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शब्द बनता है । यह शब्द बन्धन स्थान एवं 'कारागृह' में प्रयुक्त होता है । यह 'कारा' शब्द का पाठ वृत्ति और प्रक्रिया को मुदी में यद्यपि देखा गया है तथा पि भाष्य में अनुक्त होने से निर्मूल है । यह शय मनोरमा और प्रक्रियाप्रकाश में स्पष्ट है । यद्यपि भाष्य में 'कार' शब्द का पाठ होने से 'अई. प्रत्ययान्त 'कार' शब्द से ही टाप करने से 'कारा' प्राब्द के निष्पन्न होने से पूर्वान्तवत् भाव से 'कार' शब्द से 'कारा' शब्द का ग्रहण कर के 'काराभू' शब्द 'यण' का उत्पादन किया गया है । वह भी रमणीय नहीं है क्योंकि भाष्य में 'कार' शब्द का पाठ होने पर भी प्रति द्विवश 'हत्वपाठ' एक वाक्यता के अनुरोध से भी 'हस्तवाची कर' शब्द प्रकृतिक 'स्वार्थिक अण्' प्रत्ययान्त 'कार' शब्द का ही वहाँ ग्रहण है न कि 'ण्यन्त' 'कृ' धातु से 'अह. ' प्रत्यय करने पर निष्पन्न अप्रसिद्ध 'कार' शब्द का ग्रहण है । अत: पूर्वान्तवत् भाव से 'टाप्' करने पर भी 'कारा' शब्द का ग्रहण नहीं हो सकता है । शब्दरत्न में भी इसका स्पष्टी करण किया गया है । 'पुनर्भू' शब्द 'विरूदा' में 'रूद' है । 'रूद' और 'नित्य स्त्रीलिङ्ग' है । 'पुनर्भूदिधतूस्वादि' अमर01 पुनर्भवति इति पुनर्भू इस व्युत्पत्ति
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1. अत्र कारा शब्द पाठो नाकरः भाष्यादौ कर शब्दस्यैव दर्शनात् ।
- प्रक्रियाप्रकाशा 6/4/84. 2. काराभूरित्यत्र काराशब्द: करोते य॑न्तात् भिदाधडिक्रिपन्नो बन्धनग्रहवाचकस्तस्यटापा सहकादेशस्य पूर्वान्तत्वे पि वार्तिके ग्रहणं न प्रसिद्धत्वेन हस्वपाठेक वाक्यतया च हस्तवाचकस्यैव ग्रहणा दिति भावः ।
- मनोरमा शब्दरत्न 6/4/84.