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पृथु-मृदु-मृश कृशश-दृढ परिवृद्धानामेवर त्वम्
'रमतो हलादेलघो: 2 इस सूत्र की व्याख्या भाष्यकार ने 'एव तहि परिगणनं क्रियते' यह कहकर उक्त परिगणा वार्तिक का उल्लेख किया है । उक्त सूत्र के विषय को 'परिगणन' इस वार्तिक में किया गया है । उक्त सूत्र में किया जाने वाला 'र' भाव 'पृथु' आदि शब्दों का ही होगा। जैसे - प्रथिमा, प्रदिमा इत्यादि । परिगणन से ही 'कृतमाचष्टे कृतयति' में 'र' भा नहीं होगा, नहीं तो 'कृतयति' में 'इष्ठवभाव' से 'रभाव प्रथयति' के सदशा होने लगता । इत्यादि विष्य भाष्य में स्पष्ट किया गया है ।
गुण वचनेभ्यो मतुपोलु गिष्ट:
'तदस्यास्पयस्मिन्नतिमतुप्"' सूत्र भाष्य में इस वार्तिक का पाठ है 'गुण' और 'तद्वान्' द्रव्य में अभिन्न रूप से लोक में 'प्रयुज्यमान शुक्लादि' शब्द ही यहाँ 'गुण' वचन शब्द से ग्रहण किए गए हैं न कि 'गुणमात्र वाची रूपादिको का ग्रहण होता है । अतः वार्तिक में वचन ग्रहण किया है । अतः उक्त निय
1. लघु सिद्धान्त कौमुदी, तद्धित प्रकरणम्, पृष्ठ 970. 2. अष्टाध्यायी, 6/4/161.
3. लघु सिद्धान्त को मुदी, तद्वित प्रकरणम् , पृष्ठ 986. 4. अष्टाध्यायी, 5/2/94.