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से 'नपुंसके' यह भी नहीं कहना चाहिए । हरदत्त ने भी दीक्षित के समान ही 'एनत्' आदेशा का समर्थन किया है । 'एनश्रितः ' इस विग्रह में 'द्वितीयाश्रितातीतपतितगता त्यस्तप्राप्तापन्नैः'। इस सूत्र से समास करने पर 'अन्तरगामपि विधान 'बहिरङगो लुक् बाधते' इस परिभाषा से अन्तरंग भी 'एनत्' आदेश को बाधकर 'सुपो धातु प्रातिपदिकयो: ' इस सामासिक 'लुक' के विषय में 'न एनादेश न एनदादेश' होगा किन्तु 'एतच्छितः ' यही साधु रूप होगा । अतः यहाँ पर भी दोनों में फलभेद नहीं है। यह सब बातें मदम जरी' में स्पष्ट है। इससे यह सिद्ध होता है कि 'एतचितः ' यहाँ पर 'लुक' होने के अनन्तर प्रत्यय लक्षण मानकर 'एनत्' आदेश नहीं होता है क्योंकि 'न लुमतानडस्य ' इस सूत्र से प्रत्यय लक्षण का प्रतिषेध हो जाता है । यह दीक्षित जी का मार्ग हरदत्त जी को भी अभीष्ट है। कैय्यैट का कहना है कि यदि 'एनट' किया जाता है तो एनादेश नहीं कहना चाहिए' इत्यादि भाष्य के अनुसार 'एनदादेश'को सर्वत्र 'अभ्युपगम'करना चाहिए । सर्वत्र 'एनदादेश' होने पर 'एनतिकः प्राप्नोति' इस भाष्यो क्त
आशंका को 'यथालक्षणम्प्रयुक्ते' इस भाष्य की उक्ति से ही समाहित कर देना चाहिए । कैय्यट ने इस भाष्य का इस प्रकार से व्याख्यान किया है कि यदि
I. ASC Tध्यायी, 2/1/24.
2. इह त्वेनं श्रित इति द्वितीया समासे यय त्येनादेशो थाप्येनादेशः, उभाभ्यमपि
न भाव्यम् । कथम् १. अन्तरगानपिविधीनवहिरगोलुगवाधते' तस्मादेतचित इति भवति । पदमजरी, 2/4/34.