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होता है । इस लिए इस वार्तिक का उदाहरण भाष्यकार ने दिया है - 'गव्यूतिंम
?
ध्वानंगतः गोयूतिमित्येवान्यत्र '
यहाँ अन्यत्र का अर्थ है कि 'अध्व परिमाण' से अन्य अर्थ में वान्त अ व आदेश नहीं होता है । इस प्रकार वेद में अध्व परिमाण का अर्थ में अथवा अन्य अर्थ में भी गो शब्द को यूति परे रहते वान्त अ व आदेश । लोक में अध्वपरिमाण अर्थ में ही
न्यासकार ने इन दोनों
ही होता है । अतः गव्यूति ही साधु है वान्त अव् आदेश होकर गव्यूति साधु है अन्य अर्थ में गो यूति स दोनों वार्त्तिकों का निष्कर्ष है । ये दोनों वार्त्तिक प्रकारान्तर से असिद्ध वान्त 1 अ व आदेश के विधान के लिए वाचनिक ही है । वार्त्तिकों को सूत्र से ही गतार्थ कर दिया है । उनका कथन है कि वार्त्तिक घटक वक्तव्य शब्द का व्याख्येय अर्थ है । उसका व्याख्यान इस प्रकार है । 'वान्तोयि प्रत्यये' इस सूत्र का योग विभाग करना चाहिए । 'वान्तोयि' यह एक योग अलग है. 1, इसका अर्थ है... मो. शब्द यूतिः परे रहते छन्द में अवादेश होता है । 'प्रत्यये' इस दूसरे योग में यादि प्रत्यय परे रहते एच को वान्त अ व आदेश होता है । यह अर्थ है इससे गव्यम् नाव्यम् की सिद्वि हो जाती है पहले योग से यकार मात्र परे रहते वान्त अ व आदेश का विधान होता है । दूसरे योग के द्वारा पहले योग के अर्थ में क्वचिदकत्व अनित्यत्व का ज्ञापन होता है । इस प्रकार यदि प्रत्यय परे रहते सर्वत्र वान्त अ व आदेश होता है । रिक्त यादि परे रहते कहीं-कहीं वान्त 1अ व आदेश होता है ।
प्रत्यय से अतिक्वचिद् पद से इष्ट स्थल के अनुरोध योग विभाग के अनुरोध से उक्त दोनों वार्त्तिकों के ही विषय लिए जाएंगे । इस तरह दोनों वार्त्तिकों को करने है ।