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'ते तद्राजा: ' सूत्र से 'तद्राज ' संज्ञा नहीं प्राप्त होगी, इस वचन के 'उपस्थापन' से विधीयमान 'अणु अत्रा दि' के अन्तर्गत होने से 'तद्राज ' संज्ञा सिद्ध है । 'तद्राज' संET का फल 'तद्राजस्य बहुषु तेनैवास्त्रियाम्' सूत्र से बहुवचन में प्रत्यय का लोप है । यह भाव प्रदीप cीका में स्पष्ट है । 'पुर' शब्द 'जनपदवायी' नहीं है प्रत्युत् 'दात्रियवाची' है नहीं तो 'तद्वज मगध कलिश सूरयतादण' इसते सिद्ध होने पर यह वार्तिक व्यर्थ हो जाता है ।
पाण्डोर्डयण'
उक्त सूत्र पर भाध्यकार ने 'पाण्डोर्डयण' वार्तिक का उपन्यास किया है । 'पाण्डु' शब्द से 'अपत्य' अर्थ में 'यण' प्रत्यय होता है । 'पाण्डोरपत्य पाण्ड्यः डित्व' होने के कारण 'टिलोप 'हो जाता है । 'इयण' प्रत्यय में 'णित् ' पाठ 'पाण्ड्य अार्य: ' इत्यादि स्थनों में वृद्धि निमित्तस्य व तद्वितस्यास् क्ता विकारे सूत्र से वृद्धि निषेध के लिए है । यह 'यण' प्रत्यय जनपद समान शब्द मात्रिय' विशेष वाची 'पाण्ड' शब्द से होता है । संज्ञा भूत 'युधिठरादि पितृवाची' या 'पाण्डुत्व गुण निमित्तक' जो 'पाण्ड' शब्द है उससे 'अण्' न होकर 'अत्तर्गिक अण' ही होने पर पाण्डोरपत्यं
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1. लघु सिद्धान्त कौमुदी, अपत्याधिकरणम् प्रकरणम् , पृष्ठ १02. 2. Ascाध्यायी ।/4/68. 3. वही, 6/2/39.