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जायगी। इस प्रकार यह अर्थ शब्द से समास नहीं हुआT अपितु यहाँ पर 'सर्थप्' प्रत्यय जानना चाहिए जबकि प्रत्यय से विग्रह नहीं होता । 'सर्थम् ' प्रत्यय में 'सकार' की 'आदिति' दुडवष्यप्रत्ययस्य ' इस संहिता पाठ में 'सकार' का भी 'प्रश्लेष्ण' करके 'इत्संज्ञा' हो जायगी । 'सि त्करण राजामिक्ष्यादि' में 'तिति च' पद त्व के लिए होगा जिससे 'नजोपादि' की सिद्धि होगी। यह एक प्रत्याख्यान प्रकार है लेकिन इस रीति से प्रत्यर्थम्, भ्वर्थम् इत्यादि में 'सर्थम् ' प्रत्यय मा नकर 'इयडुवइ.' प्राप्त होते हैं। इसलिए अन्य प्रकार से भी भाष्यकार ने खण्डन किया है । वह इस प्रकार है - 'ब्राह्मणार्थ ' इत्यादि में 'तत्पुरुष' नहीं है। बहुब्री हि यद्यपि वैकल्पिक है तथापि 'समुखः ', इत्यादि में 'स्वपदविग्रह' भी होता है । यह पर विग्रह है 'शोभनं मुखं यस्य' 'शोमन' पद से और समास 'सु' पद से। इसी प्रकार अर्थ शब्द के साथ भी 'अस्वपद' विग्रह बहुव्रीहि हो जाएगा। इसलिए 'ब्राह्मणाय अर्थो यस्य' यह विग्रह नहीं है । 'ब्राह्मणोऽयों यस्य ' यह 'समानाधिकरण' विग्रह तो होता है। वहाँ पर अर्थ शब्द 'प्रयोजन वाची' है । 'ब्राह्मणा दि उपकार्य' होने से प्रयोजन है। इस प्रकार से 'ब्राह्मणार्थः सूपः ब्राह्मणाय यवागू' इत्यादि में अर्थ से समासे और 'सर्व लिहुगता के सिद्ध होने पर 'तदर्थ ' उक्त वार्तिक द्वय को प्रारम्भ नहीं करना चाहिए । लेकिन बहुब्री हि स्वीकार करने पर 'महद' इत्यादि में भी 'महान् अधों यस्य' यह 'समानाधिकरण' बहुव्रीहि ही कहना चाहिए । तो फिर 'आन्महतः समानाधिकरण जातीययो: ' से 'त्वापत्ति' होगी और 'बहुव्रीहि लक्षण समासान्त 1. अष्टाध्यायी 6:/3/46