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है । अत: 'पालकान्त गोपा लि का' के सदृश 'पशुपा लिका' इत्यादि स्थन में डीष' होता है । इसी अभिप्राय के लघु सिद्धान्तकौमुदी कार ने 'पालकान्तान्न' यह वार्तिक का स्वरूप दिया है । भाष्यदृष्टि से यह वार्तिक वाचनिक है । न्यासकार के अनुसार 'वोतोगुणवचनात्' से 'वा' की अनुवृत्ति कर 'व्यवस्थितविभाषायण' से यह साधित है ।
सूर्याद देवतायां चावाच्यः ।
'योगादाख्यायाम इस सूत्र में 'सूयांददेवतायां चाऽवक्तव्यः ' यह भाष्यवाक्य है । यह वचन उक्त सूत्र से प्राप्त 'डोष' प्रत्यय को बाधकर 'पुयोग' में चाप्' का विधान करता है । यह 'चाप्' देवता वाच्य' रहने पर ही होता है। इसका उदाहरण है सूर्य की स्त्री देवता सूर्या । देवता कहने से फन यह हुआ कि जहाँ सूर्य की स्त्री 'मानुषी' है वहाँ 'डीप' होगा । जैसे सूर्य की स्त्री सूरी, कुन्ती । यहाँ सूर्यशब्द से 'डी' प्रत्यय है एवं 'सूर्यतिष्यागस्त्य' इससे यलोप किया गया है।
यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि 'सूदिदेवतायां न' ऐसा ही वार्तिक का विधान क्यों नहीं किया क्योंकि जब इस वार्तिक से 'डी' का प्रतिषेध हो जायेगा तो 'मदन्ताक्षण टाप्' प्रत्यय करके भी सूर्या बन ही जायेगा'याप्' का विधान का तथा फल है १ इसके प्रत्युत्तर में यह कहा गया है कि अन्तोदात्त
1. लघु सिद्धान्त कौमुदी, स्त्री प्रत्यय प्रकरणम्, पृष्ठ 1035. 2. AKध्यायी 4/1/8.