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से 'राजा' अर्थ में अप्राप्त प्रत्यय राजा अर्थ में भी इसलिए इस वार्त्तिक का उपस्थापन किया गया है । दीक्षितजी ने 'तद्राज' इस 'अन्वर्थसंज्ञा के बल से ही 'राजन' में भी अपत्य के तुल्य प्रत्यय का विधान मानकर इस वचन को न्याय सिद्ध स्वीकार किया है किन्तु भाष्य वृत्यादि ग्रन्थों में इस वार्तिक को 'अन्वर्थ' संज्ञा के माध्यम से 'अन्यथासिद्ध' नहीं माना गया है और न तो प्रदीप पदम जरी टीकाओं में भी 'अन्वर्थ' संज्ञा से इसका लाभ प्रदर्शित किया गया है।
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पुरोरण वक्तव्य:'
उपर्युक्त सूत्र के भाष्यकार ने इस वार्तिक का उल्लेख किया है ।
'पुरु' शब्द से 'अपत्य' अर्थ में 'अणु' प्रत्यय कहना चाहिए । 'पुरु' का अपत्य इस अर्थ में उक्त वार्त्तिक से 'अणु' प्रत्यय करके पौरव' निष्पन्न किया जाता है । 'तस्यापत्यम्' सूत्र से 'औत्सर्गिक अणु' सिद्ध है इस वार्तिक का 'उन्यासतद्राज' संज्ञा के लिए किया गया है । 'अथ च औत्सर्गिक अणु' से 'जनपद शब्दात्क्षत्त्रियादञ्' सूत्र से 'अञादि' प्रत्ययों को उद्देश्य करके विधीयमान
1. क्षत्रिय समान शब्द ज्जिनपदात्तरस्य राजन्यपत्यवत् । तद्राजमाच क्षाणासाद्राज बत्यन्यर्थ संज्ञा सामर्थ्यात् पाञ्चालानां राजा पाञ्चालः इति ।
- लघु सिद्धान्त कौमुदी, अपत्याधिकरणम् प्रकरणम्
2. लघु सिद्धान्त कौमुदी, अपत्याधिकरणम् प्रकरणम्, पृष्ठ 90.
3. 3SC TeaTat 4/1/168.