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टीका प्रक्रियाप्रकाश में स्पष्ट है । इस मत का कौमुदीकार ने मनोरमा ग्रन्थ में उपस्थापन कर दूषित कर दिया है। उनका कहना है कि इस वार्तिक में 'तज्वद' भाव शब्द से 'तृत्वत् क्रोष्टु: ' सूत्र से विहित 'तृज्वद भाव' न लेकर 'विभाषा तृतीयादिषु' इस सूत्र से विहित ही लिया जाए। इसमें कोई प्रमाण नहीं भाष्यकारीय उदाहरण के बल से वार्तिक के अर्थ में संकोच करना उचित नहीं है क्योंकि उदाहरणों में उतना आदर नहीं दिखाया जाता है। दूसरी बात यह है कि उक्त वार्तिक में 'विभाषा तृतीयादिषु' सूत्र विहित वैकल्पिक 'तृज्वद भाव ' मात्र ग्रहण करने से वार्तिक में 'तृज्वद् भाव' ग्रहण करना ही व्यर्थ हो जाएगा। 'तज्वत् भाव' के वैकल्पिक होने से 'तदाभाव' प६में 'पूर्वविप्रतिषेध' के बिना ही 'प्रिय क्रोडटूने' इत्यादि प्रयोगों की तिदि हो जाएगी। 'प्रियक्रोष्टू' इत्या दि के वारण के लिए भी 'पूर्व विप्रतिषेध' की आवश्यकता नहीं है । प्रिय क्रोष्टू आदि शब्दों के भाधित पुस्क के होने के कारण 'तृतीयादिषु भाषित पुस्कं पुग्वदालवस्य' इति पुग्वद् भाव पढ़ा में प्रिय क्रोष्ट्र' यह रूप दुवार है । तस्मात् 'तृत्वद भाव' मात्र विष्य क ही यह पूर्व विप्रतिरोध प्रतिपादक वार्तिक है । अतः 'नुम्' के द्वारा उभय सूत्र से विहित 'तज्वद भाव' बाधित होता है । अतः मना - रमाकार के मतानुसार 'प्रियक्रोष्टुनि' यही रूप होता है । नागेश ने भी लघु शाब्देन्दु शेखार में मनोरमा कार के मत का ही समर्थन किया है । इस वार्तिक से बाधित पूर्व विप्रतिषेध अपूर्व या वाचनिक नहीं है । अपितु 'विप्रतिषेधे प्ररं कार्यम्'
1. #SC Tध्यायी, 7/1/14.