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बनाया गया है तथा 'अक्षानां ऊहिनी' ऐसा विग्रह करके षष्ठीसमास 1 माना है । न्यासकार के मतानुसार 'अक्षाणां उहः सः अस्या अस्ति' इस प्रकार का विग्रह प्रदर्शित किया गया है । इस विग्रह से ऐसा लगता है कि 'अक्ष' शब्द का उह' शब्द से समास करके तदनन्तर 'णिनि' प्रत्यय किया गया है । इस प्रकार के व्याख्यान अन्य प्राचीन लोगों ने माना है किन्तु न्यासकारादि के व्याख्यान को मनोरमा ग्रन्थ में दीक्षित नी ने खण्डित कर दिया है । उनका कथन है कि इस प्रकार के विग्रह में 'अक्षौहिणी' यह प्रयोग साधु नहीं हो पाएगा, क्योंकि ऊहिनी शब्द परे रहते बृद्धि का विधान है । न्यासीय विग्रहमें 'अक्ष' शब्द का 'उह' शब्द से समाप्त कर देने पर 'इनि' प्रत्यय के उत्पत्ति पर्यन्त संहिता सन्धि रुक नहीं सकती है । अतः 'आद्गुणः ' सूत्र से गुण आवश्यक हो जाएगा । अक्षीहिणी यह रूप होन लगेगा । "अक्षादूहिन्याम्' इस वार्त्तिक के द्वारा गुण का बाध सम्भव नहीं है क्योंकि गुण के प्राप्तिकाल में ऊहिनी यह स्वरूप न होने से वृद्धि की प्राप्ति ही नहीं है । वृद्धि तो 'ऊहिनी' शब्द की निष्पत्ति के अनन्तर ही प्राप्त हो सकेगी। दूसरी बात यह है कि 'समर्थानां प्रथमादा' इस सूत्र के बल से सन्धि से निष्पन्न शब्दों से तद्वत प्रत्यय का विधान होता है । 'अ' ऊह इस शब्द से तद्वित प्रत्यय इनि का विधान नहीं हो सकता । यद्यपि वृद्धि गुण का अपवाद है फिर भी यदि अपवाद कहीं चरितार्थ होता है तो उपसर्ग के द्वारा बाँध लिया जाता है । 'अक्ष' शब्द के साथ जब 'ऊहिनी' शब्द का समास
अतः असन्धिक
1. अक्षाणामूह, तो स्यास्तीतिमत्वर्ध्य इनिः, 'अन्नेम्पोडीप्' इति ङीप् अक्षौहिणी'
न्यास 6/1/89.
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