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वार्तिक में पर अच् ऊहिनी इत्यादि शब्दों का अवयव लिया जाता रहा तथा पूर्व आकार भी आदि शब्द का अवयव लिया जाता रहा । इस वार्तिक में तो 'अत्' शब्द ' क अच्' लिया जाता है और पूर्व अकार किसी विशेष शब्द का लिया जाय ऐसा निर्देश नहीं है। अकार मात्र से परे 'अत्' शब्द 'Eक अच्' रहने पर वृद्धि होती है । अतएव काशिका में इस वार्तिक पर अवर्णाव वृदिर्वक्तव्या ऐसा पढ़ा गया है । सुखार्तः दुःखार्तः इत्यादि इसका उदाहरण है । सुखेन अतः इत्यादि विग्रह में 'कर्तृकरणेकृता बहुलम्' इप्त सूत्र से तृतीया समास हुआ है। वार्तिक में समाप्त ग्रहण होने से असमाप्त स्थन पर 'सुखेन अत: ' इत्यादि में वृद्धि नहीं होती है अपितु गुण ही होता है। तृतीया ग्रहण सामथ्यात् परं अत: परमतः इत्यादि कर्मधारय स्थन पर वृद्धि नहीं होती है अपितु गुण ही होता है। यह वार्तिकं गुण का अपवाद है ।
प्रवत्सतर कम्बलवसनार्ण दशानामणे
यह वार्तिक भी 'रत्येधत्पठसु सूत्र के भाष्य में 'प्रवत्स तर कम्बलवसनासणे', 'ऋण दशाभ्यां च' ये दोनों वार्तिक पढ़े गए हैं। उन्हीं दोनों के अनुवादात्मक और संकलनात्मक यह वार्तिक लघु सिद्धान्त कौमुदी में पढ़ा गया है ।
1. अष्टाध्यायी, 2/1/32.
च्सन्धिप्रकरणम् पूष्ठ 47.
3. अष्टाध्यायी, 6/1/89.