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का उदाहरण छन्द में ही देखा जाता है 'परमे व्योमन् 'इत्यादि वेद में न लुमता - इस्य' इससे प्रतिषेध होने से प्रत्यय लक्षण के अभाव में 'यचि 'भमू' | सूत्र 'भ' संज्ञा के अभाव में भी 'उभय संज्ञान्यपि' इस वार्तिक से व्योमन् इत्यादि प्रयोगों में 'भ' संज्ञा होने से ही लोप का अभाव सिद्ध हो जाता है । सूत्र में डि. ग्रहण व्यर्थ है । डि. ग्रहण के न रहने पर 'धर्मति' इत्यादि प्रयोगों में निषेध की प्राप्ति ही नहीं है । अत: उसके परिहार के लिए वार्तिक की आवश्यकता नही है । इस प्रकार 'डि. परे रहते प्रतिषेध वारण के लिए अनुन्तर परे' यह कहना व्यर्थ है । 'सम्बुद्धि उत्तरपद परे रहते भी 'अनुत्तरपदे' इसका कोई उपयोग नहीं है । क्योंकि 'राजन् वृन्दारक' इन दोनों स म्बुदयान्त' पदों का समास नहीं है । अतः सम्बुद्धि उत्तरपद में नहीं मिल सकेगा । इस प्रकार राजन् वृन्दारक, इस विग्रह भें राजू वृन्दारक यही प्रयोग इष्ट है । 'सम्बुद्धयन्तौ का समास क्यों नहीं होता है । इस पर भाष्यकार कहते हैं कि वाक्य और समास दोनों से समान अर्थ की प्रतीति होनी चाहिए । 'राजन् वृन्दारकू' इस प्रयोग में वाक्य से जो अर्थ गम्यमान होता है वह समाप्त करने पर गम्यमान नहीं होता है । समास से समुदाय में सम्बोधन द्योतित होता है तथा वाक्य में अवयवों में सम्बोधन द्योतित होता है । इस प्रकार उभय पक्ष में 'अनुत्तरपदे' इसका उपयोग नहीं है । "डि परे रहते लोप निषेधारम्भ पक्ष में 'डौ उत्तरपदे प्रतिषेधी वक्तव्यः यह वार्त्तिक 'चर्मतिला दि' प्रयोगों के लिए रहने पर भी 'सम्बुद्धि' में इसकी आवश यकता नहीं हुई है ।
1. अष्टाध्यायी, 1/4/18.