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शब्दों का 'समर्थ' के साथ समाप्त होवे तथा 'उत्तरपद तियन्त' भिन्न हो इससे 'गति संज्ञक' का 'कृदन्त' के साथ 'सु व्युत्पत्ति के पहले समास की सिद्धि ज्ञापित होती है । तथा 'कारक' का भी 'समर्थ कृदन्त' के साथ इस प्रकार का का समास होना 'एकादेशानुवति' अक्षा 'स्थाली पुलाक् न्याय ' से सिद्ध हो जाता है । तात्पर्य यह कि इप्त परिभाषा में तीन अंश हैं उनमें से एक या दो अंश यदि प्रामाणिक हो गया तो सभी 'अवशिष्ट अंश' में प्रामाणिकता मान ली जाती है अथवा भात् बनाने की 'क्लोही' में एक चावल के पक जाने से सभी चावलों का पक जाना समझ लिया जाता है। इसी को 'स्थालीपुलाक् न्याय' कहा जाता है । अक्षा 'क्रीता त्करण पूर्वात'। इस सूत्र में भाष्यकार ने 'अजाधत्यष्टाप्'2 सूत्र से । अतः शब्द की अनुवृत्ति करके 'अदन्त' जो 'क्रीत' शब्द इत्यादि अर्थ किया उसका फल है 'धनक्रीता' शब्द में 'स्त्रीत्व' का द्योतक 'नीच' प्रत्यय नहीं होगा क्योंकि 'क्रीत' शब्द यहाँ 'अदन्त' नहीं रहा । 'टाए' प्रत्यय होने से 'आकारान्त' बन गया तथा 'च अश्वेन क्रीता' इस लौकिक विग्रह में 'अपद CT क्रीत' इस अलौकिक विग्रह में नीश प्रत्यय होकर 'अश्वक्रीति' यह प्रयोग बनता है। परिभाषा में 'सुबुत्तपत्ति' शब्द 'कृदन्त' तदादि' प्रकृतिक प्रत्यय मालोत्पत्तिपरक है । इस लिए CTD की उत्पत्ति के पश्चात् नोश का होना सम्भव नहीं। इस प्रकार कारक अंश में भी । अतः शब्द की अनुवृति
1. अष्टाध्यायी 4/1/50. 2. वही, 4/1/4.