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'जनपद शब्दात् क्षत्रियाद ,' से 'अन्' होने पर लोप होता है । 'तद्राजस्य बहुषु तेनै वास्मियाम्' इस सूत्र से 'बहुत्व' विवक्षा में लोप सिद्ध है तथापि द्विवचन, एकवचन में लोप विधान के लिए उ क्त और वार्तिक की परमावश्यकता है इसी को दृष्टि में रखकर भाष्यकार ने एकवचनान्त चोल:, शमः, यवनः, केरल :, 'उदाहरण प्रस्तुत किया है ।
तिष्य पुष्ययोत्राणि यलोप इति वक्तव्या
'सूर्यतिष्यामत्स्य '2 सूत्र के भाष्य में यह वार्तिक पठित है । 'नक्षत्र' सम्बन्धी 'अ' प्रत्यय परे रहते ही 'तिष्य पुष्य' के 'यकार' का लोप होता है अन्यत्र नहीं यह इप्स का अर्थ है । तिष्य में 'सूर्यतिष्य' इस सूत्र से 'यलोप' प्राप्त होने पर 'ण' परे ही लोप हो ऐसा नियम करने के लिए वार्तिक है ।
'पुष्य ' में 'यलोप' प्राप्त नहीं होने से 'अण्' परे रहते अपूर्व लोप का विधान करता है । यहाँ 'नवाण' हे नक्षत्र ! वाचक से विहित जो 'अण्' उन सबका ग्रहण होता है । न कि 'सन्धिलाधृतुनक्षत्रेभ्योऽण'' इस सूत्र से 'प्रातिपदिको व नक्षत्र' का हो । इसी लिए 'नक्षत्राणि' का व्याख्यान 'नक्षत्र सम्बन्/ि अण् परे'
1. लघु सिद्धान्त कौमुदी, स्त्री0प्र0प्र0, पृष्ठ १06. 2. अष्टाध्यायी, 6/4/149. 3. वही, 4/3/16.