1. 3. तैत्तिरीय संहिता, 6/4/.. . Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकृति प्रत्यय विभागं सर्वत्राकरोत । अर्थात् “वाणी पुराकाल में अव्या कृत बोली जाती थी। देवों ने इन्द्र से कहा कि इस वाणी को व्याकृत करो। इन्द्र ने उत्त वाणी को मध्य से तोड़कर व्याकृत किया । महेश्वर सम्प्रदाय व्याकरणशास्त्र में दो सम्प्रदाय प्रसिद्ध है । प्रथम रेन्द्र द्वितीय माहेश्वर या शैक्ष। कातन्त्र व्याकरण ऐन्द्र सम्प्रदाय का है, और पाणिनीय व्याकरण क्षेत्र सम्प्रदाय का । महाभारत के शान्तिपर्व के अन्तर्गत शिव सहस्रनाम में लिखा है - "वेदात् ष्ड्डूगान्युद्धत्य" । इससे स्पष्ट है कि बृहस्पति के समान शिव ने भी षड्डूग का प्रवचन किया था ।' व्याकरण्मास्त्र के तीन विभाग सम्पूर्ण व्याकरण्मास्त्र को तीन विभागों में विभाजित किया गया है - छन्दतमात्र - प्रातिमास्यादि । लौकिकमात्र - कातन्त्रादि । वैदिक लौकिक उभय विधि - आपिशाल, पाणिनि आदि । 2. 3. इसमें लौकिक व्याकरण के जितने ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं, वे सब पाणिनि ते अर्वाचीन हैं। 1. निरूक्त i/20. Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महर्षि पाणिनि से पूर्व भावी व्याकरण प्रवक्ता आचार्य प्रस्तुत अध्ययन में हम इस तथ्य की ओर ध्यानाकर्षण कर रहे हैं जिन आचार्यों का उल्लेख पाणिनीयाष्टक में नहीं मिलता है। इनमें सर्वप्रथम महेश्वर । पिता हैं जिनका समय निर्धारण ।।500 वि०पू० किया गया है। महाभारत के शान्तिपर्व के शिव सहस्त्रनाम में महेश्वर शिव को वेदाङ्ग अर्थात् षडग का प्रवक्ता कहा गया है । 'वेदातण्डड्गान्युदधत्य ।' प्रस्तुत श्लोक में विद्यमान चौदह प्रत्पाहारसूत्रों को माहेश्वर सूत्र के नाम से जाना जाता है । .येनाक्षरतमाम्नायमधिगम्यमहेश्वरात् । कृत्स्नं व्याकरणं प्रोक्तं तस्मै पाणिनये नमः ।। इसका उल्लेख पाणिनीय शिक्षा की समाप्ति पर मिलता है । द्वितीयाचार्य बृहस्पति का उधपि पूर्व अध्ययन में वृहस्पति के परिचय आदि के विषय में यथासम्म उल्लेख किया जा चुका है फिर भी महाभाष्य के पूर्व पृष्ठ 6। में जो उद्धरण दिया गया है उससे यह स्पष्ट होता है कि बृहस्पति ने शब्दों का प्रतिपद पाठ के द्वारा प्रवचन किया था । न्यायम जरी में इस बात की पुष्टि नम् 1. महाभाष्य बान्तिपर्व 284/92. Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वचन से होती है “तथा च बृहस्पति - प्रतिपदाक्य त्वाल्लणस्याप्यव्यवस्था नात् तत्रापिस्खालि तदर्शनाद अवस्थाप्रसंगाच्च मरणान्तोव्याधिव्याकरणमिति औशनसा: - इति । महाभाष्य के व्याख्याकार भर्तृहरि एवं कैयट के मतानुसार बृहस्पति ने शब्दपरायण नामक शब्दशास्त्र का प्रवचन इन्द्र के लिए किया था । बृहस्पति के पश्चात् इन्द्र को व्याकरणशास्त्र का प्रवक्ता स्वीकार किया गया है। इन्द्र के पिता प्रजापति को एवं माता अदिति बताया गया है । तैत्तिरीय संहिता 6/4/7 के प्रमाण के पूर्व भी यह बताया जा चुका था कि देवों की प्रार्थना पर देवराज इन्द्र ने सर्वप्रथम व्याकरणशास्त्र की रचना की । उससे पूर्व संस्कृत भाषा अव्याकृत-व्याकरण सम्बन्ध रहित थी । इन्द्र के प्रयास से ही वह व्याकृत एवम् व्याकरण युक्त हुई । अत: इन्द्र 'ने सर्वप्रथम प्रतिपद प्रकृति-प्रत्यय विभाग का विचार करके शब्दोपदेश की प्रक्रिया प्रचलित की। इन्द्र की प्रमुख रचना ऐन्द्र व्याकरण यद्यपि इस समय अनुपलब्ध है तथापि इसका सङ्केत अनेक रचनाओं का उल्लेख मिलता है । लइकावतार सूत्र' में ऐन्द्रशब्दशास्त्र सोमेश्वर सूरि लिखित यशास्तित क चम्मू में ऐन्द्र व्याकरण का स्पष्ट उल्लेख है 12 1. इन्द्रोऽपि महामते अनेकशास्त्र विदग्ध बुद्धिः स्वशास्त्र प्रणेता --------- - टेक्निकल कसं आफ संस्कृत ग्रामर, पृष्ठ 280. 2. प्रथम आपवास, पृष्ठ १०.. Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थाचार्य वायु को स्वीकार किया गया है इनका समय 8500 वि0पू0 माना गया है । तैत्तिरीय संहिता 6/4/7 में लिखा है - इन्द्र ने वाणी को व्याकृत करने में वायु से सहायता ली थी। अतः स्पष्ट है कि इन्द्र और वायु के सहयोग से देववाणी के व्याकरण की सर्वप्रथम रचना हुई । अतएव कई स्थानों में वाणी के लिए “वाग्वारेन्द्र वायवः " आदि प्रयोग मिलता है । वायुपुराण 2/44 में वायु को 'शब्दशास्त्रविशारद" कहा गया है । क्वीन्द्राचार्य के सूचीपत्र में "वायु' व्याकरण का उल्लेख है । व्याकरणशास्त्र का तृतीय आचार्य बार्हस्पत्य भरद्वाज है । यद्यपि वर्तमान समय में भरद्वाजतंत्र अनुपलब्ध है । तथापि शकतंत्र के पूर्वोक्त प्रमाण से स्पष्ट है कि भरदाज व्याकरण शास्त्र का प्रवक्ता था । . आचार्य भागुरि का उल्लेखा पाणिनीयाष्टक में उपलब्ध नहीं होता तथापि भागुरि-व्याकरण-विष्यक मतप्रदर्शक निम्नश्लोक वैयाकरण-निकाय में अत्यन्त प्रसिद्ध है वष्टि भागुरिल्लोपमवाप्योरूपसर्गयोः । आप चैव हलन्तानां यथा वाचा निशा दिशा || आचार्य भागुरि के पश्चात उल्लिखित प्रसिद्ध आचार्य पौष्करसादि है । तैत्तिरीय और मैत्रायणीय प्रातिमाख्य में पोऽकरता दि के अनेक मत उद्त हैं। - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - 1. महाभाष्य 8/4/48. Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 आचार्य चारायण के द्वारा लिखित किसी शास्त्र का स्पष्ट निर्देशक कोई वचन उपलब्ध नहीं हुआ है । लौगाक्षि-गृह्य के व्याख्याता देवपाल ने 5/1 की टीका में चारायण अपरनाम चारायणि का एक सूत्र और उसकी व्याख्या उद्धृत किया है वह इस प्रकार है - तथा च चारायणि सूत्रम् - "पुस्कृतेच्छयो: ' इति । पुरु शब्द: कृताब्दश्च लुप्यते यथासंख्यं छे । परतः । पुरुच्छदन पुच्छम् , कृतस्य दनं विनाशनं कृच्छम्' इति । महाभाष्य' में चारायण को वैयाकरण पाणिनि और रोदि के साथ स्मरण किया है। अतः चारायण अवश्य व्याकरण प्रवक्ता रहा होगा । वैयाकरण निकाय में काशकृतन को व्याकरण प्रवक्ता होना प्रसिद्ध है । महाभाष्य के प्रथम महिनक के अन्त में आपिशाल और पाणिनीय शब्दानुशासनों के सा काशकृतस्न शब्दानुशासन का उल्लेख मिलता है । . आचार्य शन्तनु ने साडगपूर्ण व्याकरणशास्त्र का प्रवचन किया था । सम्प्रति उपलभ्यमान फ्टि सूत्र उसी शास्त्र का एक देश है । - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - 1. महाभाष्य 1/1/13. 2. पाणिनिना प्रोक्तं पाणिनीयम् आपिशलम् काशकृत्नम् इति । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य व्याघ्रपद्य का नाम पाणिनीय व्याकरण में उपलब्ध नहीं होता । का शिका 8/2/1 में उदधत 'शुष्किका शुकजघा च' कारिका को भटोजी दीक्षित ने वैयाघ्रपद्यविरचित वार्तिक माना है । अत: यदि यह वचन पाणिनीय सूत्र का प्रयोजन वार्तिक हो, तो निश्चय ही वार्तिककार वैयाघ्रपद्य अन्य व्यक्ति रहा होगा। हमारा विचार है कि यह कारिका वैयाघ्रप्रदीय व्याकरण की है परन्तु पाणिनीय सूत्र के साथ भी संगत होने से प्राचीन वैयाकरणों ने इसका सम्बन्ध पाणिनि के 'पूर्वत्रातिदम्' सूत्र से जोड़ दिया। इससे यह स्पष्ट है कि आचार्य वैयाघ्रपद्य व्याकरण प्रवक्ता था। आचार्य रोदि का निर्देश पाणिनीय तंत्र में नहीं है । वामन का शिका 6/2/37 में उदाहरण देता है - 'आपिलपाणिनीयाः, पाणिनीयौदीया:, रौटीयका शिकृत्तना: '। इनमें श्रुत आपिशल, पाणिनि और कानाकृत्स्न निस्सन्देह वैयाकरण हैं अतः इनके साथ स्मृत रोटि आचार्य भी वैयाकरण होगा । चरक संहिता के टीकाकार जज्झट ने चिकित्सास्थान 2/26 की व्याख्या में आचार्य शौनकि का एक मत उदधृत किया है - कारणशाब्दस्तु व्युत्पादित: - करोतेरपि कर्तृत्वे दीर्घत्वं शास्ति शौनकिः । इससे यह स्पष्ट है कि शौनकि भी व्याकरण प्रवक्ता था । गौतम का नाम पाणिनीय तंत्र में नहीं मिलता । महाभाष्य 6/2/36 में 'आपिशलपाणिनीयध्यडीगौतमीया: ' प्रयोग मिलता है। इसमें स्मृत आपिशालि, Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनि और व्यडि ये तीन वैयाकरण हैं। अतः इनके साथ स्मृत आचार्य गौतम भी वैयाकरण प्रतीत होता है इसकी पुष्टि तैत्तिरीय प्रातिशास्य और मैत्रायणी प्रातिशास्य से होती है इसमें आचार्य गौतम के मत उदधत हैं । आचार्य व्यडि का नामोल्लेख पाणिनीय सूत्र में नहीं है फिर भी आचार्य शौनक ने अप्रातिमाख्य में व्याडि के अनेक मत उधत किये हैं। महाभाष्य 6/2/36 में 'पिशलपाणिनीयव्याडीयगौतमीया:' प्रयोग मिलता है । इसमें प्रसिद्ध व्याकरण आपिशालि और पाणिनि के अन्तेवासियों के साथ व्याडि के अन्तवासियों का निर्देश है । शाकन्य और गार्ग्य का स्मरण पाणिनि ने अपने शब्दानुशासन में किया है । इससे स्पष्ट है कि व्याडि ने कोई शब्दानुशासन अवश्य रचा था । पाणिनीय अEcाध्यायी में स्मृत आचार्य पाणिनि ने अपने अष्टाध्यायी में दश प्राचीन व्याकरण प्रवक्ता आचार्यों का उल्लेख किया है वे वर्णानुक्रम से निम्नलिखित हैं - rपिशालि ___आचार्य आपिशन का उल्लेख पाणिनीय Ascाध्यायी के एक सूत्र में उपलब्ध होता है । महाभाष्य 4/2/45 में आपिशलि का मत प्रमाण रूप में उदात किया है वामन, न्यासकार, जिनेन्द्र बुनि, कैयः तथा मेयरक्षित आदि प्राचीन ग्रन्धकारों ने अपिल व्याकरण के अनेक सूत्र उदधृत किये हैं। पाणिनि के स्वीय शिक्षा के अन्तिम Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13 प्रकरण में भी अपिशलि का उल्लेख किया है । आपिशाल व्याकरण प्रसिद्ध व्याकरण काश्यप पाणिनि ने अष्टाध्यायी में काश्यप का मत दो स्थानों पर उधृत किया है। वाजसनेय प्रातिशाख्य 4/5 में शाक्टायन के साथ काश्यप का उल्लेख मिलता है । अत: arcाध्यायी और प्रातिशाख्य में उल्लिखित काश्यप एक व्यक्ति है, इसमें कोई भी सन्देह नहीं। काश्यप व्याकरण है - कल्प, छन्दःशास्त्र, आयुर्वेद संहिता, अलइकारशास्त्र इत्यादि । गार्य पाणिनि ने अष्टाध्यायी में गायं का उल्लेख तीन स्थानों पर किया । गाय के अनेक मत समातिमाय और वाजसनेयी प्रातिमाख्य में उपलब्ध होते हैं। उनके सूक्ष्म पर्यवेक्षण से विदित होता है कि गायं का व्याकरण सर्वाइंगपूर्ण था । गार्य व्याकरण है निरुक्त, सामवेद का पदपाठ, शाकल्यतंत्र, लोकायतशास्त्र आदि । गालव पाणिनि ने Asc ध्यायी में गालव का उल्लेख चार स्थानों पर किया है। पुरषोत्तमदेव ने भाषावृत्ति 6/1/07 में गालव का व्याकरण सम्बन्धी एकमत उद्धव किया है । इनसे विस्पष्ट है कि गालव ने व्याकरणशास्त्र रचा था । गालव व्याकरण शास्त्र है - संहिता, ब्राहमा, क्रममाठ, शिक्षा, निरुक्त, कामसूत्र आदि । Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 चाक्रवर्मण चाक्रवर्मण आचार्य का नाम पाणिनीय अध्यायी तथा उणा दि सूत्रों में मिलता है । मcोजी दीक्षित ने शब्दकौस्तुभ में इसका एक मत उधृत किया है । श्रीपतिदत्त ने कातन्त्रपरिशिष्ट के 'हेतौ वा' सूत्र की वृत्ति में चाक्रवर्मण का उल्लेख किया है। इससे इसका व्याकरण प्रवक्तृत्व विस्पष्ट है । चाक्रवर्मग व्याकरण शास्त्र है - दय की सर्वनाम संज्ञा, नियतकाला: स्मृतयः का अप्रामाण्य आदि । भारद्वाज भारद्वाज का उल्लेख/ पाणिनीय अष्टाध्यायी में केवल एक स्थान में मिलता है । Acाध्यायी 4/2/145 में भी भारद्वाज शब्द पाया जाता है परन्तु काशिका कार के मतानुसार वह भारद्वाज पद देशमाची है, आचार्यवाची नहीं। भारद्वाज का ट्याकरण विषयक मत तैत्तिरीय प्रातिमाहय 16/3 और मैत्रायणी प्रा तिवाय 2/5/6 में मिलता है। भारद्वाज व्याकरण शास्त्र है - भारद्वाज वार्तिक, आयुर्वेद संहिता; अर्थशास्त्र । शाकटायन पाणिनि ने अष्टाध्यायी में आचार्य शाकटायन का उल्लेख तीन बार किया है । वाजसनेयी प्रातिशाख्य तथा अनामिाख्य में भी इसका अनेक स्थानों में निर्देश मिलता है । यास्काचार्य ने निरक्त में वैयाकरण शाकायन का मत उधत किया है । पत बलि ने स्पष्ट शब्दों में शाकटायन को व्याकरणशास्त्र का प्रवक्ता कहा है । उनके प्रमुभा व्याकरणास्त्र है - निरूक्त, कोष दैवत ग्रन्थ प्रकृतंत्र, लघु-अक्तंत्र, सामन्त्र आदि। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाकल्य पाणिनि ने शाकल्य आचार्य का मत अष्टाध्यायी में चार बार उद्धत किया है । शौनक और कात्यायन ने भी अपने प्रातिशाख्यों में शाकल्य के मतों का उल्लेख किया है । अप्रातिशाख्य में शाक्ल के नाम से उधृत समस्त नियम शा कल्य के ही हैं । शाकल्य व्याकरणशास्त्र है - शाकल्चरण, पदपाठ, माध्यन्दिन पदपाठ आदि । सेनक पाणिनि ने सेनक आचार्य का उल्लेख केवल एक सूत्र में किया है। अट Tध्यायी के अतिरिक्त सेनक आचार्य का कहीं भी उल्लेख/ नहीं है इसलिए इनके विषय में अधिक जानकारी नहीं प्राप्त होती है । औदम्बरायण आचार्य औदुम्बरायण का नाम पाणिनि ascाध्यायी में केवल एक स्थान पर मिलता है । इसके अतिरिक्त कहीं भी उल्लेख नहीं मिलता । सम्भवत: औदुम्बरायण शाब्दिकों में प्रसिद्ध स्फोटतत्व के आध उपज्ञाता थे । पाणिनि एवं उनका व्याकरणास्त्र संस्कृत भाषा के प्राचीन व्याकरणों में से एकमात्र पाणिनीय व्याकरण ही पूर्णरूपेण प्राप्त होता है। यह प्राचीन आर्ष वाइमय की अनुपम निधि है । इससे देववाणी का प्राचीन और अवांचीन समस्त वाइमय सूर्य के प्रकाश की भाति प्रकाशमान Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है । विश्व में किसी भी इतर प्राचीन भाषा का ऐसा परिष्कृत व्याकरण आज तक उपलब्ध नहीं होता। आचार्य पाणिनि के अनेक नाम प्रसिद्ध हैं - पाणिनि, दाक्षीपुत्र, शालातुरीय, आहिक, शाल डिक एवम् पाणिनि । पाणिनि का समय लगभग 2900 वि० पू0 माना जाता है । पाणिनि का कुल अत्यन्त सम्पन्न था । उसने अपने शब्दानुशासन के अध्ययन करने वाले छात्रों के लिए भोजन का प्रबन्ध रखा था । अष्टाध्यायी के 'उदक् च विपाशः . वाहीक ग्रामेभ्यश्च' इत्यादि सूत्रों तथा इनके महाभाष्य से प्रतीत होता है कि पाणिनि का 'वाहीक' देश से विशेष परिचय था । अत: पाणिनि वाहीक देश वा उस के असिमीप का निवासी होगा। पं0 शिवदत्त शर्मा ने पाणिनि का शाल डिक नाम पितृ-व्यपदेशाज माना है और पाणिनि के पिता का नाम लइक लिखा है । यज्ञेश्वर मल ने भी शाल इिक के पिता का नाम लड़क ही लिखा है । पाणिनि की माता का नाम दाक्षी तथा ममेरा भाई दाक्षायन व्याडि को बताया है । मृत्यु के विषय में विदित होता है कि इनको सिंह ने मारा था । प चतंत्र के अधोलिखित प्रलोक से इसकी पुष्टि होती है : सिंहो व्याकरणस्य कर्तुरहरत प्राणान प्रियान् पाणिनैः, मीमासाकृतमुन्ममाथ सहसा हस्ती मुनि जैमिनिम्। जान्दोज्ञाननिधि धान मकरो वेलाटे पिङगलम् , अज्ञानावृत्तयेत्सामतिरां को यत्तिरपचा गुणैः ॥ 1. अदापयायो 4/214, ____2. वही, 4/2/117. Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैयाकरणों में किंवदन्ती है कि पाणिनि की मृत्यु त्रयोदशी को हुई थी तथा अनुजे पिडगल की मृत्यु मगर के निगलने से हुई थी। पाणिनीय व्याकरण का सम्बन्ध शैव महेश्वर सम्प्रदाय के साथ है। यह बात प्रत्याहार सूत्रों को माहेश्वर सूत्र कहने से ही स्पष्ट है । पाणिनि व्याकरण तंत्र का आरम्भ 'वृद्धिरादैच' सूत्र से होता है। पाणिनि व्याकरण का मूल ग्रन्थ HSC Tध्यायी है । आचार्य पाणिनि अScाध्यायी का तीन प्रकार से पाठ का । प्रवचन किया - धातुपाठ, गणपाठ तथा उणा दिपाठ । इन विविध पाठों का सूक्ष्म अन्वेषण करके हम इसी निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि आचार्य पाणिनि के प चाइंग व्याकरण का ही त्रिविध पाठ है । वह पाठ सम्म्रति प्राच्य, उदीच्य और दक्षिणा त्य से त्रिधा विभक्त है । पाणिनीय शास्त्र के चार नाम उपलब्ध होते हैं, अSc क, ASCTLयायी, शब्दानुशासन और वृत्तिसूत्र पाणिनीय ग्रन्थ आठ अध्यायों में विभक्त है अत: उनके ये नाम प्रसिद्ध हुए हैं। इसमें अSCTध्यायी नाम सर्वलोक विश्नुत हैं । 'शब्दानुशासन' यह नाम महाभाष्य के आरम्भ में मिलता है । पाणिनीय सूत्र के लिए 'वृत्तिसूत्र' पद का प्रयोग महाभाष्य में दो स्थलों पर उपलब्ध होता है । अECTध्यायी का प्रथम सन्धि प्रकरण, द्वितीय में सुबन्त प्रकरण, तृतीय में तिइन्त प्रकरण, चतुर्थ में कृदन्त प्रकरण ५ चम में विभत्यार्थ प्रकरण काठ में समास प्रकरण, सप्तम में तद्धित तथा अष्टम में स्त्री प्रत्यय प्रकरण है । अटाध्यायी के सूत्रों पर ही महर्षि कात्यायन ने वार्तिक लिखे और उन्हीं वार्तिकों पर भाष्यकार पत जलि में भाष्य लिखे। 3965 सूत्र पाणिनि के ही हैं। अटाध्यायी के उपजीव्य ग्रन्थों में अपिगलतं प्रमुख है जिसका समर्थन पदम परीकार ने भी किया है । Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 पाणिनि ने सम्पूर्ण अष्टाध्यायी की रचना संहिता पाठ में किया था । यद्यपि पाणिनि ने प्रवचनकाल में सूत्रों का विच्छेद अवश्य किया होगा क्योंकि उसके विना सूत्रार्थं का प्रवचन सम्भव नहीं था किन्तु पत जलि ने संहिता पाठ को ही प्रामाणिक माना है । महर्षि पतजलि के अनुसार " पाणिनि ने समस्त सूत्रों का प्रवचन एकश्रुति स्वर में किया था । कैयट ने भी इसका समर्थन किया है किन्तु है नागेश भट्ट ने इसका खण्डन किया है । पाणिनि के अन्य व्याकरण ग्रन्थ अधोलिखि 1. धातुपाठ, 2. गणपाठ, 3. उणादिसूत्र 4. लिड्गानुशासन ये चारों ग्रन्थ पाणिनीय शब्दानुशासन के परिशिष्ट हैं । 1 अष्ठाध्यायी के वार्त्तिककार पाणिनीय अष्टाध्यायी पर अनेक आचार्यों ने वार्त्तिक पाठ की रचना की. थे । उनके ग्रन्थ वर्तमान समय मैं अनुपलब्ध हैं । बहुत से वार्त्तिककारों के नाम भी अज्ञात हैं । महाभाष्य में निम्न वार्तिककारों के नाम उपलब्ध होते हैं. 1. की त्यायन, 2. भारद्वाज, 3. सुनाग, 4. क्रोष्टा, 5. बाडव । ww सर्वप्रथम वार्त्तिक की जानकारी हेतु उसके लक्षण पर विचार करना अनिवा अनेक विद्वानों ने अनेक प्रकार से वार्त्तिक के लक्षण किए हैं । पराशर पुराण में वार्त्तिक का लक्षण इस प्रकार से है : • उक्तानुक्तदुरुक्तानां चिन्ता यत्र प्रवर्तते । तं ग्रन्थं वार्तिकं प्राहुः वार्तिकज्ञा मनीषिणः ॥ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है 19 इसी प्रकार से आचार्य हेमचन्द्र ने वार्तिक का लक्षण इस प्रकार से दिया "उक्तानुक्तदुरुक्तानां व्यक्तिकारी तु वार्तिकम् ॥ राजशेखर के अनुसार .2 उक्तानुक्तदुरुक्तं चिन्ता वार्तिकम् । नागेश ने तो वार्तिक का लक्षण इस प्रकार से दिया है - "उक्तानुक्तदुरुक्तचिन्ताकरत्वं वार्त्तिकत्वम् "3 "वृत्तौ साधु वार्त्तिकमिति" इन वार्त्तिक लक्षणों में प्रायः सभी अर्थतः समान हैं । यहाँ पर वार्त्तिक शब्द की व्युत्पत्ति के लिए मनुस्मृति के द्वारा वार्त्तिक के लक्षण की व्यवस्था की गई है । वार्त्तिक शब्द प्रकृतिः वृत्तिः शब्दाः । कैट ने वार्त्तिक शब्द की ऐसी व्युत्पत्ति की है । अर्थों में प्रयुक्त होता है फिर भी यहाँ पर 'वृत्ति' शब्द का 'शास्त्र प्रवृत्ति' यह अर्थ सिद्ध होता है । इसलिए 'व्रत्ति समवायार्थे: यद्यपि वृत्ति शब्द अनेकों वर्णानामुपदेशः " ऐसा भाष्यकार .4 ने कहा है । " कापुनर्वृत्तिः शास्त्र प्रवृत्ति: ' इस वार्तिक का अर्थ कात्यायन ने भी इसी अर्थ में वृत्ति शब्द प्रयोग किया है । ਬਵ तत्रानुवृत्तिनिर्देशे सवर्णाग्रहणम्नत्वात् वार्त्तिक व्याख्यान परक कैयट ग्रन्थ से स्पष्ट होता है कि उक्त वार्त्तिक 1. हेमचन्द्र - हेम्बाब्दानुशासन । 2. राजशेखर - काव्यमीमांसा, पृष्ठ 11, पटना संस्करण | 3. नागेश उद्योत - 7/3/59 गु०प्र०सं०, पृ० 2/21 4. महाभाष्य की० सं०भा० 1, पृष्ठ 13. 5. भाष्यवास्तिक की० सं०भा० 1, पृष्ठ 16. Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 में अनुवृत्ति निर्देश पद का व्याख्यान करते हुए कैयट ने कहा है "वृत्ति शास्त्रस्य • लक्ष्ये प्रवृत्तिर क्तनुगतो निर्देशो नुवृत्ति निर्देश : " इसी प्रकार से शास्त्रप्रवृत्ति में जोड़ा जाता है वह सब वार्तिक है । ऐसा वार्तिक शब्द की व्युत्पत्ति से वार्तिक पद का अर्थ सिद्ध होता है । शास्त्र प्रवृत्ति केवल सूत्र से जानी जाती है । ऐसा नहीं है । अपितु व्याख्यात्मक सूत्रों की वार्त्तिकें भी व्याख्यात्मक होती है । वृत्ति के व्याख्यान 'वार्त्तिक' शब्द को दूसरी व्युत्पत्ति की गई है । व्याख्यान पद की व्याख्या करते हुए भाष्यकार ने कहा है कि "न केवल चर्चा पदानि व्याख्यानं वृद्धि:, आत्, एच इति । किं तर्हि १ उदाहरणं प्रत्युउदाहरणं वाक्याध्याहार इत्येतद् समुदितं व्याख्यानं भवति ।। यहाँ पर वाक्याध्याहार पद से सूत्रों में अपेक्षित पदों का दूसरे सूत्रों से समायोजन ही वार्तिक का सूत्रार्थं की व्यवस्था करना अर्थ निकलता है । - भाष्यकार आख्यान शब्द अनेक विधि को बताता है । यथा व्याख्यानमन्वाख्यानं प्रत्याख्यान चेति । वहाँ पर अपेक्षित देशादिपूर्ति सूत्रार्थ की व्यवस्था ही न केवल व्याख्यान पद के चर्चित विषय है । अपितु व्याख्यान इत्यादि के द्वारा "वृद्धिरादैच" सूत्र के भाष्य प्रमाण से सक्षेप किया है । अन्वाख्यान शब्द की भाष्यकार ने अनेकों स्थलों पर प्रयोग किया है । यथा " किं पुनरिदं विवृतस्योपदिश्यमानस्य प्रयोजनमन्वाख्यायते । आहो स्विय् विवृतोपदेशश्चोद्यते ।" "नेतदन्वाख्येयमधिकारा अनुवर्त्तन्ते इति ।" सूत्रानुरूप लक्ष्य सिद्धि के अनुसार आख्यान ही अन्वाख्या 1. भाष्य की०सं० भा० 1, पृष्ठ 11. Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। सूत्रों का सूत्रोक्त पदों का सार्थक्य अन्वाख्यान कोटि में आता है। इसी । प्रकार से 'प्रत्याख्यान' सब्द भी भाष्य में यत्र-तत्र प्रयुक्त हुआ है । यथा - "इह हि कि िवद क्रियमाणं चोयते कि िचच्च ब्रियमाणं प्रत्याख्याते । । “यथेष प्रत्याख्यासमयः इदमपि तत्र प्रत्याख्यायते । 2 प्रतिकूल आध्यान-प्रत्याख्यान है। इस व्युत्पत्ति के द्वारा प्रत्याख्यान शब्द सूत्रों का सूत्रांशों का अन्याधोंपादन करता है। ये अख्यान की तीन विधियाँ व्याख्यान, अन्वाख्यान, प्रत्याख्यान वार्तिकों में दिखाई देती है । कुछ वार्तिक अपेक्षित सूत्र के देश की पूर्ति की व्यवस्था करती है। यथा - "तस्य भावस्त्वतलो. इस सूत्र पर "सिदं तु यस्य गुणस्य भावात् द्रव्ये शब्द निवेशस्तदभिधाने त्वतलो ऐसा वार्तिक के द्वारा उक्त सूत्र का अर्थ परिष्कृत होता है। इसी प्रकार से व्याख्यात्मक वार्तिकों को देखना चाहिए । कुछ वार्तिक सूत्रार्थ के विषय में दो पक्षों में सन्देह उपस्थित करते हुए लक्ष्य सिद्धि के अनुरूप अनेकों पदों को उपस्थित करती है । यथा - "आमन्त्रितं पूर्वमविद्यमानवत्' इस सूत्र पर "पूर्व प्रति विद्यमानत्वादुत्तरत्रानन्तया प्रसिद्धिः ', "सिद्ध त पूर्वपदस्येति वचनाद इस प्रकार को वार्तिक हैं। कुछ वातिक सूत्रों एवं सूत्रांशों का प्रतिपादन करती हैं । सूत्र के अनुसार आध्यान करती हैं । यथा - इयाप्प्रातिपदिकात्" इस सूत्र पर "इयाप्यातिपदिक ग्रहणमगभादसंज्ञार्थमिति वार्तिकम् । इस प्रकार से अनेकों वार्तिक अन्वास्यान कोटि में आ जाती है। कुछ वार्तिकें सूत्रों एवं सूत्रांशों के अन्यार्थ - - - - - - - 1. महाभाष्य 3/1/12, भाग 2. 2. भाष्य - की0सं0भा0 1, पृष्ठ 22. 3. अष्टाध्यायी 5/1/119. 4. वही, 8/1/12 Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्पादन में सूत्र के प्रतिकूल चलती है । में " गहयां लडविधानानर्थक्यं क्रियासमाप्ति विवक्षितत्वात् । यहाँ पर कुछ क्रिय माण को प्रेरित करती है । कुछ क्रियमाण का खण्डन । की चौथी विधि प्रदर्शित की गई है । कुछ वार्त्तिक सूत्र सूत्र में असंग्रहय लक्षणों का संग्रह करती है । 2 करती है । चौथी विधि में आती हैं । यथा "समोग म्युच्छ्भ्यिाम्" " इस सूत्र में "केलि मर उपसंख्यानमिति । इस प्रकार की ही वार्त्तिकें पाणिनि के द्वारा अनुक्त उसी से नवीन विधान योजना के द्वारा, पाणिनि सूत्रों के द्वारा अन्वाख्यान शब्दों का साधुत्व अन्वाख्यान के द्वारा वस्तुतः पाणिनि व्याकरण उपकृत्य करती है । इस प्रकार से व्याख्यान, अन्वाख्यान, क्रियमाण, प्रत्याख्यान क्रियमाण विधानात्मक वचनों वाली वार्त्तिकों को संक्षेप में निकृष्ट वार्त्तिक स्वरूप कह सकते हैं । ये इस प्रकार के सभी वचन लक्ष्य में प्रवृत्ति अनुरूप स्थलों में "वृत्तो साधु वार्तिकमिति" वातिक पद की व्युत्पत्ति भी अनुस्यूत होती है । विष्णुधर्मोत्तरपुराण में कहा है कि वार्तिक का लक्षण यही है कि जो सूत्रार्थ को बढ़ावे । जैसा कि वहाँ पर प्रयोजन, संशय, निर्णय, व्याख्या विशेष, गुरु, लाघव, कृत्व्युदास और अकृतशासन आठ प्रकार वार्त्तिक के बताए गए हैं। इनमें से आदि की तीन विधियाँ अन्वा ख्यानात्मक हैं चौथी, प चमी और छठीं विधि व्याख्यानात्मिका है। सातवीं प्रत्याख्यानात्मिका और आठवीं अक्रियमाण की प्रेरिका है । गया 1. 3d reart, 4/1/1. 2. वही, 3/3/142 22 - यथा * गया लडपि जात्वोः - I - इस सूत्र इस प्रकार यह वार्त्तिकों के द्वारा विहित कार्य इस प्रकार की वार्त्तिकें Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 23 कात्यायनीय व्याकरण वार्तिक लक्ष्यीकृत ही लक्षित होती हैं । हमने भी इन्हीं वार्त्तिकों को सम्मुख रखकर वार्तिक के स्वरूप पर विचार किया है क्योंकि इन्हीं वार्त्तिकों में कतिपय वार्त्तिकें प्रस्तुत शोध में दर्शायी गई हैं । वार्त्तिकों के लिए वैयाकरण वाड्मय में वाक्य, व्याख्यान सूत्र, भाष्यसूत्र, अनुतन्त्र और अनुस्मृति शब्दों का व्यवहार होता है । कात्यायन पाणिनीय व्याकरण पर जितने वार्त्तिक लिखे गए, उनमें कात्यायन का वार्तिक पाठ ही प्रसिद्ध है । महाभाष्य में मुख्यतया कात्यायन के वार्त्तिकों का व्याख्यान है । पत जलि ने महाभाष्य में दो स्थलों में कात्यायन को स्पष्ट शब्दों मैं 'वार्त्तिककार' कहा है ।। पुरुषोत्तम देव ने अपने त्रिकाण्डशेष कोष में कात्यायन के । काव्य 2. कात्यायन, 3. पुनर्वसु, 4. मेघाजित 5. वररुचि नामान्तर लिखे हैं । कात्य पद गोत्रप्रत्ययान्त है । इससे स्पष्ट है कि कात्य वा कात्यायन का मूल पुरुष 'कत' है । स्कन्दपुराण नागर खण्ड 10 130 श्लोक 71 के अनुसार एक कात्यायन याज्ञवल्क्य का पुत्र है । इसने वेदसूत्र की रचना की थी 12 स्कन्द 15 न हम पुरानद्यतन इति ब्रुवता कात्यायनेनेह । स्मादिविधि:इति 3/27118 सिदेत्येवं यत्विदं 7/1/1. 2. कात्यायनसुतं प्राप्य वेदसूत्रस्य कारकस ----- 1 Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में ही इस कात्यायन को यज्ञ विद्याविचक्षण भी कहा है, और उसके व र रुचि नामक पुत्र का उल्लेख किया है ।' याज्ञवल्क्य-पुत्र कात्यायन ने ही श्रौत, गृह्य, धर्म और शुक्ल यजुः पार्षत आदि सूत्र ग्रन्थों की रचना की है। यह कात्यायन को शिक पक्ष का है । इसने वाजसनेयों के आदित्यायन को छोड़कर अद्गिरसायन स्वीकार कर लिया था। वह स्वयं प्रतिज्ञा परिशिष्ट में लिखाता है - एवं वाजसनेयानामडिग्रता वर्णानां तो हं कौशिकपक्षः शिष्यः पार्षदः प चटासु तत्तच्छाखासु साधीयक्रमः ।' नागेशा म के मतानुसार कात्यायन पाणिनि का साक्षात् शिष्य है । कात्यायन दक्षिणात्य का निवासी था । यदि कात्यायन पाणिनि का शिष्य था तो वार्तिककार पाणिनि से कुछ उत्तरवर्ती होगा या पाणिनि का समकालीन होगा । अतः वार्तिककार का त्यायन का काल विक्रम से लगभग 2900-3000 वर्ष पूर्व है। वार्तिक पाठ - कात्यायन का वार्तिक पाठ पाणिनीय व्याकरण का एक अत्यन्त महत्त्व पूर्ण अइंग है। इसके बिना पाणितीय व्याकरण अधूरा रहता है । पत जलि ने कात्यायनीय वार्तिकों के आधार पर अपना महाभाष्य रचा है। कात्यायन का 1. कात्यायनाभिधं च यज्ञविधाविचक्षणम् । पुत्रो वररुचिर्यस्य बभूव गुणसागरः । ___30 131, लोक 48, 49. 2. वाजसनेयों के दो अयन हैं - दयान्येव यचूंषि आदित्यानामगिरसानां च । प्रतितासूत्र कण्डिका 6, सूत्र - 3. प्रतिक्षापरिशिष्ट, अण्णाशास्त्री द्वारा प्रकागित, कण्डिका 31, सूत्र 5. Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25 वार्तिक पाठ स्वतंत्र रूप से सम्प्रति उपलब्ध नहीं होता। महाभाष्य से भी का त्य। यन के वार्तिकों की निश्चित संख्या की प्रतीति नहीं होती क्योंकि उसमें बहुत अन वार्तिककारों के वचन भी सग्रहीत है । भाष्यकार ने प्रायः उनके नाम का निर्देश नहीं किया। कात्यायन के वार्तिकों को सामान्यतया चार भागों में विभक्त किर जा सकता है - 1. व्याख्यान वार्तिक, 2. प्रयोजन वार्तिक, 3. प्रत्याख्यान वार्तिक, 4. विधान वार्तिक । वार्तिक नाम से व्यवहृत ग्रन्थों के दो प्रकार - एक वार्तिक वे हैं, जिनकी रचना सूत्रों में हुई, और उन पर भाष्य रचे गए । इसी लिए कात्यायनीय वार्तिक वार्तिकों के लिए भाष्यसूत्र शब्द का व्यवहार होता है । यह प्रकार केवल व्याकरण शास्त्र में उपलब्ध होता है। दूसरे वार्तिक ग्रन्थ वे हैं, जिनकी भाष्यों पर रचना की गई। जैसे - न्याय भाष्य वार्तिक । वार्तिकों के भाष्यकार तथा भाष्य का लक्षण - विष्णुधर्मोत्तर के तृतीय खण्ड के चतुर्थाध्याय में भाष्य का लक्षण इस प्रकार लिखा है - "सूत्रार्थो वर्ण्यते यत्र वा क्यैः सूत्रानुसार भिः । स्वपदानि च वय॑न्ते भाष्य भाष्य विदो विदुः ।। ... अर्थात जिस ग्रन्थ में सूत्रार्थ, सूत्रानुसारी वाक्यों, = वार्तिकों तथा अपने ___ पदों का व्याख्यान किया जाता है, उसे भाष्य को जाने वाले भाष्य कहते हैं । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस पर कैयट आदि टीकाकार लिखते हैं कि यहाँ 'भाष्य' पद से 'सार्वधातुके यकू' सूत्र के महाभाष्य की ओर संकेत है परन्तु हमारा विचार है कि पत जलि का संकेत किसी प्राचीन भाष्य-ग्रन्थ की ओर है । इसमें निम्न प्रमाण है 1. 26 महाभाष्य के 'उक्तो भावभेदो भाष्ये' वाक्य की तुलना 'मंग्रहे एतत् प्रधान्येन परीक्षितिम्' 'संग्रहे तावत् कार्यपतिद्वन्द्विभावान्मन्यामहे' इत्यादि महाभाष्यस्थ वचनों से ही की जाए; तो स्पष्ट प्रतीत होता है कि उक्त वाक्य में संग्रह के कोई प्राचीन भाष्य' ग्रन्थ अभिप्रेत है । अन्यथा पत जलि अपनी शैली के अनुसार 'उक्तो भावभेदो भाष्ये' न लिखकर 'उक्तम्' शब्द से संकेत करता है । समान 2. पत जलि - रचित महाभाष्य में दो स्थलों पर लिखा है 'उक्तो भावभेदो भाष्ये । ' भर्तृहरि वाक्य पदीय 2 / 42 की स्वोपज्ञव्याख्या में भाष्य के नाम से एक पाठ उदधृत करता है स चायं वाक्यपदयोराधिक्यभेदो भाष्य एवोपव्याख्यातः । हेतुरारत्यायते । यह पाठ • 3. अतश्च तत्र भवान् आह . 'यथैकपदगतप्रतिपदिके - पात जलि महाभाष्य में उपलब्ध नहीं होता । - ------- भर्तृहरि महाभाष्यदीपिका में दो स्थलों पर वार्त्तिकों के लिए 'भाष्यसूत्र' पद का प्रयोग करता है । पाणिनीय सूत्रों के लिए 'वृत्तिसूत्र' पद का प्रयोग अनेक ग्रन्थों में उपलब्ध होता है । भाष्य सूत्र और वृत्ति सूत्र पदों की पारस्परिक तुलना 1. 3/3/19, 3/4/67. Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 27 व्यक्त होता है कि पाणिनीय सूत्रों पर केवल वृत्तियाँ ही लिखी गई थीं, अतएव ' उनका वृत्तिसूत्र' पद से व्यवहार होता है । वार्तिकों पर सीधे भाष्य ग्रन्थ लिखे गए, इस लिए वार्तिकों को 'भाष्यसूत्र' कहते हैं । वार्तिकों के लिए 'भाष्यसूत्र' नाम का व्यवहार इस बात का स्पष्ट द्योतक है कि वार्तिकों पर जो व्याख्यान ग्रन्ध रचे गए, वे 'भाष्य' कहलाते थे । भाष्यकार पत जलि वार्तिकों पर अनेक विद्वानों ने भाष्य लिखे परन्तु उनके भाष्य पूर्णतया अनुपलब्ध हैं। महामुनि पत जलि ने पाणिनीय व्याकरण पर एक महती व्याख्या लिखी है। यह संस्कृत भाषा में 'महाभाष्य ' के नाम से प्रसिद्ध है। इस ग्रन्ध में भाष्यकार ने व्याकरण जैसे दुरूह और शुष्क सम्झे जाने वाले विष्य को सरल और सरस रूप में प्रदर्शित किया है । अवचिीन व्याकरण जहाँ सूत्र, वार्तिक और महाभाष्य में परस्पर विरोध सम्झते हैं वहाँ महाभाष्य को ही प्रामाणिक मानते हैं । विभिन्न प्राचीन ग्रन्धों में पत जलि को गोनीय, गोणिकापुत्र, नागनाथ, अहिपति, फणिभृत, शेषराज, शेषाहि, चूर्णिकार और पदकार नामों से स्मरण किया है । पत जलि ने महाभाष्य जैसे विशालकाय ग्रन्थ में अपना कि यन्मात्र परिचय नहीं दिया । इस लिए पत बलि का इतिवृत्त सर्वथा अन्धकारमय है । महाभाष्य के कुछ व्याख्याकार गोंणिकापुत्र शब्द का अर्थ पत बलि मानते हैं। यदि यह ठीक हो तो पत जालि की माता का नाम 'गोणिका' होगा परन्तु यह हमें ठीक प्रतीत नहीं होता। कुछ ग्रन्धकार 'गोनीय' को पत जालि का पयाय मानते हैं यदि उनका मत प्रमाणिक हो Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो महाभाष्यकार की जन्मभूमि गोनदं होगी। पत जलि का समय लगभग 2000 वि0पू0 के बाद का तथा 1200 वि0पू0 के पहले का माना जाता है ।। महाभाष्य व्याकरण शास्त्र का अत्यन्त प्रामाणिक ग्रन्थ है । समस्त पाणिनीय वैयाकरण महाभाष्य के सन्मुडा नतमस्तक हैं। महामुनि पत जलि के काल में पाणितीय और अन्य प्राचीन व्याकरण ग्रन्धों की महती ग्रन्थराशि विद्यमान थी। पत अलि ने पाणितीय व्याकरण के व्याख्यानमिष से महाभाष्य में उन समस्त ग्रन्थों का सारसंग्रहित कर दिया । महाभाष्य का सूक्ष्म पालोचन करने से विदित होता है कि यह ग्रन्थ केदल व्याकरणशास्त्र का ही प्रामाणिक ग्रन्थ नहीं है अपितु समस्त विद्याओं का आकार ग्रन्थ है । अतएव भर्तृहरि ने वाक्यपदीय 12/4861 में लिखा कृते थ पत बालिना गुरुणा तीर्थदर्शिना । सर्वेषां न्यायबीजानां महाभाष्ये निबन्धने ॥ अSCLयायी के वृत्तिकार पाणिनीय अष्टाध्यायी पर प्राचीन अवांचीन अनेक प्राचार्यों ने वृत्ति ग्रन लिखा हैं। पत बालि विरचित महाभाष्य के अवलोकन से ज्ञात होता है कि उसके पूर्व AScrध्यायी पर अनेक वृत्तियों की रचना हो चुकी थी। नागेशकृत 'उद्योत की धाया टीका' के आरम्भ में 'घडविधा व्याख्या' का निर्देश मिलता है । इन वचन से स्पष्ट है कि सूत्र ग्रन्थों के प्रारम्भिक व्याख्यानों में पदच्छेद, पदार्थ समास-विग्र अनुवृत्ति, वाक्ययोजना = अर्थ, उदाहरण, प्रत्युदाहरण, पूर्वपदा और समाधान ये अंश Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 29 प्रायः रहा करते थे। इसी प्रकार के लघु-व्याख्यान रूप ग्रन्थ 'वृत्ति' शब्द से व्यवहृत होते हैं। महाभाष्य के पश्चात #5cाध्यायी की जितनी वृत्तियाँ लिखी गई उनका मुख्य आधार पात जल महाभाष्य है । पत जलि ने पाणिनीयाष्टक की निदोषता सिद्ध करने के लिए जिस प्रकार अनेक सूत्रों वा सूत्रांशों का परिष्कार किया, उसी प्रकार उसने कतिपय सूत्रों की वृत्तियों का भी परिष्कार किया । RECTध्यायी पर अनेक वृत्तियाँ लिखी गई परन्तु उनमें काशिका वृत्ति का उल्लेख करना ही हमें अभीष्ट है अतः हम आगे उसका ही विवेचन करेंगे । का शिका वमान समय में का शिका का जो संस्करण प्राप्त होता है उसमें प्रथम पाँच याय जयादित्य विरचित है और अन्तिम तीन अध्याय वामनकृत है । जिनेन्द्रबुद्धि ने अपनी न्यास-व्याख्या दोनों की सम्मिलित वृत्ति पर रची है। दोनों वृत्तियों का सम्मिश्रण क्यों और कम हुआ यह अज्ञात है । 'भाषावृत्ति' आदि में 'भागवृति' के जो उद्धरण उपलब्ध होते हैं, उनमें जयादित्य और वामन की सम्मिश्रित वृत्तियों का बडन उपलब्ध होता है । अतः यह सम्मिश्रण भागवृत्ति बनने । वि0सं0 6001 से पूर्व हो चुका था, यह निश्चित है । काशिका के व्याख्याता हरदत्त मिश्र और रामदेव मिश्र ने लिखा है - का शिका देशतो भिधानम् , काशीषु भवा' | Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30 अर्थात् का शिका वृत्ति की रचना काशी में हुई। उज्ज्वल दत्त और ' सृष्टिधार का भी यही मत है । का शिका के लिए 'एकवृत्ति' और 'प्राचीन वत्ति' शब्दों का भी प्रयोग किया जाता है । ___ का शिका वृत्ति व्याकरण्मास्त्र का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है । इसमें निम्न विशेषता हैं : का शिका से प्राचीन कुणि आदि वृत्तियों में गणपाठ नहीं था। इसमें गणपा का यथास्थान सन्निवेश है । अScाध्यायी की प्राचीन 'विलुप्त वृत्तियों और ग्रन्धकारों के अनेक मत इस ग्रन्ध में उदधृत है जिनका अन्यत्र उल्लेख नहीं मिलता। इस में अनेक सूत्रों की व्याख्या प्राचीन वृत्तियों के आधार पर लिखी है । अतः उनसे वृत्तियों के सूत्रार्थ को जानने में पर्याप्त सहायता मिलती है । का शिका में जहाँ-जहाँ महाभाष्य से विरोध है वहाँ-वहाँ का धिाका काक का लेख प्रायः प्राचीन वृत्तियों के अनुसार है । आधुनिक वैयाकरण महाभाष्य विरुद्ध होने से उन्हें हेय समझने हैं काशिकान्तर्गत उदाहरण - प्रत्युदाहरण प्रायः प्राचीन वृत्तियों के अनुसार है जिनसे प्रागैतिहासिक तथ्यों का ज्ञान होता है । काशिका ग्रन्थ साम्प्रदायिक प्रभाव से भी मुक्त है । काशिका जैसे महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ पर अनेक विद्वानों ने कार लिखी हैं वे निम्न हैं : 1. मिनेन्द्र पदि - जिनेन्द्र बुद्धि ने काशिका पर अपनी जो टीका लिखी वे का शिका • विवरण जका' और दूसरी 'न्यास' सबसे प्राचीन है । Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ____ 2. इन्दमित्र - इन्दुमित्र नाम के वैयाकरण ने का शिका की एक 'अनुन्याप्त' नाम की व्याख्या लिखी थी। ___ 3. विद्यासागर मनि - विद्यासागर मुनि ने का शिका की प्रक्रियाम जरी' नाम की टीका लिखी। 4. हरदत्त मिश्र - हरदत्त मिश्र ने का शिका की 'पदम जरी' नाम की व्याख्या लिखी है। ____5. रामदेव मिश्र - ने काशिका की 'वृत्तिप्रदीप' नाम की व्याख्या लिखी । पाणिनीय व्याकरण के प्रक्रिया ग्रन्थकार .