Book Title: Jain Jyoti
Author(s): Jyoti Prasad Jain
Publisher: Gyandip Prakashan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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We shall work with you immediately. -The TFIC Team. Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-ज्योति ऐतिहासिक व्यक्तिकोश प्रथम खण्ड (अ-अं) इतिहास-मनीषी डा० ज्योति प्रसाद जेन विद्यावारिधि प्रकाशक: शानदीप प्रकाशन ज्योति निकुन्न, चारबाग, लखनऊ-१९ (३०प्र०) १९८० Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तक का नाम जैन ज्योति ऐतिहासिक व्यक्तिकोश प्रथम खण्ड (अ नं) लेखक : इतिहास-मनीषो डा० ज्योति प्रसाद जैन एम. ए., एल. एल. बी, पी-एच. डी. प्रकाशक : ज्ञानदीप प्रकाशन, ज्योति निकुज, चारबाग, लखनऊ - २२६ ०१९ प्रथमावृत्ति : बीर शामन जयन्ती, श्रावण कृष्ण प्रतिपदा, वि. सं. २०४५ महाबीर निर्वाण संवत् २५१४ ३० जुलाई, १९८५ ई० मूल्य : पचास रुपये मुद्रक : रत्न- ज्योति प्रेस, चारबाग, लखनऊ-१९ विद्यावारिधि Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक काल में -एक में नाम के अनेक विशिष्ट मक्ति हुये है बोर नाम साम्य के आधार पर व्यक्तियों को एक ही मान लेने की प्रान्ति प्रायः होती है। झसे ऐतिहासिक घटनाओं का समाकलन भ्रमपूर्ण हो पाता है। किसी ऐतिहासिक व्यक्ति का व्यक्तित्व इतिहास की महत्वपूर्ण घटना है और कुछ व्यक्तियों के सम्बन्ध में इस प्रकार का प्रम हो पाने से इतिहास का डांचा दोषपून हो जाता है। विद्वान लेखक ने जो इतिहास के सोतों के सम्यक अध्ययन के प्रति प्रतिपक्ष थे, प्रस्तुत कोश का प्रणयन जब से ५० वर्ष पूर्व प्रारम्ब कर दिया था और इसको प्रकाश्य रूप में वर्ष पूर्व अषित किया था। ___ अकारादि क्रम से (म से अंतक) अषित प्रस्तुत कोष में विगत २,५०० वर्ष में हुये न बाचार्यो, प्रभाषक सन्तों, बायो बार्षिकाबों, साहित्यकारों, कलाकारों, बर्म एवं संस्कृति के पोषक रामपुरुषों और अन्य उल्लेखनीय पुरुषों एवं महिमानों का संक्षिप्त प्रामाणिक परिचय ससंवर्म संकलित किया गया है। परिशिष्ट में अधुना-दिवगत उल्लेखनीय व्यक्तियों का भी समावेश किया गया है। ___ यह कोश विद्वानों और खोपापियों के लिये तो अत्यन्त उपयोगी है ही, सामान्य विमासु पाठकों के लिये भी यह मान का अनुपम भण्डार है। इसके माध्यम से इतिहास के स्रोतों के प्रति जिज्ञासा जागृत भी होगी और उसकी तुष्टि भी होगी। Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस कोश के विज्ञान नका. ज्योति प्रसादन भारतीय इतिहास एवं संस्कृति तथा इतिहास केन खोतों और जैन विधा के विनियों (धर्म, दर्शन, इतिहास, साहित्य, संस्कृति, कला और पुरातत्व) अन्तर्राष्ट्रीय याति प्राप्त मूर्षम्य अधिकारी विद्वान थे। सन् १९३२ से वह निरन्तर शोष-खोग में स्वान्तः सुखाय लगे रहे। इतिहास के बैन स्रोतों पर उनका बफेला प्रामाणिक अन्य है। विशेष रूप से उल्लेखनीय कृतियां : भारतीय इतिहास : एक वृष्टि प्रमुख ऐतिहासिक जन पुरुष और महिलायें तीर्थंकरों का सर्वोदय मार्ग बाविती अयोध्या हस्तिनापुर Jainism, the Oldest Living Religion Roligion And Culture of the Jains The Jaida Sources of the History of Ancient India ग.अन इतिहास के स्रोतों के विशिष्ट अध्येता के रूप में और एक गहन वस्तुपरक एवं चिन्तनशील मनीषी के रूप में इतिहास के सभी अध्येताओं के लिये प्रेरणा के स्रोत रहे हैं। Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास - मनीवी डा० ज्योति प्रसाद जेन जन्म ६-२-१९१२ महाप्रयाण ११-६-१९८८ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ★ प्रकाशकीय ★ मालुक ऐतिहासिक व्यक्तिकोश * 安安师 परिशिष्ट श्री विषयक्रम 5 संकेत सूचियां संदर्भ ग्रन्थ संकेत सूची सामान्य संकेत सूची ..... ..... ... .............. ।।। १ ६८ ११२ १२६ १२९ १४५ {** ૪. १६० १६० १६२ १६२ Rix १८४ १८९ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय आज यह कृति वर्तमान और भावी शोधार्थियों के हाथों इस रूप में प्रस्तुत करते समय हमारे मन में दुःख और सुख की मिलीजुली अनुभूति है। दु:ख इस बात का है कि अपनी साबिक ५० वर्ष की साहित्य शोध साधना के इस प्रसाद को इस रूप में देखने के लिये इसका निर्माता आज नहीं है। क्रूर काल ने उन्हें हमसे छीन लिया है । अपने महाप्रयाण से बन्द दिनों पूर्व जब उन्होंने इसका आमुख पूर्ण किया तो उन्हें भी यह विश्वास नहीं था कि वह इतनी जल्दी हमसे विमुख हो जायेंगे। उनकी इच्छा इस कृति को वीर शासन जयन्ती तर्क प्रकाशित कर देने की थी । वह इसका परिशिष्ट तैयार कर रहे थे। सन्तोष गौर प्रसन्नता का विषय है कि हम उनके द्वारा कागज की चिटों पर छोड़े गये संकेत सूत्रों के आधार पर अधूरा परिशिष्ट पूरा कर सकने में और यह पुस्तक उनकी अभीप्सित तिथि तक प्रस्तुत करने में यत्किचित सफल हो सके हैं। 'ऐतिहासिक व्यक्तिकोश' का यह मात्र प्रथम खण्ड है । शोधार्थियों के लिए इसकी क्या आवश्यकता, उपयोगिता और महत्व है इस सम्बन्ध में रचनाकार पिताश्री ' इतिहास-मनीषी' 'विद्यावारिधि डा० ज्योति प्रसाद जैन जी मे अपने मुख में प्रकाश डाला है। सामान्य पाठकों के लिये भी यह एक महत्वपूर्ण ज्ञान भण्डार है । आशा और विश्वास है कि प्रबुद्ध जन इससे लाभान्वित होंगे बोर हमें डाक्टर साहब के इस महाग्रन्थ को आगे शनैः शर्मः खण्डों में प्रकाशित करने के लिये प्रेरित करेंगे । इस ग्रन्थ को इस तत्परता से प्रकाश में लाने का पूरा श्रेय रत्नज्योति प्रे h अविष्ठाता श्री नलिन कान्त जैन को है। चि० संदीप कान्त और चि० अंशु चैन 'अमर' की प्रेरणा भी इसमें सहायक रही है । पर्याप्त सावधानी बरतने पर भी यदि मुद्रण आदि में कोई त्रुटि रह गई हो उसके लिये हम समार्थी हैं। पीर शासन जयन्ती ३० जुलाई १९०० ई० शशिकान्त रमाकान्त जैन Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भामुख 'वैन-ज्योति : ऐतिहासिक व्यक्तिकोस' का प्रस्तुत प्रथम सण अपने पाठकों को भेंट करते हुए हमें बतीय प्रसन्नता है। कारादि का पवित इस कोश में विपत २५०० वर्ष (ईसापूर्व ६.. से सन् १९.... पर्यन्त) में एमाचावा, प्रभावक मुनिराजों, साध्वी बापिकाबों, उदासीन धावक-बाबिकाबों, साहित्यकारों, कसाकारों, धर्म एवं संस्कृति के पोषक राजा-महाराणानों, रानी-महारानियों, राजकुमार-राषकुमारियों, अन्य राबपुरुषों, सामन्त-सरवारों, पर्वबीरों, कर्मवीरों, युखवीरों, श्रेष्ठियों एवं श्रेण्ठिपलियों, अन्य उल्लेखनीय श्रावकभाविकाबों, सांस्कृतिक-सामाजिक-आर्षिक-राजनीतिक बादि किसी भी क्षेत्र में उल्लेखनीय उपलब्धियां प्राप्त करने वाले प्रमुख पुरुषों एवं महिलाबों, आदि का संक्षिप्त, यथासंभव प्रामाणिक, परिचय ससंदर्भ संकलित किया गया है। महाबीर-पूर्व काल के पोराविक युग से केवल त्रिषष्ठि शलाका पुरुषों तथा स्वतन्त्रता. सेनानियों मादि ऐसे गति प्रसिद्ध स्त्री पुरुषों का ही चयन किया गया है जो जनमानस में प्रायः ऐतिहासिक जैसा ही स्थान बनाये हुए हैं। परिशिष्ट में वर्तमान खुन २०ीं बती ई. में अधुना दिवंगत उल्लेखनीय व्यक्तियों, विशेषकर साहित्यकारों, और समाजसेवियों का भी समावेश कर लिया गया है। इस कोम के निर्माण की कहानी मममम ५. वर्ष पूर्व प्रारम्भ हुई। १९५६१. में अपनी विश्वविद्यालयो शिक्षा समाप्त करके हमारी विशेष रूचि बन इतिहास के अध्ययन एवं शोष-सोज में प्रवृत्त हुई। उस समय तक पीटर. सन, मंगरकर, हीरालाल मादि की रिपोर्ट; वेलकर का जिनरत्नकोक, कनिषम, गिरनॉट. स्मिय. फहरर. लास. राइस. नरसिंहाचर आदिको जन हस्तलिखित अन्बों, शिलालेखों, पुरावशेषों, कलाकृतियों आदि से सम्बन्धित शोष-खोज, मावं. पर, अपपिरिरामो बादि के दक्षिण भारतीय जैनधर्म विषयक प्रबन्ध, ही प्रकाश में पाये थे। उस काल तक भारतीय इतिहास विषयक अन्यों में राजनीतिक इतिहास पर ही बल दिया जाता था, सांस्कृतिक इतिहास उपेक्षित रहता था, कहीं कुषहमी दिवा पाता था तो कोड एवं ब्राह्मण परम्परा तक ही सीमित रहता था। इसी बीच स्वयं नजगत में पं. नाथूराम प्रेमी एवं आचार्य बुनक किशोर मुख्तार ने, विशेषकर बैन साहित्य के इतिहास को सशक्त भूमिकाएँ तैयार की, शीतलप्रसाद, बार कामताप्रसाबबादि ने भी ऐतिहासिक विषयों पर कसम पसाई, मो. हीरामासन एवं हा ए. एन. पाध्ये से मेघावी Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 9 ) साहित्यिक इतिहास संशोधक एवं अन्य सम्पादक भी प्रायः सभी प्रकार में जा रहे थे। इस पृष्ठभूमि में जिस तथ्य ने हमारा ध्यान विशेषरूप से वित किया वह यह था कि जैन परम्परा में एक-एक नाम के कई-कई, कभी-कभी दर्जनों, आचार्य एवं ग्रन्थकार हो गये हैं । प्रसिद्ध प्रसिद्ध जैन शास्त्रों का मुद्दमप्रकाशन तो शरम्भ हो गया था किन्तु जिन शास्वीय पंडितों द्वारा उनके अनुवाद, टीकादि या सम्पादन हुए उनमें ऐतिहासिक प्रज्ञा अत्यल्प होने के कारण, बहुषा नामसाम्य से भ्रमित होकर, एक नाम के विभिन्न कमों एवं साहित्यकारों को उनमें से जो सर्वप्रसिद्ध हुए उनसे अभिमान लिया जाता था यया समन्तभट्ट, पूज्यपाद, अकलंक, प्रभाचन्द्र बादि आचार्यों को तनामों के fafa गुरुयों के समस्त कृतित्व का श्रेय दे दिया जाता था। पं० प्रेमी जी एवं मुक्तार साहब ने ऐसी अनेक गुत्थियों को सुलझाने का सफल प्रयत्न किया । शताब्दी के पांचवें दशक से स्वयं हमारे अनेक लेख 'अमुक नाम के जनगुरु' या 'अमुक नाम के जैन साहित्यकार' पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगे। जैनाचार्यों एवं साहित्यकारों ही नहीं, नामसाम्य के कारण प्रमुख ऐतिहासिक पुरुषों एवं महिलाओं की पहचान में भी वैसी ही कठिनाई एवं भ्रान्तियों के लिए अवकाश रहता था । अतएव, इसप्रकार की समस्त सामग्री एवं सूचनाओं को हमने तभी से नकारादि क्रम से एकत्र करना प्रारम्भ कर दिया । उसमें उत्तरोत्तर संशोधन संबर्द्धन भी होता गया । अपने शोधप्रबन्ध 'प्राचीन भारतीय इतिहास के जैन साधनस्रोत (ई० पू० १०० से सन् ९०० ई० पर्यंन्त )', इतिहास ग्रन्थ 'भारतीय इतिहास: एक दृष्टि', 'प्रमुख ऐतिहासिक जंग पुरुष और महिलाएँ', 'उत्तर प्रदेश और जैनधर्म' आदि के निर्माण में उक्त सामग्री से अभीष्ट सहायता मिली । पत्र-पत्रिकाओं में लेखों का क्रम भी साथ-साथ चलता रहा । वर्तमान २०वीं शती ई० विशेषज्ञता का युग रहा बाया, जिसमें ज्ञानविज्ञान के प्रायः प्रत्येक क्षेत्र मे विधिवत शोध-खोज, अनुसंधान मोर गवेषणा की अभूतपूर्व प्रगति हुई -इन प्रक्रियाओं की तकनीकों और विधानों का भी दुतवेग से विकास हुआ। प्राचीन ग्रंथों के सम्पादन व संशोधन की भी स्तरीब वैज्ञानिक पद्धति प्राप्त हुई। किन्तु विगत कई दशकों में एक अन्तर नक्षित हुआ -जबकि शताब्दी के पूर्वार्थ में कार्यरत अथवा कार्यारंभ करने वाले विद्वान प्रात: स्वान्तः सुब्बाय समर्पित भाव से, श्रम एवं समय की उपेक्षा करके, अपनी क्षमता, शक्ति एवं प्राप्त साधनों का यथाशक्य पूरा उपयोग करते थे, उत्तरा के दशकों में कार्य करने वालों की संख्यावृद्धि तो हुई, किन्तु उनकी मनोवृत्ति तथा कार्य के Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (vi) प्रति समर्पण की भावना में पर्याप्त अन्तर सक्षित हो रहा है। पुराना विज्ञान प्राय: निलमी या बल्प सन्तोषी था वह अपनी प्यास बुलाने के लिए स्वयं कुंला सोचता था, साधन सामग्री स्वयं सोचता, जुटाता और संग्रह करता था, और फिर उसका मन्थन करके अपनी गवेषणा प्रस्तुत करने का प्रयास करता था। बाब का विद्वान नाविक नाम एवं व्यवसायिक बुद्धि से अधिक प्रेरित होता है, सब कुछ पका पकाया, सहज-सुलभ चाहता है शोधकार्य में भी सरलतम रूटीन, फारमूल, अमोलिक साधन-स्रोतों का सहारा लेता है, कम से कम समय एवं श्रम के व्यय से अपना शोधप्रबन्ध या ग्रंथ लिख डालने की चेष्टा करता है । अतः, इस बीच, प्राय: पुराने विद्वानों की साधना के फलस्वरूप जो अनेक विविध संदर्भ ग्रन्थ प्रकाश में बा गये हैं, वह भी उसके लिए वरदान हैं । उक्त संदर्भ ग्रन्थों में देश के विभिन्न शास्त्र-भंडारों में संग्रहीत हस्तलिखित प्रतियों की वैज्ञानिक पद्धति से निर्मित सविवरण सूचियां, विविध प्रशस्तियों के संग्रह, शिलालेख संग्रह, पट्टाबलियों-गुर्वावलियों- राज्य वंशालियों-विज्ञप्तिपत्रती माताओं- राजकीय अभिलेखों आदि के संग्रह, प्राचीनपुरावशेषों- कलाकृतियोंferni-yera आदि के सविवरण सूचीपत्र, स्थलनाम कोश, ऐतिहासिक व्यक्तिकोश, विषयविशेषों से सम्बन्धित कोश, विश्वकोश आदि परिगणित हैं। प्राचीन ग्रन्थों के स्तरीय सुसम्पादित संस्करणों की तुलनापरक एवं विवेचनात्मक प्रस्तावमाएं एवं विभिन्न अनुक्रमणिकाएं, परिशिष्ट बादि भी बड़े उपयोगी होते हैं । प्राचीन ग्रन्थों के स्तरीय सम्पादन संशोधन में पं० प्रेमी जी एवं मुस्तार साहब के अतिरिक्त डा० उपाध्ये, प्रो० हीरालाल जी, डा० महेन्द्र कुमार न्यायाचार्य, पं० कैलाशचन्द्र जी, फूलचन्द जी, बालचन्द जी प्रभूति विद्वानों ने उत्तम मानदण्ड स्थापित कर दिये थे, जिनका अनुकरण परवर्ती विद्वानों ने बहुत कम किया है। यह अवश्य है कि उपरोक्त प्रकारों के जो सदर्भ ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं, उनमें अनेक त्रुटियां एवं दोष है, जैसे प्रामाणिक, सम्तोषजनक एवं सेवांगपूर्ण होना चाहिए था, वैसे उनमें से गिने-चुने ही शायद है । किन्तु कुछ न होने से जो कुछ हैं, वह भी पर्याप्त लाभदायक हैं, और फिर ये प्रारम्भिक प्रयास हैं । तो प्रस्तुत ऐतिहासिक व्यक्तिकोश भी ऐसा ही संदर्भ ग्रन्थ है -उसी रूप में उसे ग्रहण करना उचित है। लगभग ७० वर्ष पूर्व, १९१७ ई० में मारा के कुमार देवेन्द्र प्रसाद ने सैन्ट्रल जैन पब्लिशिंग हाउस से स्व० सू० एस० टंक को 'एडिक्शनरी माफ जैना बायोग्रेफी' नाम को छोटो सो पुस्तिका प्रकाशित की पीवो अंग्रेजी वर्णमाला के प्रथमाक्षर 'ए' तक ही सीमित रही । उसमें दिये गये Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (vii) ) परिषयों बीत सेवा की गतिक पानकारी के अतिरिक्त बस्यन्त जीवित थे, क्योंकि पौधे दिन संदर्भ बों का संकेत किया गया है बबा पो मान कोषको संदर्भग्रन्थ संकेतसूची में निर्दिष्ट हुए हैं, उनमें से प्रायः कोई भी की टंक के समय तक प्रकाशित ही नहीं हुए थे। स्व. शुल्लक जिनेन्द्रवी का 'पने सिद्वान्तको विशालकाय ग्रंथ है, किन्तु वह मुस्थतया सिद्धान्तकोख है। प्रसंगवश 'इतिहास' के अन्तर्वात प्रायः कतिपय ऐतिहासिक व्यक्तियों, स्थानों पटनाबों आदि का भी उसमें समावेश करने का प्रयास किया है, उनमें से अनेक परिचय या तथ्य त्रुटिपूर्ण, सदोष, मर्याप्त या भ्रान्तिपूर्ण है। मतएव उक्त दोनों में से किसी भी प्रकाशन से प्रस्तुत कोशको स्थानपत्ति नहीं होती, इसकी मावश्यकता एवं उपयोगिता भी कम नहीं होती। यों, टियां, कमियां या दोष इस कोश में भी हैं, और उनका जितना और पंसा बहसास स्वयं उसके निर्माता को है, वैसा और उतना शायद ही किसी प्रबुद्ध पाठक को है। श्रम और समय की परवाह न करते हुए और यथासमव सावधानी बरतते हुए भी कुछ कथन भ्रामक या अयथार्थ भी हो गये हो सकते है, मुद्रण की भी कुछ अशुद्धियां रह गई हो सकती हैं, जिन सबके लिए सहत्य पाठकों से विनम्र क्षमा याचना है। जैसा कि कहा जा चुका है, कोक की सामग्री अकारादि क्रम से ही, गत ५० वर्षों से एकत्र होतीबा रही थी -उसे उसी रूप में प्रकाशित करने का साहस नही होता था। किन्तु, वृद्धावस्था के इतवेग से आक्रमण तथा शारीरिक स्वास्थ्य की उत्तरोत्तर गिरती ही स्थिति देखकर विचार हुमा कि जितना और जैसा भी संभव हो इसे प्रकाशित कर देना ही उचित है। हमारे सम्पादन में २८ वर्ष सफलता पूर्वक चलकर जैनसन्देश सोषांक का प्रकाशन संघ के वर्तमान अधिकारियों की कृपा से स्थगित हो गया, किन्तु तीर्थंकर महावीर स्मृति केन्द्र समिति, उ०प्र०, लखनऊ के अधिकारियों ने बैसी शोषपत्रिका के अभाव को पूत्ति के लिए 'शोधादर्श' का प्रकाशन उससे अधिक भव्यतर रूप में प्रारम्भ करने का निर्णय कर लिया। हम सुअवसरका साम उठाकर, उनके आग्रह से, अपनी पूर्व सचित सामग्री को मूलाधार बनाकर वर्णमाला के प्रत्येक अक्षर की प्रविष्टियों को क्रमबद्ध, सुव्यवस्थित एवं सांकेतिक संदों से सत्यापित करके कोसगत सामग्री का क्रमिक प्रकाशन प्रारम्भ हवा और शोषाव के प्रथम छः बैंकों में कोश के १२० पृष्ठ क्रमशः मुखित एवं प्रकाशित हो गये। उन्हें पढ़कर बनेक प्रबुद्ध पाठकों को प्रतिक्रियाएं प्राप्त हुई-बह अभूतपूर्व योजना है; अत्यन्त उपयोगी है, महत्वपूर्ण है, अत्यावश्यक है, इसे Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (vii) बाल रक्खें, इसे पुस्तकाकार प्रकाशित करदें, इत्यादि। अतएव यही निर्णय लिया कि नामरी वर्णमाला के १२ स्वराबरों (-) में समाविष्ट कोश का प्रथम बम प्रकाशित कर दिया बाय। साथ में (प्रास्ताविक भूमिका) बामुख के अतिरिक्त, परिशिष्टगत, उसी अकराविक्रम में प्रदत्त प्रविष्टियों में, २०वीं शती ई. में मधुना दिवंगत विशिष्ट व्यक्तियों, विशेषकर विद्वानों, साहित्यकारों, कलाकारों, समाजसेवियों या अन्य उल्लेखनीय उपलग्धियां प्राप्त स्त्री-पुरुषों के संक्षिप्त परिचय दे दिये बायें। वर्तमान मती में दिवंगत व्यक्तियों के चुनाव में पर्याप्त कठिनाई एवं असमंजस की स्थिति रहती है-वे हमारे अपेक्षाकृत साक्षात् परिषय में रहे होते है, दूसरे, उनके निकर बात्मीय भी वर्तमान होते हैं, तीसरे कवन की ग़लनियां सहज ही पकड़ बी भाती है, और प्रत्येक व्यक्ति अपने सम्ब. पियों का नाम कोश में देखने का इच्छा होता है । तथापि प्रयास किया ही है। संदर्भग्रन्थ-संकेतसूची तथा सामान्य-संकेतसूची भी दे दी गई हैं। इस प्रकार यह बड स्वयं में प्राय: सर्वाषपूर्ण होकर कम से कम इस क्षेत्र में भविष्य में कार्य करने वाले लेखकों के लिए एक सन्तोषजनक माडल का काम तो देगा ही। इसी नमूने पर हमारे द्वारा एकत्रित सामग्री के माधार से बागामी 'कवर्गादि' खण्ड भीमाः प्रकाशित किये जा सकते। इस कार्य की निष्पत्ति में पूर्वगत विद्वानों के आगीर्वाद एवं प्रत्यक्ष-परोक्ष प्रेरणा, वर्तमान प्रबुद्ध पाठकों का प्रोत्साहन, तीर्थंकर महावीर स्मृति केन्द्र समिति के महामन्त्री और हमारे अनुज अजितप्रसाद बन(अवकाश प्राप्त उप सचिव, उ.प्र. शासन), पुत्रों डा. शशि कान्त जैन (संयुक्त सचिव, उ०प्र० शासन तथा अध्यक्ष, अनन्त-ज्योति विद्यापीठ) एव रमाकान्त जैन (अनुमचिव, उ.प्र. शासन तथा मन्त्री, मानवीप प्रकाशन), पौत्र नलिन कान्त जैन (मालिक,रत्न-ज्योति प्रेस), संदीप कान्त जन एवं अंशु जैन 'अमर' (एम.ए.-इतिहास एवं पुरातत्व), पौत्रियों कु. मलका एवं कु० शेफाली (प्रत्येक एम.ए., बी.एड.) मादि से यथावश्यक सहायता एव सुविधा प्राप्त हुई है। इस कोश की गुणवत्ता के श्रेय मे वे सब भागीदार हैं, कमियों एवं दोषों का उत्तरदायित्व मात्र कोशकार का है। ____थाशा है, इस कोश का प्रबुद्ध जगन द्वारा उचित स्वागत होगा और इसका उपयोग करने वाले इससे लाभान्वित होगे। ज्योति प्रसाद जंग ३बून, १९८८ ज्योति निकुन्न, चारबाग, लखनऊ-१९ (उ.प्र.) Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ अकका जेन-ज्योतिः ऐतिहासिक व्यक्तिकोष प्राचीन मथुरा के जैन संघ की एक प्रभावक आर्थिका, बारणगणमहटिकियकुल- बजनागरीशाखा के पति की शिष्या, महनंदि एवं बलवर्म को श्रद्धाचारी तथा नन्दा की शिष्या, जिसके उपदेश से ग्रमिक जयदेव की पुत्रवधु और प्रमिक जयनाग की धर्मपत्नि सिंहंदता ने वर्ष ४० (सन् ११० ई०) मे एक शिलास्तंभ स्थापित किया था । [जैकिस. ii ४४; एवं-१, ४३ नं० १] मक्कादेवी- हुमच्च के सान्तर नरेश राय सान्तर की धर्मात्मा रानी और उसके उतराधिकारी चिक्कवीर सान्तर की जननी, ( ल० १००० ई०) [ प्रमुख १७२] अक्कादेवी- चालुक्य राजकुमारी, जयसिंह द्वि० जगदेकमल्ल (१०१४-४२ ई० ) की भगिनी, जिसने अरसिबोडि में गोणद- वेडंगी नामक सुन्दर जिनालय निर्माण कराया था, बौर २०४७ ६० मे, चालुक्य नरेश सोमेश्वर प्र० के शासनकाल में, गोकाक दुर्ग में निवास करते हुए उक्त जिनालय के रखरखाव तथा मुनि आधिकाओं के बाहार दानादि के लिए मूल संघ-सेनगण-पोगरिगच्छ के आचार्य नागसेन पंडित को भूमि आदि का प्रभूत दान दिया था। [ देसाई १०५ -६ एवं xvil, पृ० १२२: जेविसं iv, १२४ ] देवी- साम्तर नरेश तेल तु• त्रिभुवनमल्ल जगदेकदानी (११०३ ई०) की द्वितीय रानी, नति सान्तर की साली, काम, सिंगम एवं ऐतिहासिक व्यक्तिको १ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक [प्रमुख १६०; जैशिसं, १२४ ] अक्काम हेरिडिति - विजयनगर सम्राट कृष्णदेवराय की एक जैन महिला सामन्त जिसने १५१५ ई० में बरांग के जिनमंदिर की भूमि व्यवस्था कराने में सहायता दी थी। अम्मण की जननी, बडी धर्मात्मा । [ प्रमुख १७४; जैशिसं iii, ३४९] होयसल नरेश बल्लाल द्वि० (११७३-१२२० ई०) के मन्त्री चन्द्रमौलि की जननी और शंभुदेव की पत्नि । [जैशिसं. iv ४५८ ] अक्कसाल कामोल - ने बोल सम्राट कुलोतुग राजेन्द्र की पुष्यवृद्धि के लिए चन्द्रप्रभ जिनालय के लिए दान दिया था उक्त नरेश का शासनकाल १०७४-११२३ ई० है । [जैशिस iv २२४; प्रमुख ११३३ अकबर, जलालुद्दीन मुहम्मद-भारत का महान मुगल सम्राट ( १५५६-१६०५६०), उदारनीति एवं सर्वधर्म सहिष्णुता के लिए इतिहासप्रसिद्ध । हीरविजय सूरि आदि कई जैन गुरुओं को सम्मानित किया, उनकी शिक्षाओं से भी प्रभावित हुआ, जैनों के हित में कई फर्मान भी निकाले । उसके शासनकाल में जैनधर्म और उसके अनुयायी पर्याप्त फले-फूले । अनेक जैन शि० ले० एव साहित्यिक रचनाओं में उसका उल्लेख है । अकमल------ अकम्पन --- [ देखिए- भाइ. ४७४-९५; प्रमुख २७७-८१] या अकुकवि, ब्रजभाषा हिन्दी पद्य में रचित 'सीलबत्तीसी' (३४ छन्द) के कर्ता- १६६४ ई० मे लिपिबद्ध एक गुटके में प्राप्त, बतः १७ वीं शती ई० के पूर्वार्ध में हुए होंगे। [ अने० १४/११-१२/३३३] १- ती० ऋषमकालीन काशिनरेश, सती सुलोचना का पिता, स्वयंवर प्रथा का प्रस्तोता-पुत्री का स्वयंवर किया । २- भ० महावीर के एक गणधर शिष्य, अपरनाम अकम्पित, fafeलावासी गौतमगोत्री ब्राह्मण विप्रदेव और जयन्ती के पुत्र । [महापुराण; जैशिसं० १०५ ] ऐतिहासिक व्यक्तिकोष Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1-बाबी के निवि नरेश चेटक के सप्तम पुत्र,म० महावीर के मातुल । [अब...] बाबा- तवा उनके संघ के... मुनियों पर प्राचीन काल में हस्तिनापुर में सवालि ने भीषण उपस किया था, जिससे मुनि विष्णु कुमार ने उनकी रक्षा एवं उबार किया था,रक्षाबन्धन परिंग। वपर, दे. बकम्पन । १. बकनरदेव य भट्टाकलापस (न. ६४०.७२०१०), महान मावक दिमम्बराचार्य, याक्कि, दार्शनिक, बादी एवं अन्धकार, जैन न्याय के सोपरि प्रस्तोता, बकला-प्याय के पुरस्कर्ता, देवसंच (गण) से सम्बड, गावापी के पश्चिमी पासुक्य नरेजों पारा पूषित, पीबों पर बार-विजय के लिए प्रसिख, उमास्यामिकत तत्वार्यसूत्र की तत्त्वार्थरावपातिक तथा समन्तभद्रात माप्तमीमांसा की अष्टमती नाम्नी टीकानों, और लचीपस्त्रय, स्थावविनिश्यच, सिद्धिविनिश्चय, प्रमाणसंग्रह प्रभृति महानगन्चों के प्रणेता, महब नृपति के पुत्र, राजन् साहसतुंग तवा विकसिमनरेष हिमशीतल द्वारा सम्मानित, अनेकविले. में तवा परवर्ती साहित्यकारों द्वारा सावर स्मृत एवं प्रशंसित, ब्राह्मण एवं बौर नैयायिकों द्वारा भी प्रशंसाप्राप्त, तथा पूज्यपाब, पूज्यपाद भट्टारक, वादिसिंह, बाबीसिंह, मावि बनेरु सार्वक विभप्राप्त, अकलर नाम के सर्वमहान एवं सर्वप्रथम मात बनाचार्य । [मने. १६/२;सिमा. १५/२;मोषांक १-४ सो० १७१.१०.] २- मकमर पडित, बवणबेलगोलस्थ चन्द्रगिरि के ल. १.९६० एक मि.ले.में उल्लिक्षित भाचार्य । बिक्षिसं. १६९;शोषांक-१] ३-'बकनीषिय बाविषयकुछ'-मूत्रसंच-वेशीषण-पुस्तकमच्छ-कोयकुन्दापय के मापनादि कोल्लापुरीय के प्रविष्ण, देवकीति (वर्ष ११६३६.) के शिष्य, शुभचन्द्र *विध एवं गडविमुक्त पाक्षिणतुर्वर रामचन्द्र विष के सपा ऐतिहासिक म्यक्तिकोष Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोर माणिक्य-भण्डारि मरियाने, महाप्रधान दण्डनायक भरत aer mrकरण हेगडे चिमय्य जैसे होयसल राजपुरुषों द्वारा गुरूरूप से पूजित । [तिसं. ४०; शोधांक.११ : ४- विवेक जरी वृत्ति (११९२ ई०) के कर्ता अकलङ्क । [सं० पं०, व्या० कु० च० - प्रस्ता० २५; शोधांक- १] ५- अकलङ्कचन्द्र, मूल नंदिसंच सरस्वती गच्छ बलात्कारणच की पट्टावली में ७३ में गुरु, वर्द्धमानकीति के पश्चात और ललितकीर्ति के पूर्व समय ११९९-११०० ई० । [ईए० x ३४१-६१; शोधांक- १] ६- कलकेरे के भट्टारक answer जिनके लिए मूलसंघ कुन्दकुन्वान्वय-कारगण - तिम्मिभिगच्छ के माचार्य भानुकीर्ति सिद्धान्तदेव के गृहस्थ शिष्य हानिनावुड ने पार्श्वनाथ - जिनालय निर्माण कराया था, ल० ११ वीं शती ई० । [देसाई १४५, ३९०; शिसं iv ६१९] ७- अकलकुदेव, जिन्होंने इबिसंघ- नन्यान्मय के वादिराज मुनि के शिष्य महामंडलाचार्य - राजगुरु पुष्पसेन के साथ १२५६ ई० में हुम्मण में समाधिमरण किया था। [ एक viii, मागर ४४; जैशिसं iii, ५०३; शोधांक- १] ८- अकलसंहिता तथा श्रावक - प्रायश्चित (१३११ ई०) के कर्ता कलङ्क भट्टारक, संभवतया पोरवाड़ जातीय । O [केचं न्या०] कु० च० प्रस्ता० २५; प्रसं १५० ; शोषांक - १] ९- अलमुनिप, नंदिसंध बलात्कारमण के जयकीर्ति के शिष्य, चन्दप्रभ के सधर्मा, विजयकीर्ति, पाल्यकीर्ति, विमलकीर्ति, श्रीपाल कीर्ति और आर्यिका चन्द्रमती के गुरु, संगीतपुरनरेश सालुवदेवराय द्वारा पूजित, बंकापुर में मादनएल्लप नृप के मदोन्मत प्रधान गजेन्द्र को अपने तपोबल से शान्त करने वाले, स्वर्गवास १५३५ ई० [ सं १२९, १४४: शोधांक- १] १०- अकल कुदेव - संगीतपुर (हाइबल्लि, दक्षिणी कनारा जिला) के मूलसंघ - देशीगण-पुस्तकगच्छी पट्ट के भट्टारक, श्रवणबेलगोल मठाचार्य चारुकीति पण्डित के परम्परा शिष्य, ऐतिहासिक व्यक्तिकोव Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नं.८ प्रमिषा, कर्नाटक-शब्दानुगासन के कर्ता भट्टाकन देव के गुरु, समय ल. १५५०-७५ सोन्दागरेश बरसप्प नावकी ने अपने १५९८०के ताम्रशासन मे सयं को इन बकलरदेव का प्रिय शिष्य कहा है। होषांक-११.१४देसाई. १३०-१३१] ११- भट्टाकलादेव, सुधापुर के मेट्टारक, नं० १. शिष्य, विजयनगर मरेश वेष्टपतिराव(१५५६-१६१५१.)द्वारा सम्मानित, सुषापुर में ही विविध मान-विज्ञान की शिक्षा प्राप्त की, छः भाषानों में कविता कर सकते थे, विभिन सम्प्रभावों के न्याय शास्त्र में निष्णात, निपुण टीकाकार, कला एवं संस्कृत भाषावों के व्याकरण के महापरित, बनैक नरेशों की सभागों में गादविजय करके चैनपर्म की महती प्रभावना की, मचरीमकरंद (१६.४.) तथा सुप्रसिद्ध कसरी व्याकरण कर्णाटक-सम्मानुशासन के रचयिता थे जिसके कारण लोकप्रसिद्ध हुए, १५८७१. केहिले. (मि. iv ४९.) तथा १६०७६० के शि. ले. (वैक्षिसं iv ५.२) में भी इन्हींका उल्लेख है। संभवतया १६०७ १० में इनका स्वर्गवास हुवा था। [शोषांक-१ पृ. १४;बार. नरसिंहाचार्य कर्णाशम्दानु. भूमिका एवं कर्नाटक-कविचरित] १२- अकलर-प्रतिष्ठापाठ या प्रतिष्ठाकल्प के रचयिता मटाकमदेव, जिसमें जिनसेन (९वीं शती) से मेकर सोमसेन विवर्णाचार (प्राचीनतम उपलब्ध प्रति १७०२१०) तक के उडरल-उल्लेख बदि प्राप्त है, बत:ल. १७.०६.। शोषांक-११प्रसं० १६५-८,१६७] १३- वादि बलमुनि, ल. १७४.०, वो विवयकुमारकये के पत्तो पद्मराब के गुरु थे। शोषांक-१/१५] १४- भट्टाकलामुनिप, देशीगण-पुस्तकगच्छ के कनकगिरि (काल) के भट्टारक, १८१३१. में समाधिमरण सियापा। एक. iv, १४,१५०; शोषक-१/१४] १५-बस्तीपुर के एक निश्चित तिपिके लि.ले. में उल्लिषित, Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [एक. १४५शोषांक-१/१४) १६- परमानवसार नामक कार प्रब के कर्ता भकला। [शोषांक-१/१५; सिम. बाराम.सू. १५२] १७-विधाविनोद नामक संस्कृत वैद्यकशास्त्र के कर्ता अकसर स्वामि इन्होंने अकलमट्टारक, बीरसेन, पूज्यपाद एवं धर्मकीति महामुनि के उल्लेख किये हैं। [लोषांक-१/१४;मारा सूची. ५. न्याय कु.च. प्रस्ता.] १८- विद्यानुवाद नामक मन्त्रशास्त्र के रचयिता अकला। [बही; सोषांक-१/१४] १९-तफलवन के कर्ता अकलाकवि। [वहीं] २०- चैत्यवन्दनादि सूत्र, साधु-बाड-अतिक्रमण, पपर्याय-मंजरी नामक अन्यों के रचयिता बकलदेव । [वही] २१. अकला-स्तोत्र, स्वरूपसम्बोधन, वृहत्स्त्रय, न्यायचूलिका, प्रमाणरत्नदीप, अकलर-प्रायश्चित, जैन वर्णाश्रम आदि, अकला के नाम से प्राप्त या प्रासिद्ध ग्रन्थों के रचयिता, एकाधिक विद्वान । [बही.] यह संभावना है कि उपरोक्त २१ मे से कई एक परस्पर भिन्न हो। साथ ही देवगण के पूर्वमध्यकालीन गुरूओं में, परवर्तीकाल मे संगीतपुर, सुधापुर, कान आदि के भट्टारकों में, तथा श्वेताम्बर परंपरा में भी अकलंक नाम के कतिपय अन्य मुरूबों के पाये जाने की संभावना है। मानेर-श्वे. पूर्णिमागल्छीप, ११८३-८७ ई., जिनपतिसूरि . समकालीन। [बरतरगच्छ वृहद् गुर्वावलि] अयो - तंजौर के प्रतापी नरेश कोलुत्तुंग चोल (१०७४-११२३ १०) का चतुर्ष पुत्र एवं उत्तराधिकारी, विक्रम एवं त्रियम्समुह विरुदधारी, विद्वानों एवं गुणियों का बश्रयदाता, जैन धर्मानुयायी नरेश । [प्रमुख.११३] दक्षिणापत्र के राष्ट्रकूट वंश में कृष्ण नामधारी नरेशों की विषिष्ट उपाधि (दे. कृष्ण) १. कामवर्ष कृष्ण भिवंग (७५७-110).. [क्षिसं iv ५५] ऐतिहासिक पतिको Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. बकालवण पुस्तुर (८७९-९१४.)- यह नरेश नपा। (#fare iv vu) ३. बकालवर्ष कष्ण ili सुनतुंग (९३९.६७ ६.) यह भी बन पा। [भाइ २९४-३.८ प्रमुख ९८-१.८ विसं iv..] दे.बकमल। १. महाभारतकालीन यदुवंती बीर, कृष्ण का बाम्बव, ती. नेमिनाप का भक्ता २. मगमनरेश श्रेणिक बिम्बसार (ल. ..पू.) का एक पुत्र, ती. महावीर का भक्त। [प्रमुख १५] मनीति- एक विष मुनि जिन्होंने मदुरा से वाकर बवणबेलगोल की चन्द्रागिरिपर शापवा सर्प से उसे पाकर, समाधिमरण किया था। उसका यह स्मारक लेख पल्लवाचारि ने लिखा था । [शिसं । १५-] मेवार-उद्धारक सुप्रसिद्ध भामाशाह का पौत्र, जीवाशाह का पुत्र, मेवाड़ के राणा कर्णसिंह का बोर तदनंतर राणा जगतसिंह का प्रधान दीवान रहा, कुशल सेनानायक और वीर योद्धा भी था। [प्रमु ३०२-३.३] या अखपराम, दि० गृहस्थ पंरित, मंडलाचार्य विषानंदि (सूरत के मटारक) के शिष्य ने जयपुर नरेश जयसिंह के सूबा गुजरात में नियुक्त मुख्यमन्त्री श्रावक ताराचा के चतुर्दशी प्रतोद्यापन के उपलक्ष्य में १७४३. की चैत्र शु. ५ को चतुर्कीवतीचापन विधि-पूजा. जयमाल आदि सहित पकर पूर्ण की थी। महेन्द्रकीर्ति की जकड़ी भी इन्हीं की कृति है। [प्रवी। २०;प्रमुख ३१८ च ४६] नमक- विवेकमंजरी (हि.) के कर्ता। बसवता -जोधपुर नरेश मानसिंह (१८०३-४३.)का अत्यन्त शक्तिशाली बोसवाल दीवान, राज्य में प्राय: सर्वेसर्वापा. १८१७६० में राज्य के साथ ईस्ट इंडिया कम्पनी की दिल्ली-संधि का विरोध किया, राजा भी भयसाता पा, किन्तु अन्ततः राजा ने इस दीवान को विषपान द्वारा मरवा गला दीवान ने १५०५०में बालौर में निहासिक पतिकोष Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक सुन्दर पाश्व-विनालंब भी बनवाया था जिसके प्रतिष्ठाचार्य जिनहर्षसूरि थे। [टक; टाड] साह अबराज श्रीमान, चौवहगुणस्थान-वर्ग (गब-पडा) के रचयिता (१७वीं शती ई.), संभवतया विषापहारस्थोष-टीका व एकीभावस्तोत्र, कल्याणमन्दिर तथा भक्तामर स्तोत्र' की भाषा टीकामों के भी कता यहीं है, दिन. पंडित । [कंच १५८, १७०) या अक्षराम-२० अक्षयराम अवापराम- मराम- दे.बसयराम अनि बोमब-ने १५३९१० में श्रवणबेलगोल के त्यागव-ब्रह्मा-जिनालय के लिए स्थायी भूदान आदि दिए थे। दानी श्रावक कम्यय्य का पिता। [मेज ३४८; प्रमुख २७४] बगरमच्चायत- अगरणी, अमर मेहता, या मेहता अगरचन्द बच्छावत, अकबर-जहांगीर कालीन बीकानेर के सुप्रसिद्ध कर्मचन्द बच्छावत के वराज पृथ्वीराज का ज्येष्ठ पुत्र था (जन्म १७२० ई.), उदयपुर मेवाड़ के राणा अरिसिंह वि. ने उसे मांडलगढ़ का दुर्गपाल नियुक्त किया, शीघ्र ही राणा का प्रमुख मन्त्री बन गया, उसके उत्तराधिकारियों, हमीरसिंह द्वि. और भीमसिंह के समय में राज्य का प्रधान बना रहा, कलम और तलवार दोनों का धनी था, अनेक युद्धों में भागलिया। लगभग बाधी शती तक राज्य की निष्ठापूर्वक सेवा करके १८००६. में, ८० वर्ष की परवावस्था में इस कुशल प्रशासक, सुदक्ष राजनीतिज्ञ, प्रचण्ड शूरवीर और स्वामिभक्त न राजपुरुष का स्वर्गवास हुआ। उसका अनुज हंसराज और पुत्र मेवाड़ राज्य के प्रतिष्ठित राज्यमन्त्री रहे। [प्रमुख. ३२७-८ टोकदारकर. २२५-२२७) अगरवी- दे. अगरवन्द बच्छावत अपरमेहता- दे. अगरचन्द बचायत मगरम्य- गंगनरेश एरेपगंगनीतिमार्ग प्र. (८५३-७.६०)का स्वामिभक्त ऐतिहासिक बक्तिकोष Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बम---- अन्यसदेव एवं पूरी साहा की बी । मूल स्वामी के समाविवरण के समय भी उसकी [अयुब ७८ ] - मारवाड़ निवासी धूमसंची मे १४०६ ई० मे अबजवेअमोल में जाकर एक नितिमा प्रतिष्ठित कराई थी । [मे. ३२५३३२; एक. १०२] के उतर मकोट जिले के करन्दे स्थान की विनासन के गोपुर का योगद्वार २०४८ [iv५१९] मुनिमिर के कुन्युना ६० में कराया था। मे उड़ीसा की सम्बगिरि की छोटी हामीगुफा, ई० पू० प्रथमशती में, चैनमुनियों के लिए एक मैच बनवायी थी । अभ्यषि या जन्मसदेव, जो भुतकीर्ति ये, और जिन्होंने ११८९ ई० में कम की रचना की थी वह कवि और उनका उक्त काव्य बनेक परवर्ती विद्वानों द्वारा प्रशंसित हुए । [जैसा ११० पु. १०३ : ककच . ] चालुक्य सम्राट सोमेश्वर प्र. एवं वि. के महाप्रधान धन सेनापति बलदेव के पिता, गंगवंशी सामन्त । [जैधिस. iv १३८, १४३] मनसे- के पुत्र शान्तिसेट्टी ने समाधिमरण क्रिया का में. १२-१३ ती । „[#fmg iv {••] बाठवीती में जीर्णोद्धारित आन्ध्रप्रदेश के एक प्रसिद्ध विनालय का मूल निर्माता । [#fir iv. vs] मणि- ती. महावीर के द्वितीय पचवर । [पठीशती ई० पू०] विनीय हरिवंश पुराण (सर्व ६०) में प्रदत्त राज्यवंशाक्सी के अनुसार बयम्ती का शासक, वसुमित्र-सह (स. २री बनी ई० पू० ) [जैसी. २६-०] पतापुर के महापौर वक्त पी कुम्हार शब्दासपुत्र की पर्यायापरी । [२३] ऐतिहासिक व्यक्तिकोन [शि v ११] विद्यमर्ती के विष्य ग्रन्थ 'चन्दनचरित' २४ पौराणिक कामेदेवों में बी (चीन मोदक ये कामदेव । ) का प्रमुख, जिसे विनम्राचार्य ९ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोहाचार्य के प्रायवती ईसापूर्व मे जकास्पद की बहसंख्यक बनता के साथ जनम में दीक्षित हिमा बताया जाता हैबबीतकाम्यय या अमवालों का पूर्वक। बहरापनकी सन्तति में उत्पादच्याशी मजयथा, ऐसी बनुश्रुति है। उसके १५ पुचों के गुरुगों के नाम पर बवालों के साडेसत्तरह गोड प्रचलित ए बताये जाते हैं। . . . . .. । मशेचार-देवगण-पाषाणामय के बावार्य, बिमोहिम महीदेव के गृहस्थ शिष्य निरवय ने मेलसगिरि पर १०६. लगभग निरच. जिनालय निर्माण कराया था। परन्दपं सेनमार नामक तरकालीन राजा ने उस मन्दिर के रित में एक दानशासन जारी किया था. अन्य अनेक लोगों ने भी दान दिया था। शिसं १९३] १. पौराणिक ९ वनमहों में से बितीय स्वभा २. पौराणिक ११ द्धों में खड़े कर। ३. ती. महावीर के ११ गणपों में से नौवें गणधर अचल, , बचलतम बलमाता। ४. यमोबाह बोर कोण्डकुन्द के मध्य होनेशले १२ बचाने मे से । विसं १०५]. ५. . अपनवास राग [शिसं ४ २५३-२५४] परित फीरोजाबाद में बकायनाते को कपा' रची, ___ वापहारवाया' भी कर्ता। २. 