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जाता है । उसमें सम्बुद्धौ नहीं पढ़ा गया है । जतः 'नडि. समुबद्धौ सूत्र इस वार्तिक का पाठ होने के कारण 'डिं. ' और सम्बुद्धि उभय विषयक इसे
• ग्रहण के प्रत्याख्यान कर देने से सम्बुद्धि
अतएव 'सम्बुद्धौ नपुंसकाना '
इसका उदाहरण है - हे
होना चाहिए तथापि उक्त सूत्र में 'डि. मात्र विषयता वार्त्तिक को निर्धारित होती है । इत्यादि रूप से सिद्धान्त कौमुदी में पढ़ा गया है । चर्म हे चर्मन् है । 'न लुमताडस्य' इस निषेध के अनित्य होने से अप्रवृत्ति होती है । अतः प्रत्यय लक्षण से सम्बुद्धि परत्व मानकर 'न डि. सम्बुद्धौ ' इस सूत्र से 'न' लोप का निषेध प्राप्त होता है । इसके विकल्प के लिए यह वार्त्तिक आव श्यक है । 'न लुमताडस्य ' इस सूत्र के प्रवृत्ति पक्ष में भी 'प्रत्यय लक्षण के अभाव होने से 'सम्बुद्धि परत्व न होने पर 'न डि. सम्बुद्धौ' इस निषेध की प्राप्ति तब 'न लोपः प्रातिपदिकान्तस्य' इस सूत्र से नित्य ही न
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नहीं होती है ।
लोप प्राप्त होता है
।
उसके विकल्प के लिए यह वार्त्तिक आवश्यक है यह
उद्योत में स्पष्ट है 'न लुमताडस्य' इस सूत्र के दोनों पक्षों में यह वार्त्तिक करना चाहिए अन्यथा 'प्रत्यय लक्षण' निषेध पक्ष में नित्य ही न लोप प्राप्त होगा और 'प्रत्यय लक्षण' पक्ष में नित्य ही न लोपाभाव प्राप्त होगा किन्तु दोनों प्रयोगों हे चर्म, हे चर्मन् इष्ट है । इस लिए भाष्यकार ने कहा है 'वा नपुंसकाना" इस वार्त्तिक को पढ़ना चाहिए ।
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1. प्रत्यय लक्षणे सति नित्ये प्रतिषेधे प्राप्ते विकल्पार्थ प्रत्यय लक्षण प्रतिषेधे त्वप्राप्त प्रतिषेध वचनम् । - उद्योत 8/2/8.
2. महाभाष्य, 8/2/8.