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संस्कानां तो वक्तव्यः।
'समः सुटि 2, 'पुनः खय्य म्परे' 'कानामेडिते' इन तीनों सूत्रों को पढ़कर इन्हीं के विष्य में यह वार्तिक भाष्य में पढ़ा गया है । येतीनों सूत्र 'स' 'पु' और 'कान' के 'मकार' और 'नकार' को यथोक्त निमित्त परे रहते 'रुत्व' करते हैं । 'संपुंकानाम्' यह वार्तिक उस सकार' का विधान करता है इसके लिए इस वार्तिक को बनाना चाहिए । भाष्य में यह वार्तिक 'संपुकानाम् सत्त्वं' इस रूप में पढ़ा गया है । 'सत्त्वं' का अर्थ 'सकार' है । 'समः सुटि' इत्यादि तीनों के द्वारा प्रकृत स्थूल में अर्थात् 'स''पू' इत्यादि 'मकारों' को 'रुत्व' के विधान करने पर वार्तिककार ने अनिष्ट की प्रसक्ति भी कहा है । महाभाष्यकार ने उस अनिष्ट प्रत क्ति को स्पष्ट किया है । यदि 'सम्' के 'मकार' को 'रुत्व' हो तो 'संस्कर्ता' इत्यादि प्रयोग में 'वाशरि' सूत्र की प्रसक्ति 'पुस्का म्' यहाँ पर 'इंदूदूपत्य ' इस सूत्र के द्वारा 'सत्त्व' की प्रतिक्ति तथा कास्कान्' यहाँ पर 'कुपौ: ' इस सूत्र के द्वारा 'जिह्वामूलीय' की प्रसक्ति होगी, क्योंकि इन प्रयोगों में 'सत्व' होने के बाद विसर्ग की प्रसक्ति तथा विसर्ग के अनन्तर उपर्युक्त विध्यिा प्राप्त होने लगेंगी किन्तु इन प्रयोगों में सकार'
1. लघुसिद्धान्त कौमुदी, हल्स नि प्रकरणम्, पृष्ठ १५. 2. अष्टाध्यायी, 8/3/5. 3. वही, 8/3/6. 4. वही, 8/3/12.