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इस सूत्र
प्राप्त तथा तद् उत्तरवर्ती 'सूर्य तिष्यागस्त्य मत्स्यानां य उपधायाः " से प्राप्त लोप को सी विभक्ति परे रहते प्रतिषेध किया जाता है । वार्त्तिक आदि पक्ष से 'सूर्य तिष्य' इत्यादि विधि का ग्रहण है । 'श्यां' इसमें 'स्त्रीलिड्ग' का निर्देश विभक्ति की अपेक्षा से किया गया है । इसका उदाहरण 'काण्डे सौर्ये' इत्यादि दिया गया है । 'काण्डे ' इस प्रयोग में 'काण्ड' शब्द से 'औ' विभक्ति, उसके स्थान में 'नपुंसकांच्च '2 इस सूत्र से 'सी' आदेश होता है तथा उसको 'स नपुंसकस्य 13 इस सूत्र में 'अनपुंसकस्य' ऐसा प्रतिषेध होने से सर्व नाम स्थान संज्ञा नहीं होती है । अतएव काण्ड को 'भ' संज्ञा हो जाती है । तदनन्तर 'यस्येति च' इससे प्राप्त 'अंकार' लोप का वार्त्तिक के द्वारा निषेध होता है । 'सौर्ये' इस प्रयोग में 'सूर्येण एक दिकू' इस अर्थ में 'सूर्य' शब्द से ' तेनैक दिक्' इस' सूत्र से 'अणु' होता है ततः निष्पन्न 'सौर्य' शब्द से 'सी' परे रहते 'यस्येति च ' सूत्र से 'अलोप' होता है तथा 'सूर्य तिष्य' इत्यादि के द्वारा 'य' लोप प्राप्त होता है । इन दोनों लोपों का निषेध वार्तिक के द्वारा हो जाता है | वस्तुतस्तु 'सूर्यमत्स्योइयान', 'सूर्यागस्त्ययोश्छे च' इन दोनों उत्तर सूत्रस्थ वार्त्तिकों के द्वारा 'य' लोप के परिग्रहण होने से 'सी' परे रहते 'य' लोप प्राप्त नहीं होता है । अतः 'य' लोप के प्रतिषेध के लिए इस वार्त्तिक का उपयोग नहीं है । यह प्रदीप में उल्लिखित है । लघु सिद्धान्त कौमुदी में
1. अष्टाध्यायी, 6/4/149.
2. वही, 7/1/19
3. वही, 1X 1/43.