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'इदमो न्वादेशे शनुदात्तस्तृतीयादौ " इत्यादि सूत्र से अन्वादेश की अनुव्रत्ति आती है । 'द्वितीया' इत्यादि सूत्र और यह वार्त्तिक यह दोनों अन्वादेश में ही प्रवृत्त होते हैं । इसका उदाहरण है 'कुण्डमानय एनत् प्रक्षालन' । यहाँ पर उक्त वार्तिक के न रहने से 'द्वितीया' इत्यादि सूत्र से 'एन्' आदेश ही होता है 'एनत्' नहीं हो पाता । अतः वार्तिक का आरम्भ करना आवश्यक है। यहाँ पर ' स्वमोर्नपुंसकात्' इस सूत्र से द्वितीया विभक्ति के 'लुकू' हो जाने पर भी प्रत्यय लक्षण द्वारा 'एनत्' आदेश होता है । 'न लुम्ताइस्य' यह निषेध अंग कार्य में ही होता है । 'एनत्' आदेश अंगाधिकार से बहिर्भूत है । अथवा 'एनद्' अ आदेश के विधानसामध्यति 'न लुमताडस्य' इस सूत्र की प्रवृत्ति नहीं होती है । यह 'नद' आदेश दितीया के एकवचन अंग विभक्ति परे रहते ही होता है । यद्यपि वार्तिक में सामान्येन एकवचन का ग्रहण किया गया है तथापि तृतीया विभक्ति के एकवचन में 'एनत्' आदेश का कोई फल नहीं है । 'एनद्' आदेश होने पर भी 'त्यदादीनाम:' इस सूत्र से 'अन्त्य तकार' को 'अकार हो जाने से 'एनत्'
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ऐसा श्रवण नहीं हो पाएगा अपितु 'एन' का ही श्रवण हो पाएगा । ऐसी
स्थिति में
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सूत्र के द्वारा ही 'एनदादेश' करने से ही कार्य सिद्ध हो जाएगा ।
1. अष्टाध्यायी 2/4/320
कौमुदीकार के मतानुसार 'द्वितीया: दो: स्वेन : ' इस सूत्र में ही 'एन्' के स्थान पर 'एन' कहना चाहिए । सर्वत्र 'एनत्' ही आदेश करना चाहिए । उस 'एनत्' आदेश को नपुंसक द्वितीया के एकवचन के अतिरिक्त द्वितीयादि में