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अनुनासिक का विधान होता है । 'वाग्नयति वाइनयति' उसी प्राप्त 'अनुनासिक' को इस वार्तिक के द्वारा 'अनुनासिका दि' प्रत्यय परे रहते 'नित्यत्व' का विधान किया जाता है । अनुना सिकादि प्रत्यय परे रहते पदान्त पर को नित्य अनुनासिक होता है । यह वार्तिक का अर्थ है । 'वाइम्य त्वडम्य ' यह इप्स के उदाहरण है । यही उदाहरण काशिका में भी दिया गया है । 'वाइम्य' इस प्रयोग में 'नित्य वृद्धि' 'शरा दिभ्यः '' इससे 'मयद् ' प्रत्यय हुआ है । 'त्वमय' इस प्रयोग में 'मय वैतयो भाषायां याच्छादनयो: ' इस सूत्र से 'मयद' प्रत्यय हुअा है । यहाँ पर नित्य अनुनासिक होकर 'वाइम्य' यही प्रयोग साधु है । लघु सिद्धान्त कौमुदी में आचार्य वरदराज ने 'तन्मात्र चिन्मयं' यही वार्तिक का उदाहरण दिया है । 'तन्मात्र' इस 'प्रयोग प्रयोग द्वेषजदधनमात्र च' इप्त सूत्र से 'मात्रच्' प्रत्यय हुआ है । 'चिन्मयं' इस प्रयोग में तत् प्रकृत वचने 'मयट' इप्त सूत्र से स्वार्थिक 'मयद ' प्रत्यय हुआ है । चिदेव चिन्मय' यह विग्रह है । इस सूत्र में तत् इतना वाक्य भेदेन व्याख्यान करके कहीं-कहीं प्रादुर्य वचन के अभाव में भी स्वार्थ में मयट् ' होता है । अतएव 'चिन्मयं ब्रह्म' इस प्रयोग में 'समानाधिकारण्य देखा जाता है । यह लखाब्देन्दु शेलार में स्पष्ट है । प्रक्रिया कौमुदी
1. यत्तु प्राचा मयटि नित्यमिति पठितम्, यच्च हलन्त प्रकरणे षण्णा, अहणा मि
त्युदाहृतम् , यच्च 'यरो नुनासिक: ' इति वाइननासिक इति तत्र व्याख्यातं तत्सर्व भाष्य विरोधादुपेक्ष्यम् । -मनोरमा हल्सन्धि प्रकरणम्, पृष्ठ 196.