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स्पष्ट है । वस्तुतः 'यणः प्रतिधो वाच्यः ' संयोगा दि लोप विष्यक वार्तिक भी प्रकारान्तर से सिद्ध लोपभाव का अनुवादक मात्र है कोई अपूर्व वचन नहीं है । इसी लिए मनोरमा कार ने वाच्यः का अर्थ'व्याख्येयः ' ऐसा कहा है । वार्तिककार ने भी संयोगान्त यण लोप के निषेध के लिए अपूर्व वचन की जगह पर उपायान्तर का भी प्रदर्शन किया है जैसे - 'नवाइलोलोपात् विधाना बहिरङ्गलक्षणत्वाद वा' इन दो वार्तिकों से संयोगान्त लोप का प्रतिधाक हो जाता है । भाष्यकार ने भी इन दोनों दार्तिकों के व्याख्यान में स्पष्ट सप से कहा है कि 'यणः प्रतिधो वाच्यः' इस अपूर्व वचन की आवश्यकता नहीं है क्योंकि 'संयोगान्तस्य लोपः ' 'संयोगान्त झाल' का ही लोप करता है । यण् झल के बाहर है अत: उसका लोप नहीं हो सकता । महावैयया करण कैय्यट' के मतानुसार बालू ग्रहण का सम्बन्ध संयोगादि लोप तथा संयोगान्त लोप दोनों में होता है । अन्तर इतना है कि 'बाल: यह पद 'संयोगान्त लोप' में 'ठयन्त' होकर तथा 'संयोगा दिलोप' में 'पञ्चम्यन्त' रूप से सम्बद्ध होता है किन्तु नागेश म के मतानुसार 'झल ' ग्रहण का ---------- 1. न वेति । झालोझाली त्यत: सिंहावलोकित न्यायेन झल्ग्रहणमिहाऽनुवर्तते । तत्
कठया विपरणम्यत इति यगोलोंपाभावः । 'स्को: संयोगाद्योरि त्यत्र तु प चम्यन्तमेव सम्बध्यते, तेन झाल : पूर्वयो: स्कोलौंप विधानाधणः पूर्वयोलोपाडभावः ।।
महाभाष्य प्रदीप 8/2/23.
2. वस्तुतस्तु झाल्ग्रहणस्य संयोगान्तलीप सूत्र एव सम्बन्धो न तु स्कोरित्यत्र 'झालोलोप: संयोगान्ततोप' इति भाष्य स्वरसा दित्याहुः '
महाभाष्य उद्योत 8/2/23.