पाणिनीय व्याकरण के पश्चात् कातन्त्र आदि अनेक लघु व्याकरण प्रक्रिया क्रमानुसार लिखे गए हैं। इन व्याकरणों की प्रक्रियानुसार रचना होने से इनमें यह विशेषता है कि छात्र इन ग्रन्थों का जितना मार्ग अध्ययन करके छोड़ देता है, उसे उतने विष्य का ज्ञान हो जाता है । पाणिनीय अSC Tध्यायी आदि व्याकरणों के सम्पूर्ण अग्रन्थ का जब तक अध्ययन न हो, तब तक किसी एक विषय का भी ज्ञान नहीं होता, क्योंकि इसमें प्रक्रियाक्रमानुसार प्रकरण रचना नहीं है । अल्पमेन और लाम प्रिय व्यक्ति पाणिनीय व्याकरण को छोड़कर का तन्त्र आदि प्रक्रियानुसारी व्याकरणों का अध्ययन करने लगे, तब पाणिनीय वैयाकरणों ने भी उसकी रक्षा के लिए अCTध्यायी की प्रक्रियाक्रम से पठन-पाठन की नई प्रणाली का आविष्कार किया। विक्रम की 16वीं शताब्दी के पश्चात् पाणिनीय व्याकरण का समस्त पठन-पाठन प्रक्रिया Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थानुसार होने लगा। इसी कारण सूत्रपाठ क्रमानुसारी पठन-पाठन धीरे-धीरे उच्छिन्न हो गया। अनेक वैयाकरणों ने पाणिनीय व्याकरण पर प्रक्रिया ग्रन्थ लिखे हैं। उनमें से प्रधान ग्रन्धकारों का वर्णन आगे किया जाता है - 1. धर्मकीर्ति ।सं0 1140 वि0 के लगभगा। अष्टाध्यायी पर जितने प्रक्रिया ग्रन्थ लिखे गये, उनमें सबसे प्राचीन ग्रन्थ 'रूपावतार' इस समय उपलब्ध होता है। इस ग्रन्थ का लेखाक बौद्ध विद्वान् धर्मकीर्ति है । धर्मकीर्ति ने अष्टाध्यायी के प्रत्येक प्रकरणों के उपयोगी सूत्रों का संकलन करके रचना की है। रूपावतार' का काल वि0सं0 1140 के लगभग माना जाता है । 'रूपावतार' पर अनेक टीकाग्रन्ध भी लिखे गए । 2. रामचन्द्र ।।450 वि0 लगभग। रामचन्द्र ने पाणिनीय व्याकरण पर 'प्रक्रिया कौमुदी' नाम का ग्रन्थ लिखा । यह धर्मकीर्ति विरचित 'रूपावतार' से बड़ा है । परन्तु इसमें अष्टाध्यायी के समस्त सूत्रों का निर्देश नहीं है। पाणिनीय व्याकरणशास्त्र के जिज्ञासु व्यक्तियों के लिए इस ग्रन्थ की रचना हुई है। इस ग्रन्ध का मुख्य प्रयोजन प्रक्रिया ज्ञान कराना है। . रामचन्द्राचार्य का वंश शेष वंश कहलाता है। शेष वंश व्याकरण ज्ञान के लिए अत्यन्त प्रसिद्ध रहा है। रामचन्द्र के पिता का नाम 'कृष्णाचार्य' था । . रामचन्द्र के पुत्र 'नृसिंह' ने धर्मतत्त्वालोक के आरम्भ में रामचन्द्र को आठ व्याकरणों Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 33 का ज्ञाता और साहित्यरत्नाकार लिखा है। रामचन्द्र ने अपने ग्रन्ध के निर्माणकाल का उल्लेख नहीं किया । ____3. विमल सरस्वती ।।400 वि०॥ विमन सरस्वती ने पाणिनीय सूत्रों की प्रयोगानुसारी 'रूपमाला' नाम की व्याख्या लिखी है । इस ग्रन्थ में समस्त पाणिनीय सूत्र व्याख्यात नहीं है । रूपमाला का काल सं0 1400 से प्राचीन माना जाता है । रूपमाला ग्रन्थ में विमल सरस्वती ने अष्टाध्यायी के सूत्रों को विषय का क्रम दिया। पहले प्रत्याहार, संज्ञा और परिभाषा के सूत्रों को और उसके बाद स्वर, प्रकृतिभाव, व्य जन और विसर्ग इन चार भागों में सन्धि के सूत्रों को तथा स्त्री प्रत्यय और कारकों को स्थान दिया। रूपमाला में अख्यात् का प्रकरण विस्तृत है । 4. शेषकृष्ण ।।475 वि0 के लगभग। नृसिंह पुत्र शेषकृष्ण ने प्रक्रियाको मुदी की 'प्रकाश' नामी व्याख्या लिखी। यह रामचन्द्र का शिष्य और रामचन्द्र के पुत्र नृसिंह का गुरु था । प्रक्रिया कौमुदी प्रकाश का दूसरा नाम 'प्रक्रिया-कौमुदी-वृत्ति' भी है। इसका सं0 1514 का एक हस्तलेख पूना के पुस्तकालय में सुरक्षित है । ___5. cोजि दीक्षित भटो जि दीक्षित ने पाणिनीय व्याकरण पर 'सिद्धान्त कौमुदी' नाम की प्रयोगक्रमानुसारी व्याख्या लिखी है। इससे पूर्व के रूपावतार रूपमाला और प्रक्रिया कौमुदी में अष्टाध्यायी के समस्त सूत्रों का सन्निवेश नहीं था । इस न्यूनता को पूर्ण Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34 करने के लिए भट्टोजि दीक्षित ने 'सिद्धान्तकौमुदी' ग्रन्थ रचा। सम्मृति समस्त . भारतवर्ष में पाणिनीय व्याकरण का अध्ययन-अध्यापन इसी सिद्धान्त कौमुदी के आधार पर प्रचलित है । मटोजि दीक्षित ने सिद्धान्त कौमुदी की रचना से पूर्व 'शब्द कौस्तुभ' लिखा था । यह पाणिनीय व्याकरण की सूत्रपाठानुसारी विस्तृत व्याख्या है । टोजि दीक्षित महाराष्ट्रिय ब्राह्मण है। इनके पिता का नाम लक्ष्मीधर था । पण्डित राज जगन्नाथ कृत प्रौद मनोरमा खण्डन से प्रतीत होता है कि मोजि दीक्षित ने नृसिंह पुत्र शेषकृष्ण से व्याकरण शास्त्र का अध्ययन किया था । मोजी दीक्षित ने भी 'शब्दकौस्तुभ' में प्रक्रियाप्रकाशकार शेषकृष्ण के लिए गुरु शब्द का व्यवहार किया है। दीक्षितजी का समय 1570 से 1650 के मध्य स्वीकार किया गया है का खण्डन स्थान-स्थान पर किया ति गण्या cोजि दीक्षित ने स्वयं सिद्धान्त कौमुदी की व्याख्या लिखी है । यह 'प्रौद मनोरमा' के नाम से प्रसिद्ध है। इसमें प्रक्रिया को मुदी और उसकी टीकाओं का खण्डन स्थान-स्थान पर किया है । दीक्षित जी ने 'यथोत्तरं मुनीनां प्रामाण्या पर बहुत बल दिया है। प्राचीन ग्रन्धका र अन्य वैयाकरणों के मतों का भी प्राय: संग्रह करते रहे हैं परन्तु मटीजि दीक्षित ने इस प्रक्रिया का सर्वथा इच्छेद कर दिया। भोजि दीक्षित कृत 'प्रौढमनोरमा' पर उसके पौत्र हरि दीक्षित ने Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 35 'वृहच्छब्दरत्न' और 'लमाब्दरत्न दो व्याख्याएँ लिखी हैं । कई विद्वानों का मत है कि लघु शब्द नागेशमदद ने लिखाकर अपने गुरु के नाम से प्रसिद्ध कर दिया । आचार्य वरदराज सिद्धान्तकौमुदीकार को जि दीक्षित के शिष्य प्राचार्य वरदराज ने 'लघु सिद्धान्त कौमुदी' की रचना की । इनका समय 17वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में स्वीकार किया गया है। ये भट्टो जिदीक्षित के समकालीन थे । प्रौढ़ जिज्ञासुओं के लिए वरदर राजाचार्य ने 'मध्य सिद्धान्त को मुदी' नामक दूसरा भी ग्रन्थ लिखा । परन्तु 'मध्यको मुदी' लघु सिद्धान्त कौमुदी की भाँति लोकप्रिय न हो सकी । लघु को मुदी संक्षेप में है - -------- करोम्यहम् । पाणिनीयप्रवेशाय लघुसिद्धान्तकौमुदीम्" की अपनी प्रतिज्ञा में आचार्य वरदराज सर्वथा सफल हैं । परन्तु 'मय सिद्धान्तकौमुदी में न तो विशेष सक्षम ही हो पाया और न पूरी अष्टाध्यायी ही उसमें समाविष्ट हो पाई है । लघु सिद्धान्त को मुदी का परिमाण 32 HEार के छन्द अनुष्टुप् की संo से 1500 है । व्याकरण जिज्ञासु लघु सिद्धान्त कौमुदी का अध्ययन करते हैं और प्रौट मति मध्य सिद्धान्त कौमुदी का ही अध्ययन करना पसन्द करते हैं क्योंकि लगभग 4000 सूत्रों में से 2315 सूत्र तो मध्य सिद्धान्त को मुदी में भी पढ़ने पड़ते ही हैं । इसके विपरीत लघु सिद्धान्त को मुदी में कुल 1277 सूत्र ही लिए गए हैं। यह कौमुदी मध्य को मुदी की अपेक्षा संक्षिप्ततर ही नहीं है अपितु इसका प्रकरण विन्यास क्रम भी अधिक युक्तिसंगत है । यह इस प्रकार है - 1. संज्ञाप्रकरण, 2. सनि, 3. सुबन्त, 4. अव्यय, 5. हिन्त 6. प्रक्रिया, 7. कृदन्त, 8. कारक, १. समास, 10 तद्वित एवं ।।. स्त्री-प्रत्यय । पाणिनीय व्याकरण शास्त्र के प्रविविक्षों के लिए यह Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थ अमोघ वरदान सिद्ध हुआ है । आचार्य वरदराज कृत लघु सिद्धान्त कौमुदी में महर्षि कात्यायन द्वारा रचित वार्त्तिकों का उल्लेख किया गया है । वे वार्त्तिक प्रकरणानुसार इस प्रकार हैं : 1. सज्ञाप्रकरण वर्णयोर्मिथः सावर्ण्यवाच्यम् । 2. सन्धिप्रकरणम् - यणः प्रतिषेधो वाच्यः, अध्वपरिमाणे च, अक्षादुहिन्यामुपसंख्यानम्, प्रादूहोटोदयेषेष्येषु ते च तृतीया समासे, प्रवत्स तर कम्बल वसनार्ण दशानामृणे, शकन्ध्वादिषुपररूपं वाच्यम्, न समासे, अनाम्नवति नगरीणामिति वाच्यम् प्रत्यये भाषायां नित्यम्, यवल परे यवला वा, चयो द्वितीया: शरि पौष्कर सादेरिति वाच्यम्, संपुंकानां सो वक्तव्यः । , 36 3. सुबन्तप्रकरण तीयस्य डित्सुवा, नुम - अचि-र-तृज्वद्भावे भ्यो नुद पूर्व विप्रतिबेधो वाच्यः, एकतरात् प्रतिषेधो वक्तव्यः, औड. श्यांप्रतिषेधो वाच्यः, एकतर रात् प्रतिषेधो वक्तव्यः व्रदयौ त्वज्व तृज्वभावगुणेभ्योनुमपूर्व विप्रतिषेधेन, डावुत्तरपदे प्रतिषेधो वक्तव्यः, परौ ब्रजेः षः पदान्ते एकवाक्ये युष्मदस्मदादेशाव क्तव्याः, एतेवान्नावादयो नन्वादेशे वा वक्तव्या:, अस्य सम्बुद्धौ वा नड. नलोपश्च वाच्यः, अन्वादेशे नपुंसके एनद वक्तव्यः, सम्बुद्धौ नपुंसकानां नलोपो वा वाच्यः । - " 4. तिडन्त प्रकरण दुरः षत्वणत्वयोरुपसर्ग त्वप्रतिषेधो वक्तव्यः, अन्तशब्दस्या, विधिगत्वेषूपसर्गत्वं वाच्यम्, सिज्लीप एकादेशे सिद्धावाच्यः, कास्येनेकाच आमवक्तव्य - - Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमेश च्लेश्चड. वाच्यः, उर्णोते रामनेतिवाच्यम्, इर इत्संज्ञा वाच्या, वुग्वुटी उवडयणोः सिद्धौ वक्तव्यौ, किडतिरमागमं बाधित्वा सम्प्रसारणं पूर्व प्रतिषेधेन, स्पृश-मृश-कृष-तूपदुपां च्ले: सिज्वा वाच्यः, शे तुम्फादीनां नुम्वाच्यः, मस्जेरन्त्यात् पूर्वी नुम्वाच्यः, अड. अभ्यास- व्यवाये पि सुटका त्पूर्व इति वक्तव्यम् सर्वप्रातिपदिकेभ्यः किब्बा वक्तव्यः प्रातिपदिकाद धात्वर्थं बहुलं इष्ठवच्च । " 37 5. कृदन्त प्रकरण केलिमर उपसंख्यानम् मूल- विभुजाडड दिभ्यः कः, क्कि ब् वचिप्रच्छ्यायत-स्तु-कट प्र-जु- श्रीणां दीर्घौ सम्प्रसारणं च घ थे क-विधानम्, 日 ल्वादिभ्यः क्तिन निष्ठाववाच्यः, सम्पादिभ्यः क्विप् । > " > 6. समास प्रकरण इवेन समासो विभक्त्यलोपश्च समाहारे चाश्रयमिष्यते, अर्थेन नित्यसमासो विशेषलिङ्गता चेति वक्तव्यम्, सर्वनाम्नो वृत्तिः मात्रे पुंवद्भावः द्वन्द्व तत्पुरुषयोरुत्तरपदे नित्यमासवचनम्, शाकपार्थिवा दीनां सिद्धये उत्तरपदलोपस्योपसंख्यानम्, प्रादयो गताद्यर्थे प्रथमया अत्यादयः कान्ता द्यर्थे द्वितीयया, अवा दय: क्रुष्टा द्यर्थे' तृतीयया, पर्यादयोग्लाना द्यर्थे चतुर्थ्यां परिगलानो ध्ययनाय पर्यध्ययनः निरादयः क्रान्ता द्यर्थे प चम्या, गतिकारकोपपरानां कृभिः सह समाप्त - वचनं प्राक सुबुल्पत्तेः संख्या - पूर्व रात्रल्कीवम्, द्विगु-प्राप्रा पन्ना लंपूर्व - गति समासेषु प्रतिषेधो वाच्यः, प्रदिभ्यो धातुजस्य वाच्यो वा चोत्तरपदलोपः, नी हत्यर्थानां वाच्यो वा चोत्तरपदलोपः, धर्मा दिष्वनियमः । 7. तद्वितप्रकरण - स्वातिभ्यामेव, देवाय. अ, बहिषष्टिं लोपो य. च, • च, सर्वत्र गोः । अय् जू आदि प्रसङ्गे यत्, लोम्नो पत्येषु बहुष्वकारो वक्तव्यः ई ककू Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38 राज्ञो जातवेव इति वाच्यम् , क्षत्रिय-समानशब्दात-जनपदात्-तस्य राजनि अपत्यवत्, पूरोरण वक्तव्यः, पाण्डोडर्यण , कम्बोजा दिभ्य इति वक्तव्यम् , तिष्य-पुष्ययोनक्षत्रा णि यलोप इति वाच्यम् , भस्या दे तद्विते-इति पुवंदभावे कृते गज सहायाभ्यां चेति वक्तव्यम् , अह्नरवः क्रतो, अवारपाराद विगृहीतादपि विपरीतात् च इति वक्तव्यम् , अमेहं क्क-तप्ति-त्रेभ्य एव, त्यब् ने वे इति वक्तव्यम् वा नामधेयस्य वूद्धसंज्ञा वक्तव्याः, अव्ययानां भ-मा टि-लोपः, अध्यात्मा देः 'ठ,' अइष्यते, अधमनो विकारे टि-लोपो वक्तव्यः, अधर्मात् इति वक्तव्यम् , नाभि नभं च, पृथु-मृद्धमृा-कृधा, -दृढ परिवृद्धानामेवर त्वम् , गुणवचनेभ्यो मतुपो लुण् इष्ट:, प्राण्यगाद्र एव, अन्येभ्यो पि दृश्यते, अमोलोपश्च, दृशि ग्रहणाद् भवद' आदियोग एव, एतदो पि वाच्यः अनेन एतेन वा प्रकारेण इत्थम् ओकार-सकार-भकारा दौ सुपि सर्वनाम्नष्ट: प्रागकर अन्यत्र तु सुबन्तस्य टेः प्रागः अकच, सर्व-प्रातिपदिकेभ्यः स्वाथें कन् , आधादिभ्यस्तरूपसंख्यानम् , अभूत-तदभाव इति वक्तव्यम् विकारा त्मतां प्राप्नुव त्यां प्रकृतौ वर्तमानादविकार शब्दात स्वार्थेच्विास्यात् करोत्यादिभियोंगे, अव्ययस्य च्वावीत्वं न इति वाच्यम् डापि च दे बहुलम् , नित्यम् आमेडिते डाचि इति वक्तव्यम्, न. । 8. स्त्रीप्रत्यय प्रकरणम् - स्न. - इकक् - ख्युन-तरुण-तनुनानामुपसंख्यानम् , आम अनुहः स्त्रियां वा, पालका न्तात् न, सूर्याद देवतायां चाप वाच्यः, सूर्या गस्त्ययोश्छे बडयां च य-लोपः, हिमा रण्ययोमहत्त्वे, यवाद दोघे, यवनात् लिप्याम् , मातुलोपाध्याययो: 'आनुक' वा, आचार्याद अणत्व, अर्य-क्षत्रियाभ्यां वा स्वाथे, योपगवय-मुकपमनुष्यमत्स्यानाम् अप्रतिषेधः, मत्स्यस्यडयाम, श्वशरत्यो काराकारलोपश्च । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ XXXXX XXX XXXXX XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX प्रथम प्रकरणम् XXXXXXXXXXX Xxxxxxxxxxx संज्ञा प्रकरणम् Xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अलुवर्णयो मिथ: सावर्ण्य वाच्यम् यह वार्तिक "तुल्यास्यप्रयत्न सवर्णम्' इस सूत्र के भाष्य में वाहिककार ने 'प्रकार लकारयोः सवर्ण विधि: ' इसे आनुपूर्वी रूप से पढ़ा है। उसी के फलितार्थ रूप से यह वा तिक लघु सिद्धान्त कौमुदी में उपन्यस्त है । यहाँ 'मिथः ' यह पद प्रत्यासत्ति न्याय से लब्ध है । स्पष्ट प्रतिपत्ति के लिए कौमुदीकार ने वार्तिक में रखा है । मूलवार्तिक में अकार, तृकार का किसी अन्य वर्ण के साथ सावर्ण्य नहीं कहा गया है अतः इन दोनों वर्गों का ही परस्पर सावर्ण्य परिशेषतया सिद्ध होता है। अत: 'मिथ: ' पद देना संगत है । 'अलुवर्णयो: ' का विग्रह इस प्रकार है । 'आच-आच रलौ तौ च वर्गों अनुवण्यौं त्यो रिति' अथवा 'आच तृवर्णवच ऋलवतयो रिति । ' पहला व्याख्यान द्वन्द्रगर्भकर्मधारय है । मनोरमाकार ने इसी व्याख्यान को प्रदर्शित किया है। द्वितीय व्याख्यान में 'लु' शब्द का वर्ण शब्द के साथ ही कर्मधारय है। तत्पश्चात् ऋ के साथ दन्द्र है । शेखर कार ने इस व्याख्यान का समर्थन किया है । अलु इन दोनों वणों के प्रथमा के एकवचन में 'T' यह रूप 1. लघु सिद्धान्त को मुदी संज्ञा प्रकरणम्, पृष्ठ 17. 2. अष्टाध्यायी, 1/1/9. 3. आच आच रलौ तौ च तो वणों चेति विग्रहः । प्रोट मनोरमा संज्ञा प्रकरणम्। 4. आ च लवणेचे ति विग्रहः । ।लघु पाब्देन्दु शेषार संज्ञा प्रकरणम्, पृष्ठ 36।। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40 होता है। इस वार्तिक के द्वारा 'अ लू' का स्थान भेद होने से 'तुल्यात्यप्रयत्न सवर्णम्' सूत्र से सवर्ण संज्ञा के प्राप्त न होने पर अपूर्व सवर्ण संज्ञा का विधान होता है । अत: यह वार्तिक वाचनिक है, यह स्पष्ट है। महाभाष्य' में इस वार्तिक का 'होत + लृकारः = होतृकार: ' यह आपाततः प्रयोजन दिखाया गया है। 'सकार' और 'लुकार' की परस्पर सवर्ण संज्ञा के न होने से होत + तृ कार में सवर्ण दीर्घ नहीं प्राप्त हो सकेगा । सवर्ण संज्ञा हो जाने पर सवर्ण दीर्घ सिद्ध हो जाता है । 'अ लु' के स्थान में उसका अन्तरतम कोई दीर्घ ही होना चाहिए । 'लु' समुदाय का अन्तरतम कोई दीर्घ नहीं है। मूर्धदन्त स्थानीय कोई एक दीर्घ नहीं होता है अत: 'लू' के सवर्णी '' का द्विमात्रिक 'ऋ' दीर्घ प्रसिद्ध है अत: वही होता है। यह प्रयोजन 'अतिनवा' 'लृतिनुवा ' इन दोनों वार्तिक को स्वीकार करने से अन्यथा सिद्ध हो जाता है । यह भाष्यकार2 का कथन है सवर्ण संज्ञा सूत्र पर ये दोनों वार्तिक पढ़े गए हैं। इन दोनों वार्तिकों का व्याख्यान आगे किया जाएगा । लुतिवा' इस वार्तिक में 'वा' ग्रहण से दीर्घ का भी अपूर्व विधान होता है । 'वा' शब्द दीर्घ का समुच्चयक है । 'लू परे रहते 'लु' होता है तथा दीर्घ भी होता है । इस प्रकार वार्तिक रीति से 'होत्तृकार' ------- 1. 'अकारलु कारयोः सवर्ण संज्ञा विधेया । होकारः होतकारः । किं प्रयोजनम् ? अक: सवणे दीर्घः' इति दीर्घत्वं यथा स्यात् । महाभाष्य 1/1/91. 2. नेतदस्ति प्रयोजनम् । द६ यत्येतत् 'सवर्ण दीर्घत्वे अति अवा वचनम् ' "लुतिल्लुवा विही 1/1/91. Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में कदाचित् 'लू' होगा तथा कदाचित् दीर्घं होगा । वह दीर्घ '' ही होगा | अत: ' लृ ' में सवर्ण संज्ञा का प्रयोजन इसी प्रकार गतार्थ हो जाता है । उसके लिए सवर्ण दीर्घ विधि तथा 'ऋ लृ ' की सवर्ण संज्ञा की आवश्यकता नहीं है । यह कथन प्रदीप एवं पदमञ्जरी' में स्पष्ट रूप से विद्यमान है । यद्यपि 'लृति लृवा' इस वार्त्तिक में सवर्ण पद की अनुवृत्ति आवश्यक है अतः पाक्षिक दीर्घ के लिए सवर्ण संज्ञा अपेक्षित है तथापि 'तिवा ति के स्थान पर 'त: यह पञ्चम्यन्त पाठ कर देने से उक्त आपत्ति का निरास हो जाता है । जैसे 'प्रतिवा इसमें सवर्ण के साथ सम्बन्ध होने पर 'होतृलुकार' ने इस वास्तिक में तथा 'अति' के स्थान पर 'अतः ' करने पर 'त' केसवर्णी परे '' तथा दीर्घ होता है । 'लृति लृवा' इस वार्त्तिक में 'ऋत: ' का सम्बन्ध होता है 'सवर्णे' यह पद निवृत्त हो जाता है । 'त' को 'लृति' परे रहते 'लूं' तथा दीर्घ होता है। यह अर्थ सम्पन्न हो जाता है । इस प्रकार 'होलृकार' में दीर्घ 'ऋ' सिद्ध हो जाता है । उस समय 'ऋ लृ ' की सवर्ण संज्ञा की अपेक्षा नहीं रह जाती है । 'होकार' के प्रयोजन को अन्यथा सिद्ध हो जाने पर 'ऋ लृ ' की परस्पर संज्ञा का - 1 1. तत्र 'लुवा वचनम्' इत्यत्र दीर्घ इत्यनुवर्तत । तत्र लृति लृ शब्दे विकल्पिते अप्राप्त एव पक्षे दीर्घो भविष्यति । महाभाष्य प्रदीप 1/1/9. 2. तत्रश्वति + वा वचनमित्यत्र वा शब्दों दीर्घस्य समुच्चयार्थ । पदमञ्जरी 1/1/9. Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयोजन 'प्रत्यक: । 'उपसादृति धातौ', 'वा सुप्यापि शले: ” इत्यादि सूत्रों में 'कार' ग्रहण से 'तृकार' ग्रहण ही रह जाता है । सवर्ण संज्ञा होने पर ग्रहणकशास्त्र के बल से 'सकार' ग्रहण से 'सवीं लृकार' का भी ग्रहण हो जाता है । अतः 'ट्वल कार: ' में 'अत्यक: ' से प्रकृतिभाव 'उपाल्कारयति' में वा सुप्या पिशले: ' सूत्र से पाक्षिक वृत्ति सिद्ध होती है । भाष्यकार ने भी कहा है 'प्रकार " के ग्रहण में 'लू कार ' ग्रहण भी सन्निहित होता है । ' 'ऋत्य कः ' 'सदवश्य', 'मालऋश्यः' यह भी सिद्ध हो जाता है । सवलकारः, माल लूकारः इति । 'वासुप्या पि शले : ' इससे उपकारीयति, उपाकारीयति तथा यह भी सिद्ध होता है उपल्का रीयति, उपाल्कारीयति'कार' 'M' के सवर्ण होने से 'अकार' के द्वारा सवर्ण ग्रहण विधि से 'लुकार' के ग्रहण होने पर भी 'नाग्लो पिशास्वृदिताम्' 'पुजादिद्युतालुदित:परस्मैपदेषु' इत्यादि सूत्रों में अदित्व, लूदित्व प्रयुक्त कार्यों का परस्पर साकर्य भी नहीं होता है क्योंकि आणु, गम्ल इत्यादि धातुओं में 'लू' का पृथक्-पृथक् अनुबन्ध किया गया है अन्यथा एक ही अनुबन्ध करना चाहिए था । यह तथ्य कैय्यट' द्वारा लिखित 1. अष्टाध्यायी 6/1/128. 2. वही, 6/1/91. 3. वही, 6/1/92. 4. महाभाष्य 1/1/9. 5. ASC Tध्यायी 7/4/2. 6. वही, 3/1/55. 7. अदिता लुदितां च नेदन्नानुबन्धनिर्देशात भेदेन चोपादानादनुबन्ध कार्येषु परस्पर ग्रहणा भावात सकय भावः । महाभाष्य प्रदीप I/II Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रदीप एवं हरदत्तकृत पदम जरी' ग्रन्ध में स्पष्ट रूप से विवे चित है । यहाँ ध्यान देने की आवश्यकता इस बात की है कि 'अकार लूकार' की परस्पर 'सवर्ण' संज्ञा होने पर भी परस्पर 'ग्राहकत्व' सार्वत्रिक नहीं है । 'लू ऋ' के पृथक अनुबन्ध करण के सामर्थ्य से उपर्युक्त तथ्य निर्धारित किया गया है । अतः 'सप्तशिखः ' इत्या दि प्रयोगों में 'गुरोरनृतोऽनन्त्यस्याप्येकैकस्य प्राचाम्' इत्यादि सूत्र से प्लुत सिद्ध हो जाता है अन्यथा 'अनृत: ' यह प्रतिषेध हो जाने से कृप्लुत की सिद्धि नहीं हो सकती थी तथा प्यमानम्' इत्यादि प्रयोगों में णत्वभाव सिद्ध हो जाता है। अन्यथा 'अ' ग्रहण से 'लु' के भी ग्रहण हो जाने से 'अवर्णन्नत्यनत्वम्' इससे जैसे मातृणाम् में 'णत्व' होता है वैसे ही उपर्युक्त प्रयोग में भी होता है । नागेश ने स्पष्ट ही कहा है कि 'पृथक् अनुबन्धकरया सम्बन्ध से अनुबन्ध कार्य के असाइकर्य का ज्ञापन न कर 'म लु' के परस्पर ग्राहकत्व का ही कदा चित्कत्व ज्ञापन करना उचित है । इसी से अनुबन्धकायर्या सार्य भी सिद्ध हो जाता है । कहाँ पर 'म लु' का ग्राहकत्व है १ कहाँ पर नहीं है ? इसकी लक्ष्यानुसार ही व्यवस्था की जाती है । भाष्यकार ने तो 'श्वानस्यणत्वम्' इस वार्तिक में 'अकार' ग्रहण से 'लुकार' ग्रहण की अति प्रसक्ति को उभा वित कर तथा 'मृप्यमानम्' इस प्रयोग में 1. अदिता लुदितां च धातुनां पृथगुपदेशनामध्यदिनुबन्धकार्याणाम् सङ्कर्यः । पदमञ्जरी ।/9/9. 2. न च 'उप्तशिखः ' इत्यादौ 'अनृत' इति निधात् प्लुतानापत्तिः । अनुवर्णयोः पृथगनुबन्धत्वकरणम क्वचित्परभ्यराग्राहकत्वकल्पनेनादोधात् । लझाब्देन्दु शेलार संज्ञा प्रकरणम्, पृष्ठ 36. Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णत्व का आपादन कर 'वर्णैकदेशावर्णग्रहणेन गृह्यन्ते' इत न्याय के आश्रयण के द्वारा मातृणाम् इत्यादि प्रयोगों में प्रकार के एकादेश रेफ को ग्रहण कर 'राभ्यां नो ण: समानपदे'। इस सूत्र से णत्व की सिद्धि किया है और अवर्णानस्य इस वार्तिक का प्रत्याख्यान कर दिया है । 'लुवनित्य णत्वम्' इस वचन के प्रत्याख्यान कर देने से ही 'कनृप्यमानम्' इस प्रयोग की णत्वापत्ति वारित हो जाती है । 'मलूक' सूत्र के भाष्य में लू कार के प्रत्याख्यान के अवसर पर लिखा है 'वर्णतमा नाय में लू कार के उपदेश नहीं रहने पर भी तृप्त इत्यादि प्रयोगों में एकदेशविकृतम न्यवत् इस न्याय से प्रकार के द्वारा लूकार के भी ग्रहण होने से 'क्लृप्तशिल: ' इत्यादि प्रयोगों में ' 'गुरोरनृतोऽनन्त्यस्याप्ये कैकस्य प्राचाम्" इस सूत्र से प्लुत नहीं हो पाएगा। इस प्रश्न का समाधान भाष्यकार ने 'अनृतः ' इस पद के स्थान पर 'अरवत' ऐसा न्यास करके समाहित किया है । प्रकार के द्वारा लूकार के ग्रहण होने पर भी लृकार में 'अनृत' यह प्लुत प्रतिषेध नहीं लग सकता है । वह प्रतिषेध प्रकार निमित्तक न होकर रेफ्व त्व निमित्तक है । लकार रेफ्वान् नहीं है । यही भाष्य का आशय यहाँ ध्यातव्य यह है कि प्रकार से लूकार के ग्रहण होने पर जो-जो दोष आए हैं उनका परिहार भाष्यकार ने विविध उपायों से किया है किन्तु पृथक् अनुबन्धकरण को प्रकार लुकार का परस्पर ग्रहण सर्वत्र नहीं होता । इसमें ज्ञापक 1. अष्टाध्यायी 8/4/1. 2. अष्टाध्यायी 8/2/86. Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं माना है फिर भी 'कार' और 'लृकार' के 'इत्संज्ञा' प्रयुक्त कार्यों में परस्पर साइक रोकने के लिए पृथक अनुबन्धकरण को ज्ञापक मानना आवश्यक है । इतने से ही सभी स्थलों में दोष का निवारण हो जाता है । इसीलिए नागेशभ आदि आचार्यों ने लाघव होने से इसी मार्ग का अनुसरण किया है । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx द्वितीय प्रकरणम् xxxxwoooooooook सन्धि प्रकरणम् kxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यणः प्रतिधो वाच्यः । यह वार्तिक 'संयोगान्तस्यलोप: 2 इस सूत्र के भाष्य में पढ़ा गया है । वहाँ 'संयोगान्तस्य लोपे यणः प्रतिषेधः ' 'संयोगादि लोपे च ' ये दोनों वार्तिक पढ़े गए हैं। इनसे यण का संयोगा दि लोप और संयोगान्तलोप प्रतिषिद्ध होता है। पहले वार्तिक में 'यण' यह पद 'कठयन्त' है । द्वितीय वार्तिक में 'प चम्यन्त' है। इस प्रकार प्रथम वार्तिक का अर्थ होता है संयोगान्त जो यण है उसका लोप नहीं होता है । द्वितीय वार्तिक का अर्थ यण के पूर्व में जो 'सकार' और 'कवर्ग' संयोगादि लोप नहीं होता है । 'तस्मा दित्तयुत्तरस्य ' इस परिभाषा के रहने पर भी यण के परे संयोगादि लोप के विष्य भूत 'सकार' और 'कवर्ग' नहीं मिलता है। इस लिए यण के पूर्व 'सकार और क्वर्ग' यह अर्थ मानना चाहिए । यणः इसमें पूर्वसंयोगात्व लक्षणा प चमी है। पर योग लक्षणा नहीं है क्योंकि परत्व का बाध है । 'यणः प्रतिषेधो वाच्यः : इस संयोगान्त लोप प्रतिषेधक वार्तिक का सिद्धान्त कौमुदी में 'सुधी उपास्यः', 'दध्यत्र, मध्वत्र यह उदाहरण दिया गया है । संयोगादि लोप प्रतिषेधक द्वितीय वार्तिक का उदाहरण 'का क्यर्थ वास्यर्थ' यह दिया गया है । यहाँ पर 'का क्यवास्य' जो पद उस के अन्त में जो ककार यकार तथा सकार यकार का संयोग उसके आदि में विद्यमान सकार ककार का लोप प्राप्त 1. लघु सिद्धान्त कौमुदी, अच् सन्धि प्रकरणम् , पृष्ठ 31. Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होता है, उसका निषेध उस वार्तिक से होता है । यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि आचार्य वरदराज ने लघु सिद्धान्त को मुदी में 'यणः प्रतिषेधो वाच्यः ' यह वार्तिक का स्वरूप लिखा है। महाभाष्य में लिखित वार्तिक का स्वरूप अमर दिखाया जा चुका है। श्रीवरदराज का यह आशय है कि 'का क्यर्थ वास्यर्थ' इत्यादि प्रयोगों में 'सकार ककार' के लोप का प्रतिरोध करने वाले वार्तिक की आवश्यकता नहीं है । यहाँ पर 'स्था निवत भाव' कर देने से संयोगादि लोप का वारण हो जाता है । अतः संयोगान्ततोप का निषेधक प्रथम वार्तिक ही करना चाहिए । संयोगा दि लोप प्रतिषेधक वार्तिक के आरम्भ पक्ष में यह बात कही जा सकती है कि 'का क्यर्थ वास्यर्थ' इत्यादि में 'स्था निवत् भाव' से इष्ट सिद्धि होने पर भी ऐसे स्थन पर 'स्था निवत् भाव' की प्रवृत्ति के लिए 'तस्य दोषः ' 'संयोगा दि लोप ल त्वणत्वेषु' इस वचन का जैसे आरम्भ है उसी प्रकार से सेयोगादि लोप निषेधक इस वार्तिक वचन का प्रारम्भ किया जा सकता है क्योंकि एक उपाय दूसरे उपाय को दूषित नहीं कर सकता है अर्थात् 'का क्यर्थ वास्यर्थ' यहाँ सकार ककार' के लोप का निधेट 'स्था निवत् भाव' से अथवा 'संयोगादि लोपे च' इस वार्तिक के द्वारा किया जा सकता है। ये सारी बातें इसी सूत्र के प्रदीप' और उद्योत' ग्रन्थों में - - - - - - - - - - - - - - - 1. का क्यर्थमिति । 'तस्य दोषः संयोगा दिलोपलक्ष्यणत्वेध्विति वचनात स्थानिवद भावादापि परिहत् शक्यः' महाभाष्य प्रदीप 8/2/23. 2. 'तस्यदोष इति । एवञ्च तदनाश्रयणेद मितिभावः ।' महाभाष्य उद्योत 8/2/23. Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पष्ट है । वस्तुतः 'यणः प्रतिधो वाच्यः ' संयोगा दि लोप विष्यक वार्तिक भी प्रकारान्तर से सिद्ध लोपभाव का अनुवादक मात्र है कोई अपूर्व वचन नहीं है । इसी लिए मनोरमा कार ने वाच्यः का अर्थ'व्याख्येयः ' ऐसा कहा है । वार्तिककार ने भी संयोगान्त यण लोप के निषेध के लिए अपूर्व वचन की जगह पर उपायान्तर का भी प्रदर्शन किया है जैसे - 'नवाइलोलोपात् विधाना बहिरङ्गलक्षणत्वाद वा' इन दो वार्तिकों से संयोगान्त लोप का प्रतिधाक हो जाता है । भाष्यकार ने भी इन दोनों दार्तिकों के व्याख्यान में स्पष्ट सप से कहा है कि 'यणः प्रतिधो वाच्यः' इस अपूर्व वचन की आवश्यकता नहीं है क्योंकि 'संयोगान्तस्य लोपः ' 'संयोगान्त झाल' का ही लोप करता है । यण् झल के बाहर है अत: उसका लोप नहीं हो सकता । महावैयया करण कैय्यट' के मतानुसार बालू ग्रहण का सम्बन्ध संयोगादि लोप तथा संयोगान्त लोप दोनों में होता है । अन्तर इतना है कि 'बाल: यह पद 'संयोगान्त लोप' में 'ठयन्त' होकर तथा 'संयोगा दिलोप' में 'पञ्चम्यन्त' रूप से सम्बद्ध होता है किन्तु नागेश म के मतानुसार 'झल ' ग्रहण का ---------- 1. न वेति । झालोझाली त्यत: सिंहावलोकित न्यायेन झल्ग्रहणमिहाऽनुवर्तते । तत् कठया विपरणम्यत इति यगोलोंपाभावः । 'स्को: संयोगाद्योरि त्यत्र तु प चम्यन्तमेव सम्बध्यते, तेन झाल : पूर्वयो: स्कोलौंप विधानाधणः पूर्वयोलोपाडभावः ।। महाभाष्य प्रदीप 8/2/23. 2. वस्तुतस्तु झाल्ग्रहणस्य संयोगान्तलीप सूत्र एव सम्बन्धो न तु स्कोरित्यत्र 'झालोलोप: संयोगान्ततोप' इति भाष्य स्वरसा दित्याहुः ' महाभाष्य उद्योत 8/2/23. Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्बन्ध केवल 'संयोगान्त लोप' में ही होता है । यहाँ पर कैय्यट' और सिद्धान्त को मुदीकार दीक्षितजी का मत समान है क्योंकि 'संयोगान्तस्य लोपः इस सूत्र से 'झाल' पद की अनुवृत्ति से संयोगान्त 'इल' का ही लोप होता है अतएव भटोजी' दीक्षित ने लिखा है - 'बालोझलि 2 'बलग्रहणमप्य कृष्यसंयोगान्तस्य झालोलोप विधानात' 'बहिरङ्गलक्षणत्वात् वा' इस वार्तिक से भी यण का प्रतिषेध सम्भव हो जाता है । इसका यह भाव है 'यणः प्रतिषेधो वाच्यः ' यह वार्तिक करने की आवश्यकता नहीं है । यण के बहिरश होने से असिद्ध हो जाने के कारण संयोगान्त लोप नहीं होगा। जैसा कि महाभाष्यकार ने कहा है 'यणादेश बहिरङ्ग' है लोप अन्तरग है, अन्तरग की दृष्टि बहिरङ्ग अ सिद्ध होता है ।' पददय और वर्णद्वय के सम्बन्धी होने से यणादेश बहिरग है । पदद्वय मात्र सम्बन्धी होने से लोप अन्तरङ्ग है । असिद्ध बहि रशमन्तरछे' यह परिभाषा छठवें अध्याय के सूत्र पर ज्ञापित है अतः उसकी दृष्टि में त्रैपादिक अन्तरङ्ग शास्त्र असिद्ध हो जाता है। फिर भी यथोदेश पक्षा में पादिक कार्य में भी इस परिभाषा की प्रवृत्ति मानी गई है । घोषार कार के मत से कार्यकाल पक्षा में भी पा दिक अन्तरग कार्य में भी इस परिभाषा की प्रवृत्ति मानी गई है । अतः यथोदेश और कार्य का दोनों पक्षों में संयोगान्त यण् लोप का प्रतिवेध सम्भव हो जाता है अत: 'यणः प्रतिषेधों वाच्यः ' यह वाक्य अपूर्व नहीं है अपितु 'यणः प्रतिषेधो व्याख्येयः' इस अर्थ का प्रतिपादक है । ।. प्रौढ मनोरमा असन्धि प्रकरणम् , पृष्ठ 131. 2. टाध्यामी 8/2/26. Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्वपरिमाणेच ' 'वान्तोयि प्रत्यये " इस सूत्र भाष्य में 'गोर्यूतौ छन्दसि' तथा 'अध्व परिमाणे च' ये दोनों वार्त्तिक पढ़े गए हैं । प्रथम वार्त्तिक में 'उपसंख्यानम्' यह पद अधिक जोड़ा गया है । द्वितीय वार्त्तिक इसी रूप में पढ़ा गया है । इस वार्त्तिक के द्वारा 'पूति' शब्द परे रहते 'गो' शब्द के 'ओकार' को वेद में 'वान्त' । अव् आदेश होता है । इसका उदाहरण है 'आनोमित्रावरुणा धृतेर्गव्यूती मुक्षतम् ' भाष्य में दिया गया है । 'अध्वपरिमाणे च' इस द्वितीय वार्त्तिक में प्रथम वार्त्तिक से 'गोर्यूतौ ' का सम्बन्ध होता है । इसका अर्थ है गो शब्द घटक ओकार को पूति शब्द परे रहते मार्ग का परिमाण गम्यमान हो तो वान्त 13 व आदेश होता है । यह वार्त्तिक 'अध्वपरिमाण' अर्थ में गो शब्द की यूति परे रहते लोप में भी वान्त अ व आदेश विधान करने के लिए है । वेद में अध्वपरिमाण अर्थ में भी पूर्व वार्तिक से वान्त ॥ 3 आदेश सिद्ध होता है । इसी अर्थ के अभिप्राय से हरदत्त ने कहा है कि 'अध्वपरिमाणे च' यह वार्त्तिक लौकिक प्रयोग के लिए है । न्यासकार ने भी कहा है कि यह वचन सामान्यतः है । इससे लोक में भी वान्त ॥ व् । आदेश सिद्ध होता है । इस प्रकार यह वार्त्तिक भाषा में पूर्वं वार्त्तिक मे अप्राप्तवान्त अ व आदेश के विधान के लिए है और वह अध्वपरिमाण में ही 1. लघु सिद्धान्तकौमुदी, अच्सन्धि प्रकरणम्, पृष्ठ 35. 2. अष्टाध्यायी 6/1/79. Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होता है । इस लिए इस वार्तिक का उदाहरण भाष्यकार ने दिया है - 'गव्यूतिंम ? ध्वानंगतः गोयूतिमित्येवान्यत्र ' यहाँ अन्यत्र का अर्थ है कि 'अध्व परिमाण' से अन्य अर्थ में वान्त अ व आदेश नहीं होता है । इस प्रकार वेद में अध्व परिमाण का अर्थ में अथवा अन्य अर्थ में भी गो शब्द को यूति परे रहते वान्त अ व आदेश । लोक में अध्वपरिमाण अर्थ में ही न्यासकार ने इन दोनों ही होता है । अतः गव्यूति ही साधु है वान्त अव् आदेश होकर गव्यूति साधु है अन्य अर्थ में गो यूति स दोनों वार्त्तिकों का निष्कर्ष है । ये दोनों वार्त्तिक प्रकारान्तर से असिद्ध वान्त 1 अ व आदेश के विधान के लिए वाचनिक ही है । वार्त्तिकों को सूत्र से ही गतार्थ कर दिया है । उनका कथन है कि वार्त्तिक घटक वक्तव्य शब्द का व्याख्येय अर्थ है । उसका व्याख्यान इस प्रकार है । 'वान्तोयि प्रत्यये' इस सूत्र का योग विभाग करना चाहिए । 'वान्तोयि' यह एक योग अलग है. 1, इसका अर्थ है... मो. शब्द यूतिः परे रहते छन्द में अवादेश होता है । 'प्रत्यये' इस दूसरे योग में यादि प्रत्यय परे रहते एच को वान्त अ व आदेश होता है । यह अर्थ है इससे गव्यम् नाव्यम् की सिद्वि हो जाती है पहले योग से यकार मात्र परे रहते वान्त अ व आदेश का विधान होता है । दूसरे योग के द्वारा पहले योग के अर्थ में क्वचिदकत्व अनित्यत्व का ज्ञापन होता है । इस प्रकार यदि प्रत्यय परे रहते सर्वत्र वान्त अ व आदेश होता है । रिक्त यादि परे रहते कहीं-कहीं वान्त 1अ व आदेश होता है । प्रत्यय से अतिक्वचिद् पद से इष्ट स्थल के अनुरोध योग विभाग के अनुरोध से उक्त दोनों वार्त्तिकों के ही विषय लिए जाएंगे । इस तरह दोनों वार्त्तिकों को करने है । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किन्तु न्यास कार की यह अपनी उत्प्रेक्षा है। भाष्यकार ने इस प्रकार के. योग विभाग का कहीं उल्लेख नहीं किया है। अपितु वचन रूप से इन दोनों वार्तिकों का व्याख्यान किया है। अतः भाष्यकार का वचन आदरणीय है । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मादुहिन्यामुपसंख्यानम् वृद्धि प्रकरण में 'रत्येधत्यूठतु '2 इप्त सूत्र के भाष्य में यह वार्तिक पढ़ा गया है। ती वात्तिक में 'उपसख्यानम्' पद जोड़ कर परवर्ती प्राचार्यों द्वारा इसे वर्तमान स्वरूप दिया है । इस वार्तिफ में भी मात्' और 'अच्' इन दोनों पदों का सम्बन्ध होता है । इस प्रकार 'अ' शब्द #क कार से 'ऊहिनी' शब्द 't क अच्' परे रहते पूर्व परके स्थान में वृद्धि एकादेश' होता है। यह वार्तिक का अर्थ निष्पन्न होता है। जगत् और जर इन दोनों पदों का सम्बन्ध न होने पर 'HEI' शब्द से परे 'अहिनी' शब्द रहने पर पूर्व पर के स्थान में वृद्धि रूप एकादेश होता है इतना ही अर्थ होता । तब 'अEI + ऊहिनी' इस प्रयोग में पूर्व पर दोनों पदों के स्थान पर अर्थात् ६f और ऊहिनी इन दोनों के स्थान पर एकादेश होने लगता । 'जाद अधि' इन दोनों पड़ों का सम्बन्ध करने पर यह दोष निरस्त हो जाता है क्योंकि पूर्व पर पद क अन्त और मादि वर्गों के ही स्थान पर वृद्धि एकादेश होता है। इसी प्रकार का व्याख्यान 'स्वादोरेरिणों' इत्यादि अग्रिम वार्तिकों में भी समझना चाहिए । 'मौहिणी' यह प्रयोग उसका उदाहरण भाष्य में प्रदर्शित है। नियत परिमाण विशिष्ट सेवा अर्थ में यह शब्द रूद है । इस शब्द की अनेक प्रकार की व्युत्पत्ति प्रदर्शित है । श्रीमान् कैय्यट' का कथन है - 'अक्षान् 1. लघु सिद्धान्त कौमुदी, अच्सन्धि प्रकरणम्, पृष्ठ 45. 2. अष्टाध्यायी 6/1/89 3. महाभाष्यप्रदीप 6/1/89. Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उहते अवश्यम्' इस विग्रह में 'उन्ह' धातु से आवश्यक अर्थ में 'णिनि' प्रत्यय हुआ है । तदनन्तर 'डी' प्रत्यय करने से 'ऊहिनी' शब्द निष्पन्न होता है । उसका 'अ' शब्द के साथ 'साधनंकृता' इस सूत्र से समास होता है । यह शब्द सेना के कैप्यट की उक्त व्याख्या को ही विस्तृत करते हुए नागेश कहते हैं - 'उह' धातु वहन् अर्थ में है ।' 'अक्ष' शब्द 'रथावयव' को कहते हैं । अड्ग रथ तुरगादि का भी उपलक्षण है । अक्षान् = रथतुरगादीनि सेवा प्रति उहते प्रापयति या सां अक्षौहिणी इस प्रकार सेना विशेष यह शब्द रूढ है । आवश्यक अर्थ द्योत्य रहने पर उपपद के अभाव में यहाँ 'णिनि' हुआ है । अतः यहाँ उपपद समाप्त न हो करके 'साधनं कृता' इस सूत्र से समाप्त किया गया है । 7 श्रीमान् हरदत्ते ने भी इसी प्रकार से इस शब्द की व्युत्पत्ति की है । हरदत्त के मत में यह विशेषता है कि 'अक्षः उहते अवश्यं इस विग्रह में तृतीयान्त पूर्वपद समास स्वीकृत किया है । कैयूयट नागेशादि ने अज्ञान् ऊहते' इस विग्रह में 'द्वितीयान्त पूर्वपद समास किया है। भट्टोजी दीक्षित ने सिद्धान्त कौमुदी में, दूसरा ही ढंग अपनाया है उनके अनुसार 'उहः अस्याम् अस्ति' इस विग्रह में 'उह शब्द से मत्वर्थीय 'शिनि' प्रत्यय करके और 'ङीप् ' प्रत्यय करके 'ऊहिनी' शब्द , 1. महाभाष्य प्रदीपोद्योत 6/1/89. 2. अक्षरह तेऽवश्य मिति आवश्यके णिनिः, 'साधकं कृता' इति समासः । पदमञ्जरी, 6/1/89. 3. प्रौढ मनोरमा अच्सन्धि प्रकरणम्, पृष्ठ 161. Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनाया गया है तथा 'अक्षानां ऊहिनी' ऐसा विग्रह करके षष्ठीसमास 1 माना है । न्यासकार के मतानुसार 'अक्षाणां उहः सः अस्या अस्ति' इस प्रकार का विग्रह प्रदर्शित किया गया है । इस विग्रह से ऐसा लगता है कि 'अक्ष' शब्द का उह' शब्द से समास करके तदनन्तर 'णिनि' प्रत्यय किया गया है । इस प्रकार के व्याख्यान अन्य प्राचीन लोगों ने माना है किन्तु न्यासकारादि के व्याख्यान को मनोरमा ग्रन्थ में दीक्षित नी ने खण्डित कर दिया है । उनका कथन है कि इस प्रकार के विग्रह में 'अक्षौहिणी' यह प्रयोग साधु नहीं हो पाएगा, क्योंकि ऊहिनी शब्द परे रहते बृद्धि का विधान है । न्यासीय विग्रहमें 'अक्ष' शब्द का 'उह' शब्द से समाप्त कर देने पर 'इनि' प्रत्यय के उत्पत्ति पर्यन्त संहिता सन्धि रुक नहीं सकती है । अतः 'आद्गुणः ' सूत्र से गुण आवश्यक हो जाएगा । अक्षीहिणी यह रूप होन लगेगा । "अक्षादूहिन्याम्' इस वार्त्तिक के द्वारा गुण का बाध सम्भव नहीं है क्योंकि गुण के प्राप्तिकाल में ऊहिनी यह स्वरूप न होने से वृद्धि की प्राप्ति ही नहीं है । वृद्धि तो 'ऊहिनी' शब्द की निष्पत्ति के अनन्तर ही प्राप्त हो सकेगी। दूसरी बात यह है कि 'समर्थानां प्रथमादा' इस सूत्र के बल से सन्धि से निष्पन्न शब्दों से तद्वत प्रत्यय का विधान होता है । 'अ' ऊह इस शब्द से तद्वित प्रत्यय इनि का विधान नहीं हो सकता । यद्यपि वृद्धि गुण का अपवाद है फिर भी यदि अपवाद कहीं चरितार्थ होता है तो उपसर्ग के द्वारा बाँध लिया जाता है । 