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दत्तादि नामयों की 'वृद्धि' संज्ञा करके 'वृदा' से 'धू' होकर 'देवदत्तीयः तथा विकल्प पक्ष में 'अणु' कर के 'देवदत्तः' दो रूपों की निष्पत्ति की जाती है।
अव्यानां भ-मात्रे टि लोप:2
'नस्तद्विते सूत्र व्याख्यान में भाष्यकार ने 'अव्ययाना च सायम्प्रातिकार्थम्' इस वार्तिक का उल्लेख किया है । 'भस्य' का अधिकार होने से अव्ययों की 'भ' संज्ञा होने पर 'टि ' लोप होता है अत: सायम्रातिकः, पौनपुनिकः इत्यादि स्थनों में 'टि' लोप सिद्ध है । उक्त उदाहरणों में 'कालाद." से 'ठ,' प्रत्यय होता है । वार्तिक में सायंप्रातिकाद्यर्थम् आदि शब्द प्रकार में - है। अतः जहाँ भी 'fe ' लोप दर्शन हो वे सायनातिका दि है वहीं पर 'टि'
लोप इस वार्तिक से होता है । अतः 'रातीयः इत्यादि स्थलों में अव्यय होने पर भी 'टि' लोप नहीं होता । लघु सिद्धान्त कौमुदीकार वरदराज जी
1. अष्टाध्यायी 4/2/1/114. 2. लघु सिद्धान्त कौमुदी, तद्धित प्रत्यय प्रकरणम्, पृष्ठ 931. 3. अष्टाध्यायी 6/4/44. ५. वही, 4/3/11.
5. आदिशाब्दः प्रकारेटिलोपदर्शनेन च साश्यमाश्रीयत इति, आरातीयः शाश्व
तिमः इत्यत्र च टि लोपा भावः । - प्रदीप 6/4/144.