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देवात्' ही पाठ है । 'देव' शब्द से 'तत्तत्समर्थ विभक्तयन्त' से 'प्राग्दीव्यतीय' अधों में 'कन अन प्रत्यय इस वार्तिक से किए जाते हैं । 'य' प्रत्यय होने पर 'दैव्यम्', अय' प्रत्यय होने पर 'दैवम्' इन दोनों शब्दों की निष्पत्ति होती है।
बहिषष्टिलोपो याच
'दित्य दित्या दित्यपत्युत्तरपदाण्ण्य: '2 सूत्र पर एवं भाष्य पर यह वार्तिक पढ़ा गया है । 'बहिष्' शब्द से 'प्राग्दीव्यतीय' अर्थ में 'यश' प्रत्यय तथा इसी वार्तिक से 'टि' लोप का भी विधान किया गया है। जैसे -बहिभवम् , ब्राह्यम् । 'यज्ञ' प्रत्यय में ' कारे इत्तज्ञा' होने से' 'अित्वादत्' आदि वृद्धि हुई है । 'अव्ययानां भमात्रे टिलोप: ' इस सिद्धान्त से ही 'fe ' लोप सिद्ध था, परन्तु पुनः वार्तिक से 'टि' लोप विधान अव्ययों के 'टि ' लोप का 'अनित्यत्व' ज्ञापन के लिए किया गया है अतः 'भारातीयः ' इस प्रयोग में 'आराद' शब्द के 'अव्यय त्व' होने पर भी 'अनित्यत्वात्' 'fe' लोप नहीं हुआ, इसे प्रदीपकार ने भी स्पष्ट किया है ।
1. लघु सिद्धान्त कौमुदी, अपत्याधिकार, प्रकरणम्, पृष्ठ 888.
2. अष्टाध्यायी 4/1/85.