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मानव जाति विधाता की अनुपम कृति है और भाषा उस के लिए ईश का अमूल्य वरदान है । मूकं करोति वाचालम् ----- सुभाषित प्रसिद्ध है। शब्दों के समुदाय से वाक्य तदनन्तर भाषा की सष्टि होती है । व्याकरणशास्त्र भाषा का विवेचन करता है तथा साथ ही भाषा को शुद्ध रूप में बोलना, समझना और लिखना सिखाता है । व्याकरण का व्युत्पत्तिपरक अर्थ है - 'पदों की मीमासा करने वाला शास्त्र ।- "व्याक्रियन्ते शब्दा अनेनेति व्याकरणम्" अET "व्याक्रियन्ते विविच्यन्ते प्रकृतिप्रत्ययादयो नेन अस्मिन् वा तदव्याकरणम् वि + आइ. + कृ + ल्युदा । . प्रकृति और प्रत्यय के विवेचन द्वारा यह किसी भाषा के टुकड़े-टुकड़े करके उसके ठीक स्वरूप को हमारे सामने दशाता है। भर्तहरि का स्पष्ट उल्लेख है - "साधुत्वज्ञानविषया सैषा व्याकरण स्मृतिः - वाक्यपदीया यह शुद्र और अशुद्र प्रयोग का ज्ञान कराता है । इस प्रकार किसी भी भाषा के सम्यक् ज्ञान के लिए व्याकरणशास्त्र का जान परमावश्यक है । करणीय-अकरणीय प्रयोगों का ज्ञान कराने के कारण वह शास्त्र
कहा जाता है।
हमारे प्राचीन अधियों ने व्याकरण की उपयोगिता का प्रतिपादन बड़े ही गम्भीर शब्दों में किया है । ज्ञान-विज्ञान के अEFय भाडार हमारी वैदिक संहिताओं में व्याकरणास्त्र की प्रक्षिा में अनेक मंत्र विभिन्न स्थलों में बिखरे पड़े हैं । ऋग्वेद के एक महत्त्वपूर्ण मंत्र में शब्द शास्त्र अधात व्याकरण का 'वृषभ से रूपक बांधा गया है जिसके द्वारा व्याकरण ही कामों अर्थात इच्छा तुष्टि करने के कारण 'कृषभ' . नाम से सकेतित किया गया है। उपर्युक्त 'वृषभ' के चार सींग हैं :- I. नाम, 2. अध्यात क्रिया।, 3. उपसर्ग एवम् 4. निपात । इसके तीन पाद हैं -