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उत्पादन में सूत्र के प्रतिकूल चलती है ।
में " गहयां लडविधानानर्थक्यं क्रियासमाप्ति विवक्षितत्वात् । यहाँ पर कुछ क्रिय
माण को प्रेरित करती है । कुछ क्रियमाण का खण्डन । की चौथी विधि प्रदर्शित की गई है । कुछ वार्त्तिक सूत्र
सूत्र में असंग्रहय लक्षणों का संग्रह करती है ।
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करती है । चौथी विधि में आती हैं । यथा "समोग म्युच्छ्भ्यिाम्" " इस सूत्र में "केलि मर उपसंख्यानमिति । इस प्रकार की ही वार्त्तिकें पाणिनि के द्वारा अनुक्त उसी से नवीन विधान योजना के द्वारा, पाणिनि सूत्रों के द्वारा अन्वाख्यान शब्दों का साधुत्व अन्वाख्यान के द्वारा वस्तुतः पाणिनि व्याकरण उपकृत्य करती है । इस प्रकार से व्याख्यान, अन्वाख्यान, क्रियमाण, प्रत्याख्यान क्रियमाण विधानात्मक वचनों वाली वार्त्तिकों को संक्षेप में निकृष्ट वार्त्तिक स्वरूप कह सकते हैं । ये इस प्रकार के सभी वचन लक्ष्य में प्रवृत्ति अनुरूप स्थलों में "वृत्तो साधु वार्तिकमिति" वातिक पद की व्युत्पत्ति भी अनुस्यूत होती है । विष्णुधर्मोत्तरपुराण में कहा है कि वार्तिक का लक्षण यही है कि जो सूत्रार्थ को बढ़ावे । जैसा कि वहाँ पर प्रयोजन, संशय, निर्णय, व्याख्या विशेष, गुरु, लाघव, कृत्व्युदास और अकृतशासन आठ प्रकार वार्त्तिक के बताए गए हैं। इनमें से आदि की तीन विधियाँ अन्वा ख्यानात्मक हैं चौथी, प चमी और छठीं विधि व्याख्यानात्मिका है। सातवीं प्रत्याख्यानात्मिका और आठवीं अक्रियमाण की प्रेरिका है ।
गया
1. 3d reart, 4/1/1.
2. वही, 3/3/142
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यथा * गया लडपि जात्वोः - I
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इस सूत्र
इस प्रकार यह वार्त्तिकों
के द्वारा विहित कार्य
इस प्रकार की वार्त्तिकें