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समुचित ही होगा। जैसा कि भाष्यकार ने अपने शब्दों में कहा है - 'जाचार्यप्रवृत्ति ज्ञापयति न रादेशो नुट बाधते इति' यदय 'न तिमृच्तमृ' इति निषेधं शास्ति । यहाँ पर पूर्वप्रतिषेध अपूर्व नहीं है । अपितु 'विप्रतिषेधे परं कार्य 2 इस सूत्र में पर शब्द को इष्टवाची मानने से स्वतः सिद्ध हो जाता है । विप्रतिअंध में जो इष्ट हो वह होता है । इस बात को भाष्यकार ने कहा है कि तो क्या ” पूर्व विप्रतिषेध को कहना चाहिए १ फिर कहाँ नहीं कहना चाहिए । क्योंकि इष्टवाची पर शब्द होने से विप्रतिषेध में जो इष्ट होवे वह होता है । यद्यपि यह भाष्य प्रकृति वार्तिक के अव्यवहित पूर्व गुण वृदयौ त्व 'तज्वद भावेभ्यो नुम् विप्रतिषिद्ध' इस वार्तिक को अधिकृत्य कर के प्रवृत्त है तो भी तुल्य न्याय से प्रकृत वार्तिक में भी समायोजित किया जा सकता है । इसलिए 'तुज्वदभावाच पूर्वविप्रतिषेधने नुम् नुटौ भवतः "" इस काशिकावृत्ति ग्रन्थ का व्याख्यान करते हुए
आचार्य ने 'नुम्' और 'नुद' दोनों के विषय में पर शब्द को इष्टवाची मानकर पूर्व विप्रतिषेध को सिद्ध किया है । अत: यह वार्तिक पर शब्द को इष्टवाची मानकर न्यास सिद्ध माना जाता है न कि वाचनिक |
1. महाभाष्य 7/1/95-97 2. अScाध्यायी 1/4/2.
3. महाभाष्य 7/1/95-96. 4. का शिका 7/1/197.
5. “क्रोष्टूनामित्यत्रोभ्य प्रसइगे सति नुइ, भवति पूर्व विप्रतिमेति । पूर्व विप्रतिधेस्तु परशब्दत्येष्टवाचित्वाल्लभ्यते ।
- न्यास पदमञ्जरी, 7/1/97.