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करने के लिए 'सर्वनाम्नो वृत्तिमात्रे पुंवंदभावः ' करना चाहिए । 'स्त्रिया: पुंवंद भाषित पुस्कादनूड. समानाधिकरणे स्त्रियाम्पूरणी प्रियादिषु' इस सूत्र से 'पुवंदभाव' समानाधिकरण उत्तरपद में ही होता है और भी जब 'पूर्वा दि 'शब्द' दिशावाचक होंगे तब उनके 'भाषितपुस्क' न होने से 'दक्षिणपूर्वा' इत्यादि में भी 'स्त्रिया: पुवंद भा पित् पुस्कादतूड़ समानाधिकरणे स्त्रियामपूरणी प्रियादिषु' से 'पुवभाव' के अप्राप्त होने से 'तद्विधानार्थ' भी यह आवश्यक है । यद्यपि 'पू िदि शब्द' 'पुल्लिङ्ग' तथा 'स्त्रो लिङग' जैसे -पूर्वा दिक' पूर्वोदेशे आदि । तथापि 'दिग्वाचक' पूर्वादि' शब्द भाषित 'पुस्क नहीं है । जिस अर्थ को 'प्रवृत्तिनिमित्त बनाकर जो शब्द स्त्री लिङ्ग में विद्यमान हो उसी अर्थ को प्रवृत्तिीमित्त बनाकर यदि वह 'पुल्लिंग' में विद्यमान हो तो वह 'भाषितपुंस्क' कहलाता है । 'दिग्वाची पूर्वादि' शब्द जिस शब्द को लेकर स्त्री लिङ्ग में विद्यमान है उसी अर्थ को लेकर 'पुल्लिङ्ग' में कभी न ही प्रयुक्त होते हैं इसलिए वे 'भाषित पुंस्क' नहीं हैं। यह सब 'दिइनामान्यन्तरराले' के सूत्र भाष्य में स्पष्ट है । इस प्रकार 'समानाधिकरणोत्तरपद ' के अभाव में 'अभाषित पुस्क' को भी 'वभावार्थ सर्वनाम्नो पुवंदभावो वृत्तिमात्रे पुंवदभाव' वचन है। न्यासकार ने तो 'स्त्रिया: पुंवंद भाषित् पुंस्कादनूड. समानाधिकरणे स्त्रियामपूरणी प्रिया दिषु' इस सूत्र में 'स्त्रिया: ' पुंवद् इस वचन के द्वारा सिद्ध किया है ।।
।. स पुनः 'स्त्रियाः पुंवत्' इति योग विभाग से सिद्ध है। - न्यास 2/2/26.