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लोप कर सकते हैं । तथापि 'प्राच्य भरत गोत्र' से 'अन्यत्र लुक्' की प्रवृत्ति न होने से 'इ,' प्रत्यय का लोप होना दुष्कर है । अतः 'उडलोमा: ' इत्यादि रूप निष्पत्ति के लिए 'ॐ कार ' प्रत्यय का विधान आवश्यक है । प्रदीपोधोतकार भी इस पक्ष से सहमत हैं ।
राज्ञो जातावेवेति वाच्यम्
'राजश्वशुराधत्'2 इस सूत्र व्याख्यान में भाष्यकार ने 'राज्ञा पत्ये जाति गृह्णम्' वार्तिक का उल्लेख किया है । 'जाति वाच्य' होने पर ही 'राजन्' शब्द से 'यत्' प्रत्यय होता है । अत: 'राज्ञो पत्यं जाति: ' इस विग्रह में 'राजन्यः' रूप निष्पन्न होता है। यहाँ प्रकृति प्रत्यय समुदाय से क्षत्रिय जाति वाच्य होने पर 'राजन् ' शब्द से 'अपत्य' अर्थ में 'यत्' प्रत्यय होता है। प्रकृति प्रत्यय समुदाय से ही उस स्थन में क्षत्रिय जाति कही गई है । परन्तु प्रत्यय 'अपत्य' अर्थ में ही है । अतः प्रत्यय से 'अपत्य' ही 'गम्यमान' होगा। उपर्युक्त विवरण तत्त्वबोधिनी में स्पष्ट है । यदि 'राजन् ' शब्द से 'अपत्यं मात्र' विवक्षिात है न कि क्षात्रिय जाति तो 'अण्' प्रत्यय होकर 'राजनः' रूप बनेगा इस सन्दर्भ में कैयट ने भी कहा है - यदि प्रकृति प्रत्यय समुदाय से जाति का भान हो तो प्रत्यय होता है अन्यथा नहीं। अत: क्षत्रिय जाति का
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1. लघु सिद्धान्त कौमुदी, अपत्याधिकार प्रकरणम्, पृष्ठ 899. 2. अष्टाध्यायी 4/1/137.