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आत्म-निवेदन
आदि मानव ने इस वसुन्धरा के स्वर्णिम क्षितिज पर जब नेत्रोन्मीलन किया, तो धरती ने उसे अपनी दुलार भरी गोद में उठा लिया, मृद समीर ने उसे झुलाया, मधुर-भाषी पक्षियों ने लोरिया गायीं, जिनके स्वर में उसने अपना स्वर मिलाया
और यहीं से भाषा की परस्पर आदान-प्रदान की Vडखला का सूत्रपात हुआ। भाषा के इसी ज्ञान-विज्ञान को शूदखला के शाश्वत सम्बन्ध के परिवेश में आज का विकसित चेतन प्राणी धरती से उठकर चन्द्रलोक तक की भाषा सम्झने लगा ।
हमारे देश में विभिन्न भाषाओं में विभिन्न वाइमय विद्यमान हैं। भारतीय मनीषा सभी वाडमय का हृदय से सम्मान करती है । अपनी सामथ्यानुसार सभी मानव-जाति के कल्याण के प्रति सचेष्ट है किन्तु स्वदेश की सीमा से बाहर विश्वबन्धुत्व एवं समूची मानव जाति की जो सेवा, सभी भाषाओं की आदि जननी संस्कृत भाषा ने किया है तदवत् किसी भाषा ने नहीं। जीव से ब्रह्म बनाने की क्षमता का विकास संस्कृत भाषा में ही विहित है । संस्कृत भाषा के इसी विशिष्ट गुणों के कारण मेरी दा इस भाषा के सम्पर्क में आने के कारण प्रगाढ हुई। किसी भाषा के साधु एवम् असाधु स्वरूप के नीर-क्षीर विवेक के लिए उप्त भाषा के व्याकरण का क्रमबद्ध ज्ञान परमावश्यक होता है । संस्कृत के निगूट तत्त्वों को समझने के लिए तो व्याकरणशास्त्र का अध्ययन और भी अपेक्षित है, इस लिए पूर्व कक्षाओं में मेरे प्रदेय गुस्खनों के द्वारा पाणिनीय प्रवेशाय लघुसिद्धान्त को मुदीम्' का जो अहकुर मेरे जिज्ञासु मन में फूटा था। प्रस्तुत गोध-प्रबन्ध उसी का पल्लवित, पुष्पित एवम् फलित रूप ..