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दृन्कर पुनः पूर्वस्य भुवोयन क्तव्यः ।
'वर्षाभ्वश्च 2 इस सूत्र में 'वाभूय न पच' यह वार्तिक पढ़ा गया है। इस वार्तिक के उमर 'वभू' इस जगह पर 'पुनश्च' ऐसा कहना चाहिए । यह भाष्य है। इस वार्तिक का अनुसन्धान करे के भाष्यकार ने
आगे कहा कि यह बहुत कम कहा जा रहा है । 'वात् , दन्कार पुनः पूर्वस्य भव' ऐसा कहना चाहिए 'न भू सुधियो: '3 इस सूत्र से 'ओ: सुपि" इस सूत्र से प्राप्त 'जड़' प्रारम्भ किया जाता है । इस का उदाहरण दृन्भ्वो, दन्भवः, कारभ्वो, कारभ्वः, पुनभ्वों पुर्नभ्वः इत्यादि भाष्य में कहे गए हैं। वहाँ 'दृन्भ' शब्द हिंसार्थक 'दन्' अव्यय पूर्वक 'भू' धातु 'क्विप् ' करने से बनता है । प्रक्रिया प्रकाश में तो दृढ़ो भवति' इस विग्रह में 'दृढ भू' की व्युत्पत्ति की गई है । 'उणादि' निपातन के द्वारा 'दृढ' शब्द के स्थान पर 'दन् ' आदेश करना पड़ेगा । 'नान्त दन्' अव्यय रहने पर 'भू' धातु से 'क्विए' कर के 'किए' पक्ष भी वहाँ दिखाया गया है । 'दृ ' धातु से णादिक 'उत्' प्रत्यय के
।. लघुसिद्धान्त कौमुदी, अजन्त पुल्लिंग प्रकरणम्, पृष्ठ 196. 2. अष्टाध्यायी, 6/4/84. 3. वही, 6/4/85. 4. वही, 6/4/83. 5. दृढ़ोभवती ति दृन्भूः । तसर्पजातिभेदः । उणादिषु निपातनात् ददशाब्दस्य
दृन्नादेशाः । - प्रक्रियाप्रकाश, 6/4/84. 6. श्रीपतिस्तु दृन्नितिनान्ते हितार्थेऽवयये भुवः क्वि वित्याह । वही, 6/4/84.