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वार्तिक से 'परसू' शब्द से 'अण' हुअा है । 'अणम्' को 'तित्' होने से पूर्वभाग को 'पद' संज्ञा होती है। अतः 'ओर्गुणः ' से 'गुण' नहीं होता है तथा 'सिद' होने से इस सूत्र से 'स्व' प्रकृतिभाव भी नहीं होता है । 'यण' होकर 'पाश्र्वम्' यह रूप सिद्ध होता है । नित्य समाप्त का उदाहरण भाष्यकार ने 'वैय्याकरणः, सौ वस्वः ' यह दिया है। व्याकरण शब्द में 'कुगति'प्रादयः'। इस सूत्र से 'नित्य समास' हुआ है। इस सूत्र से 'नित्य 2 क्रीडा जी विकयो: ' इस सूत्र से नित्य पद की अनुवृत्ति अलि है। वि + आ करण, सु + अस्वः इस प्रक्रिया में 'हस्व' संचित प्रकृतिभाव प्राप्त होता है । उसका इस वार्तिक के द्वारा निध होता है । 'अस्व' पद विग्रह रूप नित्य समास का उदाहरण का शिकाकार ने 'कुमार्यर्थ' दिया है । यहाँ कुमार्य इदं' इस 'अस्व' पद विग्रह में अर्थेन नित्य समासो विशेष लिशता च' इस वचन से समास होता है । 'कुमारी अर्थम्' इस दशा में 'इस्व' संचित प्रकृति भाव प्राप्त होता है । इस वार्तिक के द्वारा निषेध हो जाता है। भाष्यकार ने वार्तिक से नित्य ग्रहण का प्रत्याख्यान कर दिया है । अंत: अनित्य समाप्त में भी शाकन विधि का प्रतिषेध होता है। जैसे 'वाप्या अस्वः वाप्स्वः ' यहाँ 'सः सुपा' सूत्र से समास हुआ है । ' संज्ञायां' सूत्र
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I. अष्टाध्यायी 2/2/18. 2. वही, 2/2/16. 3. नित्यग्रहणेनार्थः ति त्यस मासयो: शाकलं न भवतीत्येव । इदमपिसिदि भवति, वाप्यामावो वाप्यावः, नद्यामातिनधातिः ।
महाभाष्य प्रदीप, 6/1/127.