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'क्रोष्टूना' इस प्रयोग में दोनों की प्राप्ति होने पर पूर्व विप्रतिषेधे से नुद होता है। इस प्रकार 'त्रपूणां' त्रिसूणाम् कोष्टूनाम् आदि इप्स वार्तिक के उदाहरण माने जाने चाहिए ।
अब शांका करते हैं कि क्रोष्टूनाम' इस स्थन में तृज्वद भाव करने पर भी 'इस्वनद्यापोनुट्'' इस सूत्र से 'नु' की प्राप्ति होती है तथा उसके 'नक करने पर भी वह प्राप्त होता है । अतः 'नुद' नित्य हो जाता है। तृज्वद भाव तो 'नुः ' करने के बाद 'अजादित्व' के अभाव से अप्राप्त होता है । अत: वह अनित्य है । इस स्थिति में नित्य और अनित्य 'नुद' और तृज्वद भाव के रहने पर विप्रतिषेध कैसे हो सकता है क्योंकि तुल्यबन में ही विप्रतिषेध का होना उचित होता है । नुद तो अनित्य होने से अधिक बन है । इस शंका का समाधान करते हैं कि तज्वद् भाव के कर देने पर सन्निपात परिभाषा के विरोध से नुद प्राप्त नहीं होता अतः नुद भी अनित्य हो जाता है । इस लिए समबन होने से. विप्रतिरोध का होना समुचित है । इस पर भी विप्रतिषेध को अयुक्त सिद्ध कर रहे हैं। क्योंकि 'र' आदेश प्राध्य सामान्य चित्त पक्ष के अनुसार गुण दीर्घ और 'उत्व' के समान नुद का भी अपवाद है । अर्थात स्व-विष्य में जो जो प्राप्त हो वह सब बाध्य सामान्य चिन्ता से 'र' आदेश से बाधित होगा। जैसे 'तिस्त्र: ' इत्यादि स्थन में 'गुण दीघा दिक'' बाधित होते हैं। इस
1. अष्टाध्यायी 7/1/54.