________________
80
उसके पूर्व में पाक्षिक अनुस्वार और उसके अभाव में अनुनासिक होता है । 'सत्व ' के अभाव में तत् सन्नियोग शिष्ट अनुस्वार और अनुनासिक भी नहीं होंगे ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए क्योंकि ये दोनों 'सत्व' के सन्नियोगा शिष्ट नहीं है । अपितु 'सत्व' के प्रकरण में जिस का भी विधान होता है उत्त के सन्नियोग शिष्ट हैं। इस वार्तिक से 'सत्व' का विधान 'र' प्रकरण में ही होता है । अत: 'अनुना सिक' और 'अनुस्वार' की प्रवृत्ति हो जाएगी। यह प्रदीप और उद्योत में स्पष्ट है ।
यहाँ 'अत्रानुनासिक: । पूर्वस्य तुवा' इत्यादि सूत्र में 'अत्र' शब्द का ग्रहण 'सत्व' के सन्नियोग की प्रतिपत्ति के लिए है। इस वृत्ति ग्रन्थ का
आश्रय 'रू.' प्रकरण विधेय से है । यह न्यास एवं पदम जरी में स्पष्ट है । अतएव भाष्यादि ग्रन्थों में इस वार्तिक से तत्त्व' विधान होने पर उक्त प्रयोगों में 'अनुस्वार' और अनुनासिक' की अनापत्ति रूप दोष नहीं दिया है। इससे यह ज्ञात होता है कि ये दोनों 'र' प्रकरण विधेय सन्नियोगशिष्ट ही है । अत: वार्तिक के द्वारा 'सत्व' विधि में भी इन दोनों की पाक्षिक प्रवृत्ति होगी ही। इसी प्रकार समो वा लोपम एक इच्छन्ती' इस भाष्य के अनुसार 'सम' के मकार' के लोप होने पर भी 'र' प्रकरण विधेय होने से 'अनुस्वार' और 'अनुनासिक' होते ही हैं। प्रातिशाख्य में जो यह कहा गया है कि 'नकार'
1. अष्टाध्यायी 8/3/2.