'अक्ष' शब्द के साथ जब 'ऊहिनी' शब्द का समास अतः असन्धिक 1. अक्षाणामूह, तो स्यास्तीतिमत्वर्ध्य इनिः, 'अन्नेम्पोडीप्' इति ङीप् अक्षौहिणी' न्यास 6/1/89. - Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होगा उस समय समकाल में प्राप्त गुण को बाँधकर वृद्धि चरितार्थ हो जाती है । अतः जब अक्षा शब्द का उह शब्द के साथ समाप्त होगा तो इस पक्ष में पूर्वकाल में प्राप्त अन्तरङग गुण वृद्धि को ही बाध लेगा। दूसरी बात यह है कि न्यास कार के विग्रह पक्षा में अक्षा उह' इस समस्त समुदाय से 'इनि' प्रत्यय करने पर '3HET ऊहिनी' इस शब्द में 'ऊहिनी' शब्द अनर्धक हो जाएगा । अतः वृद्धि की प्राप्ति न हो सकेगी क्योंकि अर्थवद ग्रहण परिभाषा के बन से सार्थक ऊहिनी शब्द परे रहते ही वृद्धि का विधान होता है । यद्यपि सिद्धान्त में अ६ शब्द का ऊहिनी शाब्द के साथ समाप्त करने पर भी ऊहिनी शब्द अनर्थक ही है क्योंकि समाप्त में एकार्थीभाव माना जाता है । समास . क पद-विशिष्ट अर्थ के अवाचक होने से अनर्थक होता है तथापि इप्स पक्ष में 'ऊहिनी शब्द में कल्पित अर्थवत्ता लेकर वार्तिक की प्रवृत्ति हो सकती है । पूर्वपक्षा में तो समास के बाद 'इनि' प्रत्यय होने पर 'ऊहिनी' शब्द में कल्पित अर्थवत्ता सम्भव नहीं है । अत: ४६ शब्द का ही ऊहिनी शब्द के साथ समास साधु है । इस प्रयोग णत्व 'पूर्वपदात संज्ञायामगः '' इस सूत्र से 'गत्व' हुआ है । उपर्युक्त व्याख्यान से यह निष्कर्ष निकलता है कि अET शब्द का ऊहिनी शब्द के साथ ही समास होगा। यह ऊहिनी इनि प्रत्ययान्त हो ना णिनि प्रत्ययान्त हो । उसी प्रकार अक्षा शब्द भी द्वितीयान्त हो, तृतीयान्त हो अथवा कठयन्त हो इन तीनों मतों को दिखाया जा चुका है । यह वार्तिक भी अनन्यथा सिद्ध वृद्धि का विधान करने के कारण वाचनिक ही है । उसी प्रकार से 1. अष्टाध्यायी 8/4/3. Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'स्वादीरेरिणो' यह वार्तिक भी वाचनिक ही है । न्यासकार ने इस वार्तिक का तथा इस प्रकरण में आए अन्य वार्तिकों को व्याख्या द्वारा अन्यथा प्तिद्वत्व दिखलाया है। उनके मतानुसार उत्तर सूत्र 'आटश्च' में च शब्द पढ़ा गया है। वह च शब्द अप्राप्ति स्थन में भी वृद्धि के विधान के लिए है जैसे - अहिणी, स्वैरिणी इत्यादि लक्ष्यों में वृद्धि सिद्ध हो जाती है । इस प्रकार उनके मतानुसार ये दोनों वार्तिक च शब्द से लभ्य अर्ध के अनुवादक मात्र हैं । 1. अॅटाध्यायी, 7/1/90. Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रादहोटोदयेऊयेच यह वार्तिक भी 'रते धत्यूठसु 2 इस सूत्र पर भाष्य में पढ़ा गया है । इस वार्तिक में 'उह' शब्द प्रक्षिप्त है क्योंकि भाष्य में नहीं देखा जाता है ऐसा प्राचीनों का मत है । अतएव का शिका में इस वार्तिक में उह शब्द का पाठ नहीं है किन्तु मनोरमाकार' का कहना है कि उस समय की पुस्तकों के भाष्य वात्तिकों में उह शब्द का पाठ देखा जाता है तथा उसका उदाहरण'प्रोहः यह भी उपलब्ध होता है । इस अभिप्राय से लघु सिद्धान्त को मुदी में 'उह' शब्द से सहित यह वार्तिक पढ़ा गया है । 'प्र' शब्द के 'अकार' से 'उहादि' शब्द 'घटक अच्' परे रहते पूर्व पर के स्थान में वृद्धि, एकादेश होता है । यह वार्तिक का अर्थ है। प्रौहः प्रौदः, प्रौदिः, प्रेषः, प्रेष्यः ये सब इसके उदाहरण हैं | का शिका में 'उह' शब्द से रहित वार्तिक पठित होने के कारण वहाँ प्रौदः उदाहरण नहीं दिया गया है। वह धातु से 'क्त' प्रत्यय तथा 'क्तिन् ' प्रत्यय करने पर उदः और 'ऊदि ये दोनों शब्द बनते हैं । 'ई' धातु 'घर्श और 'ग्यत्' प्रत्यय करने से 'एष' और 'एष्य' यह रूप बनता है यहाँ उहादि शब्द 'अव्यय ' नहीं है । अत: 'तत साहचर्येण' 'ऐष्य ' यह शब्द भी 'अव्यय ' नहीं लिया जाता है । 'प्र' शब्द के बाद अव्यय 'एष्य' रहने पर 'एगिपररूपम्' सूत्र से पर रूप ही होता है जैसे प्रेष्यः यहाँ 1. लघु सिद्धान्त कौमुदी, अच्सन्धिं प्रकरणम्, पृष्ठ 76. 2. अष्टाध्यायी 6/1/89. 3. प्रौद मनोरमा स्वरसन्धि प्रकरणम्, पृष्ठ 162. Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यहाँ 'ई' धातु 'काला' प्रत्यय होने के बाद प्र शब्द के साथ समाप्त होने पर 'क्त्वा' को 'ल्यप् ' हो जाता है । 'कत्वा' तो: सुन 'इत्यादि सूत्र से अव्यय संज्ञा हो जाती है । दीघोऽपधात् ईष धातु ध्यत् प्रत्यय होने पर इष्यः यह रूप होता है । 'प्र' शब्द के साथ योग करने पर 'प्रेष्यः ' यह रूप होगा। यह सब प्रदीप' में स्पष्ट है। सिद्धान्त कौमुदी में दी क्षिातजी ने भी कहा है 'इश ऊच्छे ईष गति हिंसा दर्शनेषु' इन दोनों धातुओं के दीघोऽपध होने से ईषः ईध्यः यह रूप होगा । 'प्र' शब्द के साथ गुण करने पर प्रेषः प्रेष्यः यह रूप होता है । पूर्ववार्तिक केवल गुण का बाधक है और यह पररूप का भी बाधक है । प्रेष्यः इत्यादि प्रयोगों में पररूप को बाधकर इससे वृद्धि होती है । यह भी वार्तिक वाच निक है । इसका भी व्याख्यान साध्य त्व पूर्ववार्तिक की तरह सम्झना चाहिए । अते च तृतीया समासे यह वार्तिक भी 'रत्येधत्यूठसु" सूत्र पर पढ़ा गया है। तृतीया समात में जो अत शब्द तद कि अच् परे रहते अवर्ण से पूर्व पर के स्थान पर वृद्धि एकादेश होता है । पूर्ववार्तिक की अपेक्षा इस वार्तिक की यह विशेषता है कि पूर्व 1. प्रेष्य शब्द स्वीष्य शब्दे भवति । महाभाध्य प्रदीप 6/1/89. 2. लघु सिद्धान्त कौमुदी, अच्सन्धि प्रकरणय, पृष्ठ 46. 3. अष्टाध्यायी 6/1/89. Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वार्तिक में पर अच् ऊहिनी इत्यादि शब्दों का अवयव लिया जाता रहा तथा पूर्व आकार भी आदि शब्द का अवयव लिया जाता रहा । इस वार्तिक में तो 'अत्' शब्द ' क अच्' लिया जाता है और पूर्व अकार किसी विशेष शब्द का लिया जाय ऐसा निर्देश नहीं है। अकार मात्र से परे 'अत्' शब्द 'Eक अच्' रहने पर वृद्धि होती है । अतएव काशिका में इस वार्तिक पर अवर्णाव वृदिर्वक्तव्या ऐसा पढ़ा गया है । सुखार्तः दुःखार्तः इत्यादि इसका उदाहरण है । सुखेन अतः इत्यादि विग्रह में 'कर्तृकरणेकृता बहुलम्' इप्त सूत्र से तृतीया समास हुआ है। वार्तिक में समाप्त ग्रहण होने से असमाप्त स्थन पर 'सुखेन अत: ' इत्यादि में वृद्धि नहीं होती है अपितु गुण ही होता है। तृतीया ग्रहण सामथ्यात् परं अत: परमतः इत्यादि कर्मधारय स्थन पर वृद्धि नहीं होती है अपितु गुण ही होता है। यह वार्तिकं गुण का अपवाद है । प्रवत्सतर कम्बलवसनार्ण दशानामणे यह वार्तिक भी 'रत्येधत्पठसु सूत्र के भाष्य में 'प्रवत्स तर कम्बलवसनासणे', 'ऋण दशाभ्यां च' ये दोनों वार्तिक पढ़े गए हैं। उन्हीं दोनों के अनुवादात्मक और संकलनात्मक यह वार्तिक लघु सिद्धान्त कौमुदी में पढ़ा गया है । 1. अष्टाध्यायी, 2/1/32. च्सन्धिप्रकरणम् पूष्ठ 47. 3. अष्टाध्यायी, 6/1/89. Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'प्र' से लेकर 'दश' पर्यन्त शब्दों के अन्त्य अकार से परे 'अण' शब्द के 'अच्' परे रहने पर पूर्व पर के स्थान पर वृद्धि एकादेश होता है । प्राणमव त्सतराणम्, कम्बलाणम्, वसनाणम्, मणीम् , दशाणम् ये सब उदाहरण हैं । एक 'अण' को दूर करने के लिए जो दूसरा 'अण' लिया जाता है उसे 'प्राणम्' कहते हैं । 'दशाण' शब्द देश-विशेष तथा नदी-विशेष में रूद है। यहाँ ध्यातव्य है कि अक्षाहिन्याम इत्यादि पूर्व वार्तिकों में पूर्व समुदाय पञ्चमी के द्वारा निर्दिष्ट है । इप्स वार्तिक में छठी के द्वारा निर्देश किया गया है । यह केवल वैचित्र्य के लिए है । भाष्य में कहे गए इन दोनों वार्तिकों में आद्यवार्तिक में पूर्व समुदाय में कठी निर्देश तथा उत्तर वार्तिक में पञ्चमी निर्देश किया गया है । का शिका में इन दोनों वार्तिकों को यथावत् पृथक्-पृथक् पढ़ा गया है । लघु सिद्धान्त कौमुदी एबम् सिद्धान्त कौमुदी में दोनों वार्तिकों को मिलाकर एक ही वाक्य में पढ़ दिया गया है ।यहवार्तिक भी वाचनिक है । शकन्ध्वादिषु पररूपम् वाच्यम् 'रसिररूपम् 2 इस सूत्र के भाष्य पर यह वार्तिक पढ़ा गया है । 'शाकन्वा दिन पररूपम् वक्तव्यम्' यह वहाँ का भाष्य है । 'शाकन्धवादि' शब्दों में उनकी सिद्धि के अनुकूल पररूप होता है। यह वार्तिक का अर्थ है । जिस 1. लघु सिद्धान्त कौमुदी, अच्सन्धिप्रकरणम् , पृष्ठ 50. 2. अष्टाध्यायी 6/1/94. Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णं के अथवा वर्णं समुदाय के पररूप होने से 'शकन्धु' इत्यादि शब्दों का अन्वाख्यान होता है या सिद्धि होती है । उन सबको 'पररूप' होता है । केवल "अकार' मात्र को नहीं होता है । अतः इस वार्त्तिक में पहले से चले आ रहे 'आत्' का सम्बन्ध नहीं होता है । उसके सम्बन्ध होने पर 'शकन्धु' इत्यादि की सिद्धि होने पर भी 'मनीषा' इत्यादि प्रयोगों में 'पररूप' नहीं हो पक्एगा । 'मनस् ईषा' इस विग्रह में पूर्वपद के अन्त में 'अकार' न होने से 'पररूप' की प्राप्ति न हो सकेगी । इसी प्रकार से पतञ्जलि 'इत्यादि शब्दों में उक्त दोष होगा । अतः लघु सिद्धान्तकौमुदीकार ने 'तच्चटे : ' अर्थात वह पररूप 'टी' को होता है । ऐसा कहा है । यह टी अंश भाष्य वार्तिक में नहीं देखा जाता है । इष्ट प्रयोगों के आदेश से लघु सिद्धान्त कौमुदी में रखा गया है । ' अचेोऽन्त्यादिटि ' इस सूत्र से 'अचो' के मध्य में जो अन्तिम 'अच्' वह हो आदि में जिसके उसकी टी संज्ञा होती है । शकन्धु इत्यादि प्रयोगों में 'शकू' शब्द के अन्तिम 'अच्' 'क' में 'अ' है । वही स्वयं के आदि में भी है । अतः उसको टी संज्ञा होगी । उस 'टी' को तथा 'अन्ध' के अकार के स्थान पर पररूप होता है । 'मनस् + ईषा ' इस प्रयोग में अन्तिम 'अच् 'मनस्' शब्द में 'न' में 'अ ' है वह 'स' के आदि में है अतः 'अस्' को 'टी' संज्ञा होगी । उसको 'ईषा' के 'इकार' के साथ 'पररूप' होता है । इस प्रकार सभी प्रयोगों का संग्रह हो जाता है । किन्हीं आचार्यों का मत है कि इस प्रयोग में 'आत' और 'अच्' का सम्बन्ध होता है । 'शकन्धु' आदि ही इसके उदाहरण हैं । 'मनीषा पतञ्जलि' इत्यादि शब्दों की सिद्धि पृषोदरादि गण में 'मनस् पतत्' इत्यादि शब्दों के पाठ करने से अन्त का Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोप हो जाता है । ऐसी स्थिति में इन प्रयोगों में भी 'अकार' के साथ ही 'पररूप' होता है । इस प्रकार पहले से चले आ रहे 'आत्' का परित्याग नहीं करना पड़ता है । यह सब 'मनोरमा' में स्पष्ट है । शकन्धु कर्कन्धु कुलटा, सीमन्तः इत्यादि इस वार्त्तिक के उदाहरण भाष्य में कहे गए हैं । । कुल + अट, कर्क + अन्धु सीमनुकअन्त इत्यादि इनका विग्रह है 'अटति' इस विग्रह में 'पचादि अच्' हुआ है तथा 'कुलानां अटा कुलटा' यह षष्ठी समास्त्र है । 'कुलानि अति' इस विग्रह में 'कर्मण्यण' इस सूत्र से 'अणु की प्रसक्ति होगी । सीमन्ते शब्द में 'पररूप' केश'. के वेश में ही होगा । इस लिए कौमुदीकार ने 'सीमान्त केश वेश' यह पढ़ा है। 'शकन्धु' आदि आकृतिगण है । जिन शब्दों में 'पररूप' देखा जाता है और वह इष्ट है तथा 'पररूप' विधायक कोई सूत्र उपलब्ध नहीं होता है । उन सभी शब्दों की गणना 'शकन्ध्वादि' में समझना चाहिए । हरदत्त ने भी कहा है कि 'शकन्ध्वादिगण' का अनुकरण प्रयोग से करना चाहिए । 'कुलटा या वा कुलटा' शब्द में भी 'पररूप' होता है । 'लोहितादिकट तेभ्यः', 'व्यवहपणयोः समर्थयो:' इत्यादि निर्देश 'शकन्ध्वादि के आकृतिगण में प्रमाण हैं । 'कुलCT ' शब्द तथा 'समर्थ' शब्द में आकृतिगण होने से 'पररूप' सिद्ध होता है । इसलिए भाष्य में अनुक्तु मार्तण्ड : ' इत्यादि प्रयोगों में भी कौमुदीकार ने प्रदर्शित किया है । यह वार्त्तिक भी भाष्य रीति से वाचनिक तथा न्यासरीति से व्याख्यान साध्य है । 1. प्रौढ मनोरमा, स्वरसन्धि प्रकरणम्, पृष्ठ 171. 2. महाभाष्य, 6/1/94. शक + अन्धु "अटT' शब्द Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न समाते । सिति च 'इकोऽप्तवर्णे शाकल्यस्य” ह्रस्वश्च' इस सूत्र के भाष्य में 'प्तिन्नित्य समासयोः शाकल प्रतिषेधः ' इस रूप में वार्तिक पढ़ा गया है । भाष्योक्त वार्तिक के 'अकार' को काशिकाकार यथावत् रूप से ग्रहण कर लिया है । कौमुदी कार ने इस वार्तिक को 'न समासे' 'सिति च' दो भागों में अनुवाद करके लिखा है । भाष्योक्त वार्तिक का यह अर्थ है तिच्च नित्यसमासश्च इति सिन्नित्य समास नित्या भिकार' में विहित तथा अस्वपद विग्रह समाप्त नित्य समास कहलाता है । 'प्तिन्नित्यसमासयो: ' इसमें एक ही शब्द में विषय-भेद से भिन्न-भिन्न ग्रहण किया जाता है । 'सित्' की अपेक्षा से पर सप्तमी तथा 'नित्' समास की अपेक्षा से 'विषय सप्तमी' । 'सिति परे मितु समास विषये शाकल प्रतिषेधः यह अर्थ होता है । 'इकोडसवर्णैशाकल्यस्य ह्रस्वश्च' यही शाकल विधि है । शाकल्य के सम्बन्ध से इसको शाकल कहते हैं । इस शाकल विधि का प्रतिषेध 'सिति परे तथा 'नित् समास' के विषय में होता है । यह अर्थ कौमुदी में दिखलाया गया है। से विहित ह्रस्व और प्रकृतिभाव का प्रतिषेध होता है । उक्त सूत्र - 1. लघु सिद्धान्त कौमुदी, अच्सन्धि प्रकरणम्, पृष्ठ 68. 2. वही । 3. अष्टाध्यायी, 6/1/125. Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तुतः उक्त सूत्र केवल हस्व का ही विधायक है न कि प्रकृति भाव का वह तो दृस्व विधि सामथ्यात सिद्ध हो जाएगा । अन्यथा इस्व विधान व्यर्थ होगा। 'चक्रि अत्र' इत्यादि प्रयोगों को 'स्व' करने के बाद स्वर सन्धि करने पर कोई विशेषता नहीं रह जाती अतः उक्त सूत्र से केवल 'हस्व' का ही विधान होता है । 'प्रकृतिभाव सामथ्यात्' सिद्ध होता है । भाष्यकार ने 'सिति च' इसका उदाहरण 'अयन्ते योनित्वियः', 'प्रजां विदाममत्वियाम्' इन प्रयोगों में 'अत्वियः' दिया है। यहाँ 'अतु' शब्द से 'अतुःप्राप्तो स्य' इस अर्थ में 'अतोरण छन्दसि धम्' इस सूत्र से 'धर' प्रत्यय हुआ । 'सकार' को इति संज्ञा लोप होने पर तथा 'धकार' को 'इय' आदेश होने पर 'ऋतु' इय् ' इस अवस्था में इको सवणे सूत्र से प्राप्त हस्व तथा प्रकृतिभाव का इस वार्तिक के द्वारा निषेध होता है क्योंकि धम्' 'तित्' है । शाक्ल प्रतिषेध होने के अनन्तर 'इकोयणचि2 सूत्र से 'यण' हुआ है । जोर्गुण: " सूत्र से यहाँ 'गुण' नहीं होगा क्योंकि वह 'भ' संज्ञा में करता है। यहाँ पर 'सिति च" इस सूत्र से 'पद' संज्ञा होने से 'भ' संज्ञा का बांध हो जाता है । 'पद' संज्ञा होने से ही यहाँ इस्व विधि प्राप्त होती है क्योंकि पदान्त इक् इस्व होता है । को मुदीकार ने 'सिति'का उदाहरण 'पारम्' दिया है । 'परसूनां समूह इस अर्थ में 'परवा अण्म् वक्तव्यः' इस 1. अष्टाध्यायी, 5/1/105. 2. वही, 6/1/17. 3. वही, 6/4/146. ५. वही, 1/4/16. Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वार्तिक से 'परसू' शब्द से 'अण' हुअा है । 'अणम्' को 'तित्' होने से पूर्वभाग को 'पद' संज्ञा होती है। अतः 'ओर्गुणः ' से 'गुण' नहीं होता है तथा 'सिद' होने से इस सूत्र से 'स्व' प्रकृतिभाव भी नहीं होता है । 'यण' होकर 'पाश्र्वम्' यह रूप सिद्ध होता है । नित्य समाप्त का उदाहरण भाष्यकार ने 'वैय्याकरणः, सौ वस्वः ' यह दिया है। व्याकरण शब्द में 'कुगति'प्रादयः'। इस सूत्र से 'नित्य समास' हुआ है। इस सूत्र से 'नित्य 2 क्रीडा जी विकयो: ' इस सूत्र से नित्य पद की अनुवृत्ति अलि है। वि + आ करण, सु + अस्वः इस प्रक्रिया में 'हस्व' संचित प्रकृतिभाव प्राप्त होता है । उसका इस वार्तिक के द्वारा निध होता है । 'अस्व' पद विग्रह रूप नित्य समास का उदाहरण का शिकाकार ने 'कुमार्यर्थ' दिया है । यहाँ कुमार्य इदं' इस 'अस्व' पद विग्रह में अर्थेन नित्य समासो विशेष लिशता च' इस वचन से समास होता है । 'कुमारी अर्थम्' इस दशा में 'इस्व' संचित प्रकृति भाव प्राप्त होता है । इस वार्तिक के द्वारा निषेध हो जाता है। भाष्यकार ने वार्तिक से नित्य ग्रहण का प्रत्याख्यान कर दिया है । अंत: अनित्य समाप्त में भी शाकन विधि का प्रतिषेध होता है। जैसे 'वाप्या अस्वः वाप्स्वः ' यहाँ 'सः सुपा' सूत्र से समास हुआ है । ' संज्ञायां' सूत्र - - - - - - - - - - - - - - I. अष्टाध्यायी 2/2/18. 2. वही, 2/2/16. 3. नित्यग्रहणेनार्थः ति त्यस मासयो: शाकलं न भवतीत्येव । इदमपिसिदि भवति, वाप्यामावो वाप्यावः, नद्यामातिनधातिः । महाभाष्य प्रदीप, 6/1/127. Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से समाप्त करने पर तो नित्य समासता में ही संज्ञा त्व की अभिव्यक्ति होती है । तब भाष्यकार का नित्य ग्रहण प्रत्याख्यान व्यर्थ हो जाता है। यह तथ्य कैय्यट कृत प्रदीप' व्याख्यान में स्पष्ट है । अतएव भाष्यमत का अनुसरण करते हुए कौमुदीकार ने नित्यपद से अघटित 'न समासे' इतना ही वार्तिक पढ़ा है । तथ 'वाप्यश्वः ' यह उदाहरण दिया है । यह भी वार्तिक वाचनिक ही है। न्यात कार ने इस वार्तिक के अर्थ को व्याख्यान साध्य बतलाया है। उनके मतानुसार इस सूत्र से 'सर्वत्र विभाषा गो: ” इस सूत्र से 'विभाषा' पद की अनुवृत्ति आता है । और इसको 'व्यवस्थित विभाषा' मानकर लक्ष्यों के अनुरोध से व्यवस्था सम्भव हो जाती है। अत: यह वार्तिक बनाने की आवश्यकता नहीं है किन्तु ऐसा स्वीकार करने के अतिरिक्त भी लक्ष्यों के ज्ञान के लिए इस वार्तिक का आरम्भ करना चाहिए अन्यथा प्रकृति भाव कहाँ पर होता है और कहाँ पर सर्वथा नहीं होता है यह दुर्वचनीय हो जाएगा। किसी का मत है कि 'इको यणचि' सूत्र में 'इक्' ग्रहण के सामर्थ्य से 'न समासे' इस वार्तिक से साध्य शाकल विधि 1. सुप्सुपेति समासः । 'संज्ञायाम्' इति तु समाप्तस्य नित्यत्वात् सिद्धःप्रतिषेधः । महाभाष्य प्रदीप, 6/1/127. 2. व्याख्येय इत्यर्थः । तत्रेदं व्याख्यानं 'सर्वत्र विभाषागो: ' इत्यतो विभाषा ग्रहणमनुवर्तते, सा च व्यवस्थितविभाषा विज्ञायते । तेन ति नित्यसमासयो: शाक्लप्रतिषेधो भविष्यति । न्यास 6/1/127. 3. अष्टाध्यायी, 6/1/122. Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का प्रतिषेध सिद्ध हो जाता है । अत: यह वात्तिक वाचनिक नहीं है अपितु 'इक' गृहण सामर्थ्य से सिद्ध अर्थ का अनुवाद है । उनके कथन का तात्पर्य यह है कि 'इको यणचि' सूत्र में 'इस्वस्यापिति, कृति, तुक्'' तथा 'दीचात् '2 इन दोनों सूत्रों से 'हत्व दीधे पद की अनुवृत्ति आ जाने से 'व्य जन' को 'यण' नहीं होगा। 'प्लुत' तो इसकी दृष्टि में अप्तिद्धि की है तथा 'प्लुत' को प्रकृति भाव विधान करने से 'यण' प्राप्त नहीं होगा । “सचो को 'रचो यवायव: " इत्यादि सूत्र से 'अयादि' आदेश ही होगा 'अकार को 'सवर्णी' परे रहते 'दीर्घ गुण वृद्धि' के द्वारा बाध हो जाने से 'यण' नहीं हो सकेगा । अतः परिशेषात 'इक' को ही 'यण' होगा। इस तरह कार्य सिद्ध हो जाने पर 'इको यणचि सूत्र में 'इक्' पद व्यर्थ होकर ज्ञापन करेगा कि कहीं-कहीं 'ण' ही होगा अन्य कार्य नहीं होगर । अन्य कार्य इत्व ही है। लक्ष्यानुरोधात् क्वचादि पद से समास का ग्रहण किया जाएगा । अतः 'न समासे' वार्तिक करने की आवश्यकता नहीं है। यह सब प्रक्रियाप्रकाश ग्रन्थ में 'इकोयणचि' सूत्र में स्पष्ट है । 1. अटाध्यायी 6/1/11. 2. वही, 6/1/15. 3. वही, 6/1/78. 4. ननु - 'स्वस्यापिति कृतितुक्' 16/1/11 'दीधात्' 16/1/751, इत्यतो हस्वदीपदानुवृत्त्या इत्यादिना न समासे इति तदनेन संग्रहीतं भवतीत्यन्तेनग्रन्थे । प्रक्रियाप्रकाश । Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमवतीनगरीणा मितिवाच्यम् 'न पदान्तोटोरनाम'2 इस सूत्र के भाष्य में 'अनाम' सूत्र घE क अनाम पद को लक्ष्य करके भाष्यकार ने 'अनाम्नवति नगरीणां इति वक्तव्यम्' ऐसा, पढ़ा है । उक्त सूत्र 'ट नाम्दु :- इससे प्राप्त'टुत्व का निध करता है । वहाँ 'अनाम' यह पद की बहुवचन 'ल्युट्' सहित नाम का अनुकरण है । 'अनाम' यह पद लुप्त कठयन्त है । 'अनाम' यह पद लुप्त कठयन्त है । पदान्त, टवर्ग से परे नाम ले भिन्न सकार तवर्ग को 'टुत्व' नहीं होता है। नाम शब्द परे रहते 'टुत्व' का प्रतिध नहीं होता है । यह फलितार्थ है । इस प्रकार 'अनाम' यह अंश न पदान्ता टो' इससे प्राप्त 'टु त्व' का निषेधक है । अतः 'जण्णाम्' सूत्र से ष्टुत्व हो जाता है। यहाँ '' शब्द से आम विभक्ति आने पर 'चतुर्यप्रच" इत सूत्र से 'नुद्' होता है । सकार को 'जशत्व' होकर 'इ.' हो जाता है। तथा 'यरो नुनातिको' इस सूत्र से ' ण' हो जाता है। तदनन्तर 'नाम' के 'नकार' को 'हत्व ' होता है । महाभाष्य में 'अनाम्' इस अंश की जगह पर 'नवति नगरी' का भी समावेश किया गया है जिससे पति , षण्णनगर्यः' इत्यादि प्रयोगों में भी रत्व' का निषेध नहीं होता है । यहाँ 'अनाम' 'नवति, नगरी' के अवयव से भिन्न जो 'सकार' और 'तवर्ग' उसके 'ब्दुत्व' का निषेध - - - - - - - - - - - - - 1. लघु सिद्धान्त कौमुदी, हल् सन्धि प्रकरणम्, पृष्ठ 75. 2. अष्टाध्यायो, 8/4/42. 3. वही, 8/-47-41. 4. वहीं, 7/155. Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होता है । 'अनाम, नवति, नगरी' से भिन्न अवयव जो 'सकार' 'त्वर्ग ' उसके । 'टु त्व' का जो निषेध होता है यह अर्थ ठीक नहीं है। ऐसा अर्थ मानने पर 'अनाम' ऐसा कहने पर भी 'गणा' प्रयोग में 'टु त्व' का निधि होने लगेगा क्यों कि घण्णा, यह, समुदाय नाम से भिन्न है । अतः 'नाम' का 'नकार' नाम के अवयव होने पर भी नाम से भिन्न 'अण्णां' इस समुदाय का अवयव है । 'अनाम नवति नगरी' के अवयव जो 'सकार 'स्वर्ग' उस के 'टु त्व' का निषेध नहीं होता है। यह अर्थ 'प्रसज्य प्रतिषेध' न्याय का फल है । इस वार्तिक का उदाहरण 'षण्णा, वति, घण्णनगर्य है । भाष्यकार ने भी उन्हीं प्रयोगों को उदाहृत किया है । 'अण्णवति ह अधिका नवति' इस विग्रह के मध्यम पद लोपी समास प्रयोग सिद्ध हुआ है । यह तथ्य न्यास पदम जरी और लघु शब्देन्दु शेखर में स्थित है। प्रक्रियाप्रकाशकार' 'बावति' में 'द च नव तिच' यह समाहार दन्द्र कहते हैं । यद्यपि समाहार दन्द्र में इस प्रयोग में नपुंसक लिङ्ग की प्राप्ति हो सकती है किन्तु लिग लोकाश्रित होता है । अत: दोष नहीं है । मध्यम पद लोपी समास पक्ष में उन्होंने दोष भी दिखलाया है । यहाँ 'पड़' शब्द अन्तर वर्तिनी विभक्ति को लेकर 'न पदान्ताटोरनाम' इस सूत्र से 'नवति' 'नकार' को प्राप्त 1. 'E नवतिश्चेति समाहारे द्वन्दः । नपुंसकत्वाभावात्सु लोकात डाधिकान वानवतिरिति शाकपार्थिवादित्वान्मध्यमपदलोपी समास इति प्राचोक्तं । तदसत् । 'संख्या' 16/2/351 इति दन्दनिबन्धा स्वरातिदेरित्याकररात् ।' - प्रक्रिया कौमुद्री प्रकाश, हल्सन्धि प्रकरण । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'टुत्व' का निषेध इस वार्तिक के द्वारा निवृत्त हो जाता है। 'हनगर्यः ' इस प्रयोग में 'पद् 'नगर्यः ' यह दोनों प्रथमा बहुवचनान्त पृथक्-पृथक् पद है । यहाँ 'ह' शब्द 'सुवन्त' होने से पद संज्ञक है । यहाँ पर 'नवति' 'नकार' को त्व के निषेध का निषेध हो जाता है । का शिका ग्रन्थ में 'षण्णमगरी' यह उदाहरण दिया गया है। वहाँ 'ग्णां नगरा समाहारः ' इस विग्रह में समाहार दिगु हुआ है । तदनन्तर 'द्विगो: ' सूत्र से डीप हो जाता है । यह सब न्यास पदम जरी में स्पष्ट है । यह वार्तिक भी वाचनिक ही है । प्रत्यये भाषायां नित्यम् - 'यरो नुनासिके नुनासिको वा" इस सूत्र के भाष्य पर 'यरो नुनासिके प्रत्यये भाषायां नित्य वचनम्' इस रूप से यह वार्तिक पढ़ा गया है । 'यरो नुनासिके' इस सूत्र के द्वारा 'पदान्त यर' को अनुनासिक परे रहते प्राक्षिक 1. अण्णा नगरराणां समाहारः षण्णनगरी दिगो: इति डीप् । न्यास 8/4/42. 2. अण्णा नगराणां समाहारः षण्णगरी। - पदम जरी, 8/4/42. 3. लघु सिद्धान्त को मुदी, हल्सनि प्रकरण, पृष्ठ 78. 4. चिन्मय मिति । स्वार्थिकः 'तत्प्रकृतिवचने' इति मयद । तत्र तदित तदिति वाक्य भेदेन क्वचित्ताकर्यरूपप्रकृतवचनाभावे पिम्य र्थम् । अतएव 'चिन्मयं ब्रह्म' इति समानाधिकरण्यम् । - लघु शब्देन्दु शेजार, हल्सन्धि प्रकरणम् पृष्ठ 124. Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुनासिक का विधान होता है । 'वाग्नयति वाइनयति' उसी प्राप्त 'अनुनासिक' को इस वार्तिक के द्वारा 'अनुनासिका दि' प्रत्यय परे रहते 'नित्यत्व' का विधान किया जाता है । अनुना सिकादि प्रत्यय परे रहते पदान्त पर को नित्य अनुनासिक होता है । यह वार्तिक का अर्थ है । 'वाइम्य त्वडम्य ' यह इप्स के उदाहरण है । यही उदाहरण काशिका में भी दिया गया है । 'वाइम्य' इस प्रयोग में 'नित्य वृद्धि' 'शरा दिभ्यः '' इससे 'मयद् ' प्रत्यय हुआ है । 'त्वमय' इस प्रयोग में 'मय वैतयो भाषायां याच्छादनयो: ' इस सूत्र से 'मयद' प्रत्यय हुअा है । यहाँ पर नित्य अनुनासिक होकर 'वाइम्य' यही प्रयोग साधु है । लघु सिद्धान्त कौमुदी में आचार्य वरदराज ने 'तन्मात्र चिन्मयं' यही वार्तिक का उदाहरण दिया है । 'तन्मात्र' इस 'प्रयोग प्रयोग द्वेषजदधनमात्र च' इप्त सूत्र से 'मात्रच्' प्रत्यय हुआ है । 'चिन्मयं' इस प्रयोग में तत् प्रकृत वचने 'मयट' इप्त सूत्र से स्वार्थिक 'मयद ' प्रत्यय हुआ है । चिदेव चिन्मय' यह विग्रह है । इस सूत्र में तत् इतना वाक्य भेदेन व्याख्यान करके कहीं-कहीं प्रादुर्य वचन के अभाव में भी स्वार्थ में मयट् ' होता है । अतएव 'चिन्मयं ब्रह्म' इस प्रयोग में 'समानाधिकारण्य देखा जाता है । यह लखाब्देन्दु शेलार में स्पष्ट है । प्रक्रिया कौमुदी 1. यत्तु प्राचा मयटि नित्यमिति पठितम्, यच्च हलन्त प्रकरणे षण्णा, अहणा मि त्युदाहृतम् , यच्च 'यरो नुनासिक: ' इति वाइननासिक इति तत्र व्याख्यातं तत्सर्व भाष्य विरोधादुपेक्ष्यम् । -मनोरमा हल्सन्धि प्रकरणम्, पृष्ठ 196. Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 73 में तो 'मयद नित्यं' यह पढ़ा गया है । इसको भाष्य विरोध होने से दीक्षितजी ने दूषित कर दिया है । 'प्रत्यये नित्यं' इतना ही भाष्य में देखा गया है । इस अभिप्राय से कौमुदीकार ने 'तन्मात्र' यह प्रयोग प्रत्यान्तर घटति उदाहृत किया है । कौमुदी प्रकाशकार के मत में 'मयद्' ग्रहण को प्रत्यय मात्र का उपलक्षण मानकर 'मयद निक्र्ण इसे ग्रन्थय को । कथांचित् संग्रह करना चाहिए । 'यो नुनासिकेऽनुनासि को वा' इस सूत्र में विभाषार्थक वा शब्द पढ़ा गया है । स्थित विभाषा' है । वह 'विभाषा' 'व्यव हो व्यवस्था यही है कि प्रत्यय परे रहते नित्य ही अनुनासिक इस प्रकार वृत्तिकार 2 ने वार्तिक के अर्थ को व्यवस्थित विभाषा मानकर साधित किया है । इनके मत से यह वार्त्तिक अपूर्व वचन न होकर अनुवादक मात्र है । प्रक्रियाप्रकाशकार ने भी वृत्तिकार के मार्ग का ही अनुसरण किया है । प्रकाशकार ने प्रत्यय परे रहते नित्य अनुनासिक विधान की तरह 'वृच्छ्वमुखाम्' इत्यादि प्रयोगों में वकार को अनुनासिका भाव के लिए यहाँ 'व्यवस्थितविभाषा 4 माना है । अन्यथा 'चतुर्मुखः ' इत्यादि प्रयोगों में 'रेफ' के सवर्णी अनुनासिक न रहने पर दोष न होने पर भी 'वृच्छ्वमुखम्' इत्यादि प्रयोगों में 'वकार' के 9 1. अत्र मय ग्रहणं प्रत्यान्तरस्याप्युपलक्षणम् । मात्र मतृवादिष्वपि नित्यमेव भवति । 2. व्यवस्थित विभाषा विज्ञानात्तिद्वम् । तेन तन्मात्रम्, गुडलिणमान् इति प्रक्रिया प्रकाश, हल्सन्धिप्रकरणम् काशिका 8 / 4/ 45. 3. एतदपि व्यवस्थित विभाषा विज्ञानाल्लभ्यते प्रक्रिया प्रकाश, हल्सन्धिप्रकरणम् । 4. 'वृक्षव मुखमि त्यत्र प्राप्नोति । यद्यपिवस्य मवानाः प्रयत्नभेदान्नान्तरतमातथापि नासिकोवकार: प्राप्नोति । तस्माद्र व्यवस्थितविभाषा त्वाददन्तः स्थानामनुनासिको न भवतीति व्याख्येयम् । प्रक्रियाप्रकाश, हल्सन्धि प्रकरणम् । - Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'सवर्णी अनुनासिक' होने के कारण दोष दुर्वार है । अतः व्यवस्थित विभाषा मानना आवश्यक है किन्तु महाभाष्य में व्यवस्थित विभाषा की चर्चा नहीं है उनके अनुसार यह वार्तिक वाचनिक ही है । यवल परे यवला वा 'हेमपरे वा 2 इस सूत्र के भाष्य पर 'यवल परे यवल वा' यह वार्तिक पढ़ा गया है। इस वार्तिक में 'हेमपरे वा' इस सूत्र से 'हे' पद की तथा 'मोऽनुस्वारः ' इस सूत्र से 'मह' पद की अनुवृत्ति होती है । 'यवल ' पर 'शब्द 'हे' का विशेषण है । 'यवला: परा: यस्मात्' यह बहुब्री हि समास है । यकार, वकार, लकार, परक, हकार परे रहते 'मकार' के स्थान में य, व, ल, होता है। यह वा क्य का अर्थ है । यथा-सख्य सम्बन्ध होने से यकार परक हकार परे मकार को यकार तथा वकार परक'ह' परे रहते वकार तथा लकार परक 'ह' परे रहते लकार होता है । इसके विकल्प में 'मोऽनुस्वारः ' सूत्र से अनुस्वार होता है। इसका उदाहरण है कि 'हयः किय यः किं हवलयति किवध्वलयति, किं हलादयति किन हलादयति हवलयति' इस प्रयोग में हल्, हम चलने धातु से 'णिय' प्रत्यय हुआ है । ज्वल, हवल, इत्यादि सूत्र वार्तिक के द्वारा 'मित्व ' होता है। तथा 'मिता स्व: इप्त सूत्र से हस्व हो जाता है । उक्त प्रयोगों में 'किं' 1. लञ्च सिद्धान्त कौमुदी, हल्सन्धि प्रकरणम् पृष्ठ 87. 2. अष्टाध्यायी 8/3/26. Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 75 के मकार' के स्थान पर उनके अन्तरतम अनुना सि क य लॅ होते हैं। अनुनासिक और अननुनासिक के भेद से ये व ल दो प्रकार के होते हैं । 'मकार अनुना सिक' ही होता है । न्यास पदम जरी और प्रक्रिया प्रकाशकार के मत से यहाँ 'मकार' के स्थान पर 'अनुनासिक' ही यँ ल होने चाहिए । नागेश के मतानुसार 'अननुनासिक ' ही 'यवल' होता है । यवल ' के दो प्रकार होने पर भी वार्तिक में अननुनासिक' का ही निर्देश है । ग्रहण-शास्त्र के बन से 'अनुनासिक य व ल' का ग्रहण नहीं हो सकता है तथा जाति पक्षों को आश्रयण करने पर भी 'अनुनासिक य व ल' का ग्रहण नहीं होता है क्योंकि 'भाव्यमानेन सवर्णानां न ग्रहणं' अर्थात् विधीयमान अण सवर्ण का ग्रहण नहीं कराता है ।। इस परिभाषा से निषेध हो जाने के कारण यहाँ सानुनासिक 'यवल' का गृह्य नहीं होता है । यह उद्योत' और लधाब्देन्दुशेखर में स्पष्ट है। यह वार्तिक भी 'अनुस्वार' के विकल्प पक्ष में 'यवल ' के अपूर्व विधान करने के कारण वाचनिक है । न्यासकार ने इस वार्तिक के अर्थ की भी व्याख्यान साध्य बतलाया है। उनका कहना है 'मोराजिः समः क्वो' इस सूत्र में 'न' ही - - - - - - - - - - - - - - - - - - 1. वार्तिके यवला निरनुनासिका एव विधीयमान त्वात् । उदाहरणेनु सानुनासिक ___ लेखास्तु लेखक प्रमादादित्याहुः । - उद्योत 8/3/36. 2. एते यवला निरनुनासिका एव विधीयमानत्वेन सवर्णाग्राहकत्वात, जातिग्रहण प्राप्तस्यैव गृणाभेदकत्व प्राप्तस्यापि 'अप्रत्यय' इत्यनेन निषेधाध्य । लघु शब्देन्दु शेखर, हल्म न्धि प्रकरणम्, पृष्ठ ।29. Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहना चाहिए । उसकी जगह पर 'म: ' यह अधिक विधान के लिए है । अधिक विधान 'य व ल ' ही है। जैसा कि उन्होंने कहा है कि क्विन्तरा जि परे रहते 'सम' के 'मकार' को 'अनुस्वार' नहीं होता है इतना ही सूत्रार्थ कर देने से लTEE हो जाता है 'मकार' का निर्देश अधिक विहित है । वह संचित करता है कि इस प्रकरण में अधिक भी विधियां होती हैं। इस प्रकार प्रकृत वार्तिक का अर्थ सिद्ध हो जाता है। चयो द्वितीया: शरि पौष्करसादेरि तिवाच्यम् । 'नादिन्याक्रोशे पुत्रस्य '2 इस सूत्र के भाष्य में यह वार्तिक पढ़ा गया है। यहाँ 'चयः' में स्थान छठी है । 'चयः = च c त क पाना' अर्थात् च प्रतिहार के ; प्रथम अक्षार च ट त क प इनके स्थान में सर = स ा ा परे रहते वर्गों के द्वितीय अक्षार साक्षा ठ थ फ होता है। पौष्करसादि आचायीं के मतानुसार आचार्य विशेष के नाम लेने से यह विकल्प विधि है । स्थानकृत आनन्तर्य लेने से तत् तद वगों के ही दितीय अधार होता है। इसके उदाहरण हैं वत्सः, वसः, क्षीरम रूषीरम् , अप्सरा, अख्सरा, वत्सः यहाँ पर व्युत्पत्ति पक्ष में वद धातु से अवणादिक 'स' प्रत्यय हुआ है । दकार को चत्वेन तकार होता है । इस तकार को इस वार्तिक से पाक्षिक धकार होता है। इसी प्रकार 'अप्सरा' शब्द में भी 1. लघु सिद्धान्त को मुदी हलमन्धि प्रकरण, पृष्ठ 8. 2. Ascाध्यायी 8/4/48. Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'अप्' पूर्वक 'सृ' धातु से 'अति' प्रत्यय हुआ है । 'अप्' के 'पकार' को 'परत्वेन' 'ब' हो जाता है और उसको 'चवेंन चकार' होता है । उस 'प' को इस वार्तिक से पाक्षिक 'फकार' होता है। यहाँ का होती है कि इस वार्तिक की दष्टि में इन प्रयोगों में 'पर्व' के असिद्ध होने से 'चय ' के अभाव होने के कारण इस वार्तिक की प्रवृत्ति कैसी होगी। कुछ लोगा इस शंका का उत्तर देते हैं। यह छन्द में प्रयोग होता है अतः 'चा' असिद्ध नहीं है। वस्तुतस्तु पाणिनीय मत में 'उणादि' विष्य में अत्युत्पत्ति पक्ष ही माना जाता है । अतः वत्तः अप्सरा इत्यादि प्रयोगों में तकार पकररादि से घटित अव्युत्पन्न ही है। उसमें 'चत्वादि' के द्वारा 'तकारादि' की निष्पत्ति नहीं हुई है । अतः इस वार्तिक की प्रवृति निबांध है । यह लघु शब्देन्दु शेखर के स्पष्ट है । सिद्धान्त कौमुदीकार ने 'प्राइकठ: ' 'सुगणकठः इन प्रयोगों में इप्त वार्तिक को संचालित किया है । इसी रूप में लघु सिद्धान्त को मुदीकार ने भी इसे ग्रहण किया है। इन दोनों प्रयोगों में क्रममाः 'डणोः कुक्ट कधारि' इस सूत्र से 'कुक्' और 'क्' का आगम हुआ है तथा इस वार्तिक से 'ककार' और 'आकार' को क्रममाः 'खकार' और ठकार होता है। इस वार्तिक से विहित वर्गों के द्वितीय Bार को 'विधान सामध्यांत' च त्वं नहीं होता है । अन्यथा द्वितीय वर्ण विधान ही व्यर्थ होगा । Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कानां तो वक्तव्यः। 'समः सुटि 2, 'पुनः खय्य म्परे' 'कानामेडिते' इन तीनों सूत्रों को पढ़कर इन्हीं के विष्य में यह वार्तिक भाष्य में पढ़ा गया है । येतीनों सूत्र 'स' 'पु' और 'कान' के 'मकार' और 'नकार' को यथोक्त निमित्त परे रहते 'रुत्व' करते हैं । 'संपुंकानाम्' यह वार्तिक उस सकार' का विधान करता है इसके लिए इस वार्तिक को बनाना चाहिए । भाष्य में यह वार्तिक 'संपुकानाम् सत्त्वं' इस रूप में पढ़ा गया है । 'सत्त्वं' का अर्थ 'सकार' है । 'समः सुटि' इत्यादि तीनों के द्वारा प्रकृत स्थूल में अर्थात् 'स''पू' इत्यादि 'मकारों' को 'रुत्व' के विधान करने पर वार्तिककार ने अनिष्ट की प्रसक्ति भी कहा है । महाभाष्यकार ने उस अनिष्ट प्रत क्ति को स्पष्ट किया है । यदि 'सम्' के 'मकार' को 'रुत्व' हो तो 'संस्कर्ता' इत्यादि प्रयोग में 'वाशरि' सूत्र की प्रसक्ति 'पुस्का म्' यहाँ पर 'इंदूदूपत्य ' इस सूत्र के द्वारा 'सत्त्व' की प्रतिक्ति तथा कास्कान्' यहाँ पर 'कुपौ: ' इस सूत्र के द्वारा 'जिह्वामूलीय' की प्रसक्ति होगी, क्योंकि इन प्रयोगों में 'सत्व' होने के बाद विसर्ग की प्रसक्ति तथा विसर्ग के अनन्तर उपर्युक्त विध्यिा प्राप्त होने लगेंगी किन्तु इन प्रयोगों में सकार' 1. लघुसिद्धान्त कौमुदी, हल्स नि प्रकरणम्, पृष्ठ १५. 2. अष्टाध्यायी, 8/3/5. 3. वही, 8/3/6. 4. वही, 8/3/12. Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ही इष्ट है । अत: इस वार्तिक के बिना उस की सिद्धि नहीं हो सकती । अतः 'लानात् रुत्वादि' को बाधाकर 'त' 'पु' इत्यादि 'मकार' और 'नकार' के स्थान पर 'कार' का ही विधान करना चाहिए । इस प्रकार इस वार्तिक के द्वारा विहित 'शकार' को 'स सजुषो सः '' इस सूत्र के द्वारा 'सत्व ' नहीं होता है क्योंकि सूत्र की दृष्टि में वार्तिक 'कृत्' सत्त्व' ॐ सिद्ध हो जाता है अतः 'संस्कता' आदि प्रयोगों में पूर्वोक्त दोष निरस्त हो जाता है। वृत्ति कार ने संस्का' इत्यादि प्रयोगों में समः सुटि 2 इप्त सूत्र से 'रुत्व' के विधान करने पर भी 'वाशरि' की प्रवृत्ति नहीं हो सकती है क्योंकि उस में 'व्यवस्थित विभाषा' आश्रित है । अत: 'विसर्जनीयस्य सः' इस सूत्र से 'सत्व' होकर 'संस्का' प्रयोग की सिद्धि होती है । अतः उनकी रीति से इस वार्तिक से 'पुकान में ही सत्व विधान सार्थक है। किन्तु प्रकृत भाष्य की पलिोचना से वृत्तिकार का मत विरुद्ध प्रतीत होता है क्योंकि भाष्यकार ने 'वाशरि' सूत्र की आपत्ति दिया है । अतः व्यवस्थित विभाषा का आश्रय उचित नहीं है। 4 इस दार्तिक के उदाहरण संस्का, पुस्को मिलः, कास्कान इत्यादि हैं। इन प्रयोगों में संपुं और कान के मकार और नकार को सकार होता है I. acाध्यायी 8/2/66. 2. वही, 8/3/5. 3. वही, 8/3/34. 4. वही, 8/3/36. Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80 उसके पूर्व में पाक्षिक अनुस्वार और उसके अभाव में अनुनासिक होता है । 'सत्व ' के अभाव में तत् सन्नियोग शिष्ट अनुस्वार और अनुनासिक भी नहीं होंगे ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए क्योंकि ये दोनों 'सत्व' के सन्नियोगा शिष्ट नहीं है । अपितु 'सत्व' के प्रकरण में जिस का भी विधान होता है उत्त के सन्नियोग शिष्ट हैं। इस वार्तिक से 'सत्व' का विधान 'र' प्रकरण में ही होता है । अत: 'अनुना सिक' और 'अनुस्वार' की प्रवृत्ति हो जाएगी। यह प्रदीप और उद्योत में स्पष्ट है । यहाँ 'अत्रानुनासिक: । पूर्वस्य तुवा' इत्यादि सूत्र में 'अत्र' शब्द का ग्रहण 'सत्व' के सन्नियोग की प्रतिपत्ति के लिए है। इस वृत्ति ग्रन्थ का आश्रय 'रू.' प्रकरण विधेय से है । यह न्यास एवं पदम जरी में स्पष्ट है । अतएव भाष्यादि ग्रन्थों में इस वार्तिक से तत्त्व' विधान होने पर उक्त प्रयोगों में 'अनुस्वार' और अनुनासिक' की अनापत्ति रूप दोष नहीं दिया है। इससे यह ज्ञात होता है कि ये दोनों 'र' प्रकरण विधेय सन्नियोगशिष्ट ही है । अत: वार्तिक के द्वारा 'सत्व' विधि में भी इन दोनों की पाक्षिक प्रवृत्ति होगी ही। इसी प्रकार समो वा लोपम एक इच्छन्ती' इस भाष्य के अनुसार 'सम' के मकार' के लोप होने पर भी 'र' प्रकरण विधेय होने से 'अनुस्वार' और 'अनुनासिक' होते ही हैं। प्रातिशाख्य में जो यह कहा गया है कि 'नकार' 1. अष्टाध्यायी 8/3/2. Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. और 'मकार' को 'क' करने पर ही 'उपधारन्जन' अनुस्वार और अनुनासिका होगा लोप और प्रकृतिभाव करने पर नहीं होगा वह ठीक नहीं है यह लामाब्देन्दु शेलार में स्पष्ट है क्योंकि वह उस शाखा के प्रयोग के लिए है । भाष्यकार ने उन्हीं तीन सूत्रों से इन प्रयोगों में 'सकार' का विधान कर इस वार्तिक का प्रत्याख्यान कर दिया है । 'समः सुटि ' सूत्र में 'द्विस का रक' निर्देश माना है । यह भाष्य की उक्ति 'द्वितका रक' निर्देश 'वाशरि' इस सूत्र से विसर्ग पक्षा अभिप्राय से है । 'तमः' में विभक्ति के 'सकार' पक्षा में त्रिसकारक निर्देश होना चाहिए । पहला, विभक्ति 'सकारः, दूसरा आदेश सकार, तीसरा सुटि का सकार । यही 'प्रश्लिष्ट सकार' उत्तर सूत्र में भी अनुवृत्त होता है अत: उन दोनों सूत्रों से भी 'पु' और 'कान् ' के 'मकार' और 'नकार' को 'सकार' होता है । 