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अर्थेन नि त्यसमासो विशेष्य लिङगता चेति वक्तव्यम्
'चतुर्थी तदर्धार्थबालि हितसुखारक्षित' सूत्र के भाष्य में 'अर्थेन नित्यसमाप्तवचनं' सर्व लिङ्गताच यह दोनों वार्तिक पठित हैं। वहाँ पर 'सर्व लिइंगतो' का ही अनुवाद 'विशेष्य लिद्गता' है । चतुर्थी तदर्थार्थ' सूत्र से 'चतुर्थ्यन्त' से अर्थ के बन से समास होता है लेकिन वह समास महा विभाषा:। के अधिकार में होने से विकल्प से प्राप्त होता है। उत्त के नित्य विधान के लिए प्रथम वार्तिक है । इसलिए 'ब्राह्मणार्थमित्या दि' में 'ब्राह्मणायेदमिति' 'अस्वपद' से ही विग्रह हुआ न कि अर्थ पद से । 'अविग्रह' अथवा 'अस्वपद विग्रह' नित्य समास कहलाता है। इस लिए भाष्यकार ने कहा है 'सर्वथा धन नित्य समासो वक्तव्यः विग्रहो माभूदिति' । इस प्रकार अर्थ शब्द नित्य पुल्लिङ्ग होने के कारण और तत्पुरुष के उत्तरपदप्रधान होने से अक्षाब्दान्त तत्पुसा के नित्य पुल्लिङ्ग प्राप्त होने पर 'विशेषा लिइगता कहनी चाहिए । यह दूसरे वार्तिक का अर्थ है । जैसे - ब्राह्म णार्थ पयः ब्राह्मणार्थ सूपः, ब्राह्मणार्ध यवागूरिति । यह दोनों वार्तिक की भाष्यकार ने अनेक प्रकार से खण्डन किया है। जैसे – 'तदर्थ विकृतेः प्रकृतौ ' ५ इस सूत्र में 'तदर्थे सर्थम् ' यह न्यास करते हैं इसके बाद 'विकृते प्रकृतौ' । 'तदर्थ सम्' इससे 'तदर्थ' में 'सर्थम्' प्रत्यय होता उससे 'ब्राह्मणार्थ' इसकी सिदी हो
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1. लघु सिद्धान्त कौमुदी, तत्पुरुष समाप्त प्रकरणम्, पृष्ठ 836. 2. अष्टाध्यायी, 2/1/36. 3. वही, महाभाष्य, 2/1/35. 4. अष्टाध्यायी, 5/1/2.