'विश्वनाथ विसनपुण ' मा स्नोत्र की रथमा, १९५८ ई० में, करने पो कि [टा १. कारंजा के काष्ठासदी महाक खोल के और दिल्ली पट के मण्डलाबार्य र शिष्य अचलकीर्ति ने १६६६ पौष शु २ सोमवार के दिन 'नगर' नामक स्पन में धर्मखो' की हिन्दी का में रal संशक है कि तीनों अभिन्न हों। देवीकोट (जैसलमेर) के कोना माल नाटा , मावलीमद के पुर उa r am में से (१८४७-१९११६०), म्यूनिसपल कमिश्नर एवं बनरेरी ऐतिहासिकम्मक्तिकोष Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचलदार - अचला चाची www मनिस्ट्रेट भी रहे १००० १०९३ र १०५९ ई० के दुनिय में तब बनता में निशुल्क विवरण किया था। [टांक] ००) के प्रेमी चन्द्रावत राजा, ह ल. १५५० ई० । [२५३-४] 3. grow i fwww*w*** *tw # रानीम. १०६०६० । एक [ng to; #fæ ii ze¶]· * होगा नरेश रहि * (११४९-७१ ६०) की रानी, . की जननी- दे. एचसी । ३. वी [मेजे. १६९ ] धर्मात्मा पत्नी । - वणी (व.) की एक जैन महिला, महहण की पुत्री, भद्रवश की पुत्रवधु, भद्रनंदि भार्या, जिसने मथुरा में एक सुन्दर प्रस्तर मा पित किया था। एई, १४,३२] राजपुरा- भानुपुरा के जिमचर्म पोषक पन्द्रावतवंशी राजा दुर्गमान ( **१९-९३ ई०) का पिता । [ख २८७ ] - मोहनीय गोशाल, वंशसंस्थापक मोहनजी की १८वीं पीढ़ी में, नागराज का पीच, काका की प्रसिद्धि के तानों का पितामह, जोधपुर नरेश राम्रो चन्द्र ने १५६२ ई० में नदी पर बैठते हो अचलोजी को अपना मंत्री बनाया मुसलों के विरुद्ध लड़े गये राजा इसों में उसने भाग लिया, अन्तः ई० के सबराड़ राजा की रक्षा की । [अस] ३०६ टांक ] मीर ने की प्राणदेकर बुद्ध में इस राजा ने उसकी स्मारक बनी बनवायी। दे. (देसाई. १३.. अच्युतराजेन्द्र जैन राजा. ११५० ६० । या वच्युतदेव (११२६०), धवनगर देवराय की उत्तराधिकारों, उसके शासन में अनेक जिन ११ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ उ मन्दिरों को दान दिवेगवे, १५३९ ई० में बोम्मटेड (वयबेयोन) का महामस्तकाविषेव भी हुआ। यह राजा जैनाचार्य बाबा के शिष्य कीति का चयन पा F - [प्रमुख. २७२; वैशिसं iv ४६७; मे. ३५८ ] का पुष, विद्यायन्य स्वामी का वक्त जैम नरेश उसके राज्यधर्मात्मा परि चिक्कतायि ने कनकाच ग्रास की पूजार्थ १९०९ ई० में किन्नरीपुर का कार किया था इसका पुत्र भी कुल वैद्य था । ४०१; एक iv १५८ ] [ उदय, वीट पानी दे दी । [प्रमुख २०; भाइ. ६९] का नगदेश, स. १४००६०१ [मेजे. ३४२ फु० नो०] -- स के बोनश्रेष्ठि का पौत्र, कस्लप श्रेष्ठि एवं मामाम्बा का धर्मात्मा पुत्र, ditor- पनलोक ( पनसोमे) बलि के ललित कीर्ति भट्टारक के शिष्य देवेन्द्र सूरि का गृहस्थ शिष्य, १४वी जती के अन्तिम पत्र मे अपने नगर की नगरकेरिस मे विविध प्रतिष्ठित कराया था, एवं दानादिक दिये थे । [२४१-२ सुविधा के अगव बेठ फतहचंद के पुत्र मार्गदचंद की पुत्री और कमलनयन बाँकी के पुत्र उदयचन्द की पत्नी, धर्मात्मा महिला (१७७३६०) । [] जब नरेना का बजवासन, यो त्रिभुवनगिरि (ताहमवद, बयाना के निकट) का मंत्री नरेश (११३०-५१ ई०) बा बीर जिसके राजविहार में माधुरसंगी विनयचन्द मुनि ने अपनी 'नदी' आदि न विची थीं। वह कुमारपाल प्र० का उत्तराधिकारी था । उसके एक अन्य श्री पात्र (१९९२-९४) वा । चेष्ठि, डा रत्नपान जिसने महोबा में १२६३ ई० में विविध प्रतिष्ठा करा की जननी का नाम वाणि Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सापा और बालों के जीविपान, बस्तुपात एवं विभुषमपाल थे। प्रतिष्ठित प्रविका तीबंकर विद्यमान ही पी। [ए. एस.बाई. २१, पृ. ७४ वैक्षिसं. iii ३६०, ३६१] बबराब- बाबजयदेव, शाकंभरीका चौहान नरेश, गोपज का पिता म.११.१-१९.. [गुष. १११,१२९-१२] अनवरा- रणधीर का बिनधर्म पोषक चौहानगरेक, क. १९१०.३..। बाराव पाटी-हिन्दी दिन. न सुकवि, बामेर निवासी, सवाईजयसिंह के समय में,म. १७०.१०, विकी केनिवाबपरिषयशोधर चौपई, पारमित्रों की कवा, चरखा चोपई, काका बत्तीसी, जिनजी की रसोई, शिवरमपी विवाह, नमोकार शिवि, कई पूजाएं, बिनती परमादिसापियरचनाएं। मायराबबीमाल-दिव., जयपुर निवासी न. १९५..विषापहार, कल्याण मंदिर, एकीमाव स्तोत्रों तथा चतुर्दश गुणस्थान चर्चा की गय भाषा निकाचो मेवा पारा के परमारनरेश विन्ध्या का पूर्वप,संभवतया पिता; उसके. अनुव लमीवर्मा का पौष देवपाल, अर्जुनवर्मा के पापात, ल. १२१८९० में गद्दी पर बैठा था। पाल के ये प्रायः सब ही परमारनरेश विनय-सहिष्ण थे। [साइ १३४-१३५] सेनगण के बाबा पीरसेन के प्रतिष्य, पुर्णसेन के शिष्य और उदयसेन के सधर्मा। [प्र. २२७-२२८) अपवर्मा- पा बजयवर्मन, बनवासि का बिनधर्मी कदम नरेश (५६५-६०६६.).कृष्ण-ब हि. का उत्तराधिकारी, उसका स्वयं का उत्तराधिकारी मोनिधर्म था। [भाइ २५५] महावीरवालीन मगधनरेन पिक विमसार का पुत्र एवं उत्तराविकारी प्रतापी सम्राट अजातशत्रु (.पू. ५३५-५०३) अपरलाम कुणिक। ती. महावीर का भी भक्त वा बोर तथागत बुर का भी सम्मान करता था। उसने मगधराज्य का विस्तार करके उसे साम्राज्य पैसा बना दिया, पाटनि-दुर्ग का निर्माण और रणमूसल एवं महाशिलाकंटक से विध्वंसक ऐतिहासिक व्यक्तिकोष Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिका [ भाइ. ६६-६९; प्रमुख १८-२० ] माथुरसंधी साध्वी आर्यिका, जिनकी शिष्या पद्मश्रीने ११७६६ में, उदयपुर के निकट पहेली के जिनमंदिर में जिनस्तम्भ निर्माणित किया था । अतित- १. मूलसंघी भ. धर्मभूषण के प्रशिष्य तथा भ देवेन्द्रकीर्ति के शिष्य, जिनने १५८४ ई० में उबलद (महाराष्ट्र) में नेमिनाथ प्रतिमा प्रतिष्ठित की थी । [कैच. ७२] युद्धयन्त्रों का अविष्कार किया । बड़ा युद्धप्रिय था । अन्त में श्रावक के व्रत भी धारण किये थे । ૪ [जैशिखं ४. २४२-२४३-२४४] २. मूलसंघी म. धर्मभूषण के प्रशिष्य और म. विशालकीर्ति के शिष्य, जिन्होंने १६४४ एवं १६५४ ई० में उखलद (महाराष्ट्र) में बिम्ब प्रतिष्ठाएं की थीं । [जैशिसं २६७-२६८ ] ३. नन्दिसंग - सरस्वती गच्छ बनास्कारगन के भ. धर्मभूषण की आम्नाय में मलवेड (माम्पसेट) पट्ट के भ. धर्मचन्द्र के शिष्य, जिन्होंने १६५४ ई० में कनकयांतुक जाति के दिग जैन सेठ चताहु सेठी एवं उसके परिवार के लिए, संभवतया बालापुर में, जिनबिम्ब प्रतिष्ठित की थी । ४. म. कुमुदचन्द्र के शिष्य और म. विशालकीर्ति (१६७० ई०) के गुरु- नागपुर प्रदेश | [जैसि iv पृ० ४०७ ] ५. उसी संघ गच्छ-गण के नागपुर पट्ट के भ. हेमकीर्ति के शिष्य तथा भ. रत्नकीति के गुरु जिन्होंने १५०० ई० में एक पार्श्व-प्रतिमा प्रतिष्ठित की थी। १७६५ व १७७५ के प्रतिमालेख भी इन्हीं के प्रतीत होते हैं । [सिस iv, पृ० ४१३-१५] ६. अजितकीर्ति प्र०, चारुकीति के शिष्य वीर शान्तिकीर्ति के गुरु, ल. १८०० ई० । ७. प्रतिकीति द्वि, उपरोक्त शान्तिकीति के शिष्य, जिन्होंने भाद्र कृ० चतुर्थी बुधवार १८०९ ई० को श्रवणबेलगोलस्थ ऐतिहासिक व्यक्तिकोष Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रगिरि पर समापिमरल किया था। विसं २] गुजरात के कुन्दकुन्दान्वयी मंडलाचार्य बीकीति के बिन, पारकीर्ति के गुरु और बाकीति के प्रपुर, स. ११. ०० । विसं iv २०७] अनितम्ब-तिलोयपणति आदि के अनुसार चतुर्मुसकल्कि का पुत्र एवं उत्तराधिकारी, जिसने वीराब्द ५९० (सन् १७१-२६०) में दो वर्ष धर्म-राज्य किया था। [हरि.पु ६०/४९;साइक, १७, २१:प्रमुख २००; गणितास-वाराणसी निवासी प्रसिद्ध विमान कवि पन्दावनवास के सुपुत्र, जैमरामावण बपरनाम पद्मपुराण बन्दोबस के रचयिता,ब. १८५००। अजितदास माँसा-जयपुर नरेश मिर्जा राजा जयसिंह के मुख्यमन्त्री एवं बामेर दुर्ग के प्रशासक दिय. जैन मोहनदास मांसा (भावसा) के कनिष्ट पुत्र, संपी कल्याणक्षत के अनुब, जयपुर के संबीपी.के विममंदिर के निर्माता। [मुख. २९३, ३१४] अधितष- १.वे. बाचार्य, 'योपविता' के पविता, ल. १२५० ई.। २. श्वे. माचार्य, पिंडविधुतियोपिका के कर्ता, ल. १६५.१० ३. स्वे. बाचार्य, अल्पसूति के रचयिता च.१०] मनितंबर- पौराषिक बनपति के ११ में से आठवेंश। अविना- चौबीस तीर्थकरों मे से द्वितीय, जन्मस्थान अयोध्या, वंश इक्ष्वाकु, पिता महाराज जितक्षत्र, माता महारानी विजयसेना, निर्वाणस्थान सम्मेद शिवर। अजितपालनाच- ल.११४५६.शि.ले.में उल्लिखित मिससंबी बाचार्य श्रीविजय मुनि के शिष्य या प्रक्षिष्य, संभवतया बजितसेन बादीमसिंह। [वैशिसं ifi ३१९] अबितामरि-वे., १२५.१० में 'शान्तिनाथपरिव' की रचना की दी। अपिताना रामबहादुर- सहारनपुर के ला. बम्यूबसाद के कुटुम्बी, मोहरविह सांची के मतीजे और ला. धमसिंह पुत्र, पार्मिक एवं प्रभावशाली सज्जन । [प्रमुख ३६४] ऐतिहासिक व्यक्तिकोष Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजित- १. या ब्रह्माजित, गोलवार वंशोत्पल वीरसिंह की मा पोथा ( था बोधा) की कुक्षि से उत्पन्न मूलमंदिसंध के सूरत पट्ट के भ० देवेन्द्रकीति अपरनाम सुरेन्द्रकीर्ति (१३८७१४४२ ई०) के शिष्य ब्रह्मचारी, और उनके पट्टधर भ० विद्यामंदि (१४४२-६६६०) के गुरुभ्राता श्रेष्ठ विद्वान, शास्त्रश एवं कुशल कवि थे । भ० विद्यानन्द के बादेश से इन्होंने मुगुकच्छ (मड़ौच ) नगर के नेमिनाथ जिनालय में, ल. १४५० ई० में, संस्कृत भाषा में 'हनुमच्चरित' नपरनाम 'शैलमुनीन्द्रराजचरित' काव्य की रचना की थी। २. प्राकृतभाषा की, ४४ गाथा निबद्ध कल्ला मलोयणा (कल्याणलोवा) नामक अात्मसम्बोधनरूप रचना के कर्तातिवसाया में 'मिद्दिट्ठ अजियवंसेन' पाठ है। संभवतया उपरोक्त से अभि I [पुस. ११२] १६ ३. उत्सवपद्धति तथा उपद्धति के रचयिता संभवतया न. १५२ से अमित है । [टांक] पति- होमसन नरेश विष्णुवर्द्धन के सन्धिविग्रहिक मन्त्री एवं वापि पुषिसमय्य के गुरु द्रविडम्बय के आचार्य, १११७६० के शि० से० में उल्लवित । [जैसि ii २६४ ] अतितीवादिननसूरि के शिष्य और प्रद्युम्नसूरि (१० शवी ) के प्रगुरु । अतिसार- सिहसंघ के आचार्य, सिद्धान्तशिरोमन एवं पटखंडभूपद्धति ग्रन्थों के फर्ता । [टॉक ] अमित सिंह- देवगढ़ (उ० प्र०) के मंदिर म० ११ के शि० से० में उल्लिखित सिंहावय के मानसिंह के शिष्य और धर्मसिंह के गुरु । [जैशिसं ४, पृ० ११७] अजितसिंह मेहता - बर्जुनसिंह के ओरसपुत्र, सवाईसिंह के दत्तक पुत्र, १५६१६० में मेवाड़ राज्य में सिविल जज थे, उनके पुत्र छत्रसिंह मेहता १९१६ ई० में जिलाधीश थे । [ टांक] मसिंह सूरि- राजबन्छी भनेश्वरसूरि के शिव्य, और वर्धमानसूर (१०वींशती) के गुरु | ऐतिहासिक व्यक्तिकोष Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिव १. वाटायम के माचार्य आर्यसेन के शिष्य एवं पट्टवर, कनकलेत के गुरु, जिनसेन एवं नरेन्द्रसेन के प्रमुह- विनसेन के शिष्य महापुराणकार मल्लिवेण (१०४७ ई०) वे और नरेन्द्रसेन के शिष्य नबसेन (१०४३ ई०) थे। मोम्मटसारादि ग्रन्थों के कल नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती (ल० ९५०-९९० ई०) इस मक्तिसेनाचार्य को गुरुतुल्य मानते थे और उनके लिए 'ऋद्धिप्राप्त', 'गणधर तुल्य' 'rorse' जैसे विशेषणों का प्रयोग करते थे । गगनरेश मारसिंह द्वि. गंगबज- मुतियगंग (९६१-७४ ई०) के गुरु भी यही अजितसेनाचार्य ने उन्हीं के निर्देशन में उक्त नरेश ने ९७४ ई० में बंकापुर में समाधिमरण किया था। महासेनापति महाराज चामुण्डराय के भी वह कुलगुरु थे वह स्वयं उनकी माता काललदेवी, भार्या अजितादेवी तथा पुत्र जिनदेव इन्हों आचार्य के गृहस्थ शिष्य थे। जननी की प्रेरणापर इन्हीं आचार्य के मार्गदर्शन में बीरवर चामुण्डराय ने श्रवणबेलगोलस्थ fasoftir की विशालकाय अप्रतिम गोम्मटेश बाहुबलि प्रतिमा का निर्माण कराया था और इन्हीं बाबा से ९८१ ई० में उसकी प्रतिष्ठा कराई थी। यह बक्तिसेन बड़े प्रभावक राजपुर एवं संगाचार्य थे। [शोषांक ४१, पृ० १९-२० ; जैशिसं iv १३०; मोम्मटसारजीवकाण्ड भाशापी० १९७८, जनरल एडिटोरियल पु० ५-१३] २. अजितसेन पंडितदेव 'वावीमसिंह' इविसंघ- नन्दगणअरुङ्गलान्वय के आचार्य कनकसेन वादिराज के प्रशिष्य बौर श्रीविजय ओडेयदेव के शिष्य एवं पट्टधर थे। प्रसिद्ध वाचार्य मदिरारि (१०२५ ई०) को भी वह गुरुतुल्य मानते थे । गुणसेन और कुमारसेन उनके सथ थे, तथा मल्लिवेण मलबारी बादि अनेक शिष्य-प्रशिष्य थे। श्रवणबेलगोल की ११२८ ई० की मल्लिवेण प्रशस्ति में इनकी सूरि सूरि प्रशंसा कीगई है। अन्य बीसियों थि० से० में इनका उल्लेख व ससम्मान स्मरण ऐतिहासिक व्यक्तिकोष १७ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ है । सुप्रसिद्ध संस्कृत मचचिन्तामणि, क्षत्रचूडामणि -काव्याचा स्याद्वावसिद्धि आदि इनकी कई कृतियां हैं। उच्च कोटि के संस्कृत साहित्यकारों में इनकी गणना है। भारी बादी, शास्त्रार्थी. राज्यमान्य एवं प्रभावक माचार्य थे । निश्चित ज्ञात तिथि २०५७ ई० है जो संभवतया इनके समाधिमरण की है। बड़े दीर्घजीवि थे, पण ६० वर्ष तो मुनि जीवन रहा। [शोषक- ४१.२०; जैसि भा. ३५.नं. २१-२३; वैशिसं । ५४; iv २४६.२८२. ] ३. सेनगणाग्रगण्य अजितसेनाचार्य जिन्होंने तुलुवदेशस्थ वंगवाडि की शासिका जैन रात्री विट्ठला देवी के पुत्र कामिराम वीर नरसिंह बंगनरेन्द्र ( १२४५-७५ ई० ) के पढनार्थ श्रृंगार मन्जरी नामक अलङ्कार शास्त्र की रचना की थी । काव्यशास्त्र के पिंगल, छन्द, बलकार आदि विषयों में यह बाचार्य निष्णात थे । अलङ्कार चिन्तामणि, छन्द: प्रकाश, वृत्तवाद नामक ग्रन्थों के रचयिता बजितसेन भी यही रहे प्रतीत होते हैं । [ शोषांक ४१.२० ] ४. आ. माणिक्मनंदि के परीक्षामुखसूत्र की लघु अनन्तवीर्यकृत प्रमेयरत्नमाला नाम्नी टीका की व्यायमणिदीपिका नामक टीका के रचमिठा अतिसेनाचार्य । [ शोधांक ४१.२० ] ५. शाकटायन के सब्दानुशासन पर वक्षणमईकु चिन्तामणि टीका ( लघीयसीवृत्ति) की मविप्रकाशिका टीका के कर्ता अजितसेन । [वही.] ६. बिल संघी वासुपूज्य वैविच के विग्य समयदिवाकर अजितसेन पंडित जिनका समाधिमरण ११९४ ई० में हुआ प्रतीत होता है । [ जोशिसं. v. १११ ; शोधांक ४१] संभावना है कि न. ४,५ और ६ अ हो । ७. सेनगण को पट्टावली में नं० १४ पर, अलि के पश्चात और सुम्मसेन के पूर्व उल्लिखित नि । [सभा, १,३७४३] ८. सेनयम की एक दूसरी पट्टावली में राजसेन के उपरान्त तथा नरेन्द्रसेन चैविद्य के पूर्व उल्हसित बक्तिसेन । यह नरेन्द्र सेन ऐतिहासिक व्यकि Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 जैविद्य पं० भासावर (१२९१-१२४३६०) के गुरु कमल के परदादा गुरु ये [शोषांक ४१. २०: जेए xiii २. १-९ ६. वर्णमान सुनि के भक्त्वादिवारण में प्रदत्त पट्टावली में नं. ४ पर, बार्यन के पश्चात र बीरसेब के पूर्व उल्लिखित बजितसेव । [ नही.] १०. म. १२ जी के शि० से० में बारियदेव, बालचन्द्रदेव और देव के उपरान्त तथा पो के पूर्व उल्लिखित नजितसेनदेव | [ iv ३०१] ११-१२. मैसूर प्रदेश के लंकले नामक स्थल में एक ९ भट्टारकों को नामांकित मूर्तियां उत्कीर्ण हैं, किन्हीं अजितसेव भट्टारक को है, और म० भटार की है । [जैशिकं iv ५४०-५६ ] १२. अजितसेन मुनिवर, जिनके गृहस्थ सिष्य और मन्त्री चामुण्ड के पुत्र विश्व नै भवनबेलवल में जिनमंदिर निर्माण कराया था । लेक तिविरहित है किन्तु यह माचार्य उपरोक्त नं० १ से अमित प्रतीत होते हैं । [f. i. 49] पर जिनमें से ब०५ किन्हीं अजितसेन अनितादेवी-- मोम्मटेश संस्थापक ( ९०१ ६० ) बीस्मा महराज चामुण्डराय की भार्या और जिनदेवण की जननी, धर्मात्मा महिला [ प्रमुख. ८४ ] अभीतती-- ब्रहमचारिणी बाई बजीतमति, सामवाल (हूंगरपुर) के सम्पन्न चिन. जैन हैबड धावक कान्ह जीकी पुत्री, सच्चयतया हिन्दी की प्रथम ज्ञात जैन कवियत्री, अनेक फुटकर पद्य रचनाएँ अध्यात्मिक छन्द, पटपद, भक्तिपरक पद आदि एक मुठके में संक्त प्राप्त हुई हैं। निश्चित ज्ञात तिथि १५९३ ई० है जो उनके स्वयं के द्वारा उक्त गुटके के मिलने की तिथि है। सूरत पट्ट के भ. बादि चन्द्रसूरि की वह गृहस्वशिष्या रही प्रतीत होती है । [दे. वीरवाणी, ३ मई ८४, पृ. १११-१५] या अजनूप, कुन्तलमाड का एक जैन राजा, ल. १४०० ई० [जैशिसं. iv. ४३३] ऐतिहासिक व्यक्तिकोष १९ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्मषि- दे. मज्यमंदिया यिनंदि । मस्वरेष- है भार्यदेव । सम्वविमटार-जिन्होंने तामिलनार के तिरुमलाइ, बानमा पर्वत आदि स्थानों में कई मुनियों को, जो संभवतया उनके गुरु थे, मूर्तियां निर्माण कराई थी - समय लगभग ८ वीं-१० वीं शती ई के मध्य । [देसाई. ४२, ५६-५९; कंच. २९,३५-३८] तमिलदेश के विशेषकर मदुरा प्रदेश मे जिनधर्म का पुनरुवार करने वाले महान प्रभावकबाचार्य थे। दे. बार्य वजया पत्र। महासामन्त, रट्टबंसी,ने १०४. में एक जिनालय के लिए प्रभूत दान दिया था। संभवतया वह सौन्दति के पृथ्वीराम रटटवाली शाखा से भिन्न किसी अन्य शाखा का नरेश था। महापौरकालीन एक प्रसिद्ध दस्यु, ५.. चोरों का सरदार, बम्बु. कुमार के बाद से प्रभावित होकर उनके साथ ही, अपने साथियों सहित, मुनिदीक्षा लेनी और मधुरा के बन में तपस्या करके कल्याण लान किया। मथुरा के कंकाली टोला क्षेत्र में इन तपस्वियों की स्मृति में ५०१ स्तूप निर्मित हुए बताये जाते है। अन्यता सुनारी-बीरबर हनुमान की जननी, बनम्बय (पवन कुमार या प्रभ बन) की पत्नी, विद्याधर नरेश महेन्द्र की पुत्री और प्रहलाद की पुत्रवधु । सोलह पौराषिक महासतियों में परिगणित, पाक्षिक सुखीला, पतिव्रता नारीरला बनेककषियों ने उसकी करुण कहानी चिषित की। असली -नाडोल के जिमषी चौहान नरेण आल्हपदेवकी रानी और महाराज केल्हणदेव की जमनी । इस राजमाता ने ११६४ ई. में चंदेराव ग्राम के महाबीर बिनालय के लिए भूमि दान दिया था। बहरादित्य- दे. अबटरादित्य प्र. एवं हि.कोमावबंदी बैन नरेश, न. ११...। प्रमुख. १५८] मटठोपवासमटार- दे. अष्टोपवासि भटार. ऐतिहासिक व्यक्तिकोष Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुभाग- J अण्णम अष्णय्य अण्णव्या tate का माहवान जैन नरेश, १११५६० [च. १६३०२४ बोरवर हनुमान का अपरनाम [3. पु.] - दे. हनुमान १. स्वयंभू छन्द (ल. ८०० ई०) मे उल्लिखित प्राकृत के पूर्ववर्ती ऋषि [बसाइ ३०५ ] २. गोम्मटेड प्रतिष्ठापक मुराय (१०२ ई०) का बोलचाल का भय नाम । धाई, २९३ ३. अण्ण, आणक - शाकभरी के अणोराज चौहान के अपनराम- दे. antar. मदुरा के पांड्य नरेश के जैन राजमन्त्रो इस अण्णन मिल रेमन की प्रार्थना पर सिमिकुलम (जिनयिरि) जिनमन्दिर की भूमि को करमुक्त किया गया था, १२५३ ई० में + [ive ३३१-३३२] कोल्हापुर के शिलाहार कालीन ११३५ ई० के शि. ले. में स्था नीय रूपनारायण जिनालय के संरक्षक वीर-वणिक संघ का प्रतिनिधि धर्मात्मा जैन सेठ । [जेथिस iv २२१] मैसूर नरेश चिक्कदेवराज ओडेयर का जैन टकसालाध्यक्ष, राजा से प्रार्थना करके श्रवणबेलगोल में 'कल्याणी' सरोवर निर्माण कराया, और उसके पौत्र कृष्णराज प्र. ओडेयर (१७१३-३१ ई०) के समय में उक्तसरोवर के तट पर सभामंडप, शिखर बादि नाकर उक्त निर्माण कार्य को पूर्ण किया था। [जैशिसं. i तू. ४८-४९: सोषांक-३८ पू. ६०४०५ ] राष्ट्रकूट सम्राट कृष्ण तु. के जैन महासाध्य बीर कवि पुष्पदंत (९५९ ६०) के आश्रयदाता भरत के पितामह । [जैसाई. ३१६; प्रमुख. १०९] अग्नि बीर नोद, राजा बय्यप्प का ज्येष्ठ पुत्र, स. ९५० ई० [मेजे. ६९] मन्जिव भट्टारक- १०२४ ई० के मारोल शि. ले. के महापंडित वनन्तवीर्य के प्रयुत, प्रभाचन्द्र के गुरु और विमुक्तवतीन्द्र सिद्धान्तदेव के शिष्य दिन. आचार्य । [देसाई. १०५ ] अनंतनश्रेष्ठि- राजा त्रियम्बक का महामात्य, 'जिनधर्म महामति', चन्दनवेष्ठि का पुत्र, ल, १५वीं शती । ऐतिहासिक व्य २१ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिप्रेमान- 'ल्यामुक्त श्रवणोज्ज्वल' उपाधिधारी, केरल का जैन नरेश (ल. ११वीं शती), एरिणि का वंशज और किसी राजराजा का पुत्रइसने कतिपय यक्ष-यक्षिणी मूर्तियों का जीर्णोद्धार कराके तिकमले (महसुगिरि, महंत का पवित्र पर्वत) पर प्रतिष्ठापित किया पा, प्रणाली बनवाई थी बार घंटा मावि दान दिये थे । उक्त स्थान तुण्डीरमण्डल (सोमंडल) मे स्थित था। [क्षिसं. ifi. ४३४; प्रमुख. ११३] तिवीर- ती. वर्तमान महावीर का एक नामान्तर। अतिकाम्बिका- वानसबंशी जैन नरेश चाङ्गिराज की धर्मात्मा माता-दे. चारित राज [शिसं. ii. १८६] मतिमाकन शंबुकुस पेरिमाल-दे. राजगंभीर शंबुवराय, राजराज तृ. चौल का बन सामंत. [मेजं. २४९] अतिमने- कल्याणी के उत्तरवर्ती चालुक्यबंश संस्थापक सम्राट तैलप दि. (९७३-९७ ई.) के प्रधान सेनापति मल्लप की पुत्री, प्रधानामात्य घल्ल की पुत्रवा, प्रचण्ड महादण्डनायक वीर नागदेव की प्रिय पत्नी, कुशल प्रशासनाधिकारी वीरपदुवेल की जननी, 'दानचिन्ता. मणि' महासती अत्तिमम्बे आदर्श धर्मपरायण महिलारत्न थी। उसके सत् के तेज से नर्मदा का तूफानी प्रवाह स्थिर हो गया था, ऐसी अनुश्रुति है । कन्नड महाकवि पोन के शान्तिनाथ पुराण की उसने एक सहस्त्र प्रतियां अपने व्यय से लिखवाकर वितरित की थीं, अनेक मंदिरों व देवमूर्तियों का निर्माण कराया था, चतुर्विषपान में सवा तत्पर रही, अनेक पामिक उत्सव, तीर्थयात्राएं, तथा लोकोपयोगी कार्य किये । परवती समय में अनेक विशिष्ट धर्मास्मा महिलामों को उसकी उपमा दी जाती यो-'अभिनव अत्तिमन्ने' कहलाना बड़े गौरव की बात समझी जाती रही। [प्रमुख. १९५-१९८; भाद. ३१४-५; शिसं iv ११७; देसाई. १४०. १४१; मेच. १२७, १५६-१५७] बत्तियो- दे. बत्तिमम्बे-अत्तिमम्बरसि नामरूप भी मिलता। iv. ११७] ऐतिहासिक व्यक्तिकोष Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मारादित्य- कर्णाटक राज्य के कुर्म एवं हासन जिलों का भार कोवलनाड कहलाता था-१० से १२वीं शती पर्यन्त इस प्रदेश पर बोल नरेशों की सन्तति में उत्पन्न कोंगाल्ब-बंशी नरेशों का राज्य रहा । इसवंश के सब राजे व रानियां बावि परम जिनमत थे। इसच में बदटरादित्य उपाधिधारी दो राजा हुए- राजेन्द्र पृथ्वी कोंगाल्व बदटरादित्य प्र० (१०६६-११.. ई.) तथा उसका पुत्र एवं उत्तराधिकारी विनुवनमल्ल-बोल-कोबाल्ब बबटरादित्य हि.। इन नरेजों ने बबटरादित्य- त्यालय अपरनाम कोंगाल्व जिनमूह बादि कई भव्य विनमंदिर बनवाये- कापूरमच्छ के भाचार्य गन्डविमुक्त सिद्धान्तदेव, प्रभाचन्द्र सिद्धान्त प्रभृति कई विग. मुनिराजों को स्वगुरु मानकर उनका सम्मान किया, अन्य अनेक कार्य धर्मप्रभावना के लिए किए । इनके अनेक मन्त्री, राज. पुरुष, अधिकारी, सामन्त बादि भी जैन थे। दे. अटरादित्य । [प्रमुख. १८६-१९८; भाइ. ३३०-१; शिसं... ४९८,५००; ii. २२४] अदभुत रुग्णराज-चन्द्रावती-आबू का परमारवंशी जैन नरेश, ९६७ ई०, अरण्य राज का पुत्र, संभवतया कान्हरदेव से अभिन्न है । इसका पुत्र धरणीवराह था। [गुष. १८७,१९८] या बदलरादित्य, होयसल मरसिंहदेव के महासामन्त मलि. नाचिदेव के उपनाम, ११५. ई.- दे. वाचिदेव । [जेशिसं. iii. ३३३] मदिवम- एक प्रचन्ड बोल सेनापति जिसे विष्णुबईन. होयसल और उसके जैन सेनापति गंगराज ने बुरी तरह पराजित किया था । दे. मादियम । [शिस । ५३, ९., भू. ९०: प्रमुख. १४३] अधोमुख- पौराणिक नवनारदों में बन्तिम। अम्याडिनावक-या मलेयाल अध्याडिनायक, एक कुशल धनुषर न बोर, जिसने १२४४ ई. में श्रवणबेलगोलस्व विनयपिरि से चन्द्रागिरि का अचूक निशाना लगाया था। [वैक्षिसं.i.७४) भगङ्गपाल तोमर-दे. अनंगपास तोमर। ऐतिहासिक व्यक्तिकोष Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनमानक-त्रिभुवनगिरि का शूरसेनवंशी जैन नरेश (१५५. बी पाल के पुत्र त्रिभुवन पाल का प्रपौत्र, विजयपाल का पौष, दूर. पाल का पुत्र। [कंच. २७] मालवा पासवन-जो गुणसेनदेव का शिष्य था, और जिसके भतीजे पाचन बीपालन ने मास के कीलक्कुडि स्थान में जिनप्रतिमा प्रतिष्ठित कराई बी-ल. ७वीं शती ई. में [षिसं. iv. ३३.३८] विजयनगर मरेश हरिहर वि.के शासनकाल के १३९७ ई. के लि.ने.के अनुसार राजा के एक बन्यु इम्माड पुक्क का जैन धर्मा बबंदी पुत्र अवन्त क्षमापति । [जैचिसं.५.१८२] मनन्तषि- कनड कवि, भ. भीलसागर बोर पंडिताचार्य के शिष्य, १७७८ ई. में 'बेखगोल-गोम्मटेश्वर चरित' की रचना की थी, जिसमें अनेक ऐतिहासिक तथ्यों एवं घटनाओं का भी उल्लेख है, जिनमें से कई प्रमपूर्ण है। [कच; शिवं. भू. २७, ४८] अन्लोड-जिसके पुत्र बादिसेट्टि ने माविनकेरे (मैसूर प्रदेश) के चन्द्रनाथ चैत्यालय में, ल, १४वीं शती ई० में, एक मनोश चतुर्विंशति तीर्थकर प्रतिमा प्रतिष्ठापित की थी। [शिसं. iv. ४१९] मसन्तीति- १. मूलनन्विसंध की पट्टाबलियों में न० ३३ पर, उज्जनी-पट्ट के अन्तर्गत, उल्लिखित बाचार्य, पट्टाली प्रत्त समय ७०८७२८ ई., देशभूषण एवं धर्मनंदि के मध्य. [सिभा.i.४,७५. 0.; मोपांक-1] २. प्रामाण्यभङ्ग नामक ग्रन्थ के कर्ता (स. ७५० ई.)- अनन्तवीर्य ने नवमी सिडिविनियर टीका में इनका उल्लेख किया है। [शोषांक-३] ३. बृहसमिति एवं लघुसमिति के का, जिनके उल्लेख एवं उद्धरण बावि शान्तिसूरि के बंगकंवार्तिक, बमयदेवसूरि के बावमहार्णव, प्रभाचन्द्र के न्यायकुमुदचन्द्र बोर वादिरान के न्याय-विनिश्चयविवरण में प्राप्त होते है -ये सब आचार्य प्राय: ११वीं शती.के हैं। इन अनन्तकीति का अनुमानित समय नौवीं शती ई. है। [थोषांक-1] २४ ऐतिहासिक माहियोग Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. वादिराज (१०२५ ई०) द्वारा जीवसिद्धिकरण के कर्ता के रूप में स्मृत अनन्तकोति--संभवतया यह स्वामिसमन्तभद्र (२री सती ई०) कृत जीवसिद्धि की टीका होगी । धर्मसिद्धि, प्रमाणनिर्णय आदि के कर्ता अनन्तकीर्ति भी संभवतया यही है, और संभव है कि न० ३ से अमिन हों । [शोधांक-३] ५. मालव के शान्तिनाथदेव से सम्बद्ध बलात्कारगण की चित्रकूट आम्नाय के मुनिचन्द्र सिद्धान्तदेव के शिष्य अनन्तकीर्तिदेव, जिन्हें. १०७५ ई० के लगभग, केशवदेव हेगडे मे भूदान आदि दिया था । [जैशिसं. ii. २००; एक. vii. १३४] ६. दिग. माथुरसंत्री अनन्तकीर्ति, जिनने ११४७ ई० में बीकानेर प्रदेश में एक जिनप्रतिमा प्रतिष्ठित की थी । [ बीका. लेसं. २४५७; शोषांक-३] ७. अनन्तीति मुनि तपसाबक, जो होयसल नरेश बोर बल्लालदेव वि. के दण्डनायक भरत की धर्मात्मा पत्नि जक्कब्बे के गुरु ये - इस महिला ने १९९६ ई० में समाधिमरण किया था । [जैशि. iii. ४२७; एक vii. १९६; प्रमुख. १५८ ] ८. काजूरगण की पट्टावली में देवकीर्ति के पश्चात और धर्मकीर्ति के पूर्व उल्लिखित अनन्तकीर्ति, जो १२०७ ई० में बान्धव नगर की शान्तिनाय वसति के अध्यक्ष थे । [शोधांक-३: प्रसं १३३; जैशिसं. iv. ३२३] ९. देशीगण - पुस्तकगच्छ के मेषचन्द्र जैविद्यदेव (स्वनं. ११९५ ई०) के प्रशिष्य, आचारसार ( ११५४ ई०) के कर्ता बीरनन्दि सिद्धान्तचक्रवर्ती के शिष्य, रामचन्द्र मलधारि के गुरु और शुभचन्द्र अध्यात्म (स्वर्ग. १३१३ ई०) के प्रगुरु अनन्तकीर्ति मुनिप - संभवतया न ० ७ से बनिश हैं। [जैशिसं . ४१ ] १०. काष्ठासंघ- माथुरगच्छ पुष्करमण के प्रतिष्ठाचार्य अनन्तकीर्ति, जो चन्द्रवाड (फीरोजाबाद, उ० प्र०) के १३७१ ई० के कई प्रतिमालेखों में उल्लिखित हैं। यह श्रेयांससेनके शिष्य और कमलकीति (१३८६ ई०) के गुरु थे । [शोधांक-३; जैसिना. xiii, २, १३२; प्रमुख. २४८ ] ऐतिहासिक व्यक्तिकोष २५ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. इसी गण- गच्छ के भ. कमलकीर्ति ( १४४९-८८ ई०) के शिव्य । [ शोधांक ३] १२. नंदिसंघ-सरस्वती गच्छ बलात्कारगण के सागवाड़ा पट्ट के मंडलाचार्य रत्नकीर्ति के शिष्य, जिन्होंने १४४५ ई० के लगभग विशाल चतुविध संघ सहित दक्षिण देश को विहार किया था और वहाँ रत्नकीर्ति पट्ट स्थापित किया था, जिसके मुनि नग्न एवं बनवासी होते रहे । [शोधांक-३; जैसिभा. xiii. २.११२११५ ] १३. इसी संघ-गण- गच्छ के मालवा पट्ट के अभिनव रत्नकीर्ति के शिष्य, कुमुदचन्द्र ( १५५० ई०) के सधर्मा, और ब्रह्म रायमल्ल (१५५९-७६ ई०) तथा भ. प्रतापकीति ( १६१९६०) के गुरु- समय ल. १५५० ई० । [शोषांक - ३ ] १४. इसी गण-गच्छ के कृष्णगढ़ पट्ट के भ. महेन्द्र कीर्ति के पट्टघर और भ. भुवनभूषण के गुरु अनन्तकीति- १७५५ ई० । [ शोषांक - ३] १५. इसी गण- गच्छ के नागोर पट्ट के भ. सहस्त्रकीति द्वि. के शिष्य और हर्षकीर्ति के गुरु भ. अनन्तकीर्ति- ल. १८०० ई० । [ शोषांक - ३] १६. मूलसंघ - काण्रगण के अनन्तकीर्तिदेव जिनके गृहस्थ शिष्य बोप्पय ने, १४वीं शती ई० में, समाधिमरण किया था। [जैशिसं. iv ४१८] १७. अजमेर के नंदिसंघी भ. महेन्द्रकीर्ति के पट्टधर मोर भुवन भूषण के गुरु भ. अनन्तकीर्ति (१७१६-४० ई० ) । इन्हींके उपदेश से १७३७ ई० में श्रावक रामसिंह ने मारोठ में साहों के जिनालय की प्रतिष्ठा कराई थी। [ प्रभावक. २३०; कंच. ०६ ] अनन्तवास-- मे संघीदोगलदास आदि कई सेठों के सहयोग से, भ. क्षेमकीति के उपदेश से, १६३९ ई० में शान्ति जिन प्रतिष्ठोत्सव किया था । [कैच. ७७; अनेकान्त, xiii. १२७ ] अनन्तनाथ - चौदहवें तीर्थंकर, जन्मस्थान अयोध्या, पिता सिंहसेन, माता जय श्यामा, इक्ष्वाकुवंशी नरेश । २६ • ऐतिहासिक व्यक्तिकोष Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनन्यचाय काड कवि, मन्मथ कोरवंजि-पक्षगान के रचयिता, ल. १०००ई० । अनन्तपास--- अन्हिलपुर (बुजरात) के पल्लीवाल दिय. जैन, बामनकवि के ज्येष्ठ पुत्र, कवि धनपाल पल्लीवाल (१२०४ ई०) के अग्रज, पाटीगणित के रचयिता । [ जैसाइ. ४७० ] अनन्तपालय्य-मनेवेगंडे दण्डनायक, चालुक्य सम्राट त्रिभुवनमल्लदेव का जैन सामन्त तथा उसके अधीन एक बड़े प्रदेश का सूबेदार [जैशिसं. - २४३] मनपंडित- कम कवि श्रीपति का मातृल, स्वयं विद्वान एवं कवि, वर्धमान ( १५४२ ई०) द्वारा विद्वत्स्तोत्र में स्मृत दे. अतप्प | अमन्तप्प अनन्तमती - आर्यिका, हुमड़वंशोत्पन्न, जिन्होंने १५४७ ई० में, काष्ठासंघ- नंदीतटगच्छ - विद्याधरगण रामसेनान्वय के म. विशालकीति के प्रशिष्य, भ. विश्वसेन के शिष्य, भ. विद्याभूषण से पार्श्व आदि जिनबिंबों की प्रतिष्ठा कराई थी। बड़ौदा के बाड़ी मोहल्ला के दिग. जैन मंदिर में उक्त लेखांकित पार्श्व प्रतिमा विराजमान है । अनन्तराज मर-बिलिकेरे के जैन राजा, और मैसूर नरेश इम्मडि कृष्णराज ओडेयर के सामन्त एव प्रधान अंगरक्षक राजा देवराज बरसु ( स्वर्ग १८२६ ई०) के प्रपितामह । [ प्रमुख. ३२५ ] अनन्तराम बंध-वालियर निवासी मेहता औसवाल, जयपुर नरेश रामसिंह के दीवान, जिनमंदिर बनवाया, १८४३ ई० । [टंक. ] अनन्त संवेव--- पूर्वीगंग नरेश, जिसके कृपापात्र जैन सेठ कष्णम नायक ने विज़गापटम जिले के भोगपुर स्थान में राजराजा जिनालय निर्माण कराके उसके लिए ११८७ ई० में, अन्य व्यापारियों की सहमति से भूदान किया था। [ मेजे. २५३; प्रमुख. १९१] अनन्तवीर्य- १. वृहद् या वृद्ध अनन्तवीर्य, इस नाम के सर्वप्रथम आचार्य और भट्टाकलङ्कदेव (६४० - ७२० ई०) के सर्वप्रथम टीकाकार जिनका उल्लेख सिद्धिविनिश्चय के टीकाकार अनन्तवीर्यं वि. (रविभद्र. शिष्य) ने किया है। इनका अनुमानित समय स. ७२५-४० ई० है । [शोधांक-१६ पृ. २०५: जैसो. १६८,१७७ ] २. अनन्तवीर्य वि., 'रविभद्र पादोपजीवि', उपलब्ध सिद्धिविनि ऐतिहासिक व्यक्तिकोष २७ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ rarटीका के कर्ता, अकलङ्क - साहित्य के ममेश, विशिष्ट अभ्यासी एवं तलदृष्टा व्याख्याकार, विद्यानन्ध के प्रायः समका लोन, समय न. ८००-२५ ई० । प्रभाचन्द्र और वादिराज द्वारा स्मृत । इनके शिष्य कुमारसेन के प्रशिष्य विमलचन्द्र का समय ल. ९००-३५ ई० है । अकलङ्ककृत लघीयस्त्रय तथा प्रमाणसंग्रह के टीकाकार भी संभवतया यही अनन्तवीयं हैं । [जैसो. १७६, १९९; शोधांक- १६; प्रवी. -१, ८३] ३. लघु अनन्तवीर्य, जो माणिक्यनंदि कृत परीक्षामुखसूत्र की प्रमेयरत्नमाला नामक टीका के कर्ता हैं टीका का अपरनाम परीक्षामुख- पंजिका है । यह टीका प्रभाचन्द्र ( १००९-५३ ई०) कृत प्रमेय-कमलमाखंड के संक्षेपसार के रूप में प्रस्तुत की गई है, और स्वयं उसकी न्यायमणिदीपिका नामक टीका के कर्ता अजितसेन पंडित का समय ल. ११७० ई० है । अतः लघु अनन्तवीर्य १०५० और ११७० ई० के मध्य किसी समय हुए थे । [शोषांक-१६] ४. अनन्तवीर्यं भट्टारक, जिनका उल्लेख १०७७ ई० के एक शि. ले. में अलङ्कसूत्र की वृत्ति के रचयिता के रूप में हुआ है, और जिनके पूर्व - अभिनन्दनाचार्य, कविपरमेष्ठि तथा विद्यदेव का उल्लेख हुआ है, और उपरान्त द्रबिड़संघ- नन्दिगण- अरुङ्गलास्वय के कुमारसेन, मौनिदेव, विमलचन्द्र, कनकसेन वादिराज तथा कमलभद्र का क्रमशः उल्लेख हुआ है- उक्त वर्ष में कमलभद्र को ही लेखोल्लिखित दान दिया गया था। संभवतया उपरोक्त न० ३ से अभिन्न हैं । [ जैशिसं. ॥ २१३; एक. viii. ३५; शोषांक - १६] ५. अनन्तवीर्य या अनन्तवीर्य्यय, जो बेलगोल निवासी वीरसेन सिद्धान्तदेव के प्रशिष्य तथा गोणसेन पंडित भट्टारक के शिष्य थे, बोर जिन्हें ९७७ ई० में रक्कस नामक राजा ने दान दिया था। [जैशिस - १५४; एक. i. ४; शोधांक-१६] ६. अनन्तवीर्य मुनि जिनका उल्मेस चामराजनगर की पापयंबसति के १११७ ६० के शि. ले. में विज्ञानम के मल्लिवेणव्रती ऐतिहासिक व्यक्तिकोष Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के परचातु, श्रीपालदेव के साथ हुवा है | [शिसं -२६४ एक-iv-८३; शोधांक- १६] ७. मन्तवीर्य सिद्धान्ति, जो मूलसंच कानूरगण- कुन्दकुन्दान्वय के मागनंदि के शिष्य उन प्राचन्द्रदेव के सथम थे जो १११७६० केसिले के प्रस्तोता राजा नलियगम के पिता राजाबम्मदेव के गुरु थे अतः ल. ११०० ई० मे थे । [विसं. ॥. २६७; एक. vii-x७; शोधांक- १६] ८. अनन्तवीर्य सिद्धान्तदेव, जो कानूरगण-मेवपाषाणगच्छ के माथनन्दि सिद्धान्तदेव के शिष्य थे, प्रभाचन्द्र बौर मुनिचन्द्र के सधर्मा थे, मोर गंगनरेश रक्कसगंग के गुरु थे यह उल्लेख उक्त राजा के भतीजे मगिंग के मदिर निर्माण एवं भूदान के ११२१ ई० के शि. ले. में हुआ है । अतः इनका समय ल. ११०० ई० है, संभवतथा न० ७ से अभिन्न हैं। [जैशिसं - २७७; शोषांक - १६] ९. अनन्तवीर्य सिद्धान्तकर जिनके शिष्य श्रुतकीर्ति बुध, कनकनंदि विद्य और मुनिचन्द्रवती थे - मुनिचन्द्र के शिष्य कनकचन्द्र, मामवचन्द्र मोर बालचन्द्र त्रैविद्य थे। अन्तिम दोनों को १११२ ई० ( मतान्तर से ११३२ ई०) में जिनमंदिरों के लिए दान दिये गये थे । संभवतया यह अनन्तवीर्य न० ७ एवं ८ से अभिन्न हैं । [जैशिसं. ii - २९९; एक. vii. ६४; शोधांक १६] १०. सूरस्थगण के ' चारुचरित्रभूषर ', ' राजाओं द्वारा बन्दितचरण', 'राद्धान्तार्णवपारम' अनन्तवीर्य, जिन की शिष्य परम्परा में क्रमश: बालचन्द्र प्रभाचन्द्र कल्नेलेदेव अष्टोपवासिमुनि, हेमनंदि, विनयनंदि और एकबीर मुनि हुए- अन्तिम के अनुज पल्लपडित अपरनाम पाल्य की तिदेव के समय के ११२४ ई० के शि. ले. में इनका उल्लेख हुआ है। [जैशिसं ॥ - २६९; एक-iv१९; शोघांक-१६] ११. अनन्तवीर्य, जिनका उल्लेख सेनगण की पट्टावली में न० २२ पर, अमितसेन के प्रशिष्य एवं कोर्तिसेन के शिष्य, तथा बीरसेन के गुरु और जिनसेन के प्रगुरु के रूप में हुआ है -समय ल. ७५० के कुछ पूर्व संभव है कि न० १ से अभिन्न हों। [सोंषांक - १६] ऐतिहासिक व्यक्तिकोष २९ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. अनन्तवीर्य, जिनका उल्लेख उसी पढावनी में न. ४८ पर प्रद्युम्नकाव्यकर्ता महासेन (ल. ९९६-१०.९ई.) के पशिष्य, नरसेन के शिष्य, और राजभद्र के गुरु एवं वीरभद्र के प्रगुरु के रूप में हुमा है। [शोषांक-१६. पृ-२०७] १३. वह अनन्तवीर्य जिनका उल्लेख कर्णाटक के बेलारी जिले के कोगलि ग्राम में प्राप्त एक तिपिरहित प्रतिमा लेख में हमा है। [शोधांक-१६] १४. हुम्मच के, ११४७ ई. के शि. ले. में उल्लिखित, मलधारी प्रतीके कनिष्ठ सघर्मा या शिष्य और श्रीपाल विद्य के सषर्मा, महानवादी अनन्तवीर्य जो द्रविडसंघ-नंदिगण-अरुङ्गलान्वय के आचार्य थे। यह न० ६ से अभिन्न प्रतीत होते हैं, शायद न. ३ से भी। इन्हीं का उल्लेख ११५३ ई. के बेलर के शि. ले. में भी है। [शिसं. iv. २४६; जैशिसं iii. ३२६; एक. viii३७; शोषांक-१६] १५. पश्चिमी चालुक्य नरेश जयसिंह दि. जगदेकमल्ल के १०२४ ई. के एक शि. ले. में उल्लिखित गुरु परम्परा-कमलदेव-विमुक्तव्रतीन्द्र-सिवान्तदेव-अग्णिय भटारक-प्रभाचन्द्र-अनन्तवीर्य में अंतिम आचार्य, जिनके विषय में कहा गया है कि वह उद्भट विद्वान थे, और व्याकरण, छन्द, कोष, अलङ्कार, नाट्यशास्त्र, काव्यशास्त्र, संगीत, कामशास्त्र, गणित, ज्योतिष, निमित्तमान, स्मृति-साहित्य, राजनीति, जैनदर्शन एवं अध्यात्म में निष्णात थे। उनके शिष्य गुणकीति सिद्धान्त भट्टारक और प्रशिष्य देवकीति पंडित थे। यह परम्परा यापनीय संघ की, या मूलसंप. सूरस्थगण-चित्रकुटान्वय की प्रतीत होती है । सभव है न. १० से अभिन्न है। [देसाई १.५] १६. धारवाड़ जिले के मुगद नामक स्थान से प्राप्त १०४५ ई. के एक लि. ले. में उल्लिखित अनन्तवीर्य जो यापनीयसंघ के प्रभाचन्द्र के शिष्य निरवचकीति के प्रशिष्य. गोवर्षनदेव के शिष्य और कुमारकीति के सषर्मा थे। कुमारकीति के शिष्य दामनन्दि बोर प्रशिष्य गोवर्षनदेव विडये जिनके शिष्य दामनंदिगण्ड ऐतिहासिक व्यक्तिको Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमुक्तये । लि. ले. अन्तिम दो भाषायों के समय का है। [देसाई. १४२] १७. अमन्तवीर्य पंडित, जिनका उल्लेख 'प्रवचन-परीक्षा के कता दि. जैन गाह्मण पं. नेपिचन्द्र (१६वीं शती ई.) ने अपने एक पूर्वज के रूप में किया है और उन्हें 'पटवाद-विशारद' बताया है। [शोधांक-१६; प्रसं. १.१] १८. जयदेव भट्टारक के शिष्य, देशीगण के बनन्तवीर्यदेव जिनके प्रिय गृहस्थ शिष्य राय गोड ने आवित्तीयंकर की प्रतिमा प्रतिष्ठापित की थी। शायद इन्हीं के एक अन्य शिष्य ओबेयमसेट्टि ने एक अन्य प्रतिमा प्रतिष्ठापित की पी। [शिसं.iv.५४७,५६७, अनन्तवी -दे. अनन्तवीर्य न. ५- संभव है गृहस्थ पंडित बव्रती भावक अनन्तसेनदेव-सप्तमंगीतरंगिणी के कर्ता पं० विमलदास के गुरु, वीरग्राम निवासी, दिग. [टंक] अनन्तहंसनि-वे., दशकृष्टान्त-चरित्र (१५१३ ई.) के रचयिता । बन्नतामती-गन्ति-नविलूर संघ की तपस्विनी आयिका, जिन्होंने ल. ७००ई० में, बादशतप धारणकर तथा यथाविधि व्रतों का पालन करके धवणबेलगोल के कटवा पर्वत पर सुरलोक प्राप्त किया था। [शिसं. i-२८; एक. ii, ९०] अनपायबोल- दे. कुलोतुंग चोलदेव दि. (११५० ई.) -इसके समय में शेक्किसार ने तमिन के प्रसिद्ध पेरियपुराणम् की रचना की थी। [मेजे. २७४] मनलदेवी- सेनापति बाषडाह कटकराज की पत्नी और कवि भासड की जननी । [टंक] अनसतेन- या बंगसेन, अनुभूति के अनुसार उन्जन के राजा विक्रमादित्य के पुरोहित और बनाना सिद्धसेन दिवाकर के पिता । [टंक] ममानि -ती. महावीरकालीन एवं उनका भक्त श्रावस्ती का धनाधीन, बेतवन बिहार बनाने वाली दुखमक्त विधाता का श्वसुर। [प्रमुख. २३] ऐतिहासिक व्यक्तिोष Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयुषण - १०वीं शती ई. के प्रसिद्ध दिग. जैन दण्डनायक श्रीविषय की एक उपाधि । [टक; एई. x. पृ. १४७-५३; शिसं. iv-९७) अनुपमादेवी- विदुषी, कलामर्मज्ञ, धर्मात्मा महिला, राज्यमन्त्री तेजपाल की धर्मपत्नी, उसी की प्रेरणा एवं देवरेख मे मन्त्रीपर तेजपालबस्तुपाल द्वय ने शत्रुञ्जय एवं गिरनार के और बाबू के विश्व. प्रसिद्ध देलवाड़ा जिनमंदिरों का निर्माण कराया था, १२३. ई. में. [टंक.; गच. २९५] १. या बनिस्त, महाभारतकालीन कृष्ण का पौत्र और प्रघुम्न का पुत्र । २. मगधनरेश उदायी का उत्तराधिकारी, जिसके उपरान्त मुण्ड, नागदशक बादि राजा हुए। [प्रमुख. २०] अनूपसिंह जिनचन्द्रसूरि का भक्त, जैनधर्म पोषक बीकानेर नरेश, १६६९. ९८६० (प्रमुख ३३६] अनूपसिंह भंडारी-जोधपुर निवासी ओसवाल, जब जोधपुर नरेश अजीतसिंह गुजरात का सूबेदार था (१७२०-२१ ई. में) तो यह भंडारी वहाँ उसका प्रतिनिधि तथा सर्वेसर्वा शासक था, किन्तु कर एवं अत्याचारी था, उसने कपूरचंद भंसाली को हत्या कराई । जब १७२१ में हैदरकुली खां सूबेदार हवा तो अहमदाबाद की जनता ने भंगरी की हवेली पर भाक्रमण कर दिया, वह कठिनाई से जान बचाकर भाग सका। [प्रमुख. ३११, टंक] अनंगपाल तोमर-दिल्ली नगर का निर्माण करने वाला तोमरवंशी अनंगपाल प्र. (७९६ ई.); उसके वंशजों में अनंगपाल वि. तथा कुछ कालो. परान्त अनंगपाल त• (११३२ ६०) था, जिसका राज्यश्रेष्ठि नट्टलसाहू था- उसने दिल्ली में कई विशाल एवं भव्य जिनमंदिर बनवाये थे। यह तथा उस वंश के प्राय: सभी राजा जैनधर्म के प्रश्रयदाता थे। [भाइ. १६६; प्रमुख.२०८-२०९; जैसो. २१९] मनन्तप्प, कन्नडकवि, अहिंसाक नामक यक्षगान (ल. १७२० ई.) का रचयिता, चन्दण्ण श्रेष्ठि और उसकी भार्या पन्नम का पुत्र, चिक्क-बल्लालपुर के राजा बचभूप का भाषित । [ककच.] मन्तप्प ३२ ऐतिहासिक ब्यक्तिकोष Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्य--हरिवंश में यदुकुल के शूर के पौत्र, समुद्रविजय, वसुदेव वादि के पिता, कृष्ण बीर अरिष्टनेमि के पितामह । [ उत्तरपु.] अलम्बसेड- बलदेव १३९६ ई० के सिखरवसति के शि. ले. के अनुसार भ. महावीर के एक गव्यवर। [जैशि. - १०५] अपराजित मैसूर के जैन नगरसेठ वीरप्प का पुत्र और कुमार वीरप्प का पिता, ल० १५५० ई० [प्रमुख. ३२७] नाडी का चौहान राजा, अश्वराज का पुत्र, ११६१ ई० में arte में जिनर्नय प्रतिष्ठा कराई और १९६२ ई० में नादरा में विशाल महावीर जिनालय बनवाया । [प्रमुख. २०८ ] १. म. महावीर की शिष्य परम्परा में छठे आचार्य, तृतीय भूतकेबलि (४३५-४१३ ई० पू.). [जैसो. २६२ ] २. खंडेला के राजा प्रजा को जैनधर्म में दीक्षित करने वाले जिनसेनाचार्य के परम्परा गुरु. [ कंच. १०३ ] अपराजितगुरु जो सेनसंघ के मल्लवादि के प्रशिष्य और सुमति-पूज्यपाद के शिष्य थे, और जिन्हें राष्ट्रकूट अमोषवर्ष प्र० के गुजरात के बायसराय कर्कराज सुवर्थवर्ष ने, ८२१ ई० के सूरत-ताम्रपत्र द्वारा नागसारिका के जिनमंदिर के लिये हिरण्ययोगा नामक क्षेत्र प्रदान किया था। [जैशिसं. iv. ५५ ] अपराजितरि-अपरनाम श्रीविजय, विजय या विजयाचार्य, यापनीय- नन्दिसंघ के आचार्य चन्द्रनंदि के प्रशिष्य और बलदेवसूरि के शिष्य थे । आचार्य श्रीiferut की प्रेरणा पर इन्होंने शिवार्यकृत भगवती आराधना (प्रथम द्वितीय शती ई०) की विजयोदया' नामक टीका की रचना की थी वो उक्त ग्रन्थ की सर्वप्राचीन उपलब्ध टीका है और उसका रचनाकाल ल. ७०० ई० है । उन्होंने वशवैकालिक सूत्र पर भी एक टीका लिखी थी । बारातीय सूरिचूडामणि नागनंदिगणी उनके विद्यागुरु थे । संघभेद के समय प्रारम्भ में यापनीय संघ दिन श्वे. उभय सम्प्रदायों को जोड़ने वाली कड़ी का कार्य करता था, किन्तु अपराजितसूरि के समय तक वह दिग. मूलसंघ के नन्दिनन में अन्तर्मुक्त हो चला था। [जैसो. १५३; विजयोदया टीका संयुक्त भगवती आराधना के प्रकाशित संस्करणों की प्रस्तावनाएं आदि ] ऐतिहासिक व्यक्तिकोष ३३ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्पग अपरारिप- कोंकण नरेश मल्लिकार्जुन का उत्तराधिकारी बैन नरेश, १९६२ ई० [गुच. २७२] या अय्यण, कल्याणी के पश्चिमी चालुक्यवंश का नरेश, विक्रमादित्य के पश्चात और जमिह के पूर्व हुबा -शि. ले. १९३९ ई. का है। [शिसं iii. ३१३; एक.vii. २३३] मप्या- रट्टनरेण कार्तवीर्य चतुर्थ का श्रीकरण पदाधिकारी, और उक्त राणा एवं उसके उत्तराधिकारी मल्लिकार्जुन के मन्त्री तथा रट्टजिनालय के निर्माता बीचण का पिता, १२०४ ई. [जैशिसं iii. ४५३.४५४; iv. ३१८-३१९] मप्यनव्य- और दडनायक केसिमय्य तथा रेब्बिसेटि की प्रार्थना पर चालुक्य त्रैलोक्यमहल के राज्य मे, १०६७ ई. में, नलगोण्डा की रानी ने कछ प्राचीन जिनमंदिरों के लिए भूमि दान की थी । जैशिसं v.४०] पप्पणम्य रोय-ने चालुक्य जयसिंह द्वि के राज्य में १०७२ ई. मे मैसूर के रायचर जिले के तलेखान स्थान में एक जिनमंदिर बनवाया था जिसके लिये राज्य ने भूमि नादि दान की थी। [शिसं.v४५] अप्पया दे. अय्यपार्य, नामान्तर अप्पय, अय्यप, आयप। अप्पर- काञ्ची के जिनधर्मी पल्लवनरेश महेन्द्रवर्मन प्र (६००-३० ई.) के समय के जैन मठ का मुनि धर्मसेन धर्मविरोधी होकर शैवसंत अप्पर के नाम से प्रसिद्ध हया-राजा को भी शेक बना लिया और दोनों ने जैनों पर भीषण अत्याचार किये। [भाइ. २४३; प्रमुख. ८९; देसाई. ३३, ३५, ६३,८१] बप्युबराज- राष्ट्रकट कृष्ण तु. के जैन महासामन्ताधिपति शंकरगण्ड वि (९६४ ई.) के पितामह का पितामह-पूरा वंश जन था । [देसाई. ३६८] अविनंबनमटार iii-दे, अभिनंदन भटार प्र. व हि । [देसाई.५९] अबुल फजल-मुगल सम्राट अकबर (१५५६-१६०५ ई.) का दरबारी, मन्त्री और इतिहासकार, अकबरनामा तथा आइने-अकबरी का लेखक -अपनी 'आईन' में उसने जैनधर्म व उसके अनुयायियों का भी एक परिच्छेव में वर्णन किया है, कई तत्कालीन जैन विशिष्ट ऐतिहासिक पक्तिकोष Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनों का भी उल्लेख किया है । वह एक उदार सहिष्ण सूफी विद्वान था। [भाइ. ४८५ प्रमुख. २२०; शोषक. १७-१८] मन्ज - . पड़मचन्द्र । मरहमान- प्रसिद्ध अपभ्रम्हकाव्य 'संदेसरासक' का कर्ता, बनों से प्रभावित, उस ग्रन्थ की प्रतियां भी जैन मास्त्र भंडारों में ही मिली हैं समय १२वीं शती ई.। [टंक] अनुरहमान कुनवाला-दिल्ली निवासी मुसलमान, रत्नों की कटाई का काम करता पा, एक स्थानकवासी साधु के प्रभाव से बैनधर्म अपनालिया, मृत्यु. १९१३ ई. [क] अम्मकारेणी-चोटवंश की राजकुमारी ने अपनी भगिनी पदुमलदेवी के पुण्यार्थ, १५७१६० में एक ताम्रशासन द्वारा मूडिविड़े की बसदि को दान दिया था। [शिसं. iv. ४८०] अम्बालदेवी- गंगनरेश अरुमुलिदेव रक्कसगंग (ल. १.५० ई.) की धर्मात्मा रानी । [जैशिसं. २१३; iv. ४१०] अम्बलम्बा- अपरनाम चन्द्रबेलम्बे, राष्ट्रकूट राजकुमारी, सम्राट अमोघवर्ष प्र. (१५-७६ ई.) की पुत्री, और गंगनरेश राचमल्ल सत्यवाक्य द्वि. के अनुज एवं उत्तराधिकारी बतुप गुणदुत्तरंग की पत्नी तथा कोमार बेडेंग एरेवंग की जननी, धर्मात्मा जिनमक्त राजरानी । [शिसं. १. १४२; प्रमुख. ७७] करके बैन महाकवि रन (जन्म ९४९ ६०) की धर्मात्मा जननी। मओय मावस या माधर-उस पारमा मार या मारेय का पिता, जिसने १९२० ६. के लगभग मत्तवर की बसति में तपस्विनी बायिका चटवे. गन्ति का स्मारक बनवाया था। [जैशिसं. ii. २७३;iv. ४१०; मेज. ३३९] १. ती. महावीर कालीन १. अनुत्तरोपपादक मुनिवरों में से एक। [सिको. ७.] २. भद्रबाहु दि (० पू० ३७.१४) के गुरु यशोबाहु का अपर ३. दे. अभयकुमार वा बभवराजकुमार । ऐतिहासिक व्यक्तिकोष Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. दे. अभयदेव। १. सेवान्तिक, बनवासी, दिगम्बराचार्य, जो नन्दिसंप की पट्टावली में न० ७७ पर, ग्वालियर पट्ट के अन्तर्गत, चास्कीति के पश्चात बोर बसन्तकीति के पूर्व उल्लिखत हैं -समय न. १२०७ ई.। २. उसी संघ के देवचन्द्र के शिष्य, और वसन्तकीति के गुरु तथा विशालकीर्ति के प्रगुरु -विशालकीति के शिष्य शुभकीति और प्रशिष्य धर्मचन्द का उल्लेख १३00 के चित्तौडके शि. ले. में हुआ है। शिसं.v. १५२,१७३] ३. उसी संघ के दिल्ली-पट्टाषीस रायराजगुरु अमाचन्द्र के शिष्य, और उन आर्यिका धर्मश्री के प्रगुरु, जिन्हें १४०४ ई. में महमूद शाह तुगलुक के शासनकाल में, साहीवाल जातीय श्रावक नल्ह ने पुष्पदन्त कृत अपभ्रश आदिपुराण की प्रति भेंट की थी। ४. काष्ठासंघ-मायरगच्छ-पुष्करगण की पट्टावली के दसवें गुरु, जो विश्वकीति के शिष्य और भूतिसेन के गुरु थे । ५. उसी पट्टावली के २३वें मुरु, जो यश.कीर्ति के शिष्य और महासेन के गुरु थे। अभय, अभयराजकुमार या अभयकुमार, मगषनरेश श्रेणिक बिबि. सार (छठी शती ई.पू.) के वक्ष्य (मतान्तर से ब्राह्मण) पत्नी नन्दा से उत्पन्न पुत्र, पिता महाराज श्रेणिक का बुद्धिनिधान महा मन्त्री, विचक्षण राजनीतिम, कुशल प्रशासक, अत्यन्त न्यायप्रिय सुविचारक, परम जिनभक्त, तो. महावीर का अनन्य उपासक, अन्त में मुनिदीक्षा लेकर आत्मसाधन किया । अरब (इराक या ईरान) का राजकुमार आक ( संभवतया अर्देशिर ) इसका परम मित्र था और इसके प्रभाव से उसने जैनधर्म बंगीकार किया, ती. महावीर के भारत आकर दर्शन किये, अन्त में मुनिदीक्षा ली। अभयकुमार की अद्वितीय बुद्धिमत्ता, चातुर्य एवं न्यायप्रियता की अनेक कहानियां प्रचलित हैं -आज भी जैन महत्व मांगलिक अवसरों पर 'हमें अभमकुमार जैसी बुद्धि प्राप्त हो' यह भावना करते हैं। [भाइ. ६५; प्रमुव. १७-१८] ऐतिहासिक व्यक्तिकोष Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजय कुमार--- जैसलमेर राज्य के विक्रमपुर का धर्मात्मा जैन ११५५ ई० में, जिनपतिसूरि के मार्गदर्शन में निकाला था। [ कैच. ३९ ] भगवचन अनयचा - १. अजितसिंह मेहता के भागिनेय, जो १८६२ ई० में मेवाड राज्य (उदयपुर) में सिविल जज थे। [टांक. ] २. दे. अभयपाल, चन्द्रवाड़ का चौहान नरेश, ल. १३७१ ६० [प्रमुख. २४८ ] १. मूलनन्दिसंघ सरस्वतीगच्छ बलात्कारगण की पट्टावली में न०३८ पर उल्लिखित बाचार्य, जो रामकीर्ति के पश्चात् और नरचन्द्र के पूर्व उज्जयिनी पटट्पर हुए, समय ल. ८७८-९७ ई० । [शोषांक ४८ ] २. काष्ठासंघ - माथुरगच्छ पुष्करमण की पट्टावली के १४वें आचार्य, विश्वचन्द्र के पश्चात तथा माधवचन्द्र के पूर्व हुए [शोषांक-४८] ३. अभयचन्द्र पंडित, जो किरिय मोनी भट्टारक के गुरु थे, और जिनका उल्लेख गंगनरेश भूतुग ( ९३८-५३ ई०) के शासन काल के, ९५२ ई० के शि.ले. में हुआ है। [मेजं. २०१] ४. अभयचन्द्र वादी, जिनका उल्लेख चालुक्य जयसिंह प्र. के समय के, १०३६ ई० के शि. ले. में, कालमुख- शेव संप्रदाय के पंचलिंग - मठाध्यक्ष लकुलिश पंडित की बादविजयों के प्रसंग · ऐतिहासिक व्यक्तिकोष सेठ, जिसने ल. तीर्थयात्रा संव - . में हुआ है। [ मेजे. ४९-५०. २०२] ५. बडोह ( विदिशा, म. प्र. ) के जिनमंदिर के द्वार पर उत्कीर्ण, १०५७ ई० के शि.ले. में उल्लिखित अभयचन्द्र । [जोशिसं - v. ३८] ६. बेलवे के जैनगुरु, जो मूलसंधी मेषचन्द्र के शिष्य थे, और जिन्हें १०६२ ई० में होयसलनरेश विनयादित्य द्वि. ने भूदान दिया था। [ भाइ ३४१-२; प्रमुख, १३४; मेजं. ७५; जैशिसं. iv. १४५] ७. वह अभयचन्द्र, जिनकी गृहस्थ भाविका शिष्या पद्मावतीयक्का ने १०७८ ई० में उनके स्वर्गवासी होने पर उनके द्वारा बधूरे छोड़े जिनालय का निर्माण कार्य पूरा कराया था । ३७ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [मे. १५७; जेशिसं.iv. ५५९] ८. देशीगण-पुस्तकगच्छ के चारुकीति के प्रशिष्य, माघनन्दि के शिष्य, तथा बालचन्द्र के गुरु और उन रामचन्द्र मलपारि के प्रगुरु, जिनके शिष्य शुभचन्द्र का स्वर्गवास १३१३ ई० में हुमा था -अत: इन दिगम्बरबार्य अभयशशि या अभयचन्द्र का समय ल. १२५० ई. है। [शोधांक-४८; जैशिसं. . ४१] ९. वैयाकरणी दिगम्बराचार्य अभयचन्द्र, जिन्होंने ल. १२८.ई. में शाकटायन कृत शब्दानुशासन को 'प्रक्रियासंग्रह' नाम्नी टीका लिखी थी। [शोषाक-४८; जैसाइ. १५१, १५५] १०. अभयचन्द्र सिद्धान्ति विद्य - चक्रवती, जिन्होंने नेमिचन्द्र सिद्धान्त-चक्रवती के गोम्मटसार-जीवकांड की (गाथा ३८३ पर्यत की) 'मन्दप्रबोधिका' नामक संस्कृत टीका लिखी थी. जिसका उल्लेख केशवर्णी ने उसी ग्रन्थ की अपनी कन्नडी टीका (१३५९ ई.) में किया है। त्रिलोकसार-व्याख्यान तथा कर्मप्रकृति इन अभयचन्द्र की अन्य कृतियां रही बताई जाती हैं। यह देशीगणपुस्तकगच्छ की इंगुलेश्वर शाखा के दिगम्बराचार्य थे, और बालचन्द्र पंडितदेव (स्वर्ग. १२७५ ई.) के गुरु या ज्येष्ठ सधर्मा थे, अत: इनका समय ल. १२००-५० ई. है। [शोषांक-४८; शिसं. iii. ५१४ व ५२४] ११. उसी इंगुलेश्वर शाखा के अभयचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती, जो भाषमन्दि भट्टारक के शिष्य थे, नेमिचन्द्र भट्टारक के सघर्मा थे, और बालचन्द्र पण्डितदेव (स्वर्ग. १२७५ ई.) के गुरु थे -यह न०१० से अभिन्न प्रतीत होते हैं, संभवतया न०८ और ९ से भी। [शोधाक-४८; शिसं. iii. ५१४, ५२४; एक. v. १३१, १३२] १२. महावाद-वादीश्वर, रायवादीपितामह, वादिसिंह अभयचन्द्र सिद्धान्तदेव, जो अकलङ्कदेवकृत 'लघीयस्त्रय' के टीकाकार तथा स्यावादभूषण नामक कृति के रचयिता है । [लोषांक-४८; न्यायकु. च. i की प्रस्तावना] १३. अभय चन्द्र महासदान्तिक, जो उसी संव के बालचन्द्रवती के ३८ ऐतिहासिक मक्तिकोष Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुत्र या शिष्य थे, और जिनका स्वर्गवास सस्लेखनापूर्वक १२७१ ई. में हुआ था। [मेज २१३; एक. v. १३३; जैशिसं. ii. ५२४] १४. अभयचन्द्र सिद्धान्त-चक्रवर्ती, जिनके शिष्य श्रुतमुनि और प्रशिष्य प्रभेन्दु थे- प्रभेन्दु के प्रधानशिष्य श्रुतकीर्ति (स्वर्ग, १३८४६०) थे। श्रुतमुनि के परमागमसार में भी इनका उल्लेख है। शोषक ४८; जैशिसं. iii. ५०४, प्रवी. । १२८] १५. चारुकीति पंडितदेव (ल. १२०० ई.) के गुरु अभयचन्द्र सिद्धान्तदेव [जैशिसं. iii. ४३८; एक. vii. २२७] १६. उन बालचन्द्र पंडितदेव के गुरु अभयचन्द्र सिद्धान्तिक-चक्रवर्ती, जिनकी गृहस्थशिष्या प्राविका मलियक्के (मलब्वे) ने, ल. १२०० ई. में, समाधिमरण किया था। [जैशिसं. iii. ४३९; एक.xii.५] १७. माधनन्दि एवं नेमिचन्द्र की शिष्य परम्परा में उत्पन्न महानवादी 'वादिसिंह' अभयचन्द्रदेव, अभयचन्द्रसूरि या अभयसूरि, जिनके शिष्य श्रुतमुनि एवं प्रशिष्य श्रुतकीति थे -श्रुतकीति के प्रशिष्य चारुकीति पंडितदेव का स्वर्गवास १३९८ ई० में हमा। [शोषांक-४८; जैशिसं.i. १.५] १८. रायराजगुरु, महावादवादीश्वर, रायवादीपितामह अभयचन्द्र सिद्धान्तदेव, जिनका गृहस्थशिष्य नागरखंड का शासक बुल्लगोड था -बुल्लगौड के पौत्र गोपणगौड का स्वर्गवास १४१५ ई० में हुआ था। [शोषांक-४८; जैशिसं. ifi६१०; iv. ५४५; एक. vii ३२९] १९. देवचन्द्र के शिष्य अभयचन्द्र, जो नागरखंड के शासक गोपी पति (गोपण) और उसके पुत्र बुल्लपगौड (स्वर्ग १४६६ ई.) के राजगुरु थे। [जैशिसं. iv. ५४५; iii. ६४६; एक. vili. ३३० २०. वर्षमान मुनिद्वारा विद्वत्स्तोत्र ( १५४२ ई.) में स्मृत अभयचन्द्रसूरि, जो कल्याणनाथ के पुत्र थे और साल्वेन्द्र नृप की सभा में पूजित हुए थे। [शोषांक-४८; प्रसं. १३५] ऐतिहासिक व्यक्तिकोष Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० २१. उसी स्तोत्र में अन्यत्र स्मृत अभयचन्द्रमुनि सिद्धान्तवेदी, जिनका उल्लेख पं. आशाधर (ल. १२००-५० ई०) के पश्चात हुआ है, और जिन्हें केशवायं आदि कई राजाओंों द्वारा पूजित रहा बताया है । [ प्रसं. १३५; जैशिसं. iii. ६६७; एक. vili. ४६; शोघांक-४८ ] २२. प्रचवनपरीक्षा, प्रतिष्ठा तिलक आदि ग्रन्थों के रचयिता पं. नेमिचन्द्र के गुरु अभय चन्द्रसूरि - नेमिचन्द्र का समय ल. १४०० ई० है । [शोषांक-४८; प्रसं १०१] २३. नन्दि संघ के निर्ग्रन्थाचार्य अभयचन्द्र त्रैविद्यचक्रवर्ती, जिनकी प्रेरणा से भट्टारक नेमिचन्द्र ने, १५१५ ई० में, चित्तोड़ दुर्ग में गोम्मटसार की जीवतत्त्वप्रदीपिका नाम्नो संस्कृत टीका रची थो - उक्त टीका का शोधन-सम्पादन करके उसको प्रथम प्रतिलिपि इन्हीं अभयचन्द्र ने की प्रतीत होती है । [शोधांक-४८; पुर्जेवासू. ८९ ] २४. नन्दिसंघ की लाड- बागड शाखा के भ. अभयचन्द्र, जो सूरत पट्ट के भ. लक्ष्मीचन्द्र के शिष्य थे, और अभयनन्दि एवं पद्मकीर्ति ( १५४० ई० ) के गुरु थे । [ शोधांक-४८ ] २५. भ. अभयचन्द्र, जिनके मारवाड़ निवासी शिष्यद्वय व धर्मरुचि एवं ब्र. गुणसागर पंडित ने १४९९ ई० में श्रवणबेलगोल की यात्रा को थी । [ जैशिसं. i. ३३२; मेजे. ३२६] २६. उन रत्नकीर्ति के प्रगुरु भ. अभयचन्द्र, जिनको शिष्या आर्यिका वीरमती ने, १६०५ ई० में, मैनपुरी (उ. प्र.) में जिन प्रतिमा प्रतिष्ठापित की थी- १६०६ ई० के बालापुर के जिन प्रतिमा लेख में भी संभवतया इन्हीं का उल्लेख है । [शोधांक४८ ] २७. ध्यानामृत तथा भव्यजनकंठाभरण नामक ग्रन्थों के रचयिता अभयचन्द्र - १२०० और १३०० ई० के मध्य हुए प्रतीतहोते हैं । २८. क्षीरोशनी-पूजाष्टक (१४९१ ई०) के रचयिता अभयचन्द्र । ऐतिहासिक व्यक्तिको Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजयचन्द्र २९: ममचन्द्र, जिनका उल्लेख, अभवनन्दि के साथ, सुमति सागर रचित बृहत् षोडशकारण- पूजा में, तथा कारंजा से प्राप्त, १६०२ ई० के. इन्हीं सुमतिसागर के चिन्तामणि पार्श्वनाथ प्रतिमालेख में हुआ है । [ शोधांक- ४८; प्रवी. . ६३ ] ३०. अभयचन्द्र, जिनका उल्लेख लक्ष्मीचन्द्र के शिष्य, अभयनंदि गुरु और रत्नकीर्ति के परम्परागुरु के रूप में, रत्नकीर्ति के शिष्य भ. कुमुदचन्द्र की हिन्दी रचना ऋषभ - विवाहला (१५५१ ई०) में हुआ है । [शोषांक- ४८ ] के ३२. भट्टारक कुमुदचन्द्र के शिष्य एवं पट्टधर भ. अभयचन्द्र ( १६२८ - १६६४ ई०), सूरत के नन्दिसंघीपट्ट से सम्बद्ध, बड़े विद्वान एवं प्रभावक सन्त थे, देवजी ब्रह्मचारी आदि उनके अनेक शिष्य थे। [ प्रभावक. २०६ -२०७] दिग. जैन, हिन्दी कवि, भक्तामर चरित् और दशलक्षण व्रतकथा के लेखक । [टंक ] अभयचन्द्र- जिसने घनरूप व मनरूप के सहयोग से प्रतापगढ़ नरेश महारावल सामंतसिंह के राज्य में, १७५१ ई० में, भ. आदिनाथ का भव्य जिनालय बनवाया था। [कंच. ३५ ] श्वे. श्रावक, सोमक का पुत्र, सिन्धदेशस्थ मामनपुर का निवासी, खरतरगच्छी जयसागर उपाध्याय के निर्देशन में, १४२६ ई० में tent के लिये तीर्थ-यात्रा संघ ले गया था। [ टंक. ] असयच - विक्रमादित्य-चरित्र (१४३३ ई०) के लेखक रामचन्द्र के गुरु | [टक ] अजयचन्द्र ३१. अभयेन्दु या अभयचन्द्र वाक्पति-वादिवेताल, जिनका उल्लेख महापुराण (१०४७ ई०) आदि अनेक ग्रन्थों के रचयिता दिग. मल्लिषेणसूरि ने अपने सरस्वती - (भारती - ) कल्प में किया हैइस कल्प का ज्ञान उन्होंने इन अभयचन्द्र से प्राप्त किया था । [प्रवी. ९७ ] अजयचन्द्र सूरि- राजकुलगच्छी का तथा उनके शिष्य अमलचन्द्र का उल्लेख ल. ८५४ ई० के एक शि. ले. में हुआ है । [ टंक ; एवं.. १२० ] ऐतिहासिक व्यक्तिकोष re Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमवामि- माधनन्दि के शिष्य मेघचन्द्र की भतीजी, प्रसिद्ध गायिका, म. ११०० ई० । [णिसं i. ५५] कुमारपाल मोलंकी के जैन दंडनायक सोभनदेव के पुत्र बोर बमन्तपान के पिता ने ११९९ ई० में नन्दीश्वर - विम्ब प्रतिष्ठा की थी, परम जन था। [गुच. २९५.२९६] समयतिलक- श्वे विद्वान, जैन एवं अर्जन न्यायशास्त्रों के प्रसिद्ध टीकाकार, यथा पंचप्रस्य-न्यायतर्क-व्याख्या या न्यायालंकार टिप्पण, न्यायसूत्रटीका, न्यायभाष्यटीका, न्यायवातिक टीका, तात्पर्यवृत्तिटीका, न्याय-तात्पर्यपरिशुद्धि टीका, आदि, । शायद इन्हींने हेमचन्द्राचार्य कृत सं. दयाश्रय काव्य की वृत्ति. पालनपुर में १२५५ ई० में रची थी -यह जिनेश्वरसूरि के शिष्य थे। [कंच १६७] अमयदेव- यशोदेव का पुत्र और गुजरात नरेश कुमारपाल चौलुक्य का सेना पति । राजाज्ञा से ल. ११६. ई. में तरोरा नामक स्थान में ती. अजितनाथ का भव्य एवं विशाल जिनमंदिर निर्माण कराया था। अभयदेव- १. इनके शिष्य वर्धमान ने, गुजरनरेश जयसिंह सिद्धराज के शासनकाल में, १११५ ई. में, देवक्करग्राम में, धर्म-रस्नकरण्डक नामक ग्रन्थ की रचना की थी। टिक.] २. दिग. श्रावक, जिसने अपनी भार्या मल्ही एवं पुत्र केसो सहित ११३ई. में कांस्य जिनप्रतिमा प्रनिष्ठापित की थी, जो अब सोनागिर के एक मंदिर में विराजमान है। [जैशिस. १७९] ३. स्तंभन-पार्श्वनाथस्तोत्र (हिन्दी) के रचयिता, जो दिल्ली के दिग. अनमदिर के शास्त्रभंडार के एक गुटके (लिपि १५६९ ई०) में सुरक्षित है। ४. गुणभद्रसूरि के शिष्य और त्रिभंगीसार-टीका के कर्ता सोम. देवसूरि के पिता- ल. १६०० ई.। अमयदेवसूरि-१. तर्कपञ्चानन, प्रसिद्ध श्वेताम्बराचार्य जी राजगच्छीय प्रद्युम्न सूरि के शिष्य थे, और जिन्होंने ल. ९६८ ई. में, सिखसेनकृत सन्मति-सूत्र की तत्वबोध-विधायिनी अपरनाम बादमहार्णव नामक टीका रची थी। [पूवासू.] ऐतिहासिक व्यक्तिकोष Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. नवाङ्गीटीकाकार के रूप में प्रसिद्ध श्वेताम्बराचार्य, जिन्होंने २६ आगमिक टीकाएं रची थीं। स्वर्गवास १०७८ ई० । यह जिनेश्वर सूरि के शिष्य थे । [ प्रभावक. ७७] ३. जयन्त विजयकाव्य (१२२१ ई०) के रचयिता श्वेताम्बर विवान । ४. सन् १०३९ ई० में स्वर्गस्थ शान्तिसूरि के गुरु, संभवतया न० १ से अभिन्न । [ गुल. २४० ] ५. विदर्भ- नरेश ईल या ऐल (१०८५ ई०) के गुरु, संभवतया दिन. [ प्रमुख. २२३] ६. मलधारी, जो हर्षपुरीयगच्छ के जयसिंहसूरि के शिष्य थे, गुजरातनरेश कर्ण सोलंकी, शाकंभरी नरेश पृथ्वीराज चौहान, सौराष्ट्र के राबॅगर, आदि अनेक राजाबों द्वारा सम्मानित, प्रभावक श्वेताम्बराचार्य, जिन्होंने अनेक ब्राह्मणों को जनधर्म में दीक्षित किया था। उनके शिष्य हेमचन्द्र मलधारि ने १११३ ई० में 'भवभावना' लिखी थी। [टंक ; कंच. ६५] ७. नवाङ्गी टीकाकार की पांचवी पीढ़ी में हुए रुद्रपल्लीय गच्छ के श्वेताम्बराचार्य, विजयन्त- विजय काव्य (१२२१ ई० ) के रचयिता - उनके शिष्य देवभद्र का १२३९ ई० के एक सि. ले. में उल्लेख हुआ है । [टंक] सभवतया न० ३ से अभिन्न हैं । ८. प्रद्युम्नसूरि के शिष्य और घनेश्वर सूरि के गुरु श्वे. आचार्य, ल. ९७५ ई० [केच. २७] नं० १ से अभिन्न प्रतीत होते हैं । ९. युगप्रधान जिनेश्वरसूरि के प्रधान शिव्य विधिमार्गी अभयदेवसूरि । [ कैच. २०४ - ५ ] अभयधर्म उपाध्याय - कविवर पं. बनारसीदास (१५०६-१६४१ ई०) के मित्र भानुचन्द्रयति के खरतरगच्छी गुरु । [टंक. ] " १. महान वैयाकरणी दिगम्बराचार्य, देवनन्दि पूज्यपादकृत जैनेन्द्र व्याकरण की सर्वप्राचीन उपलब्ध एव ज्ञात टीका महावृत्ति (१२००० श्लो.) के रचयिता । अनुमानतः ८५० और १०५० ई० के मध्य किसी समय हुए । [शोधांक ४६ पृ. २२० १००-११६] साद. मनयनवि ऐतिहासिक व्यक्तिकोष · ४३ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ YY २. देशीगण - कुन्दकुन्दान्वय के अभयनन्दि भटार जिनका उल्लेख ४६६ ई० के मर्करा ताम्रशासन में गुणचन्द्र के पश्चात और शीलभद्र के पूर्व हुआ है । किन्तु यह अभिलेख जाली सिद्ध हो चुका है, अर्थात मूल अभिलेख का नौवीं दसवी शती में कराया गया नवीन संस्करण । [जैशिसं. ii. ९५; एक. i. कुगं. १] ३. नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती (ल. ९५०-९९० ई०) के गोम्मटसार- कर्मकाण्ड, त्रिलोकसार और लब्धिसार में उल्लिखित उनके स्वयं के तथा वीरनन्दि और इन्द्रनन्दि के गुरु आचार्य अभयनन्दि । [शोषांक ४६ पृ. २२० ] ४. देशीगण के आचार्य गुणनन्दि के शिष्य, विबुधगुणनन्दि के कनिष्ट धर्मा और चन्द्रप्रभचरित्र के कर्त्ता वीरनन्दि के गुरु । [ वही ] ५. ज्वालमालिनी कल्प ( ९३९ ई० ) के कर्ता इन्द्रनन्दि के मिद्धान्तशास्त्रगुरु । [ वही; पूजेवासू. ७१-७२] ६. देशीगण - कोंडकुन्दान्वय के देवेन्द्र सिद्धान्त भटार के प्रशिष्य, चान्द्रायण भटार के शिष्य गुणचन्द्र भटार के शिष्य अभयनन्दि पंडितदेव जिनकी शिष्या आर्यिका णाणब्बेकन्ति की गृहस्थ शिष्या राजरानी पाम्बब्बे ने ९७१ ई० में समाधिमरण किया था । शोधांक- ४६; [जैशिसं. ji. १५० ] ७. वर्धमान मुनि के दशभक्त्यादि महाशास्त्र में प्रदत्त नन्दिसंघसरस्वती गच्छ बलात्कारगण की पट्टावली के २१वें गुरु, जो गुणचन्द्र के पश्चात और सकलचन्द्र के पूर्व हुए । [ शोधांक-४६; प्रसं. १३३] ८. सन् १९४६ ई० के शि. ले. में उल्लिखित सकलागमात्थं निपुण सकलचन्द्र के गुरु अमयनन्दि मुनि । [ जैशिस . ५०; शोधांक- ४६ ] ९. काल्य योगि के शिष्य और सकलचन्द्र के गुरु तथा मेषचन्द्र विच (स्वर्ग. १११५ ई०) के प्रगुरु- मेघचन्द्र के शिष्य प्रभाचन्द्र का स्वर्गवास १९४६ ई० मे हुआ था। ५०] - इन अभिलेखों में इन अभयनन्दि की गई है । [जैशिस । ४७, प्रभूत प्रशंसा की ऐतिहासिक व्यक्तिकोष Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. अभयनन्दि पण्डित, जिनके गृहस्थ शिष्य कोतस्य ने ११०० ६. के लगभग श्रवण बेलगोल की यात्रा की थी। [शिसं. i. २२] ११. वाणीगच्छ (सरस्वतीगच्छ) के विजयेन्द्रसूरि के परम्परा शिष्य, और महिपालचरित्र के कर्ता चारित्रभूषण के गुरु रत्ननन्दि के प्रगुरु योगीन्द्रचूडामणि अभयनन्दिसूरि। [प्रवी.. १२. पश्चिमी चालुक्य नरेश विक्रमादित्य पंचम (१००८-१५ ई.) के राज्यकाल के १०० ई. के शि. ले. में प्रदत देशीगणकन्दकन्दान्वय की मरूपरम्परा (रविचन्द्र-गणसागर-गणचन्द्रअभयनन्दि-माघनन्दि-सिंहनन्दि-कल्याणकोति) में उल्लिखित अभयनन्दि। [देसाई. ३४७] १३. सन १०७१-७२ ई० के दो शि. ले. में उल्लिखित नन्दिसघबलात्कारगण के आचार्य विमलचन्द्र के प्रशिष्य, गुणचन्द्र के शिष्य, गण्डविमुक्त प्र. के सधर्मा, सकलचन्द्र सिद्धान्तिक के गुरु, और उन गण्डविमुक्त वि. के प्रगुरु जिनके शिष्य त्रिभुवनचन्द्र थे। [जैशिसं. iv. १५४-१५५; देसाई ३८७-८] १४. सूरतपट्ट के भ. लक्ष्मीचन्द्र की परम्परा में हुए वह अभयनन्दि जो अभयचन्द्र के शिष्य और रत्नकीति के गुरु थे, बृहत्शोडशकारण पूजा एवं उसकी प्राकृत जमाल के रचयिता- कई प्रतिमालेखों में भी उल्लेख है। शिष्य रत्नकोनि का समय १६०७ ई० है। दशलाक्षण पूजा भी शायद इन्ही की कृति है। [शोषांक. ४६ पृ. २२१. प्रवी. i. ६३] १५. अभयनन्दि, जिनका प्रमाचन्द्राचार्य (ल. १०१०-५० ई.) ने अपने शब्दाम्भोज-भास्कर नामक जैनेन्द्र महान्यास में देवनन्दि के साथ स्मरण किया है- महावृत्तिकार से ही अभिप्राय प्रतीत होना है। [प्रवी. i. ९४] १६. स्वप्नमहोत्सव-बृहत् तथा स्वप्नविधिबृहत् के कर्ता । [शोषांक. ४६, पृ. २२१] ऐतिहासिक व्यक्तिकोष ४ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमयपाल अजयपाल अभयमत्र १७. लघुस्वपन के कर्ता, जिसकी टीका भावशर्मा ने की है। [ शोधांक. ४६ पृ. २२१] १८. हलेबिट के कन्नड शि.ले., १२६५ ई० में उल्लिखित अभयनन्दि जो शुभचन्द्र के शिष्य और उन अवहनन्दि सिद्धान्ति के गुरु थे जो उक्त शि. ले. में उल्लिखित दान प्राप्त करने वाले माघनन्दि से लगभग एक दर्जन पीढ़ी पूर्व हुए थे । [ जैशिसं. iv ३४२,३७६ ; v. १२७] राजा कीर्तिपाल का पुत्र और नाडोल नरेश कल्हण का अनुज, इस धर्मात्मा जैन राजकुमार ने, ११७६ ई० में, माता महिबल देवी तथा भाई लखनपाल सह श्री शान्तिनाथोत्सव के लिए प्रभूत दानादि दिये थे । [टंक; कंच. २२; ए इ xi. पृ. ४९-५० ] herorist गुणभद्रसूरि के शिष्य ने बीकानेर प्रदेश में १४५८ तथा १४९० ई० में कई जिनप्रतिमाएं प्रतिष्ठापित की थी। [ नाहटा ४९, ६२. १७८२] अभयराज संघवी- दिग. जैन गगंगोत्रीय अग्रवाल संघपति भगवानदास के पुत्र तथा 'समवसरणपाठ' आदि के रचयिता पं० रूपचन्द्र के अग्रज । [टंक. प्रवी. १०७, भू० ७६ ] ૪૬ उपरोक्त लगभग डेढ़ दर्जन गुरुओं में नं ० १ से ७ तक अभिन रहे हो सकते हैं ( समय ल. ९०० ई० ) सभव है नं० १२ भी । नं० ८, ९, १०, १३ ( समय ल. १०२५-५० ई०) भी परस्पर अभिन्न रहे हो सकते हैं । नं० ११, १५, १६ एवं १७ अनुसंधानीय हैं । न० १७ की तिथि ल. १००० ई० है' और नं० १४ की ल. १५५० ई० है I चन्दवाड का चौहानवंशी जैन राजा ( १२वीं शती ई० ) - उसके जैन मन्त्री सेठ अमृतपाल ने भी नगर में एक भव्य जिनालय बनवाया था । [प्रमुख २०८,२४८] - अभयपाल राजा भरतपाल का उत्तराधिकारी या, इसीवंश का अभयपाल द्वि (ल. १३५० ई०) सारंग नरेन्द्र का उत्तराधिकारी था - सोमदेव जंन उसका मन्त्री था । [ भाइ ४५६ ] ऐतिहासिक व्यक्तिकोष Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ या निर्भयराम, दिग. जैन, खाबड़ायोगी सण्डेलवाल, आमेर जयपुर के कछवाहा राज्यसंस्थापक राजा सोडदेव, ल. ११वीं शती ई०, का विश्वासपात्र मन्त्री एवं सहायक। [ प्रमुख. ३१३] अणवश दे. अमवचन्द्र । अनयसिंह- सिन्धुदेश का एक भट्टि सर्दार जिसे बृहत्सरतरगच्छी जिनदत्त सूरि ने १११८ या ११४१ ई० में जैनधर्म में दीक्षित किया था, और जिसके वंशज अमरिया मोसवाल कहलाये - ऐसी एक अनुश्रुति है । [टंक. ] अर्थासह श्रीमाल - दिल्ली निवासी पल्वलगोत्रीय रायगोकुलचन्द्र के पुत्र जो १८१८ ई० में आनरेरी मजिस्ट्रेट थे -उनके पुत्र बहादुर सिंह थे । [ टंक] अमर्यांसह सूरि- वृद्धतपागच्छी मुनिषोष के शिष्य और उन जयतिलक के गुरु, जिनके शिष्य रत्नसिंह सूरि को गुजरात के सुल्तान अहमदशाह ( १४११-४१ ई०) ने सम्मानित किया था- १४३२६० केशि ले. में उल्लेख है। [टंक. ] अभयसूरि- १. देशीगण पुस्तकगच्छ इंग्लेश्वर बलि के दिगम्बराचायं, जिनके शिष्य श्रुतमुनि भावसंग्रह और परमागमसार (१३४१ ई०) के कर्ता हैं । [ पुजेबासू. ११० १११; प्रवी. . १२८ ] २. उन केशववर्णी के गुरू, जिन्होंने भ. धर्मभूषण की प्रेरणा से, १३०२ ई० में, गोम्मटसार की संस्कृत-कन्नड मिश्रित टीका 'जीवतत्त्व प्रदीपिका' रची थी। [ पुर्जवासु. ८९ ] २. उपनाम वादिसिंह, जो अभयचन्द्रसूरि के कनिष्ट सधर्मा श्रुतकीर्ति के प्रशिष्य मौर चारुकीति के शिष्य थे - इनके सधर्मा सिनार्य और पंडितदेव ( स्वर्ग १३९० ई०) थे । [ जंशिस. i. १०५] १. हरिवंश पुराण (७८३ ई०) में प्रदत्त उसके कर्ता जिनसेनसूरि को गुरुपरम्परा में उल्लिखित अभयसेन प्र. जो सिद्धसेन के गुरु थे, ल. ६०० ई० । अमयसेन २. उसी गुर्वावली के अभयसेन द्वि. उक्त सिद्धसेन के शिष्य ये और भीमसेन के गुरु थे, ल. ६५० ई० । ऐतिहासिक व्यक्तिकोष ४७ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मभयेन्दु अभिचन्द्र अभिनन्द देव ३. मूल संघ-सेनगण को पट्टावली में न० १८ पर उल्लिखित अभयसेन, जो सिंहसेन के शिष्य और भीमसेन के गुरु थे -संभव है न० २ से अभिन्न हों। ४. उसी पट्टावली में न० ६१ पर उल्लिखित अभमसेन जो हेमसेन के शिष्य और लक्ष्मीभद्र के गुरु थे । दे. अभयचन्द्र जैनपुराण- प्रसिद्ध १४ कुलकरों (मनुओं) में से दसवें कुलकर । ११५० ई० के बमनि शि. ले. को उत्कीर्ण करने वाले जैन शिल्पी गोव्योजन या गोलोज के गुरु, दिग. मुनिराज । [जैशिसं iii. ३३४; एई. iii. २८ ] अभिनन्दन नाथ- चतुर्थ तीर्थंकर, इक्ष्वाकुवंशी, जन्मस्थान अयोध्या, पिता स्वयंवर, जननी सिद्धार्था । अभिनन्दन भट्ट - वर्धमान मुनि के श्रावकस्तोत्र ( १५४२ ई० ) में अभिनन्दित पार्श्वदेव तथा बोम्मरस नामक धर्मात्मा श्रावकों का पिता । [प्रसं. १३५ ] अभिनवन मट्टार प्र. - कनकनन्दि भटार के शिष्य और अभिमंडल भटार के गुरु, तमिलदेश के मदुरा तालुके मे प्राप्त विशाल महावीर प्रतिमा के पादपीठ पर उत्कीर्ण लेख, ल ७वीं शती ई, में उल्लिखित आचार्य । [ देसाई ५९; जैशिसं. iv ३३-३८ ] ४५ अभिनन्दन महार हि.