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डचि विवक्षित द्वौ बहुलम्
. 'प्रकारे गुणवचनस्य' इस सूत्र के भाष्य में 'डाचि च' यह वार्तिक पढ़ा गया है। यहाँ 'डाचि' में जो सप्तमी है वह विध्यरूप अर्थ में है । उसी के फलितार्थ को श्री मटोजि दीक्षित जी ने सिद्धान्त कौमुदी में 'डाचि विवक्षिते' ऐसा कहा अर्थात् 'डाच्' की विवक्षा में लघुसिद्धान्तकौमुदी कार ने भी उक्त वार्तिक का श्रीदी क्षितवत् ही ग्रहण किया है । अतः 'डाय' की उत्पत्ति से पूर्व ही'डाय' की प्रकृति 'परतू' इत्यादि से इस वार्तिक के द्वारा द्वित्व हो जाता है तदनन्तर 'अव्यक्तानुकरणाददयजवररादिमितो डाच्” इससे 'डार' होता है । 'डापि यहाँ परसप्तमी मानने पर तो 'डाय' करने के पश्चात् द्वित्व होगा ! द्वित्व करने पर 'द्वयजवरार्ध: ' की प्राप्ति होगी अत: 'अन्योन्याश्रयः ' हो जायेगा । यह वार्तिक पदम जरी एवं तत्त्वबोधिनीमें पूर्वोक्त में भलीभाँति स्पष्ट किया गया है।
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1. लघु सिद्धान्त कौमुदी, तद्वित प्रत्यय प्रकरणम् , पृष्ठ 102 1.
2. अष्टाध्यायी, 8/2/12.
3. वही, 5/4/57.