'सं पुकाना' यह वार्तिक करने की आवश्यकता नहीं है । उक्त सकार की अनुवृत्ति करने पर मध्यवर्ती सूत्र 'नश्छव्यप्रशान्'। की अनुवृत्ति होगी और अनिष्ट प्रयोग की आवृत्ति होगी ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए क्योंकि उसका समाधान भाष्य कार ने स्वयं ही दे दिया है। उन्होंने कहा है कि सम्बन्ध की अनुवृत्ति होगी न कि केवल सकार की। अतः मध्यवर्ती सूत्रों में अनुवृत्ति होने पर भी वह 'सकार' अपने प्रकृति सम्बन्ध को नहीं छोड़ेगा । यह प्रकृति सूत्र के प्रदीप उद्योत में स्पष्ट है । भाव यह है कि 'नाछव्यप्रशान्' इत्यादि मध्यवर्ती सूत्रों में अपने प्रकृति से सम्बन्धित 'सकार' की अनुवृत्ति होगी। अतः मध्यवर्ती सूत्र की - - -- 1. अंटाध्यायी 8/3/1 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 82 इष्ट सूत्र में अपनी प्रकृति यह तथ्य न्यास पदमञ्जरी प्रकृति के साथ सकार' का सम्बन्ध नहीं होगा । को छोड़कर 'सकार' मात्र की अनुवत्ति होगी । में भी स्पष्ट है । इस प्रकार भाष्य प्रमाण्य से सूत्रों के द्वारा ही 'सत्त्व ' विधान सिद्ध होने से यह वार्तिक नहीं करना चाहिए । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रकरणम् सुबन्त प्रकरणम् XXXXXXXXXXXXXXXXX Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीयस्य डि त्सूपसंख्यानम् 'अनन्तरं बायोंगोप संख्यानयो: '2 इस सूत्र के भाष्य पर 'वा प्रकरणे तीयस्य डि त्सुपसंख्यानम्' यह वार्तिक पढ़ा गया है । यह वार्तिक 'ती' प्रत्ययान्त को 'डित्' प्रत्यय परे रहते सर्वनाम संज्ञा का विकल्प करता है संज्ञा विकल्प के तत्प्रयुक्त कार्यों का भी विकल्प सिद्ध होता है। द्वितीयस्मै, द्वितीयाय, तृतीयस्मै, तृतीयाय ये प्रयोग हैं । 'देस्तीयः 'त्रै सम्प्रसारण च५ इन सूत्रों से दि, तु, शब्द से 'ती' प्रत्यय होता है । यहाँ सर्वनाम संज्ञा की प्राप्ति नहीं है । वार्तिक अप्राप्त विभाषा है। इस वार्तिक से ही संज्ञा की सिद्धि हो जाने पर 'विभाषाद्वितीयातृतीयाभ्याम्" इस सूत्र को करने की आवश्यकता नहीं है। इसी वार्तिक से ही उक्त सूत्र प्रयुक्त कार्य की सिद्धि हो जाती है। द्वितीयस्यै, ततीयस्यै, द्वितीयाय, तृतीयायै ये प्रयोग उक्त सूत्र 1. लघु सिद्धान्त को मुदी, अजन्त पुल्लिङ्ग प्रकरणम्, पृष्ठ 15।. 2. अटाध्यायी ।/1/36. 3. वही, 5/2/54. 4. वही, 5/2/55. 5. वही, 6/3/115. Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से साध्य है । इन प्रयोगों में द्वितीया, तृतीया शब्द को लिद्ग िविशिष्ट परिभाषा के द्वारा तो प्रत्ययान्त मानकर उक्त वार्तिक से सर्वनाम संज्ञा विकल्प से सिद्ध हो जाती है। सूत्र के द्वारा वार्तिक गतार्थ नहीं हो सकता क्योंकि पुल्लिंग प्रयोग में सर्वनाम संज्ञा का विकल्प सूत्र से नहीं सिद्ध हो सकता है । वार्तिक की अपेक्षा सूत्र अल्पविष्यक है । यह वार्तिक भाष्यरीति के अनुसार वाचनिक है क्योंकि सर्वनाम संज्ञा विकल्प का साधन कोई प्रकारान्तर नहीं दिखाया गया । न्यासकार ने 'विभाषा जसि'' इस सूत्र से विभाषा योग विभाग कर इप्स वार्तिक के अर्थ की सिद्धि किया है। उनके मतानुसार उपसंख्यान शब्द का प्रतिपादन ही अर्थ है । वह प्रतिपादन विभाषा इस योग-विभाग से किया गया है। विभाषायोग में सर्वदीनि और द्वन्द्र प्रद का सम्बन्ध नहीं किया गया है। इससे विभाषा योग से 'ती' प्रत्ययान्त विकल्प से 'ती' सिद्ध हो जाती है । योग विभाग की इष्ट सिद्धि के लिए लक्ष्यानुसार व्याख्या करने से अतिप्रसक्ति भी नहीं होती है। अतः इनके मत से यह वार्तिक अपूर्व वचन न होकर सूत्र सिद्धि अर्थ का अनुवादक है किन्तु इस पदों में डित् प्रत्यय से भिन्न स्थल में भी अतिप्रसक्ति सम्भव है ! अत: यह मत चिन्त्य है । यह यहाँ ध्यान देने की , 1. 'विभाषा द्वितीयाहतीयाभ्याम्' इत्येतन्नवक्तव्यं भवति । किं पुनरत्रज्यायः उपसंख्यानमेवात्र ज्यायः । इदमयि सिद्ध भवति । द्वितीयाय द्वितीयस्मै, तृतीयाय, तृतीयस्मै इति । महाभाष्य 1/1/36. Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 85 बात है कि भाष्यकार ने इस वार्तिक को मानकर 'विभाषा द्वितीया तृतीयाभ्यां' इप्त सूत्र का प्रत्याख्यान कर दिया गया है किन्तु न्यासकार और पदम जरी कार ने विपरीत सूत्र को ही आश्रयण कर के वार्तिक का ही प्रत्याख्यान किया है । उनका यह आशय है कि प्रथम प्रवृत्त होने के कारण सूत्र का प्रत्याख्यान उचित नहीं है । अपितु सूत्र का आश्रय ले कर वार्तिक प्रत्याख्यान ही उचित है । उनका अशय यह है कि 'विभाषा द्वितीया तृतीयाभ्यां' सूत्र में'स्याद दृस्वच' का सम्बन्ध नहीं करना चाहिए । अपितु सर्वनाम: ' इसी का सम्बन्ध करना चाहिए । इस सूत्र को अतिदेश मान लेना चाहिए 'द्वितीयातृतीयाभ्यां' की जगह पर 'हस्वान्त' 'दितीय तृतीयभ्या यही पढ़ना चाहिए । तब सर्वनाम को जो कार्य कहा गया है वह 'डित्' प्रत्यय परे रहते द्वितीय तृतीय शब्द से भी विकल्प से होता है । यह सूत्रार्थ सम्पन्न होगा। इससे द्वितीयत्यै द्वितीयाय इत्यादि में 'स्याहस्व' के समान द्वितीयस्मै और द्वितीयाय इसमें भी 'सर्वनामत्व' प्रयुक्त अस्मै आदि आदेश विकल्प से सिद्ध होता है । अतः इसके लिए वार्तिक करने की आवश्यकता नहीं है । यह तथ्य 'विभाषा द्वितीया तृतीयाभ्यां' सूत्र में पद म जरी' में स्पष्ट है । वार्तिक का आश्रयण करने वाले महाभाध्यकार का तात्पर्य है कि 'यथोत्तरं मुनीनां प्रामाण्यं' इस के अनुसार वार्तिककारीय अर्थ में ही सूत्रकार का भी तात्पर्य है । अतः वार्तिक का प्रत्याख्यान नहीं किया जा सकता है। - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - 1. का शिका न्यास पद मजरी, /3/215. Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नुमचिरं तृज्वद भावेभ्योनुद पूर्व विप्रतिषेधेन । 'स्त्रियां च 2 इस सूत्र के भाष्य में यह वार्तिक पढ़ा गया है । 'इकोचिविभक्तौ ' इस सूत्र से प्राप्त नुम को 'अचिर प्रतx'' इस सूत्र से प्राप्त 'र' आदेश को 'विभाषातृतीयादिष्वचि' इस सूत्र से प्राप्त तन्वद भाव को 'नुद' पूर्वप्रतिषेधेन विप्रतिषेधन बाध लेता है । यह वार्तिक का अर्थ है । 'नुद' पहले पढ़ा गया है और 'नुमा दि' बाद में पढ़ा गया है । पर बली होने के कारण 'नुद' प्राप्त नहीं था अतः पूर्वप्रतिषेध का आरम्भ किया जाता है । इस स्थन पर 'तुम्' का अवकाश 'त्रपुणी इस प्रयोग में है । 'अग्निनाम' इस प्रयोग में 'नुम्' का अवकाश है 'पूणां' इस प्रयोग में दोनों की प्राप्ति होने पर पूर्व विप्रतिषेध से. 'नुद' होता है । 'तिम्र: ' इस प्रयोग में 'अचिर' आदेश का अवकाश है । नु८ का अवकाश उक्त स्थन में दर्शाया गया है । 'तिम्रणाम्' इस प्रयोग में दोनों की प्राप्ति होने पर पूर्व विप्रतिषेध से नुद होता है। तृज्वद भाव के अवकाशा 'क्रोष्ट' इस प्रयोग में है । नु का अवकाश दशाया गया है । 1. लघु सिद्धान्त को मुदी, अजन्त पुल्लिंग प्रकरणम् , पृष्ठ 191. 2. अष्टाध्यायी, 7/1/96. 3. वही, 7/1/13. 4. वही, 7/2/100. 5. वही, 7/1/97. Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'क्रोष्टूना' इस प्रयोग में दोनों की प्राप्ति होने पर पूर्व विप्रतिषेधे से नुद होता है। इस प्रकार 'त्रपूणां' त्रिसूणाम् कोष्टूनाम् आदि इप्स वार्तिक के उदाहरण माने जाने चाहिए । अब शांका करते हैं कि क्रोष्टूनाम' इस स्थन में तृज्वद भाव करने पर भी 'इस्वनद्यापोनुट्'' इस सूत्र से 'नु' की प्राप्ति होती है तथा उसके 'नक करने पर भी वह प्राप्त होता है । अतः 'नुद' नित्य हो जाता है। तृज्वद भाव तो 'नुः ' करने के बाद 'अजादित्व' के अभाव से अप्राप्त होता है । अत: वह अनित्य है । इस स्थिति में नित्य और अनित्य 'नुद' और तृज्वद भाव के रहने पर विप्रतिषेध कैसे हो सकता है क्योंकि तुल्यबन में ही विप्रतिषेध का होना उचित होता है । नुद तो अनित्य होने से अधिक बन है । इस शंका का समाधान करते हैं कि तज्वद् भाव के कर देने पर सन्निपात परिभाषा के विरोध से नुद प्राप्त नहीं होता अतः नुद भी अनित्य हो जाता है । इस लिए समबन होने से. विप्रतिरोध का होना समुचित है । इस पर भी विप्रतिषेध को अयुक्त सिद्ध कर रहे हैं। क्योंकि 'र' आदेश प्राध्य सामान्य चित्त पक्ष के अनुसार गुण दीर्घ और 'उत्व' के समान नुद का भी अपवाद है । अर्थात स्व-विष्य में जो जो प्राप्त हो वह सब बाध्य सामान्य चिन्ता से 'र' आदेश से बाधित होगा। जैसे 'तिस्त्र: ' इत्यादि स्थन में 'गुण दीघा दिक'' बाधित होते हैं। इस 1. अष्टाध्यायी 7/1/54. Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकार 'त्रिनाम्' इस प्रयोग में नुद भी 'अपवाद त्वेन' बाधित होगा। विप्रतिसंध से 'नुद' बाध नहीं कर सकता, क्योंकि उत्सर्ग और अपवाद का विप्रतिरोध उपयुक्त नहीं होता। इस बात को वार्तिककार और भाष्यकार ने कहा है । 'न वा नुद विध्ये रप्रतिरोधात इति' न वैतदि विप्रतिषेधेत नापि सिध्यति तिम्रणाम् चतस्त्रण इति, नुट के विष्ष्य में 'र' का प्रतिषेध होने से पूर्वकथन उपयुक्त नहीं है और विप्रतिषेध से भी यह सिद्ध नहीं होता है । तिस्त्रणाम् चतस्त्रणास इति तो कैसे सिद्ध होगा १ नुद के विषय में 'र' का प्रतिमा होने से १ नुद के विष्य में प्रतिषेध करना, कहना चाहिए १ अन्यथा सभी का अपवाद हो जाएगा अर्थात् 'र' ॐादेश अन्यथा सभी का अपवाद हो जाएगा। वह जैसे-गुण एवं पूर्व सवर्ण को बाधता है इसी प्रकार नुद को भी बाधित करेगा। इस पर कहते हैं कि न तिस्त्रि यतस्त्रि इस निषेध रूप ज्ञापक के द्वारा 'र' आदेश से नु बाधा जाएगा। ऐसा ज्ञापन करेंगे अन्यथा तिस्त्रिणाम् इस प्रयोग में नुद को बाधाकर 'र' आदेश होने पर नु८ की अप्राप्ति से नाम इस शब्द के स्वरूप के न रहने पर और अजन्त अंग के अभाव से 'नाभि'' इस सूत्र की प्राप्ति नहीं होगी। इस स्थिति में न तिस्त्रि यतस्त्रि यह निषेध व्यर्थ हो जाएगा और यह निषेध व्यर्थ होकर 'र' आदेश नु का अपवाद नहीं होगा यह ज्ञापन करेंगे । इस विष्य में बाध्य सामान्य चिन्ता पक्षा का आयण नहीं किया जाता है और जब 'र' आदेश नुद का अपवाद नहीं बनेगा तो नुद और 'र' आदेश का विप्रतिय I. Arcाध्यायी, 6/4/3. Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुचित ही होगा। जैसा कि भाष्यकार ने अपने शब्दों में कहा है - 'जाचार्यप्रवृत्ति ज्ञापयति न रादेशो नुट बाधते इति' यदय 'न तिमृच्तमृ' इति निषेधं शास्ति । यहाँ पर पूर्वप्रतिषेध अपूर्व नहीं है । अपितु 'विप्रतिषेधे परं कार्य 2 इस सूत्र में पर शब्द को इष्टवाची मानने से स्वतः सिद्ध हो जाता है । विप्रतिअंध में जो इष्ट हो वह होता है । इस बात को भाष्यकार ने कहा है कि तो क्या ” पूर्व विप्रतिषेध को कहना चाहिए १ फिर कहाँ नहीं कहना चाहिए । क्योंकि इष्टवाची पर शब्द होने से विप्रतिषेध में जो इष्ट होवे वह होता है । यद्यपि यह भाष्य प्रकृति वार्तिक के अव्यवहित पूर्व गुण वृदयौ त्व 'तज्वद भावेभ्यो नुम् विप्रतिषिद्ध' इस वार्तिक को अधिकृत्य कर के प्रवृत्त है तो भी तुल्य न्याय से प्रकृत वार्तिक में भी समायोजित किया जा सकता है । इसलिए 'तुज्वदभावाच पूर्वविप्रतिषेधने नुम् नुटौ भवतः "" इस काशिकावृत्ति ग्रन्थ का व्याख्यान करते हुए आचार्य ने 'नुम्' और 'नुद' दोनों के विषय में पर शब्द को इष्टवाची मानकर पूर्व विप्रतिषेध को सिद्ध किया है । अत: यह वार्तिक पर शब्द को इष्टवाची मानकर न्यास सिद्ध माना जाता है न कि वाचनिक | 1. महाभाष्य 7/1/95-97 2. अScाध्यायी 1/4/2. 3. महाभाष्य 7/1/95-96. 4. का शिका 7/1/197. 5. “क्रोष्टूनामित्यत्रोभ्य प्रसइगे सति नुइ, भवति पूर्व विप्रतिमेति । पूर्व विप्रतिधेस्तु परशब्दत्येष्टवाचित्वाल्लभ्यते । - न्यास पदमञ्जरी, 7/1/97. Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृन्कर पुनः पूर्वस्य भुवोयन क्तव्यः । 'वर्षाभ्वश्च 2 इस सूत्र में 'वाभूय न पच' यह वार्तिक पढ़ा गया है। इस वार्तिक के उमर 'वभू' इस जगह पर 'पुनश्च' ऐसा कहना चाहिए । यह भाष्य है। इस वार्तिक का अनुसन्धान करे के भाष्यकार ने आगे कहा कि यह बहुत कम कहा जा रहा है । 'वात् , दन्कार पुनः पूर्वस्य भव' ऐसा कहना चाहिए 'न भू सुधियो: '3 इस सूत्र से 'ओ: सुपि" इस सूत्र से प्राप्त 'जड़' प्रारम्भ किया जाता है । इस का उदाहरण दृन्भ्वो, दन्भवः, कारभ्वो, कारभ्वः, पुनभ्वों पुर्नभ्वः इत्यादि भाष्य में कहे गए हैं। वहाँ 'दृन्भ' शब्द हिंसार्थक 'दन्' अव्यय पूर्वक 'भू' धातु 'क्विप् ' करने से बनता है । प्रक्रिया प्रकाश में तो दृढ़ो भवति' इस विग्रह में 'दृढ भू' की व्युत्पत्ति की गई है । 'उणादि' निपातन के द्वारा 'दृढ' शब्द के स्थान पर 'दन् ' आदेश करना पड़ेगा । 'नान्त दन्' अव्यय रहने पर 'भू' धातु से 'क्विए' कर के 'किए' पक्ष भी वहाँ दिखाया गया है । 'दृ ' धातु से णादिक 'उत्' प्रत्यय के ।. लघुसिद्धान्त कौमुदी, अजन्त पुल्लिंग प्रकरणम्, पृष्ठ 196. 2. अष्टाध्यायी, 6/4/84. 3. वही, 6/4/85. 4. वही, 6/4/83. 5. दृढ़ोभवती ति दृन्भूः । तसर्पजातिभेदः । उणादिषु निपातनात् ददशाब्दस्य दृन्नादेशाः । - प्रक्रियाप्रकाश, 6/4/84. 6. श्रीपतिस्तु दृन्नितिनान्ते हितार्थेऽवयये भुवः क्वि वित्याह । वही, 6/4/84. Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वारा 'अन्दू' ''दृम्भू' इत्यादि 'उणादि' सूत्र से निपातित 'दृन्भवति' इत्यर्थंक दृम्भू' शब्द बनाने से 'भू' शब्द अनर्थक हो जाएगा । वहाँ इस वार्तिक की प्रवृत्ति नहीं होगी । अतः वहाँ पर 'इकोयणचि से 'यण' ही होगा । " और वह यणु अम् और शति विभक्ति में पूर्वरूप एवं पूर्वसवर्ण दीर्घ से बाधित होगा । अतः 'अम्' विभक्ति 'दृम्भू' और 'शक्ति' में 'दृम्भून्' यह रूप होगे । उक्त 'भू' धातु प्राकृतिक 'दृम्भू' शब्द में जो वार्तिक का विषय है वहाँ 'अम्' और 'शक्ति' विभक्ति में 'पूर्वरूप' एवं 'पूर्वसवर्ण दीर्घ' को बाधकर 'परत्वात्' इससे 'यण' होगा । 'दृम्भू' 'दृभ्वः' । इसी प्रकार 'श्वलपू' शब्द को भी जानना चाहिए । इस वार्त्तिक का व्याख्यान करते हुए कैप्यट ने 'अन्दू दिन्भू' इत्यादि सूत्र से व्युत्पादित 'दिन्भू' शब्द माना है । उसमें भू शब्द अनर्थक है । 'न भू सिद्धयो:' इस निषेध सूत्र में उतका ग्रहण न होने से उन्होंने 'यण' आदेश को सिद्ध माना है । उक्त 'दृन्भू' शब्द में पूर्वरीति से 'य' आदेश के लिए वार्त्तिक में 'दृन्भू' शब्द ग्रहण करना नहीं चाहिए । कैयूयट के इस आशय को नागेश ने असंगत माना है उनका कहना है कि 'दृ पूर्वक भू' धातु से 'क्विप्' के द्वारा निष्पन्न 'दृन्भू' शब्द में यणु करने के लिए वार्तिक में 'घणु' की सिद्धि के लिए वार्तिक का उपयोग नहीं है । अतः वह 'दृन्भू' शब्द वार्त्तिक का उदाहरण नहीं हो सकता । यह तात्पर्य उक्त कैय्यूट का हो सकता है । इसका 1. अष्टाध्यायी, 6/1/77. 2. कि च दृन्नितिनान्त उपपदे 'भुवः क्विपि' निष्पन्नदृम्भूशाब्दार्थ वार्त्तिके दृन्भू ग्रहणस्यावश्यकत्वाच्चिन्त्यमिदम् । Jata 6/4/84. Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह अर्थ नहीं है कि प्रकारान्तर से निष्पन्न 'भू' प्रकृतिक 'दन्भू' शब्द है ही नहीं । 'अवणादिक' वह शब्द है वहाँ पर वार्तिक का उपयोग नहीं है । अतः वार्त्तिक में 'दृन्' ग्रहण व्यर्थ है । ऐसा कैय्यट का तात्पर्य मानना चाहिए। नागेश ने अन्यथा निष्पन्न 'दन्भू' शब्द की दृष्टि से कैय्यः वचन को चिन्त्य कहा है । प्रक्रिया को मुदी में तो 'दृकारापुनश्चेति वक्तव्यम्' ऐसा कहा गया है । अतः वहाँ 'दृन्' शब्द के स्थान पर 'दृक्' शब्द पढ़ा गया है । दग्भ्वा , दृग्भ्वः यह उदाहरण भी दिए गए है। यह दृक् शब्द का पाठ भाष्य सम्मत नहीं है । इस प्रकार का आशय प्रक्रियाप्रकाश' में स्पष्ट है । मनोरमा कार? ने भी 'दृक्' शब्द पाठ में अपनी अस्वीकृति व्यक्त की है । अतः 'दग्भू' शब्द में 'वइ.' आदेश ही होगा । 'यण' आदेश नहीं होगा । 'कारभ्वो' यहाँ पर 'कर' शब्द में स्वार्थिक 'अण' करके 'कार' शब्द सिद्ध करके बनाया जाता है । यहाँ पर यह समझना चाहिए कि भाष्यकार का यह दीर्घ पाठ ही दिखाई पड़ता है । वहाँ पर 'कर' एवं कारः ' यह व्युत्पत्ति माननी चाहिए । अनुस्मृति में तो कर इस प्रकार का 'स्व' पाठ ही उपलब्ध होता है । उसके अनुरोध से दीक्षितजी ने सिद्धान्तकौमुदी में 'इन्कर पुन: पूर्वश्च' इस प्रकार पढ़ा है जिसे उसी रूप में लघु सिद्धान्त को मुदीकार ने भी स्वीकार किया है । परन्तु दीर्घ पाठ भी 1. दक्कारे ति दृक् शब्द पाठस्तु नाकारः सूत्र वृत्त्युदाहरणव्याख्यासु तन्नान्तरे - प्यनुपल म्भात् । प्रक्रियाप्रकाश 6/4/84. 2. प्राचा तु दम्भूका रामाब्दी वर्षामाब्दवदुदाहृतो, तन्नि मिति भाव प्रौट मनोरमा अजगप्रकरणी Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द बनता है । यह शब्द बन्धन स्थान एवं 'कारागृह' में प्रयुक्त होता है । यह 'कारा' शब्द का पाठ वृत्ति और प्रक्रिया को मुदी में यद्यपि देखा गया है तथा पि भाष्य में अनुक्त होने से निर्मूल है । यह शय मनोरमा और प्रक्रियाप्रकाश में स्पष्ट है । यद्यपि भाष्य में 'कार' शब्द का पाठ होने से 'अई. प्रत्ययान्त 'कार' शब्द से ही टाप करने से 'कारा' प्राब्द के निष्पन्न होने से पूर्वान्तवत् भाव से 'कार' शब्द से 'कारा' शब्द का ग्रहण कर के 'काराभू' शब्द 'यण' का उत्पादन किया गया है । वह भी रमणीय नहीं है क्योंकि भाष्य में 'कार' शब्द का पाठ होने पर भी प्रति द्विवश 'हत्वपाठ' एक वाक्यता के अनुरोध से भी 'हस्तवाची कर' शब्द प्रकृतिक 'स्वार्थिक अण्' प्रत्ययान्त 'कार' शब्द का ही वहाँ ग्रहण है न कि 'ण्यन्त' 'कृ' धातु से 'अह. ' प्रत्यय करने पर निष्पन्न अप्रसिद्ध 'कार' शब्द का ग्रहण है । अत: पूर्वान्तवत् भाव से 'टाप्' करने पर भी 'कारा' शब्द का ग्रहण नहीं हो सकता है । शब्दरत्न में भी इसका स्पष्टी करण किया गया है । 'पुनर्भू' शब्द 'विरूदा' में 'रूद' है । 'रूद' और 'नित्य स्त्रीलिङ्ग' है । 'पुनर्भूदिधतूस्वादि' अमर01 पुनर्भवति इति पुनर्भू इस व्युत्पत्ति - - - - - - - 1. अत्र कारा शब्द पाठो नाकरः भाष्यादौ कर शब्दस्यैव दर्शनात् । - प्रक्रियाप्रकाशा 6/4/84. 2. काराभूरित्यत्र काराशब्द: करोते य॑न्तात् भिदाधडिक्रिपन्नो बन्धनग्रहवाचकस्तस्यटापा सहकादेशस्य पूर्वान्तत्वे पि वार्तिके ग्रहणं न प्रसिद्धत्वेन हस्वपाठेक वाक्यतया च हस्तवाचकस्यैव ग्रहणा दिति भावः । - मनोरमा शब्दरत्न 6/4/84. Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में 'क्रिया' शब्द होने से यह शब्द 'सर्वलिङ्ग' है । इसी लिए दीक्षित ने सिद्धान्त कौमुदी और आचार्य वरदराज ने लघुसिद्धान्त कौमुदी के पुल्लिङ्ग प्रकरण में 'पुन ' शब्द का उदाहरण दिया है । तथा प्रमाण के रूप में 'पुनर्भूयौगिकः ' पुसि' यह कहा है । इस वार्तिक का विष्ष्य 'दग्भू' शब्द 'स्वम्भू' की तरह 'वड् .' का विषय है । 'यण' का नहीं। इसी तरह से 'करभू' शब्द भी है । 'करभू', 'कारभू' शब्द भी पाठभेद 'यण' 'वइ.' दोनों का विषय है । 'हस्व पाठ' में 'करभू' शब्द में 'यण' कारभू' शब्द में 'वइ. ' एवं 'दीर्घ पाठ' में 'कारभू' शब्द में 'यण' और 'करमू' शब्द में 'वई.' होता है । 'पुनर्भू' शब्द 'रूद' और 'यौगिक' दोनों इस वार्तिक के विषय है। यह वार्तिक भाष्य से 'पुनर्भू' आदि का संग्रह नहीं कहा गया है। मनोरमाकार' और न्यासकार2 ने वर्षाभ्वश्च' इस सूत्र से 'चकार' को अनुक्त समुच्चयार्थक मानकर वार्तिक के अर्थ का संग्रह कर लिया है अत: उनके मत में यह वार्तिक व्याख्यान सिद्ध है। I. 'वाभ्विश्च' इति चकारो नुक्तसमुच्चयार्थः अनुक्तं च भाष्यं वार्तिकवलान्तिय मिति भावः । प्रौढ़ मनोरमा 6/4/84. 2. तत्रेदं व्याख्यानम् - चकारो त्रक्रियते, सचानुक्तम मच्चयार्थः । तेन पुनर्वित्यस्था पि भविष्यतीति । न्यासकार। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 96 वर्णान्नस्य णत्वं वाच्यम्' 'रषाभ्यां नोण: 2 समान पदे' इस सूत्र के भाष्य में 'राभ्यां गत्वे कार ग्रहणम्' यह वार्तिक पढ़ा गया है । इसी वार्तिक को फलितार्थ रूप में लघुसिद्धान्तकौमुदी में आचार्य वरदराज ने लिखा है । मातृणां पितॄणां इत्यादि प्रयोगों में णत्व के लिए इस वार्तिक का प्रयोग किया गया है । 'रषाभ्यां' सूत्र के द्वारा 'रकार शकार' के बाद 'नकार' को 'णत्व' किया जाता है । 'मातृणा' इत्यादि में 'रकार शकार' के बाद 'नकार' न मिलने से 'णत्व' प्राप्त नहीं था। इस वार्त्तिक के द्वारा 'णत्व' किया जाता है । यहाँ शंका होती है कि 'मातृणा' इत्यादि प्रयोगों में जो 'रेफांश' उसको निमित्त मानकर सूत्र से ही 'णत्व' सिद्ध हो जाएगा । वार्त्तिक व्यर्थ है । जैसा कि भाष्यकार ने कहा कि 'इस वार्त्तिक को नहीं बनाना चाहिए । 'कार' घघटक 'रेफ' को 'निमित्त' मानकर णत्व' सिद्ध हो जाएगा । यह शंका ठीक नहीं है क्योंकि 'रषाभ्यां नोणः समानपदे' इस सूत्र में 'ब' के साहचर्य से 'रेफ' भी वर्णरूप ही लिया जाएगा और वर्ण वही है जो पृथक यत्न ते साध्य हो । 'कार' घटक 'रकार' वैसा नहीं है । वह वर्ण न होकर वर्णैकदेश है और वर्णैकदेश वर्ण के ग्रहण से ग्रहीत 1. लघु सिद्धान्त कौमुदी, अजन्त पुल्लिंग प्रकरण, पृष्ठ 197. 2. अष्टाध्यायी 8/4/2 3. पृथक प्रयत्न निर्वर्त्य वर्णयिच्छन्त्याचार्याः । - न्यास 87471 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 97 यह सब बातें महा नहीं होते हैं । अतः वार्तिक का आरम्भ करना चाहिए । भाष्य में स्पष्ट है। वस्तुतस्तु भाष्यकार ने इस वार्तिक का प्रत्याख्यान कर दिया है । ही वार्तिक की उपयोगिता नहीं है । वर्ण का एकदेश वर्ण ग्रहण से ग्रहीत होता है । इस पक्ष में तो स्पष्ट "कार" घटक 'रेफ' को निमित्त मान कर 'मातृणा' में 'णत्व' नहीं हो सकता क्योंकि मध्यवर्ती 'अजू भक्ति' का 1 व्यवधान है । 'कार के मध्यभाग में 'रेफ' होता है और उसके दोनों तरफ 'अच्' भाग होता है । वह 'अच्' भाग स्वतंत्र 'अंचू' की अपेक्षा विजातीय है । अतः 'अड्ग्रहण' से ग्रहीत नहीं हो पाएगा । 'अकुप्वाड ' इत्यादि सूत्र से भी 'णत्व' नहीं सिद्ध हो पाएगा । अतः वार्त्तिक करना चाहिए यह शंका ठीक नहीं है क्योंकि 'अट कुप्वाइव्यवाये पि । इससूत्र में 'व्यवाये' ऐसा जो विभाग करके 'रकार' 'शकार' के परे 'नकार' को 'णत्व' होता है । यत्कंचित् व्यवधान में यह अर्थ माना जाता है । दूसरा योग 'अंदकुप् वाइ. नुम भिः ' नियमार्थ मान लिया जाता है । इसका अर्थ है 'अंडादि' अक्षर 'समामनायिक' वर्णों के व्यवधान में 'गत्व' होता है अन्य के व्यवधान में नहीं होता है । इस नियम अादि से अतिरिक्त 'वर्णतमामनायस्थ' वर्ण के व्यवधान की ही व्यावृत्ति होती है । कार घटक अच भाग अक्षर समामनायस्थ नहीं है । अतः 'व्यवाये' इस पूर्वयोग 'मातृणां ' इत्यादि प्रयोगों में 'णत्व सिद्ध हो जाता है । अतः वर्णैकदेश ग्रहण पक्ष में वार्तिक की आवश्यकता नहीं है । वर्णैकदेश के अग्रहण पक्ष 1. Hoc Tearat, 8/4/2. Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 98 में भी इस परिभाषा की आवश्यकता नहीं है क्योंकि अमना दिगण में तृपनोति' शशब्द के पाठ के सामर्थ्य से 'कार' के परे 'नकार' को 'णत्व' होता है यह ज्ञापन हो जाता है। यदि प्रकार के परे गत्व की प्राप्ति न हो तो क्षमनादिगण में तृपनो दि का पाठ व्यर्थ हो जाएगा । अतः यह वार्तिक ज्ञापक सिद्ध ही है । अपूर्व वचन रूप नहीं है अथवा 'छन्द सि वग्रहात्' इस णत्व विधायक सूत्र में 'अतः ' यह योग विभाग किया जाता है और उसमें 'नो णः' इसका सम्बन्ध किया जाता है। इस प्रकार 'सकार' के परे 'नकार' को णत्व सिद्ध हो जाता है । अतः अपूर्व वचन वार्तिक करने की आवश्यकता नहीं है । यह सब 'रषाभ्यां नोणः समानपदे ' सूत्र के भाष्य में स्पष्ट है । का शिका में भी वर्णैकदेश के अग्रहण पक्षा में क्षुमना दिगण में पठित 'तपनो दि' शब्द के सामर्थ्य से श्ववर्ण के परे णत्व होता है। ऐसा भाष्यो क्त प्रकार को माना गया है । का शिका में एक और प्रकार से णत्व की सिद्धि की गई है । 'रषाभ्यां नोण: समानपदे' इस सूत्र में 'र' यह वर्ण का निर्देश नहीं है अपितु 'र' श्रुति सामान्य का निर्देश है । उसका अर्थ है 'र' इति श्रुतिः प्रवणेन उपलब्धिः यस्या सा तत्सामन्यम्' अर्थात 'र' इत्या कारक वात्मिका अधवा 'अवात्मिका व्यक्ति ग्रहीत है । तादृशा । श्रुति। व्यक्ति ग्रहीत है । वैसी श्रुति या व्यक्ति मातृणां में भी उपलब्ध है । अतः 'र' श्रुति सामान्य 'न' में उपलब्ध होता है । 'मातृणां' इत्यादि णत्व सिद्ध हो जाता है । यह पदम जरी में स्पष्ट है । इस पक्षा में भी 'अजू भक्ति व्यवधान' रूप दोष को हटाने के लिए मना दिगण' पठित 'तृपनोदि' इत्यादि शब्द की ज्ञापकता माननी ही पड़ेगी। यह सब का शिकावृत्ति में स्पष्ट है । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यद्यपि यह 'र' श्रुति पक्षा प्रकृति सूत्र के भाष्य में उपन्यस्त नहीं है । तथापि 'रोड'। इस सूत्र के भाष्य में वर्णैकदेश के अग्रहण पक्षा के उपपादन के अवसर पर प्रक्लृप्तः इत्यादि प्रयोगों में ल त्व सिद्धि के लिए कहा गया है कि 'कृपा रोल: इस सूत्र में उभ्यतः स्फोट मात्र का निर्देश है 'र' श्रुति 'ल' श्रुति होती है । तुल्यनाय से वह प्रकार यहाँ भी आश्रित किया जा सकता है । अतः यह भी प भाध्य सम्मत ही है । भाष्यकार ने मना दिगण पठित तपनोति इत्यादि शब्द की ज्ञापकता को अवश्य अश्रयण करने के कारण प्रकृति सूत्र में उक्त पक्ष को नहीं उठाया है। इस प्रकार वर्णैकदेश के ग्रहण अथवा अंग्रहण पक्ष में मातॄणां इत्यादि प्रयोगों में णत्व सिद्धि के लिए इस वार्तिक का अपूर्ववचन रूप में आरम्भ नहीं करना चाहिए । अड, श्या प्रतिषेधो वाच्यः 'यत्येति च "" इस सूत्र के भाष्य में 'यस्य इत्यादौ श्यां प्रति: ' इस रूप से यह वार्तिक पढ़ा गया है । इस वार्तिक के द्वारा 'यस्येति च ' सूत्र से 2. AFटाध्यायी 8/2/18. 3. लघु सिद्धान्त कौमुदी अजन्तनपुंसकलिंग प्रकरण, पृष्ठ 224. 4. अEcाध्यायी 6/4/148. Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100 इस सूत्र प्राप्त तथा तद् उत्तरवर्ती 'सूर्य तिष्यागस्त्य मत्स्यानां य उपधायाः " से प्राप्त लोप को सी विभक्ति परे रहते प्रतिषेध किया जाता है । वार्त्तिक आदि पक्ष से 'सूर्य तिष्य' इत्यादि विधि का ग्रहण है । 'श्यां' इसमें 'स्त्रीलिड्ग' का निर्देश विभक्ति की अपेक्षा से किया गया है । इसका उदाहरण 'काण्डे सौर्ये' इत्यादि दिया गया है । 'काण्डे ' इस प्रयोग में 'काण्ड' शब्द से 'औ' विभक्ति, उसके स्थान में 'नपुंसकांच्च '2 इस सूत्र से 'सी' आदेश होता है तथा उसको 'स नपुंसकस्य 13 इस सूत्र में 'अनपुंसकस्य' ऐसा प्रतिषेध होने से सर्व नाम स्थान संज्ञा नहीं होती है । अतएव काण्ड को 'भ' संज्ञा हो जाती है । तदनन्तर 'यस्येति च' इससे प्राप्त 'अंकार' लोप का वार्त्तिक के द्वारा निषेध होता है । 'सौर्ये' इस प्रयोग में 'सूर्येण एक दिकू' इस अर्थ में 'सूर्य' शब्द से ' तेनैक दिक्' इस' सूत्र से 'अणु' होता है ततः निष्पन्न 'सौर्य' शब्द से 'सी' परे रहते 'यस्येति च ' सूत्र से 'अलोप' होता है तथा 'सूर्य तिष्य' इत्यादि के द्वारा 'य' लोप प्राप्त होता है । इन दोनों लोपों का निषेध वार्तिक के द्वारा हो जाता है | वस्तुतस्तु 'सूर्यमत्स्योइयान', 'सूर्यागस्त्ययोश्छे च' इन दोनों उत्तर सूत्रस्थ वार्त्तिकों के द्वारा 'य' लोप के परिग्रहण होने से 'सी' परे रहते 'य' लोप प्राप्त नहीं होता है । अतः 'य' लोप के प्रतिषेध के लिए इस वार्त्तिक का उपयोग नहीं है । यह प्रदीप में उल्लिखित है । लघु सिद्धान्त कौमुदी में 1. अष्टाध्यायी, 6/4/149. 2. वही, 7/1/19 3. वही, 1X 1/43. Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 101 यह वार्तिक पढ़ा गया है। उसमें 'अइ. ' यह स्वरूप कथनमात्र है । 'सी' का विशेषण नहीं है क्योंकि यह विशेषण 'यश: सी' इस सूत्र से प्राप्त सी की व्यावृत्ति के लिए नहीं है क्योंकि सर्वे इत्यादि प्रयोग में 'भत्व' के अभाव होने से ही लोप की प्रसक्ति नहीं है । यह सब लझाब्देन्दु शेलार में स्पष्ट है । इस वार्तिक का भाष्यकार ने प्रत्याख्यान कर दिया है । प्रत्याख्यान इस प्रकार है - 'यस्येति च ' सूत्र में 'विभाषादिश्ये' इस सूत्र से 'सी' ग्रहण की अनुवृत्ति भाती है । 'न संयोगानमन्तात' इस सूत्र से 'न' की अनुवृत्ति आती है । तदनन्तर वाक्य भेद से सम्बन्ध होता है । 'सी' परे रहते 'यस्येति च ' से लोप नहीं होता है। इस प्रकार 'सी' परे रहते लोपा भाव सिद्ध हो जाता है | यह सब बातें भाष्य में स्पष्ट है । न्यासकार ने 'विभाषाडि. प्रयो: ' इससे विभाषा ग्रहण की अनुवृत्ति मानकर तथा व्यवस्थित विभाषा का प्रयण कर लोप का अभाव सिद्ध किया है। इस प्रकार भाष्य रीति से और न्यासरीति से भी यह वार्तिक व्याख्यान से सिद्ध अर्थ का अनुवादक है । अपूर्व वचन नहीं 1. औड. इति स्वरूप कथनं 'सर्वे ' इत्यस्य माधिकारेण सिद्धः । - लघु शाब्देन्दु शेखार, अजन्त नपुंसकलिंग प्रकरणम् । 2. महाभाष्य, 6/4/148. 3. तत्रेदं व्याख्यानम् - 'विभाषा हिश्यो: ' इत्येतत्सूत्रादिभाषाग्रहणं मण्डूकप्लु ति न्यायेनानुवर्तते । सा च व्यवस्थित विभाषा तेन चानेन सूत्रेण लोपो विधी यते यतश्चोत्तर सूत्रेण तावुभावपि न भवत इति - न्यास 6/4/148. 4. अष्टाध्यायी 6/4/136.. Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102 एकतरात् प्रतिषेधो वक्तव्यः । 'नेतराछन्दासि 2 इस सूत्र के भाष्य में पर 'इतरछन्दसिप्रतिषेधे एकतात सर्वत्र' यह वार्तिक पढ़ा गया है । यहाँ इतरराच्छन्दति प्रतिषेधे यह अंश अपूर्व है। अतः इसी अंश को लेकर आचार्य वरदराज ने 'एकतरात् प्रतिषेधो वक्तव्यः' यह वार्तिक लिखा गया है । यह वार्तिक 'अदइडतरादिभ्यः प चभ्यः' इस सूत्र से प्राप्त अदडादेश को एकतर शब्द से प्रतिजेध करता है । वार्तिक में सर्वत्र यह उक्ति 'इतर' शब्द से 'छन्द में ही प्रतिषेध तथा 'एकतर' शब्द से ऽन्द और भाषा में दोनों में प्रतिया के ख्यापन के लिए है । इसका उदाहरण है - एकतरं तिष्ठति, एकतरं पश्च । प्रथम प्रयोग में 'एकतर' शब्द 'स्वन्त'है द्वितीय उदाहरण में 'अमन्त' है । यह वार्तिक भाष्यरीति से वाचनिक है । वृत्तिकार ने 'अतो म्" इस सूत्र के बाद 'इतराच्छन्दति इति वक्तव्यम्' 'इतर' शब्द से छन्द में 'सु' और 'अम्' को 'अम्' आदेश होता है । यह 'अम्' आदेश 'अदड़ादेश' का बाधक है । इस प्रकार 'नेतराच्छन्दसि' इस वार्तिक में 'नकार' का ग्रहण व्यर्थ है । अतः वार्तिकस्थ 'न' शब्द पृथक् योग के लिए है । उस 'न' योग 'एकतर' शब्द से प्रतिषेध सिद्ध हो जाता है । इस प्रकार वृत्तिकार को रीति से योग-विभाग से सिद्ध अर्थ का अनुवादक ही यह वार्तिक है अपूर्ववचन नहीं है। 1. लघु सिद्धान्त कौमुदी, नपुंसकलिंग प्रकरण, पृष्ठ ।28. 2. अष्टाध्यायी 7/1/26 3. अष्टाध्यायी 7/1/25. 4. वही, 7/1/24, 5. अतो म्' इत्यस्मादनन्तरमितराच्छन्दसी तिवक्तव्यम्-का शिका 7/1/26. Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 103 वृद्वयौत्त्वतृज्वद् भावगुणेभ्योनुमपूर्व विप्रतिषेधेन । 2 इस सूत्र के भाष्य में 'गुणवृद्वयौत्त्वतृज्वभावेभ्यो नुम् पूर्वं 'स्त्रियांच विप्रतिषिद्धम्' यह वार्त्तिक पढ़ा गया है । इसका अर्थ है कि गुण वृद्धि 'औत्त्व तृज्वद भाव' को 'नुम' पूर्व विप्रतिषेधेन बाधकर होता है । ये सभी विधियाँ 'नुम' विधि से पर है । अत: वार्त्तिक वचन के बिना 'नुम्' से उनका बाधन सम्भव नहीं था क्योंकि 'विप्रतिषेध्धशास्त्र' से पर से पूर्व का ही बाध होता है । अतः वार्तिक का आरम्भ किया जाता है । गुण बांध का उदाहरण है त्रपुणे । त्रपुणी इत्यादि प्रयोग में 'नुम्' का अवकाश है । 'अग्नये' इत्यादि प्रयोग में गुण का अवकाश है । 'त्रपुणे' प्रयोग में दोनों की प्रप्तक्ति है । 'पूर्व विप्रतिषेध' से 'इको चिविभक्तौ' इससे 'नुम्' ही होता है । 'नुम्' से वृद्धि का बांध का उदा · .3 हरण "अतिसखीन' है । 'वृद्धि'का अवकाश पूर्वोक्त प्रयोग में है । 'अति सखीन ' में दोनों की प्रसक्ति है । 'पूर्व विप्रतिषेधात्' 'नुम' होता है । 'नुम' से 'औत्त्व' बाध का उदाहरण 'त्रपुणि' है । 'अच्च हो: इस सूत्र से औत्त्व' का 'अवकाश' पूर्वोक्त प्रयोग में है । 'त्रपुणि' दोनों की प्रसक्ति है । 'पूर्वविप्रतिषेधात् नुम्' होता है । 'नुम्' से 'तृज्वद भाव' के बाध का उदाहरण - 'क्रोष्टुने' 1. लघु सिद्धान्त कौमुदी, अजन्त नपुंसकलिंग प्रकरणम्, पृष्ठ 231. 2. अष्टाध्यायी, 7/1/96. 3. वही, 7/3/119. Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 104 इत्यादि प्रयोग में 'तज्वभाव' के करने अथवा न करने पर भी नुम् की प्रप्त क्ति है अतः कृताकृत प्रसंग होने से 'नुम्' नित्य है । अत: 'नित्य त्वादेव नुम्' से ' 'तज्वद भाव' का बाधा हो जाएगा। उसके लिए पूर्व विप्रतिषेधात्' व्यर्थ है । दूसरी बात यह है कि 'नुम्' के नित्य होने के कारण 'नुम' और 'तृज्वदं भाव में तुल्य बनता न होने से पूर्वविप्रतिषेध अयुक्त है । इस शंका का समाधान देते हैं। जैसे - तृज्वदभाव के करने पर 'नुम्' की प्राप्ति होती है वैसे ही 'नुम्' करने पर भी 'यदागम' परिभाषा के बन से 'क्रोष्टून' नुम् ' विशिष्ट को भी क्रोष्टू ग्रहण से ग्रहीत होने के कारण तज्वद भाव' की प्राप्ति होगी। यहाँ निर्दिश्यमान परिभाषा की प्राप्ति नहीं है क्योंकि 'तृज्वत् 'क्रोष्टु: । सूत्र से कठी निर्देश नहीं है अतः 'नुम्' की तरह 'तज्वदभाव' भी नित्य हो जाता है। दोनों नित्यों की प्रसक्ति होने पर 'पूर्व विप्रतिषेध' युक्ति-युक्त है । अतः 'नुम' के द्वारा 'तज्वदभाव' के बाधन करने के लिए वातिकारम्भ आवश्यक है । यह शब्देन्दुशेजार में स्पष्ट है । भाष्यकार ने प्रथम उपस्थित जस् विभक्ति को छोड़कर डे. विभक्ति में कोष्टूने यह पूर्व विप्रतिषेध का उदाहरण दिया है । 'विभाषातृतीया दिष्वचि2 इप्त सूत्र से विहित तृज्वद भाव' का उदाहरण दिया है । 'तृज्वद क्रोष्टु: ' सूत्र से विहित तृम्वत् भाव का उदाहरण नहीं दिया है । इस अपाय से प्रक्रिया कौमुदी में 'प्रियक्रोष्टु नि 'यह उदाहरण दिया है। यह शय प्रक्रिया को मुदी की 1. अष्टाध्यायी 7/1/95. 2. वही, 7/1/97. Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 105 टीका प्रक्रियाप्रकाश में स्पष्ट है । इस मत का कौमुदीकार ने मनोरमा ग्रन्थ में उपस्थापन कर दूषित कर दिया है। उनका कहना है कि इस वार्तिक में 'तज्वद' भाव शब्द से 'तृत्वत् क्रोष्टु: ' सूत्र से विहित 'तृज्वद भाव' न लेकर 'विभाषा तृतीयादिषु' इस सूत्र से विहित ही लिया जाए। इसमें कोई प्रमाण नहीं भाष्यकारीय उदाहरण के बल से वार्तिक के अर्थ में संकोच करना उचित नहीं है क्योंकि उदाहरणों में उतना आदर नहीं दिखाया जाता है। दूसरी बात यह है कि उक्त वार्तिक में 'विभाषा तृतीयादिषु' सूत्र विहित वैकल्पिक 'तृज्वद भाव ' मात्र ग्रहण करने से वार्तिक में 'तृज्वद् भाव' ग्रहण करना ही व्यर्थ हो जाएगा। 'तज्वत् भाव' के वैकल्पिक होने से 'तदाभाव' प६में 'पूर्वविप्रतिषेध' के बिना ही 'प्रिय क्रोडटूने' इत्यादि प्रयोगों की तिदि हो जाएगी। 'प्रियक्रोष्टू' इत्या दि के वारण के लिए भी 'पूर्व विप्रतिषेध' की आवश्यकता नहीं है । प्रिय क्रोष्टू आदि शब्दों के भाधित पुस्क के होने के कारण 'तृतीयादिषु भाषित पुस्कं पुग्वदालवस्य' इति पुग्वद् भाव पढ़ा में प्रिय क्रोष्ट्र' यह रूप दुवार है । तस्मात् 'तृत्वद भाव' मात्र विष्य क ही यह पूर्व विप्रतिरोध प्रतिपादक वार्तिक है । अतः 'नुम्' के द्वारा उभय सूत्र से विहित 'तज्वद भाव' बाधित होता है । अतः मना - रमाकार के मतानुसार 'प्रियक्रोष्टुनि' यही रूप होता है । नागेश ने भी लघु शाब्देन्दु शेखार में मनोरमा कार के मत का ही समर्थन किया है । इस वार्तिक से बाधित पूर्व विप्रतिषेध अपूर्व या वाचनिक नहीं है । अपितु 'विप्रतिषेधे प्ररं कार्यम्' 1. #SC Tध्यायी, 7/1/14. Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 106 इस सूत्र से 'पर' शब्द के इष्ट वाचित्व अर्थ मान लेने से सिद्ध है । विप्रतिषेध , में जो 'पर इष्ट होता है वही ब्ली होता है । प्रकृत प्रयोग में 'नुम्' ही इष्ट है अतः वही होगा । इस प्रकार जितने भी 'विप्रतिषेध' है वे सभी विप्रतिबेधशास्त्र घट की भूत पर शब्द को इष्ट वाचक मान लेने से सूत्र से ही सिद्ध हो जाते हैं । अतएव भाष्यकार ने कहा है कि 'पूर्वविप्रतिषेध' कहना चाहिए १ नहीं कहना चाहिए । 'पर 'शब्द इष्ट वाची है । 'विप्रतिषेध' में जो इष्ट " होता है वही बली होता है । 2 डावुत्तरपदे प्रतिषेधो वक्तव्य:' +3 इस सूत्र 'न डि. सम्बुद्वयोः के भाष्य में 'न डि. सम्बुध्योश्नुत्तरपदे ' इस रूप में यह वार्त्तिक पढ़ा गया है । इसका यह अर्थ है । 'नडि. सम्बुध्यो ?' सूत्र से जो न लोप का निषेध होता है वह अनुत्तर पद में ही हो । उत्तर पद परे रहते न हो । सम्बुद्धि विषय में उत्तर पद उपलब्ध नहीं होता है । क्योंकि सम्बुदयन्त का उत्तर पद के साथ समास नहीं होता है । यद्यपि भाष्य कार ने 'सम्बुद्धि' विषय में उत्तर पद का उदाहरण राजन् वृन्दारक' ऐसा 1. अष्टाध्यायी 7/1/96. 2. लघु सिद्धान्तकौमुदी, हलन्त पुल्लिंग प्रकरणम्, पृष्ठ 264. 3. अष्टाध्यायी 8/2/8. Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 107 तथा पि 'सम्बुध्यन्तानामतमातोराजन् वृन्दारक' इत्यादि उत्तरवर्ती वा क्यों के द्वारा 'सम्बुद्धि' में उत्तर पद का अभाव भी स्पष्ट रूप से कहा गया है । इसी आशय से दी क्षितिजी ने प्रकृत वार्तिक से 'सम्बुद्धि' रहित पाठ किया है । यह वाक्य 'नडि. सम्बुद्धयो अनुत्तरपदे ' इस वार्तिक में पठित 'अनुत्तरपदे' चर्मतिल: राजन् वृन्दार राजवृन्दारक , ये सब वार्तिक के उदाहरण हैं। प्रथम उदाहरण में प्रत्यय लक्षण के द्वारा 'डि. परत्व' मानकर 'न डि. सम्बुध्यो ' इस सूत्र के द्वारा 'न' लोप का प्रति प्राप्त था । 