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'अभूततदभावपद' की उपर्युक्त व्याख्या से ही इस वार्त्तिकार्थ का 'अभूततद्ग्रहण' से लाभ हुआ है । 'प्रकृतिविवक्षाग्रहण घेति' यह वार्त्तिक अभूततदभाव का ही व्याख्यायक है । प्रदीप में यह स्पष्ट है । अतः 'अंकुरीभवन्ति यवा: ' इत्यादि स्थन में जहाँ प्रकृति की विकारात्मता प्रतिघमामानता गम्यमान हो वही पर च्चि प्रत्यय होता है । यहाँ पर अंकुर त्वरूप से पूर्व में अविद्यमान यवों का अङ्कुर रूप में होना ही 'अभूततदभाव' है । 'भवन्ति यवा: क्षेत्रे यहाँ पर पूर्ण कत प्रकार का 'अभूततदभाव' न होने के कारण 'क्वि' प्रत्यय नहीं होता है ।
अव्ययस्य च्वावी त्वं नेति वाच्यम्
'अव्ययीभावश्चइससूत्र के भाष्य से यह वार्तिक उपलब्ध होता है । वहाँ परं कहा गया है कि 'अकार' को 'इत्व' विधान 'चि” के परे, 'अव्यय' में प्रतिषेध करना चाहिए । दोषाभूतमहः', दिवाभूताराति: इसके लिए । वह यहाँ भी प्राप्त हो रहा है । 'उपकुम्भीभूतम्' 'उपमणिकी भूतम्' ऐसा कहा गया। अकार को जो ईत्व है वह अव्यय को न हो, अतः 'दोषाभूतमहः ' 'दिवाभूतारात्रिः' इत्यादि स्थनों में दोषा एवं दिवा इनके अकार को ईत्व नहीं हुआ।
| लघु सिद्धान्त कौमुदी, तद्वित प्रकरणम्, पृष्ठ 1018. 2. अष्टाध्यायी, 1/1/41.
3. महाभाष्य, I/141.