- उपरोक्त प्रतिमा के प्रतिष्ठाता, तथा अभिनन्दन भटार प्र. के शिष्य । [ वही . ] - अपरनाम अभिमंडल भटार या अरिमंडल भटार । afone- १०७७ ई० के शि. ले में द्रविडसंघ- नन्दिगण - अहंगलान्वय के प्राचीन गुरुओं मे पूज्यपाद, कविपरमेष्ठि आदि के साथ उल्लिखित दिग. आचार्य । [जैशिसं.ji. २१३; एक.viii नागर ३५ ] अभिनन्द पंडितदेव उन आर्यिका नानम्बेकन्ति के गुरु, जिनकी गृहस्थ शिष्या गंगनरेश भूतुग की भगिनी राजकुमारी पाम्बब्बे थी यह राजकुमारी मी आर्यिका बन गई और ९७१ ई० में उसने समाधिमरण किया था। [मेजं १५७ ] ऐतिहासिक व्यक्तिकोष Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनिमय विम. गृहस्प विद्वान, मल्लिनाषपुराण और (बंधक) निघंटु के कर्ता। [टंक.] अभिनव माविसेन- तमिलनाड के जिजी तालुक में स्थित चित्तामूर के दिग. मठ के भट्टारक, जिन्होंने १८६५ ई० में वहां के पारवनाथ जिनालय का विस्तार एवं नवीनीकरण किया था। [देसाई. ५१ जैविसं. iv. ५३२] अभिनवचन्द्र-कमर अन्य हमशास्त्र (अश्वपरीक्षा एवं चिकित्सा) के कर्ता । प्रसं. ५६] अभिनव भारुकीति- दे. चारुकीति । [मेज. २९९; देसाई. १८२] अभिनव देवराज- दे. विजयनगर नरेश देवराज द्वि. । अभिनव धर्मभूषण- दे. धर्मभूषण, न्यायदीपिका के कर्ता। अमिनब नेमिचन- दे: नेमिचन्द्र। अभिनव पम्प- होयसल नरेश बल्लाल प्र. (११०१-११०६ ई०) के राजकवि, प्रसिव जैन कन्नड कवि एवं साहित्यकार, कन्नडी जैन रामायण के कर्ता नागचन्द्र का अपरनाम-दे. पंप एवं नागचन्द्र । अभिनव पंडितदेव-दे. पंडितदेव। [मेज २९९, ३२६] अभिनव पांडयदेव- दे. पांड्यदेव । अभिनव रत्नकीति- दे. रत्नकोति, सूरतपट्ट के भट्टारक, ल. १६००ई० । ममिना बाविकीतिवेद- दे. वादिकोति। [मेज. ३५९] अभिनव विशालकीति- दे. विशालकीति। [मेजे. ३५९] अभिनव श्रुतमुनि- दे. श्रुतमुनि (१३६५ ई.), कन्नड जैन साहित्यकार । [टंक] अभिनव बेष्ठि-ती. महावीर कालीन राजगृह का एक अत्यन्त धनवान श्रावक, महावीर का भक्त, उसका प्रतिद्वन्द्वी जीणंबेष्ठि था। [टक.] अमिनब समन्तमा- दे. समन्तभद्रा मेज. ३४] -'अभिनव' विशेषण मूलनाम के द्वितीयादि परवर्ती व्यक्तियों के लिए बहुषा प्रयुक्त हुआ है, अतएव ऐसे अन्य भी समस्त उल्लेखों ' में उस व्यक्ति के मूल या प्रधान नाम के अन्तर्गत देखें। अभिमण्डल भटार-दे. अभिनन्दन भटार प्र. एवं द्वि.. , ऐतिहासिक व्यक्तिकोष Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिमन्यु — १: महाभारत का किशोर वीर, अर्जुन पांडव एवं सुभद्रा का पुत्र । २. ग्वालियर का कच्छपघातवंशी नरेश, अर्जुन का पुत्र, विजय पाल का पिता, और बकुण्ड जैन शि: ले. (१०८८ ६०) के महाराज विक्रमसिंह का पितामह । संभवतया धाराषीश भोज परमार का समकालीन था । ग्वालियर के इस कच्छपघात राजवंश में बराबर जैनधर्म को प्रवृत्ति रही आई । [प्रमुख. २१२-२१३; जंशिसं. ii. २२०; गुच. ७५, ७७-८०] ३. हरिवंश पुराण के कर्त्ता दिग. जैन पं. रामचन्द्र का पुत्र, जिसके अनुरोध पर उक्त ग्रन्थ की रचना की गई थी, यह महादानी था। [ प्रवी.. ३० ] अभिमानचिन्ह, अभिमानमेद, अभिमानाङ्क आदि-- अपभ्रन्श जैन महाकवि पुष्पदन्त के उपनाम, दे. पुष्पदन्त । अभिमानाडू - प्राचीन अपभ्रन्श कवि, जिनका उल्लेख उद्योतनसूरि ने अपनी कुवलयमाला (७७८ ई०) में तथा हेमचन्द्राचार्य ने भी किया है। [जैसाइ. ५७३] अभिरामदेवराय - महान जैन कन्नडकवि आदिपंप या पंप (स्वर्ग. ९४१ ई०) के पिता जैनधर्माबलम्बी तेलेगु ब्राह्मणपडित । [ मेजे. २६५] अभीषिकुमार - सिन्धु-सौवीर के वीतभयपत्तन नरेश उदायन तथा रानी प्रभावती के एकलौते पुत्र, ती. महावीर के भक्त, राज्य का उत्तराधिकार अस्वीकार करके मुनिदीक्षा लेली थी, ल. ५५० इ० पू. 1 [प्रमुख. १३] अवेव, पं० दिन., भ. चन्द्रभूषण के शिष्य, ल. १४५० ई०, श्रवणद्वादशी - कथा (संस्कृत, श्लो. ८०) के लेखक - रचना १५०६ ई० के गुटके में प्राप्त । [ अनेकान्त ३७/३, पृ १५ ] - संभवतया शोडशकारण विधान के कर्ता अभ्रपंडित भी यही हैं। अमनसिंह, सुशी- सोनीपत निवासी गोयलगोत्री अग्रवाल, दिग. जैन, विशनसिंह के पुत्र, बहुधा दिल्ली रहते थे, छापाप्रचार के प्रारंभिक युग में अच्छा कार्य किया, दसियों छोटी-बड़ी पुस्तकें स्वद्रव्य से प्रकाशित कीं, यथा आदिनाथ स्तुति (१८९३ ई०), पार्श्वनाथ स्तुति (१८९६ ई०), भूषरकृत पार्श्वपुराण का संपादन एवं गद्य रूपा ऐतिहासिक व्यक्तिकोष Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तर (१८९० ६०), जादि । में हुआ । [ टंक; प्रका. जै. सा. ] ९. मुग्धबोधकर्ता पं. बोपदेव द्वारा धातुपाठ में स्मृत आठ प्राचीन वैयाकरणों में से एक संभवतया जैन मे २. होयसल नरसिंह प्र. (११४६-७३ ई०) के प्रसिद्ध जैन मन्त्री हुल्लराज के अनुज । [ जेसिस. 1. १३५; मेजं. १४१] ३. जैतारण निवासी ओसवाल, जिसके पुत्र भानाभंडारी ने जोधपुर नरेश गजसिंह के समय में, १६२९ ई० में, कापर्दा में अतिभव्य पाश्वं जिनालय बनवाया था। [टंक. ] अमरकीति- १. अमरकीर्तिगणि, अमरसूरि या महाकवि अमरकीर्ति माथुर संधी दिगम्बराचार्य अमितगति द्वि. (९९० १०२० ई०) की शिष्य परम्परा में, क्रमशः, शान्तिषेण-अमरसेन श्रीषेण चन्द्रकीति के पश्चात हुए — संभवतया वह चन्द्रकीर्ति के कनिष्ठ सधर्मा एवं शिष्य थे । reer भाषा में उन्होंने नेमिनाथ चरित (११८० ई०), महाबीर चरित, यशोधर चरित, धर्मवरित टिप्पण, सुभाषित रत्ननिधि, धर्मोपदेश चूडामणि, ध्यानप्रदीप, पुरन्दरविधानकया और षट्कर्मोपदेशरत्नमाला नामक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों की रचना की थी। अन्तिम ग्रन्थ को रचना उन्होंने महाकांठा प्रदेश के गोधरानगर में उसके शासक बोलुक्य कृष्ण के राज्यकाल में, ११९९ ई० में, गुणपाल एवं चर्चिणी के पुत्र अम्बा प्रसाद नागर के हितार्थ की थी, जो ऐसा प्रतीत होता है कि, उनका संसारपक्षीय अनुज था। [ शोधांक- ५० पृ. ३६९७० ] २. महापण्डित अमरकीर्ति त्रैविद्य, जो 'शब्दवेधस' थे, कर्णाटक के दिगम्बराचायं थे, और संन्द्रक राजवंश में उत्पन्न हुए थे । वह धनन्जय नाममाना के भाष्य के रचयिता है, जिसमें अनेक पूववर्ती विद्वानों का स्मरण किया है, जिनमें पं० आशाधर अन्तिम है, अत: इनका समय ल. १२५०-१३०० ई० है । [ वही, पृ. ३७० ] ३. वर्धमान मुनि के दशभक्त्यादि महाशास्त्र (१५४२ ई०) में स्मृत एक पूर्वाचार्य जो निर्मलगुणाश्रय, शास्त्रकोविद एवं भट्टा अमर ऐतिहासिक व्यक्तिकोष स्वर्गवास सोनीपत में १९०५ ई० ५१ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रक शिरोमणि थे, तथा विशालकीति के मधर्मा थे। [वही; शिसं. iv. ४.३] ४. दक्षिणी मूलनन्दिसंघ-बलात्कारगण की पट्टावली : वसन्तकीति-देवेन्द्रविशालकीति-शुभकीति-धर्मभूषणप्र०-अमरकीति-धर्मभूषण दि. (स्वर्ग. १३७३ ई०), में उल्लिखित अमरकीति । [बही; शिसं.i. १९१; iv ४४९; मेज. ३०.] ५. योगचिन्तामणि नामक योगविषयक संस्कृत ग्रन्थ के रचयिताऐसा लगता है कि न. ३,४ एवं ५ अभिन्न हैं, और उनका समय ल. १३५० ई० है। [शोधांक-५० पृ. ३७०] ६. मूलनन्दिसंघ के सूरतपट्ट के भ. पद्मनन्दि के शिष्य देवेन्द्रकीति थे और प्रशिष्य विद्यानन्दि थे, जिनके शिष्य मल्लिभूषण थे और प्रशिध्य यह भ. अमरकोति सरि थे। इन्होंने श्री जिनसहस्त्रनाम की चन्द्रिका नाम्नी टीका रची थी, जिसमे स्वयं को 'भारतीनन्दन' लिखा है, श्रुतसागर सूरि का स्मरण किया है, टीका को भ. विश्वसेन द्वारा अनुमोदित लिखा है, और संघाधि. पति सुधाचन्द्र श्रावक के नामांकित किया है। इनका ममय ल. १५०० ई० है। [वही; प्रवी. i. २२,९६] ७. मूलनन्दिसंघ के मलखेड पट्ट के भ. धर्मचन्द्र के शिष्य, विशालकोति के सधर्मा ओर भवनकीति एव भ. सकलकोति (१६०५ ई.) के गुरु । भुवनकीर्ति के शिष्य विद्याषेण (१५९७ ई.) थे। उपरोक्त विशालकीति अन्तरीक्ष-पार्श्वनाथ (शिरपुर अकोला) एव शोलापुर पट्टों के संस्थापक थे। इन भ अमरकीर्ति का समय ल १५५०-७५ ई० है। [शोषांक-५०] ८. क्राणूरगण के आचार्य अमरकीति जिनके गृहस्थणिष्य बोप्पप्य ने चामराजनगर की पाश्वनाथ-बसति मे समाधिमरण किया था। [मेज ३२] ९. सारस्वतगच्छ-बलात्कारगण के अमरकीति, जिनके शिष्य माधनन्दि के ग्रहस्थ शिष्य श्रेष्ठि मोगराज ने, विजयनगर नरेश हरिहरराय प्र० के शासनकाल मे. १३५५ ई० में, रायदुर्ग मे ऐतिहासिक व्यक्तिकोष Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'अनन्तनाप-जिनालय प्रतिष्ठापित किया था। [मेज. ३३८% देसाई ३९५; प्रमुख. २६१; जैशिसं iv. ३९३] संभवतया इन्हीं माषनन्दि के एक अन्य श्रेष्ठि शिष्य मे १३८५ ई. में, केसबार के पार्वमन्दिर का जीर्णोद्वार कराया था। [शिसं.v. १८१] अमरकीति सूरि-श्वे., कालिदासकृत ऋतुसंहार' की टीका के रचयिता, ल. १५८६ ई.। [टक.] अमरचन्ह- १. दीपचन्द के पुत्र और प्रसिद्ध दानी वीरचन्द सी. आई.ई., जे. पी. (स्वर्ग. १८८८६.) के भाई। [टक.] २. मंगरोल निवासी तलकचन्द के पुत्र, प्रसिब दानी, बम्बई वि. वि. में बी. ए. में जैन साहित्य लेकर उत्तीनं होने वाले सर्वोत्तम विद्यार्थियों के लिए १०००० २० से छात्रवृत्ति स्थापित की। उनके पुत्र हेमचन्द (१८७८-१९१४ ई.) भी बड़े दानशील थे। [टक.] ३. दिल्ली निवासी, गोखरुगोत्रीय ओसवाल समाचन्द्र के पुत्र, बादशाही-रत्नकोश-रक्षक, 'राय' उपाधि प्राप्त । दो पुत्र हुएमोहमसिंह भोर डालचन्द। यह राजा डालचन्द नादिरशाही (१७३९ ई.) के बाद दिल्ली छोड़कर मुशिदाबाद चले गये। उनके पुत्र उत्तमचन्द ने, १७८६ ई. में, वाराणमी से लखनऊ के राय हुकमचन्द टेकचन्द को पत्र लिखा था। [टंक ] अमरबन कवि- राजा अरिसिंह (११६९-१२४० ई.) के समय मे कवि कल्पलता वत्ति, कविशिक्षावली, पद्मानन्दकाव्य (१२८० ई.), बालभारत, बन्दोरत्नावली तथा स्यादि-शब्द-समुश्चय की रचना की थी। [टक.] -दे अमरचन्द सूरि न. ३. ममरबन्दमयन- डामन के प्रसिद्ध जैन कोट्याधीश मोतीशाह के मुनीम थे, दोनों ने १८३६ ई० में शत्रुजय पर्वत पर पास-पास जिनमन्दिर बनवाये थे। [टंक.] अमरबल गोविका- मांगानेर निवासी धर्मात्मा श्रीमन्त, ग्रन्थकार जोषराज गोदिका (ल. १६६५ ६०) के पिता। [कास २४२] ऐतिहासिक व्यक्तिकोष Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमरचन्ध परमार- प्रसिद्ध जैन कवि एवं वक्ता, पशुवध एवं चौरफाड़ का विरोध किया, स्वर्ग. १९१६ ई० [टक. ] 1 अमरचमा पाटनी- १८०३-३५ ई० तक जयपुर राज्य के दीवान रहे । दीवान रतनन्दसाह के पौत्र और दीवान श्योजीलाल के सुपुत्र थे, बड़े धर्मात्मा, दयालु, उदार और दानी थे, दिग. जैन थे, अनेक साहित्यकारों के प्रश्रयदाता, जरूरतमन्दों के त्राता थे । अपनी हवेली के निकट विशाल धर्मशाला एवं भव्य जिनमन्दिर बनबाया, जो 'छोटे दीवान जी का मन्दिर' नाम से प्रसिद्ध है । धर्म-कर्म के बड़े पक्के थे । एक राजजंतिक षडयन्त्र मे प्राण गंवाये । परमारमप्रकाश - टिप्पण के कर्ता प० सदासुखजी व afe वृन्दावनलाल के साथी । [प्रमुख. ३४१-३४२ ] अमरचन्द बड़जात्या, पं०- सांगानेर निवासी, १७वीं शती, तेरापंथ बाम्ननाय के प्रबल पोषक [ कैच. ९२,९३] अमरचन्द बांठिया- १. ग्वालियर के सिंथिया नरेश के मंत्री (१८०३-१३ ई०), । [ टंक. ] राजकोप के शिकार हुए, श्वे. जैन २. ग्वालियर के सिंधिया नरेश के राजमहल के गंगाजली नामक कोषागार के खजांची तथा राज्य के साहूकार थे- १८५७ ई० से स्वतन्त्रता संग्राम मे रावमाहब आदि विद्रोही सरदारों के कहने पर वह खजाना उनके लिये खोल दिया और यथेच्छ धन लेने दिया। परिणामस्वरूप अग्रेजों ने १८५८ ई० मे फासी का दण्ड दिया । [मेकफर्सन की रिपोर्ट ] अमरचन्द सुराना- बीकानेर नरेश सूरतसिंह (१७८७-१८२० ई०) के दीवान, १८०५ ई० में भट्टी सर्दार जाब्ता खाँ से भटनेर छीना, १८०० ई० में जोधपुर नरेश मानसिंह के जैन सेनापति इन्द्रराज के आक्रमण को निरस्त करके जगनेर को सधि की राज्य के कई बिद्रोही सामन्तों का मफलतापूर्वक दमन किया, की उपाधि, सरोपा एवं हाथी दिया, अन्त मे अमोरखा पिडारी के साथ षडयन्त्र करने के झूठे आरोप में फांती दे दी गई -विधवा युवापत्नी बची। [टंक ; प्रमुख ३३७; कैच २२३-४] ૪ राजा ने 'राव' १८१७ ई० में ऐतिहासिक व्यक्तिकोष Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमरचन्द सोगानी- भयाराम के पुत्र थे, दिग. जैन, १७७२-७७ ई० में जयपुर राज्य के दीवान रहे । [प्रमुख. ३४० ] १. फागी निवासी चर्चासंग्रह के कर्ता । अमरचन्द्र २. लुहाड़ा, पंडित, १८३४ ई० में वोसविहरमान पूजा, व्रतविधान पूजा आदि रची थीं। ३ भादिनाथ चरित्र ( प्रा० ), जनदत्तकया, काव्याम्नाय वनमालानाटक, सम्यक्त्वकुलक, हैमशब्द-समुच्चय, उपदेशमालाअक्चूरि ( १४६१ ई०), आदि ग्रन्थों के कर्ता नाम एक धा अधिक विद्वान, श्वे. संभव है इनमें से कोई या कुछ गृहस्थ भी हों । [टंक ] अमरचन्द्र सूरि- १. श्वे. यति, हेमचन्द्राचार्य के शिष्य या सहयोगी विद्वान, गुजरात नरेश जयसिंह सिद्धराज (१०९४-११४३ ई०) द्वारा 'सिंहशिशुक' उपाधि से सम्मानित । [ प्रमुख. २३१-२] २. नागेन्द्रगच्छी आनन्दसूरि के गुरुभाई सिद्धान्तार्णव के कर्त्ता - १२बी शती । ३. श्वे. जैनदत्त के शिष्य, १३वीं शती, पद्मानन्द काव्य ( जिनेन्द्र चरित्र), कलाकलाप, अलंकार प्रबोध, सूक्तावली, काव्यकल्पलतापरिमल सटीक, बादि के कर्ता दे, अमरचन्दकवि । खम्भात निवासी गोवहगोत्री ओसवाल पद्मसी के पुत्र, दिल्ली आकर मुगल बादशाह शाहजहाँ को एक बहुमूल्य रत्न भेंट किया और 'राय' की उपाधि पाई । इनका भाई श्रीपति था, पुत्र उदयचन्द और पौत्र सभाचन्द एवं फनहचन्द थे - फनचन्द को उसके मामा सेठ मानकचन्द ने गोद ले लिया था, और वही फतहचन्द बंगाल ( मुर्शिदाबाद ) का सुप्रसिद्ध प्रथम जगत्सेठ हुआ । [टंक. ] अमरनम्बि--- विधानन्दि की शिष्य परम्परा में और माणिक्यनन्दि को नुक परम्परा में हुए अमरनन्दि, १३९० ई० के एक शि. ले. के अनुसार । [ जैशिस. 1. १०५ ] अमरप्रमसूरि- मक्तामर स्तोत्र की सुखबोषिकावृत्ति नामक टीका के रचयिता, ऐतिहासिक व्यक्तिकोष अमरबस ५५ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपा'कल्याणमन्दिर स्तोत्र के टीकाकार गुणसागर के दादागुरु । [टंक:], संभवतया श्वे.।। 'समर भंगरी- जोधपुर के राज्यमन्त्री भानामडारी (१६२१ ई०) का पिता । [प्रमुख ३१०] 'अमरमुदगल गुरु- यापनीयसप-कुमिलिगण के महावीर गुरु के शिष्य ने ९वीं शती ई०, में चिंगलपेट (मद्रास) के देशवल्लभ जिनालय का निर्माण कराया था। [जैशिस iv ७०] अमरसिंह- या अमरसिंह गणि. गुप्तकालीन (५वीं शती ई.) जैन विद्वान, सुप्रसिद्ध 'अमरकोश' के रचयिता -डा० मगलदेव शास्त्री प्रति अनेक अर्जन मस्कृतज्ञ विद्वानों का भी अनुमान है कि 'अमरकोष कार जैन थे। [जैसी २८] अमरसिंह- १. करहल के चौहान राजा भोजराज का जिनभक्त यदुवंशी मन्त्री, १४१४ ई० में रत्नमयो जिनबिंब का प्रतिष्ठा महोत्सव किया था। [प्रमुख २४९] २. मुगल मम्राट शाहजहाँ के अधीन शिवपुरी (म. प्र.) का राजा जिसके समय, १६२८ ई० मे कोलारम के जैन मन्दिर का जीर्णोद्धार हुआ था। [जैशिसं iv ५०६] ३. जोधपुर के जैन दीवान खिममी भंडारी का पुत्र, ल १७०० ई. [प्रमुख ३१०] 'अमरसिंह ठाकुर- माथुरान्वयी कायस्थों में शिरोमणि, भव्य श्रावक, जिनके प्रति बोधार्थ भ अमलकीति के शिष्य भ. कमलकोति ने, ल. १५०० ई. में, देवसेनकृत 'तत्वमार' की सस्कृत टीका लिखी थी। यह ठक्कुर मतोष के पोत्र, ठक्कुर लखू (लक्ष्मण) के पुत्र, तथा श्रीपथपुर (बयाना) के निवामी थे। प० गोविन्द से पुरुषार्था नुशासन भी इन्होंने लिखाया था। [प्रवी. i. ८७.८९] ममरसिंह बीमाल- भोपा, बूड़िया (अम्बाला के निकट) के निवासी थे। इनके पिता केसरीसिंह ने १८.ई.के युद्ध में सिक्खों की ओर से अग्रेजों से लड़कर वीरगति पाई थी। अंग्रेजो द्वारा बूडिया पर अधिकार कर लिये जाने के बाद अमरसिंह महारनपुर आकर ऐतिहासिक पक्तिकोष Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहने लगे, प्रसिद्ध कानूनगो हुए, प्रभावशाली व्यक्ति थे । का पुत्र जवाहरसिंह था। [टंक. ] माथुर संधी अमितगति द्वि. (ल. १००० ई०) के प्रशिष्य, शान्तिबेण के शिष्य, श्रीवेण के गुरु, और अमरकीर्तिगण (११९०ई०) के परदादा गुरु । [ शोधांक- ५० पृ. ३६९] अमरा मौसा -- मिर्जा राजा जयसिंह के मुख्यमन्त्री मोहनदास भांवसा ( १६५९ ई०) के पुत्र, स्वयं भी जयपुर राज्य में राजमन्त्री थे, एक नवीन जिनमन्दिर बनवाया था, और तेरापन्थ शुद्धाम्नाय का पोषण किया था । [प्रमुख. २९५ ] अमरेन्द्रकोसि - १. मूलनन्दिसंघ के आमेर पट्ट की सांगानेर थाला के मट्टारक, १६१४ ई० में जिनबिम्ब प्रतिष्ठा की थी । अमरसेन २. उसी संघ के नागौर पट्ट के मडलाचार्य मट्टारक, देवेन्द्रकीर्ति के शिष्य और रत्नकीर्ति के गुरु; समय १६८० ई० । अमलकीति - १. छन्दोनुशासन के कर्त्ता जयकीर्ति के शिष्य ने ११३५ ई० में योगीन्दुकृत योगसार को प्रति लिखाई थी। चित्तौड़ के ११५० ई० के शि. ले. में उल्लिखित जयकीर्ति के शिष्य रामकोति के सधर्मा दिगम्बर मुनि - या कोई स्वतंत्र योगसार रचा था। २. काष्ठासंघ माथुरागच्छ पुष्करगण के भट्टारक तथा तस्वसार टीका के कर्ता कमलकीर्ति के गुरु, और संयम कीर्ति के शिष्य, समय ल. १५०० ई० । [प्रवी ८७ ] ३. मदुरा के राजा कुनपाठ्य द्वारा ६४४ ई० में श्रवणबेलगोल में मन्दिर के अधिष्ठाता नियुक्त किये गये दिए. मुनि तदनंतर इस राजा ने शैव बनकर जनों पर अत्याचार किये थे । [टंक. ] शिष्य, जिन्होंने कोंगाल्य नरेश १०५० ई० में, एक भव्य [जैशिसं. ii. २२४; प्रमुख. अमलचन्द्र महार- कलाचन्द्र सिद्धान्तदेव भट्टार के अदरादित्य प्र० के राज्य मे, ल. जिनालय प्रतिष्ठापित किया था। अमितगति इन १८८; एक. V. १०२] १. माथुरसंधी दिगम्बराचार्य, प्रसिद्धग्रन्थकार - सुभाषितरत्नसंदोह (९९३ ई०), धर्मपरीक्षा (१०१३ ई०), पंचसंग्रह (१०१६ ऐतिहासिक व्यक्तिकोष ५७ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ ई०) उपासकाचार अपरनाम अमितगति श्रावकचार, आराधना ( शिवार्यकृत प्रा. मूलाराधना का पद्यबद्ध सटीक संस्कृत अनुवाद), सामायिक पाठ, भावनाद्वात्रिंशिका, प्रभृति प्रसिद्ध ग्रन्थों के रचयिता । जम्बुद्वीप प्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति सार्द्धद्वयद्वीप प्रज्ञप्ति तथा व्याख्या प्रज्ञप्ति के संस्कृत अनुवाद भी इन्होंने किये बताये जाते हैं । मालवा के परमार नरेश वाक्पतिराज मुंज (९७४-९७ ई०), सिंधुल (९९७-१००९६०) और भोजदेव ( १००९-५३ ई०), इन आचार्य के प्रश्रयदाता एवं प्रशंसक थे, वह उनकी राज्यसभा के एक विद्वत्रस्न थे, और राजधानी धारानगरी के जैन विद्यापीठ के एक प्रमुख आचार्य थे । उनके प्राय: सब ग्रन्थ प्रोढ़ संस्कृत में निबद्ध हैं, और प्रथम सातों ग्रन्थ प्रकाशित भी हो चुके हैं । इन आचार्य की गुरु परम्परा में क्रमश: सिद्धान्तपारगामी वीरसेन - देवसेनअमितगति प्र० - नेमिषेण- माधवसेन हुए, और शिष्य परम्परा में से शान्तिषेण - अमरसेन- श्रीषेण चन्द्रकीतिअमरकीर्तिगण ( ११९० ई०) हुए । इस प्रकार वह स्वयं माधवसेन के शिष्य और शांतिषेण के गुरु 1 बड़े प्रभावक एवं लोकसंग्राहक आचार्य थे । समय ल. ९७५-१०२५ ई० । २. अमितगति प्र०, जो माथुरसंधी वौरसेन के प्रशिष्य, ओर गत द्वि. के गुरु माधवसेन के प्रगुरु थे - समय ल. ९०० ई० । ३. अमितगति 'वीतराग', जो संस्कृत के 'योगसारप्राभूत' नामक आध्यात्मिक ग्रन्थ के रचयिता हैं संभव है कि न० २ से न. १ से अभिन्न हों । ४. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, चन्द्र प्रज्ञप्ति सार्द्धद्वयद्वीप प्रज्ञप्ति, आदि ज्ञान किन्तु अनुपलब्ध ग्रन्थों के रचयिता अमितगति संभव है, अभिन्न हों । ५. भ. श्रीभूषणकृत पाण्डवपुराण (१६०० ई०) में स्मृत शब्दव्याकरणार्णव अमितगति । [ प्रवी.. ७१] ६. पं० गोबिन्द के पुरुषार्थानुशासन (ल. १५०० ई०) में जयसेन आदि पुरातन आचार्यों के साथ स्मृत अमितगति यति । [ प्रवी.. ८९ ] ऐतिहासिक व्यक्ति कोष Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमितते- १.२४ पौराणिक कामदेवों में से हिलीय।। २.वीरवर हनुमान का एक अपरनाम। दे. हनुमान । अमितम्य मानायक-बपरनाम अमृतवडावीश या अमृत बभूनाथ, होयसल नरेश बल्लाल दि का महाप्रधान, सर्वाधिकारी, मामूषणाध्यक्ष और वीर सेनानी, सामन्त चट्टयनायक (चेट्टिसेट्टि) का पौत्र, नयकीर्ति पडितदेव का गृहस्थ शिष्य। अपने जन्मस्थान लोक्कुगुण्डी में एक भव्य जिनालय एवं विशाल सरोवर निर्माण कराये, सत्र, अग्रहार और प्रपा स्थापित किये, ब्राह्मणों के लिए प्रथक अग्रहार बनाया और अमृतेश्वर शिव का मन्दिर भी बनवाया। उसके जिनमन्दिर का नाम एकक्कोटि जिनालय प्रसिद्ध हुआ, ती. शान्तिनाथ उसके मूलनायक थे। इस मन्दिर बादि के लिए उसने १२०५ ई० में, अपने परिवार, भाइयों, नायकों, नागरिकों एवं कृषक प्रजाजनों की उपस्थिति में भारी धर्मोत्सव किया तथा प्रभूत दानादि दिये -दे. अमृत दण्डनाय। [प्रमुख. १५९-१६०; जैशिसं. iii. ४५२; एक. vi. ३६] अमितसागर- तमिल देश के १०वीं शती ई. के प्रसिद्ध जैन वैयाकरणी, जिनके शिष्य दयापाल मुनि ने शाकटायन-व्याकरण की रूपसिद्धि नामक टीका रची थी। अमितसिंह भूरि- आंचलगच्छी मुनि जिनके उपदेश से चित्तौड़ के रावल समर सिंह (१२६५ ई.) ने राज्य में जीवहिंसा बन्द करा दी थी। [प्रमुख. २५३] अमितसेन- पुनाटसपी, हरिबंश पुराण (७८३ ई.) के कर्ता जिनसेन सूरि के गुरु कोतिषेण के कनिष्ट राधर्मा, शतजीवि, पवित्र पुनाटगणा ग्रणी। [हरि. पु.] ममित्रघात- मगध के जैन मौर्य सम्राट बिन्दुसार (ई० पू० २९८-२७३) का विशेषण। [प्रमुख. ४४] अभिवसागर- दे. अमृतसागर। [जैशिसं. iv. पृ. ३९१] अमियचम्म- दे. अमृतचन्द्र । ममोघवर्ष- १. दक्षिणापथ का जनधर्मावलम्बी राष्ट्रकूट सम्राट नृपतुंग शर्व वमं पृथ्वीवल्लभ अतिशयधवल अमोघवर्ष प्र. (८१५-७७ १.), ऐतिहासिक व्यक्तिकोष Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाविन्द तू. जगत्तुंग प्रभूतवर्ष का पुत्र एवं उत्तराधिकारी, कृष्ण द्वि. अकालवर्ष का पिता, सेनगण के आचार्य जिनसेन स्वामी का गृहस्थ शिष्य, गुरुयों, विद्वानों, साहित्यकारों एवं कवियों का प्रश्रयदाता, प्रश्नोत्तर - रत्नमालिका (संस्कृत) एवं कविराजमार्ग (कन्नड) का रचयिता । उसके परिवार के कई सदस्य, अनेक सामन्त एवं अधिकारीगण भी जैन थे। उसके शासनकाल में जैनधर्मं खूब फला-फूला, जैन माहित्य का सृजन भी प्रभूत हुआ । अपने युग का महान एवं प्रतापी नरेश । [ भाइ. २९९-३०४; प्रमुख. १०१-१०६ ] २. राष्ट्रकूट अमोघवर्ष द्वि. (९२२-२५ ई०), इन्द्र तृ. का पुत्र एव उत्तराधिकारी था, कुलपरंपरानुसार जैन था, अनुज गोविन्द च. के पडयन्त्र का शिकार हुआ। [ भाइ ३०६ ] ३. अमोघवर्ष तु बद्दिग ( ९३६-३९ ई०), अमोघवर्ष द्वि. और गोfore w. का चचा था, गोविन्द को गद्दी से उतारकर स्वयं राजा बना, शान्तिप्रिय जैन नरेश था, पुत्री रेवा ( दीवालम्बा ) का गंगनरेश भूतुगद्वि से विवाह कर दिया था, कृष्ण तु. का पिता था। [ भाइ ३०६-३०७ ] अमोलकचन्द सिरका - दीवान नोनदराम के पुर राज्य के दीवान रहे । अमोलकचन्द पारीख- कलकत्ता निवासी ने १८८७ ई० मे जर्मन प्राच्यविद डा० होर्नले को 'उबासगदसाओ' की हस्तलिखित प्रति भेंट की थी । [ टंक ] पुत्र, स्वयं १८२५-२९ ई० मे जय[ प्रमुख. ३४४ ] अमलोकचन्द श्रीमाल - महिमवाल गोत्री रामलाल के पुत्र, खेतड़ी राज्य के पर. म्परागत मन्त्री, झुंझनू मे १९१५ ई० मे स्वर्गवास हुआ। इनके भाई सोभालाल भी राज्य के मन्त्री रहे । [टंक. ] अमोलकराम राओ बहादुर - खुर्जा (जि. बुलन्दशहर, उ. प्र.) के प्रसिद्ध दिन. जैन सेठ, एक अनाथालय की स्थापना के लिए ४०,००० ० प्रदान किये। इनके सुपुत्र सेठ मेवालाल ( रानीवाला) भी धर्मात्मा, शास्त्रज्ञ और दानी सज्जन थे । [टक ] ऐतिहासिक व्यक्तिकोष ६० Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमोहिनी- हारीतिपुत्र पाल को भार्या, धर्मात्मा श्रमण धाविका मोहिनी ने अपने पुत्रों पालघोष, पोष्ठघोष तथा घनघोष के साथ मथुरा में, स्वामि महाक्षत्रय शोडास के राज्यकाल में, वर्ष ४० ( = ई० पू० २६) में अहंतपूजार्थ आर्यवती की प्रतिमा प्रतिष्ठापित की थी। [ जेसिं. ॥ -५; ए. इ. ॥. १४. २] अमृतकुमारी बीबी - मुर्शिदाबाद जिले के मोहिमपुर की ओसवाल महिला, जीवन मल तथा मानिकचंद कोठारी को जननी- १८७९ ई० में जगत सेठ गोविन्दचन्द की पत्नी प्राणकुमारी को पुत्र जीवनमल गोद दे दिया, जो गुलाब चन्द कहलाया । [टंक. ] १. अमृतचन्द्रचार्य, अमृतचन्द्रसूरि या ठक्कुर अमृतचन्द्रसूरि कवीन्द्र, आत्मनिष्ठ सिद्धयोगि एवं आध्यात्मिक सन्त, कुन्दकुन्दाचार्य के सर्वमहान एवं प्रथम ज्ञात व्याख्याकार —समयसार की आत्मख्याति टीका, समयसार कलश, प्रवचनसार- टीका, पंचास्तिकाय टीका, तत्त्वार्थसार, पुरुषार्थसिद्धयुपाय तथा लघुतत्त्वस्फोट अपरनाम शक्तिमणित- ( शक्तिभणित) कोश के रचयिता । संभवतया एक प्राकृत श्रावकाचार और प्रा. ढाढसीगाथा के भी कर्ता हैं । धर्मरत्नाकर (९९८ ई० ) और सुभाषितरत्नसंदोह (९९३ ई० ) से ही पूर्ववर्ती नहीं हैं, वरन् अमितगति प्र. ( ल० ९०० ई०) के योगसार प्राभृत से भी पूर्ववर्ती हैं। अतएव इन महान दिगम्बराचार्य का समय लगभग ९०० ई० है । अमृतचन्द्र २. वह अमृतचन्द्र जो मूल नन्दिसंघ की पट्टावली के अनुसार ९०५-९५८ ई० में हुए संभव है कि न० १ से अभिन्न हों । ३. अमियचन्द, अमियमइन्दु या अमयचन्द, जो अपभ्रन्श प्रद्युम्नafts के कर्त्ता महाकवि सिंह के गुरु थे, उन्ही की आशा से कवि ने ब्राह्मणवाड में बल्लालदेव (होयसल ? ) के राज्य में उक्त ग्रन्थ की रचना की थी । उनके स्वयं के गुरु माधवचन्द्र मलधारि देव थे, समय १२वीं शती ई० । ४. पुन्नाट गुरुकुल के अमृतचन्द्र, जिनके शिष्य विजयकीर्ति ने ल. ११५४ ई० में एक जिनप्रतिमा प्रतिष्ठित की थी मूर्ति सुल्तानपुर (पश्चिम खानदेश, महाराष्ट्र) में प्राप्त हुई है । संभव है न० ३ से अभिल हों। [जैशिसं. v. ] ऐतिहासिक व्यक्तिकोष ६१ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमृत पडनाव- दे. अमितय्य दण्डनायक [प्रमुख. १५९-१६०] अमृतमन्द- दे. अमृतानन्द योगि । अमृतमन्दि- अकारादि वैद्यकनिघंटु (कन्नड) के लेखक, ल० १३०० ई० । [ककच.] अमृतपण्डित- दिग. व्रतकथाकोश के कर्ता। [टंक.] अमृतपाल- १. चन्द्र वाड (फ़ीरोजाबाद, उ० प्र०) के चौहान नरेश अभयपाल का मन्त्री, जिसने चन्द्रवाड (चन्द्रपाठ दुर्ग) में भव्य जिनमन्दिर बनवाया था, १२वीं शती ई० में। वह नगरसेठ हल्लण का पुत्र था, अभयपाल के उत्तराधिकारी जाहड का भी प्रधानमन्त्री रहा -वह जिनभक्त, सप्तव्यसन विरत, दयालु और परोपकारी था । उसका पुत्र सोडू भी राज्यमन्त्री था [प्रमुख. २०८, २४८] २. नाडलाई (राजस्थान) के चाह्मान नरेश रायपाल और रानी मानल देवी का पुत्र, रुद्रपाल का भ्राता, परिवार जैन था, ११३३ ई० में इस परिवार ने यतियों आदि के लिए दान दिया था। [शिसं. iv. २१८] अमृतप्रभसूरि-योगशतक (हि.) के कर्ता। अमतम्बे कन्ति- तपस्विनी आयिका, जिनके समाधिमरण करने पर उनके पुत्र पअनन्दि भट्टारक ने, ९७५ ई० में, मैसूर के निकट उनका स्मारक-स्तंभ स्थापित किया था। [जैशिसं. iv. ९०] अमृतम्य सरटूरु के राजा तिलकरम के जैन मन्त्री देवण्ण का धर्मात्मा पुष, जिसने ११७५ ई० में मुलगुन्द (धारवाड) की पार्श्वनाथ-बसदि में समाधिमरण किया था। [जैशिसं iv. :४६] अमृत वाचक- श्वे. यति ने, १७९१ ई० में, सघ की प्रेरणा से, राजगृह मे अति. मुक्तकमुनि की मूर्ति प्रतिष्ठापित की थी। [टंक.] अमृतविजयगणि- तपागच्छी हीरविजयमूरि के प्रशिष्य, १६४१ ई. में सिरोही में बिम्ब प्रतिष्ठा की। [प्रमुख. २९४] अमत विमल-श्वे. ने ज्ञानविमलसूरि (१६९१ ई०) को काव्यशास्त्र, न्याय शास्त्र तथा दर्शनशास्त्र में शिक्षित किया था। [टंक.] अमृतसागर- दिग. मुनि, ने ११७६ ई० में. कुलोत्तुंग चोल के राज्य में, कुल तूर के राजा माधवन के मामा (या श्वमुर) की प्रेरणा पर ऐतिहासिक व्यक्तिकोष Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क तमिल भाषा में 'कारिगै' नामक प्रसिद्ध छन्दशास्त्र लिखा था, बिसकी टौका गुणसागर ने रची थी। [शिसं. iv. पृ. ३९१] लेख में नामरूप ममिवसागर दिया है। ममतादेवी- धर्मात्मा महिला, जिसके हितार्थ १६०० ई० में भक्तामरस्तोत्र की प्रति लिखाई गई थी। [टंक.] अमृतानन्द योगि- ने ल० १२९९ ई० में, ककातीय नरेश प्रतापरुद्रदेव के सामन्त मम्ब (मन्वगण्ड गोपाल) भूपति के लिए संस्कृत में अलङ्कार संग्रह नामक ग्रन्थ की रचना की थी, दिग.। उस वर्ष के नेल्ल ताम्रशासन में इस सामन्त का उल्लेख है। अमुमो खरतरगच्छी संवेगी साध्वी, झवेरश्री की शिष्या, विदुषी एवं प्रगतिशील विचारों वाली, उदयपुर में १९११ ई० में स्वर्गस्थ हुई। [टंक.] कर्णाटक का एक जैन सामन्त राजा, अम्बराजा (अम्बीराय) और माणिकदेवी का पुत्र, १४२१ ई. के एक दानलेख में उल्लिखित । [शिसं iv. ४३३] क्षेमपुर (गेरसोप्पे) की जैन महारानी भैरवाम्बा का एक पुत्र, महाराज इम्मडिदेवराय एवं भैरव का अनुज और सालुवमल्ल का अग्रज अम्ब क्षितीश, १५६० ई० । [मेज.३४४ ;प्रमुख.२७५] अम्बट- अर्थणा के ११०९ ई० के जैन शि. ले. के प्रस्तोता धर्मात्मा धन कुबेर भूषण सेठ के बड़े भाई बाहुक व उनकी पत्नि सीडका का सुलक्षण पुत्र। [प्रमुख. २१८] आम्रभट, गुजरात के चौलुक्य नरेश जयसिंह सिद्धराज (१०९४११४३ ई.) के प्रसिद्ध जैन मन्त्री उदयन का पुत्र, स्वय कुमार पाल (११४३-७४ ई.) का राजमन्त्री एवं प्रचंड सेनानायक । ११७३ में अजयपाल के विद्रोह में मारा गया। [प्रमुख. २३१, टंक.] अम्बह- ती. महावीर के परमभक्त एक ब्राह्मण पण्डित। [प्रमुख. २८] अम्बवेव- श्वे., नागेन्द्रगच्छी पासडसूरि के शिष्य ने शत्रुजय-उद्धारक समराशाह पर, १३१४ ई० में, 'संघपति समरारास' (हिन्दी. गुज.) की रचना की थी। अम् अम्मा ऐतिहासिक व्यक्तिकोष Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अम्बर अम्बरषेण अम्बर सेन - १. अणा के प्रसिद्ध धर्मात्मा जैन सेठ भूषण (११०९ ई०) के पूर्वज, तलपाटक ( राजस्थान ) निवासी, नागर वंशतिलक अशेषशास्त्राम्बुधि जैनेन्द्रागम-वासनारससिक्त धर्मात्मा देशव्रती वैद्यराज एवं चमत्कारी चिकित्सक -भूषण सेठ के प्रपितामह थे, अतः ल० १०२५ ई० । [ प्रमुख. २१७-२१८] २. शाकंभरी के जासट सेठ और आमुष्या का पुत्र, पद्मट का अग्रज, जिनमन्दिर निर्माता धर्मात्मा सेठ, ल० ११०० ई० । [ प्रमुख. २०६ ] या अंबरसेन 'पण्डित शिरोरत्न', जिनकी उपस्थिति में लाडairs संघ के दिगम्बराचार्य शान्तिषेण ने, जो संभवतया इनके कनिष्ट गुरु भाई थे, धाराघीश भोजदेव की राज्यसभा में सैकड़ों वादियों पर विजय प्राप्त की थी- १०८८ ई० के दूबकुण्ड ( चंडोभ, ग्वालियर) के जैन शि. ले. में यह उल्लेख प्राप्त है । [शिसं. ii २२८; एई. ii. १८; जैसाई. १७२ ; प्रमुख २१३] दिग. आचार्य वैज्रक के शिष्य मुनि चित्रसेन के सधर्मा, जयपुर प्रदेश ११६० ई० । [ कैच. ७१] दे. अम्ब । अम्बराजा- अम्बणगणि- १. या अम्बसेनगणि, दिग., कवि धनपाल द्वारा अपभ्रन्श बाहुaff (१३९७ ई० ) में स्मृत एक पूर्ववर्ती ग्रन्थकार जो अरहण (अमृता धन ) ग्रन्थ के कत्ता थे । २. अपभ्रंश हरिवंशपुराण (११वीं शती) के कर्त्ता कवि धवल के गुरु, संभवतया एक पूर्ववर्ती हरिवंश पुपाणकार भी अतः समय ल० १००० ई० । संभव है नं० १ व २ अभिन्न हों । अम्बा प्रसाब - गोधरा निवासी गुणपाल नागर एवं चीि के विद्यारसिक धर्मात्मा पुत्र जिनके हितार्थ अमरकोर्तिगणि ने अपभ्रन्श भाषा में षटकर्मोपदेश- रत्नमाला की ११९० ई० में रचना की थी -संभवतथा यह उक्तगण के अग्रज भी थे। [ शोधांक- ५० पृ. ३७०] दे. अम्ब । अम्बीराय अम्बुवन श्रेष्ठि- या अम्बवन श्रेष्ठि, क्षेमपुर (गेरसोप्पे ) के राज्यसेठ योजण श्रेष्ठ के प्रपौत्र नागसेट्टि की पत्नि नागम से उत्पन्न, स्वयं भी अपने समय में राज्यसेठ था, उसके दो भाई थे, और दो पत्नियाँ ऐतिहासिक व्यक्तिकोष EY Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीं। सारा परिवार परम्परागत परम जैन था। मुनिराज अभिनव समन्तभद्र के उपदेश से प्रेरित होकर इस पारमा सेठ ने, १५६.६० में, योजणवेष्ठि द्वारा निर्मापित नेमीबर जिना. लय के सामने कांस्य धातु का एक अतिभव्य, कलापूर्ण एवं उसंग मानस्तंभ स्थापित किया. जिसमें चार मनोश जिनबिमा स्थापित किये और ऊपर ठोस स्वर्णकलश चढ़ाया, महोत्सव किया और वानादि दिये । [प्रमुख. २७५, २७६; मेजं. ३४५३४७: एक. viii. ५५] प्र. एवं द्वि. दे. अम्बराज प्र. एवं हि. [मेज. २५१-२५२] अपभ्रश महाकवि पुष्पदन्त (९६५ ई.) के एक प्रशंसक -कवि के मेलयाटी आने पर उनकी सर्वप्रथम भेट, उक्तनगर के बाहर बन में, इन अम्मइय तथा इनके मित्र इन्द्र से हुई थी। [साइ. ३०८, ३२१, ३७६] अम्मगार वेणर ग्राम के रट्ट नरेश लक्ष्मीदेव का जैन सामन्त, जिसने १२०९ ई० में, महाराज की अनुमतिपूर्वक, चिंचुणिके के पार्श्वनाथ जिनालय के लिए, स्वगुरु कनकप्रभ द्वि. को, जो यापनीयसंघ-कारेयगण-मेलापान्वय के कनकप्रम प्र. के प्रशिष्य और विद्य चक्रेश्वर श्रीधरदेव के शिष्य थे, भूमिदान किया था। [देसाई. ११८] दानशील धर्मात्मा पट्टणसामि नोक्कय्य सेट्टि (१०६२-७७ ई.) का पिता। [मेजे. १७४, १७८; प्रमुख.