'अनुत्तरपदे' इस वचन से नहीं हुआ। तदनन्तर 'प्रत्यय लक्षणेन सुबन्त' मानकर 'पद त्वात् न लोप: ' प्रातिपदिकान्तस्य 'इस सूत्र से न का लोप होता है । द्वितीय उदाहरण में 'राजन् ' और 'वृन्दारक' दोनों 'सम्बुध्यन्तौ ' का समाप्त होता है। यहाँ भी प्रत्यय लक्षण से 'राजन' को 'सम्बुद्धि पर त्व' मानकर प्राप्त 'न' लोपे प्रतिषेध' को 'न लोप प्रतिषेध अनुत्तरपदे' इस वचन से नहीं होता है । 'चर्मणि तिल इत्यादि प्रयोग में 'डि. ' को तथा 'राजवृन्दारक' इस शब्द में 'सम्बुद्धि' को लुक' हुआ है । अतः 'न लुमताइगस्य '। इस सूत्र से प्रत्यय लक्षण के निध हो जाने पर 'डि. ' और 'तम्बुद्धि पर कत्त्व' न होने से 'न डि. सम्बुध्यो ' इस निषेध की प्राप्ति नहीं होती है । अतः 'तत्' वारणार्थ' वार्तिक में 'अनुत्तरपदे' यह व्यर्थ है। भाष्यकार ने भी कहा है कि 'अनुत्तरपदे' में यह नहीं कहना चाहिए क्योंकि 'डि. सम्बुद्धि परे न लोप' कहा गया है । 'डि. सम्बुद्धि' यहाँ नहीं है। . I. ascाध्यायी ।/1/63. 2. महाभाष्य, 8/2/8. Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108 'न लुमता' के प्रतिरोध होने से प्रत्यय लाण भी नहीं होता है । 'नडि. सम्बुध्यो' इस सूत्र के विषय में सर्वत्र 'डि. ' का 'लुक' ही होता है । लोप कहीं नहीं होता है । जैसे चर्मतिलः इत्यादि प्रयोगों में । उसी प्रकार 'रथन्तरे सामन् परमे व्यूमन' इत्यादि अत मास स्थन में भी 'सुपा सुलुक् पूर्वसवर्णाच्छयाडा यायाजाल : '| इसके द्वारा 'लुक' होता है । अतः प्रत्यय लक्षण के निषेध होने से 'डि परकत्त्व' नहीं मिलता है । अतः 'न डि. सम्बुदयौ ' से निट नहीं हो सकता है किन्तु निषेध इष्ट है । अतः 'डि. ' ग्रहण व्यर्थ पड़कर ज्ञापन करता है। ऐसे स्थान पर प्रत्यय लक्षण का आश्रयण होता है । 'न तुमताडस्य' का निषेध प्रवृत्त नहीं होता है । ऐसा अर्थ ज्ञापन करने पर जैसे 'परमे व्योमन' इत्यादि प्रयोगों में अनुत्तरपद परे रहते 'डि. परत्व' है । उसी प्रकार 'चर्म तिल: ' इत्यादि प्रयोगों में उत्तरपद परे रहते है 'डि. परत्व' है । अतः 'न डि.सम्बुद्धयो' इस निशा की प्राप्ति है अतश्व उप्त के परिहार के लिए वार्तिक में अनुत्तरपद ग्रहण करना आवश्यक है । भाष्यकार2 ने 'चर्मतित:' इत्यादि प्रयोगों के लिए इस वार्तिक को माना है । इतने विवेचन से यह स्पष्ट है कि अनुत्तरपद यह अंश फलितार्थ प्रथम मात्र है तथा 'डौ उत्तरपदे' प्रतिषेध विश्यक है । वस्तुतस्तु भाष्यकार ने उप्त वार्तिक का प्रत्याख्यान कर दिया है। उनका कथन है कि 'न डि. सम्बुदयौ ' इस सूत्र से 'डि. परे' रहते निध 1. अष्टाध्यायी, 7/1/39. 2. महाभाष्य 8/2/8. Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 109 • का उदाहरण छन्द में ही देखा जाता है 'परमे व्योमन् 'इत्यादि वेद में न लुमता - इस्य' इससे प्रतिषेध होने से प्रत्यय लक्षण के अभाव में 'यचि 'भमू' | सूत्र 'भ' संज्ञा के अभाव में भी 'उभय संज्ञान्यपि' इस वार्तिक से व्योमन् इत्यादि प्रयोगों में 'भ' संज्ञा होने से ही लोप का अभाव सिद्ध हो जाता है । सूत्र में डि. ग्रहण व्यर्थ है । डि. ग्रहण के न रहने पर 'धर्मति' इत्यादि प्रयोगों में निषेध की प्राप्ति ही नहीं है । अत: उसके परिहार के लिए वार्तिक की आवश्यकता नही है । इस प्रकार 'डि. परे रहते प्रतिषेध वारण के लिए अनुन्तर परे' यह कहना व्यर्थ है । 'सम्बुद्धि उत्तरपद परे रहते भी 'अनुत्तरपदे' इसका कोई उपयोग नहीं है । क्योंकि 'राजन् वृन्दारक' इन दोनों स म्बुदयान्त' पदों का समास नहीं है । अतः सम्बुद्धि उत्तरपद में नहीं मिल सकेगा । इस प्रकार राजन् वृन्दारक, इस विग्रह भें राजू वृन्दारक यही प्रयोग इष्ट है । 'सम्बुद्धयन्तौ का समास क्यों नहीं होता है । इस पर भाष्यकार कहते हैं कि वाक्य और समास दोनों से समान अर्थ की प्रतीति होनी चाहिए । 'राजन् वृन्दारकू' इस प्रयोग में वाक्य से जो अर्थ गम्यमान होता है वह समाप्त करने पर गम्यमान नहीं होता है । समास से समुदाय में सम्बोधन द्योतित होता है तथा वाक्य में अवयवों में सम्बोधन द्योतित होता है । इस प्रकार उभय पक्ष में 'अनुत्तरपदे' इसका उपयोग नहीं है । "डि परे रहते लोप निषेधारम्भ पक्ष में 'डौ उत्तरपदे प्रतिषेधी वक्तव्यः यह वार्त्तिक 'चर्मतिला दि' प्रयोगों के लिए रहने पर भी 'सम्बुद्धि' में इसकी आवश यकता नहीं हुई है । 1. अष्टाध्यायी, 1/4/18. Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ |10 परी व्रजे: मच पदान्ते % 3E हलन्त शब्दों में अन्वाख्यान करते हुए लघु सिद्धान्त को मुदीकार वरदराजाचार्य ने उक्त वार्तिक को 'परिवाद' प्रयोग के साधनार्थ प्रस्तुत किया है । यह वातिक उणा दिगण पठित है । तथा इस के पूर्व 'क्किव्वचिपच्छिद्धिप्रज्वा दीघों सम्प्रसारण च सूत्र पठित है । अत: 'परो व्रजेः षः पदान्ते' वार्तिक में उक्त सूत्र से दिकव तथा दीर्घ इन दोनों पदों का अनुवर्तन होता है जिससे परिणामतः वार्त्तिक 'परिपूर्वक ब्रज धातु से क्विए तथा दीर्घ पदान्त में षत्व का विधान करता है जैसे - परिव्राट । इसी बात को तत्त्वबोधिनीकार ज्ञानेन्द्र सरस्वती ने परिव्रजे ष: में 'इह पूर्व सवाद विप् दीघौं अनुर्वेतत् ' शब्दों में स्पष्ट किया है । 'परित्यज्य सर्व ब्रजति इति परिव्राट'। यह विग्रह जनित अर्थ स्पष्ट है । समान वाक्ये निघात् युष्मदस्मादेश वक्तव्यः' समर्थः पद विधि: "# इप्त सूत्र के तथा 'अनुदात्तं सर्वम् पादादी इस सूत्र के भाष्य पर यह वार्तिक पढ़ा गया है । इस वार्तिक से समान वाक्य - - - - - - - - - - - 1. लघु सिद्धान्त को मुदी, हलन्त पुल्लिंग प्रकरणम्, पृष्ठ 286. 2. अष्टाध्यायी, 4/4/18. 3. लघु सिद्धान्त को मुदी, हलन्त पुल्लिंग प्रकरणम् 4. अष्टाध्यायी, 2/1/1. 5. अष्टाध्यायी 8/1/18. Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकृत कर 'युष्मदात्मदादेश' को 'निघात' और 'युष्मदस्मादेश' का विधान किया जाता है । 'निमित्त' और के 'एक वाक्यस्थत्व' होने पर 'निघात' और 'युष्मदस्मदादेश' होते हैं यह भाव है । 'अयं दण्डोहरधानेन' इस वाक्य में 'समानवा क्यस्थ' होने से 'हर' की 'तिडइतिड'। इस सूत्र से 'निघात' नहीं होता है यहाँ 'अयं दण्डः ' यह पृथक् वा क्य है । पद से परे विद्यमान 'तिडन्त को 'निधात' होता है । 'दण्डः ' यह पद है उसके परे 'हर' यह 'तिडन्त' है किन्तु वह पद पूर्व वाक्यस्थ है और वह 'तिडन्त' उत्तर वाक्यस्थ है अत: नमित्त और निमित्त का एक वा क्यस्थत्व नहीं है । इसी प्रकार 'ओदन पच तव भविष्यति' इत्यादि स्थल पर 'ते मया कवचनत्य' इस सूत्र से 'तव' को 'ते' आदेश भी नहीं होता है । ये भी आदेश पद के परे विद्यमान 'युष्मदस्मद' को ही होता है । इप्त वाक्य में 'ओदन पच' यह पृथक् वाक्य है तथा 'तव भविष्यति' यह पृथक् है । यहाँ पर भी निमित्त भूत पद 'पच्' और कार्यो 'युष्मद' शब्द ये दोनों एक वाक्य में नहीं है । 'युष्मदस्मादेश' शब्द से 'युष्मदस्मदा: प्रठी चतुर्थी द्वितीयास्थ्यो: वाम् नौ' इत्त प्रकरण में विधीयमान 'वाम् नौ' आदि आदेश ही लिए जाएँगे । यहाँ 'अयं दण्डो हरनेन' इत्यादि वाक्यों में अनेन ' इस शब्द से पूर्व वाक्य में 'उपान्त दण्ड' का परामर्श किया जाता है क्योंकि उसी में हरण क्रिया के प्रति 'करणत्व ' अवगत है । अतः सामर्थ्य विद्यमान है। इसी प्रकार से 'ओदनं पच तव भविष्यति' - - - - - - -- - - - - - - - - - - 1. अष्टाध्यायी 8/1/28. Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112 इत्यादि वाक्य में 'त्वया पक्व : ओदनः तव भविष्यति' इस अर्थ की प्रती। होती है । अतः यहाँ भी सामर्थ्य है अत: 'सामध्यभावादि' 'समर्थ पद विधि' इस परिभाषा के जागरूक होने से 'निघात' 'युष्मदस्मदादेश' नहीं होंगे । ऐसी शंका नहीं की जा सकती है क्योंकि यहाँ सामर्थ्य विद्यमान है । अत: समर्थ परिभाषा के द्वारा वारण असम्भव होने के कारण इस वार्तिक का आरम्भ करना चाहिए यह कैय्यट का मत है । वृत्तिकार के मत में 'इह देवदत्त माता ते कथयति' 'नद्या स्तिष्ठति कूले शा लिनांति ओदनं दास्यामि' इत्यादि प्रयोगों में 'निघात' और युष्मदस्मदादेश की सिद्धि के लिए यह वार्तिक पढ़ना चाहिए ।' वृत्तिकार का भाव यह है 'इह देवदत्त' इत्यादि वाक्य में'इह' पद का 'मातृ' पद के साथ अन्वय है 'देवदत्त' के साथ नहीं है। अंत: 'इह देवदत्त' इन दोनों पदों में 'असामर्थ्य ' होने से 'समर्थ' परिभाषा के अधिकार में 'आमंत्रितस्य च '2 इस सूत्र से 'निघात' नहीं प्राप्त होता है । इसी प्रकार 'नद्या स्तिष्ठति कूले ' इस वाक्य में 'नदी' का 'कूल' के साथ अन्वय है 'क्रिया' के साथ नहीं है । अत: असामथ्यात् 'तिडडतिड' इस सूत्र से 'निचात' नहीं प्राप्त होता है । इसी प्रकार 'शा लिना ते' इस वाक्य में भी - - - - - - - - - - - - - - - - - 1. आमन्त्रिता तं तिडन्ते युष्मदस्मदादेशाश्च यस्मात्पराणि न तेषां सामर्थ्य मिति तदाश्रय निधात युष्मदस्मदादेशा न स्युः 'समर्थ पदाविधिः ' इति वचनात् । - काशिका 8/1/1. 2. अष्टाध्यायी, 6/1/198. 3. वही 8/1/28. Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 113 इन दोनों पदों का परस्पर सामर्थ्य न रहने से 'युष्मदस्मदादेश' की प्राप्ति नहीं है। ये सभी पद विधियाँ 'पदस्य' इस सूत्र के अधिकार में हैं। ये सब 'सामथ्य भाव' में भी 'समान वाक्य में होने के कारण सिद्ध हो जाए इसके लिए वार्तिक का आरम्भ करना चाहिए । तात्पर्य यह है कि इस वार्तिक के 'कन ' से 'सामर्थ्य' के अभाव में भी समान वाक्य ' में ये विधियाँ हो जाएं तथा 'सामर्थ्य' होने पर भी 'असमान वाक्य में न हो । यह सब न्यास और पदम जरी में स्पष्ट है । नागेश का कहना है कि 'समर्थ परिभाषा एकार्थी भाव रूप' सामर्थ्य मात्र को विषय कर प्रवृत्त होती है । अतः 'प्रकृत स्थन' पर समर्थ परिभाषा का विषय ही नहीं है । अतः इस परिभाषा से 'निधाता दि' के वारण की सम्भावना नहीं है । वस्तुतः पद संज्ञा प्रयोजक 'प्रत्ययोत्पत्ति' के प्रयोजक संज्ञीय 'उदेश्यतावच्छेद' का 'वाच्छिन्न त्वरूप' सम्पादक 'विधित्व' के 'निघात' विधि में तथा 'वाम् नौ' विधि में अभाव है । अतः ऐसे विष्य में 'तादृश परिष्कृत पदाविधित्व' न रहने से समर्थ-परिभाषा के प्राप्ति का अवसर नहीं है । यह वार्तिक भी वाचनिक है क्योंकि उपर्युक्त प्रयोगों में प्रकारान्तर से 'निचाता दि' का वारण सम्भव नहीं है । यहाँ 'वाक्य त्व' किस प्रकार का है यह आगे एकतिड. वाक्यम्। इस दार्तिक के व्याख्यान के अवसर पर कहा जाएगा । Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 114 एते वान्नावादय आदेश अनन्वादेशे वक्तव्या: 1 $2 के भाष्य में 'युष्मदस्मुदो इस वार्तिक का दो स पूर्वया: प्रथमाया विभाषा: इस सूत्र रन्यतरस्यामन्वादेशे' यह वार्तिक पढ़ा गया है । व्याख्यान भाष्यकार में किया है । प्रथम व्याख्यान के अनुसार यह वार्त्तिक इस सूत्र का ही शेष है । इस सूत्र से विहित विषय का निर्धारण सिद्ध हो जाता है । 'अपूर्वा प्रथमा' के परे षष्ठयादि' विभक्ति से विशिष्ट 'युष्मदस्मद' के स्थान पर 'वान्नौ' इत्यादि आदेश होते हैं और वे 'अनन्वादेश' में विकल्प से होते हैं। जैसे 'ग्रामे कम्बल स्तेस्वम्ग्रामे कम्बलस्तव स्वम्' | 'अपूर्वा य: प्रथमायाः विभाषा : विभाषा' पद से ही वार्तिक के • इस प्रकार 'अन्वादेश' में 'सपूर्वी प्रथमा से विकल्प से नहीं होता है । नित्य ही होता है । जैसे 'अथो ग्रामे कम्बलस्ते स्वम्' इन्हीं प्रयोगों को भाष्यकार ने 'अनन्वादेश' और 'अन्वादेश' में उदाहरण रूप में उपन्यस्त किया है । 'सपूर्वा: प्रथमायाः विभाषा : ' इस सूत्र के विषय में इस वार्तिक की प्रवृत्ति नहीं है । अतः वहाँ पर 'अन्वादेश' अथवा 'अनन्वादेश' में नित्य ही 'युष्मदस्मद' आदेश होगा । जैसे 'कम्बलस्ते स्वम् इति । इसके बाद 'अपर आह' इस उक्ति के अनन्तर सभी 'वान्नौ' आदेश अनन्वादेश' में विकल्प से होते हैं । यह व्याख्यानांतर भाष्यकार ने उपन्यस्त किया है । इस व्याख्या के अनुसार "सपूर्वा: प्रथमाया : 1. लघु सिद्धान्तकौमुदी, हलन्त पुल्लिंग प्रकरणम्, पृष्ठ 302. 2. अष्टाध्यायी, 8/1/26. 3. महाभाष्य, 8/1/26. - - Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 115 विभाषा: ' इस सूत्र के अविष्य में भी 'वाम् नौ' इत्यादि आदेश 'अनन्वादेश' में विकल्प से होते हैं । व्याख्यान वाक्य मे 'सर्वे एव' इसका अर्थ उक्त सूत्र के विष्यभूत तथा अविष्यभूत सभी 'वान्नौ' इत्यादि आदेश लिए जाते हैं। इस प्रकार यह वार्तिक 'सपूर्वा प्रथमाया: ' इस सूत्र का शेष नहीं है । न तो इस सूत्र से विहित 'विभाषा' के विषय निर्धारण के लिए ही है । अपितु स्वतंत्र रूप से 'अनन्वादेश' में विकल्प से विधायक है । अतः 'सपूर्वाया: प्रथमाया: ' इसके अभाव में भी 'अनन्वादेश' में 'युष्मदस्मद' आदेश विकल्प से होते हैं। जैसे - कम्बलस्ते स्वम् , कम्बनस्तौ स्वम् इत्यादि । इस पक्ष में 'सपूर्वाया: ' यह सूत्र 'अन्वादेश' में भी विकल्प विधान के लिए है जैसे - 'अथो ग्रामे कम्बलस्ते स्वम् प्रथमाया: अनन्वादेश' और 'अन्वादेश' दोनों स्थनों पर विकल्प से प्रवृत्त होता है। अन्यत्र 'अनन्वादेश' में ही विकल्प से होता है तथा 'अन्वादेश' में नित्य ही आदेश होते हैं । यही सूत्र और वार्तिक का निष्कर्ष है । . शंका होती है कि अधि व्याख्या के अनुसार सर्पूवा प्रथमा के विषय में भी अन्वादेश में नित्य ही आदेश प्राप्त होते हैं। जैसे – 'अधो ग्रामे कम्बलस्ते स्वम्' । द्वितीय व्याख्या के अनुसार 'सपूर्वाया: ' इस सूत्र से विकल्प से आदेश प्राप्त होते हैं । ऐसी स्थिति में इन प्रयोगों का साधुत्त्व कैसे होगा। एक ही प्रयोग में व्याख्यान भेद से साधुत्व एवं असाधुत्व अन्याय है। इस शांका के समाधान में यह कहा जा सकता है कि उत्तर व्याख्यान के द्वारा पूर्व व्याख्यान का बाध हो जाता है । अतः अबाधित उत्तर व्याख्यान के अनुसार साधुत्व की Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 116 व्यवस्था करनी चाहिए । उत्तर व्याख्यान के अनुसार 'अन्वादेश' में भी 'सपूर्वाया: ' इस सूत्र से विकल्प से आदेश होता है क्योंकि इस सूत्र में वार्तिक । द्वारा संकोच नहीं किया जाता है । इस प्रकार 'अन्वादेश' में 'अधो ग्रामे कम लस्तौ स्वम्', 'अथो ग्रामे कम्बलस्ते स्वम्' ये दोनों प्रयोग साधु है । यह प्रदीप और उद्योत में स्पष्ट है । 'अन्वादेश' अनुकथन को कहते हैं जैसा कि न्या कार ने कहा है । 'आदेश' कथन को कहते हैं तथा 'अन्वादेश' अनुकथन को कहते हैं। दीक्षिातजी ने इसी अर्थी को विषद किया है। उनका कथन है कि किसी कार्य को करने के लिए 'उपान्त' को कार्यान्तर विधान के लिए पुन: उपादान करना 'अन्वादेश' कहलाता है। जैसे - 'इसने व्याकरण पढ़ लिया है' इस को साहित्य पढ़ाइये' इत्यादि । यह वार्तिक भाष्यरीति से वाचनिक है । न्यासकार ने इसे व्याख्यान सिद्ध कहा है। उनके अनुसार सूत्रस्थ विभाषा ग्रहण सिंहावलोकन न्याय से कठी, चतुर्थी, द्वितीयान्त, युष्मदस्मद' को 'वान्नौ आदेश के साथ सम्बन्धित होकर व्यवस्थित विकल्प का विधान करता है । इस 'अनन्वादेश' में विकल्प से तथा 'अन्वादेशा' में नित्य देशा होता है । अस्य सम्बुद्धौ वाइनइ. न लोपश्च वा वाच्यः । - __ . यह अर्थ काशिका में वाचनिक रूप से कहा गया है । 'उशनस : सम्बुद्रा अपि पक्ष अनइ, इष्यते हे उशनन् ' 'न डि. सम्बुद्धयो: ' इति न लोप का प्रति I. लघु सिद्धान्त कौमुदी, हलन्तपुल्लिंग प्रकरणम्, पृष्ठ 327. Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 117 एक पक्ष में इष्ट है । इस अर्थ को प्रामाणिक करने के लिए काशिकाकार ने इस श्लोक वार्तिक को उपन्यस्त किया है । सम्बोधने तु शनस स्त्रि रूपं सान्तं तथा नान्तमथाप्यदन्तम् । माध्यन्दि निवष्टिगुणं त्विगन्ते नपुंसके व्याघ्र पदां वरिष्ठाः ॥ आचार्य माधव ने भी इस श्लोक वार्त्तिक के अंश 'सम्बोधने तु शनसत्त्रि रूपं' इत्यादि का उदाहरण दिया है । 'वष्टि ' यह रूप 'वश् कान्तौ ' धातु से बना है । उक्त श्लोक वार्त्तिक के अनुसार ही मनोरमा में भी एतच वार्तिक' इस शब्द से उल्लेख किया गया है । हरदत्त की यह व्याख्या कि "अनड. सौ इस सूत्र में 'सौडा' ऐसा न कह कर के 'अनड.' विधान कहीं-कहीं 'अनड.' श्रवण के लिए है । इससे उशनस शब्द की 'सम्बुद्धि 'मैं 'हे' एक पक्ष में 'अनइ . ' सिद्ध हो जाता है । इस हरदत्त की उक्ति का मनोरमाकार ने 'अनड. सौ ' इस सूत्र के व्याख्यान में दूषित कर दिया है । इस प्रकार दीक्षित के मत से यह वार्तिक वाचनिक है । जिसे लघु सिद्धान्त कौमुदीकार ने भी यथावत् स्वीकार किया है । इस वार्तिक का अर्थ है कि 'उशनस्' शब्द को 'सम्बुद्धि परे ' रहते विकल्प से 'अनड ' होता है तथा 'न लोप' भी विकल्प से होता है । 'दुशनस् पुरुदंसो अनेह सा च' इस सूत्र से 'तम्बुद्धि' परे रहते 'अनड. ' की प्राप्ति नहीं होती । अतः 'अनड' का विकल्प से विधान वार्तिक के द्वारा किया जाता है । इसी प्रकार 'न डि. सम्बुदयौ' इस सूत्र से प्रतिषेध होने से 'न लोप 1. अष्टाध्यायी 7/1/93. Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ |18 नहीं हो पाता है। उसका विकल्प से विधान किया जाता है। इस प्रकार 'अनड.' और 'न लोप' दोनों विषय में यह वार्तिक 'अप्राप्त विभाषा 'है' । 'अनइ.' होने पर न लोप पक्ष में हे उशनस् यह अदन्त रूप होता है । 'न लोपाभाव पक्षा में 'हे उशनन् ' यह नकारान्त रूप होता है । अनड. के अभाव पक्ष में 'हे उपनत ' यह सकारान्त रूप होता है । सकार के 'हत्व' और विसर्ग होने पर 'हे उशन: ' यह प्ररिनिष्ठित रूप होता है । इसी तथ्य को उक्त प्रलोक वार्तिक में कहा गया है । भाष्य में यह वार्तिक कहीं नहीं पढ़ा गया है । इसीलिए कुछ इसको अप्रमाणिक कहते हैं। नागेश ने भी भाष्य में अनुक्त होने के कारण इस वार्तिक को प्रामाणिक नहीं माना है । अन्वादेशे नपुंस के एनदव क्तव्यः 'द्वितीया टो: स्वेनः' इस सूत्र के भाष्य में यह वार्तिक पढ़ा गया है । वहाँ 'एनदिति नपुंस कैक वचने' इस रूप से वार्तिक पढ़ा गया है । नपुंसक लिंग में 'न्विादेश' के विषय में 'इदं' और 'रतद' के स्थान में एक्वचन परे 'एनद् ' आदेश कहना चाहिए । यह वार्तिक का अर्थ है । उक्त सूत्र में 1. अष्टाध्यायी, 7/2/107. 2. लच्च सिद्धान्त को मुदी, हलन्त नपुंसकलिंग प्रकरणम्, पृष्ठ 346. 3. अष्टाध्यायी, 2*4/34. Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'इदमो न्वादेशे शनुदात्तस्तृतीयादौ " इत्यादि सूत्र से अन्वादेश की अनुव्रत्ति आती है । 'द्वितीया' इत्यादि सूत्र और यह वार्त्तिक यह दोनों अन्वादेश में ही प्रवृत्त होते हैं । इसका उदाहरण है 'कुण्डमानय एनत् प्रक्षालन' । यहाँ पर उक्त वार्तिक के न रहने से 'द्वितीया' इत्यादि सूत्र से 'एन्' आदेश ही होता है 'एनत्' नहीं हो पाता । अतः वार्तिक का आरम्भ करना आवश्यक है। यहाँ पर ' स्वमोर्नपुंसकात्' इस सूत्र से द्वितीया विभक्ति के 'लुकू' हो जाने पर भी प्रत्यय लक्षण द्वारा 'एनत्' आदेश होता है । 'न लुम्ताइस्य' यह निषेध अंग कार्य में ही होता है । 'एनत्' आदेश अंगाधिकार से बहिर्भूत है । अथवा 'एनद्' अ आदेश के विधानसामध्यति 'न लुमताडस्य' इस सूत्र की प्रवृत्ति नहीं होती है । यह 'नद' आदेश दितीया के एकवचन अंग विभक्ति परे रहते ही होता है । यद्यपि वार्तिक में सामान्येन एकवचन का ग्रहण किया गया है तथापि तृतीया विभक्ति के एकवचन में 'एनत्' आदेश का कोई फल नहीं है । 'एनद्' आदेश होने पर भी 'त्यदादीनाम:' इस सूत्र से 'अन्त्य तकार' को 'अकार हो जाने से 'एनत्' • ऐसा श्रवण नहीं हो पाएगा अपितु 'एन' का ही श्रवण हो पाएगा । ऐसी स्थिति में 119 - सूत्र के द्वारा ही 'एनदादेश' करने से ही कार्य सिद्ध हो जाएगा । 1. अष्टाध्यायी 2/4/320 कौमुदीकार के मतानुसार 'द्वितीया: दो: स्वेन : ' इस सूत्र में ही 'एन्' के स्थान पर 'एन' कहना चाहिए । सर्वत्र 'एनत्' ही आदेश करना चाहिए । उस 'एनत्' आदेश को नपुंसक द्वितीया के एकवचन के अतिरिक्त द्वितीयादि में Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 120 'त्यदादीनामः ' इस सूत्र से 'अ त्व' करने पर 'एनम्', एनौ, एनान्', 'एनेन, एनयो: ' इत्यादि इष्ट रूप होता है । 'येन न प्राप्ति' इस न्याय 'त्पवादिनाम: 'इसका यह सूत्र अपवाद हो जाएगा। अतः 'एनत्' आदेश प्रवृत्ति के अनन्तर 'त्यदादय त्व' नहीं हो सकेगा। ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए क्योंकि 'द्वितीया टोप्स' इत्यादि सूत्र में विषय सप्तमी मान लेने से उक्त दोष निरस्त हो जाता है। विष्य सप्तमी पक्षा में द्वितीयादि के उत्पत्ति के पूर्व आदेश प्रवृत्त हो जाता है। उस समय 'त्यदादीनाम:' की प्रवृत्ति नहीं होती है । इस प्रकार यह सूत्र 'त्यदादय त्व' का अपवाद नहीं है। सर्वत्र 'एनत्' आदेश के विधान करने पर यह शंका होती है कि नपुंसक द्वितीया के एकवचन से अतिरिक्त स्था पर उसके चरितार्थ हो जाने से नपुंसक द्वितीया के एकवचन में 'एनत्' आदेशा विधान सामथ्यात् 'न लुमताडत्य' इस सूत्र के प्रत्यय लक्षण के प्रतिषेध हो जाने से 'एनत्' आदेश प्राप्त नहीं हो सकता है क्योंकि 'एनत्' आदेश के अन्यत्र चरितार्थ हो जाने से नपुंसक द्वितीया के एकवचन के विधान सामर्थ्यात् 'न लुमताडस्य' इस निषेध को रोका नहीं जा सकता है । उपर्युक्त शंका का समाधान 'एनत्' में वकारोच्चारण सामथ्यात्' हो जाता है । वह 'तकारोच्चारण नपुंसक द्वितीया के एकवचन में ही सार्थक होता है । क्योंकि वहाँ विभक्ति का 'लुक' हो जाने से 'त्यदादिनाम: ' की प्राप्ति न हो पाती। वहाँ भी प्रत्यय लक्षण के निषेध हो जाने से 'एनत्' देश की यदि प्रवृत्ति नहीं होगी तो 'तकारोच्चारण' ही व्यर्थ हो जाएगा। इस प्रकार Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 121 सूत्र में ही 'एनत्' ओदेश का विधान करना चाहिए । इस पक्ष में लान है किन्तु 'एनत्' यह 'तकारान्त' रूप नपुंसक द्वितीया के एकवचन में ही सुनाई देता है । अन्यत्र 'अकारान्त' और 'तान्त' में कोई विशेषता नहीं है। इस अभिप्राय से वार्तिक में नपुंसक द्वितीया के एकवचन का ग्रहण किया गया है । यह सब प्राध्य में स्पष्ट है। वहाँ कहा गया है कि यदि एनत्'' यह आदेशा होगा तो 'एनादेश' नहीं कहना चाहिए क्योंकि नपुंसक द्वितीया के एकवचन से अतिरिक्त स्थन में 'त्यदादिनाम: ' से 'अकार' कर देने से सिद्धि हो जाएगी। यह शंका होती है कि सभी जगह 'एनत्' आदेशा विधान करने पर 'एतच्छितक' इस समस्त प्रयोग में प्रत्यय लक्षण से अन्तरवर्तिनी विभक्ति मानकर 'एनत्' आदेश हो जायगा । 'एनच्छितक' यह अनिष्ट प्रयोग होने लगेगा । 'न लुमताडत्य' यह निषेध यहाँ नहीं लग पाएगा। 'एनत्' आदेश विधान सामथ्यात्' उसकी प्रवृत्ति नहीं होगी। इप्त शंका के समाधान में यह कहना चाहिए कि कि यह 'एनत्' आदेश एक पद को आश्रय मानने वाले अन्तरंग 'स्वमोलुंकि इस शास्त्र के विषय में चरितार्थ हो जाता है । तब पदद्वय की अपेक्षा से प्रवृत्त 'बहिरंग शास्त्र' सामासिक लुक' के विष्य 'एनत्' आदेश की प्रवृत्ति नहीं होगी। अतः 'एतच्छितक्' यहाँ अनिष्ट प्रयोग नहीं होगा । यह मनोरमा में स्पष्ट है । इसी अभिप्राय से सिद्धान्त कौमुदी सेंवर लक्ष सिद्धान्त कौमुदी में उल्लिखित सूत्र में एकवचन को हटाकर 'अन्वादेशे नपुंस के एनत् वक्तव्यम्' ऐसा पाठ किया गया है । वस्तुतः इनके मत 1. महाभाष्य 2/4/34. Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 122 से 'नपुंसके' यह भी नहीं कहना चाहिए । हरदत्त ने भी दीक्षित के समान ही 'एनत्' आदेशा का समर्थन किया है । 'एनश्रितः ' इस विग्रह में 'द्वितीयाश्रितातीतपतितगता त्यस्तप्राप्तापन्नैः'। इस सूत्र से समास करने पर 'अन्तरगामपि विधान 'बहिरङगो लुक् बाधते' इस परिभाषा से अन्तरंग भी 'एनत्' आदेश को बाधकर 'सुपो धातु प्रातिपदिकयो: ' इस सामासिक 'लुक' के विषय में 'न एनादेश न एनदादेश' होगा किन्तु 'एतच्छितः ' यही साधु रूप होगा । अतः यहाँ पर भी दोनों में फलभेद नहीं है। यह सब बातें मदम जरी' में स्पष्ट है। इससे यह सिद्ध होता है कि 'एतचितः ' यहाँ पर 'लुक' होने के अनन्तर प्रत्यय लक्षण मानकर 'एनत्' आदेश नहीं होता है क्योंकि 'न लुमतानडस्य ' इस सूत्र से प्रत्यय लक्षण का प्रतिषेध हो जाता है । यह दीक्षित जी का मार्ग हरदत्त जी को भी अभीष्ट है। कैय्यैट का कहना है कि यदि 'एनट' किया जाता है तो एनादेश नहीं कहना चाहिए' इत्यादि भाष्य के अनुसार 'एनदादेश'को सर्वत्र 'अभ्युपगम'करना चाहिए । सर्वत्र 'एनदादेश' होने पर 'एनतिकः प्राप्नोति' इस भाष्यो क्त आशंका को 'यथालक्षणम्प्रयुक्ते' इस भाष्य की उक्ति से ही समाहित कर देना चाहिए । कैय्यट ने इस भाष्य का इस प्रकार से व्याख्यान किया है कि यदि I. ASC Tध्यायी, 2/1/24. 2. इह त्वेनं श्रित इति द्वितीया समासे यय त्येनादेशो थाप्येनादेशः, उभाभ्यमपि न भाव्यम् । कथम् १. अन्तरगानपिविधीनवहिरगोलुगवाधते' तस्मादेतचित इति भवति । पदमजरी, 2/4/34. Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 123 सर्वत्र 'एनदादेश' किया जाएगा तो 'एतचितक: ' इप्त समास में 'एनदादेश' होने पर 'तकार' श्रवण की प्रसक्ति होगी । 'त्यदादिनाम: ' से यहाँ 'अकार ' नहीं हो सकता है । सामा सि क 'लुक' से विभक्ति के लुप्त हो जाने पर 'अत्व' की प्राप्ति नहीं है । प्रत्यय लक्षाण को भी प्रत क्ति नहीं हो सकती है । 'न लुमता इस्य' इस सूत्र से निध हो जाता है । इस शशंका का भाष्योक्त समाधान 'यथ लक्षणम्प्रयुक्ते' इस भाष्य के व्याख्यान में कैय्यट कहते हैं कि जो प्रामाणिक प्रयोग उपलब्ध नहीं होता है उसका लक्षण के अनुसार ही संस्कार करना चाहिए । या लक्षण प्राप्त होता है तो लगाना चाहिए । यदि नहीं लगता हो तो नहीं लगाना चाहिए । उत्त प्रयोग के अनुरोध से लक्षण में अव्याप्ति अतिव्याप्तिदोष की उदभावना नहीं करनी चाहिए । प्रकृत में 'नमुमताडस्य' इस सूत्र से 'इ. If कारीय' कार्य के कर्तव्य में ही 'प्रत्यय लक्षण' का प्रतिषेध होता है । यह प६। 'आश्रित' जब किया जाता है तब 'एनदादेश' अधिकार से 'बहिर्भूत' है अतः उस कर्तव्य में 'प्रत्यय लक्ष्ण' का प्रतिषेध नहीं हो पाएगा । 'एनच्छितः ' में 'एनव आदेश होगा ही। यदि 'न लुमताडस्य' इस सूत्र का 'लुमत' शब्द 'लुप्त' प्रत्य परे रहते जो अंग उसके कार्य कर्तव्य में 'प्रत्यय-लक्षण' का प्रतिषेध होता है वह कार्य 'आइ. ' को 'अनाइ. ' इप्स पक्षा का आश्रय करते हैं तब तो 'एनदादेश' के 'अगाधिकारीय' न होने पर भी 'अंगोददेश्यक' होने से 'प्रत्ययलक्षण' का प्रतिक हो जाता है तब 'एनदादेश' नहीं होना चाहिए । इस प्रकार अप्रयुक्त 'एनरि तक्' इत्यादि प्रयोगों के अनुरोध से अतिव्याप्ति आदि दोषों का उदभाव कर 'सार्वत्रिक एनदादेश' विधान के प्रति अप युक्तियुक्त नहीं है । इस प्रकार उर Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 124 भाष्य कैय्यट, हरदत्त, दीक्षित के रीति का पोषक ही है । नागेश का कहना है कि यदि 'एनष्क्रियते' इत्यादि भाष्य पूर्वपक्षी की उक्ति है । इस भाष्य का शय यह है कि सब जगह 'एनदादेश' करने पर 'एनम्', एनौ, एनान्' इत्यादि प्रयोगों में 'त्यदादिनामः' के द्वारा ' त्व' नहीं हो सकता है क्योंकि 'एनदादेश' 'त्यदादिनामः ' का अपवाद है । 'द्वितीयातौस' इत्यादि सूत्र में विषय सप्तमी मानकर अपवाद का परिहार करना युक्त नहीं है क्योंकि विष्य सप्तमी मानने में कोई प्रमाण नहीं है । अतः 'एनम्' एनौ' इत्यादि की सिद्धि के लिए 'एनादेश' का विधान आवश्यक है । 'एनदादेश' का विधान 'नपुंसक द्वितीया' के एकवचन में ही होना चाहिए । यदि 'एनत् क्रियते' इत्यादि भाष्य पूर्वपक्षीय की उक्ति है । इस प्रकार जिस मत को दीक्षित जी ने मनोरमा में पूर्वपक्षरूप से उपन्यस्त किया है उसी को श्री नागेश ने सिद्धान्त सम्मत माना है। यह वार्तिक भी वाचनिक है । सम्बुद्धौ नपुंस कानां न लोपो वा वाच्यः । 'नडि. सम्बुद्धयो: 2 इस सूत्र के भाष्य पर 'वा नपुंस कानां' यह वार्तिक पढ़ा गया है । नपुंसक के न का लोप विकल्प से होता है । यह वार्तिक का अर्थ है । यद्यपि 'वा नपुंसकानां' इतना ही वार्तिक का रूप भाष्य में देखा 1. लघु सिद्धान्त कौमुदी, हल्सन्धिप्रकरणम्, पृष्ठ 347. 2. अष्टाध्यायी, 8/2/8. Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 125 जाता है । उसमें सम्बुद्धौ नहीं पढ़ा गया है । जतः 'नडि. समुबद्धौ सूत्र इस वार्तिक का पाठ होने के कारण 'डिं. ' और सम्बुद्धि उभय विषयक इसे • ग्रहण के प्रत्याख्यान कर देने से सम्बुद्धि अतएव 'सम्बुद्धौ नपुंसकाना ' इसका उदाहरण है - हे होना चाहिए तथापि उक्त सूत्र में 'डि. मात्र विषयता वार्त्तिक को निर्धारित होती है । इत्यादि रूप से सिद्धान्त कौमुदी में पढ़ा गया है । चर्म हे चर्मन् है । 'न लुमताडस्य' इस निषेध के अनित्य होने से अप्रवृत्ति होती है । अतः प्रत्यय लक्षण से सम्बुद्धि परत्व मानकर 'न डि. सम्बुद्धौ ' इस सूत्र से 'न' लोप का निषेध प्राप्त होता है । इसके विकल्प के लिए यह वार्त्तिक आव श्यक है । 'न लुमताडस्य ' इस सूत्र के प्रवृत्ति पक्ष में भी 'प्रत्यय लक्षण के अभाव होने से 'सम्बुद्धि परत्व न होने पर 'न डि. सम्बुद्धौ' इस निषेध की प्राप्ति तब 'न लोपः प्रातिपदिकान्तस्य' इस सूत्र से नित्य ही न 1 नहीं होती है । लोप प्राप्त होता है । उसके विकल्प के लिए यह वार्त्तिक आवश्यक है यह उद्योत में स्पष्ट है 'न लुमताडस्य' इस सूत्र के दोनों पक्षों में यह वार्त्तिक करना चाहिए अन्यथा 'प्रत्यय लक्षण' निषेध पक्ष में नित्य ही न लोप प्राप्त होगा और 'प्रत्यय लक्षण' पक्ष में नित्य ही न लोपाभाव प्राप्त होगा किन्तु दोनों प्रयोगों हे चर्म, हे चर्मन् इष्ट है । इस लिए भाष्यकार ने कहा है 'वा नपुंसकाना" इस वार्त्तिक को पढ़ना चाहिए । 2 1. प्रत्यय लक्षणे सति नित्ये प्रतिषेधे प्राप्ते विकल्पार्थ प्रत्यय लक्षण प्रतिषेधे त्वप्राप्त प्रतिषेध वचनम् । - उद्योत 8/2/8. 2. महाभाष्य, 8/2/8. Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХ चतुर्थ प्रकरणम् XXX ХХХХХХХХХХХХХХХХ तिङन्त प्रकरणम् XXX ХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 दुरः षत्वणत्वयोरूप सर्गत्व प्रतिषेधो वक्तव्यः 'गतिश्च 2 सूत्र के भाष्य में 'सुसुरोः प्रतिषेधः नुम्विधि तत्त्वषत्वणत्वेषु' यह वार्त्तिक है । यहाँ पर 'सु' एवं 'नुम्बिधि' और 'तत्त्व' प्रत्याख्यान होने से 'दूरषत्वणत्व' शेष बचता है अतः श्री वरदराज जी ने उतना ही उल्लेख किया है जिससे दु:स्थिति में उपसर्गातिसुनोतिसुव तिस्थतिस्तौ तिस्तो भतिस्थासेनयसेसि च स जस्व जाम्' से 'षत्व' नहीं होता । वार्त्तिक 'रुत्व' विशिष्ट 'दुस' शब्द का भी अनुकरण होने से सकारान्त 'दुस्' मान कर 'षत्व' नहीं होगा । इसी प्रकार 'दुर्नय' आदि में भी 'उपसर्गादिसमासे पिणोपदेशस्य 4 से 'णत्त्व नहीं होगा । अन्त शब्दस्या ड. किवि धिणत्वेषूपसर्ग त्वं वाच्यम् 6 "अन्तरपरिग्रहे " सूत्र भाष्य में 'अन्तः शब्दस्याड. किविधित मास त्वेषूपसंख्यानम्' वार्त्तिक अंकित है। 'आइ.' कि आदि विधियों में 'अन्त' शब्द 1. लघुसिद्धान्तकौमुदी, भ्वादिं प्रकरण पृष्ठ 400. 2. अष्टाध्यायी, 1/4/59. 3. वही, 8/3/65. 4. वही, 8 / 4 / 14. 5. लघु सिद्धान्त कौमुदी, भ्वादि प्रकरण, पृष्ठ 400. 6. अष्टाध्यायी, 1/4/65. Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'गति' एवं 'उपसर्ग संज्ञाएँ होती हैं जिनमें 'अाइ. ' की 'णत्व' इनमें 'उपसर्गत्व' अपेक्षित है । क्योंकि 'अातचोपसर्गे', 'उपसर्गादिस मासे' आदि सूत्र से उनका . विधान है । इसलिए अन्तर्धा, अन्तर्धी अन्तर्णयति' में 'आइ. ' आदि होते हैं। समास तो सगतिक है । 'कुगतिप्राय: 2 से विहित होने से यथा 'अन्तईत्य' ये 'उपसर्ग' संज्ञा विष्यक ही विधि है । सूत्र से ही गति संज्ञा सिद्ध होने से गति के सन्दर्भ में उक्त सूत्र अनुवाद मात्र है । यहाँ जितने अंश में इस वार्तिक की अपूर्वता है उतना ही लच्च सिद्धान्त कौमुदी में पढ़ा गया है । तिज्लोप एकादेशे सिद्धो वाच्यः' 'स्वरितोवाडनुदात्तेपदादौ सूत्र के भाष्य में 'सिज्लोपरकादेशे' इत वार्तिक का उल्लेख भाष्यकार आचार्य पत जालि ने किया है । एकादेशे कर्तव्य हो तो 'सिज्लोप' सिद्ध होता है, यह वातिक कार्थ है । इससे 'अलावीत' इत्यादि 'इ ईटि' से 'सुलोप' होने पर सवर्णदी,' सिद्ध होता है अन्यथा 'इट ईटि ' सूत्र के त्रिपादी के होने के कारण 'एकादेश के प्रति असिद्ध होने से 'सवर्ण' दी न होता। 1. अष्टाध्यायी 3/3/106. 2. वही, 2/2/18. ___ 3. महाभाष्य प्रदीप cीका, पृष्ठ 4.. लघु सिद्धान्त कौमुदी, भ्वादि प्रकरणम्, पृष्ठ 421. 5. अष्टाध्यायी 1/3/37. Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128 कास्यनेकाच आम वक्तव्यः । इस वार्तिक को भाष्यकार पत जालि ने 'कास्प्रत्ययादाममन्त्रे लिटि 2 पाणिनि सूत्र से वचन रूप से पढ़ा है जिसका प्रकार निम्मरीति से है । सर्वप्रथम भाष्यकार ने 'चकासां चकार' प्रयोग की सिद्धि के लिये सूत्र छक 'कास' इस पद के स्थान पर 'चकास' पद के पाठ की आशंका की, परन्तु, 'कासा चक्रे, के सिद्धि के लिए 'कास' इस आनुपूर्वी का पाठ भी अनिवार्य रूप से स्वीकार किया । पुनः भाष्यकार ने 'यथान्यासमेवास्तु' यह कहकर 'चकासांचकार प्रयोग की असिदि को तादवस्थ्य' रूप से प्रतिपादित किया - यदि - 'चकास्' 'क' कास' से कार्य की निष्पत्ति मानी जाय, तो नहीं 'कास' पद आनुपूर्टयवच्छिन्न विषयता प्रयोजक है । अतः 'अर्थवदग्रहणे नानर्थकस्य” परिभाषा की प्रवृत्ति होने से स्वार्थ विशिष्ट 'कास्' शब्द ही उददेश्य कोटि में उपादेय होगा, अतः 'कास' इस स्वतन्त्र शब्द से 'चकाप्स' E क काप्त का ग्रहण नहीं होगा । अतः 'च कासांचकार' 'चुलुम्माचकार', 'दरिद्रांचकार' इत्यादि अनेक प्रयोग के सिद्धि के लिये भाष्यकार ने गले पतित इस वार्तिक को वचन रूप से पढ़ा है । 'कास्यनेकाच आम् वक्तव्यः' इति । इसी भाष्यमत में ही कैय्यट तथा नागेश ने प्रदीप और उद्योत के माध्यम से अपने मत को समाहित किया है और अन्य Cीका कार भी इसी मत का समर्थन करते हैं । 1. लघु सिद्धान्त को मुदी, भ्वादि प्रकरणम्, पृष्ठ 437. 2. अष्टाध्यायी, 3/1/35. 3. परिमायेन्द्र० 14, प्रथम तन्त्र. Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 129 1 कमेश्चेश्चड. वाच्यः 'णिश्रदुसुभ्यः कर्तरि चइ. ' ' सूत्र - भाष्य में 'णिश्रिदु : सुषुकमेस् मसंख्यानम्' इस 13 वार्तिक का उल्लेख मिलता है अर्थात् उक्त सूत्र में 'कम' धातु को भी ग्रहण करना चाहिए । 'आयादय आर्ध धातुके वा' से अयादय 'अर्धधातुके वा से विकल्प से 'णिइ . ' विहित होने के कारण 'ण्डि.' भावपक्ष में 'चिल' को 'सिच' प्राप्त होने पर 'च. ' विधान के लिए यह वार्तिक है । 'डि' पक्ष में तो 'ण्यन्तत्वात्' उक्त सूत्र से ही 'च.' सूत्र सिद्ध है । इस प्रकार 'डि, भाव पक्ष में 'अचकमत' और 'णिह.' पक्ष में 'सन्वल्लधुनि चमरेउन ग्लोपे " सूत्र से 'सन्वदभाव' से अभ्यास को 'ई' और दीर्घ होने से 'अचीकमत' रूप सिद्ध होते हैं । उतरावाच्यम् 'इजादेश्चगुस्मतो नृच्छ: इस सूत्र 16 के भाष्य में 'उर्णोतरा नेतिवाच्यम्' इस वार्तिक का पाठ है । 'उर्णु' धातु से 'कास्यनेकाचू' वार्त्तिक से अथवा 'इजादेश्चगुरुमतो नृच्छ: ' सूत्र से प्राप्त 'आम्' इस वार्त्तिक से निषिद्ध होता है । 1. लघु सिद्धान्त कौमुदी, भ्वादि प्रकरणम्, पृष्ठ 491. 2. अष्टाध्यायी 3/1/48. 3. वही, 3/1/31. 4. वही, 7/4/93. 5. लघु सिद्धान्त कौमुदी, अदादि प्रकरणम् पृष्ठ 552. 6. अष्टाध्यायी, 3/1/36. Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 131 होनी यही अर्थ है । यथा - रूधिर, भिदिर, इसी लिए 'अस्थात्' इत्यादियों 'इरतो वा' सूत्र 'चिनोड. ' सिद्ध होता है । यह वार्तिक 'इकाररेफ्यो: नैके' इस प्रकार से भाष्य में प्रत्याख्यात है क्योंकि 'रुचिर' इत्यादि में 'इकार रेफ' की अलग-अलग ही 'इत्संज्ञा' है न तो 'इर्' इप्त समुदाय की 'इरतौ वा' में 'इश्च' रश्च इरौ तौ इतौ यस्येति समाप्त है । यदि कहा जाय कि 'इकार' अलग से 'इत् संज्ञा करने से 'स्वादि में 'इदित्वान्नम्' होने लगेगा, तब भी नहीं कह सकते क्योंकि 'इदितोनुम्'धात में 'इच्चासौ ' 'इत् इदित्' यह कर्मधारय समास स्वीकार करने पर दोष नहीं है 'इदित्' यह 'धातो: ' इसका विप्रेषण है। विशेषण के साथ तदन्त विधि करने पर 'इत्तज्ञकेदन्त' धातु से यह अर्थ लाभ है । इस प्रकार 'अन्तेदित' से ही 'नुम्' होगा न कि मध्येरित इस लिए 'रूधिर' आदि में 'अन्त इदित्' न होने के कारण दोष नहीं है अध्वा 'गो: पदान्ते +2 इस सूत्र से 'इदिता नुम् धातो: ' में 'अन्ते' इसकी अनुवृत्ति करने से उक्त अर्ध का लाभ हो जाएगा अथवा 'सधिर' इत्यादि में 'इरित' इस स्थन में 'अकारान्त पदे शिक' धातु स्वरूप स्वीकार करें । धातु पाठ में 'अत इदातो: ' इससे 'कृत इत्व रूधिर' का अनुकरण सूत्रकार के निर्देशानुसार 'अइत्वाभाव' में 'इत्व' मानेगे । 'इरितो वा' इसमें 1. अष्टाध्यायी, 7/1/158. 2. वही, 7/1/157. Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 132 'अकार' का ही 'कृतत्व' निर्देश मानेंगे, परन्तु ऐसा मानने पर 'उपदेशावस्था' में 'र' इस अवस्था में 'अकार' का 'उपदेशे नुनासिक इत्' इस सूत्र से 'इत्संज्ञा' लेगेगी। इस प्रकार उपदेश में 'इर' यह शब्द स्वरूप ही नहीं है, न उसकी 'इत्संज्ञा' का उपाय प्रतिपादन करना है अमा 'इरितो वा' इस सूत्र निर्देश से 'इर' इसकी 'इत्संज्ञा होगी।। वुग्युटाववडयणोः सिद्धौ वक्तव्यौ 'असिद्ववदत्राभात्' इस सूत्र के भाष्य में 'वुग्युटावुपडयणोः सिद्वौ वक्तव्यो' यह वार्तिक पढ़ा गया है। उक्त सूत्र के अनुसार 'उवडयणो: ' की कर्तव्यता 'वुक् युद' की 'अ सिद्धि' प्राप्ति होगी। वह इस वार्तिक से वारित होती है । अतः 'बभूत' आदि में 'भुवावुग्लुइ. लिटो:" इससे 'वुक्' हुआ 'एरेनेकाच' से 'यण' नहीं हुआ । 