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भाष्य कैय्यट, हरदत्त, दीक्षित के रीति का पोषक ही है । नागेश का कहना है कि यदि 'एनष्क्रियते' इत्यादि भाष्य पूर्वपक्षी की उक्ति है । इस भाष्य का
शय यह है कि सब जगह 'एनदादेश' करने पर 'एनम्', एनौ, एनान्' इत्यादि प्रयोगों में 'त्यदादिनामः' के द्वारा ' त्व' नहीं हो सकता है क्योंकि 'एनदादेश' 'त्यदादिनामः ' का अपवाद है । 'द्वितीयातौस' इत्यादि सूत्र में विषय सप्तमी मानकर अपवाद का परिहार करना युक्त नहीं है क्योंकि विष्य सप्तमी मानने में कोई प्रमाण नहीं है । अतः 'एनम्' एनौ' इत्यादि की सिद्धि के लिए 'एनादेश' का विधान आवश्यक है । 'एनदादेश' का विधान 'नपुंसक द्वितीया' के एकवचन में ही होना चाहिए । यदि 'एनत् क्रियते' इत्यादि भाष्य पूर्वपक्षीय की उक्ति है । इस प्रकार जिस मत को दीक्षित जी ने मनोरमा में पूर्वपक्षरूप से उपन्यस्त किया है उसी को श्री नागेश ने सिद्धान्त सम्मत माना है। यह वार्तिक भी वाचनिक है ।
सम्बुद्धौ नपुंस कानां न लोपो वा वाच्यः ।
'नडि. सम्बुद्धयो: 2 इस सूत्र के भाष्य पर 'वा नपुंस कानां' यह वार्तिक पढ़ा गया है । नपुंसक के न का लोप विकल्प से होता है । यह वार्तिक का अर्थ है । यद्यपि 'वा नपुंसकानां' इतना ही वार्तिक का रूप भाष्य में देखा
1. लघु सिद्धान्त कौमुदी, हल्सन्धिप्रकरणम्, पृष्ठ 347. 2. अष्टाध्यायी, 8/2/8.