१७३] या अम्मण भूमिपाल, हुमच्च के सांतरवंशी जैन नरेश तैल तः त्रिभूवनमल्ल जगदेकदानी (१९०३ ई.) की द्वितीय रानी अक्कादेवी (अक्कखा देवी) का तृतीय पुत्र, ११५९ ई० । [प्रमुख. १७४; शिसं. iii. ३४९] अम्मनदेव सान्तर- हम्मच नरेश चिकबीर बान्तर और रानी बिज्जलदेवि का पुत्र, होचलदेवि का पति, तलपदेव प्र. और राजकुमारी बीर. बरसि का पिता, धर्मात्मा जैन नरेश, समय ल. १०५. ई.। [प्रमुख. १७२] राष्ट्रकट नरेश इन्द्र तृ. (९१४-२२६.) का जैन सेनापति, जिसने कोपबल तीर्थ की यात्रा की थी और दानादि दिये थे, अम्मण ऐतिहासिक व्यक्तिकोष Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दान को तिथि ८९० ई० है । [देसाई. ३९४; प्रमुख. १०७; जंशिसं. iv-६० ] बेंग के पूर्वी चालुक्य वंश का प्रतापी एवं धर्मात्मा जैन नरेश अम्मराज द्वि. विजयादित्य षष्ठ 'समस्तभुवनाश्रय' ( ९४५-७० ई०), महाराज भीम द्वि और लोकमहादेवी का पुत्र, जिनभक्त तो था ही, शिव और शैवों का भी आदर करता था, उसकी पट्टरानी अय्यन महादेवी थी, और प्रधान सेनापति परम जैन दुर्गराज था । इस नरेश के शासन में आन्ध्र प्रदेश में जिनधर्म अत्युन्नत अवस्था में रहा, अनेक दान दिये गये, अनेक जिनमंदिर बने, अनेक जैन मुनियों का सम्मान हुआ । इसी वंश में एक अम्म या अम्पराज प्र० (९२२-२९ ई०) भी हो चुका था, जो शायद भीम प्र० का पुत्र था। [जैशिसं iv. १००; प्रमुख. ९४-९५; देसाई १६६,१९८; जैशिसं. ii. १४४; भाइ. २९०० २९१; मेजं. २५१-२] अन्य गावंड - आवलिनाड का जैन महाप्रभु, जिसकी धर्मात्मा पत्नि कालि अम्मराज---- गाडि ने १४१७ ई० के लगभग समाधिमरण किया था ये पति-पत्नि गुणसेन सिद्धान्त के गृहस्थ शिष्य - शिप्या थे । [मेजे ३३२] सौराष्ट्र के शक शहरात नहपान (२६-२७ ई०) का जैनमन्त्री । { जैसो. ९०; प्रमुख. ६३-६४ ] दिल्ली निवासी दिग. जैन, बादशाह मुहम्मद शाह (१७१९-४८ ई०) के कमसरियट विभाग के अधिकारी ने मुहल्ला खजूर की मस्जिद में जिनमंदिर बनवाया था । [टक. ] अयोध्या प्रसाद- दिल्ली निवासी गर्गगोत्री अग्रवाल दिग. जैन शान्तिलाल के पुत्र, लार्ड के अधीनस्थ एक अधिकारी, बड़े दानशील एवं परोपकारी सज्जन थे । उनके सुपुत्र रायबहादुर प्यारेलाल का स्वर्गवास १९९६ ई० में हुआ। [टंक. ] अयम--- अयामल---- अयोध्या प्रसाद खजांची- दिल्ली के ला० ईसरी प्रसाद के अनुज, १८७८ में सरकारी खजांची थे । [ प्रमुख. ३६० ] अय्कन- ६६ या करिय-अय्कण, होयसल नरेश विष्णुवर्धन के बीर एवं धर्मात्मा जैन सामन्त सोम (सोवेय नायक), जो कलुकणिनाड ऐतिहासिक व्यक्तिकोष Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का शासक था, का प्रपितामह, सुग्णवाउंड का पितामह, नाम का पिता वीरवर अय्कण, जिसे एक मस्त जंगली हाथी को वश में करने के कारण राजा ने करिय-अय्कण उपाधि दी थी। सोम द्वारा मन्दिर आदि निर्माण की तिथि ११४२ ई० है, अतः अय्कण ल० १०७५ ई० । [ वैशिसं iii. ३१८; प्रमुख ९५; एक. iv. ९४-९५ ] कोंगात्व नरेश के सामन्त, मदुवंगनाड के राजा, किविर निवासी अय्य ने १२ दिन की सल्लेखना पूर्वक, १०५० ई० में, स्वर्गवास किया था । [ मेजे. ९५, १५०; जंशिसं. ॥. १८४] कल्याणी के उत्तरवर्ती चालुक्यवंश में तेल द्वि. का पौत्र, सत्याक्षय (९९७-१००९ ई०) का भतीजा, विक्रमादित्य पं. (१००९१३ ई०) का उत्तराधिकारी - केवल एक वर्ष राज्य करने वाला अय्यन द्वि., इसके पश्चात जयसिंह द्वि (१०१४-४२ ई०) राजा हुआ - समय १०१३-१४ ई०; इसके पूर्व भी इस वंश में एक अय्यन प्र राजा हो चुका था। [ भाइ ३१५; जैशिसं iii. ४०८ ] अय्यम अम्बरसङ्ग- गंग नरेश अरुमुनिदेव का श्वसुर, रानी गावब्बरसि का पिता, जनसामन्त, ल० १००० ई० । [जंशिसं ॥ २१३; प्रमुख. १७४ ] अय्यन महादेवी - १. अय्यण महादेवी प्र० वेंगि के पूर्वी चालुक्यवंश संस्थापक कुब्ज विष्णुवर्धन (६१५ ई०) की महारानी ने बंजवाड़ा की प्रधान जैन बसति के लिए मुमिनिकुंड ग्राम दिग. जैनगुरु कलिभद्राचार्य को भेंट किया था - संभवतया उक्त जिनालय की निर्माता भी वही थी । [ देसाई. १९] २. इसी वंश के विजयादित्य प्र० की रानी और विष्णुवर्धन चतुर्थ ( ७६४-९९ ई०) की जननी अम्मन महादेवी द्वि. ने ७६२ ई० में उपरोक्त दानपत्र की पुनरावृत्ति एवं नवीनीकरण किया [ भाइ २८९; प्रमुख. ९४-९५ मेजे २५१-२५२] ने अपने पिता नोलंब पल्लव नरेश महेन्द्र प्र० के साथ एक जैनमन्दिर के लिए, ९वी शती ई० में, कुछ दान दिये थे । [ देसाई. १५७ ], तदनंतर इस अय्यपदेव ने धर्मपुरी के जिनालय को एक ग्राम दान दिया था - इन पिता पुत्र के गुरु सेनगण के विजयसेन के शिष्य कनकसेन भटार थे [ देसाई. १६२] था । ऐतिहासिक व्यक्तिकोप अस्प अभ्यण अय्यप ૬૭ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अव्ययगड - धर्मात्मा जैन सामन्त, जिसकी पत्नी कालि गोडि ने १४१७ ई० में समाधिमरण गिया था [ प्रमुख २६५ ] दे. अय्यप । [ एवं x पृ. ६५] - उसका ज्येष्ठपुत्र अन्निगबीर नोलंब भी जैन था । [ मेजं. ६९ ] मम्यपदेव अय्यपायें- अय्यप्प ४९ पृ. ३३३; मेजं. २६३] अपोटि मुनीन्द्र- बलहारिगण-अड्डकलिगच्छ के सकलचन्द्र सिद्धान्त के शिष्य ओर उन अर्हनन्दि भट्टारक के गुरु थे, जिनकी गृहस्थ श्राविका शिप्या राजरानी चामकाम्बा ने वेंगि के पूर्वी चालुक्य नरेश अम्मराज द्वि. (९४५-७० ई०) से एक दान पत्र द्वारा सर्वलोकाश्रय जिनालय के लिए एक ग्राम का दान कराया था। [ प्रमुख. ९५. ] श्रीयम के साथ, रणपाकरस के राज्यकाल में, दवीं शती ई० में, कुडलूर की नदीतटस्थित पूर्वीय-बसदि ( जिनालय) के लिए, कई उद्यान आदि दान किये थे। [जैशिसं. iv ४७ ] तलका का जिनधर्मी गंगनरेश, ल० ३०० ई०, माधव प्र. का पौत्र, और माधव द्वि. का पुत्र । after, गणिनी, जो बलहारीगण के अर्हनंदि मुनि की गुरुनि थीं। [ एवं. vii. २५, पृ. १७७ ] [ मेजे. ८ ] अव्यवर्मा--- अम्मोपोति अय्यप, अयंप, आध्यंप, अप्पयार्य आदि विभिन्न नामरूपों से उल्लेखित अय्यपाय जिनेन्द्र - कल्याणाम्युदय अपरनाम विद्यानु वादांग नामक संस्कृत प्रतिष्ठापाठ के रचयिता हैं, जिसे उन्होंने १३१९ ई० में, ककातीय नरेश रुद्रदेव के राज्य में, एकलपुर ( वारंगल - राजधानी) में लिख कर पूर्ण किया था । वह हस्तिमल्ल सूरि के प्रशिष्य और गुणवीर सूरि के शिष्य पुष्पसेन सुनि के गृहस्थ शिष्य, काश्यपगोत्री - जैनालपाकवंशी सागारधर्मी करुणाकर और अर्कमाम्बा के सुपुत्र थे, श्रीपाल इनके बन्धु थे, और वह घरसेनाचार्य, कुमारसेन मुनि और पुष्पसेन को स्वगुरु मानते थे - पुष्पसेनाचार्य के आदेश से हो उक्न ग्रन्थ की रचना की थी । मूल संघ से मगण से सम्बद्ध थे, किन्तु गृहस्थ विद्वान हो रहे प्रतीत होते हैं । दिग. परम्परा के महत्वपूर्ण प्रतिष्ठापाठों में इनके प्रत्थ की गणना है । [प्रमुख. १९१; प्रवी.. -१; शोषांक ६८ ऐतिहासिक व्यक्तिकोच Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अम्बनामि- महानायक रेवग्य का पुत्र, चातुर्वणषममसंघ का सहायक, बंक- . नाथपुर में, १०वीं शती ई. में, समाधिमरण किया। [शिसं. iv. १०७] बर बरनाथ, १८वें तीर्थकर, वें चक्रवर्ती, १४थे कामदेव, हस्तिनापुर के कुरुवंशी नरेश सुदर्शन और महारानी मित्रसेना के सुपुत्र । बहुधा 'अरह' या 'अरहनाथ' लिखा जाता है. जो गलत है। बरकोति- यापनीयनंदिसंघ-पुत्रागवृणमूलगण के माचार्य विजयकीति के शिष्य, और राष्ट्रकूट सामन्त पाकिराज के गुरु, जिसकी प्रार्थना पर राष्ट्रकट सम्राट गोविन्द तु. प्रभूतवर्ष ने, ८१२ ई० के कदन ताम्रशासन द्वारा उक्तगुरु को शीलग्राम के जिनेन्द्र मन्दिर के लिए जलमंगल नामक ग्राम प्रदान किया था। [मेज. ८८% प्रमुख. १..] दे. अकंकीति । भाट्टनेमि कुरति-गुरुनी आयिका, तमिलदेशस्थ प्राचीन दिग. जैन आपिकासंघ की एक आचार्या, मम्मई कुरसि को शिष्या। [देसाई. ६७] अरटनेमि मटार- एक तमिलदेशस्थ प्राचीन शि. ले. में उल्लिखित पेरयाकुडि के __ दिगम्बराचार्य, जिनकी आर्यिका शिष्या गुणन्दांगी कुरत्ति थीं। [देसाई.६९.] अरद्विति- धर्मात्मा सामन्त महिला, पुत्र सिंगम के जिनदीक्षा लेने पर, कुडलर दुर्ग के निकट का बहुतसा क्षेत्र धर्मार्थ दान कर दिया था -शि, ले. गंग नरेश श्रीपुरुषमुत्तरस के काल का, ल. ७५० ई. का है। [शिस. ii. १२०] अरयन उडमान-ने १०६८ ई. में करन्द (मद्रास प्रांत) के एक जिनालय के लिए दान दिया था। [शिसं. iv. १५०-१५१] मरयम्म- ९१५६० के, राष्ट्रकट इन्द्र त. के, वजीरखेड़ा ताम्रशासन के अनुसार इस नरेश की जननी महारानी लक्ष्मी के मातामह, वेमुलवाड के जिनधर्मी चालुक्य नरेश सिंहक (नरसिंह) के पुत्र बरयम्म या अरिकेसरी। (शिसं. v. १४; शोधांक-२४] भरतष्ठि - राघव-पान्डवीय काव्य के कर्ता, संभवतया दिग. विद्वान । मरसप्पनायक-१. प्रथम, सोंदा राज्य का संस्थापक जिनधर्मी नरेश । [देसाई. १३१] २. द्वितीय, बरसप्पनायक प्र. का पुत्र एवं उत्तराधिकारी, ऐतिहासिक व्यक्तिकोष Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५५५ से १५९८ ई. तक शासन किया, राज्य का प्रभूत उत्कर्ष किया, वह तत्कालीन मट्टारकों बकलंक हि. तथा भट्टाकलंक का भक्त गृहस्थ शिष्य था। उसकी एक पुत्री बोलिगि के राबा घन्टेन्द्र से विवाही थी -वह राज्यबंश भी इन्हीं गुरुषों का भक्त था। अपने १५६८ ई. के ताम्रशासन में उसने स्वयं को शन्दानुशासन के कर्ता भट्टाकलंक का प्रिय शिष्य कहा है। [देसाई. १२९.१३१] भरसप्पोय- १. गेरसोप्पे के एक शि. ले. के अनुसार, इस राजा को दौहित्री शान्तलदेवी ने समाधिमरण किया था-संभव है अरसप्प प्र.या द्वि. से अभिन्न हो। [देसाई. १३१; जैशिसं. iv. ५३९] २. जिसके पुत्र इम्महि अरसप्पोडेय ने १७५७ ई० में चारुकोत्ति पंडितदेव को भूमिदान किया था। [शिसं. iv. ५२०] मरसम्प १०८१ ई० के लक्ष्मेश्वर के दानलेख के दाता (दिनकर) का एक धर्मात्मा सम्बंधी। शिसं. iv. १६५] बरसम्वे गन्ति-सूरस्थगण के कल्नेले के आचार्य रामचन्द्रदेव की शिष्या तप स्विनी आयिका, जिसने १०९५ ई० में समाधिमरण किया था। [जैशिस.i.२३४; एक. v. ९६] मरसाबित्य- या राजा आदित्य, विष्णुवर्धन होयसल (११०६-४१ ई.) के जन मन्त्री एवं वीरसेनानी दण्डनायक बलदेवण्ण के पिता, उसकी भार्या का नाम आचाम्बिके था, दो अन्य पुत्र, पंपराय और हरिदेव तथा पौत्र माचिराज भी उक्त नरेश के जैन वीर सेनानी थे। [प्रमुख. १४६; जैशिस.i. ३५१; मेजं. १३३] অ मूलगुन्द निवासी जैन वैश्य श्रेष्ठि चन्द्रायं का पिता, चिकार्य का पुत्र और नागार्य का भाता -इसने राष्ट्रकट सम्राट कृष्ण द्वि. अकालवर्ष के शासनकाल में, ९०३ ई. में, स्वपिता द्वारा निर्मापित भव्य एवं उत्तुंग जिनालय के लिये स्वगुरु कनकसेन मुनि को प्रभूत भूमिदान किया था -यह मुनि चन्दिकावाटसेनान्बय के कुमारसेन के शिष्य और वीरसेन के शिष्य थे। [प्रमुख.१०६; देसाई. १३४; जैशिसं.. १३७] मरसिकम्बे- चामराज चभूपति की प्रथम पस्नी, और विष्णवधन होयसल के राजदण्डाधीश एवं सन्धिविग्रहिक मन्त्री वीरवर पुणिसमय्य ऐतिहासिक व्यक्तिकोष Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१११७ ई.) की धर्मात्मा बननी। [प्रमुख.१४५ मेष.१२१; चिस. 1-२६४; एक.iv.८३] बरसिक हुमन्च के वीरदेव सान्तर (१०६२६०) को सास, उनकी वान. भोला धर्मात्मा रानी चागलदेवी की बननी, स्वयं भी बड़ी धर्मा स्मा महिला । [जैशिसं.१९८; एक.viliru; प्रमुख.१७३] मरहवास- चौधरी चीमा के पुत्र और चौधरी देवराण (१५१९ ई.) के चचा। [प्रमुख. २४४] भरहनाव दे. अर या अरनाष, १८वें तीर्थकर । मरिकीति- दे. अकीति। मरिकेसरी- विदर्भदेशस्थ अचलपुर नगर के अपने समकालीन जैन नरेश के विषय में श्वे. जयसिंहसूरि ने अपनी धर्मोपदेशमालावृत्ति (८५६ ई.) में लिखा है -'इस अचलपुर में दिगम्बर जैन माम्माय का भक्त अरिकेसरी नामक राजा राज्य करता है, जिसने अनेक महाप्रसाद निर्माण करा के उनमें तीर्थकर प्रतिमाएं प्रतिष्ठापित कराई हैं।' [प्रमुख. २२३] मरिकेसरी- वातापी के प्राचीन पश्चिमी चालुक्यों की एक शाखा पुलिगेरे (लक्ष्मेश्वर) प्रदेश पर शासन करती थी, दिग. जैनधर्मावलम्बी थी, अकलंकदेव की परम्परा के देवगण के गुरुषों की विशेष भक्त थी, गंगधारा, लेंबूपाटक (बेमुलबाड) और पोदन (बोदन) इन राजाओं के अन्य मुख्य नगर थे। इसवंश में अरिकेसरी नाम के तीन (या चार) राजाओं के होने का पता चलता है१. अरिकेसरी प्र.. युद्धमल प्र. का पुत्र एव उत्तराधिकारी, ल. ८०० ई०। २. अरिकेसरी द्वि., वंश का सातवां राजा था, बहिग प्र. का पौत्र और मारसिंह द्वि. का पुत्र था तथा महान कन्नड कवि आदि-पम्प (९४१ ई.)का प्रश्रयदाता था। इस राजा की पत्नी राष्ट्रकूट राजकुमारी लोकाम्बिका थी। उसका पुत्र एवं उत्तराधिकारी बहिग वि.पा, जिसके समय में उसके गुरु, देवसंघ के सोमदेवसूरि ने, उसकी राजधानी गंगधारा में ही, ९५९ ई. में, यशस्तिलकचम्पू की रचना की थी। ३. अरिकेसरी त. बहिम वि. का पुत्र एवं उत्तराधिकारी था। उसने अपने पिता द्वारा राजधानी लेंबूपाटक में निर्मापित शुभधाम जिनालय ऐतिहासिक व्यक्तिकोष Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के लिए ९६३ ई. में एक ग्राम आचार्य सोमदेवसूरि को दान किया था। इमी राजा के समय में, ९६६ ई. में, गंगनरेश मारसिंह ने पुलिगेरे के शंखतीर्थ पर गंगकन्दर्प जिनालय बनवा. कर उसके लिए देवगण के जयदेव पण्डित को भूमिदान दिया था। [प्रमुख. १८५-१८६; देसाई. १०२; भाइ. ३३३.३३४] मरिकेसरी- या हरिकेसरीदेव, नागरखंड का कदम्बवंशी जैन राजा, १०५५ ई.। प्रमुख. १८६, १२३.१२४; जैशिसं. ii. १८७; इए. iv, १ ए. १ पृ. २०३] हुमच्च के जैन नरेश नन्नि सान्तर की रानी और राय सान्तर की जननी सिरियादेवी का पिता, ल.१००० ई०। [प्रमुख.१७२] अरिकेसरी- १११५ ई० में जिस धर्मात्मा सामन्त नोलंब की प्रेरणा से कोल्हा. पुर के शिलाहार गण्डरादित्य ने दान दिये थे, उसका एक धर्मात्मा पूर्वज । [जैशिसं iv. १९२] मरिकेसरी असमसमान मारवर्मन- मदुरानरेश कुनपांड्य (७८३ ई.) का अपर नाम, जिसने शैवसंत तिस्तान संबंदर के प्रभाव में जैनों पर भीषण अत्याचार किय थे। [मेज. २७५-२७७] परिट्टनेमि- दे. अरिष्टनेमि । अरिष्ट्रोनेमि- मूतंकार, संभवतया जिसने, ल. ९०. ई० में, श्रवणबेल गोल के चन्द्रगिरि की भरतेश्वर मूत्ति का निर्माण किया था। [शिसं. i.२५, भू. १४] कुछ विद्वानो का अनुमान है कि गोम्मटेश बाहुबलि की विशाल मूत्ति (९८१ ई.) का शिल्पी भी कोई अरिट्टोनेमि या अरिष्ट नेमि था। [टंक.] परिवमन- सौराष्ट्र के वेलाकुल का एक राजा, जिसके एक क्षत्रिय कर्मचारी कामादि के पुत्र ही प्रसिद्ध श्वेताम्बराचार्य देवद्धिगणि क्षमाश्रमण (४५३.६६ ई.) थे। [टंक.] अरिमंडल मटार- दे. अभिमंडल भटार [मेज. २४४-४५] मरिदिगोज- राष्ट्रकूट इन्द्रराज त. (९१४.२२ ई.) के परम जैन दण्डनायक श्रीविजय का विरुद। [शिसं iv. ९७] अरिष्टनेमि- या नेमिनाथ, २२वें तीर्थकर, जन्मस्थान शौरिपुर (आगरा जिला, उ० प्र०), पिता समुद्र विजय, माता शिवादेवी, हरिवंश ७२ ऐतिहासिक व्यक्तिकोष Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बरिष्टनेमि की यदुवंश शाखा में हुए, नारायष कृष्ण के तानात पाई।' महाभारतकालीन १. या बरिट्टनेमि पंडित, परसमयध्वंसक उपाधि, मलेगोल्ल के निवासी, श्रवणबेलगोल के एक प्राचीन यात्रा लेख में उल्लिखित । [शिसं . २९७] २. आचार्य, जिन्होंने, ल.७.०१० मे, कटवगिरिपर, दिण्डिक. राज नामक राजा और कम्पितादेवी की उपस्थिति में समाधिमरण किया था, इनके बनेक शिष्य थे। [जैशिसं. . १५२] ३. आचार्य, जो कर्डकोट्टर के निवासी थे, और तिरुमले के परवादिमल्ल के शिष्य थे, ने एक यक्षिप्रतिमा बनवाई बी-कास अनिश्चित। [शिसं. iti. ८३१] ४. अष्टोपवासि गुरु के शिष्य अरिट्टनेमि पेरियार (अरिष्टनेमि महान), एक प्राचीन तमिल लेख में उल्लिखित । [देसाई.५७, ५. गंगनरेश पृथ्वीपति प्र. (ल. ८५० ई.) के गुरु दिगम्बराचार्य, यह राजा बड़ा वीर पराक्रमी योदा पा, युद्ध में ही बीर गति पाई। संभवतया उसकी तथा उसकी रानी कम्पिला की उपस्थिति में आचार्य ने कटवा पर्वत पर समाधिमरण किया था -संभव है न. २ से अभिन्न हों। [प्रमुख. ७७] इ. पेरियकडि के अरिष्टनेमि मदारक, जिनके एक शिष्य को राष्ट्रकट कृष्ण द्वि. अकालवर्ष (८७८-९१४ ई.) के सामन्त विक्रमवरगुण ने दान दिया था। [प्रमुख. १०६] ७. अरिष्टनेमि भट्टारक, अपरनाम नेमिनाथ विद्य, जो श्री. देवताकल्प नामक मन्त्रशास्त्र के रचयिता हैं। वीरसेन के प्रशिष्य और गुणमेन के शिष्य थे। ल. ११०० ई.। ५ बरिट्रनेमि भटार, जिनके शिष्य गणन्दांगिकरट्रिगल के दान का ७वीं शती ई. के एक तमिल अभिलेख में उल्लेख हैं। [जैशिस. iv. २३] ९. तिरुप्पानमल के दिगम्बराचार्य अरिष्टनेमि जिनकी शिष्या ने परान्तकचोल के राज्यकाल में, ९४५६.में, जनहित के लिए एक कप बनवाया था। [शिसं. iv: ८२] ऐतिहासिक व्यक्तिकोष ७३ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लावण्यसिंह का पुत्र और अमरचन्द्र का मित्र, जिसने बोलका के राज्यमन्त्री वस्तुपाल की प्रशंसा में, १२१९-२० ई० में, सुकृतसंकीर्तन काव्य रचा था । [टंक.; गुच. २] अरिहररात्र- विजयनगर नरेश दे. हरिहरराय । महा मण्डलेश्वर कुमार मरिहरराज सम्राट हरिहर डि. ( बुक्क द्वि.) का पुत्र था जिसका अपरनाम बुक्कराज था - १३८२ ई० के जिनमंदिर के लिए दिये अरिसिंह गये दान का लेख है । [ जैशिसं - ५६१; एवं. vii. १५ A. ] अरुणमणि ने १६१७ ई० में सं. विमलनाथपुराण की रचना की थी। [कंच. १९० ] अरुणमणि -- कवि, पंडित. नामान्तर लालमणि, अरुणरत्न, रक्तरस्न आदि, ने १६५९ ई० में, मुद्गल अवरंगसाहि (मुगल सम्राट औरंगज़ेब ) के राज्यकाल में, जहांनाबाद (दिल्ली) के पाश्र्व जिनालय में, अजितजिन चरित्र नामक संस्कृत काव्य की रचना की थी। वह ग्वालियरपट्ट के काष्ठात्री भट्टारक श्रुतकीर्ति के प्रशिष्य और बुधराघव के शिष्य कान्हरसिंह के पुत्र, या शिष्य थे । [ प्रमुख. २९५ ] अरुमुसिदेव - अपरनाम रक्कसगंग द्वि., रक्कसगंग प्र० का भतीजा, राजा बासव और कंचलदेवी का पुत्र, गावम्बरसि का पति, महिलारत्न चट्टलदेवी, सान्तर रानी बोरलदेवी और राजविद्याधर का पिता, जंन नरेश । ल. १०५० ई० । [ प्रमुख. १७४; भाइ २७५ ; मेज. १५९; शिसं . २१३, २४८ ] अमोल बोल- २००५ ई०, सभवतया राजराज चोल का एक जैन सामन्त, जो गुणवीर मुनि और गणिशेखर उपाध्याय का गृहस्थ शिष्य था । [जैशिसं. ॥ - १७१] अहमोलिदेव - तमिल भाषा मे भगवान अहंत का एक पर्यायवाची नाम | [जैशिसं. iv. २१९ - शि. ले. ११३४ ई० का है ] roat आहाल पोसूर निवासी धर्मात्मा श्रावक ने, जिनालय के लिए घृतदीपक, अक्षत आदि का दान किया - १४वीं शती ई० [जैशिसं. iv. ४०५] अदि मट्टारक- मूल संघ- सूरस्थगण चित्रकूटान्वय के भ. कनकनंदि के प्रशिष्य, भ. उत्तरासंग के शिष्य, भास्करनंदि एवं श्रीनंदि के सधर्मा, और ७४ ऐतिहासिक व्यक्तिकोष Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन नार्य पन्डित पुरु जिन्हें पालुक्य सीमेवर दि. शासन- " काल में, १0७४ ई. में, बरसरवसति नामक जिनालय के लिए महामण्डलेश्वर लक्ष्मरस ने दान दिया था। [देसाई. १०७ १०८; जैशिसं. iv. १५८] महामन्दि सिवान्ति- मैसूर के १२.५ ई.के, मंदिसंघ-बलात्कारगण के माघमंदि सैद्धान्तिक के शि. ले. में उल्लिखित उनकी गुरुपरंपरा में समयनंदि भट्टारक के बाद और देवचन्द्र के पूर्व उल्लिखित महणवि सिडान्ति। [शिसं. iv. ३४२] अरेयने- हुमच्च के वीर सान्तर के जैन मन्त्री नकुलरस (१०५३ ई.) की धर्मात्मा जननी। [शिसं. iv.१३७] अरेयमारेय नायक-ने होयसल बल्लाल त के समय, ल. १३०० ई० में, एक्कोटि जिनालय के लिए विशाल सरोवर बनवाया था। [मेज.१०४] मरवगापिदि- तमिलदेश के आचार्य गुणसेनदेव (७वीं शती ई.) के एक धर्मा त्मा शिष्य। [शिसं. iv. ३३-३८] अकीति- १. यापनीयनन्दिसंघ-पुन्नागवृक्षमूलगण-श्रीकित्याचार्यान्वय के गुरु कुबिलाचार्य के अन्तेवासी विजयकीर्ति के शिष्य, जिन्हें कुमुंगिल नरेश चालुक्य विमलादित्य को शनिगृहपीड़ा से मुक्त करने के उपलक्ष्य में, उसके मामा अशेषगंगमंडलाधिराज चाकिराज की प्रार्थना पर राष्ट्रकट सम्राट गोविन्द त. प्रभूतवर्ष जगतुंग ने अपने ८१२ ई. के कदव ताम्रशासन द्वारा शिलाग्राम के जिनालय के लिए जालमंगल ग्राम दान किया था। [प्रमुख. ७७, १००; भाइ. २९८: जैशिसं. i-१२४; एई. iv] -दे. अरकीति व अरिकीति, शुद्धनाम अर्ककीति है। २. शाकटायन-व्याकरण के कर्ता शाकटायन पाल्यकीर्ति के गुरु या सधर्मा, संभव है कि नं.१ से अभिन्न हों। अर्ककोति नप- १३९८ ई. के शि. ले. में उल्लिखित एक राणा, जो संभवतया दिगम्बराचार्य अभयसूरि का भक्त था। [क्षिसं i-१.५] अनन्दि- पुण्यास्रवकथाकोशकार रामचन्द्र मुमुक्ष के परम्परागुरु, पचनन्दि के शिष्य, माधवनन्दि के गुरु, वसुनन्दि के प्रगुरु -वसुनधि के शिष्य श्रीनन्दि थे, प्रशिष्य केशवनन्दि, जिनके शिष्य रामचन्द्र मुमुल थे -ल. १२वीं शती ई.। ऐतिहासिक व्यक्तिकोष Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्कमाम्बा --- या अर्काम्बर, जिनेन्द्र कल्याणाभ्युदय (१३१९ ई०) के कर्ता अय्यपार्य की जननी, जिनभक्त करुणाकर की धर्मपत्नी [बी, i. -१] सतलखेडी (मंदसौर, म० प्र०) के साह बहव के पुत्र... संघवी द्वारा १४८३ ई० में निर्माणित जिनमंदिर का सूत्रधार । [शिसं. v-२२५] १. गुजरात का बघेला राजा (ल. १२६१-७४ ई०), जन नरेश, बीसलदेव का उत्तराधिकारी । [ गुच ३१७] २. १३९८ ई० के शि. ले. में उल्लिखित सिंहणार्य के भक्त एवं गृहस्थ शिष्य राजा । [ जैशिसं । १०५ ] अर्जुन पांडव - अपरनाम पार्थ, धनञ्जय, सव्यसाची आदि, हस्तिनापुर के कुरुबंशी राजा पांडु और कुन्ती का तृतीय पुत्र कृष्ण का सखा, अद्वितीय धनुर्धर, महाभारत युद्ध का सर्वोपरि वीर योद्धा, अन्त में जैन मुनि के रूप में तपस्या की और आत्मकल्याण किया । [ हरिवंश पु; पांडव पु.; देसाई- २०१] अर्थन अर्जुनदेव अर्जुन मोल- सरतर का भील सरदार, हीरविजयसूरि से अहिंसाणुव्रत लिया, ल. १५७५ ई० । [कैच- २०९] अर्जुन सूपति- ग्वालियर के कच्छपघटवंशी जैन नरेश विक्रमसिंह (१०५८ ई०) के प्रपितामह, जिन्होंने विद्याधर के लिए युद्ध मे राज्यपाल को मारा था । इनके पिता पांडु श्री युवराज थे, पुत्र अभिमन्यु, पौत्र विजयपाल और प्रपौत्र विक्रमसिंह थे । ये सब जैन राजे थे । [ जैशिस ii- २२८; ए. - १८; प्रमुख. २१२-२१३] अर्जुन मालाकार (माली)- सी. महावीरकालीन राजगृह का एक अभिशप्त नृशंस हत्यारा, जिसका कायापलट समता के साधक प्रभुभक्त सुदर्शन सेठ के प्रभाव से हुआ, मुनिलेक्षा लो और आत्मकल्याण किया। [ प्रमुख. २४ ] अर्जुन वर्मदेव-- धारा का जंनधर्म सहिष्णु परमार नरेश ( १२१०-१५ ई०), विन्ध्यवमं का पौत्र, सुभटवर्मा का पुत्र, विग. जैन महापंडित आशाधर का प्रशंसक, और अमरुशतक को रससंजीवनी टीका का रचयिता । प० आशाधर के पिता सल्लक्षण इस राजा के सन्धिविग्रहिक मन्त्री थे । [ प्रमुख. २११; जैसाइ. १९३३ ; गुच. ११४-११८] ऐतिहासिक व्यक्तिकोष ७६ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाकंभरी (सांभर) और सबमेरका पाहमाल (चौहाम) नरेश, पृथ्वीरारप्र.का पुष, विग्रहराज १०, पृथ्वीराज बि. बोर सोमेश्वर का पिता, गुजरात के सिंह सिवराज का बामाता, श्वे. आचार्य जिनदत्तसूरि (न. ११५००) का भक्त, इस राबा के अपरनाम बाल, मारण व अन्नमदेव थे, ११३३ ई. के लगभग गद्दी पर बैठा। [शिसं. iv. २६५ (११७० ई.); प्रमुख, २०५; टक.; केच. १९; गुष. १३२-१३] मम्मोनिदेव मुनीना- यापनीयसंघ-कण्डरगण के शुभचन्द्र सिद्धान्तदेव के शिष्य और उन प्रभाचन्द्रदेव प्रति के गुरु, जिन्हें ९८.१. में, सौन्दत्ति के जिनालय के लिए दान दिया गया था। [शिसं. ii-१६.] अपरनाम मौनिदेव। मर्यनन्वि- दे. बार्यनन्दि। महरि- है. बहनन्दि । अहस्सेन- अनुमानत: पद्मपुराणकार रविषण के प्रगुरु अर्हन्मुनि का अपर. नाम। [जैसाइ. २७३] महत्त- लोहाचार्य (१४ ई. पू.-ई०३८) के तुरन्त उपरान्त होने बाले चार बारातीय (दिग.) यतियों में से एक-संभव है कि भाचार्य अहंवलि से अभिन्न हों। [जैसो. १०६-१०७] महंहास ती. महावीर कालीन राजगृह के एक प्रमुख जिनभक्त श्रेष्ठि, जिनके एकमात्र पुत्र जम्बूकुमार (मन्तिम केवलि जम्बूस्वामि, निर्वाण ई.पू. ४६५) थे-मतान्तर से इस धेष्ठि का नाम ऋषभदत्त या। प्रमुख. २६] महंहास जो श्रवणबेलगोल की सिद्धर बसति के दायीं बाजू के स्तंभ पर उस्कीर्ण १३९८६.के पण्डितार्य की विस्तृत एवं सुन्दर स्मारक. प्रशस्ति के रचयिता हैं। [शिसं.i.१.५] महहास समि-भव्यजनकाण्ठाभरण ( भव्यकण्ठाभरण-पश्विका ), मुनिसुव्रत काव्य और पुरुदेवचम्पु नामक तीन संस्कृत ग्रन्थों के रचयिता, गव एवं पत्र के सिद्धहस्त लेखक तथा माधुर्य एवं प्रसादादि गुणविशिष्ट कुशल कषिपं. आशाघर के भक्त एवं प्रशंसक, संमबतया शिष्य अथवा निकट उतरवर्ती विद्वान, समय ल. १२५० ई०। इन्होंने शायद एक सरस्वतीकल्प भी रचा था। [प्रमुख, २१२; जैसाइ. १३८-१४३] ऐतिहासिक व्यक्तिकोष Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मदलि- ईस्वी सन् के प्रारंभ के लगभग, दक्षिणात्य मूलसंघ के प्रधाना चार्य, भद्रबाहु श्रुतकेवलि की परम्परा में हुए। अनुभूति है कि इन्होंने ६६ ई० में वेण्यानदी के तट पर स्थित महिमा नगरी में दिगम्बर मुनियों का अखिल महासम्मेलन किया था जिसमें मूलसंघ को सर्वप्रथम मन्दि, मेन, सिंह, देव, मन आदि उपसंघों में विभाजित किया गया था। इन्हींने धुतघर आचार्य धरसेन के आह्वान पर अपने पुष्पदन्त और भूतबलि नामक दो सुयोग्य शिष्यों को उनके पास भेजा था और फलस्वरुप षट्खंडागम. सिद्धान्त के रूप में अंगपूर्वो का आंशिक उद्धार एवं पुस्तकीकरण हुआ था। [जैसो. १०६.११२; प्रमुख. ६४] महंमत- ९७२ ई. में समाधिमरण करने वाली तपस्विनी आयिका पाम्बब्वे के पुत्र राजकुमार, जिसने माता का स्मारक बनवाया -दीक्षापूर्व वह एक महारानी थी। [शिसं.ii. १५०; एक. vi. १] महंतुल्लम- संस्कृत ग्रन्थ 'वैश्यजाति' के कर्ता। महनमुनि पद्मपुराण (६७६ ई.) के कर्ता रविषेण के प्रगुरु, लक्ष्मण सेन के गुरु, दिवाकर यति के शिष्य और इन्द्रगुरु के प्रशिप्य । (पद्मपु. प्रशस्ति बहनदि- १. अर्हणन्दि मुनीन्द्र, जो यापनीयसंघ-कण्डरगण के रविचन्द्र स्वामि के शिष्य और शुभचन्द्र सिद्धान्तदेव के गुरु, अम्मोनिदेव के प्रगुरु और उन प्रभाचन्द्रदेव के प्रप्रगुरु थे, जिनके समय में, ९८० ई० में, सौन्दत्ति के जिनालय के लिए दान दिया गया था। [जैशिसं.-१६०, २०५; देसाई. ११३-११४] २. मुनि अहंनन्दि भट्टारक, बलहारिगण-अडुकलिगच्छ के सकलचन्द्र के प्रशिष्य, अध्यपोटि मुनीन्द्र (या आयिका ?) के शिष्य, और राजमहिला चामकाम्बा के गुरु, जिसने उन्हें पूर्वीचालुक्य नरेश अम्मराज द्वि. (९४५-७० ई.) से जिनमंदिरों के लिए भक्तिपूर्वक दान दिलाया था। [प्रमुख. ९५; जैगिसं. ii. १४४; देसाई. २०] ३. अर्हनन्दि आचार्य या अहणदिबेट्टददेव, कल्याणी के चालुक्य सम्राट विक्रमादित्य षष्ठ रैलोक्यमल्ल (१०७६-११२८ ई.) के ऐतिहासिक व्यक्तिकोष Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मगुरु, बालचन्द्र के शिष्य, १११२६० में सम्राट के सेनापति कालिदास ने इन्हें पाश्व-मंदिर के लिए ग्राम दान किया था। [प्रमुख. १२२; शिस. iv. १९०] ४. अहंनन्दि मुनि, जो देसीगण-पुस्तकगच्छ के सागरनन्दि सिद्धान्तदेव के शिष्य थे, नरेन्द्रकीति विथ तथा उन मुनिचन्द्र भट्टारक (११५४ ई.) के गुरु थे, जो स्वयं होयसल नरसिंह प्र. (११४१-७३ ई.) के जैन महाप्रधान देवराज दि. के धर्मगुरु थे। [प्रमुख. १५०; जैशिसं. ii-३२४] 1. अहमन्दि सिद्धान्तदेव, जो मूलसंघ-देशीगण-पुस्तकगच्छ-कुन्द. कुन्दान्वय के कुलचन्द्र के शिष्य और शुल्लकपुर (कोल्हापुर) की रुपनारायण-बसति के आचार्य माधनन्दि सिद्धान्तदेव के अन्तेवासी थे, और जिन्हें ११५० ई० में शिलाहार नरेश विजयादित्य देव ने पाश्र्व जिनालय के लिए भूमि आदि का दान दिया था। [शिसं.ifi ३३४; एइ.11.२८;प्रमुख.१८२,१८५; देसाई.१२१] ६. अर्हनन्दि विद्य, जा प्राकृत शब्दानुशासन के कर्ता त्रिविक्रम (ल. १२०.ई. के गुरु थे। प्रवी.। ९५] ७. अर्हनन्दि बेट्टददेव (ल० ११वीं शती ई.), जो रक्कसय्य के धर्मगुरु के पूर्वज थे और महान तपस्वी थे। वह वर्षमान मुनि के प्रशिष्य और बालचन्द्र बनी के शिष्य थे -स्वयं उन्हें १११२ ई. में कालिदास दडनाथ ने पाश्वं-जिनालय के लिए भूमिदान दिया था। [देसाई. १८९, १९०, २४७, २५०; जैशिस. iv. १९०] ५. अहणंदि मुनीन्द्र जो बाहुबलि भ के शिष्य सकलचन्द्र भट्टारक (ममाधिमरण १२३६ ई.) के शास्त्रगुरु थे। [शिसं iv.३२७] ९. अर्हनन्दि पण्डित, दानचिन्तामणि अत्तिमम्बे के धर्मगुरु, जिन्हें उसने लोक्किगडि में भव्य जिनालय बनवाकर, १००७ ई. मे, अपने पुत्र पडेबल तेल के शासन में, उक्त मंदिर के रखरखाव आदि के लिए प्रभत दान दिया था -यह आचार्य सरस्थगणकारगच्छ के थे, चालुक्य सम्राट आहवमल्ल सत्याश्रय का राज्यकाल था। [देसाई. १४०; जैशिसं.iv ११७] १०. बहनन्दि, जो मूलसंघ-कुन्दकुन्दान्वय के क्राणूरगण-तिन्त्रिणि. गच्छ के चतुर्मुख सिद्धान्तदेव को शिष्य परम्परा मे वीरनन्दि के ऐतिहासिक व्यक्तिकोष Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिष्य और रविनन्दि के गुरुभाई थे। उनके परम्परामिष्य त्रिभुवनधन के ११३८ ई. के शि. ले. में यह गुरुपरम्परा प्राप्त है. अत: इन बईनन्दि का समय ल. ९५० १० है। [देसाई. २८१, २८२] ११. माधनन्दि सिद्धान्तचक्रवती को, १३वीं शती ई० के उत्तरार्ष में, दिये गये दानमासन में उल्लिखित उनके परम्परा गुरु, जो अमयनन्दि भट्टारक के शिष्य थे और देवचन्द्र के गुरु थे। [जैशिसं iv ३७६] मलन-- यूनानी सम्राट एवं विश्वविजेता सिकन्दरमहान (६.पूर्व०३२६) के नाम का संस्कृत रूपान्तर । १. अलाउद्दीन खलजी के समय गुजरात का सूबेदार, जिसने १३०४ ई. में, मीराते-अहमदी के अनुसार, अन्हिलवाड के जिनमंदिरों को तोड़कर उनके संगमरमर के स्तंभों से वहां की जामामस्जिद बनवाई थी। [टक.; बम्बई गजेटियर.i,१,प.२०५] २. औरंगजेब के समय फ़तेहपुर का सूबेदार था, जिसके दीवान ताराचन्द जैन थे। [प्रमुख. २९७] अलवा.- या ब्रह्म अलवा, ईडर पट्ट के मूलसंधी भ. गुणकीर्ति के शिष्य, ने १५८.ई. में जिनमूर्ति प्रतिष्ठा की, या कराई, थी। [सिभा. vii, १, पृ. १२-१८] मलसकुमार महामुनि-श्रनणबेलगोलस्थ चन्द्रगिरि के एक शि.ले. में उल्लिखित। [शिसं. १७५] मलाउद्दीन खलजी-दिल्ली का सुल्तान (१२९६-१३१६ ई.), उसके समय में काष्ठासंघ-माथुरपच्छ-पुष्करगण के भ. माधवसेन ने दिल्ली में अपना पट्ट स्थापित किया था, सुल्तान के दरबार में राघो, चेतन आदि कई वादियों को शास्त्रार्थ में पराजित किया था, सुलतान से जैनों के हित में ३२ फरमान प्राप्त किये थे। उस समय दिग. चन अग्रवाल पूर्णचन्द्र दिल्ली का नगरसेठ था जो गिरनार के लिए एक विशाल यात्रासंघ ले गया था -उसी समय मजरात के प्रमुख स्वे, सेठ पेयडसाह भी संघ लेकर आये थे। इस सुलतान के ठक्करफेरु आदि कई जैन पदाधिकारी थे। कई अन्य जैनगुरु भी उसके द्वारा सम्मानित हुए बताये जाते हैं। [भाई. ४०९. ११, प्रमुख. २३९.४०] ऐतिहासिक व्यक्तिकोष Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिरुकुरल के रचयिता तिरुवनबर के बाश्रयदाता या मुरु एलाचार्य का सिंहली नाम। दिग. अनुश्रुति उन्हें कुन्दकुन्दाबार्य से अभिन्न सूचित करती है, तमिल अनुश्रुति एक धनी बेष्ठि और सिंहली अनुश्रुति सिंहलद्वीप का एक चोलशासक (ई०पू० १४५. १०१) [मेज. २४०-२४१] मलाबदीन सुरत्राण- संभवतया गुजरात का सुलतान था, जिसके समय में १४६१ ई० में, दिग. जैन खण्डेलवाल प्राधिका ने दिल्लीपट्ट के भ. प. नंदि के शिष्य और मदनकीर्ति के शिष्य भ नेत्रनंदि के शिष्य ब्रह्म गल्ह को महाकवि सिंह के अपभ्रन्श प्रद्युम्नचरित्र को प्रति मेंट की थी। अलियमरस- कदम्बवंशी जैन राजा ने, ल० ८८९६० मे, कोपबल तीर्थ पर एक विशाल जिनालय बनवाकर धर्मोत्सव किया था और प्रभूत दान दिया था। [देसाई. ३९४; शिस. iv. ६.] अलियमारिसेट्रि- एक दिग. धर्मात्मा श्रेष्ठ, जो ल. ११८५ ई. के श्रवणबेलगोल के एक लेख में प्रमुख दानियों की सूची में उल्लिखित है। [शिसं . i. ८७] अलियादेवी धर्मात्मा जैन राजकुमारी, हुम्मचनरेश काम सान्तर और रानी बिज्जलदेवी की पुत्री, जगदेव एवं सिगिदेव की भगिनी, कदम्बनरेश होनेयरस को पत्नी, राजा जयकेमिदेव की जननी और काणूरगण-तित्रिणिगच्छ के बन्दलिके तीर्थाध्यक्ष भानुकीति सिद्धान्त की गृहस्थ शिष्या ने सेतुनामक स्थान में भव्य जिनालय निर्माण कराके, उसके लिए, ११५९ ई. में, स्वगुरु को भूमि आदि का प्रभूत दान दिया। णि ले. में उसकी धार्मिकता की बड़ी प्रशंसा करते हुए उसे 'अभिनव अत्तिमब्बे' कहा गया है। [प्रमुख. १७७; वैशिसं. iii. ३४९; एक. viii. १५९] अलुपेन्द्र- तुलुगदेश के जनधर्मावलम्बी अनुपवंशी नरेनों (११वीं-१४वीं शती 1.) की सामान्य उपाधि। शिल्पी, जिसने जैनमदिरों के पाषाणों से कट्टेबेपुर का हनुमान मदिर बनाया था। [टंक.] राष्ट्रकूट कृष्ण तृ. (९३९-६७ ई.) का एक शत्रु सामन्त, जिसे सम्राट के प्रधान सहायक जैन गंगनरेश मार सिंह ने पराभूत किवा था। [शिस i. ३८] ऐतिहासिक व्यक्तिकोष Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. मेवाडदेशस्थ अहार (अहाड) का जैन गजा जिसका उल्लेख विदग्ग ज और मम्मट के साथ ९९६ ई. के एक अभिलेख में प्राप्त होता है-इमी राजा के प्रश्रय में बनभद्रसूरि ने ९५३ ई० में हस्तिकंडी-गच्छ स्थापित किया था। यह मतपट्ट द्वि. का पुत्र और शक्तिकुमार (९७७ ई.) का पिता था। [टंक.; कैच २७, ३५, ६५; गुच. १७२-३] २. मेवाइ नरेण जिमने चित्तोड मे ८९६ ई० में एक भव्य जैन मानम्तंभ बनवाया था। [कैच. ११४] कार्कन नरेश लोकनाथरस के प्रमुख राज्याधिकारी ने, १३३ ४ ई० में, शान्तिनाथ-बसनि क लिए भूमिदानादि किये थे। मेज. ३६१; माइइ.vii २४७] मल्लामा- विजयनगर नरेश बुक्कराय के अधीनस्थ हल्लनहल्ली के राजा नरोत्तमश्री की धर्मात्मा माता जिगने १३६८ ई० में समाधिमरण किया था। वह राजा पेरुमनदेव के भाई की पत्नी थी, और श्रुतमुनि (स्वर्ग. १३७२ ई.) की गृहस्थ शिष्या थी। [प्रमुख २६२; शिम. iii. ५७१] अहहण- धर्मात्मा खण्डेलवाल श्रावक, जिसका पुत्र पापासाहु, पौत्र भूदेव तथा पद्मनिह, और प्रपोत्र हदेव था, जो प. आशाधर (ल. १२००.५० ई०) का प्रशंसक एक भक्त था। [मुख २१२] मल्हनसा- दिल्ली के जैन धनकुबेर नट्टलमाहु और कवि श्रीधर (११३२ ई.) का मिथ एवं प्रशंसक। [प्रमुख २०९] भवनिपशेखर श्रीवल्लम- पांडयनरेश, ९वी शती ई०, के समय सित्तनवासल के जैनगुहामन्दिरों का जीर्णोद्धार हुआ था। [जैशिसं. iv ६२] अवनिमहेन्द्र- जिनधर्मी गंगनरेश शिवकुमार (शिवकुमार नवकाम) का विरुद, जिसने बानी में एक जिनमन्दिर के लिये चन्द्रसेनाचार्य को प्रभूत दान दिया था। [जैशिमं iv. : ४] अवन्ति- अवन्ति नगरी का सस्थापक, महावीर कालीन चडप्रद्योत का एक पूर्वज मालव नरेश । अवन्तिपुत्र- पी. महावीर कालीन मथुरा का एक जिनभक्त नरेश । [प्रमुख. २१॥ अवन्तिवर्मन- १ पाटिलपुत्र नरेश व्रात्यन्दि (ई० पू० ४६५) का अपरनाम। [प्रमुख, ३०] ऐतिहासिक व्यक्तिकोष Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. मथुरा का महावीर पुगीन जैन नरेश । [अनुस. २१] भवरंगसाहि- मुगलसम्राट औरंगजेब (१६५८-१७०७६.) का जैन साहित्य में वहधा इस नाम से उल्लेख हुआ है। अविडकर्ण- १. आदिपुराणकार जिनसेनस्वामि (८३७ ई०) का एक विशेषण क्योंकि बाल्यावस्था में ही वह गुरु वीरसेन स्वामि की शरण में गये थे और बाल ब्रह्मचारी रहे। २. गोल्लाचार्य के शिष्य पयनन्दि कौमारदेव (११वीं शती ई.) का विशेषण। अविनीत कोंगुणी-- गंगवाडि (मैसूर) के गंगवंश का छठा नरेश, तदंगल माधव का पुत्र एवं उत्तराधिकारी, काकुत्स्थवर्म कदम्ब का दौहित्र और शान्तिवर्मन एवं कृष्णवर्मन का प्रिय भागिनेय. शतजीवि, दीर्षकालीन राज्यकाल, महान प्रतापी और परम जिनभक्त नरेश, दिगम्बराचार्य विजयकीति उसके गुरु थे। आचार्य देवनन्नि पूज्यपाद (ल. ४६४-५२४ ई.) ने उसके प्रश्रय में ही अपनी साहित्य साधना की और युवराज दुविनीत को शिक्षित किया। गंग अभिलेखों में महाराज अविनीत को 'विद्वज्जनों में प्रमुख, मुक्तसम्तदानी, दक्षिणापथ मे जातिव्यवस्था एवं धर्म-संस्थाओं का प्रधान संरक्षक' बताया है, और लिखा है कि 'उसके हृदय में महान जिनेन्द्र के चरण अचलमेरू के समान स्थिर थे। उसने कई जिनमन्दिर बनवाये, अनेक मुनियों, नीर्थों और मन्दिरो को दान दिये, साहित्य और कला को प्रोत्साहन दिया । दक्षिणापथ के अपने समय के सर्वमहान नरेशों मे परिगणित। उसका पुत्र एवं उत्तराधिकारी दुविनीत गंग (४८२-५२२ ई.) था। [भाइ २६०; प्रमुख. ७३; मेजं. १८-१९] अविरोधी मलवार- मूलत: अजैन थे, कालान्तर में बन हो गये, और मयलापूर के भगवान नेमिनाथ की भक्ति में तमिलभाषा में १०. पद्यों का एक अत्यन्त सरस अन्नाक्षरी स्तोत्र रचा था। अब्बे- गेरसीप्पे की धर्मात्मा श्रीमती अध्ये ने तथा उनके साथ समस्त गोष्ठी ने १४१९ ई० मे धर्मकार्यो के लिए श्रवणबेलगोल मे प्रभूत दान दिये थे। [प्रमुख. २६५] अभयार- पूजनीया आयिका, प्राचीन तमिल साहित्य की बहुप्रशंगित प्राचीन ऐतिहासिक व्यक्तिकोष ८३ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कवियत्री, कुरलकाव्य प्रणेता तिरुवल्लवर की भगिनी। [टंक.] -दे. नोवे। अशोक- प्रसिद्ध मौर्य सम्राट अशोक महान (ई०पू० २७३-२३४), अपर नाम अशोकचन्द्र, अशोकवर्षन, चण्डाशोक, प्रियदर्शी, आदि, विश्व के सार्वकालीन सर्वमहान नरेशों में परिगणित, सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य का पौत्र, सम्राट विन्दुसार अमित्रघात (इ. पू. २९८-२७३) का पुत्र एवं उत्तराधिकारी, राजधानी पाटलिपुत्र, कलिंग विजय (ई०पू० २६२) से हृदयपरिवर्तन, बौद्ध अनुतियों के अनुसार बौद्धधर्म का मर्वमहान समर्थक एवं प्रसारक. कुल परम्परा से जैन, जीवन के पूर्वार्ष में जैन हो रहा, उत्तरार्ध में बौद्ध भिक्षु उपगुप्त के प्रभाव से बौद्ध धर्म के प्रति विशेष झुकाव, वस्तुत: सर्वधर्म सहिष्णु, न्यायनीतिपरायण प्रजावत्सल नरेश, जनहित के अनेक कार्य किये, तत्कालीन विदेशी यूनानी राजाओं से भी मैत्री सम्बन्ध, अपने अनेक महत्त्वपूर्ण शिलालेखों, स्तंभलेखों आदि के लिये प्रसिद्ध, अहिंसाधर्म का प्रनिपालक। [भाइ. ९२. १००, प्रमुख. ४५.४८] अशोकचन-दे अशोक । अशोकवन-दे.अशोक । अश्वग्रीव- ९प्रतिनारायणों में से प्रथम प्रतिनागयण । अश्वपति- पद्मावती नगरी निवासी सुभट, जिनके पुत्र सङ्घल मुनिदीक्षा लेकर शंकर मुनि के नाम से प्रसिद्ध हुए और भद्रान्वयभूषण आचार्य गोशर्म के शिष्य थे, तथा जिन्होंने, गुप्त सं० १०६ अर्थात् सन ४२६ ई० में, विदिशा (म.प्र.) निकटस्थ उदयगिरि की गुहा मे पार्श्व प्रतिमा प्रतिष्ठित की थी। जैशिस.i-९१; इ. ए. xi, पृ० ३१० प्रमुख. १९९] भावपतेदिन- जिसका पुत्र बंगाल पर्यन्त राज्य करने वाला दिल्लीपुर का वह महम्मद सुरित्राण (सुल्तान) था, संभवतया जौनपुर का सुलतान महमूदशाह शर्की. जिसको राजसभा मे कर्णाटक के सिंहकोति मुनि ने (ल० १४५० ई० में) बौद्धादि अनेक बबन वादियों को पराजित किया था -यह उल्लेख वर्धमानमुनि रचित, ल. १५३० ई. (१५४१ ई.) की, विद्यानन्द-प्रशस्ति में है। [जैशिस iii. ६६७; भाइ. ४२७] ऐतिहासिक व्यक्तिकोष Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गावपास- नाडौम का बैन पौहान राजा, बलिराम का पुत्र बबणहिल्लका अग्रज, बाहित का पिता-११वींतीनगर. .१७.1 १. नाडीस का जन धर्मावलम्बी चौहान गरेम, बम्हनदेव चौहान (११६१-६२६०)का पिता- अहमदेव स्वयं बोर अधिक उत्साही न था, उसने मादरा में एक विशाल महावीर-जिनालय बनवाया था, बहुतसी सम्पत्ति दान करदी थी, और अन्त में दीमा मेकर जैन मुनि बन गया था। बश्वराव का एक दान शासन १९१०६.का है। [प्रमुख. २०८; कंच.२०] २. गुजरात के बोलो के मन्त्री वस्तुपाल-तेजपाल का पिताल. १२०..। [कंच. २१४-२१६] काशिदेशस्थ वाराणसी के उरगवंशी नरेण, २३वें तीर्थकर पार्वनाप (६० पू० ८७७-७७७) के पिता ।। मौद्गलीपुत्र पुष्पक की धर्मात्मा भार्या, जिसने है. सन के प्रारंभ के लगभग मथुरा में एक जिन-प्रासाद निर्माण कराया था। [शिसं.ii.८६% प्रमुख.६९] अश्विनी- ती. महावीर के साक्षात परमभक्त श्रावस्ती के सेठ नन्दिनीपिता की धर्मात्मा पस्ति। [प्रमुख. २३] अष्टोपवासिगन्ति (कम्ति)- श्रीनन्दि पण्डितदेव की शिष्या मायिका, जो शम-दम-यम-नियमयुक्त विमल परित्र वाली और जिनधर्म के संरक्षण में सदेव प्रसन्न रहने वाली साध्वी थी, जिन्हें स्वगुरु से, १०७६ ई. में बजतटाक के पार्वजिनालय के संरक्षण, शास्त्र. लेखकों (लिपिकारों) के निर्वाह, आदि धार्मिक कार्यों के लिए भूमिदान मिला था। इस माध्वी को बहधा आठ-आठ उपवास रखने के कारण 'अष्टोपवासि' विरुव प्राप्त हुआ था। [देसाई. १४४:णिसं 1-२१०। प्रमुख. १२१, ईए xvifi७३] अष्टोपबासि मुनि- १. तमिल देश के एक प्राचीन जैनाचार्य अरिट्टनेमि पेरि. यार के गुरु । इनके एक अन्य शिष्य माषनन्दि थे, जिनके शिष्य गुणसेन प्र०, प्रसिष्य वर्धमान, और प्रशिष्य गुणसेन दि. थे। [देसाई. ५७.६१; शिसं iv..१] २. मूलसंध-देशीगणपुस्तकगच्छ के मष्टोपवासि भटार, जिन्होंने १०५४ ६० में, बेहूरु में एक भव्य जिनालय निर्मापित किया था तिहासिक व्यक्तिकोष Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और उसके लिए दान प्राप्त किये थे [देसाई. १५१; शिसं. vi.१३९-१४०] ३. कवलिगणाचार्य अष्टोपवासि भटार,जिनके शिष्य रामचन्द्र भटार को, १६८ ई० में, कदम्बलिगे के राजा पडिग की रानी बक्किसुन्दरी द्वारा काकम्बल में निर्मापित जिनालय के लिए दो प्राम दान किये गये थे। [प्रमुख. १११] ४. मूलसंघ-बलात्कारगण के अष्टोपवासि मुनि, जो वर्षमान के प्रशिष्य और विद्यानन्द के शिष्य थे, तपा पक्षोपवासि गुणचन्द्र के गुरु थे। ल. ११.०० -जिस ११७५-७६ ई. के शि. ले: में उल्लेख है वह उनसे चार-पांच पीढ़ी बामे का है। [देसाई. ११७] ५. सूरस्थगण के कल्नेलेदेव के शिष्य अष्टोपवासि मुनि, जिनके शिष्य हेमनन्दि और प्रविष्य विनयनन्दि थे, जिनके शिष्य पाल्यकीति (१११८ ई.)-अतः इन अष्टोपवासि का समय ल. ११०००। [शिसं. 1-२६९] ६. देशीगण के अष्टोपवासि कनकनंदि भटार, जिनकी प्रेरणा पर चालुक्य जगदेकमल्ल के राज्य में, १०३२ ई. में, जगदेकमाल जिनालय के लिए राजा द्वारा भूमिदान दिया गया था। [शिसं. iv. १२६] ७. अष्टोपवासि कनकचन्द्र, नन्दिसंघ-बलात्कारगण के देवचन्द्र के शिष्य और नयकीति के गुरु -१२०५ ई.के शि. ले. में जिन माषनन्दिको दान दिया गया था, उनके परम्परा गुरु, ११वीं शती ई०। [शिसं. iv. ३४२ एवं ३७६] महाकवि, उपशममूत्ति-शुखसम्यक्स्व-सम्पन्न श्रावक पटुमति और उनकी सभ्यक्त्वशुरुशीला भार्या वैरेति के सुपुत्र, ने मौद्गल्यपर्वतस्थ निवासवन में संपत नाम्नी सद्भाविका द्वारा पुत्रवत् परिपालित होकर मुनिराज भावकीति के सान्निध्य में विद्याध्ययन किया था, तदनन्तर सर्वजनोपकारि श्रीनाथ राजा के राज्य में, (चोडविषय) चौलदेश की विरलानगरी में जाकर जिनोपदिष्ट पाठ ग्रन्थों की रचना की थी। जिनमे वर्षमानचरित सं०९१०, अर्थात् १५३ ई. में समाप्त हुआ था, और फिर अपने जिनधर्म भक्त ब्राह्मण मित्र जिनाप की प्रेरणा पर शान्तिनाथ पुराण की असग ऐतिहासिक व्यक्तिकोष Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रचना की थी। उनके ये दोनों संस्कृत महाकाव्य उपलब्ध एवं प्रकाशित है - अन्य छः ग्रन्थ क्या थे और संस्कृत, कन्नड या तमिल, किस भाषा में रखे गये, यह अज्ञात है । विद्वत्समूह में प्रमुख, शब्द- समयार्णव-पारग यशस्वी नागनन्दि आचार्य के असग प्रमुख गृहस्थ शिष्य थे, इनके एक अन्य गुरु आर्यनन्दि थे । पोन (९५० ई०) आदि परवर्ती कन्नड कवियों ने असंग की प्रभूत प्रशंसा की है, ओर चन्द्रप्रभचरित्र (ल० ९५० ई०), गद्यचिन्तामण एवं धर्मशर्माभ्युदय (११वीं शती ई०) पर अलग का प्रभाव लक्षित है। उत्तरपुराण गुणभद्र (ल० ८५०-९० ई०) का अस ने कोई संकेत नहीं किया है। [जंसो. २२१; बी. . ७९ ] राष्ट्रकूट कृष्ण तृ० के यादववंशी जनसामन्त शंकरगण्ड वि. ( ९६४ ई०) का पिता उस वर्ष महासामन्ताषिपति शंकरगण्ड द्वि. ने कुपण तीथंपर जिनालय निर्माण कराके उसके लिए दान दिये थे । [ देसाई. ३६८ ] कवि ने ल० १२५७ ई० में चन्दनबालारास की रचना की थी । [कास. १५४ ] अन्यमित्रा - विदिशा की श्रेष्ठिकन्या, सम्राट अशोकमोयं की पत्नी, और राजकुमार कुणाल को जननी, सम्राट सम्प्रति की पितामही । [ प्रमुख. ४८ ] ने १४१५ ई० में टोंक में पद्मनंदि के शिष्य आदेश से पार्श्वनाथ बिम्ब प्रतिष्ठा की थी। ग्वालियर के संघपति काला (१४४० ई०) का जैन सेठ । [प्रमुख. २५१] असबम्बरसि— कदम्बनरेश एरेयंगदेव की धर्मात्मा रानी, जिसने १०९६ ई० में, एक भव्य जिनमन्दिर निर्माण कराकर उसके लिए देशीगण के रविन्द्र संद्धान्तदेव को दान दिया-दिलाया था। [जैशिसं. iv. १६९-१७० ] असवर मारग्य-- होयसल नरेश बीर बल्लाल द्वि का प्रधानमन्त्री हिरिय-हेडेम असवरमारथ्य, जिसने १२०४ ई० में कुन्तलापुर के माचार्य नेमिचन्द्रभट्टारक के लिए शिलाशासन लिखवाकर दिया था । [जैणिसं. iii-४५० ] ऐतिहासिक व्यक्तिकोष असगमरस- असगु- असपाल असराज विशालकीति के [कंच. ७५ ] चचा, अग्रवाल ६७ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मसवाल दुष- अपभ्रम्ह भाषा के सुकवि ने, १४२२६० में, कुशार्तदेशस्थ कर. हल के पौहान राजा भोजराज के जैनमन्त्री अमरसिंह के पुत्र लोणासाहु के लिए पासणाहचरिउ (पाश्वनाथ चरित्र) की रचना की थी। [प्रवी. ii. १०१ प्रमुख. २४९ -वस्तुतः लोणासाह ने अपने भाई सोणिग के हितार्थ यह अन्य लिखाया था। उस समय भोजराज के पुत्र संसारचन्द (पृथ्वी. सिंह) का शासन चल रहा था। बसियाल महिलसेटि- पश्चिमी चालुक्य सम्राट विक्रमादित्य के राज्यकाल (१२वीं शती ई.) के एक शि. ले. में उल्लिखित एक धनी जैन व्यापारी, जिसने जिनमन्दिर निर्माण कराया था और प्रभूत दान दिया था। [देसाई. १.४] महिवान- वादिदेवसूरि का भक्त मागोर नरेश, ल. १२००ई० [कंच.२०१६) महोबल पण्डित- जिन्हें, होयमल नरेश नरसिंहदेव प्र. के शासनकाल में, ११६.६० में, जैन सामन्त लोकगड एवं माकवे गडि की पुत्री घट्टवे गवंड के पुत्र होयसलगवंड ने अपनी माता की स्मृति में जिनालय बनवाकर, तदर्थ भूमि बादि दान दिया था। यह गुरु मिलसंची श्रीपालनविय के प्रशिष्य और वासुपूज्यव्रती के शिष्य थे। [शिसं. iii. ३५१; एक.vi. ६९] आ माइन्याम्बा- दे. आदित्याम्बा, अपभ्रश के महाकवि स्वयंभू की पत्नी, कवि की रामायण के अयोध्याकाण्ड के लिखने में प्रमुख प्रेरक । [जैसाइ. ३७४] माकलपेअम्बे-कुन्दकुन्दान्वय के सोमदेवाचार्य की शिष्या आयिका, जिमने १२६७ ई० में अणिगेरि (धारवाड़, मैसूर) में समाधिमरण किया था। [शिसं. iv. ३४३] बाकिय मंगिसेद्वि- जिसके पुत्र गुम्मिसेट्टि ने १४६३ १. में चित्तलद्रुग में समा. धिमरण किया था। [शिसं iv. ४४२] मानमभी माविका- मूलनन्दिसंघ के भ. जिनचन्द्र के शिष्य सिंहकीर्ति की ८८ ऐनिहामिक व्यक्तिकोष Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिष्या क्षुल्लिका बिसने १४७४ ई. में कलिकुंड-यन्त्र की प्रतिष्ठा कराई थी। [नाहटा. ४९] नागमतिरि बाई- आर्यिका जिनकी १४०५ ई. में बिजोलिया में निषिधिका (समाधिस्मारक) बनवायी गयी थी। [कंच. ७८] पाचोर- शिलाहार नरेश विजयादित्य के जैन सेनापति कालण (१९६५ ई.) का प्रपितामह । [जैशिसं. iv. २५९] भाषण- उपरोक्त आचगोड के वंशंज, कालण का पुत्र, जिन्नण और रमण का भाई [जैशिसं. iv २५९] भाषणकपि-दिग.. पुरिकरनिवासी ब्राह्मण केशवराज एवं मल्लम्बिका का पुत्र, नन्दि योगीश्वर का शिष्य, पाचपंडित द्वारा पाश्र्वगण (११८९ ई०) में उल्लेखित, स्वयं ने अग्गल का उल्लेख किया है। पिता केशवराज के अधूरे कन्नडी वर्षमानपुराण को पूर्ण किया था ११९५ ई० में। ककच.; टंक.] भाचण्णसेनबोब- एरम्बरगेय नगर का उच्च राजस्व अधिकारी, दिग., जिसके पुत्र देवण ने, जो देशीगण-पुस्तकगच्छ-इंग्लेश्वरबलि के माधवचन्द्र भट्टारक का रहस्य शिष्य था, सिद्धचक्र एवं श्रुतपंचमी व्रतों के उद्यापन के उपलक्ष्य में पंचपरमेष्टि की प्रतिमा प्रतिष्ठापित कराई थी, १२वीं शती ई० में। [देसाई. ३८२] माधम चामुगार मट्टारक- ने विजयण्ण एव बमण्ण द्वारा निर्मित शान्तिनाथ प्रतिमा वरुणग्राम (मैसूर) में १०वीं शती ई० में प्रतिष्ठापित की थी। [जैशिस. iv. १०१] माचलदेवी- १. आचले, आचाम्बा या आचियक्कन, होयसल नरेश वीर बल्लाल द्वि. के मन्त्रीश्वर चन्द्रमौलि की परमजिनभक्त भार्या थी। वह मासवाडिनार के प्रमुख शिवेयनायक एवं चन्दब्बे की पौत्री, सोवण्ण नायक एवं बाचम्बे की पुत्री और नायक सोम की भगिनी थी, और देशीगण के नयकीति सिद्धान्तदेव के शिष्य बालचन्द्र मुनि को गृहस्थ शिष्या थी । इस रूप-गुण-शील सम्पन्न धर्मात्मा महिलारत्न ने ११८२६० में श्रवणबेलगोल में मक्कनबसदि नामक अति भव्य पार्व-जिनालय निर्माण कराया था, जो होयसल कला का अबशिष्ट अति उस्कृष्ट नमूना माना जाता है। उसके लिए उसने तथा उसके पति चन्द्रमौलि ने होयसलनरेश से ऐतिहासिक व्यक्तिकोष Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचले आचाम्बा-- दे आचलदेवी न० १ आचाम्बिके-- अरसादित्य नामक राजा की पत्नी और पम्पराज, हरिराज तथा होयसल नरेश के परम जैन मन्त्रीश्वर बलदेव की जननी, और कटक-कुल- तिलक माचिराज की पितामही । [ जैशिसं.. ३५१ ] आचियक्कन या आचियक्के दे. आचलदेवी नं० १ कई ग्राम स्वगुरु मुनि बालचन्द्र को दान कराये थे। उसने और भी कई जिनमन्दिर बनवाये तथा अनेक धार्मिक एवं लोकोपकारी कार्य किये । [ प्रमुख. १६०; जैशिसं. 1. १०७, १२४, ४२६; शोधांक- २८ ] २. उपरोक्त आपलदेवी की बुआ, जो मासबाडिनरेश हेम्माडि देव से विवाही थी - परमश्रावक शिवेयनायक की यह पुत्री भी परम जैन थी। [जैशिमं i. १२४] ३. चालुक्य जगदेकमल्ल के सामन्त कदम्बवशी तेल मंडलेश की धर्मात्मा रानी, ११४८ ई० [ जैशिसं. iv. २३६ ] दे. आचलदेवी नं० १ आच्चन श्रीपालन - वीं शती के शि. ले. मे उल्लिखित गुणसेन के शिष्य अनतवन का भतीजा । [ जंशिसं. iv. ३३-३८] बाजाहो १५वीं शती ई० के ग्वालियर निवासी तथा अपभ्रन्श भाषा क महाकवि रघु ने अपने सम्मद्दजिणचरिउ की रचना जिस हिसार निवासी धनी व्यापारी एवं धर्मात्मा श्रावक साहू तोमड के प्रश्रय में की थी, उसकी इस धर्मात्मा पत्नी ने स्वयं भी गोपाचल दुगं में एक विशाल चन्द्रप्रभ-प्रतिमा प्रतिष्ठापित कराई थी। [ अने. ४० / २, पृ. २२ ] माटेकचन्द नोगामी - ने सागवाड़ा के महारावल जशवन्तसिंह से १८३६ ई० में जीवमा निषेधक फर्मान निकलवाया था। [ प्रमुख. ३४५] आढतराम - दिग. जैन कवि पं० वृन्दावनदास ( ल० १८०० ई०) के मित्र, काशी निवासी धार्मिक सज्जन [टक. ] कवि-रचित गाथा, त्रिभुवनतिलक मन्दिर व उसके संस्थापक शावड के विषय में, बेहार (म. प्र. ) के स्तंभलेख मे । [ जैशिस iv. ३०२ ] मानंदराम - दिल्ली निवासी धर्मात्मा श्रावक, जिनके देहरा (जिनालय) मे ऐतिहासिक व्यक्तिकोष आणदेव ९० Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आण्डष्ण- माण्डव्य--- सुप्रभदोहा आदि कतिपय ग्रन्थों को, १७७८ ई० में, प्रतिलिपि हुई थी। [पुजेवासू. १९५ ] बलगि (कर्णाटक के सिद्धपुर तालुका) के जिनधर्मी राज्यवंश का संस्थापक (ल० १३५० ई०), लगभग एक दर्जन वंशजों ने अनेक जिनमन्दिर बनवाये, दानादि दिये। [ देसाई. १२८ ] भाषा का अत्यन्त लोकप्रिय जैनकवि, 'कब्बिग र काव' (१२३५ ई०) का रचयिता । [ करूच. i. ३६७-३६८; मेजे. २६६ ) धर्मात्मा श्रावक जिसने कलिंग देशस्थ उदयगिरि पर 'छोटी हाथी गुंफा' बनवाकर दान की थी -ल० प्रथम शती ई. पू [प्रमुख. ५८ ] ( १८३६-९७ ई०), मूलत: प्रवे. स्थानकवासी साधु पे, कुछ समय बाद श्वे. मन्दिरमाग यति बने । १९वीं शती ई० के अन्तिमपाद में महान प्रभावक एवं धर्म प्रचारक जैनाचार्य थे । स्वामि दयानन्द, रामकृष्ण परमहंस, विवेकानन्द रानाडे, गोखले आदि महापुरुषों के उस युग में जैनधर्म का सफल प्रतिनिधित्व किया, देश एवं विदेशों में धर्मप्रचार की प्रबल भावना थी । शिकागो (अमरीका) के सर्वधर्म सम्मेलन (१८९३ ई०) मे जैन धर्म का प्रतिनिधित्व करने के लिए बैरिस्टर वीरचन्द राघवजी गांधी को भेजा, शिकागो प्रश्नोत्तर नामक ग्रन्थ लिखा, अन्य अनेक छोटी बड़ी पुस्तकें लिखीं, यथा जैन तत्वादर्श, तत्त्वप्रसाद निर्णय अज्ञानतिमिर भास्कर आदि। कई ग्रन्थमालाएं, प्रकाशन संस्थाएं उनके नाम से चलीं । वह श्रीमद् विजयानन्दसूरी भी कहलाते थे । आत्मशुद्धि आतमाराम, स्वामि भवन्न पौण्ड- होललकेरे की शान्तिनाथ-बसदि का जीर्णोद्वार कराने वाले दानशील जिनभक्त धर्मात्मा श्रावक बोदण्णगोड का पुत्र, सोमण्ण एवं शान्तष्ण का भ्राता, धर्मात्मा श्रावक, अपने पिता एव भाइयों के धार्मिक निर्माणों, धर्मोत्सवों, दानादि में सहयोगी । इनके गुरु मूलसंघी पाश्वंसेन भट्टारक थे । तथोक्त महोत्सव एवं दानादि ११५४ ई० में किये गये थे। [ प्रमुख. १९५; जैशिसं. iii. ३३८; एक. xi, १] वर्धमानमुनि (१५४२६०) द्वारा 'जगद्वन्ध-सुकुमारचरित्रेश-परवादिविदारक' रूप में प्रशंसित प्रभावक दिगम्बरा श्रायें । आवप्पार्थ ऐतिहासिक व्यक्तिकोष ९१ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ या यादला, जैनधर्म में दीक्षित एक मुसलमान, जिसने 'भ. ऋषम की होली' (बाबो ऋषभ बैठे अलबेले...) शीर्षक भावपूर्ण कविता लिखी थी। [टंक.] मावलीचन- ने माणकदास नोमामी आदि महाजनों के सहयोग से सागवाड़ा के महारावल उदयमिह से १८५४ ई. में जीवहिंसा निषेधक आवेशपत्र निकलवाया था। [प्रमुख. ३४५] माविष्ट- वागवण्ड का पौत्र होनगवण्ड एवं जक्केगवुण्डि का पुत्र, और माडि, मार, माच तथा नाक गवुण्डों का पिता । महाप्रधान आदिगबण्ड होयसल नरेश वीर बल्लाल द्वि. के बोप्पदेव दण्डेश का अधीनस्थ राजपुरुष था। इस परिवार के धर्मगुरु द्रमिलसंधी वासुपूज्य मुनि के शिष्य पेरुमलदेव थे। आदिगवण्ड ने १२४८ ई० मे एक विशाल जिनालय बनवाकर, अपने पुत्रों सहित महान धर्मोत्सव किया था तथा स्वगूरु को भूमि आदि का दान समर्पित किया था जिसमें कोण्डाल के ४० जैन परिवारों के साथ समस्त ब्राह्मण भी सम्मिलित थे। [प्रमुख. १६३; शिस. iii. ४९६; एक. v. १३८] आदित्य हारवश पुराण की प्रशस्ति (७८३ ई.) मे उल्लिखिन वर्धमान पुराण के कर्ता पूर्ववर्ती दिग. विद्वान । [प्रभावक. ५२] मापित्य चोल- इस नरेश के समय (ल. ८५० ई०) उत्तरी भाट जिले के वन्डवाश तालुके में वेडालग्राम के निकटस्थ पार्वतीय गुफाओं में एक विशाल आयिका आश्रम पा, जिसकी अध्यक्षा आयिका गणिनी कनकवीर कुरत्तियार थी, जो वेडाल के मूलसंधी भट्टारक गुणकीति की शिष्या थीं, और जिनके आश्रम में ५०. साध्वी शिष्याएं थीं। उसी समय एक अन्य संघ मे ४०० साध्वियां थीं। राजा जैनधर्म का प्रश्रयदाता था। [देसाई. ४६] यह चोल नरेनों में आदित्य प्रथम था। मादित्य दण्डाधिप- चालुक्य सम्राट त्रिभुवनमल्ल के अधीनस्य राजा पाण्ड्य का प्रधान सेनापति यादववंशी सूर्य चमूप था-उसका अनुज वह आदित्य दण्डाधिनाथ शूरवीर दुर्टर योद्धा था। द्रविडसंधी मल्लिषेण मलधारी के शिष्य श्रीपाल विद्यदेव इन भ्रातृव्य के धर्मगुरु थे। इन भाइयों ने सेम्बतूर मे एक उत्तम पावं जिन ऐतिहासिक व्यक्तिकोष Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंदिर बनवाकर उसके लिए पुजारी शान्तिशयन पंडित को प्रभूत दान ११२८ ई. में दिया था। [शिसं. ii २८८] मादित्य नप- दे. अरसादित्य, होयसल सेनापति बलदेवण्ण (ल. ११२०१०) का पिता, एक जैन राजा । [मेज. ११३] मादित्य वर्म-जिनधर्की युद्धवीर सामन्त था, जिसने, ल. १३०० ई. में, काणूरगण मेषपाषागगच्छ के कागिनेल्लि स्थित जिनालय में उत्तुंग स्तंभ (मानस्तंभ) बनवाया था। [देसाई. १४६; जैशिसं. iv.६०३] मादित्य शर्मा-प्राकृत मन्नानुशासम के कर्ता जैन वैयाकरणी त्रिविक्रम के पितामह। [प्रवी. ९५] मादित्याम्बा- दे. आइचाम्बा, अपभ्रन्श महाकवि स्वयंभू (ल. ८...) को विदुषी पत्नी। मादिवास- १. ने १५१८ ई. में, मलेयूर पर्वत पर स्वगुरु, कालोग्रगण (कोल्लारगण) के आचार्य मुनिचन्द्रदेव का चरणचिन्ह युक्न समाधिस्मारक बनवाया था। उसका गुरुभाई तथा इस धर्मकार्य में सहयोगी वृषभवास था। [मेज. ३३०; जैशिसं. ६६३ एक. iv. १४७, १४८, १६१, प्रमुख. २७१] २. तुलुवदेशीय श्रावक आदिवास ने, जो हनसोगेबलि के हेम. चन्द्र का नथा ललितकीति भट्टारक का शिष्य था, मलेयूर (कनकगिरि) पर, १३५५ ई० में, विजयदेव की मूर्ति बनवाकर स्थापित की थी, स्वगुरुओं की समाधियां भी बनवाई थीं। [मेंज. ३२८; एक. iv.१५३] आदिवेष- आदिनाथ, आदिपुरुष, आदिब्रह्मा आदि प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के अपरनाम भारिदेव मुनि-मूलसंघ-देशीयगण-पुस्तकगच्छ-कोण्डकुन्दान्वय-इंगलिश्वरबलि के रायराजगुरु अभयचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती के शिष्य और श्रुतमुनि के शिष्य आचार्य प्रभेन्दु (प्रभाबन्द्र) के प्रिय अपशिष्य श्रुतकीतिदेव के १३८४ ६० मे स्वर्गस्थ हो जाने पर उनके शिष्य आदिदेव मुनि ने सुमतिनाथ-जिनालय का जीर्णोद्धार कराया तथा उसमें मुमति तीर्थकर की एवं स्वगुरु श्रुतकीतिदेव की ऐतिहासिक व्यक्तिकोष Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाविनाप मूत्तिया बनवाकर स्थापित की थीं। इस कार्य में श्रुतगण के समस्त भव्य श्रावकों ने भी योग दिया था। [क्षिसं. ii. ५८४; भेजे. ३३०; एक.iv-१२३] १३६७ ई० में स्वर्गवासी होने वाले देवचन्द्र प्रतिप के शिष्य और श्रुतमुनि के प्रशिग्य आदिदेव भी यही प्रतीत होते हैं। [प्रमुख. २६२, २६३] १. प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव का अपरनाम -दे. ऋषभदेव । २. प्रवचनपरीक्षाकार पं. नेमिचन्द्र (ल. १५.. ई.) के भ्राता जिन्हें भव्यानंद-काव्य (१५४२ ई.) में 'बुषस्तुत्य-बादविजयी-मल्लिरायनप-स्वान्त-सरोजात-प्रभाकर-दशरथतुल्यकरणिकतिलक (मन्त्री विशेष)' आदि विशेषणों के साथ स्मरण किया है-यह धर्मात्मा जैन ब्राह्मण श्रावक, विद्वान एवं राजपुरुष थे। [सं. १.१, १३५, १३७, १४८] ३. आदिनाथ पंडितदेव मलसंघ-तित्रिणिगच्छ के आचार्य थे। इनके एक तेलीजातिय कृषक श्रावक शिष्य ने १६९९ ई. में, नेल निकालने का एक पत्थर का कोल्हू बनवाकर देवमंदिर के लिए समर्पित किया था। [शिसं. ii. ७२४; एक. iii. ४८] ४. दिग. ब्राह्मण आदिनाथ. देवेन्द्र एवं मायंदेवी के पुत्र, और विजयप्प एवं संहिताकार नेमिचन्द्र के भाई- १६वीं शती। संभवतया न. २ से अभिन्न हैं। [टंक.] ५. दिग. ब्राह्मण आयुर्वेदश, पार्श्वनाथ के पुत्र, कोदण्डराम के पिना, और ब्रह्मदेव के पितामह । [टंक. ६. लक्ष्मेश्वर के १०५१ई.के शि. ले. में उल्लिखित दान के ममर्थक वैध कन्नप का एक पुत्र। [शिसं. iv. १६५] पम्प नामके प्रथम एवं सर्वमहान जैन कडकवि, वेंगिमंडल निवासी दिग. जिनधर्मी तेलेगु ब्राह्मण अभिरामदेवराय के पुत्र, जन्म ९०२६०, पुलिगेरे (लक्ष्मेश्वर) के चालुक्य नरेश बरि. कसरी वि. के माश्रित, आदिपुराण और विक्रमार्जुनविषय (भारत) नामक दो सुप्रसिद्ध चम्पूकाव्यों के प्रणेता, (९४१ ई. -संभवतया स्वर्गवाम की अथवा अन्य रचना की तिथि) अमर कवि। [मेज. २६५; ककच.; टंक.] मारिप एतिहासिक व्यक्तिकोष Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [माई. २२० ] मुनिगण्ण के पुत्र, स्वयं चन्द्र कोर्ति के शिष्य कादि मट्टारक-- प्रथम तीर्थंकर बादिनाथ- ऋषभ । नादियण्य--- ear कवि, दिग. श्रुतयति के ग्रहस्थशिष्य ब्रह्म, चन्द्र और विजयप्प के भाई, प्रभेन्दु मुनि के गृहस्थ शिष्य थे । ल. १६५० ई० में गेरसोध्पे नरेश भैरवराय के गुरु बीरसेन की आज्ञा से easerव्य धम्यकुमार चरित की रचना की थी। गेरसोप्पे के १४८१ ई० के शि. ले. में उल्लिखित पायं-प्रतिष्ठा कराने वाली जक्कबरसी के पति मंगभूप का अपरनाम । [जैशिसं. iv ४३३] श्रीपालचरित्र (हिन्दी) के रचयिता । भविराज- आबिसागर - आविसेट्टि - आविसेन १. अनंतक सेट्टिति के पुत्र ने ल. १४वीं शती में माबिनकेरे में चौबीसी को स्थापना की थी। [जैशिसं. iv . ४१९] २. के पुत्र बोम्मरसेट्टि ने शृंगेरी में १५२३ ई० में चन्द्रनाथ प्रतिमा प्रतिष्ठापित की थी। [शिसं. iv ४६५ ] या आद्यन्तसेन, काष्ठासंघ नदीतटगच्छ विद्यागण - रामसेनान्वय के भ. यश: कीर्ति के शिष्य और ब्रह्म कृष्णदास (१६२४ ई० ) के गुरु म. रत्नभूषण के प्रगुरु थे 1 [ प्रज. ४०-४२ ] अभिनव - दे. अभिनव मादिसेन । दे. मणीराज चौहान । [कंच. १९] ९ पौराणिक बलभद्रों में छठे बलभद्र । [जैशिस. iv. ५३२ ] आविसेन भट्टारक अन्नलदेव आनन्द--- मानन्द मानव- आनन्द--- महावीर तीर्थ के दश अनुत्तरोपपादकों में से पांचवे । उपासक दशांग सूत्रानुसार ती. महावीर के दश परमभक्त सद्श्रावकों में प्रथम, वाणिज्यग्राम का प्रधान घनाधीश, नगरसेठ एवं राज्यसेठ गृहपति आनन्द और उसकी धर्मपत्नी शिवानन्दा तीर्थकर के उपदेश एवं प्रभाव से जैनधर्म अंगीकार करके परिग्रह परिमाण व्रत के धारक आदर्श लोकोपकारी सद्भावक बने थे । [प्रमुख. २१-२२ ] जयसिंह सिद्धराज सोलंकी का जैन पृथ्वीपाल महाराज कुमारपाल [ गुच. २६० । ऐतिहासिक व्यक्तिकोष राज्यमंत्री । उसका पुत्र का राज्यमंत्री था 1 ९५ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिग. त्यागी मराठी साहित्यकार, १९२७-२८ ई० में जैनधर्माचे अहिसातव, वैराग्यशतक (अनुवाद), बात्मोन्नतियां सरल उपाय, अन्यधर्मापेक्षा जैन धर्मातील विशेषता, आदि लगभग एक दर्जन पुस्तकें लिखकर प्रकाशित कराई थी। आनन्द कवि श्वे. तपागच्छी हेमविमलसूरि के प्रशिष्य और कमलसाघु के शिष्य ने १५९३ ई० में राजस्थानी भाषा मे 'चौबीस तीर्थंकरों का गीत' रचा था । ऋष अनन्यधन श्रेष्ठ अध्यात्मिक सत एवं कवि, श्वे. ल० १६२५-७५ ई०, आनन्दधन चौबीसी, आनन्दघन बहत्तरी, स्तवनावली, आदि ब्रजभाषा, राजस्थानी एवं गुजराती भाषा की कई पद्य रचनाओं के प्रणेता, इनके पद पर्याप्त लोकप्रिय, आध्यात्मिक रस से ओतप्रोत और असाम्प्रदायिक है । यह संभवतया मेड़ता के निवासी थे । इस नाम के कतिपय अन्य जैनकवि भी हुए लगते है । जन्म १६०३ ई० में और स्वर्गवास १६७३ ई० में हुआ बताया जाता है। [ कास. २३९-४० ] जगनसेठ फतहचन्द ( १७२४ ई०) का ज्येष्ठ पुत्र, दयाचन्द एवं महाचन्द का अग्रज, पिता के जीवन में हो निधन हो गयाउसका एकमात्र पुत्र महताबचन्द बाद में मुर्शिदाबाद का द्वितीय जगतसेठ हुआ । [टक. ] मानन्दजी कल्याणजी -- श्वे. समाज की सर्वप्रसिद्ध तीर्थ संरक्षक पेढ़ी का कल्पित नाम, केन्द्रीय कार्यालय अहमदाबाद में है । [टक. ] आनन्ददेव--- ने १७३७ ई० में मूलनन्दिसंघ के भ. दत्तकीर्ति तथा महेन्द्रकीर्ति आनन्दचन्य के साथ जयपुर नरेश अभयसिंह और मेड़ता के राजा बखतसिंह के समय में मारोठनगर में वृहत् जिनबिन प्रतिष्ठा कराई थी। आनन्दनगत — आर्दकुमार चौपदी के कर्त्ता आनन्दमय्य- होयसल नरेश बल्लाल द्वि (११७३-१२२० ई०) का आश्रित, कन्नड जैन कवि, मदनविजय नामक काव्य का रचयिता । [ प्रमुख. १५७ ] आनम्बमेद - रायमल्लाभ्युदय काव्य ( १५५६ ई०) के कर्ता पद्मसुन्दर के दादागुरु और पद्ममेरु के गुरु श्वे. आचार्य । [टक. ] ऐतिहासिक व्यक्तिकोष ९६ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनन्दराज सुराना-- जन्म १५ सित० १८९९ ई०, जोधपुर में, स्वर्गवास २४ सिसक १९८० ई० दिल्ली में, सेठचांदमल सुराना के सुपुत्र 'प्राणीमित्र', 'पद्मश्री' आदि मानद उपाधिप्राप्त, तपे हुए स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी, कई बार जेल यात्रा को दिल्ली राज्य की विधानसभा के कई वर्ष सदस्य रहे, सर्वाधिक उत्साह प्राणीरक्षा, जीवदया प्रचार और पशु-पक्षियों के संरक्षण में रहा, अतएव तदुद्देशीय अनेक स्थानीय, प्रान्तीय, अखिल भारतीय तथा अन्तर्राष्ट्रिय सस्थाओं एवं सगठनों से सक्रिय रूप में सम्बद्ध रहे । अन्य कई सामाजिक-सांस्कृतिक संस्थाओं से भी सम्बद्ध | साथ ही सफल व्यापारी भी । [ प्रोग्रे. १०३-१०५ ] १. दिल्ली निवासी दिग. मित्तलगोत्री अग्रवाल, जिनके भाई बखनावरमल ने रतनलाल के सहयोग से १८७७ ई० मे जिनदत चरित्र (हिन्दी पद्य ) की रचना की थी । 1 [टक. ] २. दिल्ली निवासी श्वे. फोफलिया श्रीमाल, जयपुर राज्य में उच्च पदाधिकारी रहे— उनके पुत्र चुन्नीलाल, हीरालाल एव मोहनलाल थे। [टंक. ] ३. बसवा निवासी दिग, श्रावक, पं० दौलतराम कासलीवाल (१७३८-७२ ई०) के पिता । [ प्रमुख. ३१८ ] आनन्दवर्द्धन श्वे. साधु ल० १७५० ई०, कल्याणमदिरपद, भक्तामरपद आदि (हिन्दी) के रचयिता । आनन्दविजय - दवे. साधु, ल० १६५० ई०, हर्षकुलकृत त्रिभंगीसूत्र की वृत्ति के रचयिता । आनम्वराम आनन्दविमलसूरि श्वे. तपागच्छी आचार्य (१४९०-१५३९ ई०), सुधारवादी संत, सौराष्ट्र, मालवा, मारवाड आदि प्रदेशों में ग्रामीण जनता के मध्य धर्मप्रचार को विशेषरूप से प्रोत्साहन दिया । इनका Her are aafne प्रभावशानी था और इनके धर्मप्रचार कार्य में सहयोगी था। [ टंक. ] आनन्दसूरि-- हेमचन्द्राचार्य के एक सुयोग्य शिष्य और उनकी प्रवृत्तियों मे सहयोगी, चालुक्य नरेश जयसिंह सिद्धराज (१०९४ - ११४३ ई०) ने उन्हें 'व्याघ्रथिशुक' उपाधि से सम्मानित किया था । [प्रमुख. २३१-२३२] ऐतिहासिक व्यक्तिकोष ९७ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानव- माना बानेग- आपिशल - सोमदेवसूरि द्वारा यशस्तिलकचम्पू ( ९५९ ई० ) में उल्लिखित एक प्राचीन वैयाकरणी । बाबाजी मनसाली- जामनगर के जामसाहिब का जैनमन्त्री, आ. होरविजयसूरिका भक्त, ल० १५९५ ई० । [ कैच. २१० ] हलवा पट्टन का एक स्वपुरुषार्थी प्रसिद्ध जैन जौहरी, जो हेमचन्द्राचार्य का भक्त था, और जर्यासह सिद्धराज (१०९४११४३ ई०) के हाथ एक अति मूल्यवान रत्न बेचकर राजा द्वारा सम्मानित हुआ था। उसने कई जिनमन्दिर बनवाये, जैन साधुओं की सेवा-संरक्षण में उत्साही, घमंत्रचार में योग देता बा । [टंक. ] आमड आमदेव एक चौलुक्य राजा, जिसे हर्षपुरीयमलधारोगच्छ के श्रीचन्द्रसूरि के शिष्य मुनिचन्द्र ने जैनधर्म में दीक्षित किया था, ११वीं शती । [टंक. ] गदहिया गोत्री श्रावक साह आना ने अपनी पत्नी भीमनी के पुण्यार्थ १४११ ई० में उपकेशगच्छी देवगुप्तसूरि से शान्तिनाथबिम्ब प्रतिष्ठा कराई थी । [ कैच. ९७ ] १. हैहयवंशी अय्यण के वंशज जिनधर्मी नरेश आनेग प्र० 'बिरुकभीम' ने, जो गुलबर्गा प्रदेश का शासक था, चालुक्य विक्रमादित्य षष्ठ का सामन्त था और द्रविड़ संघ-सेनगण के भ. मल्लिसेन के अग्रशिष्य भ. इन्द्रसेन का गृहस्थ शिष्य था, १०९४ ई० में एक अति भव्य जिनालय बनवाकर उसके लिए स्वगुरु को प्रभूत दान दिया था। [ देसाई. २१४. २३६-२४०] २. इसीवंश का आनंग द्वि., एक अन्य जैन नरेश जो बाच का पुत्र, लोक तृ. का पिता था, गजविद्या-विशारद प्रसिद्ध वौर था । [देसाई. २१५ ] मामा ९८ बरवाल दिग. श्रावक, मूलसंघी गुणभद्रसूरि के शिष्य और लाटी भाषा ( गुजराती ? ) मे त्रिभंगीसार टीका के रचयिता सोमदेव के पिता, वैर्जेणि के पति । [ प्रवी. i. २१] १. खंभात के चिन्तामणि- पाश्र्वनाथ मंदिर के प्रतिष्ठापक शांभदेव साहू (१२९५ ई०) के भाई तथा उक्त प्रतिष्ठोत्सव में सहयोगी । [ जैसाई. ५७४ ] ऐतिहासिक व्यक्तिकोष Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. डूंगरपुर के रावल गजपाल (ल० १४५० ई०) का जैनमंत्री, जिसने आंतरी में शान्ति जिनालय बनवाया । [ प्रमुख. ६१२] ती. ऋषभ के एक पुत्र, महारानी सुमंगला से उत्पन्न, पिता के मुनिसंघ में सम्मिलित हुए। [ टंक. ] १. बराड का श्रीमाल श्वे. प्रभावशाली श्रावक एवं संघपति | [ टंक. ] २. मध्यकाल में इस नामके और भी दो-एक धर्मात्मा श्रावक हुए प्रतीत होते 1 [ टंक. ] ३. मालवा के मण्डनमन्त्री (१४०५-३२ ई०) के पूर्वज, जालौर के श्रीमाल श्रावक । [ प्रमुख. २४६ ] ४. सोलंकियों का जैन दण्डनायक, जिसकी पुत्री कुमारदेवी अश्वराज की पत्नी और वस्तुपाल-तेजपाल की माँ थी । | गुच. ३०८ ] ग्वालियर का राजा, श्वेताम्बराचार्य बप्पभट्टिसूरि का भक्त शिष्य । संभवतया वह गुर्जर प्रतिहार वत्सराज ( ७८३ ई०) के पुत्र एवं उत्तराधिकारी नागभट द्वि. नागावलोक ( ८००-८३३ ई०) से अभिन्न है । बप्पभट्टिचरित्र में इस नरेश की गुरुभक्ति एवं धार्मिक कार्यकलापों का वर्णन है । [प्रमुख. २०३-२०४; जैसाद. २४३; कंच. १८; गु. १९-२८] आमकारवेव--- उम्दान का पुत्र, और गुप्त सम्राट चन्द्रगुप्त द्वि विक्रमादित्य का एक जिनधर्मी वीर दण्डनाथ था, जिसने सांधी के एक शि. ले. के अनुसार, ४१२ ई० में, काकनाबोट के बिहार मे जैनमुनियों के नित्य आहारदाय तथा रत्नगृह में दीपक जलाने के लिए ईश्वरवासक नामक ग्राम और २५ स्वर्ण दोनारों का दान किया या । [ प्रमुख. १९८ जैसा. ५७३; कार्पस इन्स. इंडि. iii. पृ. २९] आमन कवि--- अन्हिलपुर (गुजरात) निवासी दिग. पल्लीपाल बावक, लेमि आमीर बानू आम चरित्र (सं०) का कर्ता और 'गणितपाटी' के लेखक अनन्तपाल तथा तिलकमंजरीसार के कर्ता धनपाल (१२०३ ई०) का पिता । [ टंक. ] ऐतिहासिक व्यक्तिकोष Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मामुष्या शांकमारी के पुण्यात्मा श्रेष्ठ जासठ की धर्मात्मा भार्या, ल. ११०० ई.। [प्रमुख. २०६] मामोहिनी- हारीतिपुत्र पाल की भार्या श्रमणमाविका कौत्सी बामोहिनी, जिसने अपने पालघोष, प्रोस्थाघोष तथा धनषोष नामक पुत्रों के महयोग से, मथुरा में, स्वामी महाक्षत्रप शोडास के शासनकाल में, ईसापूर्व २४ मे, आर्यवती (तीर्थकर-जननी) की प्रतिमा प्रतिष्ठापित की थी। [प्रमुख. ६५-६६ ; जैशिसं ii. ५; एई..१४२] -पाठान्तर अमोहिनि । मानदेवमूरि--१. श्वे. बडगच्छोय जिनचन्द्रसूरि के शिष्य, नेमिचन्द्रसूरिकृत व्याख्यानमणिकोश की टोका (११३३ ई.) के कर्ता। २. जिनके उपदेश से चित्तौड़ मे, राणा कुम्भा के राज्यकाल मे, १४५७ इ. मे, साह हरपाल ने २१ जैन देवियों को मूर्तियां स्थापित कराई थीं। [प्रमुख. २५४] आम्रमट- अम्गड, गज्यमन्त्री, मन्त्री उदयन का पुत्र -दे अम्बर । किंच. २१४] बिजौलिया के पार्श्वनाथमदिर के निर्माता प्राग्वाटवंशी दिग. श्रावक सेठ लोलाक का एक धर्मात्मा पूर्वज, शुभंकर का पौत्र और जासट का पुत्र -शि. ले. ११७० ई०। [शिसं. iv. २६५] बाय गावंड- चालुक्य जगदेकमल्ल प्र० की एक प्रादेशिक प्रशासिका रेवकब रसिका एक राज्याधिकारी था और यापनीयसघ के जयकाति विद्यदेव के सुप्रसिद्ध शिष्य नागचन्द्र सिद्धान्ती का गहस्थ शिष्य था। उसने अपनी स्वर्गीय भार्या कञ्चिकम्बे की स्मृति में अपनी जन्मभूमि पोसबूर में एक भव्य जिनालय निर्माण कराकर, उसके लिए स्वगुरु को. १०२८-२९ ई. में, सुपारी-उद्यान तथा अन्य भूसम्पत्ति पादप्रक्षालन पूर्वक समर्पित की थी। यह दिग. श्रावक अपनी धार्मिकता के लिए प्रसिद्ध था। [देसाई. १४१. १४२; जैशिसं. iv १२५] मायचपब हनगंद के १०७४के शि. ले. में उल्लिखित दानदाताओं में से एक यह करण (लेखाधिकारी) भी पा। [शिसं. iv. १५८] ऐतिहासिक व्यक्तिकोष Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाधिनयवाद-रा देखेपुर में निर्मापित धिमालय के लिए १.६६. में महामंडलेश्वर समरस ने मूलसंव-पत्रिकाबाटश शान्ति नन्दि भट्टारकको भूमिदान दिया था। [थिसं. iv. १४७] मावतवर्मा १. बेल्लट्टि के मिनालय का निर्माता, मज्जरम्य का पेमरे (नगर प्रशासक), ९९..। [देसाई. ३९१; बेशिसं. iv. ९१] २. कन्नड कषि, रस्नकरण-चम्पू के रचयिता, ल. १४...। [प्रमुख. २६४; ककच; मेज. ३७६] ३. कागिनेल्लि के १.