'दिदीये' यहाँ पर 'दीडोयु चि डिति' इससे 'युट्' हुआ । नहीं तो उक्त सूत्र के अनुसार 'क्' और 'युद्ध' के असिद्ध होने के कारण 'तुक्' करने पर भी उसके असिद्ध होने के कारण 'उ कारान्त' ही धातु होगी । 'बभूव' इत्यादि में 'उववार' हो जाता है । इसी प्रकार 'दिदीय' 1. महाभाष्य प्रदीपोद्योत 2. लघुसिद्धान्त कौमुदी, भ्वादिप्रकरणम्, पृष्ठ 590. 3. अष्टाध्यायी, 6/4/22. 4. वही, 6/4/88. Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 133 मैं प्रत्यय को 'युडागम' होने पर भी उसके असिद्ध होने के कारण अनादि प्रत्यय परत्व होगा तथा 'यण' होने लगेगा । " यह सूत्र भाष्यकार आचार्य पत जलि ने इस वार्तिक का प्रत्याख्यान किया है । 'भुवो वुइलुड. लिो' इससे अव्यवहितोत्तर 'उदुपधाया गोहः पढ़ा है। वहाँ पर 'भुवो वुगलुङ लिट उपधाया: 'इससे योग विभाग करते हैं । वहाँ पर 'ओ: सुपि 2 इससे 'ओ : ' इसका अनुकरण करते हैं। इसके बाद 'भुव: उकारात्मिका उपधा' को 'उत्' यह सूत्रार्थ होगा | इस प्रकार बभूवतुः बभूव इत्यादि में 'उवड.' करने पर 'भुव' हो जाने पर 'उपधा' को इससे उदादेश होने पर बभूवतुः बभूव इत्यादि सिद्धि हो जाएगी । 'जो' इसमें 'अकार' का भी, 'प्रश्लिष' मानेंगे । 'अ + उ = ओ तस्य ओ : ' यह सिद्ध हो जाएगा । इससे • बभूव बभूविथ यहाँ पर 'गुण वृद्धि' का 'अभावादेश' करने पर 'उपधाभूत अवर्ण' को इससे 'उदादेश' होकर इष्ट सिद्धि हो जाएगी । इस प्रकार इष्ट की सिद्धि हो जाने के कारण 'वुक' के लिए इस वार्तिक को करना अनिवार्य नहीं है । 'युद्ध' सिद्धि के लिए भी इसकी आवश्यकता नहीं है । 'युद्ध' विधान सामर्थ्य से ही 'दिदीये' इत्यादि में 'यण भाव' के सिद्ध होने के कारण नहीं तो 'युद्ध' विधान व्यर्थ होता । 'युद' न होने पर 'यण' होने पर 'एकयकारं' 'दिदीये' इति 'युद्ध' करने पर 'यण' होने पर दो प्रकार का रूप होगा । यदि कोई कहे 1. अष्टाध्यायी, 6/4/89. 2. वही, 6/4 / 83. Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 134 कि 'युद' विधान 'यण' रोकने में समर्थ नहीं है तो नहीं, कह सकते, 'व्य जन' से परे अनेक प्रकार श्रवण विशेषाभाव ही पन होगा । किडतिरमागमं वाधित्वा सम्प्रसारणं विप्रतिभेने %3 OT 'भस्जोरोपध्योरमन्यतरस्याम2 इस सूत्र के भाष्य में 'भस्वोदशात्त प्रसारण विप्रतिषेधेन ' यह वार्तिक पढ़ा गया है। इसलिए 'भृज्यात Fट: ' आदियों में 'रमागम' को बाधकर पूर्व प्रतिषेधेन 'ग्रहिज्या इस सूत्र से 'सम्प्रसारण' होता है । इससे 'विप्रतिषेध' वार्तिक के अभाव में 'परत्वात् रमागम' होता है । नित्य होने के कारण ही सम्प्रसारण से 'रमागम' की बाधता को आश्रय करके पूर्व 'विप्रतिषेधेन ' इस वार्तिक भाष्यकार ने प्रत्याख्यान किया है क्योंकि सम्प्रसारण नित्य है 'रमागम' करने पर भी प्राप्त होता है । न करने पर भी 'रमागम' 'अनित्य' है । 'सम्प्रतारण' करने पर नहीं प्राप्त होता । उस समय 'रेफाभाव' होने के कारण यद्यपि 'सम्प्रसारण' होने पर 'रमागम' दूसरे को होता है न होने पर दूसरे को होता है । अतः शब्दान्तर प्राप्ति है तथापि कहीं-कहीं 'कृत I. लघु सिद्धान्त को मुदी, तुदादि प्रकरणम्, पृष्ठ 612. 2. अष्टाध्यायी 6/4/47. 3. वही, 6/1/16. 4. इद मिह सम्प्रधार्यम् - भस्जादेशः क्रियताम सम्प्रसारणमिति, किमत्र कर्तव्यम् १ परत्वात अस्लादेश: नित्यत्वात् सम्प्रसारणमित्यादि । ... - तत्त्वबोध सिद्धान्त कौमुदी । Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 135 प्रप्स डिगत्वमा श्रय' से 'नित्यता स्वीकार कर ली जाती है अतः सम्प्रसारण की 'नित्यता' माननी चाहिए यह तत्त्वबोधिनी' में स्पष्ट है । 2 स्पृशमृषकृषतृपदृषां च्ले: सिज्वा वाच्यः' इस +3 'चूले: सिच्' इस सूत्र के भाष्य में यह वार्त्तिक पढ़ा गया है । वार्त्तिक से इन धातुओं से 'सिच्' का विधान होता है । 'शल इगुपधादनिटुः क्स: 4 इससे 'सिच्' बाधक 'कसादेश' हो जाने पर पाक्षिक 'सिच्' विधानार्थं 'वार्त्तिका रम्भ' किया गया । 'ति' भाव में प्राप्त 'क्स अइ' होवे । इस लिए 'सिच्' पक्ष में अस्प्राक्षीत् अत्राप्सीत् यह रूप होगे । 'सिज्' भाव पक्ष में अस्पृक्षत, अतृपक्षत्, अतृपत् इत्यादि रूप सिद्ध होगे । 1. नम सम्प्रसारणात्पूर्व धातोरेफस्य पश्चात्तु र भाग में रेफस्यति शब्दान्तर प्राप्त्या सम्प्रसारणस्य नित्यत्वं नेति शक्यं, लक्ष्यानुरोधेन कृताकृत प्रसडिगत्वेनापि क्वचिन्नित्यत्व स्वीकारात् । तत्त्वबोधिनी सिद्धान्त कौमुदी, प्रकरणम - 2. लघु सिद्धान्तकौमुदी, भ्वादि प्रकरणम् । 3. अष्टाध्यायी 3/1/440 पृष्ठ 615. Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतृम्फादीनां नुम्वाच्यः 'शे मुचादीनाम् 2 इस सूत्र के भाष्य में यह वार्त्तिक पढ़ा गया है । वार्त्तिक में आदि प्रकारार्थक है व्यवस्थावाची नहीं है । इसलिए 'तृम्फादि ' का अर्थ 'तृम्फ' सदृश है । सादृश्य 'नकारानुशक्त होंगे वह 'तृम्फादि' है । 'तृम्फति' आदि में 'अनदितामिति' इस सूत्र से न लोप होने पर भी 'नकारश्रवण' यदि ये के लिए इस वार्त्तिक से वहाँ पर 'नुम्' का विधान होता है । 'तृम्फादि इदित' कर दिए जाएँ तब भी नहीं बन सकता । ऐसा करने पर 'तम्फित' यहाँ पर 'अनिदिताम्' इससे न लोप नहीं होगा । 'मुचादियों' में 'तृम्फादियो' पाठाश्रयण करके अथवा 'इदितोनुग्धातो: ' इस सूत्र में 'धातो:' पर का योग विभाग करके 'तृम्फति' आदियों में 'नुम्' की सिद्धि करके इस वार्तिक का भाष्य में प्रत्याख्यान है । 3 यहाँ यह अभिप्राय है 'इदितोनुम् धातो:' इसमें योगविभाग, उसमें 'रोमुचादीनाम्' इससे 'शे' का अपकर्षण करेंगे। योग विभाग इष्ट सिद्धि के लिए होता है । अतः 'तृम्फादियों' 1. लघु सिद्धान्तकौमुदी, तुदादि प्रकरणम्, पृष्ठ 626. 2. अष्टाध्यायी, 7/1/59. 3. यदि पुनरिमेवादिषु पठ्येरन १ न स्यात् । अथवा नेवं विज्ञायत इवितो नुम्धातोरिति । कथं तर्हि १ इदितोनुम् ततो धातोरिति । महाभाष्य, 7/1/68. Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 137 से 'शेपरत: नुम्' होगा। अति प्रसाक्ति योग विभागेष्ट सिद्धि से ही परिहार्य भत्रन्त्यात्पूर्वानुम्बाध्य 'भिदयो नत्यात्पर: - इस सूत्र के भाष्य में 'अन्त्पात्पूर्वोमस्जे िदनुष्ड्गसंयोगादिलोपार्थम्' यह वार्तिक पढ़ा गया है। भाष्य वार्तिक में 'भिदः ' यह वार्तिक पढ़ा गया है। भाम्य वार्तिक में 'भिदः ' यह कहा गया है। उसी का फलितार्थ कथन 'नुमित' कौमुदी के वार्तिक में है । 'नुम्' का अन्तिम 'इत् भस्ज में है ही नहीं। आनुष्ड्गसंयोगा दिलोपार्थ' यह अंश प्रयोजन कथन है । अतएव इप्स अंश को आचार्य वरदराज ने त्याग दिया है । 'भिद्रचो नत्यात्परः' इस सूत्र में अन्तिम 'अर' से पर प्राप्त रहा, अन्तिमवर्ण से पूर्व विधान के लिए यह सूत्र किया गया। इसका प्रयोजन आनुष्द्गल ोप संयोगादिलोप' है । 'अनुष्हंग |. धातूपदेशावस्था यामेव नुम्यथास्यादिति । यदि धातोरिति योग विभागः क्रियते तदा सर्वस्य सर्वत्र प्रसङगः । नेष दोषः । शेमुचा दिनामिति श ग्रहणस्य धातोरित्यत्र सिंहावलोकित न्यायेनापेक्षमाद्योगविभागत्येष्ट तिध्यर्थत्वादा। - प्रदीप - 7/1/59. 2. लाच सिद्धान्त कौमुदी, तुदादि प्रकरणम्, पृष्ठ 630. 3. अSC Tध्यायी ।/1/47 Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 138 लोप शब्द से 'नकार' कहा जा रहा है। इसलिए 'मग्न, मग्नवान् ' आदियों में इस वार्तिक के बल से 'भजनशोर्जलि' सूत्र से 'जकार' के पूर्व 'नुम्' हुआ । उसका 'अनिदिताम्' इस सूत्र से लोप हुआ । 'सकार' का 'रको: संयोगाधो रन्त्ये च' से लोप हुआ । इस वार्तिक के न रहने पर 'अकार' से परे 'नुम्' होता है, तब संयोगादित्व' न होने के कारण 'सकार उपधा त्व' नहीं होता 'न' तो 'नकार' का लोप होता । अंडभ्यासव्यवाये पि ।सुटका त्पूर्व। इति वक्तव्यम्। 'सुद का त्पूर्व: '2 इस सूत्र के भाष्य में 'अडव्यवाय उपसंख्यानम्' ये दो वार्तिक पढ़े गए हैं। 'अ' और अभ्यास के 'व्यवाय' में भी 'सुद' 'ककार' से पूर्व होता है । यह दोनों वार्तिक के अर्थ हैं । इस लिए स चस्कार, समस्कर्षीत् अादियों में 'सम्परिभ्यां करोती भूषणे' सूत्र 'सुद' 'ककार' से पूर्व होता है। नहीं तो प्रथम प्रयोग में 'चकार' से पूर्व और अनितम में 'अ ' से पूर्व 'सुद' होता है । 'धातूपसर्गयो: कार्यामन्तरगम्' इसका आश्रयण करने से अंड द्विवचन से पहले ही 'सम् कृ' इस अवस्था में ही 'सुद' होगा। इसके बाद 'सुद' सहित 1. तघु सिद्धान्त कौमुदी, तुदादिप्रकरणम्, पृष्ठ 636. 2. अष्टाध्यायी 6/1/135. Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 139 को 'अट् द्विवचन होंगे । इस प्रकार बिना वार्तिक के ही स चस्कार समस्कात इत्यादियों में 'ककार' से 'सुद' सिद्ध है । अतः इन वार्त्तिकों को भाष्यकार ने प्रत्याख्यान कर दिए हैं । वृत्तिकार ने तो 'अभ्यास व्यवाये पि' यह सूत्र रूप में पढ़ा परन्तु भाष्य में इसे वार्त्तिक के रूप में देखे जाने के कारण, इसका सूत्र में वृत्तिकार ने प्रक्षेप किया है, ऐसा प्रतीत होता है । क्योंकि कैय्यूट के अनुसार 'अडभ्यासत्यवायेपि' इस सूत्र का पाठ न होने पर वार्तिक की प्रवृत्ति है । इसमें आचार्य नागेश भट्ट ने सूत्रपाठ स्वीकार किया है । सर्वप्रातिपदिकेभ्यः किब्वा वक्तव्यः I उक्त सूत्र एवं भाष्य में 'आचारे वगल्भ 2 इत्यादि पूर्वोक्त वार्त्तिक उपक्रम कर के दूसरे ने कहा इस उक्ति सहित सर्वप्रातिपदिको से आचार 'क्विप्' कहना होगा । अश्वति, गदर्भात, इन दो प्रयोगों के लिए यह वार्त्तिक पढ़ा जाता है । इससे प्रातिपदिक मात्र से आचारार्थ में 'क्विप्' का विधान होगा। यह क्विप् प्रातिपदिक मात्र से होगा, न तो 'सुबन्त' से । अतः 'अश्वति' आदियों में 'पदान्त' का अभाव होने के कारण 'अतो गुणे' से पररूप होता है । यह 'सर्वेभ्य' यह कहने से ही सिद्ध रहा सर्वप्रातिपदिकेभ्य' इस उक्ति से प्रातिपदिकेभ्य' इस उक्ति से प्रातिपदिक ग्रहण से लब्ध होता है । 2 1. लघु सिद्धान्त कौमुदी, नामधातु प्रक्रिया, पृष्ठ 1014. 2. महाभाष्य प्रदीप Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रातिकाद् धात्वर्थे बहुल मिष्ठवच्च । 140 उक्त वाक्य गण सूत्र है, तथा चुरादिगण पठित है परन्तु विडम्बना यह है कि, आजकल इसे वार्तिक माना जा रहा है । इसका अर्थ है कि प्रातिपदिक से धात्वर्थ में णि प्रत्यय होता है, और जैसे 'इठन्' प्रत्यय के परे रहते प्रातिपदिक को पुंवंद भाव, रभाव, टिलोप, विन्मतुलोप- यणादि लोप, प्र० स्थ स्फाध्यादेश, यसंज्ञा, इत्यादिक कार्य होते हैं, वैसे ही णिच् प्रत्यय से परे रहने पर प्रातिपदिक को होते हैं। जैसे- पटुमाचष्टे - पटयति । - पटु + णिच् टिलोप, धातु संज्ञा तथा त्तादिकर के 'पटयति यह रूप - सम्पन्न हुआ । इसी प्रकार गोमन्तमाचष्टे, इति गवयति, यह प्रयोग 'मतुप् ' का लोप होकर सिद्ध होता है। अन्य उदाहरण स्पष्ट है । - -----::::-- ----- Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम् प्रकरणम् ब्रदन्त प्रकरणम् XXXXXX Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के लिमर उपसंख्यानम् 'तव्य त्तव्यानीयर: '2 सूत्र तथा भाष्य में वार्तिक पठित है । 'पचेलि मा' भाषा: पक्तव्याः भिदे लिमा: सरला: भेत्तव्या यह व्याख्यान भाष्य में 'वक्तव्याः भेतव्या' इत्यादि विवरण द्वारा शुद्ध कर्म में प्रयह प्रत्यय है। 'तव्यत्' विवरण से यही ज्ञात होता है । 'तव्यत्' शुद्र कर्म में ही होता है न कि 'कर्मकत्ता' में । वृत्तिकार' तो 'कर्मकत्ता' में इस प्रत्यय को कहा है । कित्वभेदालिमा' इत्यादि में गुण निरोध के लिए तथा 'रेफ स्वरार्थ' है । मूल विभुजादिभ्यः कः उपसंख्यानम् इस वार्तिक को महर्षि पत जलि ने 'तुन्दिशो कयोः परिमृजापनुदो:' अष्टाध्यायी के भाष्य में वचनरूप से पठित किया है । मूल विभुजा दिभ्यः यह चतुर्थी तादर्थ्य अर्थ में है, जिससे वार्तिक का अर्थ होता है कि 'मूल विभुना दि' प्रयोग की सिद्धि के लिये 'क' प्रत्यय का उपसंख्यान करना चाहिए । ___जैसे - मूलानि विभुजति इति 'मूल विभुजोरथः ' मूनानि इस कर्म के पूर्वपद में होने वि पूर्वक 'भुज', धातु से 'क' प्रत्यय होकर सम्पन्न हुआ । 'आकृतिगणों यम्' यह कर भाष्यकार, मूल विभुजा दिकों को आकृति माना -जिससे महीं जिघ्राति इति महीनः और कृधः, मिल :इत्यादिक प्रयोग की अज्जता सम्पन्न होंगे । ----- 1. लघु सिद्धान्त को मुदी, कृत्यप्रकरणम्, पृष्ठ 638. 2. अScाध्यायी, 3/1/96. 3. महाभाष्य 3/1/96. ५. पचे लिमा भाषा:, भिदे लिमानि काष्ठा नि । कर्मकर्तरि चायमिन्यते । - महाभाष्य 3/1/96. Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 142 क्विव्वचिप्रच्छ्या यतस्तुकट प्रुजुश्रीणां दीर्घौ सम्प्रसारणं च ' इस सूत्र · 'अन्येभ्यो पिदृश्यते '2 के भाष्य में यह वार्त्तिक पठित है । इससे वाच्यादि से 'क्विपू' तथा उसके 'सन्नियोग' से 'वाच्यादि' के 'अच्' को दीर्घ विधान किया जाता है । वाक्, शब्द प्राद, आयस्तुः इत्यादि उदाहरण है । 'वाकू' प्राद में 'सम्प्रसारणाभाव' के लिए 'अपर आह इस उक्तिपूर्वक 'वचि प्रच्छ्योरसम्प्रसारणं चेति वक्तव्यम्' यह वचन भाष्य में उपन्यस्त है । उसके संकलन से ही लघु सिद्धान्त कौमुदी में आचार्य वरदराज ने इस वार्त्तिक में 'असम्प्रसारण च ' ऐसा जोड़कर पाठ किया है । वाक् पाद इन स्थलों में दीर्घ विधानसामर्थ्य से ही 'सम्प्रसारण' नहीं होगा अतः असम्प्रसारण विधान यह जो द्वितीय वचन है, वह भी भाष्य में प्रत्याख्यात है 13 कविधानम्' " 'गृहवृद्धनिश्चिगमाच ' सूत्र के भाष्य में 'स्थास्नापाव्यधिह नियुध्यर्थम् ' यह वार्त्तिक पढ़ा गया है । भाव तथा कर्त्ता को छोड़कर कारक 'घर्थ है. । 1. लघु सिद्धान्त कौमुदी, कृदन्त प्रकरणम्, पृष्ठ संख्या 663. 2. अष्टाध्यायी, 3/2/178. 3. तत्तर्हि वक्तव्यम्, न वक्तव्यम् दीर्घ वचन सामध्यति सम्प्रसारणं न भविष्यति । HE THT 3/2/178. 4. लघु सिद्धान्त कौमुदी, उत्तर कृदन्त प्रकरणम्, पृष्ठ 636. 5. अष्टाध्यायी, 3/3/58. - Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 143 इसका फल तो वार्त्तिकका र इसलिए प्रस्थः, प्रश्न:, वहाँ पर इससे 'क प्रत्यय' का विधान होता है । स्वयं 'हिस्थास्ना' आदि के द्वारा निर्देश किया है । अविधः, विघ्न, आयुधम् इत्यादि प्रयोग सिद्ध होते हैं । 'घ' में इसकी साधुता नहीं होती है । I अल्वादिभ्यः क्तिन्निष्ठाव दाचय +2 'ल्वादिभ्यः इस सूत्र के भाष्य में यह वार्त्तिक पठित है । 'कारान्त ल्वादियों' से परे 'क्तिन्' प्रत्यय को निष्ठा के कार्य जैसा अति आदेश इस सूत्र से होता है । अतः कीर्णिः, गीर्णिः इत्यादियों में 'रदाभ्याम्' इससे 'क्तिन् तकार' को 'नत्व' होता है । 'नत्व' का ही अतिदेश इस सूत्र से होता है, न तु अन्य निष्ठा, विहित कार्यों का । 'लूनि:, पूनि इत्यादियों में 'ल्वादिभ्य: ' से 'नत्व' होगा | सम्पादिभ्यः क्विप् 4 'रोगाख्यायाण्वुल् बहुल म् सूत्र के भाष्य में यह वार्तिक पढ़ा गया है । 'सम्पादियों' से स्त्री अर्थ में इससे 'क्विप्' को विधान होता है । सम्पत्, आयत् इत्यादि सिद्ध होता है । ::0:: 1. लघु सिद्धान्तकौमुदी, उत्तर कृदन्त प्रकरणम्, पृष्ठ 787. 2. अष्टाध्यायी 8/2/44. 3. लघु सिद्धान्त कौमुदी, उत्तर कृदन्त प्रकरणम्, पृष्ठ 787. 4. अष्टाध्यायी 3/3/108. Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx काठम् प्रकरणम् समास प्रकरणम् XXXX XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इवेन समासो विभक्त्यलोपश्च 'सहसुपा '2 सूत्र के भाष्य में 'इवेन विभक्त्यलोपः पूर्वपदप्रकृतिस्वरत्वं च' यह वार्तिक पढ़ा गया है । 'इव' के साथ समास विभक्ति लोपाभाव पूर्वपदप्रकृतिस्वर यह इसका अर्थ होता है । समात तो 'सह सुपा' से ही सिद्ध है । विभक्ति का लोपाभाव तथा पूर्वपद प्रकृति स्वर विधान के लिए यह वार्तिक पढ़ा गया है । यह प्रदीप में स्पष्ट है। इसके उदाहरण 'वारसी इव कन्ये इव' भाष्य में कहे गए हैं । यहाँ समाप्त में 'सुपोधातु प्रातिपदिकयो ' से प्राप्त 'सुब् लुक्' इससे वारण होता है । 'समासस्य' सूत्र से अन्तोदात्त स्वर प्राप्त था पूर्वपद प्रकृति स्वर विधान करता है । वासस् शब्द 'वसे र्णित'' इस सूत्र से असुन् प्रत्ययान्त है । नित्स्वर के द्वारा आधुदात्त है । कन्या शब्द 'कन्या राजन्यमनुष्याणाम्' इस फ्टि सूत्र से अन्त स्वरित है । वाससी इव इत्यादि में समात उत्पन्न सुप् का 'अव्ययादाप्सुप: सूत्र से लुक् होगा । अव्यय संज्ञा विधि में तदन्त होने के कारण इव शब्द जैसे तदन्त समास की भी अव्यय संज्ञा है । I. लघु सिद्धान्त कौमुदी, अव्ययी भाव समाप्त प्रकरणम्, पृष्ठ 82 1. 2. अष्टाध्यायी, 2/1/4. 3. वही, 2/4/71. 4. लघु सिद्धान्त कौमुदी उणादि प्रकरणम्, सूत्र 667. 5. वही, फ्रि सूत्रम्, च0 पाद0 76. 6. अष्टाध्यायी 2/4/82. Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 145 समाहारे चायमिष्यते 'नदीभ्यश्च 2 इस सूत्र के भाष्य में 'नदीभिः संख्यासमासेऽन्यापदार्थेप्रतिषेधः ' इस वार्तिक के प्रत्याख्यान प्रसङग में 'नदी भिः सख्याया: समाहारेड - व्ययीभावो वक्तव्य: ' इस भाष्य वाक्य का अनुवाद रूप है। यह वार्तिक 'समाहारे चाय मियते' वरदराज जी ने पढ़ा है। नदीभिः सूत्र से नदी वाची वाची शब्दों के साथ संख्या का अव्ययीभाव समास का विधान होता है । यह समास समाहार गम्यमान रहने पर होता है और फिर 'नदीपौर्णमास्याग्रहायणीभ्यः . इसके द्वारा पाक्षिक cच् और नपुंसक हो जाए । 'एकनदम्' और 'एकनदि' यह ही हो न कि एक नदी और यहाँ पर 'पूर्वकालैक्सर्वजरत्पुराणनव केवल T: समानाधिकरणेन " इस सूत्र से तत्पुरुष समास इष्ट है । 'नदीभ्याच' यह अव्ययीभाव समाहार में ही होता है । ऐसा न कहने पर 'पुरस्तादयवादात्तरान् विधीन् बाधन्ते नोत्तरगन् ' इस न्याय से अव्ययीभाव पूर्वकालैक इस समास को बाधेगा । 'एक नदी' यहाँ पर पूर्वकालैक यह समास न होता । अव्ययीभाव ही होता। इसलिए भाष्यकार ने कहा है - 'स चावश्य वक्तव्यः सर्वमेकनदीतीरे' यह सब प्रदीप में स्पष्ट है । I. लघु सिद्धान्त कौमुदी, अव्ययीभाव समास प्रकरणम्, पृष्ठ 829. 2. अष्टाध्यायी 2/1/20. 3. वही, 5/4/110. 4. वही, 2/1/49. Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थेन नि त्यसमासो विशेष्य लिङगता चेति वक्तव्यम् 'चतुर्थी तदर्धार्थबालि हितसुखारक्षित' सूत्र के भाष्य में 'अर्थेन नित्यसमाप्तवचनं' सर्व लिङ्गताच यह दोनों वार्तिक पठित हैं। वहाँ पर 'सर्व लिइंगतो' का ही अनुवाद 'विशेष्य लिद्गता' है । चतुर्थी तदर्थार्थ' सूत्र से 'चतुर्थ्यन्त' से अर्थ के बन से समास होता है लेकिन वह समास महा विभाषा:। के अधिकार में होने से विकल्प से प्राप्त होता है। उत्त के नित्य विधान के लिए प्रथम वार्तिक है । इसलिए 'ब्राह्मणार्थमित्या दि' में 'ब्राह्मणायेदमिति' 'अस्वपद' से ही विग्रह हुआ न कि अर्थ पद से । 'अविग्रह' अथवा 'अस्वपद विग्रह' नित्य समास कहलाता है। इस लिए भाष्यकार ने कहा है 'सर्वथा धन नित्य समासो वक्तव्यः विग्रहो माभूदिति' । इस प्रकार अर्थ शब्द नित्य पुल्लिङ्ग होने के कारण और तत्पुरुष के उत्तरपदप्रधान होने से अक्षाब्दान्त तत्पुसा के नित्य पुल्लिङ्ग प्राप्त होने पर 'विशेषा लिइगता कहनी चाहिए । यह दूसरे वार्तिक का अर्थ है । जैसे - ब्राह्म णार्थ पयः ब्राह्मणार्थ सूपः, ब्राह्मणार्ध यवागूरिति । यह दोनों वार्तिक की भाष्यकार ने अनेक प्रकार से खण्डन किया है। जैसे – 'तदर्थ विकृतेः प्रकृतौ ' ५ इस सूत्र में 'तदर्थे सर्थम् ' यह न्यास करते हैं इसके बाद 'विकृते प्रकृतौ' । 'तदर्थ सम्' इससे 'तदर्थ' में 'सर्थम्' प्रत्यय होता उससे 'ब्राह्मणार्थ' इसकी सिदी हो - -- 1. लघु सिद्धान्त कौमुदी, तत्पुरुष समाप्त प्रकरणम्, पृष्ठ 836. 2. अष्टाध्यायी, 2/1/36. 3. वही, महाभाष्य, 2/1/35. 4. अष्टाध्यायी, 5/1/2. Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 147 जायगी। इस प्रकार यह अर्थ शब्द से समास नहीं हुआT अपितु यहाँ पर 'सर्थप्' प्रत्यय जानना चाहिए जबकि प्रत्यय से विग्रह नहीं होता । 'सर्थम् ' प्रत्यय में 'सकार' की 'आदिति' दुडवष्यप्रत्ययस्य ' इस संहिता पाठ में 'सकार' का भी 'प्रश्लेष्ण' करके 'इत्संज्ञा' हो जायगी । 'सि त्करण राजामिक्ष्यादि' में 'तिति च' पद त्व के लिए होगा जिससे 'नजोपादि' की सिद्धि होगी। यह एक प्रत्याख्यान प्रकार है लेकिन इस रीति से प्रत्यर्थम्, भ्वर्थम् इत्यादि में 'सर्थम् ' प्रत्यय मा नकर 'इयडुवइ.' प्राप्त होते हैं। इसलिए अन्य प्रकार से भी भाष्यकार ने खण्डन किया है । वह इस प्रकार है - 'ब्राह्मणार्थ ' इत्यादि में 'तत्पुरुष' नहीं है। बहुब्री हि यद्यपि वैकल्पिक है तथापि 'समुखः ', इत्यादि में 'स्वपदविग्रह' भी होता है । यह पर विग्रह है 'शोभनं मुखं यस्य' 'शोमन' पद से और समास 'सु' पद से। इसी प्रकार अर्थ शब्द के साथ भी 'अस्वपद' विग्रह बहुव्रीहि हो जाएगा। इसलिए 'ब्राह्मणाय अर्थो यस्य' यह विग्रह नहीं है । 'ब्राह्मणोऽयों यस्य ' यह 'समानाधिकरण' विग्रह तो होता है। वहाँ पर अर्थ शब्द 'प्रयोजन वाची' है । 'ब्राह्मणा दि उपकार्य' होने से प्रयोजन है। इस प्रकार से 'ब्राह्मणार्थः सूपः ब्राह्मणाय यवागू' इत्यादि में अर्थ से समासे और 'सर्व लिहुगता के सिद्ध होने पर 'तदर्थ ' उक्त वार्तिक द्वय को प्रारम्भ नहीं करना चाहिए । लेकिन बहुब्री हि स्वीकार करने पर 'महद' इत्यादि में भी 'महान् अधों यस्य' यह 'समानाधिकरण' बहुव्रीहि ही कहना चाहिए । तो फिर 'आन्महतः समानाधिकरण जातीययो: ' से 'त्वापत्ति' होगी और 'बहुव्रीहि लक्षण समासान्त 1. अष्टाध्यायी 6:/3/46 Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 148 कब्रापत्ति' भी होगी। इसलिए तीसरा भी खण्डन का प्रकार भाष्यकार ने कहा है । वह यह कि 'तदर्थ' का जो 'उत्तरपद' अर्थ का आदेश किया है आदेश के साथ विग्रह नहीं होता । जैसे 'ब्राह्मणाय पयः ब्राह्मणार्थम्' यह पर 'पय' शाब्द को 'अर्थशाब्दादेश' हो गया है उसी प्रकार यहाँ पर भी होगा । 'तदर्थ' शब्द के 'उत्तरपद' को 'अादेश' किससे होगा। कहते हैं - चतुर्थी तदधार्थ' इस सूत्र में 'चतुर्थी' यह योगविभाग कर लेगे । 'चतुर्दान्त' का समर्थ 'सुबन्त' के साथ समाप्त होता है यही उसका अर्थ है । तब फिर 'तदर्थार्थ' यह योग करेंगे । 'तदर्थ' के अर्थ में यह आदेश होता है यह उप्त का अर्थ है लेकिन ऐसा स्वीकार करने पर 'उदकार्थो वीवधः ' वीबध शब्द को अादेश होने पर 'स्थानिवदभाव' से उसको 'बीवध' शब्द से ग्रहण हो जाने से मन्थोदनस क्तुबिन्दुवज्रभारहारवीवगाहेषु च सूत्र से 'उदक' शब्द को 'उदादेश' की आपत्ति होगी। अतः इस प्रत्याख्यान प्रकार की उपेक्षा करके चौथा प्रत्याख्यान का प्रकार भाष्य में कहा है । जैसे - विग्रह में अर्थशाब्द का प्रयोग न हो इस लिए ही इससे नित्यसमास कहते हैं अन्यया ब्राह्मणेभ्योऽयं' की तरह 'ब्राह्मणेभ्योऽर्थ' यह 'अनिष्ट' विग्रह वाक्य प्रसक्त होगा । यहाँ पर कहना चाहिए कि 'ब्राह्मणोभ्य ' में 'तदर्थ' में 'चतुर्थी' है । अतः 'चतुर्थी' से ही 'तदर्थ' उक्त हो जाने से, 'चतुर्थी के संम विधान में अक्षाब्द का प्रयोग नहीं है । 'उक्तार्थानाम् प्रयोगः ' इस न्यास से । 'चतुर्थ्यन्त' का अर्थ शब्द के साथ समास 'चतुर्थी तदर्ध' इस 'विधानबलात्' हो 1. Fध्यायी 6/3/60. Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 149 हो जायगा 'अर्थेन नित्य समासवचनं' बनाने की कोई आवश्यकता नहीं है और 'सर्व लिङगता' का विधान भी व्यर्थ है 'लिगस्य लोकाभ्रित' होता है । यह सब इसी सूत्र के भाष्य में स्पष्ट है । सर्वनाम्नो वृत्तिमात्रे पुंवंदभावः । 'दिइनामान्यन्तरले '2 इप्त सूत्र के भाष्य में 'सर्वनामो वृत्तिमात्रे पुंवंदभावा' यह वार्तिक पढ़ा गया है। यह वहाँ पर भाष्यकार का वचन ही वार्त्तिक नहीं । 'तद्धितार्थोत्तर पदतमाहारे चु' इस सूत्र के व्याख्यान के समय 'पार्वशाल : ' इत्यादि में 'वभाव करने के लिए लच्नु सिद्धान्त को मुदी में इसका अवतरण किया गया है । 'दक्षिणपूर्वा' इत्यादि में 'दिइनामान्यतराले ' इस समास में दक्षिणादि शब्दों को 'घुवंदभाव' करने के लिए भी इसका फल है । यद्यपि पौर्वशालF' में तत्पुरन करने पर भी 'दक्षिणपूर्वादि' में बहुव्रीहि करने पर भी 'पुर्व कर्मधारयजातीयदेशीमेषु', 'स्त्रिया: 'वंदभाषित पुस्कादनूइ. समानाधिकरणे स्त्रियामपूरणी प्रियादिषु' से 'पुवंदभाव' सिद्ध है तथा पि 'दक्षिणोत्तरपूर्वाणों' इत्यादि में जहाँ पर 'समानाधिकरण उत्तरपद नहीं है वहाँ 'पुवंदभावं 1. लघु सिद्धान्त कौमुदी, तत्पुरुष समाप्त प्रकरणम् , पृष्ठ 842. 2. अECTध्यायी 2/2/26. 3. वही, 6/3/42. 4. वही, 6/3/34. Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 150 करने के लिए 'सर्वनाम्नो वृत्तिमात्रे पुंवंदभावः ' करना चाहिए । 'स्त्रिया: पुंवंद भाषित पुस्कादनूड. समानाधिकरणे स्त्रियाम्पूरणी प्रियादिषु' इस सूत्र से 'पुवंदभाव' समानाधिकरण उत्तरपद में ही होता है और भी जब 'पूर्वा दि 'शब्द' दिशावाचक होंगे तब उनके 'भाषितपुस्क' न होने से 'दक्षिणपूर्वा' इत्यादि में भी 'स्त्रिया: पुवंद भा पित् पुस्कादतूड़ समानाधिकरणे स्त्रियामपूरणी प्रियादिषु' से 'पुवभाव' के अप्राप्त होने से 'तद्विधानार्थ' भी यह आवश्यक है । यद्यपि 'पू िदि शब्द' 'पुल्लिङ्ग' तथा 'स्त्रो लिङग' जैसे -पूर्वा दिक' पूर्वोदेशे आदि । तथापि 'दिग्वाचक' पूर्वादि' शब्द भाषित 'पुस्क नहीं है । जिस अर्थ को 'प्रवृत्तिनिमित्त बनाकर जो शब्द स्त्री लिङ्ग में विद्यमान हो उसी अर्थ को प्रवृत्तिीमित्त बनाकर यदि वह 'पुल्लिंग' में विद्यमान हो तो वह 'भाषितपुंस्क' कहलाता है । 'दिग्वाची पूर्वादि' शब्द जिस शब्द को लेकर स्त्री लिङ्ग में विद्यमान है उसी अर्थ को लेकर 'पुल्लिङ्ग' में कभी न ही प्रयुक्त होते हैं इसलिए वे 'भाषित पुंस्क' नहीं हैं। यह सब 'दिइनामान्यन्तरराले' के सूत्र भाष्य में स्पष्ट है । इस प्रकार 'समानाधिकरणोत्तरपद ' के अभाव में 'अभाषित पुस्क' को भी 'वभावार्थ सर्वनाम्नो पुवंदभावो वृत्तिमात्रे पुंवदभाव' वचन है। न्यासकार ने तो 'स्त्रिया: पुंवंद भाषित् पुंस्कादनूड. समानाधिकरणे स्त्रियामपूरणी प्रिया दिषु' इस सूत्र में 'स्त्रिया: ' पुंवद् इस वचन के द्वारा सिद्ध किया है ।। ।. स पुनः 'स्त्रियाः पुंवत्' इति योग विभाग से सिद्ध है। - न्यास 2/2/26. Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 151 दन्द्र तत्पुरुभयोरुत्तरपदे नित्यस मासवचनम् 'तद्वितार्थोत्तरपदसमाहारे च2 इस सूत्र के भाष्य में यह वार्तिक पढ़ा गया है । 'वाक्य दृषच्च प्रिये यस्य वाग्दृष्दप्रियः' इत्यादि में दोनों पदों का द्वन्द्व समास नित्य ही होने लगेगा । इसी प्रकार 'प च गावो धनं यस्य ' इस 'त्रिपद बहुव्रीहि' में आदि 'प च' और 'गो पदों' का 'तद्विताओं त्तरपदसमाहारे च' से नित्य तत्पुरुष समास होने लगता इस लिए इस वार्तिक का आरम्भ किया अन्यथा उक्त 'स्थनद्वय ' में त्रिपद बहुव्री हि' में भी 'म्हा निभाषा' के अधिकार से पूर्व दोनों पदों का वैकल्पिक द्वन्द्व समास और वैकल्पिक तत्पुरुष समास होने लगेगा एवं दन्द्र पक्ष में 'वाग्दृष्दप्रियः ' में 'दन्द्राच्युषदहान्तात् 'समाहारे' सूत्र से समासान्त 'टच' होने लगेगा । द्वन्द्वाभावपक्षा में 'टच' न होगा। 'वाग्दृष्ट प्रियः ' यह ही इष्ट है न कि वारदृषन्तत् प्रियः' । इस प्रकार 'प चगव धाः' में पूर्व में दोनों पदों का तत्पुरुष समास होने पर 'गोशब्दोत्तर' में 'गोरतद्वितनु कि'' सूत्र से 'समासान्त cच' होने लगेगा और तत्पुरुषाभावपक्ष में च' न होता तो 'प चगोधनः ' यह प्रयोग की अनिष्ट पत्ति होगी। अतएव जब उत्तरपद के साथ बहुव्रीहि होगा उस समय दोनों पूर्वपदों का नित और - - - I. लघु सिद्धान्त कौमुदी, तत्पुरुष समाप्त प्रकरणम्, पृष्ठ 843. 2. अष्टाध्यायी, 2/1/51. 3. वही, 5/4/106. 4. वही, 5/4/92. Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 152 भाष्यकार ने तो तत्पुरुष होंगे। एतदर्थ यह वार्तिक आरम्भ किया गया । इस वार्तिक का प्रत्याख्यान कर दिया है । वह प्रकार है। समास में "एकाथभाव' पक्ष और 'व्यपेक्षा' दो पक्ष होते हैं। ये दोनों ही पक्षों को भाष्यकार ने 'वृत्तिपक्षे और अवृत्तिपक्ष' शब्दों से दिखाया है । उसमें भी जब त्रिपद बहुव्रीहि है उस समय बहुब्रीहि की सिद्धी के लिए 'वृत्तिपक्ष' अवश्य स्वीकार करना चाहिए । इस पक्ष में तीनों पदों में 'एकार्थीभाव' नहीं है यह कहना असम्भव होगा | अतः पूर्व दोनों पदों में भी एकार्थीभाव की अनिवार्यता से द्वन्द्व और तत्पुरस्त्र हो जायगा । अवृत्तिपक्ष में व्यपेक्षा पक्ष में न बहुव्रीहि होगा न ही द्वन्द्व और तत्पुरुष ही । इस प्रकार यह वार्त्तिक नहीं करना चाहिए । ओगे भाष्यकार कहते हैं 'तत्तर्हि वक्तव्यम् न वक्तव्यम् । पचावृत्तिपच । यदावृत्तिपक्षः तदा सर्वेषामेव वृत्तिः । स्तदा सर्वेषामवृत्तिरिति । यह सब भाष्यप्रदीप में स्पष्ट है इह द्वौ पक्षौ वृति यदा वृत्तिः पक्ष । शोकपार्थिवादीनां सिद्धये उत्तरपदलोपस्योपसंख्यानम् वर्णों वर्णेन 3 इस सूत्र के भाष्य में 'समानाधिकार' शाक पार्थिवादीनामुपसंख्यानमुत्तरपदलोपश्च' यह वार्त्तिक पढ़ा गया है । 'शाकभोजी पार्थिवः इत्यादि इसके उदाहरण हैं । इस उदाहरण में 'शाक भोजी घटक भोज्यादिरूपो - 1. महाभाष्य 2/15/50. 2. लघु सिद्धान्तकौमुदी, तत्पुरुष समास प्रकरणम्, पृष्ठ 846. 3. अष्टाध्यायी 2/1/69. Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 153 त्तरपद ' का लोप करने के लिए यह वार्तिक बनाया गया है। समास तो 'विशेषणं विशेष्येण बहुलम्' इससे ही होगा। यहाँ पर 'शाका दि' पद की ही 'शाकभोज्याद्यर्थ' में लक्षणा करने पर तथा 'विशेषणं विशेष्येण बहुलम्'' इससे ही समास कर लेने पर 'शाकपार्थिवः' की सिद्धि हो जायगी। शाकभोजी इस अर्ध का ज्ञान उक्त, प्रकार से ही हो जायगा । 'भोज्यादि' पद की 'प्रयोगापत्ति भी नहीं होगी। एतर्थ उत्तरपद के लोप करने के लिए इस वार्तिक को नहीं करना चाहिए यह कैयc का मत है । यह सब प्रदीप में स्पष्ट है । इस पर नागेशा कहते हैं कि जब 'शाकभोजी' इत्यादि 'पदद्वय' के समुदाय से 'शाकमोजी' रूप अर्थ अभिप्रेत है तब 'शा कभोज्यादि' पद का पार्थिवादि' पद के साथ समास करने पर 'शा कभोजीपार्थिवः' इत्यादि प्रयोग का वारण करने के लिए इस वार्ति को करना ही चाहिए । यह उद्योत में स्पष्ट है । प्रादयोः गताद्यर्थे प्रथमया अनादयः क्रान्ताद्यर्थे द्वितीयया' अवादयः कृष्टा द्यर्थे तृतीयया' 1. अScाध्यायी 2/1/57. सबसमास प्रकरणम पृष्ठ 849. 3. वही, पृष्ठ 750. 4. वही, पृष्ठ 852. Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 154 पर्यादयो ग्लानाद्यर्थे चतुथ्यं । निरादयः क्रान्ताद्यर्थे पचम्या 'कुगतिप्रादय?' सूत्र के भाष्य में 'प्रादयः क्तार्थे' इस वार्त्तिक का उपन्यास करके 'एतदेव सोनागैर्विस्तर तर्केण पठितम् उत्युक्ति पूर्वक प्रादयो ताद्यर्थे प्रथमया' इत्यादि पाँच वार्तिक पढ़े गये हैं । इस प्रकार ये सोनाग के वार्त्तिक 'प्रादयः कतार्थे' इस कात्यायन वार्तिक के ही प्रप च रूप हैं । इस पर क्यूट कहते हैं कि 'कात्यायानाभिप्रायमेव प्रदर्शयितुं सोनागैरिति विस्तरेण पठितम् । यह सब कुगतिप्रादय!' सूत्रस्थ 'प्रादय: ' का ही प्रप च है । गताद्यर्थ' में वर्तमान प्रादी 'प्रथमाद्यन्त' के साथ समास होता है यह वार्त्तिक समूह का अर्थ है । जब 'गताद्यर्थ' में 'प्रादीयों' की आवृत्ति है तब उनकी 'गति संज्ञा न होने से गति ग्रहण से ग्रहण न होने के कारण समास नहीं प्राप्त हुआ अतः तद्विधानार्थं सूत्र में प्रादी का ग्रहण किया और उसके, प्रप चस्वरूप इन वार्त्तिकों का अवतार किया । गताद्यर्थ में प्रादियों की वृत्ति पदेकेदेशन्यास से होगी । यह उद्योत में स्पष्ट है । यथा - प्रगत: आचार्य: इस वृत्ति में 1. लघु सिद्धान्त कौमुदी, तत्पुरुष समास प्रकरणम्, पृष्ठ 751. 2. वही, पृष्ठ 852. 3. अष्टाध्यायी, 2/2/8. 4. प्रदीप 2 / 2 / 18. Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 155 . समास में 'प्र' शब्द ही 'पदैकदेशन्याय' से 'प्रमगत' रूप अर्थ में विद्यमान है। और उस 'प्र' शब्द का 'आचार्य' पद के साथ समाप्त हो गया है । इस लिए समास में 'गतपद का अप्रयोग है । उक्त रीति से 'प्र' शब्द के द्वारा ही 'तदर का अभिधान हो गया है। इसी प्रकार 'अतिक्रान्तो मालाम् , अतिमाल:, अवकृष्टः, को फिलया, अवको फिलः, परिग्लानो, मध्ययनाय, पर्यध्ययन:, निष्क्रान्तः, कौशाम्ब्या:, निष्कौशाम्बी इत्यादिकों में भी उक्तीति से 'क्रान्ताधर्थ में कहना चाहिए । ये प्रादि वृत्तिविष्य में ही 'गताधर्थ' के बोधक हैं । शब्द की शक्ति का स्वभाव ही ऐसा है । अवृत्ति में बोधक नहीं है । अत: प्रगत: आचार्यः' इत्यादि विग्रह वाक्य में 'गता दि' शब्दों का प्रयोग होती ही है । समाप्त में तो 'प्र' शब्द से ही 'गताधर्थ' का अभियान हो जाने से 'गतादि' का प्रयोग नहीं होगा। गतिका रकोपथदानां कृद्धिः सह समास वचनप्राक् सुबत्तवत्ते गतिकारकोपथदानां कृतिः सहसमाप्त वचनप्राक् सुबुत्तपत्ते: ' यह वस्तुतः वार्तिक नहीं है किन्तु उपपद 'मतिड. सूत्र के 'अतिग्रहण' से ज्ञापित परिभाषा है । यह ज्ञापनत्व' प्रक्रिया इसी सूत्र के महाभाष्य में विस्तृत वर्णित है । उसका तात्पर्य यह है कि 'उपपदमतिह.' इप्त सूत्र में सुबामात्तिते' इस सूत्र से सुप् पद तथा 'सहसुपा' सूत्र से तृतीयान्त सुपा पद यदि अनुवृत्त हो जाय तो 1. लघु सिद्धान्त कौमुदी, तत्पुरुष समास प्रकरणम् , पृष्ठ 854. Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 156 'उपपद प्रथमान्त' का 'समर्थ सुबन्त' के साथ समास विधान होने से 'तियन्त' के साथ समाप्त होने की सम्भावना समाप्त हो जाती है । अत: इस सूत्र में 'अतिग्रहण' जो 'तियन्त' के साथ समाप्त की 'व्यावृत्ति के लिए दिया गया है वह व्यर्थ हो जाएगा। अत: वही व्यर्थ होकर इस परिभाषा का ज्ञापन किया कि 'गति कारक' तथा 'उपपद' का 'कृदन्त' के साथ में जो समाप्त हो वह 'सुप्' की उत्पत्ति से पूर्व ही हो । अत: 'गति कारक' तथा 'उपपद' का 'समर्थ कृदन्त' ही के साथ समाप्त होना निश्चित हुआ । इसका पल हुआ कि 'मा भवान् भूत्' इस प्रयोग में 'मा डि. नुड.' सूत्र से 'माड.' 'अव्यय उपपद' रहते हुए 'लुइ. लकार भू धातु से हुआ है । यदि 'माड.' का 'तियन्त' के साथ समाप्त हो जाता तो 'भवान्' मा भूत्' ऐसा ही प्रयोग होता, जो नहीं होना चाहिए । 'अतिड. ग्रहण' के द्वारा 'सुपा पद' को 'अनुवृत्ति' रेक जाने से भाष्यकार के द्वारा ज्ञापित इस वचन से जो उदाहरण सम्पन्न हुए हैं वे भाष्यादि ग्रन्थों में दिखलाये गये हैं। उनके प्रदर्शन के पहले भाष्यकार ने इस परिभाषा के ज्ञपकों की जो पूर्ति की है वह इस प्रकार है । उन्होंने 'कुप्तिप्राद कुदति प्रादयः । इस सूत्र में युग-विभाग के द्वारा दो स्वरूप दिखलाया है - 1. 'कुन्द कुप् प्रादयः ' तथा 2. 'गतिः' इसी दूसरे प्रयोग में 'उपपद मतिड.. जो अग्रिम' सूत्र है उससे 'अतिड.' ग्रहण का 'अपकर्ष' करके 'गतिः समर्थन ' सह समयते अतिगत चायं समासः ' ऐसा अर्थ किये हैं जिसका भाव है कि 'गति संज्ञक' 1. अष्टाध्यायी 2/2/18. Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 157 शब्दों का 'समर्थ' के साथ समाप्त होवे तथा 'उत्तरपद तियन्त' भिन्न हो इससे 'गति संज्ञक' का 'कृदन्त' के साथ 'सु व्युत्पत्ति के पहले समास की सिद्धि ज्ञापित होती है । तथा 'कारक' का भी 'समर्थ कृदन्त' के साथ इस प्रकार का का समास होना 'एकादेशानुवति' अक्षा 'स्थाली पुलाक् न्याय ' से सिद्ध हो जाता है । तात्पर्य यह कि इप्त परिभाषा में तीन अंश हैं उनमें से एक या दो अंश यदि प्रामाणिक हो गया तो सभी 'अवशिष्ट अंश' में प्रामाणिकता मान ली जाती है अथवा भात् बनाने की 'क्लोही' में एक चावल के पक जाने से सभी चावलों का पक जाना समझ लिया जाता है। इसी को 'स्थालीपुलाक् न्याय' कहा जाता है । अक्षा 'क्रीता त्करण पूर्वात'। इस सूत्र में भाष्यकार ने 'अजाधत्यष्टाप्'2 सूत्र से । अतः शब्द की अनुवृत्ति करके 'अदन्त' जो 'क्रीत' शब्द इत्यादि अर्थ किया उसका फल है 'धनक्रीता' शब्द में 'स्त्रीत्व' का द्योतक 'नीच' प्रत्यय नहीं होगा क्योंकि 'क्रीत' शब्द यहाँ 'अदन्त' नहीं रहा । 'टाए' प्रत्यय होने से 'आकारान्त' बन गया तथा 'च अश्वेन क्रीता' इस लौकिक विग्रह में 'अपद CT क्रीत' इस अलौकिक विग्रह में नीश प्रत्यय होकर 'अश्वक्रीति' यह प्रयोग बनता है। परिभाषा में 'सुबुत्तपत्ति' शब्द 'कृदन्त' तदादि' प्रकृतिक प्रत्यय मालोत्पत्तिपरक है । इस लिए CTD की उत्पत्ति के पश्चात् नोश का होना सम्भव नहीं। इस प्रकार कारक अंश में भी । अतः शब्द की अनुवृति 1. अष्टाध्यायी 4/1/50. 2. वही, 4/1/4. Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 158 प्रमाण हुई अथवा 'कतृकरणे'कृता बहुलम्'' सूत्र में 'बहुल ' ग्रहण भी कारक अंश में प्रमाणा माना जाता है । इसका 'मूर्धाभिषेक उदाहरण 'कुम्भकार' शब्द है । इसमें 'कुम्भं करोति' यह लौकिक विग्रह है तथा 'कुम्भ डम् ' 'कृ अण' यह अलौकिक विग्रह है । यहाँ पर 'कुम्भ' शब्द 'कर्मवाचक उपपद' मानकर 'कृ' धातु 'काणि अण्' सूत्र 'अण्' प्रत्यय हुअा है । 'अण्' प्रत्यय होने के पहले ही 'कुम्भ' शब्द से 'प्राप्त द्वितीया विभक्ति' को बाधकर 'कर्तृ कर्मणो : कति' सूत्र से 'ठी विभक्ति' हो जाती है। उसमें प्रमाण है 'उपस स जनिष्यमाण निमितो प्यपवाद: ' उपस जात निमित्तमपि उत्सर्ग बाधते' इसका अभिप्राय है कि उत्पन्न होने वाले हैं निमित्त जिस के ऐसा जो अपवादशास्त्र वह उत्पन्न हो चुके हैं निमित्त जिसके ऐसे 'उत्सर्गशास्त्र' को बाध देता है । प्रकृत स्थन में 'कर्मणि द्वितीया: यह 'उत्सर्गशास्त्र' है उसका निमित्त भूत 'कर्मसंज्ञा' हो चुकी है अब 'कर्तृकर्मणोः कृतिः ' इस अपवाद शास्त्र का निमित्त भूत कृत्प्रत्यय अभी उत्पन्न होने वाला है फिर भी इस 'अपवादशास्त्र' के द्वारा द्वितीया की बाधिका 'ठी विभक्ति' हो गयी। इसके पश्चात् ही 'कुम्भ इत्' का इस दशा में 'अण्' प्रत्यय हुआ । भाष्यकार ने तो 'पाठी समासात् उपपद समासो विप्रति धन' इस वार्तिक के द्वारा प्रकृत उदाहरण में 'उपपद समास' की बाधकता बता कर अथवा 'विभाषा बठी समासो यदा न कठी समाप्त स्तदोपपद समासः' इस 'द्वितीय वचन' से 'कठी समास' की 'प्राथमिकता ' दिखायी है । उसके 1. अष्टाध्यायी 2/1/32. Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 159 अभाव पक्ष में उपपद समाप्त का स्वरूप निणीत किया है। अब इस के तीनों अंशों के उदाहरण क्रममाः दिखाये गये हैं जिसमें गति अंश में प्रथम उदाहरण 'व्याधी है। जिसका विग्रह 'विशेषेण अासमन्ता जिघ्रति या सा', यहाँ पर 'आड.' पूर्वक 'ब्रा' धातु से 'क' प्रत्यय होकर 'आड.' इसके उपपद का 'ब्रा' शब्द के साथ समास हुआ फिर 'गतिसंज्ञक' 'वि' शब्द का 'आध्र' शब्द से 'कुगति प्रादयः ' सूत्र से समाप्त होकर जातिलक्षण 'डी' प्रत्यय के द्वारा 'व्याघ्री' शब्द निष्पन्न हुआ। कारक अंभ में 'अप्रवक्रीती' यह उदाहरण प्रदर्शित हुआ । अब उपपद अंश में तृतीय उदाहरण 'कच्छपी' दिया गया है जिसका लौकिक विग्रह 'कच्छेपिवति या सा' तथा अलौकिक विग्रह 'कच्छ डि. प्' है । इसमें 'सदम्यन्त कच्छ' शब्द उपपद रखाकर 'पा पाने' धातु से 'सुपिस्थ सूत्र से 'क्' प्रत्यय हुआ है । 'स्त्रीत्व' विवक्षा में 'जाति लक्ष्ाण डीप' प्रत्यय होकर 'कच्छपी' शब्द निष्पन्न हुआ। इस प्रकार इस 'परिभाषात्मक' बचन का विश्लेषण महाभाध्य, प्रदीप उद्योत, तत्त्वबोधिनी इत्यादि ग्रन्थों में विस्तृत में किया गया है। संख्यापूर्व रात्रं क्लीबम् 'अपथं नपुंसकम् 2, 'संख्या पूर्व रात्र सीबम्- ये दोनों 'लिदंगानुशासन मूल क' वार्तिक हैं । ये तो भाष्य में कहीं भी नहीं दिखायी देते हैं। तत्त्व 1. लघु सिद्धान्त कौमुदी, तत्पुरुष समास प्रकरणम्, पृष्ठ 757. 2. लिड्गानुशाप्सन सूत्र । नपुंसकधिकारप्रकरण, अष्टाध्यायी 224/30. : सूत्र 3/5/32, वैयाकरण सिद्धान्त कौमुदी, पृष्ठ 820. Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 160 बोधिनी में इनका स्पष्टीकरण है । 'रात्रावाहा: 'पुंसि' इस सूत्र से 'पुंसव' के प्राप्त होने पर 'क्लीबत्व विधानार्थ' यह वार्तिक है । 'संख्या पूर्व रात्रम्' इस वचन में 'रात्रं' यह 'कृतसमासान्त' का निर्देश है । द्विरात्र, त्रिरात्रं इन दोनों उदाहरणों में 'द्वय रात्रयोः समाहारः, द्विरात्र, तिसृणां रात्रीणां समाहार: त्रिरात्रमिति । समाहार द्विगु समाप्त हैं । 'अहस्सर्वैकदेशसंख्यात् पुण्याच्चरात्रे:' इस सूत्र से समासान्त अचू है । व्रत्तिकार ने तो 'रात्राना : पुंसि ' में द्विरात्र:, त्रिरात्रः ये दोनों पुंलिंग में ही उदाहरण दिये हैं । 'द्विरात्र' इत्या वृत्ति के उदाहरण 'समाहार द्विगु' में न्यास और पदम जरीकार द्वारा व्याख्यात है । 2 द्विगुप्राप्तान्नाम्पूर्वं गति समासेषु प्रतिषेधो वाच्यः' +3 'परवल्लिद्ग द्वन्द्वतत्पुरुषयोः सूत्र के भाष्य में 'परवल्लिद्ग द्वन्द्वतत्पुरु ष्योरिति चेत्प्राप्तापन्नानं पूर्वमिति समासेषु प्रतिषेधः ' यह वार्त्तिक पढ़ा गया है । यह वार्त्तिक 'परवल्लिड्ग' सूत्र से विहित 'परवल्लिग' का प्रतिषेध करता है । इस लिए 'द्विगुप्राप्तापन्ना पूर्वक गतिसमास' में 'प्राधानार्थं प्रयुक्त' ही लिड्ग होगा न कि 'परवल्लिडग' होगा । द्विगु का उदाहरण है - 'प चसु कपालेषु संस्कृत: । पुरोडाश: । प चकपालः इति । यहाँ पर ' तद्वितार्थ' में 1. अष्टाध्यायी, 2/2/18. 2. लघु सिद्धान्तकौमुदी, तत्पुरुष समास, प्रकरणम्, पृष्ठ 860. 3. अष्टाध्यायी 2/4/26. Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्ये' सूत्र से 'लुक्' हो गया है । इससे 'परवल्लिङ्ग' का निषेध हो जाने से 'पर' पाब्द 'कपाल ' के 'नपुंसक' होने पर भी समाप्त में 'नपुंसक' नहीं होगा अपितु 'तद्वितार्थ' की अपेक्षा करके 'पुंल्लिद्ग' ही होगा। इसी प्रकार 'प्राप्तो जीवकां प्राप्तजीवकः, आपन्नो जीनकामापन्नजीवकः ' आदि में भी समास को 'स्त्री लिङग' नहीं हुआ । यहाँ पर 'प्राप्तापन्न च द्वितीयया '2 से समास होगा। इसी प्रकार 'अल कुमायें अलंकुमारि: ' यहाँ पर 'अलं' पूर्वक समास में भी 'परवल्लिङग' के द्वारा 'परकुमारी' शब्द के 'स्त्रीलिङग' में विद्यमान होने पर समास को 'पुल्लिङ्ग' हो गया है । इप्त ज्ञापन से ही यहाँ पर समाप्त होता है । इसी प्रकार 'निष्कौशाम्बी' इत्यादि में भी 'गति' समास होने पर भी 'परवल्लिद्ग' का निषेध हो जाने पर 'कौशाम्ब्या दि' शब्दों के 'स्त्रीलिङग' में विद्यमान होने पर भी समाप्त में 'यथायथं पुस् त्वा दिक' ही हुए हैं । यहाँ पर गति समास से 'कुगतिप्रादयः +5 से विहित 'प्रादि' समास को जानना चाहिए । यद्यपि भाष्यो क्त वार्तिक में द्विगु ग्रहण नहीं है । तथापि परवल्लिग' इस सूत्रस्थ वृत्ति के अनुरोध से 'एकविभक्तिचापूर्व निपाते" इति 1. AFटाध्यायी 4/2/16. 2. वही, 2/2/4. 3. वही, 2/2/18. 4. वही, 1/2/44. Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 162 सूत्रस्थ कैयट के अनुरोध से 'दिगुप्राप्तापन्ने' इत्यादि दार्तिक का आकार वरद राज जी ने पढ़ा है वस्तुतस्थु 'दिगुग्रहण' व्यर्थ ही है । जैसे - अर्धपिप्पली इत्यादि में 'पूर्वपद' प्रयुक्त लिद्ग के बाधनार्थ ही 'परवल्लिद्गं दन्द्रतत्पुरुभयो:' इस सूत्र का आरम्भ किया है। यहाँ पर 'शब्द सम्बन्धिा घाब्द होने से पूर्वपद प्रयुक्त लिङ्ग को ही 'परवत्' इस युक्ति से निष्पन्न करता है । 'परवत्' ही होगा न कि 'पूर्ववत्' । तत्पुरुष के 'बहिर्भूततद्धितार्थप्रयुक्तलिङ्ग' के बाधम में 'परवल्लिद्ग' का सामर्थ्य नहीं है क्योंकि वह तत्पुरा के घt क पूर्वपदप्रयुक्त लिडंग के बाधने में चरितार्थ हो गया है। इस प्रकार 'प चकपालः पुरोडाश' इत्यादि में 'तद्वितार्थ' के प्राधान्य होने से 'पुत्व' अनायास ही सिद्ध हो गया 'तदर्ध' दिगु में 'परवल्लिङ्ग' प्रतिषेध आवश्यक नहीं है । अतएव भाष्य में उक्त वार्तिक में दिगुग्रहण नहीं है । यह उद्योत में स्पष्ट है ।। यहाँ विशेष यह है कि 'अर्धपिप्पली' इत्यादि एक देशि समास में पूर्व पदार्थ के प्रधान होने से पूर्वपदप्रयुक्त लिग अनायास प्राप्त हो जाता है और 'परवल्लिद्ग' इष्ट है । इस लिए 'परवल्लिङ्ग द्वन्द्वतत्पुरज्यो: ' सूत्र में तत्पुरुष का ग्रहण किया गया है । 'एकदेशि' समाप्त में ही 'तत्पुरग्रहणं' प्रयोजक है । तत्पुरता का ग्रहण करने पर 'प्राप्तजीवकः ' इत्यादि में भी 'परवल्लिद्ग' प्राप्त होता है । वहाँ पर 'परवल्लिद्ग' इsc है अतः 'तदर्थ' वार्तिक की रचना 1. वस्तुतो दिगुग्रहणं परवदित्यस्यान्तरङ्गत्वेन तत्पु समाब्दमात्रेनिमित्तकलिग बाधाकतया एव यु क्तत्वात् व्यर्थमिति बोध्यम् - उद्योत 9/2/44. Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 163 की गयी है लेकिन भाष्यकार ने 'एकदेशितमात' के विष्ष्य में सर्वत्र कर्मधारय का आश्रय ले कर 'अनायासेन परवल्लिइंग' की सिद्धि करके 'परवल्लिङ्ग द्वन्द्वतत्पुरत्या : में तत्पुरका ग्रहण का प्रत्याख्यान कर दिया है । 'पिप्पली' इत्यादिकों में सर्वत्र 'अर्ध च तत् पिप्पली चेति' कर्मधारय ही है न कि 'पिप्पल्या अ" यह एकदेशि समास है । कर्मधारय में 'उत्तरपदार्थ, प्रधान' होने से अनायास ही 'अर्धपिप्पली' इत्यादि में 'एकदेशित माप्त हो जायगा । इस प्रकार के विषय में 'कर्मधारयैकदे शि' और 'एकदेशी' अवयवाक्य वि। में अभेद का आरोप हो जाता है और भी 'पूर्वापराधारोत्तरमेकदेशिनकाधिकरणे' | 'अर्ध नपंसकम् 2 'द्वितीयतृतीयचतुर्थतुण्यिन्यतरस्याम्' इत्यादि एकदेशि समास विधायक तीनों सूत्रों की रचना नहीं करनी चाहिए । 'ििवष्य में उक्त रीति से कर्मधारय ही इष्ट है । इस प्रकार 'परवल्लिद्गम्' इस सूत्र में तत्पुरुष ग्रहण का प्रत्याख्यान हो जाने पर प्राप्तजीवक इत्यादि उक्त वार्तिक के उदाहरण में 'परवल्लिंग' की अतिव्याप्ति का अभाव होने से 'तत्परिहारार्थ' यह उक्त वार्तिक भी नहीं करना चाहिए । प्राप्तीवकः, निष्कौशाम्बी इत्यादि में 'पूर्वपदार्थ' की प्रधानता होने से अनायासन पूर्वपदप्रयुक्त लिग' हो जायगा । इस प्रकार उक्त सूत्र में तत्पुरग्रहण का प्रत्याख्यान हो जाने पर उसकी 'अतिव्याप्ति' के 'परिहारार्थ आरभ्यमाण' उक्त वार्तिक भी अनायासेन' प्रत्याख्यात हो जायगा। यह सब 'परवल्लिद्ग' दन्द तत्पुसायो: ' के भाष्य में और प्रदीपोधोत में स्पष्ट है । I. acाध्यायी 2/2/1. 2. वही, 2/2/2. 3. वहीं, 2/2/3. Page #182 --------------------------------------------------------------------------  Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 165 पदों का एवं विना उत्तरपद के लोप के ही 'प्रपर्ण' इत्यादि की सिद्धि हो गयी। और जब 'प्रपतिता दि' शब्दों के द्वारा ही वह अर्थ कहा जाय तो 'प्रपतितादि' पदों का ही समास होगा। इस प्रकार 'प्रपतितपर्णः ' इत्यादि भी होता ही है । नत्रोऽस्त्यानां वाच्यो वा चोत्तर पद लोपः। 'अनेकमन्यपदार्थे ' सूत्र भाष्य पर 'ननोऽन्त्यमा च'2 यह वार्तिक पढ़ा गया है । यहाँ सप्तम्युपमान इत्यादि वार्तिक से अथवा 'प्रादिभ्यः ' इप्त वार्तिक से 'उत्तरपद लोपश्च' का अनुवर्तन करते हैं। इसी आशय को दृष्टिगत करते हुए वरदराज द्वारा वार्तिक का उपर्युक्त अाकार पढ़ा गया है । वार्तिक का अर्थ है - 'नञ्' से परे 'अत्यर्थ' वाचक पद के तदना का अन्य पद के साथ समास तथा उत्तरपद अर्थात् विद्यमानार्थक पद का लोप होता है । यहाँ पर भी बहुव्रीहि समास अनेकमन्यपदार्थे' से ही सिद्ध है परन्तु उत्तरपद लोप के लिए वार्तिक का अवतरण किया गया है । 'अविद्यमान पुत्रो स्य' । जिस का पुत्र न हो। अपुत्र इत्यादि उदाहरण हैं। यहाँ 'न' में परे 'अस्त्यर्थ' वाचक विद्यमान शब्द का विकल्प से लोप होता है, लोप पक्ष में 'अविद्यमान पुत्रः ' ये दो शब्द स्वरूप निष्पन्न होते हैं । यह वार्तिक भी पूर्व वार्तिक के समान न्याय सिद्ध है। ऐसा पद म जरी कार का भी अभिमत है । 1. लघु सिद्धान्त कौमुदी, बहुव्रीहि समास प्रकरणम्, पृष्ठ 866. 2. अष्टाध्यायी 2/2/24. Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम् प्रकरणम् तदित प्रकरणम् Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वतिभ्यामेव च। 'न पुन्जनात्' सूत्र के भाष्य में महर्षि पत जलि ने 'स्वतिभ्यामेन' इस वार्तिक का प्रदर्शन किया है । इसका तात्पर्य यह है कि 'पुजनार्थक' शब्दों में 'सु' तथा 'अति' यह दो ही शब्द लिये जायें, जिससे 'शोभनश्चासौ राजा सुराजा' तथा अतिपायति चासो राजा च अतिराजा' इन स्थलों में राजा द्वस् सखिभ्यश्च टच' सूत्र से प्राप्त समासान्त ।टच' का निध हो गया तथा 'परम्भ चासो राजा मर राज' यहाँ पर 'टच' का निषेध नहीं हुआ। यह निषेध बहुव्री हो 'सान्यय६ णोः स्वाडे. सूत्र से पूर्वधूती जो समासान्त प्रत्यय विधायक सूत्र है उन्हीं का निषेध करता है इस लिये 'सु' सक्थः, स्वक्षाः ' इन प्रयोगों में 'अ' प्रत्यय का निध नहीं हुआ। क्योंकि 'प्रागबहुव्रीहिरिति वक्तव्यम्' इस भाष्य वचन के आधार पर निशेध व्यवस्था की है । देवाधार 'दित्यदित्यादि त्यपत्युत्तरपदाण्य? ' सूत्र में भाष्यकार ने 'देववस्यय यौ' इस वार्तिक का उल्लेख किया है। सिद्वान्त कौमुदी में देवात् यह 'पञ्चम्यन्त 1. लघु सिद्धान्त कौमुदी, तदित प्रकरणम्, पृष्ठ 884. 2. वही, अपत्याधिकार प्रकरणम्, पृष्ठ 888. 3. अष्टाध्यायी 4/1/85. Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवात्' ही पाठ है । 'देव' शब्द से 'तत्तत्समर्थ विभक्तयन्त' से 'प्राग्दीव्यतीय' अधों में 'कन अन प्रत्यय इस वार्तिक से किए जाते हैं । 'य' प्रत्यय होने पर 'दैव्यम्', अय' प्रत्यय होने पर 'दैवम्' इन दोनों शब्दों की निष्पत्ति होती है। बहिषष्टिलोपो याच 'दित्य दित्या दित्यपत्युत्तरपदाण्ण्य: '2 सूत्र पर एवं भाष्य पर यह वार्तिक पढ़ा गया है । 'बहिष्' शब्द से 'प्राग्दीव्यतीय' अर्थ में 'यश' प्रत्यय तथा इसी वार्तिक से 'टि' लोप का भी विधान किया गया है। जैसे -बहिभवम् , ब्राह्यम् । 'यज्ञ' प्रत्यय में ' कारे इत्तज्ञा' होने से' 'अित्वादत्' आदि वृद्धि हुई है । 'अव्ययानां भमात्रे टिलोप: ' इस सिद्धान्त से ही 'fe ' लोप सिद्ध था, परन्तु पुनः वार्तिक से 'टि' लोप विधान अव्ययों के 'टि ' लोप का 'अनित्यत्व' ज्ञापन के लिए किया गया है अतः 'भारातीयः ' इस प्रयोग में 'आराद' शब्द के 'अव्यय त्व' होने पर भी 'अनित्यत्वात्' 'fe' लोप नहीं हुआ, इसे प्रदीपकार ने भी स्पष्ट किया है । 1. लघु सिद्धान्त कौमुदी, अपत्याधिकार, प्रकरणम्, पृष्ठ 888. 2. अष्टाध्यायी 4/1/85. Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईकक् च। 'दित्य दित्यादित्यपत्युत्तरपदाण्ण्यः '2 सूत्र में भाष्यकार ने उपर्युक्त वार्तिक के पश्चात् इस वार्तिक का उल्लेख किया है । अतः पूर्व वार्तिक से 'बहिषष्टि लोप: ' इसका सम्बन्ध इस वार्तिक में भी आता है । 'बहिष्' शब्द से 'प्राग्दी व्यतीय' अर्थों में 'ईकक्' प्रत्यय तथा 'बहिष' प्रकृति का 'टि ' लोप भी होता है । जैसे - बहिर्भवः, वाहीकः । सर्वत्र गोः।। अच् ।जा आदि प्रसद्गे यत् उपर्युक्त सूत्र पर भाष्यकार ने 'सर्वत्र गो रजा दिप्रसङगे यत्' वार्तिक का उल्लेख किया है । गो शब्द 'आजा दि' प्रत्ययों के प्रसङ्ग में 'अपत्य' तथा 'धनपत्य प्राग्दीव्यतीय' अथों में सर्वत्र 'यत्' प्रत्यय का विधान इस वार्तिक से किया गया है । अतः 'गवि भव' इस अर्थ में 'तत्रभवः 5 से 'अण्' का प्रसइंग होने पर भी इस वार्तिक से 'यत्' प्रत्यय होकर 'गव्यम्' इस रूप की निष्पत्ति होती है। इसी प्रकार 'गोरिदम, गौर्देवतास्य' इत्यादि विग्रह में सर्वत्र 1. लघु सिद्धान्त कौमुदी, अपत्याधिकार प्रकरणम, पृष्ठ 888. 2. अष्टाध्यायी 4/1/85. 3. लघु सिद्धान्त कौमुदी, अपत्याधिकार प्रकरणम्, पृष्ठ 889. 4. अष्टाध्यायी, 4/1/85. 5. वही, 4/3/53. Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 170 'अणादि' प्रत्यय की प्राप्ति होने पर प्रकृत वार्तिक से 'यत्' प्रत्यय होगा । वार्तिक में सर्वत्र ग्रहण पूर्वोक्त वार्तिक के अपत्य' की निवृत्ति के लिए हैं इस प्रकार सर्वत्र पाठ से 'अपत्यार्थ' में ही 'यत्' का निषेध ही नहीं, प्रत्युत सभी 'प्राग्दीव्यतीयाथों' में 'यत्' का विधान किया गया है अथवा सर्वत्र ग्रहण से यह भी आशय लगाया जाता है कि 'प्राग्दी व्यतीय ' अर्थ में 'यत्' नहीं होता है असा 'प्राग्दी व्यतीय ' अर्थों में ही नहीं प्रत्युत सर्वत्र अर्थों में 'गो' शब्द से 'अणा दि' प्रसङग रहने पर 'यत्' प्रत्यय सर्वत्र पाठ से ग्राह्य है । अत: 'गवा चरति गव्यः' इस रूप में 'चरति' आदि अधों में भी इसी वार्तिक से 'यत्' का * विधान किया गया है । वस्तुत: 'प्राग्दीव्यतीय' में इसका पाठ होने से 'प्राग्दीव्यतीय' सभी अधों को ग्रहण सिद्ध है अतः सर्वत्र कथन अनुपयुक्त है । 'एतावता'. सर्वत्र कथन से 'अप्राग्दीव्यतीयाथों' का भी ग्रहण किया गया है । उक्त कथन का प्रदीपोद्योतकार भी समर्थन करते हैं। दीक्षितजी एवं वरदराज जी ने इस वार्तिक का उल्लेखा करते समय सर्वत्र का उल्लेख नहीं किया है अत: उनके मत में इस वार्तिक की प्रवृत्ति केवल प्राग्दी व्यतीय अथों में ही होती है । कौमुदीकार को आय पक्ष ही अभीष्ट है । Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लौम्मो पत्येषु बहुष्व कारो वक्तव्यः । उक्त सूत्र में भाष्यकार ने 'लोम्नो पत्येषु बहुषु' इस वार्तिक का उल्लेख किया है । इस वार्तिक में पूर्ववार्तिक से अकार का अनुवर्तन किया जाता है इसी आशय से वरदराज ने वार्तिक में 'अकार' का 'प्रश्लेष' किया है 'लोमन् शब्दान्त प्रातिपदिक' प्रकृति से बहुत्व विशिष्ट 'अपत्यार्थ' में 'अकार' प्रत्यय होता है । 'लोमन् ' का 'अपत्य' से योग असम्भव होने तथा 'उडलो मः' इस भाष्य उदाहरण से प्रत्यय विधान में भी 'तदन्त' विधि होती है यह उद्योतकार' का अभिमत है । 'बाह्वादिगण' में 'लोमन् ' शब्द का पाठ होने से 'बावादिभ्यश्च इ.' प्रत्यय प्राप्त होने पर इस वार्तिक से 'अकार' विधान किया जाता है । 'उडलोमा: ' शब्दरूप निष्पन्न होता है । 'एकत्व' विवक्षा में 'बाह्यादिभ्यश्च' से 'इ,' प्रत्यय होने पर 'अौडन्नो मिः' रूप बनेगा, यतः 'अकार' प्रत्यय बहुवचन में ही होता है। वार्तिक में 'बहुषु' पाठ स्पष्ट निर्दिष्ट है । - - - - - - - - - - 1. लघु सिद्धान्त कौमुदी, अपत्याधिकार प्रकरणम् , पृष्ठ 895. 2. Ascाध्यायी 4/1/85. 3. अत्रलोम्नो पत्येन योगविभागाभावात् सामथ्यात् दन्त विधिः । - उपोत 4/1/85. 4. ASC Tध्यायी 4/1/96. Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस सन्दर्भ में कुछ लोगों का अभिमत है कि 'इ,' प्रत्यय होने पर भी उसका 'बहवच इ : प्राच्य भरतेषु'' इसे लोप हो कर प्रत्यय लक्षण से 'स्वादिष्वसर्वनामत्थाने 'सूत्र से 'उडलोमन्' का 'पदत्वान्नलोप कर के 'जस्' प्रत्यय के साथ पूर्व 'सवर्ण दीर्घ' करके 'उडलोमा:' की सिद्धि हो जाएगी अतः 'अकार' प्रत्यय प्रकृत वार्तिक से नहीं करना चाहिए । उक्त विचार के निराकरण के सम्बन्ध में 'प्राच्यभर तगोत्र' से 'उडलोमन् ' शब्द भिन्न है अतः उक्त सूत्र से 'लुक' नहीं होगा तथाउडलोमैः, उडलोमेभ्यः इत्यादि स्थनों में न लोप का सुपु विधि की कर्तव्यता में 'अ सिद्धत्व' होने पर 'रेस् रत्वादि' कार्य 'राजभिः ' राजभ्यः' के सदश नहीं हो सकेंगे । 'यन्निमित्तक' न लोप है तन्निमित्तक सुप्' विधि में ही उसका 'असिद्धत्व भी है। वर्तमान 'उद्दलोभन ' शब्द में प्रत्ययलक्षाण से 'इ.' निमित्तुक न लोप है न कि 'मिसादि निमित्तक 'सुप्' विधि भी 'इ, निमित्तक नहीं है । अतः तत्तत्कार्य कर्त्तव्यता' में न लोप के 'असिद्ध त्व' का अभाव होने से 'ऐस् 'रत्वादि' साधन सुनकर भी 'न लुमताडस्य' से प्रत्यय लक्षण निषेध से 'इ,' प्रत्यय को आश्रय मानकर 'स्वादिषु' 'पद त्व' ही नहीं होगा । अतः 'उडलोमा: ' इस रूप की असिद्धि बनी रहेगी । यद्यपि 'अन्तर्वर्तिनी' विभक्ति के द्वारा सुप्तिडन्तपदम् सूत्र से 'उडलोमन् ' को 'पदत्व मानकर''म' ---------- 1. अष्टाध्यायी, 2*4/66 2. वही, 1/4/17. 3. वही, 1/4/4. Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोप कर सकते हैं । तथापि 'प्राच्य भरत गोत्र' से 'अन्यत्र लुक्' की प्रवृत्ति न होने से 'इ,' प्रत्यय का लोप होना दुष्कर है । अतः 'उडलोमा: ' इत्यादि रूप निष्पत्ति के लिए 'ॐ कार ' प्रत्यय का विधान आवश्यक है । प्रदीपोधोतकार भी इस पक्ष से सहमत हैं । राज्ञो जातावेवेति वाच्यम् 'राजश्वशुराधत्'2 इस सूत्र व्याख्यान में भाष्यकार ने 'राज्ञा पत्ये जाति गृह्णम्' वार्तिक का उल्लेख किया है । 'जाति वाच्य' होने पर ही 'राजन्' शब्द से 'यत्' प्रत्यय होता है । अत: 'राज्ञो पत्यं जाति: ' इस विग्रह में 'राजन्यः' रूप निष्पन्न होता है। यहाँ प्रकृति प्रत्यय समुदाय से क्षत्रिय जाति वाच्य होने पर 'राजन् ' शब्द से 'अपत्य' अर्थ में 'यत्' प्रत्यय होता है। प्रकृति प्रत्यय समुदाय से ही उस स्थन में क्षत्रिय जाति कही गई है । परन्तु प्रत्यय 'अपत्य' अर्थ में ही है । अतः प्रत्यय से 'अपत्य' ही 'गम्यमान' होगा। उपर्युक्त विवरण तत्त्वबोधिनी में स्पष्ट है । यदि 'राजन् ' शब्द से 'अपत्यं मात्र' विवक्षिात है न कि क्षात्रिय जाति तो 'अण्' प्रत्यय होकर 'राजनः' रूप बनेगा इस सन्दर्भ में कैयट ने भी कहा है - यदि प्रकृति प्रत्यय समुदाय से जाति का भान हो तो प्रत्यय होता है अन्यथा नहीं। अत: क्षत्रिय जाति का --------- 1. लघु सिद्धान्त कौमुदी, अपत्याधिकार प्रकरणम्, पृष्ठ 899. 2. अष्टाध्यायी 4/1/137. Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिपादन करने की इच्छा हो तो 'राजन्य' शब्द का प्रयोग किया जाता है वैश्य या शूद्र 'राजापत्य' का भान कराना हो तो 'राजन् ' शब्द का प्रयोग होता है। मात्रिय-समान-शब्दाद-जनपदात-तस्य राजनि अपत्यवत् । 'जनपद शब्दात क्षत्रियाद इस सूत्र की व्याख्या में उक्त वार्तिक का उल्लेख भाषा में किया गया है। इसका अर्थ है - 'क्षत्रिय' वाचक शब्द समान 'जनपद वाचक' शब्द से 'राजा' अर्थ में 'अपत्य' के सदश प्रत्यय होता है । यहाँ धात्रिय वाची' शब्द 'उपचार' से क्षत्रिय' तथा 'जनपदवाची' शब्द 'जनपद' कहा गया है। जो शब्द 'क्षत्रिय' का अभिधायक होते हुए जनपद को भी अभि व्यक्त करता है उस 'ठी समर्थ' शब्द से 'राजन् ' अर्थ में 'अपत्य' सदृश प्रत्यय होता है। इस प्रकार के शब्द से 'अपत्य' अर्थ में जो प्रत्यय वही राजा अर्थ में भी होता है । इस प्रकार 'पञ्चालस्यापत्यम्' इस अर्थ में जैसे - पञ्चाल शब्द से 'जनपद शब्दात् क्षत्रियाद' इस सूत्र से 'अ' प्रत्यय होता है। उसी प्रकार 'पाञ्चालानां राजा' इसमें भी 'पञ्चाल' से ' प्रत्यय होने पर 'पञ्चाल' रूप निष्पन्न होता है । 'जनपद शब्दात्' इस सूत्र से 'अपत्य' अर्थ में 'अञ्' विधान --------------------------------- I. लघु सिद्धान्त कौमुदी, अपत्याधिकार प्रकरणम्, पृष्ठ 901. 2. अष्टाध्यायी 4/1/168. 3. क्षत्रिय वचन एव शब्द उपचारेण क्षत्रिय इत्युक्तः । जनपद शब्दों जनपद इति - न्यास 4/1/168. Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से 'राजा' अर्थ में अप्राप्त प्रत्यय राजा अर्थ में भी इसलिए इस वार्त्तिक का उपस्थापन किया गया है । दीक्षितजी ने 'तद्राज' इस 'अन्वर्थसंज्ञा के बल से ही 'राजन' में भी अपत्य के तुल्य प्रत्यय का विधान मानकर इस वचन को न्याय सिद्ध स्वीकार किया है किन्तु भाष्य वृत्यादि ग्रन्थों में इस वार्तिक को 'अन्वर्थ' संज्ञा के माध्यम से 'अन्यथासिद्ध' नहीं माना गया है और न तो प्रदीप पदम जरी टीकाओं में भी 'अन्वर्थ' संज्ञा से इसका लाभ प्रदर्शित किया गया है। 2 पुरोरण वक्तव्य:' उपर्युक्त सूत्र के भाष्यकार ने इस वार्तिक का उल्लेख किया है । 'पुरु' शब्द से 'अपत्य' अर्थ में 'अणु' प्रत्यय कहना चाहिए । 'पुरु' का अपत्य इस अर्थ में उक्त वार्त्तिक से 'अणु' प्रत्यय करके पौरव' निष्पन्न किया जाता है । 'तस्यापत्यम्' सूत्र से 'औत्सर्गिक अणु' सिद्ध है इस वार्तिक का 'उन्यासतद्राज' संज्ञा के लिए किया गया है । 'अथ च औत्सर्गिक अणु' से 'जनपद शब्दात्क्षत्त्रियादञ्' सूत्र से 'अञादि' प्रत्ययों को उद्देश्य करके विधीयमान 1. क्षत्रिय समान शब्द ज्जिनपदात्तरस्य राजन्यपत्यवत् । तद्राजमाच क्षाणासाद्राज बत्यन्यर्थ संज्ञा सामर्थ्यात् पाञ्चालानां राजा पाञ्चालः इति । - लघु सिद्धान्त कौमुदी, अपत्याधिकरणम् प्रकरणम् 2. लघु सिद्धान्त कौमुदी, अपत्याधिकरणम् प्रकरणम्, पृष्ठ 90. 3. 3SC TeaTat 4/1/168. Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 176 'ते तद्राजा: ' सूत्र से 'तद्राज ' संज्ञा नहीं प्राप्त होगी, इस वचन के 'उपस्थापन' से विधीयमान 'अणु अत्रा दि' के अन्तर्गत होने से 'तद्राज ' संज्ञा सिद्ध है । 'तद्राज' संET का फल 'तद्राजस्य बहुषु तेनैवास्त्रियाम्' सूत्र से बहुवचन में प्रत्यय का लोप है । यह भाव प्रदीप cीका में स्पष्ट है । 'पुर' शब्द 'जनपदवायी' नहीं है प्रत्युत् 'दात्रियवाची' है नहीं तो 'तद्वज मगध कलिश सूरयतादण' इसते सिद्ध होने पर यह वार्तिक व्यर्थ हो जाता है । पाण्डोर्डयण' उक्त सूत्र पर भाध्यकार ने 'पाण्डोर्डयण' वार्तिक का उपन्यास किया है । 'पाण्डु' शब्द से 'अपत्य' अर्थ में 'यण' प्रत्यय होता है । 'पाण्डोरपत्य पाण्ड्यः डित्व' होने के कारण 'टिलोप 'हो जाता है । 'इयण' प्रत्यय में 'णित् ' पाठ 'पाण्ड्य अार्य: ' इत्यादि स्थनों में वृद्धि निमित्तस्य व तद्वितस्यास् क्ता विकारे सूत्र से वृद्धि निषेध के लिए है । यह 'यण' प्रत्यय जनपद समान शब्द मात्रिय' विशेष वाची 'पाण्ड' शब्द से होता है । संज्ञा भूत 'युधिठरादि पितृवाची' या 'पाण्डुत्व गुण निमित्तक' जो 'पाण्ड' शब्द है उससे 'अण्' न होकर 'अत्तर्गिक अण' ही होने पर पाण्डोरपत्यं - - - - - - - - 1. लघु सिद्धान्त कौमुदी, अपत्याधिकरणम् प्रकरणम् , पृष्ठ १02. 2. Ascाध्यायी ।/4/68. 3. वही, 6/2/39. Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाण्डरूप बनता है। इसीलिए वृत्तिकार ने 'पाण्डोर्जनपद शब्दात् क्षत्रियाइयण वक्तव्यः' इस प्रकार का वार्तिक स्वरूप निर्दिष्क किया है । इप्स सन्दर्भ में प्रदीप' और उद्योतकार2 का भी अभिमत पूर्ववत् है । कम्बोजादिभ्य इति वक्तव्यम् 'कम्बोजालुक्" इस सूत्र की व्याख्या में भाष्यकार ने 'कम्बोजा दिभ्योलुगवचनं चोडाद्यर्थम्' वार्तिक का उल्लेख किया है । इस वार्तिक का पाठ इस लिए किया गया है कि 'कम्बोज' प्राब्द से 'तद्राज' प्रत्यय का लोप तो हो जाएगा परन्तु 'चोडादि' शब्दों के साथ प्रत्यय होने पर 'तद्राज' संज्ञा न होने से लोप नहीं होगा। उक्त सूत्र का उल्लेखा करके प्रकृत वार्तिक का निर्देश किया गया है । अतः चोडः, चोल:, शकः इत्यादि स्थलों में 'दय मगधाकलिङ्गसूरमसादण्" इस सूत्र से विहित 'द्वयज्' लक्षण अण्' का लोप होता है । केरल: में -------- .-------- ।. वाहवादिप्रभृतिषु येषां दर्शनं जौमिके गोत्रभाव इति वचनात् युधिष्ठिरा दिपितुः पाण्डोरग्रहणात् तदाचिनः पाण्डव इत्येव भवति भवति । प्रदीप 4/1/168. 2. संज्ञा शत्बत्वेन जनपद स्वामित्वेन तत्समान तत्समान शब्द क्षत्रिय जाति विशेष वाचि पाण्डशब्दापेक्षया अस्य पाण्डत्व गुण योग निमित्तकत्वेनाप्रसिद्ध त्वादिति भावः । - उद्योत 4/1/168. 3. लघु सिद्धान्त कौमुदी, अपत्याधिकरणम् प्रकरणम् , पृष्ठ 904. +. अScाध्यायी 4/1/175. 5. वही, 4/1/170. Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 178 'जनपद शब्दात् क्षत्रियाद ,' से 'अन्' होने पर लोप होता है । 'तद्राजस्य बहुषु तेनै वास्मियाम्' इस सूत्र से 'बहुत्व' विवक्षा में लोप सिद्ध है तथापि द्विवचन, एकवचन में लोप विधान के लिए उ क्त और वार्तिक की परमावश्यकता है इसी को दृष्टि में रखकर भाष्यकार ने एकवचनान्त चोल:, शमः, यवनः, केरल :, 'उदाहरण प्रस्तुत किया है । तिष्य पुष्ययोत्राणि यलोप इति वक्तव्या 'सूर्यतिष्यामत्स्य '2 सूत्र के भाष्य में यह वार्तिक पठित है । 'नक्षत्र' सम्बन्धी 'अ' प्रत्यय परे रहते ही 'तिष्य पुष्य' के 'यकार' का लोप होता है अन्यत्र नहीं यह इप्स का अर्थ है । तिष्य में 'सूर्यतिष्य' इस सूत्र से 'यलोप' प्राप्त होने पर 'ण' परे ही लोप हो ऐसा नियम करने के लिए वार्तिक है । 'पुष्य ' में 'यलोप' प्राप्त नहीं होने से 'अण्' परे रहते अपूर्व लोप का विधान करता है । यहाँ 'नवाण' हे नक्षत्र ! वाचक से विहित जो 'अण्' उन सबका ग्रहण होता है । न कि 'सन्धिलाधृतुनक्षत्रेभ्योऽण'' इस सूत्र से 'प्रातिपदिको व नक्षत्र' का हो । इसी लिए 'नक्षत्राणि' का व्याख्यान 'नक्षत्र सम्बन्/ि अण् परे' 1. लघु सिद्धान्त कौमुदी, स्त्री0प्र0प्र0, पृष्ठ १06. 2. अष्टाध्यायी, 6/4/149. 3. वही, 4/3/16. Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 179 ऐसा व्याख्यान कैयट ने किया है । प्रदीपोद्योत में यह स्पष्ट है । इप्त का उदाहरण - तेषम् , पोषः यह भाष्य में कहा गया है । तेषम् - तिष्येण युक्त महः, अर्थात् 'तिष्य ' से युक्त 'दिन' इस अर्थ में 'नक्षत्रेण युक्तः काल : ' इस सूत्र से 'तिष्य' शब्द 'से 'अण्' इस पूर्वोक्त वार्तिक से 'यलोप' 'यस्येति च' से 'अलोप' । 'पोष: ' यहाँ पर पुष्येभवः' इस # में पुष्य में होने वाला। 'पुष्य' शब्द से 'अण्' इससे 'यलोप' तथा 'यस्येति' से 'अलोप' ।। भस्याटे द्विते' 'ततिनादिना कृत्यसुच: ' सूत्र पर वचन रूप पठित यह वार्तिक वचन रूप से पठित है । तथा इसका अर्थ है - दादि लिल तद्वित की विषयता पर स्त्रीवाचक, भाषित पुंस्त्व 'भसंज्ञक' शब्द को 'पुंगवभाव' हो, इससे 'स्तनीनां समूहः' इस विग्रह में 'हस्तिनी' शब्द से समूह अर्ध में 'अचितहस्ति नोष्टक' इस सूत्र से 'ढक्' प्रत्यय की विवक्षा में 'हस्तिनी' शब्द को 'पुंगवदभाव' होकर 'हस्तिन' रूप से 'टक्' प्रत्यय हुमा । पुनः 'ठष्येक: ' सूत्र से इकादेश तथा 'न ततद्विते' सूत्र से 'टिलोप' एवं 'तद्वितेष्वचामादे किति च ' सूत्र से आदि वृद्धि होकर 'हास्तिक' यह उदाहरण सम्पन्न हुआ। इसमें अटे' इस अंधा का व्याव रोहणेयः ' प्रयोग दिया गया है। इसमें 'स्त्रोभ्योटक' सूत्र से 'ढ' प्रत्यय होकर 'यस्येति च.' सूत्र से 'इकार ' का लोप होकर आदि वृद्धि के द्वारा 'रोहणेयः ' प्रयोग I. लघु सिद्धान्त कौमुदी, स्त्री0प्र0प्र0, पृष्ठ 912. Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 181 निष्पन्न होता है । यदि यहाँ पर 'पुंगवदभाव' हो तो 'रोहिणी' शब्द का स्वरूप रोहित हो जाता है । 'ढक्' प्रत्यय 'सामभिव्यवहार' से 'राहतेय : ' यह रूप हो जाता है क्योंकि रोहित वर्ण विशिष्टा 'स्त्री रोहिणी रोहिता' यह रूप 'वर्णादनुदात्तात्तोपधात्रीन: ' सूत्र से 'रोहिणी रोहिता' यह रूप होता है। इस वार्त्तिक में स्त्रीभ्योदक' सूत्र से विहित 'टक्' प्रत्यय ही ग्रहीत होता है । इसमें प्रत्यासक्ति न्याय मूल' समझना चाहिए तथा तत्त्वबोधिनीकार ने इसे व्याख्या कर सिद्ध किया है । इसका फल यह है कि 'अग्नेर्दक्' से विहित 'ढकू' प्रत्यय नहीं ग्रहीत हुआ इसलिए 'अग्नयी देवता अस्य स्थालि पादस्य' इस विग्रह में 'अग्नायी' को 'पुंग्वदभाव' होकर 'आग्नेयः प्रयोग सिद्ध हो गया अन्यथा 'यस्येति च' से 'इकार' का लोप होकर 'आग्नायेय' हो जाता है । भाष्य, प्रदीप, उद्योत, तत्त्वबोधिनी प्रभृति ग्रन्थों की दृष्टि से व्याख्यान इस प्रकार सम्पन्न हुआ । जहां चेति वक्तव्यम् 'ग्रामजन बन्धुसहायेभ्यस्तल 2 सूत्र भाष्य व्याख्यान में उक्त वार्तिक का उल्लेख है । गज, सहाय शब्दों से 'समूह' अर्थ में 'तलु' प्रत्यय होता है । 1. लघु सिद्धान्तकौमुदी, तद्वित प्रकरणम्, पृष्ठ 914. 2. अष्टाध्यायी, 4/2/43. Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'तनन्तस्त्रियाम्' इस नियम से 'क्लन्त प्रत्ययान्त' शब्दों का 'स्त्री लिइंग' में ही प्रयोग किया जाता है अतः 'गजानां समूहः सप्तयाना समूह: ' इस विग्रह में उक्त वार्तिक से 'तत्' प्रत्यय करके 'स्त्रीलिङ्ग प्राब्दस्य' गजता, सहायता निष्पन्न होते हैं । अहन्: रवः क्रतो उपर्युक्त सूत्र की व्याख्या में ही भाष्यकार में 'अह्नः रवः क्रतो' इन दो वार्तिकों का उपस्थापन किया है। पूर्ववार्तिक की अतिप्रसक्ति वारण हेतु उत्तर वार्तिक का पाठ किया गया है। इन दोनों वार्तिकों का एक रूपात्मक व्याख्यान सिद्धान्त कौमुदी में दीक्षितजी द्वारा किया गया है । "अहन्' शब्द से समूह अर्थ में 'रव' प्रत्यय होता है । यदि 'यज्ञा वाच्य' हो, 'एतावता क्रतु यज्ञ वाच्य अहन्' शब्द से 'रव' प्रत्यय हो । यह वार्तिक का स्पष्ट अर्थ हुआ । अहनां समूहः इस विग्रह में उक्त वार्तिक से 'रव' प्रत्यय होकर 'रव' को 'इनादेश' 'अहिनष्क रवोरेव सूत्र से दिलोप होने पर अहीनः क्रतुः रूप की निष्पत्ति होती है क्रतु से अन्यत्र आहन् बनता है । अतएव भाष्यकार ने कहा है कि 'क्रता विति वक्तव्यम्' यहाँ पर न हो 'जाह्नायधूतपाप्मानोभास्करराजित 1. लघु सिद्धान्त को मुदी, तद्वित प्रकरणम् , पृष्ठ 9 14. 2. अScाध्यायी 4/2/43. 3. वही, 6/4/145. Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 182 मृत्यवः ' यहाँ अहन शब्द से 'खाण्डिका दिभ्यश्च' से 'अस्' प्रत्यय हुआ है । 'अहनष्ट रवोरेव' इसकी प्रवृत्ति न होने से 'टिलोप भाव ' अल्लोपोडनः '' से 'अलोप' होकर उक्त रूप बनता है । अवारपारादिगृहीतादपि विपरीताच्चेति वक्तव्यम् 'राष्ट्रावारपारादरवो', इप्त सूत्र की व्याख्या में भाष्यकार ने 'अवारपारा दिगृहीतादपि' तथा 'विपरीताच्च' इन दो वार्तिकों का उल्लेख। किया है । उपर्युक्त सूत्र से 'अवारपार' शब्द से 'शैषिक अर्थों' में 'रव' प्रत्यय होता है । वही प्रत्यय जिस प्रकार 'अवारपार' समुदाय से होता है उसी प्रकार विग्रहीत भिन्न प्रत्येक 'अवारशकपार' शब्द से हो, तथा विपरीत अर्थात् 'पारावार' शब्द से हो यह वार्तिक का व्यक्त अर्थ है । अतः 'अवारपारीणः' के समान 'अवारीणः, पारिणः, पारावरीणः ' रूपों की निष्पत्ति वार्तिक निर्देश होती है । सूत्र से मात्र वारपार' समुदाय से ही 'रव' होगा, प्रत्येक भिन्न व विपरीत से नहीं होगा । 1. अष्टाध्यायी, 6/4/34. 2. लघु सिद्धान्त कौमुदी, तद्वित प्रत्यय प्रकरणम् , पृष्ठ 923. 3. अष्टाध्यायी 4/2/93. Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'अव्ययाच्यप् 183 - अमेह क्व सियेभ्य एव 1 +2 सूत्र की व्याख्या में भाष्यकार ने 'अमेह क्व ता सियेभ्यस् 7 इस श्लोक वार्त्तिक में परिगणन किया है । अव्यय त्यात्वधियों व्यपात्स्मृतः से जो 'त्यप् विधि' की जाती है वह 'अमादि' 'परिगणित' शब्दों से ही की जाए । जैसे अया से अमात्य:, इह - इह त्य:, क्व क्व त्य:, तसि ततस्त्य:, त्र तत्रत्यः इत्यादि शब्द रूपों की सिद्धि की जाती है । 'तसि त्र' दोनों प्रत्यय हैं अतः 'प्रत्ययग्रहणेतदन्त ग्रहणं च परिभाषा' से यहाँ भी 'त्यप्' प्रत्यय हो जाएगा । तद्वितश्चासर्व विभक्ति: ' सूत्र से 'इह' इत्यादि की अव्यय संज्ञा होती है । परिगणन वार्तिक के अनुसार औत्तराहः, औपारिष्ट: पारत:' इत्यादि स्थलों में 'त्यप्' प्रत्यय नहीं होगा, यहाँ 'उत्तराद्विभवः, उपरिष्यत् भव:, परतो भवः' इत्यादि स्थलों पर औत्सर्गिक अणु होने पर 'अव्ययानां ममात्रे टिलोपः ' से 'टि' लोप 'प' होगा । उत्तरादि, उपरिष्टाद परतस् इन सब की 'तद्वितश्चासर्व विभक्तिः '3 से 'अव्यय त्व' सिद्ध है तथा परिगणन' के अन्तर्गत न होने से 'त्यप्' नहीं होगा । भाष्यकार ने कहा भी है - इतरथा यौत्रराहोपरिष्ट पारतानां प्रतिषेधीवक्तव्यः स्यात् । इति । - 1. लघु सिद्धान्तकौमुदी, तद्वित प्रत्यय प्रकरणम्, पृष्ठ 924. 2. अष्टाध्यायी 4/2/104. 3. वही, 1/1/38. - Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्यब् 184 ने ध्रुवे इति वक्तव्यम्' 'अव्ययात् त्यप्'± सूत्र में भाष्यकार ने 'त्यब्नेव' इति वक्तव्यम्' वार्तिक का पाठ किया है । 'नि' शब्द से 'ध्रुव' अर्थ में 'त्यप्' प्रत्यय होता है यह वार्तिक का अर्थ है । 'नित्यः ' यह उदाहरण है । नियतं - सर्वकाले भवं नित्यमिति । जो सभी कालों में हो उसे नित्य कहते हैं । वा नामधेयस्य वृद्ध संज्ञा वक्तव्या: 'वृद्धिर्यस्याचामादिस्तबुद्धम् " इस सूत्र व्याख्या में भाष्यकार ने इस वार्तिक का उल्लेख किया है । यहाँ 'नामधेयपद' से माता पिता से किया जाने वाला आधुनिक 'देवदत्तादि रूप नाम' का ग्रहण है । अंत: 'एड. प्राचां देशे' इसकी चरितार्थता होती है । रूद्र मात्र को यदि नामधेय पद से ग्रहण करें तो इसी वार्त्तिक से 'वृद्ध' संज्ञा हो जाती है 'एड. प्राचां देशे' सूत्र व्यर्थ हो जाता है । उक्त विवरण प्रदीप उद्योत में स्पष्ट किया गया है । अतः देव 1. लघु सिद्धान्तकौमुदी, तद्वित प्रत्यय प्रकरणम्, पृष्ठ 926. 2. GcTearat 4/2/104. 3. लघु सिद्धान्तकौमुदी, तद्वित प्रत्यय प्रकरणम्, पृष्ठ 927. 4. अष्टाध्यायी 1/1/73. 5. पौरूषेधं नाम गृह्यते । देश' इति चरितार्थम् । उद्योत ।। प्रदीप 1 / 1 /73; आधुनिकमित्यर्थं अतएव 'एड. प्राच रूद्र मात्रस्यनाम्नो न ग्रहणं ग्रहणे तद्वै यर्थ्य स्पष्ट मेव Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 185 दत्तादि नामयों की 'वृद्धि' संज्ञा करके 'वृदा' से 'धू' होकर 'देवदत्तीयः तथा विकल्प पक्ष में 'अणु' कर के 'देवदत्तः' दो रूपों की निष्पत्ति की जाती है। अव्यानां भ-मात्रे टि लोप:2 'नस्तद्विते सूत्र व्याख्यान में भाष्यकार ने 'अव्ययाना च सायम्प्रातिकार्थम्' इस वार्तिक का उल्लेख किया है । 'भस्य' का अधिकार होने से अव्ययों की 'भ' संज्ञा होने पर 'टि ' लोप होता है अत: सायम्रातिकः, पौनपुनिकः इत्यादि स्थनों में 'टि' लोप सिद्ध है । उक्त उदाहरणों में 'कालाद." से 'ठ,' प्रत्यय होता है । वार्तिक में सायंप्रातिकाद्यर्थम् आदि शब्द प्रकार में - है। अतः जहाँ भी 'fe ' लोप दर्शन हो वे सायनातिका दि है वहीं पर 'टि' लोप इस वार्तिक से होता है । अतः 'रातीयः इत्यादि स्थलों में अव्यय होने पर भी 'टि' लोप नहीं होता । लघु सिद्धान्त कौमुदीकार वरदराज जी 1. अष्टाध्यायी 4/2/1/114. 2. लघु सिद्धान्त कौमुदी, तद्धित प्रत्यय प्रकरणम्, पृष्ठ 931. 3. अष्टाध्यायी 6/4/44. ५. वही, 4/3/11. 5. आदिशाब्दः प्रकारेटिलोपदर्शनेन च साश्यमाश्रीयत इति, आरातीयः शाश्व तिमः इत्यत्र च टि लोपा भावः । - प्रदीप 6/4/144. Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 186 ने 'बहिषष्टिलोपो य, च' इस वार्तिक से 'बहिष' का 'टि' लोप विधान करके अव्ययों के 'टि ' लोप का अनित्यत्व प्रतिपादन करते हुए 'रातीयः ' इत्यादिकों में 'टि' लोप नहीं ऐसा प्रतिपादन करते हैं ।। अध्यात्माइडदेः 'ठ ' ईष्यते 'अन्तः पूर्वपदादठ,” सूत्र व्याख्यान में भाष्यकार ने 'समानत्य तदादेव अध्यात्मादिषु चेष्यते' इप्त प्रलोक वार्तिक का उपस्थापन किया है । समान शब्द तथा समान हो आदि में जिस के ऐसे शब्दों से, अध्यात्मादि शब्दों से भव अर्थ में उक्त वार्तिक से ',' का विधान किया जाता है । समान शब्द से 'ठ.' प्रत्यय करने पर 'सामा निक: ' तथा समान हो आदि में जिस के समान 'गामिक: ' अध्यात्मिकः' इत्यादि शब्द रूपों की निष्पत्ति होती है । 'अत्मा इति आध्यात्मां विभत्यर्थ में अव्ययीभाव समास तथा 'अनश्च"" सूत्र से समासान '' अन्त्तर इस वार्तिक से 'ठ.' प्रत्यय, अध्यात्मा दि आकृति गण है । वार्तिक में निर्दिष्ट सभी आकृतिगण है । उक्त वार्तिक एकादेश अनुवाद रूप वरदराज ने 'अध्यात्मादेष्ठ जिष्यते' लिखा है। १. अनित्यो यं बहिषाष्टिलोप विधानात् तेनेह न ारातीयः - लघ्न सिद्धान्त कौमुदी । 2. लनु सिद्धान्त कौमुदी, तद्रित प्रत्यय प्रकरणम्, पृष्ठ 936. 3. अECTध्यायी, 4/3/60. 4. वही, 5/4/108. Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 187 अपमनो विकारे टिलोप वक्तव्यः । 'नस्तद्विते 2 वार्तिक सूत्र भाष्य पर 'अधमनो विकार उपसंख्यानम्' वार्तिक का पाठ है । 'अभमन् ' शब्द से 'विकार' अर्थ में जो प्रत्यय उस की परता 'fe' लोप होता है । 