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प्रमाण हुई अथवा 'कतृकरणे'कृता बहुलम्'' सूत्र में 'बहुल ' ग्रहण भी कारक अंश में प्रमाणा माना जाता है । इसका 'मूर्धाभिषेक उदाहरण 'कुम्भकार' शब्द है । इसमें 'कुम्भं करोति' यह लौकिक विग्रह है तथा 'कुम्भ डम् ' 'कृ अण' यह अलौकिक विग्रह है । यहाँ पर 'कुम्भ' शब्द 'कर्मवाचक उपपद' मानकर 'कृ' धातु 'काणि अण्' सूत्र 'अण्' प्रत्यय हुअा है । 'अण्' प्रत्यय होने के पहले ही 'कुम्भ' शब्द से 'प्राप्त द्वितीया विभक्ति' को बाधकर 'कर्तृ कर्मणो : कति' सूत्र से 'ठी विभक्ति' हो जाती है। उसमें प्रमाण है 'उपस स जनिष्यमाण निमितो प्यपवाद: ' उपस जात निमित्तमपि उत्सर्ग बाधते' इसका अभिप्राय है कि उत्पन्न होने वाले हैं निमित्त जिस के ऐसा जो अपवादशास्त्र वह उत्पन्न हो चुके हैं निमित्त जिसके ऐसे 'उत्सर्गशास्त्र' को बाध देता है । प्रकृत स्थन में 'कर्मणि द्वितीया: यह 'उत्सर्गशास्त्र' है उसका निमित्त भूत 'कर्मसंज्ञा' हो चुकी है अब 'कर्तृकर्मणोः कृतिः ' इस अपवाद शास्त्र का निमित्त भूत कृत्प्रत्यय अभी उत्पन्न होने वाला है फिर भी इस 'अपवादशास्त्र' के द्वारा द्वितीया की बाधिका 'ठी विभक्ति' हो गयी। इसके पश्चात् ही 'कुम्भ इत्' का इस दशा में 'अण्' प्रत्यय हुआ । भाष्यकार ने तो 'पाठी समासात् उपपद समासो विप्रति
धन' इस वार्तिक के द्वारा प्रकृत उदाहरण में 'उपपद समास' की बाधकता बता कर अथवा 'विभाषा बठी समासो यदा न कठी समाप्त स्तदोपपद समासः' इस 'द्वितीय वचन' से 'कठी समास' की 'प्राथमिकता ' दिखायी है । उसके
1. अष्टाध्यायी 2/1/32.