३२ ई. के लि. ले. में उल्लिखित जिना. लय के लिए स्वर्णदान-दाता मावतवर्मा [शिसं. iv. १२७) मायुवीर्य ती. ऋषभ के महारानी सुमंगला से उत्पन्न एक पुत्र। आयोज- चित्तारि के तोज का पुत्र, जिसने १.५३ १० की बौर सान्तर की दान प्रशस्ति उत्कीर्ण की थी। [शिसं. iv. १३७] मारतराम खिन्दुका गोत्री बोलवाल दिग बैन, नेवटाग्राम के निवासी, १७५७-१७७८ ई. में जयपुर राज्य के दीवान रहे, नेबटा में विशाल जिनमन्दिर बनवाया. जयपुर को अपनी हवेली में भी चैत्यालय बनवाया। इनके कई वंशज भी राज्य के दीवान रहे। [प्रमुख. ३३९] भारम्बन्दि- शायद दिग. भट्टारक थे, जिन्हें परकेसरिवर्मन विक्रय-योल के समय, ११३५६. में कुछ भूमि बेची गई थी। [शिसं.iv. मा भारिप- कोलक्कुर (मदुरा) के १२वीं शती ई. के शि.ले. में उल्लिखित दिग. गुरु। [शिसं. iv.३.१] मालगपेक्मान-धर्मात्मा श्रावक, ९वीं शती के तमिल शि. ले. में उल्लिखित । [शिसं iv. ६७] या बाईककुमार, पारस्यदेश का राजकुमार, (मरदेशिर ?) श्रेणिक विम्बसार के पुत्र एवं प्रधानमन्त्री अभयकुमार का मित्र, उसके प्रभाव से जैन बना, भारत आया, तो. महावीर के दर्शन किये और दीक्षा कर जैन मुनि बना। [प्रमुख. १८35 टक.] नोमवंशी कायस्थ, विग. विनवमी, पत्नी राधा, पुत्र धर्मशर्माभ्युदय एव जीवंधर चम्पू के कर्ता सुप्रसिडकवि हरिचना, ११वीं शती ई.। [सार. ४६२; टंक] ऐतिहासिक व्यक्तिकोश १.१ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानवि- बम्यूबणयन के माचार्य, जिन्हें उनके भक्त सेन्द्रकवंशी इमान्द अविराज ने,म... ई. में, बहत्पूना एवं साधु यावृत्य के लिए ताम्रपत्र द्वारा ग्राम दान किया था। विसं. iv. २२] १. प्राचीन मपुरा के कोट्टियगण-स्थानीयकुल बैरशाखा के मार्य हस्तहस्ति के शिष्य बोर बार्यममुहस्ति (माषहस्ति या नागहस्ति) के बादपर (श्रद्धाचारी या सधर्मा) वाचक आर्यदेव, जिनको प्रेरणा से १३२ ई. में सिंह के पुत्र लोहिककारक (लुहार) गोव (गोप) ने मथुरा में एक सरस्वती प्रतिमा प्रतिष्ठापित की थी। मथुरा के हो १३. ई.के एक लि. ले. में भी बादिवित के रूप में संभवतया इन्हीं का उल्लेख है। [एड.i. ४३/२१; . १४/१८; जैशिस. . ५४, ५५; जैसो. ११५-११६; प्रमुख. ६८] २. सन १.७७ ई. के एक शि. ले. के अनुसार तत्त्वार्थसूत्र के का एक पुरातन आचार्य, जिनका उल्लेख समन्तभद्र, शिवकोटि, बरदत्त और सिंहनन्दि जैसे पुरातन भाचार्यों के मध्य किया गया है। [एक: vili. ३५; जैशिसं. 1. २१३] -संभव है कि सुप्रसिद्ध तस्वार्थसूत्रकार उमास्वामि का ही उप या अपरनाम रहा हो, अथवा इन मार्यदेव का अपना कोई स्वतन्त्र तत्त्वार्थसूत्र हो जो अब अनुपलब्ध है। ३. जम्बूखण्डीगण के आचार्य आर्यदेव, जिनका उल्लेख ९२३ ई. के गोकक ताम्रशासन में हुआ है -वह उस समय विद्यमान रहे प्रतीत होते है। [मेज. २५६] ४. मल्मिषेण प्रशस्ति (११२८.) में परवादिमल्ल और चन्द्रकीति के मध्य उल्लिखित 'रावान्तकर्ता आचार्यवयं आर्यदेव जिन्होंने कायोत्सर्ग अवस्था में देहत्याग करके स्वयं प्राप्त किया बा' ल. ७७५.८०..। [क्षिसं. ५४] मायदेवी- धर्मात्मा महिला, विजयपार्य एवं श्रीमती की पुत्री, चन्द्रपार्य, ब्रह्मसूरि एवं पार्श्वनाथ की भगिनी, देवेन्द्र पण्डित की धर्मपत्नी, आदिनाथ, विजयप तथा प्रबचनपरीक्षा के कर्ता पं. नेमिचन्द्र (१६वीं शती ई.) को बननी। [सं. १.१] १०२ ऐतिहासिक व्यक्तिकोम Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्वजलि- १. पंचस्तूपाम्बव के पनसेन मुनि शिष्य बार बक्स (Ot १.), बबलबादिकर्ता पोरसेन स्वामि के मुख्याति याबार्यनन्दि, समय न........ सो. १८६, १९९; *..xii. १, पृ. 1-43; प्री... १२१-१२४] २. मूलसंत्री बालचन्द्र के शिम्य बार्यनन्दि, बो गंगनरेश राष. मल्ल सत्यवाक्य प्र. (२१५-५३ ९.) के धर्मगुरु थे । [प्रमुख. ७७] ३. अवनन्दि या मानदि ने भवनन्दि शिष्य और किसी बामनरेश के धर्मगुरु देवसेन की, जो संभवतया स्वयं उनके भी गुरु थे, एक मूत्ति बनवाकर स्थापित की थी। ल. ९वी१०वीं शती ई. मे. २४३] ४. बज्नमन्दि, अच्चमंदि या आर्यनन्दि, जिन्होंने मदुरा तालुके में एक अन्य प्रतिमा प्रतिष्ठापित की, १०वीं शती ई. के एक तमिल शि. ले. में उल्लिखित । [मेजे. २४३-२४४; जैशिसं. iv.७३] ५. जिनकी माता का नाम गुणमति था। कुछ विद्वान इन शि. ले. को ल. ७.० ई. का अनुमान करते हैं। [शिसं. iv. ६. बार्यनन्दि आचार्य, जिन्हें सेन्द्रकबंशी राजा इन्द्रनंद ने भूमिदान दिया था, म. ७... -दे. मायणदि। (जमिवं. iv. २२] ७. एक अन्य प्राचीन तमिल शि. ले. में मुगनन्दि और कनकसेन के साथ उल्लिखित अज्जनंदि या मार्यमन्दि। [मेज. २४४] ८. गोम्मटेश्वर प्रतिमा के प्रतिष्ठापक मन्त्रीश्वर चामुण्डराय के धर्मगुरु बवितसेन के गुरु बाईसेन अथवा मानन्दि, ल. ९३० १०। [देसाई. ११४, १३७, १३९) ९. वर्षमान परित्र (८५३१.) आदि के कर्ता महाकवि बसग के एक गुरु। [प्रवी.i. .९] मानगिल- बार्यनन्दिक या बार्यनन्दि बापा जिनके उपदेश से मथुरा में, ११.६० में, बाबिका जितमित्रा ने अहंद की सर्वतोमद्रिका प्रतिमा प्रतिष्ठापित की थी। शिवं.-४१] ऐतिहासिक व्यक्तिकोश Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्यप- दे. अय्यपार्य। मार्यपण्डित- मूलसंघ-सूरस्थगण-चित्रकटान्वय के कनकनन्दि भ. के प्रशिष्य, उत्तरासंग १० के प्रशिष्य, अरुहन्दि भट्टारक के शिष्य, भार्यपण्डित को, चालुक्य सोमेश्वर हि के राज्यकाल में, १०७४ ई. में, राजषानी पोनगन्द की बरसर-बसदि नामक प्रमुख जिनालय के लिए प्रादेशिक पासक महामंडलेश्वर लकमरस ने भूमिदान दिया था। [देसाई. १०७-१०८; शिस. iv. १५८] बाल- अज्जमंजु, आर्यमंग, आर्यमल पा आर्यमण एक पुरातन आचार्य, जो कषायाभूत (पेज्जदोसपाहुब) रूप मूल श्रुतागम के उद्धार एवं पुस्तकीकरण से सम्बद्ध हैं। अनुश्रुति है कि गुणधराचार्य ने उक्त मागम का मूलसूत्रगाथाबो एवं विवरण गाथाओं में उद्धार एवं पुस्तकीकरण किया, जिसका उन्होंने आयमंक्षु तथा नागहस्ति को व्याख्यान किया, अथवा उन दोनों को वे सूत्रगाथाए गुरुपरम्परा से प्राप्त हुई, और उनके समीप यतिवृषभा. चार्य (२री शती ई.) ने उनका अध्ययन करके उन पर चूणि. सूत्रों की रचना की थी। आर्यमक्ष प्रथम शती ई. में हुए प्रतीत होते हैं। [सो. १०७, १०९;प्रवी.. १२४] नारक्षित- श्वेताम्बराचार्य, ल० २री शती ई०, अनुयोगवार सूत्र के रच यिता कहे जाते हैं। मार्वती- संभवतया ती. महावीर की जननी विशनादेवी, जिनकी मूर्ति श्राविका आमोहिनी ने ई०पू० २४ में, मथुरा में प्रतिष्ठापित की थी । [प्रमुख. ६५-६६; जैशिसं. ii. ५; लूडर्स सूची नं. ५९] मार्यधुमेन्यु- दिग. आचार्य, जिनके शिष्य विजयकोतिदेव के भक्त गृहस्थ शिष्य कोंगाल्व नरेश ने १३९.६. में, अपनी धर्मात्मारानी सुगुणी देवी के साथ, मुल्लर के चन्द्रनाथ जिनालय का निर्माण कराया तथा दान दिये थे। [मेजे. ३१३] बार्य सुहस्ति- सुहस्ति । मार्यसेन- १. मन्त्रीश्वर चामुण्डाराय (९८१ ६.) के गुरु अजितसेन के गुरु। (देसाई. १३४, १३७, १३९] २. मूलसंध-सेनगण-पोगरिगच्छ के राजपूजित ब्रह्मसेन मुनिनाथ १.४ ऐतिहासिक व्यक्तिकोश Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के शिष्य और उन महासेन मुनीन्द्र के गुरु, जो चालुक्य महारानी तसदेवी के पथक-सामणि (दीवान) चाफिराब के धर्मगुरु एवं वियागुरु थे जिसने १.४० में कई जिनालय बनवाकर प्रभूत दान दिया था। [प्रमुख. १२३; जैशिसं. ii. १८५; देसाई. १.६] ३. कन्नर 'पुण्यात्रवपुराण' के संशोधनकर्ता एवं संपादक टोंक (गजस्थान) के ११०२ ई. के जिनप्रतिमा-लेख में उल्लिखित धर्मात्मा श्रावक। [शिसं. iv. १८५] मालपदेवी- दे. अलपादेवी। [शिसं. iv. ६२१-६२२] मालाप्पिरबान मोगन- उपनाम कुलोत्तुंग शोलकारवरायन ने कुलोत्तुग चोल. देव वि.के राज्य में, ११३७६. में. भ. चन्द्रनाथ की प्रजाचर्चा के लिए एक ग्राम की चाबल की फमल दान की थी।शिसं. iv. २२३] मालिग- गुजरात नरेश जयसिंह सिद्धराज (१०९४-११४३ ई.) का एक जैन मन्त्री। [प्रमुख. २३१] मालोक- १. दिग. जैन वैद्यराज अम्बर के पौत्र, श्रुतज्ञ एवं आयुर्वेद पारं गत पापाक के ज्येष्ठपुत्र, साहस एवं लल्लुक के अग्रज, शोमवती हेला के पति, माथुरान्वयी छत्रसेन गुरु के अनन्य भक्त, और बाहक, सल्लाक एवं उस भूषण सेठ के पिता, जिसने अgणा (जिला दूंगरपुर, राजस्थान) में, ११.९ ई. मे, एक भव्य विशाल वृषभ-जिनालय निर्माण कराके महान धोत्सव किया पा। यह सेठ बालोक सहजप्रज्ञ, इतिहास एवं तत्वार्थ के माता, संवेगयुत, साधुसेवी, और भोगी एवं योगी सज्जन थे। [प्रमुख. २१८; जैशिसं. iii. ३०५ क.] २. उपरोक्त सेठ भूषण और उनकी भार्या सीली के ज्येष्ठपुत्र, साधारण, शान्ति मादि के भाई, गुरु-देवभक्त धर्मात्मा सज्जन । [वही.] मार महावीर जिनेन्द्र के एक भक्त धर्मारमा, जिनके श्रवणबेलगोल में समाधिमरण करने पर चन्द्रगिरि पर उनका स्मारक बनाया गया था। [शिसं.i. १५५] ऐतिहासिक व्यक्तिकोश Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्पादेवी या बालपदेवी, आलुपबंशी परम जैन धर्मात्मा राजकुमारी, नोलम्ब-पल्लव राजा इरंगोल की रानी, कानूरमण - कोण्डकुन्दावय के पुष्पनम्ति मलधारीदेव के शिष्य दावमन्दि आचार्य द्वारा कोशिवरम में निर्मापित जिनालय का जीर्णोद्धार एवं संरक्षण तथा विविधरूपों में जिनधर्म की प्रभावना करने वाली महिला, १०वीं शती ई० । [ देसाई. १५८-१५९, १६३; जैशिसं. iv. ६२१-६२२] आल्हण -- ३. गुजरात के गंधारपत्तन (बन्दरगाह ) का जैन व्यापारी, जिसके वाजिया तथा राजिया नामक वंशजों का मुग़ल सम्राट तथा फरंग देश के बादशाह के दरबारों में विशेष सम्मान था । [टेक.] मरहणवेब- नाडोल के चाहमान नरेश मश्वराज का पुत्र एवं उत्तराधिकारी राजा आल्हणदेव (११५२-६१ ई०), जो चोलुक्य कुमारपाल का सामन्त था, अबल्लदेवी का पति और केल्हण, गजसिंह एवं कीर्तिपाल का पिता था, और जिसने संडेसरागच्छ के यतियों को, ११६१ ई० में, महावीर जिनालय के केशर, चन्दन, बुत आदि के लिये पांच स्वर्णमुद्रा मासिक का सदैव चलने वाला दान दिया था। [टक; कैच. २१-२२; गु. १५३ ] बारहसिंह- चन्द्रावती नरेश ने १२४३ ई० में पार्श्व-जिनालय के लिए दान दिया था। [कंच. २५ ] मांडू के सुलतान के जैन मन्त्री के छः पुत्रों में से एक इसके भाई बाहर का पुत्र प्रसिद्ध साहित्यकार एवं राज्यमन्त्री मंडन मदराज (१४४६ ई०) था। [ टंक. ] आल्हा संघ -- भोज बचेरवाल के पुत्र और म. सुरेन्द्रकीर्ति के गृहस्थ शिष्य ने ल. १७०० ई० मे, उदयपूर के निकट घुलेव मे नवनिर्मापित जिनालय का प्रतिष्ठोत्सव किया था। [कैच. ७२] ऐतिहासिक व्यक्तिकोश बाल्हा १. गृहपतिवंशी दिग श्रेष्ठि पाणिवर का धर्मात्मा पुत्र, जिसने ११४५ ई० में, खजुराहो में जिनबिम्ब प्रतिष्ठा कराई थी । [जैशिस. iii. ३२९; प्रमुख. २२६ ] २. ब्रह्मक्षत्रगोत्रीय मानू के पुत्रों बाल्हण और दोल्हण ने १२४० ई० में कांगड़ा (हिमाचल प्रदेश) के कीरग्राम में महावीर जिनालय बनवाया था। [टंक. ] १०६ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माशा माशाघर, पं० ० पुत्र, गृहपतिबंदी जैन श्रेष्ठि महिपति का धर्मात्मा ! जिसने १९५१ ई० में, मण्डलिपुर में जिनबिन्द प्रतिष्ठा कराई थी। [जैशिसं. iii. ३३६; प्रमुख. २२६] I ईडर निवासी धर्मात्मा सेठ ने पत्नी लक्ष्मी और पुत्री शिला सहित, म. वाडीभूषण के उपदेश से नेमिनाथ बिम्ब प्रतिष्ठा को बी -ल० १५९० ई० । [ कंच. ७७ ] शाकम्भरी प्रदेश के माण्डलगढ़ दुर्ग के सल्लक्षण बबेरवाल और उनकी भाय प्रवर आजावर साहित्यिक महारथी थे जब ११९३ ई० में, इनकी बाल्यावस्था में हो, मुहम्मदगोरी ने अजमेर पर अषिकार किया तो इनके परिवार ने जन्मभूमिका परित्याग करके धारानगरी में शरण ली, पिता सल्लक्षण परमारनरेश अर्जुनवम (१२१०-१५ ई०) के सन्धिविग्रहिक मन्त्री हो गये, और वहाँ पं० महावीर प्रभूति विद्वानों के निकट आशाधर ने अपनी शिक्षा पूरी की। तदनन्तर उन्होंने नालछा को अपना आवास एवं साधनाकेन्द्र बनाया, वहाँ एक विशाल विद्यापीठ स्थापित किया, और १२२५ ई० से १२४५ ई० के मध्य लगभग चालीस विविधविषयक महत्वपूर्ण ग्रन्थों की संस्कृत में रचना की । नयविश्वचक्षु, प्रज्ञापुंज, कविराज, सरस्वतीपुत्र, आचार्यकल्प, सूरि बादि अनेक सार्थक बिरुद उन्हें तत्कालीन जैन एवं अर्जन विद्वानों से प्राप्त हुए । उनके शिष्यों में उदयसेन मुनि, वादीन्द्र विशालकीति, मदनकीर्ति, पं० देवचन्द्र, भ० विनयचन्द्र, पं० जाजाक, कविवर अर्हदास प्रमुख थे, और भक्त श्रावकों में धर्मात्मा हरदेव, महीचन्द्र साहु, केल्हूण, घनचन्द्र, धोनाक आदि गणनीय थे। बिल्हणकवशि और बालसरस्वती मदनोपाध्याय दुर्गपति दिग. श्रावक रत्नी के सुपुत्र पंडित पंडित जी की भूरि-भूरि प्रशंसा की है, परमार नरेश विन्ध्यवर्मा, अर्जुनवर्मा, सुभटवर्ग, देवपाल और जंतुगिदेव उनके प्रश्रयदाता थे । पंडितजी की धर्मपत्नी सरस्वती यथानाम तथा गुण थी, और पुत्र खाहड़ राज्यमान पदाधिकारी था । जीवन की मन्ध्या में पंडित जी उदासीन स्थागी व्रती भावक के रूप में आत्मसाधनरत रहे । [ प्रमुख. २११-२१२; भाई. १६९] ऐतिहासिक व्यक्तिको श १०७ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माशानाच - अजमेर निवासी बोहिथ के पुत्र ने चाट के जिनालय में, १६०४ ई० में, मानस्तंभ बनवाया था। [ कैच ८२] माशावरसूरि - दे. माशावर परवर्ती कतिपय उल्लेखों में प्राप्त नामरूप । [प्रवी.. ९ ] आशानन्दी दिग, संस्कृत पंचपरमेष्ठि-पाठ के रचयिता । आशामल---- दिल्ली की शाही कमरियट के अधिकारी, धर्मात्मा श्रावक, जिनने १७४३ ई० में मस्जिद-खजूर मोहल्ले के पंचायतो जैन मन्दिर का निर्माण कराया था। [ प्रमुख. २८४ ] माशा शाहू या शाह आशा, उकेशवशीय दरडागोत्री ओसवाल, जिसके पुत्र anushee ने १४५६ ई० में, आबू पर्वत पर देवमूत्तियां प्रतिष्ठापित की थी। [ प्रमुख. २४७ ] आशाशाह देवरा - मेवाड़ राज्य में कुम्भलमेर का जैनदुर्गपाल, जिसने राणा सांगा के बालक पुत्र उदर्यासह को अपने आश्रय में लेकर शत्रुओं से उसको रक्षा की और अन्त में सिंहासन प्राप्त करने मे उसकी सहायता की थी- आशाशाह को वीर जननी इस कार्य में प्रेरक एव सहायक थी ल० १५४० ई० । [ प्रमुख. २५७; भाइ. ४५० ] गुजरात के बोलुक्य जयसिंह सिद्धराज का प्रधानमन्त्री, परम जैन, इसकी प्रेरणा से महाराज ने ११२३ ई० में शत्रुंजय की यात्रा को थी । fer. कुमुदचन्द्र और श्वे. देवसूरि का शास्त्रार्थ इसी मन्त्री के समय में हुआ था। [ गुच. २५८- २५९ ] भावडा कटकराज वोर जैन सेनापति, संभवतया गुजरात के ल० १२वीं शती, अनलदेवी के पति, जासह ओर कवि आसड के पिता । [टंक. ] बाधादसेन -- अहिच्छत्र (उत्तर पांचाल) नरेश शौनकायन के प्रपौत्र, बंगपाल और रानी तेवणी के पौत्र, राजा भागवत और बेहिदरी रानी के पुत्र, महाराज आषाढ़सेन ने अपने भागिनेय, गोपालीपुत्र, राजा बृहस्पतिमित्र की राजधानी कौशाम्बी के निकटस्थ छठे तीर्थंकर पद्मप्रभु की तप एवं केवलशान भूमि प्रभासगिरि (पभोसा) पर काश्यपीय अर्हतो (निर्ग्रन्थ जैन मुनियों) के लिए गुफाएँ निर्माण कराई थीं -ल० द्वितीय प्रथम शती ईसापूर्व में । [ प्रमुख. ६०; जैशिसं. ॥ ६-७; एवं ॥ पृ. २४२-२४३] ऐतिहासिक व्यक्तिकोश आशुक eܐ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शोलविणय को तीर्यमाला (१६९११.) के अनुसार गोलग के प्रसिद्ध बोसवाल सेठ देवकरण शाह के अनुण और उदयकरण के अब-तीनों भाई सम्यक्त्वी, निर्मलबुद्धि, गवरहित और गुरुभक्त थे। [जैसाइ. २३१] भासकरणकवि-दे. सासाराम । मासकरण मेहता- १७०८ ई० में कृष्णगढ़ नरेश राजसिंह का मुख्य दीवान था। वह राजा कृष्णसिंह और गजा मानसिंह के मुख्यमन्त्री मेहता रायचन्द्र (स्वर्ग. १९६६ ई.) का पौत्र, और राज्यमन्त्री मेहता कृष्णदास (स्वर्ग १७०६ ई.) का पुत्र था। उसका पुत्र देवीचन्द रूपनगर नरेश सरदारसिंह का मुख्य दीवान था। [प्रमुख. ३०६] मासकरण मेहता- जोधपुर राज्य के प्रधानमन्त्री मेहता जयमल (१६२९-३९ ई०)का पुष था, और प्रसिद्ध ख्यातकार मुहनोत नैणसी का भाई था। तीन अन्य भाई सुन्दरदास, नरसिंहदास एवं जग माल थे, जननी सरूपदे थी। [प्रमुख. ३०७] मासकरण संघपति- धमोनी (जिला सागर, म.प्र.) के सनुकटागोत्री गोला पूरब, दिग. जन धर्मात्मा श्रावक, मोहनदे के पति, संधपति रतनाई और हीरामणि के पिता, नरोत्तम, मण्डन, राषब, भगीरथ, नन्दि और बलभद्र के पितामह ने अपने पूरे परिवार सहित, १६५९ ई. में, दमोह के भ. ललितकीर्ति के शिष्य ब्रह्म सुमतिदास के उपदेश से, जेरठ के भ. सकलकीर्ति के शिष्य पं. द्वारिकादास से धमौनी में एक महान शान्तियज्ञ समारोह कराया था। विधान चन्द्रप्रभ जिनालय में किया गया था। मुगल सूबेदार म्बुल्लाहबां भी उन्हें बहुत मानता था। इस दानशील, उबार, धर्मात्मा श्रेष्ठ ने कई मन्दिरों का जीर्णोद्धार, कई नवीन मन्दिरों का निर्माण, तथा अन्य अनेक धार्मिक कार्य किये थे। [प्रमुख. २९५] बाषगह कटकराज और बनलदेवी के पुत्र, जासर के भाई, पृथ्वीदेवी एवं जैतल्लदेवी के पति, राजर, जवसिंह बोर गरि. सिंह के पिता, गृहस्प श्वे. विद्वान, मेषदूत टीका, उपदेशकंदली, ऐतिहासिक म्यक्तिको Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बासराउ--- भासराज आसा--- आसाराम आसार्य- मासिग --- मास्ता बहर ११० विवेकमंजरी तथा कई मिनस्तोत्र-स्तुतियों के रचयिता, १२५० ई० । [ टंक. ] दिल्ली निवासी गंगोत्री अग्रवाल दिग. जैन दानशील धर्मात्मा दिउचन्द और बालुहि के पुत्र, प्रसिद्ध संघही दिउढा साहू के तथा माहि एवं चोचासाह के भाई -धर्मात्मा दिउढासाहु ने १४४३ ई० में अपने कुलगुरु भ. यशःकीर्ति से हरिवंशपुराण की रचना कराई थी। [ प्रमुख. २४३] अश्वराज या अश्वक, १११० ई० । कटुकराज और आल्हणदेव के पिता, नाडोल का चौहान जैन नरेश | [गुच. १५०-१५४] दे. अश्वगज । पट्टन निवासी मोठप्रातीय श्वे. ठक्कुर जल्हण का पुत्र, प्रसिद्ध मन्त्री वस्तुपाल के भाई तेजपाल की पत्नी सुहडदेवी का पिता -- १२३३ ई० के एक शि. ले. में उल्लिखित | [ टंक. ] १. दिग., हिन्दी कवि, नेमिचन्द्रिका काव्य की रचना वि. सं. १७६१ (१७०४ ई०) में की थी अपरनाम आसकरण । इनके कई सुन्दर पद भजन भी प्राप्त हैं । [ शोधादर्श ३ - ४ ] २. दिग., हिन्दी कवि, अहिखित पार्श्वनाथस्तोत्र (१७७५ ई०) के रचयिता । [शोघांक - २८ ] दे. अरसा - मूनन्द के ९८० ६० के शि. ले. के अनुसार इस दिग. जैन सामन्त ने सेनगण के कनकसेन मुनि को जिनालय के लिए पान का क्षेत्र दान दिया था। [जेशिसं. ii- १३७] कवि, ने जालोर में ल० १२०० ई० में जीवदयारास और चन्दनबाला रास की रचना की थी । [ कैच. १६५ ] अजमेर में, चौहान नरेश पृथ्वीराज तृतीय के समय में, ११९० ई० में, साधु हालण की धर्मपत्नी तथा वर्धमान और महिपाल - देव की सम्मानित माता श्राविका वास्ता ने पाश्वं प्रतिमा प्रतिष्ठापित कराई थी । [ प्रमुख. २०६ : जेसिस. iii-४२१] १. अपरनाम आगड, गुजरात का चावडावंसी जैन नरेश, ल० ९०० ई० । [ गुच. २०८, २११] २. गुजरात नरेश चौलुक्य जयसिंह सिद्धराज तथा कुमारपाल के प्रसिद्ध जैन महामन्त्री उदयन ( स्वर्ग ११५० ई०) का पुत्र, ऐतिहासिक व्यक्तिकोश स० Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाहर, अम्बर और सोल्ला का भाई, स्वयं भी राज्य का बीर सेनानी एवं मन्त्री | [प्रमुख. २३३] ३. बिजोलिया के सुप्रसिद्ध पार्श्वनाथ मन्दिर का निर्माता शिल्पी, सूत्रधार हरसिंह का पौत्र और पाल्हण मिस्त्री का पुत्र । [जैशिसं. iv. २६५ ] आहवमल्ल- १. कल्याणी के उत्तरवर्ती पश्चिमी चालुक्य वंश का संस्थापक तैलप द्वि. आहवमल्ल (९७४-९९७ ई०), जैनधर्म का प्रश्रयदाता या उसके कई मन्त्री, सेनापति तथा अनेक सामन्त भी जैन थे। सुप्रसिद्ध सती अत्तियब्बे उसी के सेनापति नागदेव की पत्नी थी । [ प्रमुख. ११४-११८ मा. ३१०-३१५ ; देसाई. १४०,१४९; मेजं. १०६; जंशिसं. iv. ११७ ] २. इसी वंश का अन्य नरेश, सोमेश्वर प्र० त्रैलोक्यमल्ल आहवमल्ल (१०४२-६८ ई०), जो जयसिंह द्वि. जगदेकमल्ल (१०१४-४२ ई० ) का पुत्र एव उत्तराधिकारी था, जैनधर्म का प्रश्रयदाता था, बल्कि एक शि. ले में उसे स्याद्वादमत (जैनधर्म) का अनुयायी लिखा है, उसने कई जिनमन्दिर निर्माण कराये, १०५५ ई० में जंनगुरु इन्द्रकीर्ति को दान दिया, जैनाचार्य अजितसेन पंडित वादिधरट्ट (वादीभसिंह) का 'शब्दचतुमुख' उपाधि प्रदान करके सम्मान किया, १०५४ ई० में त्रिभुवनतिलक - जिनालय के लिए महासेन मुनि को दान दिया, जातकतिलक (१०४९ ई०) नामक ज्योतिषशास्त्र के रचयिता जैनगुरु श्रीधराचार्य, गण्डविमुक्त रामभद्र, आदि अन्य जैन सन्तों का भी सम्मान किया था उसने १०६० ई० में तुंगभद्र में जन्नसमाधि ले ली थी। होयसल नरेश विनयादित्य द्वि० उसका सामन्त था । [ प्रमुख. १२०; भाइ ३१६-३१७; देसाई. २११; मे. ५१-५३; एक. ii. ६७; जैशिसं. - ५४; ॥ - २०४, २१३ - ३१७, ४०६, ४५२; iv १३०-१३१] ३. कलचुरिवंश के एक नरेश, रामनारायण आहवमल्ल का उल्लेख १९५२ ई० के एक थि. ले. में हुआ है। वह शंकम कलचुरि का अनुज एवं उत्तराधिकारी था। [जेशिसं. iii४०८; एक. vii. १९७.] ऐतिहासिक व्यक्तिकोश १११ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाहिल- इ राजा हुआ। [ गुच. १४९, २३९] आसाम- दे. आल्हणदेव । [ गुच. १५३] इक्ष्वाकु ४. माहवमल पेमनहि महामंडलेश्वर ने १०८४ ई० में बान्धप्रदेश के कीर्तिनिवास शान्ति जिनालय में मुनियों के आहारदान के लिए आचार्य कमलदेव सिद्धान्ती को भूमिदान दिया था। [जंशिस v. ५३ ] ५. चन्द्रवाड ( फिरोजाबाद, उ० प्र० ) का जैनधर्मावलम्बी चौहान नरेश माहवमल्ल ( ल० १२५७ ई०) जो श्रीबल्लाल का पुत्र एवं उत्तराधिकारी था उसके पिता के जैन मन्त्री सोड का ज्येष्ठपुत्र रश्मपाल इस राजा का नगरसेठ था, और कनिष्ठ पुत्र कृष्णादित्य राज्य का प्रधानमन्त्री एवं सेनापति था । प्रथम तीर्थंकर आदिपुरुष भगवान ऋषभदेव का एक अपर नाम, teree (गने) के प्रयोग एवं उपयोग का अविष्कार करने के कारण पड़ा; इसी आधार पर उनके वंशजों, प्राचीन भारत के क्षत्रियों का आद्यवंश इक्ष्वाकुवंश कहलाया । [ भाई २४; महापु.] इच्छादेवी -- कमडी भुजवलि चरित के अनुसार म. ऋषभदेवकी रानी सुनन्दा इडिमट्ट [ भाइ. ४५६ ; प्रमुख. २४८ ] नाडील का चामानवंशी जैन नरेश, महेन्द्र का पौत्र, अश्वपाल का पुत्र, अणहिल्ल का भतीजा, ल० १०५० ई० । उसके निस्संतान होने के कारण उसके पश्चात उसका बचा अणहिल्ल ११२ से उत्पन्न पुत्र, पोदनपुर नरेश मुजबलि 'बाहुबलि' की माय । [जैशिस i. भू. २४ ] सरस्वती पूजन की जयमाल के रचयिता । [ दिल्ली-धर्मपुरा प्रति १६ / २] ऐतिहासिक व्यक्तिकोश Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होयसल नरेष विष्णूवन महासेनापति पराब ने, जो परम जैन थे, १११७ ई. के लगभग चोलसबाट के प्रबंर सामन्त इडियम को पराजित करके अपने महराब के लिए तबकादेश को विषय की थी। इसी बोम सामंत का उल्लेख कहीं कहीं अनियम या वादियम नाम से भी हुआ है। लिसं. २६३; प्रमुख १४३] गोड चीनी यात्री, ६९३ ६. में भारत बाया, उसके यात्रा विषरण ऐतिहासिक महत्व के हैं। [पूवासु. १४९] गंगनरेश अविनीत कोंगणिके यावनिक संवारा प्रतिष्ठापित एक अहंतुदेवतायतन (विनमंदिर) को, ४४२ ई. में, प्रवत्त दान विषयक होसकोटे (या हसकोटे) ताम्रशासन के लेखक पेरेर का पिता। [प्रमुख. ७३; शिस iv. २.] इन्गरस बोडेयर (मोडेयर) मा यिन्दगरस, तोमवदेशस्थ सगीत पुर का जैननरेश, महामंडलेश्वर इन्द्र का पौत्र, संगिराय बोडेयर का पुत्र, सालुवेन महाराज इन्दगरस बोडेयर (१४९०.९६ ई.) [जैशिसं. iii ६५५, ६५६; एक. viii. १६३, १६४; भाइ. ३८९; मेज. ३१८, ३५५; प्रमुख. २७२-२७३] लक्मेश्वर के १०८१६.के दानपत्र में उल्लिखित चालुक्य सम्राट विक्रमादित्य षष्ठ के पत्र युवराज सिंहदेव के अधीनस्थ महा. सामन्त एरेमय्य के भाई दोणारा दिये गये दान में प्रेरक एवं सहयोगी एक धर्मात्मा श्रावक बो बरसय्य का पौत्र और वैच काप का पुत्र था। [शिसं iv. १६५; एक. १६] ल. १०७७ ई. के हुम्मच के शि.ले. के अनुसार मंदिर निर्माता पट्टणस्वामि धर्मात्मा सेठ नोक्कय्य का वैश्यवंशतिलक' रूपगुण. निधाम पुत्र। [भिसं. ii. २१२; एक. viii. ५७; प्रमुख. १७३] मापिका, देवगढ़ (जि. ललितपुर, २० प्र०) के १०३८१० के तथा बम्प कई शिलालेखों में उल्लिखित, प्रभावक जैन सानी। [साहनी रि. १९१८, . २३] १. वोरात् ९५८-१००० (सन् ४३१-४७३६०) में राज्य करने बाले धर्मविध्वंसक अत्याचारी चतुर्मुख कल्कि का पिता । [सो. ४-५; जैसाइ. २.] ऐतिहासिक्तिको म Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. माठ प्राचीन प्रसिद्ध वयाकरणियों में से एक, शायद प्रथम । (जैसाइ. १६२] ३. गोम्मटसार (ल. ९८१ ई.) के अनुसार पांच प्रसिद्ध पुरातन मिथ्यादृष्टियों में से एक-संशय-मिथ्यात्व का उदाहरण । [जैसाइ. १६२] ४. इस या इन्द्रराज, वेंगि के पूर्वी चालुक्यवंश के संस्थापक कुब्ज विष्णुवर्द्धन का कनिष्ट पुत्र, जयसिंह प्रथम का अनुण और विष्णबद्धन वि० (६६६.६७५ ६०) का पिता- ये सब जन थे। [शिसं. . १४३, १४४; iv. १००; एई. ix.६; vit. २५; भाइ. २८९; प्रमुख. ९४] ५-८. राष्ट्रकूट नरेश इन्द्र प्र. (ल. ६५०६०), दन्तिवमंन का पुत्र और गोविंद प्र.का पिता था। इंद्र द्वि (ल. ७००-२० ई.) गोविंद प्र. का पौत्र, और कर्क का ज्येष्ठ पुत्र तथा दंति दुर्ग (ल. ७२०-७५८९०) का पिता था। इंद्र तृ. नित्यवर्ष रट्टकंदपं (९१४-२२ ई.) कृष्ण द्वि० का पौत्र एवं उत्तराधिकारी पा-ती. शांतिनाथ का विशेष भक्त था। इन्द्र चतुर्थ (९७३-९८२ ई०) राष्ट्रकूट वंश का अन्तिम नरेश पा, परम जन एवं परमवीर था-सल्लेखनापूर्वक श्रवणबेलगोल में मृत्यु का वरण किया, ९८२ ई. में। [भाइ. २९२-३०९; प्रमुख. ९७-११२; अल्तेकर.; जैशिसं.i. ३८, ५७, भू. ७९; i. १२४, १२७. १६४; iv ५५] । ९. राष्ट्रकूटों को गुजराती शाखा का गुजरायं इन्द्र, जो मूलशाखा के घवधारावर्ष का पुत्र, गोबिन्द तृ. प्रभूतवर्ष (७९३. ८१४ ई.) का अनुज तथा उसके द्वारा नियुक्त गुर्जरदेश का प्रान्तीमशासक, बमोषवर्ष नृपतंग का पचा एवं प्रारंभिक समय में अभिभावक, गुजरायं कर्कराज का पिता। [प्रमुख. ९९१०१; भाइ. २९९; बल्तेकर.; शिसं. iv. ५, ६९, ९७; V. १४, १५] १०. इन् या इन्द्रराव, जिसने, अपने मित्र अम्मइय के साथ, अपना महापुराण (९५९ ई.) के कर्ता महाकवि पुष्पबन्त को बन में बैठादेखकर उसले मेलयाटी नगर में चलने का बाग्रह ऐतिहाकिमप्तिकोश Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इनकीति इमर किया था। [जैसा. ३०८, १२१] १. मैमापतीर्थ के कारववण के मूल मट्टारक के प्रतिष्य और गुणकीति के शिष्य कामविजेता इन्द्रकीर्ति स्वामी, जिनके छात्र (विद्याशिष्य) सदसि के सामन्त रट्टराज पृथ्वीराम ने ८७५ ६० में जिनालय बनवाकर दान दिया था। [जैशिसं. ii. १३०; प्रमुख. १७७ ] २. सर्वशास्त्र कविकुमुदराज जैनाचार्य इन्द्रकोर्ति, जिन्होंने पूर्वकाल में गंगनरेण दुर्विनीत द्वारा निर्माणित कोगलि के जिनमंदिर के लिए, चालुक्य त्रैलोक्यमस्म के समय में, १०५५ ६० में दान दिया था। [जैशिसं. iv. १४३; प्रमुख. १२० ] ३. इन्द्रकीर्ति पण्डित, जो चालुक्य भूलोकमल्स के समय, ११३२ ई० में, लक्ष्मेश्वर की गोग्यिय बसदि के सरक्षक थे। [जैशिसं. iv. २१६] ४. रहनरेश लक्ष्मीदेव के १२२८ ई० केलि. ले के अनुसार राजगुरु मुनिचन्द्र के साथ उल्लिखित एवं हुलि को माणिक्यतीर्थद बसदि के अध्यक्ष तथा शुभचन्द्र सि. दे. के सब प्रभाचन्द्र सि. दे. थे, जिनके शिष्य इन्द्रकीति बौर श्रीधरदेव थे । [ देसाई. ११४-११५] पद्मपुराण के कर्ता रविवेणाचार्य (६७६ ई०) के गुरु लक्ष्मणसेन के गुरु अहंनमुनि थे, उनके गुरु दिवाकर यति मे, जो इन इन्द्रगुरु के शिष्य थे, समय लगभग ६०० ई० । [ जैसो. १०१; पुजेबासू. १६२; जैसाइ. २७३ ; पद्मपु. १२३/१६७ ] इग्रजीत कवि- भटेर-हविकंत-शौरिपुर के भट्टारक जिनेन्द्र भूषण के आश्रित ब्रजभाषा के कवि, मैनपुरी में १७८३ या १७८८ ई० में मुनिसुबुतपुराण की रचना की थीं, अन्य रचनाएँ कृबुनाथपुराण, बरनाथपुराण, मल्लिनाथपुराण आदि । [ काहि. २०२; ग्रमा ३३] इन्द्रजीत राजा - दतिया (दिलीपनगर) का कुन्देनानरेश, जिसके पुत्र छत्रजीत के राज्यकाल में, १७७९ ई० में, सोनागिर में एक जिनमंदिर (२०५०) बना था। [शिसं. ४. २७८ . १०७ ] बंध के अधिराज के पुत्र एवं उत्तराधिकारी बोर राष्ट्रकूट इार्षद- ऐतिहासिक व्यक्तिकोश ११५ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देज्ज महाराज के सामंत, इस धर्मात्मा नरेश ने महत्पूजा एवं तपस्वियों की सेवा बादि के लिए ताम्रशासन द्वारा ग्राम बान 'दिया बा-समय न. ६०००। जमि. iv. २२; एइ. २१ पृ. २८९] गाविस- १ श्वेताम्बराचार्य सुस्थित (मुभ) के विप, अपरनाम कालक प्र०, समयईसापूर्व २०२। [जैसो. १०५, २६५] २. कुछ नये. पट्टावलियों के अनुसार सिवसेन दिवाकर के गुरु । जैसो. १६५-१६६] हमरेवरस- कन्नडी श्रीपालभरित्र के कर्ता । (मारा सू. ३२] इनाम - दे. इन्द्रपद । इमानन्दि- १. महाचार्य इन्द्रनन्दि, जिनके शिव महापरि न कोत्तरि (कोसरिखेड़ा, बहिच्छत्रा, जि. बरेली, उ०१०) के पाश्र्वपति (तो. पारवनाथ) के लिए कोई दान दिया था या निर्माण करा या कराया था। लेख संस्कृत में है, गप्तकालीन अनुमानत: ५वी सतो . या उससे कुछ पूर्व का है, अहिच्छत्रा के खंडहरों में एक पाषाण वेदिकास्तंभ पर उत्कीर्ण है, जिस पर ६ महंत मूत्तियां भी उत्कीर्ण है। कोतरि का अर्थ है मंदिरों का ढेर या टोला। [ए. एस.बाई.. २८ शिसं iii. ८४३] २. सातिरोमणि-धीरोषत-संयमी इन्द्रनन्दि आचार्य, जिन्होने मोह विषयादि को जीतकर (श्रवणबेलगोल के) कटवा पर्वत पर समाधिमरण किया पा-ल.७०.ई। शिसं. २.५] ३. इन्द्रनंदि मुनि, जो पापग्रहों का निग्रह करने पाने और राजानों द्वारा पूजित थे, तथा मल्लिषेण-प्रशस्ति में जिनका उल्लेख गगनरेश श्रीपुरुष मुत्तरस शत्रुभयंकर' (७२६-७६ ई.) बारा सम्मानित विमलबाबा के उपरांत मोर राष्ट्रक्ट मरेण कृष्ण प्र. शुभतुंग (७५७-७३ ई.) द्वारा सम्मानित परवादिमल्ल के पूर्व हुआ है अतः न. ७५०-७५ ६.। [विसं. i.५४] ४. जिन नंदिका उल्लेख बिरबत्ति के शि. ले. में विखा. नंदिके शिष्य एवं वामनंदि विष्व के रूप में हवा है ऐतिहासिक व्यक्तिको Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इनके उपरांत क्रमशः अमरगति-बहुमंदि-युषति-माणिक्यनंदि का उल्लेख है। विद्यानन्द का समय.... है, बोर सामिपयनन्दि काम.......बस इन इमानन्दि का समय म.८५.ई. है। सिं ... १.५] ५. बिन इनबिशिष्य समन्दि, प्रशिम्प बप्पनन्दि और प्रमशिष्य ज्यालिनीकरूप (९३९६.) के कत्ता इम्बनंदिदि थे। [प्रो. i. ९१ पृ. १३८] ६. 'मालिनीकल्प' (९३९६०) के पमिता नन्द्रनंदि योगीन्द्र जो बप्पमंदि बिष्य थे, महाविद्वान और मनवादी थे- इस पथ की रचना उन्होंने राजधानी बाबवेट में राष्ट्रकुट सम्राट कृष्ण तृ. के शासन काल में की थी। [प्रवी. i. ९१: प्रमुख, ७. वह 'श्रुतसागर-पारण' आचार्य इसनंदि बिन्हें गोम्मटसारादि (ल. ९८०) के कर्ता भाचार्य नेमियन सिद्धान्त चक्रवर्ती ने गुरुरूप से स्मरण किया है सम्बिसार (गा. ६४८) में तो स्वयं को स्पष्टतया 'बच्छ' (बस या शिष्य) कहा है। ८. प्रसिद्ध 'भुतावतार कथा' के रचयिता इन्दनंदि- उक्त कथा में उन्होंने बीरसेन-जिनसेन (८३७.)न्त ही सिद्धांतपंचों की टीकानों बादि का उल्लेख किया है, अतएव इनका समय अनु. मानत:ल. ९५.६० मा १०वीं शती है। [जैसो. ११०, १२३, २२०] ९. अवपिड नामक प्रायश्चित शास्त्र (श्लो. सं. ४२.) के रचयिता योगीन्द्र इन्द्र नंदि मणी-यह शास्त्र उन्होंने चतुःसंघ एवं चतुर्वर्ण के हितार्थ रचा था। [पुर्जवासू. १०९] १०. नीतिसार या नोलिसार-समुन्धय, अपरनाम समयभूषण (ग्लो. सं. ११३) के रचयिता इन्द्रनंदि। ग्रंथ में जिन पूर्वबर्वी बाचायों का उल्लेख हुमा है, उनमें से. कालक्रम की दृष्टि से, १०वी सती के उत्तरा में हुए सोमदेव बोर नेमिचन्द्र बि... है, बत: यह इन्द्रनंदिन.१.... या कुछ उपरान्त केहै। [पुषवाचू. ७१] ११. इन्द्रवंदि-संहिता में उल्लिखित ह पूर्ववर्वी पुरातन इंद्रनंदि ऐतिहासिकम्पत्तिकोश Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११५ जिन्होंने एक पूजाविधि एवं संहिता की भी रचना की थी। [पासू. १०७] १२. प्रसिद्ध एवं उपलब्ध प्राकृत 'इंद्रनंदि संहिता' के रचयिता —क्योंकि उन्होंने वसुनंदि और एकसंधि भट्टारक का भी उल्लेख किया है, बतः १२वीं शती ई. के उपरांत हुए होने चाहिएं। [वासू. ७१,१०७] १३. प्रतिष्ठापाठ के कर्ता इन्द्रनंदि, जिसका उल्लेख अय्यपा ने अपने जिनेन्द्रकल्पानाभ्युदय या विद्यानुवादांग (१३१९ ई० ) में किया है, और हस्तिमहल के प्रतिष्ठाविधान में भी हुआ हैअतः इम इन्द्रनंदि का समय ल० १२०० ई० है । [ प्रसं. १०, १०७; प्रवी. 1. ८१] १४. बज्रपंजराराधना के कर्ता इन्द्रनंदि । [ प्रसं. ८९ ] १५. जिनका उल्लेख प्रवचन- परीक्षा के कर्ता पं० नेमिचन्द्र (१५वीं शती ई०) ने अकलंकदेव के पश्चात् और अनन्तवीर्य, वीरसेन, जिनसेन आदि से पूर्व हुए एक ब्राह्मणकुलोत्पन्न पुरातन जैनाचार्य एवं प्रथकार के रूप में किया है। [ प्रसं. १०१] १६. इन्द्रनंदि, जिनका उल्लेख वर्धमान मुनि (१५४२ ई०) ने एक पुरातन ग्रंथकार के रूप में, तथा क्राणूरगण के मुनियों में जefiniदि के पश्चात मोर गुणचन्द्र के पूर्व किया है । [जैशिसं. iii. ६६७; प्रसं. १२४, १३२ ] १७. वह इन्द्रनंदि, जिनसे कनकनंदि ने, जो नेमिचन्द्र सि. च. के एक गुरु थे, सकलसिद्धान्त को सुनकर अपने सत्वस्थान (विस्तर सत्वत्रिभंगी ) की रचना की थी। [ गोम्मट. कर्म. ३९६; पुर्जवास. ७२ ] १८. प्रतिष्ठाकल्प बौर ज्यालिनोकल्प के रचयिता इंद्रनंदि मुनीन्द्र, जो १९८३ ई० एक लि. ले के अनुसार विमलचन्द्र और परवादिमल्ल के मध्य हुए थे। [जैसिसं. iii. ४१०] १९. अनुमानतः १०वीं शती के एक कसड शि. ले. में गुणचन्द्र मुनि के साथ उल्लिखित इंद्रनंदि मुनि [ शिसं. iv. ११५] २०. चालुक्य सम्राट विक्रमादित्य षष्ठ (१०७६- ११२६ ई० ) के एक कड शि. ले. के अनुसार मूलसंघ- देशीगण - पुस्तकगच्छ 3 ऐतिहासिक व्यक्तिकोश Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुन्दकुन्वन्धिय के प्रति दिन शिष्य बाहुबलि भाचार्य ने बिनविर बनवोकर भूमिदान प्राप्त किया था। [क्षिसं.iv.] २१. हरूपी से प्रान्त १२वीं शती के प्रारम. एक भग्नस्तंभ पर अंकित कर शि.मे.के अनुसार गोल्लापार्य के प्रशिष्य, मुषचन्द्र के शिष्य, और मन्दिमुनि एवं ति (गायिका श्रीमती कन्ति, प्रसद्धि कवियत्री) के शायद सपर्मा इन्द्रमन्दि। [शिसं. iv. ३१३] उपरोक्त इन्द्रनंविषों में कई एकपरस्पर अभिल हो सकते हैं। ईशपाल, ईन्द्रपाल या इंडपाल गोप्तीपुष ने, जो वीर योदा पा और पोठय एवं शकों के लिए कालव्यान था, मथुरा में, ईसापूर्व १४.