'अमनो विकारः आरम: तस्य विकार:- से 'अण् ततः ' इप्त वार्तिक से 'टि' लोप 'अन्' सूत्र से प्रकृतिभाव प्राप्त होने पर 'टि ' लोप के लिए. उक्त वार्तिक का पाठ किया गया है । अध्माच्चेति वक्तव्यम् 'धर्मर ति" इस सूत्र भाष्य में 'अामाच्च' वार्तिक का पाठ है । 'अधर्म' शब्द से 'चरति' अर्थ में इस वार्तिक से 'ठ,' प्रत्यय का विधान किया जाता है । अधर्म चरति, धार्मिक: 'येन विधि स्तदन्तस्य' इस 'तदन्त' विधि सूत्र से 'धर्म चरति' सूत्र में 'धर्म' शब्द से 'धर्मान्त' का भी ग्रहण करके 'ठ' प्रत्यय हो जाता । वार्तिक पाठ व्यर्थ है ऐसी का नहीं करनी चाहिए। I. लघु सिद्धान्त कौमुदी, तद्धित प्रत्यय प्रकरणम् , पृष्ठ १45. 2. अष्टाध्यायी, 6/4/144. 3. वही, 6/3/134. 4. लघु सिद्धान्त कौमुदी, तद्वित प्रत्यय प्रकरणम् , पृष्ठ 952. 5. अष्टाध्यायी, 4/4/41. Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 188 'ग्रहण वताप्रातिपदिकेन तदन्त विधिनास्ति'। इस परिभाषा से तदन्त विधि का निषेध होने से 'ठक्' असिद्ध अप्राप्त। हो जाएगा। एतावता 'ठक्' विधान के लिए उक्त वार्तिक का पाठ किया गया है । ' यद्यपि 'येन विधिस्तदन्तस्य' इस सूत्र में तदन्त विधि विधायक वार्तिक 'धमान्ननः ' का पाठ है तथापि उस की अनपेक्षा करके इप्स वार्तिक का प्रणयन किया गया है । नाभि नभञ्च 'उगवादिभ्यो यत्' सूत्र में 'गवा दि गण' के अन्तरगत् 'गण' सूत्र के रूप में यह 'गण' सूत्र के रूप में यह 'गण' सूत्र पठित है । इसका अर्थ है - 'नाभि' शब्द 'प्रकृतिकचतुर्थ्यन्त सुबन्त' से 'हित' अर्थ में 'यत्' प्रत्यय होवे तथा 'नाभि' शब्द को 'न' आदेश होवे । अतः 'नामपे हितं नभ्यः अEl: नभ्यं 35जन' इत्यादि उदाहरण सम्पन्न हुए । रथ की 'नाभि' में ही यह वचन प्रवृत्त होता है क्योंकि 'शरीरावयवाद्यत्' यह सूत्र धारीरावयव भूत नाभि' में बाधक हो जाता है । उस सूत्र से 'नाभ्यमजनं नाभ्यं तेलम्' । ----- ------------ ---------- ।. तदन्तविधेः 'ग्रहणवताप्रातिपदिकेन ' निषेधादचनम् । येन विधिः इत्यत्र - 'धर्मान्त,' इति वार्तिकमनपेोत युक्तम् ।प्रदीप 4/4/41. 2. लघु सिद्धान्त कौमुदी, तदित प्रत्यय प्रकरणम् , पृष्ठ 959. Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 189 पृथु-मृदु-मृश कृशश-दृढ परिवृद्धानामेवर त्वम् 'रमतो हलादेलघो: 2 इस सूत्र की व्याख्या भाष्यकार ने 'एव तहि परिगणनं क्रियते' यह कहकर उक्त परिगणा वार्तिक का उल्लेख किया है । उक्त सूत्र के विषय को 'परिगणन' इस वार्तिक में किया गया है । उक्त सूत्र में किया जाने वाला 'र' भाव 'पृथु' आदि शब्दों का ही होगा। जैसे - प्रथिमा, प्रदिमा इत्यादि । परिगणन से ही 'कृतमाचष्टे कृतयति' में 'र' भा नहीं होगा, नहीं तो 'कृतयति' में 'इष्ठवभाव' से 'रभाव प्रथयति' के सदशा होने लगता । इत्यादि विष्य भाष्य में स्पष्ट किया गया है । गुण वचनेभ्यो मतुपोलु गिष्ट: 'तदस्यास्पयस्मिन्नतिमतुप्"' सूत्र भाष्य में इस वार्तिक का पाठ है 'गुण' और 'तद्वान्' द्रव्य में अभिन्न रूप से लोक में 'प्रयुज्यमान शुक्लादि' शब्द ही यहाँ 'गुण' वचन शब्द से ग्रहण किए गए हैं न कि 'गुणमात्र वाची रूपादिको का ग्रहण होता है । अतः वार्तिक में वचन ग्रहण किया है । अतः उक्त निय 1. लघु सिद्धान्त कौमुदी, तद्धित प्रकरणम्, पृष्ठ 970. 2. अष्टाध्यायी, 6/4/161. 3. लघु सिद्धान्त को मुदी, तद्वित प्रकरणम् , पृष्ठ 986. 4. अष्टाध्यायी, 5/2/94. Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 190 व अर्थ बनता है । इसी से 'रूपवान : ' इत्यादि स्थनों में 'मतुप्' का लोप नहीं है 'शुक्ल: पट: ' इत्यादि स्थनों में उत्पन्न 'मतुम्' का लोप इस वार्तिक से हो जाता है । प्राण्याइगदेव 'प्राणिस्थादातोलजन्यतरस्याम इप्स सूत्र भाष्य 'प्राण्यगदिति वक्तव्यम् । इस वार्तिक का उल्लेख किया गया है । उक्त सूत्र से 'प्राणिस्थ अग' से जो 'लच' प्रत्यय विहित है वह प्राणी अग से ही हो । अतः 'मेधा चिकीा' आदि से 'प्राणिस्थ' होने पर भी प्राणी के अग ।अवयव। का अभाव होने से 'लच्' प्रत्यय नहीं होगा । 'मेधा अस्याक्तीति मेधावान् चिकीजावान् ' यही रूप निष्पन्न होता है। 'चूडाल: ' इत्यादि से सदश लच्' प्रत्यय नहीं होता । 'मेधा चिकीर्षादि' शब्दों से 'अनभिधानालच्' नहीं होगा ऐसा मानकर भाष्यकार' ने 'प्राण्याइग' ग्रहण को प्रत्याख्यात् कर दिया है । ------------------ 1. शुक्लादय एवाभिन्न रूपागुणे तद्धित द्रव्ये च वर्तमाना गृह्यन्ते, न तु रूपादयः सर्वथा गुण मात्र वाचिन: - प्रदीप 5/2/94. 2. लघु सिद्धान्त कौमुदी, तदित प्रत्यय प्रकरणम्, पृष्ठ 187. 3. अScाध्यायी, 5/2/96. 4. तत्तर्हि वक्तव्यम् १ न वक्तव्यम् । कस्मान्न भवतिजिहीर्णा स्यास्तिचिकीर्णा स्यास्ति इति १ अनभिधानात् - महाभाष्य 5/2/96. Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 191 अन्येभ्यो पि दृश्यते 'केशद्रो न्यतस्याम'2 इस सूत्र की व्याख्या में भाष्यकार ने भाष्य में 'व प्रकरणे मणि हिरण्याभ्यामुपसंख्यानम्' इस वार्तिक का उल्लेख करते हुए, ऐसा कहकर व प्रकरण में 'अन्येभ्यो पि दृश्यते' इस वचन का उपस्थापन किया है। पूर्व वचन की अपेक्षा इस उत्तर वचन को व्यापक मानकर वरदराज जी ने लघु सिद्धान्त कौमुदी में उत्तर वचन का पाठ किया है। इससे यथार्थ 'मतुप्' अर्थ में व प्रत्यय किया जाता है। जैसे - मणिनः मार्ग विशेष की संज्ञा, हिरण्यवः विधि विशेष की संज्ञा है । इसी प्रकार विम्बावम् , कुर रावम् इत्यादि उदाहरण 'अभ्येभ्या पि दृश्यते' इप्त वार्तिक में भाष्यकार ने दिया है "विम्बावम् कुर रावम्' इत्यादि स्थनों में अन्येषामपि दृश्यते' से दीर्घ होता है । असो लोपाच 'शादो न्यतरस्याम' सूत्र में ही वृत्तिकार ने इस वचन का उल्लेख किया गया है परन्तु म्हाभाष्य में इसका पाठ नहीं है । 'अणां प्ति जला नि 1. लघु सिद्धान्त कौमुदी, तदित प्रत्यय प्रकरणम्, पृष्ठ 989. 2. अष्टाध्यायी, 5/2/109. 3. लघु सिद्धान्त कौमुदी, तद्वित प्रत्यय प्रकरणम्, पृष्ठ 989. 4. अष्टाध्यायी, 5/2/109. Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 192 3 सन्त्यस्य इस विग्रह में प्रकृत वार्त्तिक से 'मतृवर्धक' व प्रत्यय, 'सकार' लोप करके 'अणवि: ' की सिद्धि की जाती है । अन्येभ्यो पि दृश्यते' ,2 'रजः कृष्णमुतिपरिषद वलच् " इस सूत्र भाष्य में इस वार्तिक का पाठ है सूत्रार्थ के अनुसार तथा तत्तद शब्दों से और अन्य शब्दों से भी 'मतुप्’ अर्थ में 'वलच्' प्रत्यय होता है । भातृवल:, पुत्रवल : इत्यादि इस वार्त्तिक के उदाहरण है । दृशि ग्रहणात् भवदादि योग एव 'इतराभ्यो पि दृश्यन्ते " सूत्र भाष्य में यहाँ क्लच नहीं होता है - र तौ, ते अतिव्याप्ति की आशंका करके 'भवदादि योग इति वक्तव्यम्' इस प्रक वार्तिक का उल्लेख किया गया है । भवदादि कौन है इस आकांक्षा में 'भवाम् दीर्घायुः देनानां प्रियं: आयुष्मान् यह वाक्य उपस्थापित किया गया है 1. लघु सिद्धान्त कौमुदी, तद्धित प्रत्यय प्रकरणम्, पृष्ठ 989. 2. अष्टाध्यायी, 5/2/112. 3. लघु सिद्धान्त कौमुदी, तद्वित प्रत्यय प्रकरणम् पृष्ठ 998. 4. अष्टाध्यायी, 5/3/14. - Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 193 उक्त सूत्र से सप्तमी, प चमी से 'इतर विभक्त्यान्तौ' से भी 'तत्' 'तसिलादि' प्रत्ययों का विधान किया जाता है । वे सभी स्थलों में नहीं, प्रत्युत भवदादि योग में ही हो, यह व्यवस्था इस वार्तिक से की जाती है । अतः सः, तो, ते' इत्यादि में 'भवदा दि' का योग न होने से 'तसिला दि' नहीं होते । स भवान, कुतोभवान् , तत्र भवान् , तं भवन्तं, तत्र भवन्तम् , इत्यादि स्थलों में 'प्रथमाधन्त' से भी 'मना दि' प्रत्यय होते हैं । एतदो वाच्यः । % 3D 'एतदो म2 इस सूत्र पर भाष्य में 'रतदश्चयम् उपसंख्यानम्' इस वार्तिक का पाठ किया गया है । 'एतद' शब्द से 'यम' प्रत्यय होता है । यह वार्तिक का अभिव्यक्त अर्ध है । 'इदमस्थमुः ' इस सूत्र से कथित 'यमु' प्रत्यय इस वार्तिक से 'एतद' शब्द से किया जाता है । वह 'धमु' प्रत्यय प्रकार वचन में है । 'एतेन प्रकारेण इत्थम्' यहाँ 'एतद' शब्द से 'यमु' प्रत्यय 'एतदोडन्' इस सूत्र में 'एतदः ' का योग विभाग करके 'एतद' शब्द स्थान में 'इदादेश' करके 'इत्यम्' की निष्पत्ति की जाती है । भाष्य में यह स्पष्ट किया गया है कि 'एतदोडन्' इसमें 'एतदः ' यह योग विभाग करके वहाँ पर 'एतेतौ रथो: पूर्व सूत्र की 1. लघु सिद्धान्त कौमुदी, तदित प्रत्यय प्रकरणम्, पृष्ठ 1001. 2. अष्टाध्यायी 5/3/5. Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 194 अनुवृत्ति करते हैं - 'रेफा दि' और 'थकारादि प्राग्दीशीये प्रत्यय के 'परता एतद' शाब्द को यथासंख्य 'एतइद' इस आदेश का विधान किया जाता है । 'एतद' शब्द का 'व्यकारादि' प्रत्यय की 'परता इदादेश' विधान के सामर्थ्य से 'एतद' शब्द से 'थमु' प्रत्यय कर के उपसंख्यानम् वार्तिक का प्रत्याख्यान भाष्यकार ने किया है। ओका रस कारभकारादौ सुपि सर्वनाम्नष्ट: प्रागक अन्यत्र च सुबन्तस्य D 'अव्ययसर्वनाम्नामकपाळे :2 इस सूत्र के भाष्य में इस 'अ कच्' के विष्य में दो प्रकार के विकल्पों - 'यह अकय् सुबन्त के टि के पहले हो या प्रातिपदिक के टि के पहले ' के दोनों पक्षों में दोष कहकर 'सुबन्त' के 'टि' के पहले होने को व्यवस्थापित किया गया, किन्तु इस प्रकार की व्यवस्था में युष्मका भिः अस्मका भि: युष्मकासु, अस्मकासु, युवकयो:, विकयो: इन स्थनों में भी 'सुबन्त' के "टि' के पहले 'अ कच् ' प्राप्त होगा और इष्ट प्रातिपदिक के 'टि ' के पहले 'अकच्' करना है, ऐसी आशंका करके पर 'अनोकारतकारभका रादा विति क्क्तव्यम्' इस रूप से समाधान किया गया। इसका अर्थ है - 'ओ कारस कारभकारादि भव्य सुप्' परे रहते 'सुबन्त' के 'टि ' के पहले 'अकर' हो । फलितार्थ यह होता है कि . 'ओकारसकार भकारादिसुप्' परे रहते प्रातिपदिक के 'टि ' के पहले 'अकच्' होता 1. लघु सिद्धान्त कौमुदी, प्रागवीय प्रकरणम्, पृष्ठ 1012. 2. अष्टाध्यायी 5/3/71-72. Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 195 है। इसी फलितार्थ को दीक्षितजी ने 'जोकारसकार भकारादौ सुपि सर्वनाम्नष्टे: प्रागकच्' इस रूप में लिखा है । अतः युष्मका भि: इत्यादि उक्त उदाहरणों में प्रातिपदिकयुष्मद इत्यादि के 'fe ' के पूर्व 'अकस्' होता है । त्व्यका, मयका, त्वयकि, मयकि, इत्यादि स्थनों में 'सुम्' के ओका रस कारभकारादि न होने के कारण 'सुवन्त' के पूर्व 'अकच ' होता है। यह व्यवस्था 'युष्मद अस्मद' के लिए ही है क्योंकि भाष्यकार ने 'युष्मद अस्मद' का ही उदाहरण दिया है । अन्य सर्वनामों के विष्य में तो सर्वत्र प्रातिपदिक के टि के पूर्व 'अकर' होगा' ऐसा उद्योत में स्पष्ट है ।' सर्वप्रातिपदिकेभ्यः क्वित्वा वक्तव्य: 2 • 'उपमानादाचारे' इस सूत्र के महाभाष्यकार ने सर्वप्रातिपादिकेभ्यः क्विब्बा वक्तव्यः इस वार्तिक का उल्लेख किया है । इसका अर्थ है 'उपमान वाची' सकल प्रातिपदिक से 'आचार' अर्थ में 'क्विप्' प्रत्यय विकल्प से होता है। इस वार्तिक में साक्षात् क्वि' शब्द का उल्लेख नहीं है अतः आचारे वगर्भक्ली बठोभ्यकिब वा वक्तव्यः - इस पूर्ण वार्तिक से 'क्विप्' का अनुवर्तन किया 1. सुबन्त के टि के पहले यह बात जस्मद-युष्मद् विष्यक ही है, अन्यत्र प्राति पदिक के टि के पूर्व ऐसा जानना चाहिए । उदाहरणपरक भाष्य के प्रामाण्य से । - उद्योत 5/3/71-72. 2. लघु सिद्धान्त कौमुदी, तद्वित प्रत्यय प्रकरणम्, पृ0 1014. Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 196 जाता है । प्रातिपदिक ग्रहण करने से 'सुप् आत्मनः क्यम्' सूत्र से 'सुपः ' का सम्बन्ध नहीं होता। अतः 'कृष्ण इव माचरति कृष्णति' इत्यादि प्रयोगों में 'कृष्ण' शब्द का 'अकार अपदान्त' रहता है इसी लिए 'शक्य अकार' के साथ 'अकोगुणे' .सूत्र से पद रूप होता है तथा 'राजा इव आचरति राजानति' प्रयोग में न लोप नहीं होता है । अन्यथा 'कृष्णति' यहाँ 'कृष्णाति' तथा 'राजानति' के स्थान पर 'राजाति' यह प्रयोग हो जाता । इस प्रकार भाष्यकार प्रदीपकार तथा तत्त्वबोधिनी कारादि आचायों ने इसका व्याख्यान किया। आधादिभ्य उपसंख्यानम् %3 'प्रतियोगे प चम्यास्ततिः 2 इस सूत्र के भाष्य में यह वार्तिक पढ़ा गया है । 'घादि से 'स्वार्थ' में 'तसि' प्रत्यय हो' यह इसका अर्थ है । यह 'तसि' प्रत्यय सर्व विभक्त्यन्त से होता है क्यों कि 'तस्यादित उदात्तमहत्त्वम्' यह निर्देश इसके सर्व विभक्तरूनत से होने में प्रमाण है । आधा दिगण के आकृतिगण होने के कारण 'आदाविति' अर्थात् 'आदि में 'इस अर्थ में 'आदितः ' बनेगा । इसी प्रकार मध्यतः, अन्ततः भी जानना चाहिए । स्वरेण स्वरतः अर्थात् 'स्वर से ' इस अर्ध में 'तप्सि' हुआ, 'वर्णेन ' वर्णतः इत्यादि स्थनों में वर्ण से इस इत्यादि में तृतीयान्त से 'तसि' हुआ है । ---- I. लघु सिद्धान्त कौमुदी, तद्वित प्रकरणम् पृष्ठ 1017. 2. अष्टाध्यायी 5/4/44. 3. वही, 1/2/32. Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 197 अभूत तदभावं इति वक्तव्यम् 'अभूततदभावे कृभ्वस्तियोगे सम्पधकर्तरि चि: 2 इस सूत्र के भाष्य में 'च्वि विधायभूततदभाव ग्रहणम्' यह वार्तिक पढ़ा गया है । वृत्तिकार ने उक्त सूत्र को ही 'अभूततदभावघटित' पढ़ दिया है। उक्त सूत्र से 'कृ भू अत् ' के योग में सम्मधमान का अर्थ में 'च्चि' प्रत्यय होता है और वह 'अभूततदभाव' अर्थ गम्यमान रहने पर ही होता है, अन्यथा नहीं यह वार्तिक का अर्थ है । अतः 'यवा: सम्पद्यन्ते' शालयः सम्पधन्ते यव सम्पन्न होते हैं, शालि सम्पन्न होते हैं । इत्यादि स्थन में 'वि' प्रत्यय नहीं हुआ ऐसा भाष्य में स्पष्ट है । 'अभूततदभावे' इस शब्द में 'तेन भावः ' तदभावः यह तृतीया समाप्त है । • अत: जिस रूप से पहले हुआ उस रूप से उसका भाव ऐसा फलितार्थ हुआ प्रकृति के विकारात्मकता को प्राप्त होने पर ऐसा अर्थ निष्कर्षरूप में कहा जा सकता है। विकारावस्था से पूर्व विकारात्मिका न हुई प्रकृति का विकारावस्था में विकारीत्मिका होना यही 'पूर्वो अभूतदभाव' है । जैसा कि वार्तिक भी किया गया है 'प्रकृतिविवक्षा ग्रहणं च' जब प्रकृति ही पहले विकारात्मिका न हुई हो तथा विकारात्मकता को प्राप्त हो, विकारात्मा होती हुई, भवनक्रिया की कीं हो तब 'वि' प्रत्यय होता है ऐसा वातिकार्थ है । अतः 'इस क्षेत्र में 'यव' सम्पधमान होते हैं । इस अर्थ में 'च्चि' प्रत्यय नहीं हुआ । 1. लघु सिद्धान्त कौमुदी, तद्वित प्रकरणम्, पृष्ठ 1017. 2. अष्टाध्यायी 5/4/50. Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 198 'अभूततदभावपद' की उपर्युक्त व्याख्या से ही इस वार्त्तिकार्थ का 'अभूततद्ग्रहण' से लाभ हुआ है । 'प्रकृतिविवक्षाग्रहण घेति' यह वार्त्तिक अभूततदभाव का ही व्याख्यायक है । प्रदीप में यह स्पष्ट है । अतः 'अंकुरीभवन्ति यवा: ' इत्यादि स्थन में जहाँ प्रकृति की विकारात्मता प्रतिघमामानता गम्यमान हो वही पर च्चि प्रत्यय होता है । यहाँ पर अंकुर त्वरूप से पूर्व में अविद्यमान यवों का अङ्कुर रूप में होना ही 'अभूततदभाव' है । 'भवन्ति यवा: क्षेत्रे यहाँ पर पूर्ण कत प्रकार का 'अभूततदभाव' न होने के कारण 'क्वि' प्रत्यय नहीं होता है । अव्ययस्य च्वावी त्वं नेति वाच्यम् 'अव्ययीभावश्चइससूत्र के भाष्य से यह वार्तिक उपलब्ध होता है । वहाँ परं कहा गया है कि 'अकार' को 'इत्व' विधान 'चि” के परे, 'अव्यय' में प्रतिषेध करना चाहिए । दोषाभूतमहः', दिवाभूताराति: इसके लिए । वह यहाँ भी प्राप्त हो रहा है । 'उपकुम्भीभूतम्' 'उपमणिकी भूतम्' ऐसा कहा गया। अकार को जो ईत्व है वह अव्यय को न हो, अतः 'दोषाभूतमहः ' 'दिवाभूतारात्रिः' इत्यादि स्थनों में दोषा एवं दिवा इनके अकार को ईत्व नहीं हुआ। | लघु सिद्धान्त कौमुदी, तद्वित प्रकरणम्, पृष्ठ 1018. 2. अष्टाध्यायी, 1/1/41. 3. महाभाष्य, I/141. Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 199 डचि विवक्षित द्वौ बहुलम् . 'प्रकारे गुणवचनस्य' इस सूत्र के भाष्य में 'डाचि च' यह वार्तिक पढ़ा गया है। यहाँ 'डाचि' में जो सप्तमी है वह विध्यरूप अर्थ में है । उसी के फलितार्थ को श्री मटोजि दीक्षित जी ने सिद्धान्त कौमुदी में 'डाचि विवक्षिते' ऐसा कहा अर्थात् 'डाच्' की विवक्षा में लघुसिद्धान्तकौमुदी कार ने भी उक्त वार्तिक का श्रीदी क्षितवत् ही ग्रहण किया है । अतः 'डाय' की उत्पत्ति से पूर्व ही'डाय' की प्रकृति 'परतू' इत्यादि से इस वार्तिक के द्वारा द्वित्व हो जाता है तदनन्तर 'अव्यक्तानुकरणाददयजवररादिमितो डाच्” इससे 'डार' होता है । 'डापि यहाँ परसप्तमी मानने पर तो 'डाय' करने के पश्चात् द्वित्व होगा ! द्वित्व करने पर 'द्वयजवरार्ध: ' की प्राप्ति होगी अत: 'अन्योन्याश्रयः ' हो जायेगा । यह वार्तिक पदम जरी एवं तत्त्वबोधिनीमें पूर्वोक्त में भलीभाँति स्पष्ट किया गया है। - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - 1. लघु सिद्धान्त कौमुदी, तद्वित प्रत्यय प्रकरणम् , पृष्ठ 102 1. 2. अष्टाध्यायी, 8/2/12. 3. वही, 5/4/57. Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200 नित्ययामेडिते हाची ति वक्तव्यम् 'नामेडितान्त्यस्य तु वा' इस सूत्र के भाष्य में यह वार्त्तिक पठित है। वृत्तिकार ने तो पाठ में ही इसका प्रक्षेप कर दिया है । 'डार' से पर जो 'आमेडित' उस के परे रहते अव्यक्तानुकरण का जो 'अचे शब्द' उप्त के 'अन्त्य' तथा पर जो 'आमेडित तदादिभूत वर्ग उन पूर्वपर के स्थान में 'पररूप एकादेश होता है, यह इसका अर्थ है । जैसे पटपटाकरोति । यहाँ 'पट त्' इस अव्यक्तानुकरण से 'डार' की विवक्षा करने पर 'डाचि च' इस वार्तिक के द्वारा 'द्वित्व', तदनन्तर 'अव्यक्तानुकरणं से ' अव्यक्तकरणा द्वयजवरार्धादी नितौडाच' इस सूत्र के द्वारा 'डाच्' परे रहते 'द्वित्व' से 'टिलोप' करने पर 'पट त्पटा' इस स्थिति में द्वितीय 'पटत्' के 'डार' के 'आमेडित' होने के कारण 'पट त्' के 'तकार' 'तदादि पंकार' के स्थान में 'पररूप' पकार! इस वार्तिक के द्वारा विधान किया गया है । यहाँ पर भी डार की विवक्षा में ही 'द्वित्व' होगा न कि 'डाच्' पर में रहते । यदि 'डार' पर में, रहते ऐसा अर्थ मानेगे, तो 'डाच्' परे रहते 'दित्व से ' पहले अन्तरग होने के कारण 'टिलोप' हो जायेगा तदनन्तर 'द्वित्व' होगा अतः 'cान्त' को ही 'द्वित्व' होगा इस प्रकार से 'पटपटा' की तिदि नहीं होगी। अतः 'डाचि च' में सप्तमी'विष्य सप्तमी' ही जानना चाहिए । ---------::०::------- ।. लघु सिद्धान्त कौमुदी, तद्रित प्रत्यय प्रकरणम्, पृष्ठ 102 1. Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX अष्टम् प्रकरणम् xxcxxx .XXXXX स्त्री प्रत्यय प्रकरणम् 2xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नझस्नगी ककख्युस्तरणतलुनानामुपसंख्यानम् 'टिदाणद्वयसजदघ्न मात्रघ्तयपठकठभूकमक्करप: '2 इस सूत्र के भाष्य में 'न्युन उपसख्यानम्' यह वार्तिक है । इस वार्तिक को लक्ष्य करके भाष्यकार ने कहा 'युन उपसंख्यानम्' यह अत्यल्प है, 'ननभी कह स्तरगतनुनानामुर पसंख्यानम्' इतना कहना चाहिए । पूर्वोक्त वार्तिक 'ड्युन उपसंख्यातम्' का ही पूरक यह भाध्य है । वार्तिकपूरक होने के कारण भाऽयवाक्य को ही श्री भको जिदीक्षित जी ने सिद्धान्तको मुदी में वार्तिक के रूप में पढ़ दिया जिसका उसी रूप में लघु सिद्धान्त कौमुदीकार ने भी उल्लेख किया है । यह नश, स्नम् ईकक, ख्युन् इन प्रत्ययान्त प्रातिपदिकों से तथा 'तरण' एवं 'तनुन' शब्दों से 'स्त्रीत्व धोत्य' होने पर 'डीप' विधान करता है । 'नइ , स्नझ' का उदाहरण है; 'स्त्रैणी, पौवी, स्त्रीपुंसाभ्यां नशस्न भवनात्' इससे स्त्री शब्द एवं पुंस शब्द से क्रममाः नश्च एवं स्ना प्रत्यय हुए हैं, त्रित होने से आदिवृद्धि हुई है । ईका का उदाहरण - शाक्तीकी यहाँ 'तदस्य प्रहरणम्' इस सूत्र के अधिकार में 'शक्तियटयोरी कक्' इससे ईकक् प्रत्यय आदिवद्धि । शाक्तीकः का अर्थ है शक्ति प्रहरण है जिस की 'युन' का उदाहरण है - मादय करणी। इसका विग्रह है - अनादयं आदयं कुर्वन्ति अनया । 'सादयसुन्नगमधून ' इस सूत्र से 'अदय' शब्द उप पंद रहते 'कृश धातु' से 'युन् प्रत्यये' 'यु' को अनादेश, 'खित' होने से पूर्वपद . I. लघु सिद्धान्त कौमुदी, स्त्री प्रत्यय प्रकरणम्, पृष्ठ 1027. 2. Ascाध्यायी 4/1/15. Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 203 इस का अर्थ है 'चतुरनडुह' शब्द को स्त्रीलिङ्ग में 'अाम्' होता है । अनुह' का उदाहरण - अनुडुडी, अनड्वाही। 'अनुदुह' शब्द से स्त्रीत्व विवक्षा में "जिदगौरादिभ्यश्च' इससे 'गौरादित्वात् डीप् प्रत्यय' तथा उक्त वार्तिक से विकल्प से 'आम्' । आम पक्षा में अनइवाही, आमभावपक्ष में अनुहुही ये दो प्रयोग बनते हैं । 'गौरा दिगण' में अनडुडी, अनवाही ये दोनों 'आमसहित, आमर हित पठित होंगे, उनके बन से ही यह 'आम्' विकल्प' विहित हो जायेगा, उसके लिए 'अामनडुहः स्त्रियां वा' इस अपूर्ववचन की आवश्यकता नहीं है। ऐसा न्यासकार का कथन है । 'गौरादिगण' में 'अनुह' इस प्रातिपदिक मात्र का पाठ ही आर्ष है। अनुडुट्टी, अनड्वाही' यह पाठ अर्वाचीन है ऐसा कैयट ने कहा । पाल कान्तान्न 'पुयोगादाख्यायाम्” इस सूत्र के भाष्य में 'गोपा लिकादीनां प्रतिषेधः ' यह वार्तिक पाठित है। जिसका अर्थ है 'गोपालिका' इत्यादि में पुंयोगादाख्यायाम' से 'डी' नहीं होता । अतः 'गोपाल कस्य' स्त्री 'गोपालिका' यही होता है यहाँ 'डीए' नहीं होता। 'गोपा लिकादीनाम्' में 'अादिशब्द' प्रकारवाची है । प्रकार का अर्थ है सादृश्य वह सादृश्य 'पाल कान्तत्वेन' ग्राह्य 1. यही वचन ज्ञापक है कि अनह शब्द से स्त्री लिड्ग में विकल्प से आम होता __ है - न्यासकार । 2. लघु सिद्धान्त कौमुदी, स्त्री प्रत्यय प्रकरणम्, पृष्ठ 1034. 3. अष्टाध्यायी 4/1/48. Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 204 है । अत: 'पालकान्त गोपा लि का' के सदृश 'पशुपा लिका' इत्यादि स्थन में डीष' होता है । इसी अभिप्राय के लघु सिद्धान्तकौमुदी कार ने 'पालकान्तान्न' यह वार्तिक का स्वरूप दिया है । भाष्यदृष्टि से यह वार्तिक वाचनिक है । न्यासकार के अनुसार 'वोतोगुणवचनात्' से 'वा' की अनुवृत्ति कर 'व्यवस्थितविभाषायण' से यह साधित है । सूर्याद देवतायां चावाच्यः । 'योगादाख्यायाम इस सूत्र में 'सूयांददेवतायां चाऽवक्तव्यः ' यह भाष्यवाक्य है । यह वचन उक्त सूत्र से प्राप्त 'डोष' प्रत्यय को बाधकर 'पुयोग' में चाप्' का विधान करता है । यह 'चाप्' देवता वाच्य' रहने पर ही होता है। इसका उदाहरण है सूर्य की स्त्री देवता सूर्या । देवता कहने से फन यह हुआ कि जहाँ सूर्य की स्त्री 'मानुषी' है वहाँ 'डीप' होगा । जैसे सूर्य की स्त्री सूरी, कुन्ती । यहाँ सूर्यशब्द से 'डी' प्रत्यय है एवं 'सूर्यतिष्यागस्त्य' इससे यलोप किया गया है। यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि 'सूदिदेवतायां न' ऐसा ही वार्तिक का विधान क्यों नहीं किया क्योंकि जब इस वार्तिक से 'डी' का प्रतिषेध हो जायेगा तो 'मदन्ताक्षण टाप्' प्रत्यय करके भी सूर्या बन ही जायेगा'याप्' का विधान का तथा फल है १ इसके प्रत्युत्तर में यह कहा गया है कि अन्तोदात्त 1. लघु सिद्धान्त कौमुदी, स्त्री प्रत्यय प्रकरणम्, पृष्ठ 1035. 2. AKध्यायी 4/1/8. Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करने के लिए 'चाप्' प्रत्यय का विधान है । 'cाप्' करने पर सूर्यशब्द का आयुदात्त होने से 'टाप् पित्' होने से अनुदात्त है अत: आयुदात्त ही बना रहेगा 'पाप' विधान करने से सूर्या इसका अन्तोदात्त होगा 'चितः ' सूत्र के द्वारा, जो इष्ट भी है । यह 'चाप्' विधि वाचनिक है । सूगिरत्ययोछे च इयाम् च पुंयोगादाख्यायाम्'2 इस सूत्र के भाष्य में पूर्वोक्त वार्तिक के पश्चात् 'सूगिस्त्ययोपछे च' इप्स वार्तिक का पाठ है । यहाँ 'चकार' के द्वारा 'ड्याम' का सम्बन्ध होता है। उसी का फलिताश कथन सिद्धान्तकौमुदी में वार्तिक में जोड़ दिया गया है । जिसे आचार्य वरदराज ने भी यथावत् ग्रहण किया है । सूर्य एवं अगस्त्य शब्द के 'यकार' का लोप छ: एवं 'डी' परे रहते ही होता है अन्यत्र नहीं। सौरी सोरीयः, आगस्ती गस्तीय: ये इसके उदाहरण हैं । 'सौरी' इस प्रयोग में 'सूर्येण एक दिक्' इस अर्थ में 'तेनैक दिक्' इस सूत्र के द्वारा 'अ' प्रत्यय 'यस्येति च' इससे लोप तदनन्तर 'डीप्' उक्त वार्तिक से यलोप, अप के 'अ कार' का 'यस्येति च' के द्वारा लोप । 'सौरीयः ' यहाँ अण्णन्त सौर्य शब्द से 'वृद्धाच्छ: ' इस सूत्र के द्वारा '' प्रत्यय पूर्वोक्त वार्तिक से यलोप । अगस्तीयः इस स्थल में अगस्त्य शब्द से इदमर्थ में अण प्रत्यय, तदनन्तर द्राच्छ: 1. लघु सिद्धान्त कौमुदी, स्त्री प्रत्यय प्रकरणम्, पृष्ठ 1036. 2. अष्टाध्यायी 4/1/18. Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 206 से '' प्रत्यय शेष पूर्ववत् । परिगणन कर देने के कारण यहाँ यलोप नहीं होतासूर्यस्यायं सौर्यः, अगस्तस्यायं अगस्त्यः । परिगणनाभाव में '' की तरह 'अणा दि' में भी 'यलोप' हो जाता क्योंकि 'तद्वित' की अनुवृत्ति आने से तद्वित मात्र में .यलोप प्राप्ति होती । हिमा रण्ययो महत्त्वे 'इन्द्रव स्णभवशास्द्रमृडहिमारण्ययवयवनमातुलावाणिामानुक्2 इस सूत्र के भाष्य में यह वार्तिक पढ़ा गया है। यह वार्तिक 'इन्द्रव सण' इत्यादि सूत्र से विहित 'डी' और 'आनु' की विषय व्यवस्था के लिए है। इसी प्रकार इसके बाद के भी वार्तिक पूर्वोक्त विषय व्यवस्था हैं। महत्त्व से युक्त 'हिमादि' स्त्रीलिङ्ग से अभिसम्बद्ध होते हैं जब जब स्त्रीत्व की विवक्षा में 'डी एवं 'आनुक्' होते हैं, यह वार्तिक का अर्थ है । यह न्यास में स्पष्ट है । महत्त्वयोगे में ही 'हिम एवं अरण्य का स्त्रीत्व से अभिसम्बन्ध होता है । महत्त्व की ॐ विवक्षा में इन दोनों में 'नपुंसकलिङ्ग' ही होता है अत: महत्त्व के योगाभाव में स्त्रीत्व विवक्षा में हिम एवं अरण्य शब्द से 'cाप्' हो जाये ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए । महत्त्वविवक्षा में स्त्रीत्व नियत होने के कारण 'डी' एवं 'ॐानुक्' नियतरूप से होते हैं । महदस्त्रिम्' इस अर्थ में "हिमानी' I. लघु सिद्धान्त कौमुदी, स्त्री प्रत्यय प्रकरणम्, पृष्ठ 1037. 2. अष्टाध्यायी 4/1/49. Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2UT 'महद् अरण्यम्' इस अर्थ में अरण्यानी ऐसा प्रयोग है । 'महदहिमं' इस वाक्य में हिम में महत्त्वयोग होने पर भी हिम्नाब्द से 'डी' आनुक्' नहीं होता क्यों। इस वाक्य में 'महत्' शब्द के द्वारा ही महत्त्व उक्त होने से 'उक्तानाम्प्रयोग इस न्याय से 'डीप आनुक्' नहीं होते क्योंकि महत्त्व के बोधन के लिए ही 'डी एवं 'आनुक्' का प्रयोग होता है । यवाददोष 'इन्द्रव रणभवशस्ट्रिमूडहिमारण्ययवयवनमानाचार्याणामातुक्'2 सूत्र के भाष्य में यह वार्तिक भी पठित है । यह शब्द से 'दोष गम्यमान' रहने पर स्त्री लिङ्ग में 'डी' एवं 'अानुरु' होता है। यह वार्तिक भी 'इन्द्रवरूगभवलस्ट्रगुड हिमारण्ययवयवनमा तुलाचायणामातुक् ' सूत्र की ही विषयव्यवस्था का निर्देश करता है । इसका उदाहरण है - 'दुष्टो यवो भवानी' । यवना ल्लिप्यायाम यह वार्तिक 'इन्द्रव स्णभवशर्व स्ट्राइहिमारण्ययवयवनमालाचार्याणामातुक् सूत्र भाष्य में ही पठित है । 'यवन' शब्द से लिपिरूप अर्थ में 'डी' होता है। 1. लघु सिद्धान्त कौमुदी, स्त्री प्रत्यय प्रकरणम् , पृष्ठ 1037. 2. अष्टाध्यायी, 4/1/49. 3. लघु सिद्धान्त को मुदी, स्त्री प्रत्यय प्रकरणम , पृष्ठ 1037.. 4. अष्टाध्यायी, 4/1/49. Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 208 उस के सन्नियोग से 'यवन' शब्द को 'जानुक्' का 'आगम' भी होता है । 'यवनाना' लिपिर्यवनानी अर्थात् यवनों की लिपि यवनानी कहलाती है । यवन शब्द से लिपि अर्थ में 'तस्येदम्' से प्राप्त 'अणु' डीव' प्रत्यय के द्वारा वाधित होता है.। अतएव 'यवनाना' यवनों का! इस अर्थ में 'इदन्त्वेन लिपि' की विवक्षा करने पर यावनी यह प्रयोग असाधु ही है । हिम, अरण्य, यव शब्दों से यद्यपि प्रयेाग-लहाण डोष असम्भव है तथा पि यवन् शब्द से पुंयोगलक्षण 'डी' सम्भव है लेकिन यहाँ मात्र डीई' मात्र होकर यवनी ही बनेगा 'अलु विषय' के परिगण होने से यहाँ लिपि अर्थ में ही 'भानुक' होगा । मा तुलोपाध्यायोरानुग्वा' • 'इन्द्रवरुणभववि स्द्रमृडहिमारण्ययवयवनमा तुलाचायणिामानुकू"2 सूत्र के भाष्य में ही 'उपाध्याय मातुलाभ्यां वा' यह वार्तिक पढ़ा गया है। मातुल शब्द से इन्द्रवरुण इस सूत्र के द्वारा नित्य आनुक प्राप्त होने पर उपाध्याय शब्द से प्राप्त न होने के कारण दोनों स्थनों में इस वार्तिक से 'जानुक्' का विकल्प से विधान किया जाता है । डीप' तो 'पुयोगादाख्यायाम' से नित्य ही होगा। इस प्रकार यह वार्तिक 'अनुक्' का ही विकल्प विधान करता है । 'डी' का विकल्प नहीं। इसी लिए भाष्यकार ने उपाध्यायी, उपाध्यानी, 1. लघु सिद्धान्त कौमुदी, स्त्री प्रत्यय, प्रकरणम्, पृष्ठ 1038. 2. अटाध्यायी, 4/1/49. Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 209 मातुली, मातुलानी, इत्यादि उदाहरण दिये । आनुक् के अभाव में भी मातुली इत्यादि में डीप दिखाया है | भाष्यकार ने यदि यह डीष का भी विकल्प विधान करता तो जिस प्रकार 'जानुक्' विकल्प से है, वैसे ही 'डी' के विकल्प होने पर 'उपाध्याया' मातुला' यह ताबन्त का उदाहरण ही भाष्यकार के द्वारा दिये गये होते । यहाँ जो 'डी' एवं 'मनु' है वे दोनों ही 'योग' में ही जानना चाहिए। क्योंकि 'पुयोगादाख्यायाम्' इसी सूत्र से यहाँ 'डी' होता है । 'अनुक्' विधायक 'इन्द्रव रम्ग' इसमें ''योग' की अनुवृत्ति होने से यदि बाधक न हो तो 'पुयोग' में ही 'आनुक्' भी होता है । आचायांदणत्व च • 'इन्द्रवरणभवशर्व स्ट्राड हिमारण्ययवयवनमातुलायार्याणामानुक्2 इस सूत्र के भाष्य में यह वार्तिक पढ़ा गया है। आचार्य शब्द से 'पुयोगादाख्यायाम' से 'डी' उसके सन्नियोग से 'इन्द्रव सा' इस सूत्र से आचार्य शब्द को आनुक का अगम विधान किया जाता है | आनुक् के नकार को 'अकुप्वाइ.' इस सूत्र से प्राप्त णत्त्व का इप्स वार्तिक से निषेध किया जाता है। उदाहरण - आचार्यस्य 'स्त्री प्राचार्य की स्त्री। आचार्यानी। यह वार्तिक केवल णत्त्व का निधही करता है । डीप एवं आनुक् तो 'पुंयोगादास्यायाम्' तथा 'इन्द्रव रणभवास्द्रमूडहिमारण्ययवयवनमानाचार्याणामानुक्' इस सूत्र से ही सिद्ध है । क्षुम्नादिगण ---------- I. लघु सिद्धान्त कौमुदी, स्त्री प्रत्यय प्रकरणम्, पृष्ठ 1238. 2. अष्टाध्यायी 4/1/49. Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में आचार्यानी शब्द का पाठ होने के कारण यह वार्तिक गतार्थ है अत: इस वार्तिक की आवश्यकता नहीं है ऐसा न्यास एवं पदम जरी कार ने लिखा है । चूँकि वार्तिक है अत: आचायनिी शब्द का पाठ झुमा दिगण में नहीं माना जा सकता अन्यथा वार्तिक का ही उत्थान सम्भव नहीं हो सकेगा। अर्यतालियाभ्यां वा स्वार्थ 'इन्द्रव रुणवर्चस्द्रमूडहिमारण्ययवयवनमा तुलाचार्याणामानुक् 2 इस सूत्र के भाष्य में यह वार्तिक पठित है | अर्थ एवं क्षत्रिय शब्द से डीन एवं आनुक का आगम विकल्प से होता है । यह वार्तिक का अर्थ है । इस प्रकार वार्तिक अप्राप्त डीप , आनुक् इन दोनों का विकल्प विधायक है । इसका उदाहरण, आय, आर्याणी, क्षात्रिया, क्षत्रियाणी यह भाष्य में कहा गया है। यहाँ डी एवं आनुक के अभाव पक्षा में अर्या के उदाहरण दिये जाने से प्रतीत होता है कि यह वार्तिक स्वार्थ में ही प्रवृत्त होता है पुंयोग में नहीं। यदि पुयोग में ही इसकी प्रवृत्ति होती तो इस वार्तिक के अभाव पक्षा में जैसे 'उपाध्याय मातुलाभ्यां वा' इस वार्तिक के उदाहरण प्रसङग में अनुगाभावपक्ष में उपाध्यायी यह पुंयोग में ही डीधन्त का उदाहरण दिया, उसी प्रकार अर्थी, क्षत्रियी ऐसा योग डीषन्त का ही उदाहरण देते भाष्यकार, न कि अर्या, क्षत्रिया ऐसा वन 1. लघु सिद्धान्त कौमुदी, स्त्री प्रत्यय प्रकरणम् , पृष्ठ 1039. 2. अष्टाध्यायी 4/1/49. Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वार्थ में इप्स वार्तिक को स्वीकार करने पर इस वार्तिक की प्रवृत्ति के अभावपक्षा में अर्यात्रिय इन स्वार्थपर शब्दों से किसी से भी डीष न प्राप्त होने से टाप होता है । ऐसा उद्योत एवं लघुमाब्देन्दुशेवर में स्पष्ट है । वृत्तिन्यासपदम जरीकारों को भी यही पक्ष अभिमत है। इसी अभिप्राय से सिद्धान्तकौमुदी में श्री मटोजिदीक्षित ने स्वार्थपद घटित वार्तिक पढ़ा है। इसी आशय से अप्राप्त डीप एवं आनुक् का यह विकल्प विधान करता है, क्योंकि पुयोग में डी प्राप्त होने पर भी स्वार्थ में डी अप्राप्त ही है। पुयोग में तो 'पुंयोगादाख्यायाम इस सूत्र से नित्य डीप होगा। निष्कर्षतः जो स्वयं अर्यत्वविशिष्ट क्षत्रिय की भी स्त्री हो तब भी अर्थी, क्षत्रियी ऐसा रूप बनेगा । • योपप्रतिषेधे ह्यगवयमुकयमनुष्यमत्स्यानामप्रतिषेधः' 'जातेरस्त्री विष्यादयोपधात '2 इस सूत्र के भाष्य में यह वार्तिक पठित है। इस सूत्र में अयोपध के कथन से यकारोपधकप्रातिपदिकों से जो सूत्र के अन्य निमित्तों पूरा भी करते हैं। उनसे डी का विधान नहीं होता । अत: इस वार्तिक के द्वारा वार्तिकगत 'हय, गवय, मुकय, मत्स्य इत्यादि शब्द जो 'योपध' है उनसे भी 'डीप' का विधान किया जाता है । उदाहरणार्थ हयी, गवयी, मुकयी, मत्सी । 'मनुधी' यहाँ 'हनस्तद्रिस्य' इस सूत्र के द्वारा मनुष्य 1. लघु सिद्धान्त कौमुदी, स्त्री प्रकरणम् , पृष्ठ 1036. 2. अष्टाध्यायी, 4/1/63. 3. वही, 6/4/150. Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 212 घटक 'यकार' का लोप होता है । 'मनुष्य' शब्द 'मनोजतिावाक्य' इप्त सूत्र के द्वारा तद्धित प्रत्ययान्त है, मत्सी शब्द 'मत्स्यस्य द्याम् से यलोप करने पर बना है। यद्यपि गौरादिगण में इन वार्तिकों से सिद्ध सभी शब्द 'गौरा दिगण' में पठित मिलते हैं, फिर भी 'गौरा दिगण' में इन शब्दों का पाठ अनार्ष अाधुनिका है ऐसा इन वार्तिकों की सत्ता से प्रतीत होता है। अन्यथा गौरीदित्वात्' ही 'डी' सिद्ध होने से उसके करने के लिए इस वार्तिक का अनुत्थान ही होता । ऐसा प्रदीप एवं म जरी में स्पष्ट है। यह वार्तिक भाष्य की दृष्टि से वाचनिक है । न्यासकार ने 'पापकर्ण' इत्यादि सूत्र के अनन्तर 'अनुक्त समुच्चया' से 'चकार' के द्वारा इस वार्तिक में कहे गये 'हयादिकों' का संग्रह हो सकता है और उसी से 'डी' भी सिद्ध है । अत: यह वार्तिक गतार्थ है । मत्स्यस्य ड्याम् 'सूर्य तिष्यगस्त्यमत्स्यानां य उपधायाः' इस सूत्र के भाष्य में 'सूर्यमत्स्ययोईयाम्' यह वार्तिक पठित है । सूर्यशब्द का उत्तर वार्तिक में भी ग्रहण होने के कारण वहाँ 'चकार' के बन से 'याम्' इस पद की अनुवृत्ति करने से 'सूर्यस्य इयाम्' यह अर्ध उत्तर वार्तिक से गतार्थ हो जाने के कारण ------- 1. कात्यायन वार्तिकम् । 2. लघु सिद्धान्त कौमुदी, स्त्री प्रत्यय प्रकरणम्, पृष्ठ 1036. 3. अScाध्यायी, 6/4/49. Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 213 मटी जिदीक्षित ने 'मत्त्यस्यड्याम्' ऐसा ही पाठ किया है । वार्तिक का यही स्वरूप आचार्य वरदराज ने भी स्वीकार किया है । वार्तिककार ने 3 के प्रदर्शन के लिए लान का अनादर करते हुए पूर्ववार्तिक में भी सूर्य शब्द का ग्रहण किया। प्रदीप में यह स्पष्ट रूप से व्याख्यात है। इस वार्तिक से तथा अन्य वक्ष्यमाण वार्तिक से 'सूर्यतिघ्यागस्त्य' इस सूत्र से विहित लोपविष् का परिगणन किया जाता है । 'सूर्यतिष्य' इस सूत्र में 'भस्य' तद्विते, हाति' इतने पदों की अनुवृत्ति होती है अतः इसका अर्थ होता है सूर्यादि के उपधाभूत यकार का लोप होता है इंकार तद्वित परे रहते । यह 'यलोप' परिगणितविष्य से अन्यत्र न हो अत: इन वार्तिकों का आरम्भ है। इनमें इस वाति का । 'मत्स्यस्य झ्याम्'। अर्थ है - 'मत्स्यशब्द ' के 'उपधाभूत यकार' का । 'डी' परे रहते ही हो, अन्यत्र नहीं। उदाहरण है 'मत्सी'। मत्स्य शब्द गौरादित्वात्' डीप' तदनन्तर इस वार्तिक से 'यलोप' । परिगणन कर दे से 'मत्स्यस्यायं' इप्त अर्थ में 'मात्स्यः इस प्रयोग में 'यलोप' नहीं होता है प्रवसुरस्योकाराकारलोपश्च 'पड्गोश्च 2 इस सूत्र में यह वार्तिक वार्तिकार ने, पढ़ा है परन्तु भाष्य में यह उपलब्ध नहीं होता। इस वार्त्तिक से 'श्वसुर' शब्द से पुयोर 1. लघु सिद्धान्त कौमुदी, स्त्री प्रत्यय प्रकरणम्, पृष्ठ 1038. 2. Ascाध्यायी, 4/1/68. Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 214 'अ.' का विधान तथा श्वसुर शब्द के 'उकार 'एवं 'ॐकार' का लोप विधान करता है। यह जो 'अकार' के लोप का विधान है वह सन्निहित होने से 'अन्त्य ॐ कार" का ही लोप होगा 'ITE अकार' का नहीं। अतएव 'वसुर: प्रववा' यह निर्देश सहगत होता है / इसका उदाहरण है - श्वसुर की स्त्री वसुर: स्त्री। 'श्वभूः' / 'श्वसुर' शब्द से 'ह' करने पर 'अन्त्य अकार' का तथा 'मध्य उकार' का लोप करने पर 'श्वभूः' यह प्रयोग बनता है / 'उहन्त' प्रवधू शब्द यद्यपि अप्रातिपदिक है तथापि 'श्वसुरः श्ववा' इस निर्देश से विभक्त्या दि की उत्पत्ति हो जायेगी ऐसा हरदत्त' का मत है / प्रातिपदिकग्रहणे लिङ्गविशिष्टस्यापि ग्रहणम्' इसके द्वारा भी विभक्त्यादि कार्य हो जायेंगे ऐसा भी समाधान किया जाता है / . वस्तुतः यह वार्तिक अपूर्ववचन नहीं है तथापि 'श्वसुरः श्ववा' इस निर्देश से सिद्ध अर्ध का अनुवादमात्र ही है। ऐसा न्यास एवं मनोरमा में स्पष्ट उल्लेख है। 'इया प्रातिपदिकात्' इस सूत्र के भाष्य से यह प्रतीत होता है कि --------- 1. 'श्वशरः श्वश्रवा' इत्यादिनिपातनाद्विभक्त्यादिप्रातिपदिककार्य भवति / पदम जरी, 4/1/68. 2. अयं तु 'श्वशुर : श्वश्रवा' इतिनियतनादेव सिदइति न वक्तव्यः / न्यास, 4/1/68. 3. एतच्च 'श्वशुर श्ववा' इति निर्देश सिद्वार्थकथमपरम् / प्रोट मनोरमा, स्त्रीप्रत्ययप्रकरणम् /