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तथा पि 'सम्बुध्यन्तानामतमातोराजन् वृन्दारक' इत्यादि उत्तरवर्ती वा क्यों के द्वारा 'सम्बुद्धि' में उत्तर पद का अभाव भी स्पष्ट रूप से कहा गया है । इसी आशय से दी क्षितिजी ने प्रकृत वार्तिक से 'सम्बुद्धि' रहित पाठ किया है । यह वाक्य 'नडि. सम्बुद्धयो अनुत्तरपदे ' इस वार्तिक में पठित 'अनुत्तरपदे' चर्मतिल: राजन् वृन्दार राजवृन्दारक , ये सब वार्तिक के उदाहरण हैं। प्रथम उदाहरण में प्रत्यय लक्षण के द्वारा 'डि. परत्व' मानकर 'न डि. सम्बुध्यो ' इस सूत्र के द्वारा 'न' लोप का प्रति प्राप्त था । 'अनुत्तरपदे' इस वचन से नहीं हुआ। तदनन्तर 'प्रत्यय लक्षणेन सुबन्त' मानकर 'पद त्वात् न लोप: ' प्रातिपदिकान्तस्य 'इस सूत्र से न का लोप होता है । द्वितीय उदाहरण में 'राजन् ' और 'वृन्दारक' दोनों 'सम्बुध्यन्तौ ' का समाप्त होता है। यहाँ भी प्रत्यय लक्षण से 'राजन' को 'सम्बुद्धि पर त्व' मानकर प्राप्त 'न' लोपे प्रतिषेध' को 'न लोप प्रतिषेध अनुत्तरपदे' इस वचन से नहीं होता है । 'चर्मणि तिल इत्यादि प्रयोग में 'डि. ' को तथा 'राजवृन्दारक' इस शब्द में 'सम्बुद्धि' को लुक' हुआ है । अतः 'न लुमताइगस्य '। इस सूत्र से प्रत्यय लक्षण के निध हो जाने पर 'डि. '
और 'तम्बुद्धि पर कत्त्व' न होने से 'न डि. सम्बुध्यो ' इस निषेध की प्राप्ति नहीं होती है । अतः 'तत्' वारणार्थ' वार्तिक में 'अनुत्तरपदे' यह व्यर्थ है। भाष्यकार ने भी कहा है कि 'अनुत्तरपदे' में यह नहीं कहना चाहिए क्योंकि 'डि. सम्बुद्धि परे न लोप' कहा गया है । 'डि. सम्बुद्धि' यहाँ नहीं है। .
I. ascाध्यायी ।/1/63. 2. महाभाष्य, 8/2/8.