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इत्यादि प्रयोग में 'तज्वभाव' के करने अथवा न करने पर भी नुम् की प्रप्त क्ति है अतः कृताकृत प्रसंग होने से 'नुम्' नित्य है । अत: 'नित्य त्वादेव नुम्' से ' 'तज्वद भाव' का बाधा हो जाएगा। उसके लिए पूर्व विप्रतिषेधात्' व्यर्थ है ।
दूसरी बात यह है कि 'नुम्' के नित्य होने के कारण 'नुम' और 'तृज्वदं भाव में तुल्य बनता न होने से पूर्वविप्रतिषेध अयुक्त है । इस शंका का समाधान देते हैं। जैसे - तृज्वदभाव के करने पर 'नुम्' की प्राप्ति होती है वैसे ही 'नुम्' करने पर भी 'यदागम' परिभाषा के बन से 'क्रोष्टून' नुम् ' विशिष्ट को भी क्रोष्टू ग्रहण से ग्रहीत होने के कारण तज्वद भाव' की प्राप्ति होगी। यहाँ निर्दिश्यमान परिभाषा की प्राप्ति नहीं है क्योंकि 'तृज्वत् 'क्रोष्टु: । सूत्र से कठी निर्देश नहीं है अतः 'नुम्' की तरह 'तज्वदभाव' भी नित्य हो जाता है। दोनों नित्यों की प्रसक्ति होने पर 'पूर्व विप्रतिषेध' युक्ति-युक्त है । अतः 'नुम' के द्वारा 'तज्वदभाव' के बाधन करने के लिए वातिकारम्भ आवश्यक है । यह शब्देन्दुशेजार में स्पष्ट है । भाष्यकार ने प्रथम उपस्थित जस् विभक्ति को छोड़कर डे. विभक्ति में कोष्टूने यह पूर्व विप्रतिषेध का उदाहरण दिया है । 'विभाषातृतीया दिष्वचि2 इप्त सूत्र से विहित तृज्वद भाव' का उदाहरण दिया है । 'तृज्वद क्रोष्टु: ' सूत्र से विहित तृम्वत् भाव का उदाहरण नहीं दिया है । इस अपाय से प्रक्रिया कौमुदी में 'प्रियक्रोष्टु नि 'यह उदाहरण दिया है। यह शय प्रक्रिया को मुदी की
1. अष्टाध्यायी 7/1/95. 2. वही, 7/1/97.