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न समाते । सिति च
'इकोऽप्तवर्णे शाकल्यस्य” ह्रस्वश्च' इस सूत्र के भाष्य में 'प्तिन्नित्य समासयोः शाकल प्रतिषेधः ' इस रूप में वार्तिक पढ़ा गया है । भाष्योक्त वार्तिक के 'अकार' को काशिकाकार यथावत् रूप से ग्रहण कर लिया है । कौमुदी कार ने इस वार्तिक को 'न समासे' 'सिति च' दो भागों में अनुवाद करके लिखा है । भाष्योक्त वार्तिक का यह अर्थ है तिच्च नित्यसमासश्च इति सिन्नित्य
समास नित्या भिकार' में विहित तथा अस्वपद विग्रह समाप्त नित्य समास कहलाता है । 'प्तिन्नित्यसमासयो: ' इसमें एक ही शब्द में विषय-भेद से भिन्न-भिन्न ग्रहण किया जाता है । 'सित्' की अपेक्षा से पर सप्तमी तथा 'नित्' समास की अपेक्षा से 'विषय सप्तमी' । 'सिति परे मितु समास विषये शाकल प्रतिषेधः यह अर्थ होता है । 'इकोडसवर्णैशाकल्यस्य ह्रस्वश्च' यही शाकल विधि है । शाकल्य के सम्बन्ध से इसको शाकल कहते हैं । इस शाकल विधि का प्रतिषेध 'सिति परे तथा 'नित् समास' के विषय में होता है । यह अर्थ कौमुदी में दिखलाया गया है। से विहित ह्रस्व और प्रकृतिभाव का प्रतिषेध होता है ।
उक्त सूत्र
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1. लघु सिद्धान्त कौमुदी, अच्सन्धि प्रकरणम्, पृष्ठ 68.
2. वही ।
3. अष्टाध्यायी, 6/1/125.