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बोधिनी में इनका स्पष्टीकरण है । 'रात्रावाहा: 'पुंसि' इस सूत्र से 'पुंसव' के प्राप्त होने पर 'क्लीबत्व विधानार्थ' यह वार्तिक है । 'संख्या पूर्व रात्रम्' इस वचन में 'रात्रं' यह 'कृतसमासान्त' का निर्देश है । द्विरात्र, त्रिरात्रं इन दोनों उदाहरणों में 'द्वय रात्रयोः समाहारः, द्विरात्र, तिसृणां रात्रीणां समाहार: त्रिरात्रमिति । समाहार द्विगु समाप्त हैं । 'अहस्सर्वैकदेशसंख्यात् पुण्याच्चरात्रे:' इस सूत्र से समासान्त अचू है । व्रत्तिकार ने तो 'रात्राना : पुंसि ' में द्विरात्र:, त्रिरात्रः ये दोनों पुंलिंग में ही उदाहरण दिये हैं । 'द्विरात्र' इत्या वृत्ति के उदाहरण 'समाहार द्विगु' में न्यास और पदम जरीकार द्वारा व्याख्यात है ।
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द्विगुप्राप्तान्नाम्पूर्वं गति समासेषु प्रतिषेधो वाच्यः'
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'परवल्लिद्ग द्वन्द्वतत्पुरुषयोः सूत्र के भाष्य में 'परवल्लिद्ग द्वन्द्वतत्पुरु ष्योरिति चेत्प्राप्तापन्नानं पूर्वमिति समासेषु प्रतिषेधः ' यह वार्त्तिक पढ़ा गया है । यह वार्त्तिक 'परवल्लिड्ग' सूत्र से विहित 'परवल्लिग' का प्रतिषेध करता है । इस लिए 'द्विगुप्राप्तापन्ना पूर्वक गतिसमास' में 'प्राधानार्थं प्रयुक्त' ही लिड्ग होगा न कि 'परवल्लिडग' होगा । द्विगु का उदाहरण है - 'प चसु कपालेषु संस्कृत: । पुरोडाश: । प चकपालः इति । यहाँ पर ' तद्वितार्थ' में
1. अष्टाध्यायी, 2/2/18.
2. लघु सिद्धान्तकौमुदी, तत्पुरुष समास, प्रकरणम्, पृष्ठ 860. 3. अष्टाध्यायी 2/4/26.