१३ मे बहत्पूजा के लिए दान दिया था और उसकी भार्या शिवमित्रा ने एक मायागपट स्थापित किया था। [शिसं. ii. ९१. प्रमुख. ६६] इलाालित- सम्राट अशोक मौर्य के पौत्र एवं उत्तराधिकारी जैन सम्राट सम्धति का एक उपनाम। [प्रमुख. ४९] हवामूति गौतम- समस्त वेद-वेदांग में पारंगत, ब्राह्मणकुलोत्पन्न, गौतमगोपीय, तेजस्वी महापडित इंद्रभूति, जो तीर्थकर बदमान महावीर के प्रथम शिष्य एवं प्रधानगणधर थे। दीक्षा ई०पू०५५७; केवल शानमाप्ति ई.पू. ५२७, निर्वाण ई. पू. ५१५ -तीर्थकर की वाणी को द्वादशांग श्रुत में निबद्ध करने का श्रेय इन्हें ही है। [भाइ. ५७-५९] संगीतपुर (हाडवल्लि, उत्तर कन्नड) का जैन नरेगा जिसे बल्लालजीवरक्षक महलाचार्य चारूकीति (ल. ११०० ई.) के प्रशिष्य और श्रुतकीर्ति के शिष्य वाचार्य विषयकोति प्र. की कृपा से राज्य सिंहासन प्राप्त हुमा पान. १२०० ई. मे। [थिसं. iv. ४९.] काष्ठासंब-नदीतटगच्छ के भ० राजकीति के प्रति बोर .. लक्ष्मीसेन के पट्टपर भ० इन्द्रभूषण, जिनको माम्नाय के उत्तर. भारतीय वषेरवाल श्रावकों, मे शायद उन्हीं के साथ ससप काकर, १६६२१० मे अवगवेलगोलको यात्रा की थी। [शिसं.i. एतिहासिक व्यक्तिकोष Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शायद इन्ही की गृहस्य शिष्या दुलमबाई ने, जो गोबसगोत्रीय बबेरवाल जातोय मो, १६५० ई० में नागपुर में बिम्ब प्रतिष्ठा फराई थी। ऐसे कई लेखों में इनका उल्लेख है इनके शिष्य सुरेन्द्रको तिथे । यह कारंजा पट्ट के भट्टारक थे - एक लेख में इन्हे चन्द्रकीर्ति का प्रशिष्य मिला है। [जंशिसं. iv, पृ. ४०६-४११] इन्द्ररक्षित - पाला (बि. पूना, महाराष्ट्र) के समीप वन को एक गुहा मे प्राप्त ४ पंक्तियों के ब्राह्मी लिपि एवं प्राकृत भाषा के लेख मे अरहंतों को नमस्कार करके, भदंत इंदरखित ( इन्द्ररक्षित ) द्वारा उक्त लेण (गुहा) तथा वहीं एक पोढि ( जलकुण्ड ) के बनवाये जाने का उल्लेख है समय ल० दूसरी शती ई० । [शिसं. v. १पृ. ३] राष्ट्रकूट वंश का अन्तिम नरेश, इन्द्रचतुर्थ, बड़ा वीर योद्धा पोलो का प्रसिद्ध खिलाडी, रट्टकन्दर्प, राजमार्तण्ड, कलिनलोलगंड, बोरर बोर, कीर्तिनारायण आदि प्रतापसूचक उपाधियों का धारक, गंगगमिय का दौहित्र, गंग मारसिंह का मानजा राजचूडामणि का जामाता, राष्ट्रकूट कृष्ण तृ० का पौत्र । इस बोर ने ९८२ ई० में श्रवणबेलगोल में समाधिमरण किया था । देखिए चतुर्थ राष्ट्रकूट (न०८) [शिसं . ३८, ५७; इन्द्रराज १६४; प्रमुख. १११-११२; भाइ. ३०९] नामक अन्य नरेशों के उल्लेखों को भी 'इन्द्र' के अन्तगंत देखें | इमराज- इन्द्रराज सिंघवी- जोधपुर राज्य का प्रसिद्ध जेन युद्धवीर, सेनापति एवं मन्त्री सर्वाधिकारी, कुशल राजनीतिज्ञ, महाराज विजयसिंह, भीमसिंह और मानसिंह के शासनकालों में राज्य का स्तंभ बना रहा । अन्तिम राजा के समय में, १८१६ ई० में, अपने शत्रुओं के षडयन्त्र से मारा गया। [ प्रमुख. ३३४-३३६ ] इवामदेव, पंडित- त्रिलोकसार- दीपक प्राकृत (दिल्ली-सेठ का कूंचा, २०४९) के कर्ता । इत्रणी १२० rinोजीम बनवाल दिग० जैन साह सोनू की धर्मात्मा भार्या, जिसने १५४३ ई० में वर्द्धमान-काव्य की प्रति लिखकर दान की बी । [ प्रसं. १८७ ] ऐतिहासिक व्यक्तिकोश Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंह-वे, भुवनभानुचरित्र (१४९० ई०), बनि नरेन्द्रकथा, मोर 'मन्ह जिणाण' की कल्पवल्ली टीका के संभवतया कारंजा की काष्ठाची गहो के म. लक्ष्मीन के शिव्य । इन्होंने १६५८ ई० में काष्ठा-लाडगडगच्छ के म. sarvata की नाम के बरवाल आपकों के लिए fre प्रतिष्ठा कराई थी । संभवतया इन्हीं का अपरनाम इन्द्रभूषण था। [ प्रभावक. १०२ ] इगवेव इसे पण्डितदेव- द्रविलसंच- सेमवण-कोहरगच्छ के आचार्य इसे इन्द्रायुध जिन्हें, ११६७ ई० में, आन्ध्रवेश के अधिपति श्रीबल्लभचोल को राजधानी उज्जियोलनके बद्दिजिनालय के लिए भूमिदान आदि दिये गये थे । मंदिर की मूलनायक प्रतिमा बेलपाश्वदेव थे। [जैशिसं V. १०३, १०४ ] बाचार्य जिमसेन पुनाट के हरिवंशपुराण (७८३ ई०) के उल्लेखानुसार उससमय उक्त ग्रन्थ के रचनास्थल वर्द्धमानपुर (बदनावर, म. प्र. ) की उत्तर दिशा मे इन्द्रायुध का राज्य था -वह कन्नौज के भष्टि या वर्मवंशी नरेश बज्रायुध का पुत्र एवं उत्तराधिकारी था । स्वयं उसका पुत्र एवं उत्तराधिकारी चक्रायुध था, जिससे गुर्जर प्रतिहार बमराज के पुत्र नागभट्ट द्वि. (आमराज ) ने कशीज का राज्य छीना था । [भाइ. १५७; जैसो. १९६ - २०१ ; हरिवश. ६६ / ५३ । इब्राहिम लोदी- दिल्मो का तीसरा एवं अन्तिम लोदी सुल्तान (१५१७-२६ ई०), सिकन्दर लोदी का पुत्र एव उत्तराधिकारी, फुरुजांगल देश का स्वामि इसके राज्यकाल मे, १५१० ई० में, काष्ठासंची म. गुणभद्र की माम्नाय के जंसवाल चोधरी जगसी के पुत्र बो० टोडरमल ने श्रीचन्द्रकृत उतरपुराण-टोका की प्रति कराई बी; १५२० ई० मे योगिनीपुर निवासी गगंगोत्री अग्रवाल साहू बोरदास ने फीरोजाबाद दुर्ग मे मुनि विमलकीति को सुलोचना चरित की प्रति दान की थी; १५२३ ई० मे सिकदराबाद में म. निचन्द्र के शिष्य भ. प्रभाचन्द्र के शिष्य ब्रह्म बीटा को यशोधर चरित्र की प्रति दान की गई बी; काष्ठासची आम्नाय के एक वसेद्द निवासी १५२५ ई० मे गयंगोत्री अग्रवाल ऐतिहासिक व्यक्तिकोश १२१ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक ने भविष्यदत्तचरित्र की प्रति दान की यो । [ प्रज. १४०, १६४, १७२; जैसा. ३३६ ] इमडि मट्टोपाध्याय- विद्यानुशासन (या विद्यानुवाद) नामक ग्रन्थ में मृत एक पूर्ववर्ती जैन ग्रन्थकार । [ जैसा. ४१७ ] इम्मfड कृष्णराज मोडेवर- मैसूर नरेश ने ९ अगस्त १५३० ई० को श्रवणबेलगोल के भट्टारक चारुकीति स्वामि को सनद दी थी। [जंशिसं. i. १४१, ४३४ ] इम्मfड वण्डनाथक- होय्सल नरसिंह प्र. के सेनापति माचियण ( ११५३ ई० ) का पिता । [ जैशिसं. iv. २४६ ] इम्मfe वण्डनायक मिट्टियण- दे. बिट्टियण्ण, बिट्टिदेव, विष्णुदण्डाधिप । [जंशिस. iii. ३०५; प्रमुख. १४८-१४९ ] इम्मडि देवराज ओडेयर ने १५१४ ई० में अनन्ततीर्थंकर बसति एवं चौबीस तीर्थंकर बसति को भूदान किया था और १५२२ ई० में तौलवदेशस्थ क्षेमपुर (गेरसोप्पे ) में एक ताम्रशासन द्वारा लक्ष्मेश्वर के शंख - जिनालय के लिए देशीगण के चन्द्रप्रभदेव मुनि को भूमिदान दिया था। [जैशिसं. iv ४६२, ४६३; v २३१] प्रसिद्ध जैन सेनापति बचप के पुत्र, मन्त्रीश्वर इम्मडि बुक्क ने १३९५ ई० में कुन्थुनाथ चैत्यालय बनवाया, बीर, दानी, १३९७ ई० के शि. ले. में भी उल्लेख है । [जेशिसं. iv. ४०४; V.१-२] इम्मडि भैररस - मेरवेन्द्र, मैररसबोडेव, इम्मडिमैटरल बोडेर या भैरव द्वि. जो तुलुदेशस्थ कारकल का जिनधर्मी नरेश था, भैरव प्र० (भैरवराज) का भानजा और उत्तराधिकारी था, और जिसने १५८६ ई० में कारकल में गोम्मटदेव की मूर्ति के सामने वाली पहाडी चिक्कवेट्ट पर एक भव्य एवं विशाल जिनालय बनवाया था जो रत्नत्रय, सर्वतोभद्र या चतुर्मुख बसदि मोर त्रिभुवनतिलक चैत्यालय कहलाया । उसने बोर भी अनेक धर्मकार्य किये। ये कार्य उसने स्वगुरु, कारकल के भट्टारक ललितकीर्ति मुनोन्द्र की प्रेरणा एवं उपदेश से किये थे । यह राजा धर्मात्मा होने के साथ-साथ बड़ा शूरवीर, प्रतापी, सुशासक, दानशील और विद्या रसिक भी था । [ प्रमुख. ३२०-३२१; जैसाइ २३५ ] ऐतिहासिक व्यक्तिकोश इम्मडि बुक्क विजय नगर के १२२ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इम्मडिवरच का जिनधर्मी नरेश, जिसने १५२३ ई० में वरांग की बसदि के लिए भैरवपुर ग्राम दान किया था । [शि. iv. ४६१] इरिव बेड -- गंगनरेश वीरबेडङ्ग नरसिंह सत्यवाक्य जो कोमर वेट एरेगंग नीतिमागं (९०७-१७ ई०) का पुत्र एवं उत्तराधिकारी था और राजमल्ल सत्यवाक्य तृ. (९२०-३७ ई०) तथा प्रतापी गगनरेश बूलुग (९३७-५३ ) का पिता था, तथा द्रविलसंगी त्रिकालमनि भट्टारक के शिष्य मुनि बिमलचन्द्र पण्डित का बृहस्थ शिष्य था । [जैशिसं. ii. १४२, १६६; प्रमुख, ७८,७९ ] इरिव बेग सत्यापय- कल्याणी के उत्तरवर्ती चालुक्य वंश का सरा सम्राट, तैलप द्वि. का पुत्र एवं उत्तराधिकारी, जिनधर्मी नरेण, राज्यकाल (९९७-१००९ ई०), राष्ट्रकूट सम्राट इन्द्रचतुर्थ का प्रतिद्वन्द्वी भी और प्रशंसक मित्र भी, महासती अतिमब्बे के वीर पति नागदेव का भी परम मित्र, रन एवं पोश नामक कन्नड के महाकवियों का प्रश्रयदाता, वीर, प्रतापी, उदार एवं धर्मात्मा । कहीं-कहीं नामरूप एलेवबेटेज भी मिलता है । [ प्रमुख. ११५; जैशिसं. 1. ५७ ] इदम बण्डनाथ- इरुगप प्र०, थिरुमप, इरूगेन्द्र या इरुगेश्वर बिजयनगर के प्रारंभिक नरेशों के सर्वप्रसिद्ध जनमन्त्री एवं महाप्रधान बंब, बचप या बैचप माधव का द्वितीय पुत्र मंग और aeer नामक दण्डनाथों का भाई, स्वयं प्रसिद्ध दण्डनाथ ( सेनापति ) और राज्यमन्त्री था । पिता की मृत्यु के उपरान्त वही सम्राट हरिहर डि. (१३७७-१४०४ ई०) का महाप्रधान नियुक्त हुआ । वह जैनाचार्य सिंहनंदि का गृहस्थ शिष्य था । उसने १३६७ ई० में चलूमल्लूर में एक जिनमंदिर बनवाया था व दान दिया था. १३८२ ई० में तमिल देशस्थ तिरुपतिक्कुम्ह के त्रैलोक्यवल्लभ जिनालय के लिए एक ग्रामदान किया था १३८५ ई० में राजधानी विजयनगर में अत्यन्त कलापूर्ण पाषाणनिर्मित सुप्रसिद्ध कुन्थुनाथ बरवालय बनवाया जो कालान्तर में गणिगिति - बसदि ( तेलिन का मंदिर ) नाम से प्रसिद्ध हुआ, १३८७ ई० मे स्वगुरु पुष्पसेन की आशा से काँधी के निकट स्वनिर्मापित ऐतिहासिक व्यक्तिकोश १२३ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंदिर के सम्मुख भन्य मण्डप बनवाया था और १३९४ . में एक विशाल सरोवर का उस्कृष्ठ बाँध बनवाया था। वह एक कुशल अभियंता (इंजीनियर) और भारी विज्ञान भी था -जानाधरत्नाकर नामक महत्वपूर्ण सस्कृत कोश सी की. रपया है। लगभग ४० बर्ष साम्राज्य की निष्ठापूर्वक सेवा करके १४०४ ई. के लगभम उसका स्वर्गवास हुमा। [प्रमुख, २६७-२६८3 भाइ. १६७-३६८ शिसं.i.८२: iii. ५७९, ५८१, ५८६, ५८७; iv. ४०३, ४०४; v. १८२, १९२; मे. प शr.- अपने चाचा का नामराशि, विजयनगर साम्राज्य का यह सचिबकुलाग्रणी वण्डावोस इरुगप द्वि. महाप्रधान बैच-माधव का पौत्र, महाप्रधान-सर्वाधिकारी इरुग प्र. एवं दण्डनायक बुक्कण का भतीजा, और दण्डनाथ मंगप की भार्या जानकी से उत्पन्न अत्यन्त शूरवीर, यशस्वी, कुशल राजनीतिक और धर्मात्मा था। सम्राट देवराय दि. (१४११-४६ ई.) के तो प्राय: पूरे राज्यकाल में यह साम्राज्य का प्रमुख स्तंभ बना रहा-१४४२ ई. में वह साम्राज्य के महत्त्वपूर्ण प्रान्त चन्द्रगुप्ति एवं गोआ का सर्वाधिकारी शासक था। वह श्रवणबेलगोल के पीठाध्यक्ष पंडिताचार्य का भक्त था, जिन्हें उसने १४२२६० में गोम्मटेश्वर की नित्य पूजा हेतु एक ग्राम दान दिया था तथा एक विशाल सरोवर एवं सुन्दर उद्यान समर्पित किया था। वह अनन्य जिनभक्त भोर बड़ा सदाचारी था। उसका सहोदर दण्डनाथ वैचप दि. भी बड़ा युद्धवीर, बिजेता एवं भव्याग्रणी जिनभक्त था। [प्रमुख. २६८; भाइ. ३७१; शिसं. i. ५२; मेज. ३०७] हरगोन १२वीं-१३वीं शती ई. में, मैसूर प्रदेश के उत्तरी भाग के एक हिस्से पर जिनधर्मी निहगलवशी राजाओं का राज्य था, जो स्वयं को चोलमहाराज-माताकुलभूषण-उरैयूरपुर-वराधीश्वर कहते थे। इनके सुदृढ़ पहाड़ी दुर्ग का नाम कालाजन था। बंश का तीसरा राजा मंमिनृप था। उसके पौत्र गोविन्दर का पुष एवं उत्तराधिकारी गोनप्र. था, जो गुणचन्द्र के ऐतिहासिक व्यक्तिकोड Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिव्य नमकीर्ति सि. प. का गृहस्थ शिव्य था, और जिले क वर्धन होय्सल ने एक युद्ध में पराजित किया था। उसके पौत्र बम्प की रानी बावजदेवी से, जो कलियर्म की पुत्री की इगोल हि. उत्पन्न हुवा था, जिसने १२३२ ई० में अपने आश्रित गंगेयन मारेय के निवेदन पर उसके द्वारा निर्माणित जिनालय के लिए भूमिदान दिया था। इसका पुत्र एवं उत्तराविकारी इकोस तू. ( दरुमोलदेव पोल महाराज) था, जिसने १२७८ ई० में मल्लिसेट्टि द्वारा निर्वाचित बिनालय के लिए प्रभूत दान दिया था। निशुगलवंश के इक्पोल नामक ये तीनों हो राजा परम जैन थे । [प्रमुख. १९३-१९४ जैशिसं. i. १३८; ii. ३०१; iii. ४७८; iv. ६२१-६२२; मेजे. २१० ] इगोल- प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय- दे. इरुङ्गोल । इसपेद मानडियल, बनसंग- जैनाचार्य, जिन्हें चोल नरेश परकेसरिवर्मन (राजेन्द्र प्रथम ) के राज्य के तीसरेवर्ष में ग्रामादि दान दिये गये थे ल० १००० ई० । [जैशिसं. iv. १२१ ] इलाव महादेवी- चोलसम्राट राजराज केशरीबर्मन के राज्य के ८वें वर्ष में, अर्थात ९९२ ई० में उसके सामन्त जिस इलाडराज (लाटराज) बौर चोल ने तमिलदेशस्थ पचपाडवमले के प्रसिद्ध चैत्यालय के लिए दानशासन दिया था, उसकी दानशीला धर्मात्मा रानी उस रानी को प्रार्थना पर ही वह दान दिया गया था । ii. १६७] [जैशिस. इलाडराज बोरबोल- इलाड महादेवी (९९२ ई० ) का पति, राजा । [जैशिसं. ii. १६७ ] इलाई अरवन तिवडि— तमिलदेशस्थ अन्नुदूरनाडु के एलुमून ग्राम 布丁 निवासी, जिसकी धर्मात्मा पत्नी तिरुनंग ने श्री नामलूर के मंदिर में, १०वीं शती ई० में, एक जिनविज प्रतिष्ठापित की थी । [ जंशिसं V २४ ] इयमटारर - मुनिराज ने, १०वीं शती ६० मे, शिगवरम् (दक्षिण अर्काट, मद्रास) में ३० दिन के उपवासोपरान्त समाधिमरण किया था । [शिसं. v. २५ ] ऐतिहासिक व्यक्तिकोश १२५ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इलमपूर्णर-- तोलकप्पियन नामक प्राचीन तमिल व्याकरण का प्रथम टीकाकार, तमिल जैन विद्वान । इमोडल या इलङ्गोवडिगल, बज्जी के चेरनरेश चेरलावन के पुत्र, राजा गुंतवन के अनुज, मणिमेक्कलह के कर्त्ता बौद्धकवि कुलafoneशासन के मित्र और प्रसिद्ध प्राचीन तमिल जैन महाकाव्य शिलपदिकारम् के रचयिता जैन राजकुमार - अंततः जैन मुनि हो गये थे, समय ल० १५० ई० । इसहल- अपरमाम मंदिरं आशिरियन ने, ९वीं शती ई० में, पांड्यनरेश अबपिशेखर श्रीवल्लभ के राज्यकाल में सित्तनबासल (पुदुकोट्टे, मद्रास) के अहंन मंदिर के अतरमण्डप का जीर्णोद्वार और बाह्यमंडप का निर्माण कराया था । [जैशिस. iv. ६२] महाकवि स्वयंभू (ल० ८०० ई०) द्वारा उल्लिखित प्राकृत भाषा के पूर्ववर्ती पुरातन कवि । [ जंसाइ ३८५] इंगरसओडेय-- हाइबलिय राज्य के शासक संगिराय के पुत्र एवं उत्तराधिकारी, जिनके समय में, १४५० ई० में, बैदूर की पार्श्वनाथ बसति के लिए अनेक दान दिये गये थे । [ जंशिसं. iv . ४४१ ] - शायद यह इन्दगरम का पितामह और सांगिराय का पिता इंद्र ही था दे. इन्दगरस । दे. इन्द्र रक्षित । इसंगमन इंदरति ई--- १२६ होय्सल नरेश वीर बल्लाल द्वि. (११७३-१२२० ई०) का प्रसिद्ध सन्धिविग्रहिक मंत्री । वह तथा उसकी साध्वी भार्या सोमलदेवी ( या सोवलदेवी ) परम जिनभक्त, धर्मात्मा एवं दान शील थे। इस दम्पति ने १२०५ ई० में गोग्गनामक स्थान में वीरभद्र नामका अति सुन्दर जिनालय बनवाया था, जो पूरे बेलगबसिना में अद्वितीय था और १२०७ ई० में उसके लिए स्वगुरू वासुपूज्य देवको अनेक दान दिये थे, और गक निर्धन ऐतिहासिक व्यक्तिकोश Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कन्या का विवाह भी कराया था। [मुख.. १११.१२ बक्षिसं.ii. १, ५५, ४१६] श्वेताम्बर मुनि श्रीमविजयगण को दक्षिण भारत की तोयाना के समय (ल. १६५३६०) में बीजापुर का सुल्तान सिकन्दर बादिलशाह को बली आदिलशाह वि. का पुत्र एवं उत्तराधिकारी पा। [जैसाइ. २३७; भाइ.४४] जिनधर्म का अनुपायो विवर्मनरेश ईल, अपरनाम ऐल (१०८५ ई.) अनाचार्य ममयदेवसूरि का भक्त था, एलउर (एलोरा) उसकी राजधानी पी, जिसकी प्रतिनि उसके बहुत समयपूर्व से ही एक महत्वपूर्ण जैन तीर्थक्षेत्र के रूप में रहती आई थी। [प्रमुख २२३] सिरि, पंडित- देवगढ़ (वि. समितपुर, उ०प्र०) के मंदिर न. १६ के शि. ले. में पं. लक्षमनंदि और पं० श्रीचन्द्र के साथ उल्लिखित पं. ईसनंदि। [शिसं.v-पृ. ११८] शिानकवि- पुष्पवंत के महापुराण (९६५ ई.) में अपभ्रन्थ के एक पुरातन कवि के रूप में बाण, द्रोण एवं श्रीहर्ष के साथ उल्लिवित-स्वयं बाण ने भी हर्षचरित में भाषाकवि ईशान का उल्लेख किया है। [साइ. ३२५, ३७१] ईमान योषि- कित्तरसंव के आचार्य योगिराज ईशान ने, ल. ७०० ई. में श्रवणबेलगोलस्य चन्द्रगिरि पर पंचपरमेष्ठि की भक्ति पूर्वक समाधिमरण किया था। [शिसं . १९४] चालुक्य सम्राट विक्रमादित्य षष्ठ के समय के १०८१ ई० के सम्मेश्वर शि. ले, में, पुलिगेरे के महासामन्त एरेमय्य के मन्धु दोण बारा सेनवण के आचार्य नरेन्द्रसेन लि. को दिये गये दान में सहयोगी बंदराज कप के द्वितीयपुत्र, और इन्दप, राजि, कलिदेव, भाषिनाव, शान्ति एवं पार के भ्राता धर्मात्मा श्रावक [बंशिसं. iv. १६५] ईश्वर हम पार्षगग्य- सांस्यकारिका के कर्ता, जिनका उल्लेख जनेन्द्र एवं साकटायन जैसे जैन व्याकरणों में हमा है -समय अनुमानत: १ली से पी शती. [साह. २१८-१९) ऐतिहासिक व्यक्तिकोम Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईश्वर --- होम्सल नरेश नरसिंह प्रथम (ल० ११४१-७३ ई०) का एक सुयोग्य, स्वामिभक्त जैन बीर योद्धा, सेनानी एवं मन्त्री, महाप्रधान सर्वाधिकारी दण्डनाथ एरेवंग का पादपद्मोपजीको ( सहायक या अधीनस्थ ), सायद पुत्र भी, और उस धर्मात्मा दानशीला नारीरस्त मावियक्के का पति जो देशीगण के गण्डfarers की गृहस्थ शिष्या यो बोर जिसने ११६० ई० में तीर्थक्षेत्र मयबोलस पर एक मनोरम जिनालय तथा पद्मावतीकेरे नामक सरोवर का निर्माण कराया था और महाराज नरसिंह की सहमतिपूर्वक बहुतसा भूमिदान दिया था । स्वयं चमूपति ईश्वर ने भी मन्दारमिरि को प्राचीन वसदि (जिनमंदिर) का जीर्णोद्वार कराया था। [ प्रमुख १५०, १५३; मेजं. १४०, १४६-१४७, १६८; जंशिसं. iii. ३५२; एक. xii. ३८] ईश्वरदास - मालवा के सुलतान गयासुद्दीन का गजपाल (हस्तिशाला का अध्यक्ष) था और धर्मात्मा जैन या भ० श्रुतकीर्ति ने अपनी धर्मपरीक्षा (१४९५ ६०) तथा परमेष्ठिप्रकाशसार (१४९६ ई०) में उसका उल्लेख किया है। [ प्रमुख. २४६ ] ईश्वरभट्ट - धर्मपुर (बीड, महाराष्ट्र) की सेट्टिय बसदि के प्रमुख, यापनीय संघ बंदिपूरगण के महावीर पण्डित को दिये प्रशस्ति का लेखक -ल० ११वीं शती ई० । ७० ] गये दान को [शिसं v. ६९ १. सोनागिर ( दतिया, म० प्र०) के मंदिर न० १० के १८६६ ई. के शि. ले. में भ. चारुचन्द्रभूषण के साथ, कोलारस निवासी मीतलगोत्री अग्रवाल दिग. जैन चोधरी रामकिसन और लालीराम के भाई ईश्वरलाल के रूप में उल्लिखित । [जैशिसं. v पृ. ११४] २. कटक के मंजु चौधरी और मवानी चौधरी को सन्तति में, तुलसी दानू को दोहित्री सोनाबाई का दत्तकपुत्र, की १९१२ ई० में विद्यमान था। [ प्रमुख. ३४९ ] ईश्वरसूरि - १. सांडेरानच्छी श्वे. आचार्य, यशोभद्रसूरि (ल० ९११-७२ ई०) के गुरु । [ जंमोह. iii. ५३०, ६०५ ] ईश्वरलाल - १२८ ऐतिहासिक व्यक्तिकोश Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. शान्तिरिके शिष्य वरपूरि के माद के सुलतान नासिकहोन के जैन मन्त्री मलिक माफर के पात्र बोर श्रीमाल पातीय सोगाराव बीवन के पुष, मन्त्री पुत्र के अनुरोध से, १५०४ ई. में, हिन्दी पच मे मलितांगचरित की रचना की थी। [काहि. ६७-६८; प्रमुख. २४६] ३. भाहरमच्छी ईश्वरसूरि ने १३६४० में जैसलमेर में सुमति नाथ विश्व प्रतिष्ठा की थी। कंच. ६८] ४. संप्रेरकपच्छी ईश्वरसूरि ने १४५८ ई. में काश्यपगोत्री श्रावक चहा के लिए नेमिनाम बिम्ब प्रतिष्ठा की बी। [कैच. ९८] शबरसेग- हरिवंशपुराण (७८३ ई.) में प्रदत्त पुन्नाटसंघ को परम्परा में, नन्विषेण वि. के शिष्य और नन्दिषेण तृ. के गुरु । वरीप्रसाब-या ला. ईश्वरी प्रसाद दिल्ली के सरकारी खजांची सालिगराम के वंशज, और धर्मदास खणांची के पुत्र (या अनुज) थे, १८७७ ई. में पुरानी दिल्मी क्षेत्र के सरकारी खजांची बने, दिल्ली बैंक एवं लन्दन बैंक के भी खजांची थे, नगरपालिका के सदस्य एवं कोषाध्यक्ष, मान. मजिस्ट्रेट व वायसराय के दरबारी भी थे। उनके अनुज अयोध्याप्रसाद भी सरकारी सवांची थे, बीर सुपुत्र रायबहादुर पारसदास थे- अग्रवाल, दिग.। [प्रमुख. ३६.] उकेतीमणि- कल्याण मंदिर-स्तोत्र वृत्ति के कर्ता, संभवतया श्वे.। [दिल्ली धर्मपुरा दि. मंदिर की प्रति] रक्सिलेटि- और एकग्वे के पुत्र तथा नयकीर्ति व्रतीश के शिष्य नाभिसेष्ट्रि ने ल० १२०० ई. में समाधिमरण किया था। [शिसं. iv. ३७९) १. मपुरा का यदुवंशी नरेश, बसुदेव की पत्नी और कृष्ण की जननी देवकी का तथा कंस का पिता। ऐतिहासिक व्यक्तिकोश Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. जूनागढ़ का नरेश, ती. अरिष्टनेमि को वाग्दत्ता राजीमती (राजुल) का पिता । ३. सिकन्दर महान के समकालीन मगध नरेश महापद्मनन्द का अपरनाम । [प्रमुख. ३१, ३३] ४. सहारनपुर के जैन रईस सा० उग्रसेन (ल० जिनके दत्तक पुत्र सा० जम्बूप्रसाद रईस थे । उपसेन गुरु- मालनूर के पट्टिनीगुरु के शिष्य, जिन्होंने, ल० ७०० ई० में, एक मासतक सन्यास व्रत ( सल्लेखना) का पालन करके श्रवणबेलगोलस्थ चन्द्रगिरि पर प्राणोत्सर्ग किया था। संभवतया सेन संघ के आचार्य थे। [जैशिसं i. एक. ii. २५; देसाई २३२] उद्यादित्य मचायें- आयुर्वेदशास्त्र के महत्वपूर्ण, मौलिक एवं सांगोपांग ग्रन्थ 'कल्याणकारक' के रचयिता, जो संस्कृत पद्य में निवड, दो खंडों और २५ अधिकारों में विभाजित है, जिसके अतिरिक्त अन्त में दो परिशिष्ट हैं - प्रथम में अरिष्टविचार ( मरणांतिक लक्षणों) का वर्णन है और दूसरे हिताहित - अध्याय में वैद्यकशास्त्र तथा आहार आदि में माँसनिराकरण का प्रमाण एवं युक्तिसिद्ध प्रतिपावन है । यह आचार्य मूलसंघ - कुन्दकुन्दान्वय में देशोगणपुस्तकगच्छ - पनसोगबहिल शाखा के आचार्य श्रीनंदि के शिष्य और ललितकीति के सधर्मा थे। आचार्य श्रीनंदि रामगिरि (आन्ध्रदेशस्थ विशाखापटनम् जिले का रामतीर्थ या रामकोण्ड पर्वत) के विशाल जैन विद्यापीठ के अधिष्ठाता थे वहीं उग्रादित्य ने विद्याध्ययन किया था । तदनन्तर गुरु के आदेश से वहीं उन्होंने वेंग के पूर्वी चालुक्य नरेश विष्णुवर्धन चतुर्थ (७६२-९९ ई०) के शासनकाल में उक्त वैद्यक महाशास्त्र की रचना की थी। कालान्तर में मान्यखेट के राष्ट्रकूट सम्राट अमोघवर्ष प्रथम (८१५-७७ ई०) की राजसभा में मांसाहारनिषेध पर जो व्याख्यान दिया था, उसे हिताहिताध्याय के रूप में परिशिष्ट में जोड़ दिया । इस ग्रन्थ में आयुर्वेद का मूल fate द्वादशांगी के प्राणवायपूर्व को सूचित करते हुए अनेक पूर्ववर्ती जैन आयुर्वेदाचायों और उनके ग्रन्थों का भी संकेत ऐतिहासिक व्यक्तिकोश १३० १९०० ई० ), [प्रमुख. ३६४ ] Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया है। कल्याणकारक के कर्त्ता इन ग्रादित्याचार्य का समय लगभग ७९० से ८३० ई० के मध्य अनुमानित है। मुनीन्द्र, पण्डित, महागुरु आदि इनको उपाधियां थीं। [जैसो. २०४२०६; प्रमुख. ९४; मे. २६७ ] उपाधित्व सुनिदिग., ल० १००० ई०, जमत्सुन्दरी, भिषक्प्रकाश, कनकatre, एवं रामविनोद नामक संस्कृत वैद्यक ग्रन्थों के रचयिता । उच्चारणाचार्य- ने कापड आगम की यतिवृषभाचार्य (ल० १३०-१८० ई०) कृतचूनियों पर बारह सहस्त्र श्लोक परिमाण वृतिसूत्र रचे थे, ल० २५० ई० में । [ पुर्जवासू. २०] उजागरमल डिप्टी -- मेरठ (उ० प्र०) निवासी दिग० अग्रवाल, १९वीं शती ई० के उत्तरार्ध में डिप्टी कलेक्टर थे तथा अच्छे समाजसेवी थे-मेरठ शहर के बड़े दिग. जैन मंदिर के लिए भूमि आदि दिलाने तथा उसका निर्माण कराने में सहायक रहे थे, समाज के प्रमुखों में से थे। [ प्रमुख. ३५७ ] ११७० ई० में बिजोलिया पार्श्व जिनालय के प्रतिष्ठापक साहूलोलाक का अनुज । [जैशिसं. iv. २६५; प्रमुख. २०६ ] उज्जवल --- उसतिका- ल. १७७ ई० में, किसी कुषण महाराजा-राजातिराज (संभवतया · वासुदेव) के शासनकाल में, मथुरा के अर्हतायतन ( जिनमंदिर) में ओखारिका की पुत्री उसतिका ने श्राविका भगिनी (साध्वी ) ओला, शिरिक एवं शिवदिशा के सहयोग से भगवान महावीर की प्रतिमा प्रतिष्ठापित की थी -नामों से उल्लिखित महिलाएं शक या पहलव जातीय विदेशी रही प्रतीत होती हैं । [ जैशिसं. जे. आर. ए. एस. १८९६ पृ. ५७८- ५८१ ] . उधार मल्लिषेण दिगम्बराचार्य, ल० ११०० ई० की कुलोत्तुंग चोल प्र० की प्रशस्ति में उल्लिखित । [ जैशिसं. iv. १७३ / उडवार राजेद्र चोलदेब - अपरनाम कोपरकेसरिवर्तन के राज्य के १२वें वर्ष, १०२३ ई० में, तियमले ( पवित्र पर्वत) पर स्थित कुन्दव-जिना लय के लिए दानादि दिये गये थे। [जैशिसं . १७४; साइइ. i. ६७ ] उत्तमंदि अडिगल -- तमिल देश के तिकड़म्बुरई नामक स्थान में स्थित काट्टा ऐतिहासिक व्यक्तिकोश १३१ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बल्लि जैनमठ के बाचा,न. * सी ., ने कतिपय मूर्तिया बनवाकर स्थापित की थीं। दिखाई. ६९] उसमय- जगतसेठ के वंशज डालचन्द और उनकी विदुषी भार्या रतन कुवारि के पुत्र, तथा सवा शिवप्रसाद सितारेहिन्द (ल. १८५० ७०६.) के पिता, वाराणसी निवासी। [मुल. ३५५४ भंडारी- जोधपुर निवासी, महाराज मानसिंह के समकालीन, ल. १५... में, अलंकार-माशय नामक ग्रन्थ की रचना की थी, इनके भाई उदयचन्द भी अच्छे लेखक थे। [कृपाल, अप्रैस ८८, पृ ४० उत्तरवासक- बाबा महारक्षित के शिष्य ओर बास्सीमाता के पुष धावक उत्तरदासक ने ईसापूर्व १५. के लगभग मथुरा मे जिनमंदिर का तोरण बनवाया था। [शिसं. ii.४; एइ. १४] उत्तरासंग मट्टारक- मूलसंघ-सूरस्थगण-चित्रकटान्वय के कनकनन्दि भट्टारक के शिष्य, तथा भास्करनंदि, श्रीनदि एवं महनदि के गुरु, और उन मार्यपण्डित के प्रगुरु जिन्हें चालुक्य सोमेश्वर दि. के महामंडलेश्वर लक्ष्मरम मे पोषगुंड (हनगु) को अरसर-बसदि नामक जिनालय के लिए १०७४ ६० मे प्रभूत दान दिया या । देसाई.१०७-१०] उत्वलराम- दे. गुंज, मालवा का परमार नरेश, ल. ९७५६०। १. सोन्दति के रट्ट नरेम कात्तंबीर्य चतुर्ष के धर्मात्मा जैनमन्त्री बीषण (१२०४ ई.) का पिता। [शिसं iv. ३१८, ३१९] २. धोलका में ल. १९७५ है. में वादिदेवसूरि से सोमघर स्वामि की प्रतिमा की प्रतिष्ठा कराने वाला धर्मारमा श्रावक [कंच. २०६] उदयकरण- १. कविवर बनारसीदास (ल. १५८३.१६४३ ई.) के साथी, अध्यात्मरसिक विद्वान, जो निश्चयकान्त के प्रभाव मे पथभ्रष्ट हो गये थे-पाडे रूपचन्द ने इन लोगों का मिथ्याभिनिवेश दूर किया था। [2. अर्घकथानक] २. यनि शीलविजय (१६९१ ई.) के उल्लेखानुसार पोलकुण्डा के ओसवाल धनकुबेर देवकरणशाह के धर्मात्मा भ्राता । [जैसाइ. २३१] १३२ ऐतिहासिक व्यक्तिकोश Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. नेपटा निवासी गोयनमोषी बनवाम संपपति उदयकरण, बामेर के म.नरेन्द्रकोतिभक्त, १६५२६. में ससंघ गिरनार की याचा की और वहां एक प्रतिष्ठा कराई। [प्रमुख. २१५ कंच. ८२] उदयकीति- १. प्राकृत निवषसप्तमीकमा के रचयिता बालपन के गुरु । दिल्ली पंचायती मंदिर की प्रति] २. श्वे., १६२४ ई. में विमलकीतिकृत 'पदव्यवस्था' नामक व्याकरण की टीका निजी की। ३. दिग., सहस्त्रकीति के शिष्य, न. ११५.ई. में संस्कृत में पुष्पाम्बनिकाय एवं निर्वाषपूना रची थी। उदयचन्ह-- १. दिल्ली निवासी, गगंगोत्री अग्रवाल विग. जैन धर्मात्मा सेठ दिउढासाह (१४४३ ई.) का पौत्र और वीरवास का पुत्र स्वयचन्द । [प्रमुख. २४३] २. साह उपचन्द मोहिलगोत्री पोरवार ने म. धर्मकीति के उपदेश से १६१४ ई० में उदयगिरि पर नंदीश्वर चैत्यालय की प्रतिष्ठा कराई थी। [शिसं.iv-नागपुर का लेख न. ६२] उदयचन्वमंगरी- उत्तमचन्द भंडारी के भाई, १८०७-१८४३ ई. के बीच लगभग ५० छोटी बड़ी हिंदी रचनाओं के कत्ता [कुशल. ४०] १. वर्षमानमुनि (१५४२ ई.) द्वारा नन्दिसंघ-बलात्कारगण की परम्परा मे उल्लिखित वासुपूज्य मुनि के शिष्य, कुमुदचन्द्र (कुमुदेन्दु) के गुरु और माघनंदि के प्रगुरु-माषनंदि के शिष्य कुमुदचंद्र पंडित का समय १२०५ ई० है। [प्रस. १३३; शिसं. iv. ३४२, ३७६] २. देशीगण-पुस्तकमच्छ के माधनंधि सिद्धांत के शिष्य और गुणचंद्र, मेषचंद्र तथा चंद्रकीति के सधर्मा, नैयायिक, मीमांसक, बौदादि वादियों पर विजय पानेवाले परितदेव उदयचंद्रगुणचंद्र के शिष्य नयकीति का स्वर्गवास ११७७ ई. में हवा था। [शिस. i. ४२] ३. श्रवणबेलगोल के १३९८६० के शि. ले. मे देवचंद्र और रविचन्द्र के मध्य उल्लिखित उदयचंद्र। [शिसं.i. १.५] ४. महामण्डलाचार्य उदयचंद्रदेव, जिनके शिष्य मुनिचंद्रदेव ने ऐतिहासिक व्यक्तिकोश Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदयण १२७८ ई० में, अन्य लोगों के सहयोग से श्रवणबेलगोल की भण्डारि-वसदि के देवर बल्लभदेव की पूजाभिषेक के लिए अर्थसंग्रह कराया था। [जैशिसं . १३७] ५. इवे, ल० १८वीं शती में संस्कृत में पाण्डित्यदर्पण नामक ग्रंथ लिखा था। [च. १५७] ६. खजुराहो के प्रसिद्ध विनमंदिर निर्माता गृहपतिवंशी पाहिल्ल श्रेष्ठि का पौत्र, और साहु साल्हे (११५८ ई०) का एक पुत्र [जैशिसं. iii. ३४३; प्रमुख. २२७ ] ७. श्वे. खरतरगच्छी साधु ने बीकानेर में, १६७१ ई० में, अनूप-रसाल तथा बीकानेर-गजल राजस्थानी हिन्दी में रची थीं। ८. शास्त्र सारसमुच्चय-टीका (१२६० ई०) के कर्ता माघनंदि के प्रगुरु दे. उदयेन्दु । ९. मूलसंघ- बलात्कारगण के कुमुदचन्द्र के प्रशिष्य, वासुपूज्य के शिष्य और त्रिभुवनदेव के गुरु उदयचन्द्र, ल० ११७५ ई० । [देसाई. ११७] १०. गुजरात के जयसिंह सिद्धराज (१०९४-११४३ ई०) से सम्मानित विद्वान श्वे. साधु, आचार्य हेमचन्द्र के शिष्य या सहयोगी । [ प्रमुख. २३१] ११. गावरवाड के १०७०-७१ ६० के शि. ले में उल्लिखित अणिगेरे की प्राचीन गंगपेम्मांड बसदि के व्यवस्थापक सकलचन्द्र के गुरु मूलसंधी उदयचन्द्र । [ जैशिसं. iv. १५४] विष्णुवर्द्धन होयसल के स्नेहपात्र बालवीर जैन दण्डाविनाथ विष्णु का अग्रज, और राज्यमंत्री विश्वराज एवं चंचले का पुत्र, एक वीर जैन सेनानी । [ प्रमुख. १४५; मेजं. १३८ ] उदयदेव पण्डित - देवगण के पूज्यपाद आचार्य अकलंकदेव के गृही शिष्य और बातापो के चालुक्य नरेश विनयादित्य ( ६८०-६९८ ) के राजगुरु free पंडित के शिष्य एवं उत्तराधिकारी थे, और चालुक्य विजयादित्य द्वि. (६९७-७३३ ई०) के राजगुरु थे । उक्त नरेश इन्हें ७०० ई० ( या ७२९ ई० में) में लक्ष्मेश्वर के शख-जिनालय के लिए कर्दमग्राम दान दिया था। जयदेव, रामदेव, ऐतिहासिक व्यक्तिकोश ૪ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदयदे उदयधर्म- उदयन विजयदेव आदि इन्हीं की परम्परा में हुए। [ प्रमुख ९३ बेसाई. ३५९ मे. ४१-४२; शिसं . ११३] पं० आशावर के भक्त खंडेलवालभावक हरदेव के धर्मास्या अनुज । [ जैसा. १४१; प्रमुख. २१२] १. श्वे. १४५० ई० में वाक्यप्रकाश नामक व्याकरण शास्त्र की रचना की थी । २ उदयमणि श्वे. ते १५४४ ई० में उपदेशमाला की ५१ वी कथा पर शास्त्रार्थवृत्ति, तथा १५५३ ई० में शान्तिसूरिकृत जीवविचार की वृत्ति लिखी थीं। १. महावीर कालीन कौशाम्बी नरेश वत्सराज शतानीक का पुत्र एवं उत्तराधिकारी, चेटक पुत्री सती मृगावती का नन्दन, प्रद्योतता वासवदत्ता का प्रेमी, गजविद्याविशारद, प्रसिद्ध दोषा वादक, कलारसिक, धीर वीर जिनभक्त नरेश वो अनेक प्राचीन लोककथाओं का नायक है। [प्रमुख. ११] २. उदयन या उदायन, महावीर कालीन तथा महावीर भक्त नरेश जो राजधानी वीतभयपट्टन से सिन्धु-सौवीर देश पर राज्य करता था, जिसकी रानी चेटक दुहिता प्रभावती थी, पुत्र अमोचिकुमार था राजा, रानी, राजकुमार तीनों ने अन्ततः जिनदीक्षा ले सी बी । [प्रमुख. १२-१३] ३. गुजरात के सोलंकी नरेशों, जयसिंह सिद्धराज (१०९४११४३ ई०) तथा कुमारपाल ( ११४३-७३ ई०) का प्रसिद्ध जैन राज्यमन्त्री तथा बीर सेनानी । उसके चारों पुत्र, नाहर, बाहड, अम्बद और सोल्ला भी राज्य के मन्त्री और प्रचंड सेनानायक थे । मन्त्रीराज उदयन ने ही सोरठ के राजा बेंगार को पराजित किया, जयसिंह को पीलुक्य चक्रवर्ती विरुद दिलाया था और कर्णावती में मध्य जिनालय निर्माण कराके उसमें ७२ बहुमूल्य मूर्तियां प्रतिष्ठापित की थीं। वह चिरकाल संभात का राज्यपाल भी रहा था। [प्रमुख. २३१; भाइ २०७; गुच. २५८, २६०, २६४-२७६; कंच. २१३-२१४] उदयनवि- देवगढ़ (जि० ललितपुर, उ० प्र०) के मंदिर न० २० के शि० ले में उल्लिखित दिग० मुनि साथ में त्रिभुवनचन्द्र, कनकऐतिहासिक व्यक्तिकोश १३५ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नन्दि, आचार्य वीरचन्द्र और त्रिभुवनकीर्ति के नाम भी हैं। [शिसं. v. पृ. ११९] उदगम्बर श्वे. तपागच्छी साबु, रत्नशेखर सूरि के शिष्य और इनसूरि के दीक्षागुरु, ल० १४७५ ई० । [जैसिभा. १८/१-२, पृ. १६] महासामंत ने देवगढ़ ( ललितपुर, उ०प्र०) में, १९५४ ई० में जिनालय (वर्तमान न० ७) निर्माण कराया था । [जैशिसं . v.] पुत्र- पंचमी व्रत उद्यापन के कर्ता । [ दिल्लीबपुरा मंदिर की प्रति ] उदयमसूरि-- १. राजा भाग के गुरु, सोमप्रभसूरि के समकालीन, मिन्नमाल निवासी श्वे० साधु | उपयपाल--- २. सुकृत कल्लोलिनी, धर्माभ्युदयकाव्य, नेमिनाथचरित्र, आरंभसिद्धि, बीति एवं कर्मस्तव के टिप्पण, और धर्मदासकृत उपदेशमाला की कणिका नाम्नी टीका (१२४२ ई०) के कर्त्ता हवे. विद्वान, मन्त्रोश्वर वस्तुपाल के विद्वन्मंडल के सदस्य । [गुच. ३०९; केच्व. २१८] [कैच. १७९] ३. विजयसेन के शिष्य और स्याद्वादमंजरी (१२९२ ई०) के कर्ता मल्लिषेण के गुरु । संभवतया न० २ से अभिन्न है । वस्तुपाल - तेजपाल के गुरु । ४. श्रीमान के राजा विजयन्त तथा ६२ सेठों को जैनधर्म मे दीक्षित करने वाले आचार्य । [ कैच. १००] उदयमरि-प्रवे०, बृहद्गच्छीय साधु ल० ७१८ ई० । उपयमाण उदयभूषण- उदयमतो---- १३६ सिरोही के राजा अखेराज का जैनधर्म पोषक युवराज, १६४१ ई० । १६६१ ई० में उसने आदिनाथ बिम्बपतिष्ठा कराई थी । [ प्रमुख २९४; कैच. ३७] या उद्यद्भूषण, गोविन्दभट्ट के पुत्र और नाट्यकार हस्तिमल्ल (१३वीं शती ई०) के भाई, विद्वान श्रावक । अय्यपार्य द्वारा जिनेन्द्र कल्याणाभ्युदय को प्रशस्ति में उल्लिखित । [ प्रवी. i. ८९ ] गिरनार के नरवाहन खेंगार की पुत्री और गुजरात के भोम प्र० ऐतिहासिक व्यक्तिकोश Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलंकी की पट्टरानी, कर्णसोलंकी की बननी -११वीं शती ई.। [भुष. २४१, २४८, ११९] गबनाताव तलवार-दावन्कोर नरेश, जिसने १५२१६० में, नागर कोयिल के जिनमंदिर के लिए कमलवाहन पंडित और गुणबीर पंरित' नामक दिग. जैन गुरुयों को भूमिदान दिवा पा। देसाई. ७०] उत्यरत्न करि- पञ्चषटहरास का रचयिता। [कंच.१.०] सयराम- लम्बकंचुकान्वयी के भाई सङ्गसेन ने म. राजेन्द्रभूषण के उपदेश से १८६८६० में सोनागिर में जिनालय निर्माण कराया था। [शिसं. V. ३.१] दूबकुण्ड (ग्वालियर प्रदेश) के १०८८६. के शिलालेख (वान शासन) का रचयिता। [शिसं. ii. २२८] उदयरामजती- बीकानेर नरेश रायसिंह का आश्रित बनकवि, जिसने १६०॥ ई. में 'राजनीति के दोहे' नामक पुस्तक लिखी थी। [काहि. १३२] खरतरगच्छी, गच्छी उदयराज जो वैद्यविरहिणी प्रबन्ध (५०० दोहे) के कर्ता हैं, संभवतया यही हैं। उबविणमणि- ने १५९७ ६. में सं. पार्श्वनाथ चरित्र की रचना की थी। [कास. १४९] उबविद्यापर- अपरनाम लोकविद्याधर या विद्यापर, राजा धोर का पुत्र और गंगनरेश रक्कसगंग का मानना एवं पोष्यपुत्र, तथा बीरागना सावियब्वे का शूरवीर पति । वीरमार्तण्ड चामुण्डराय (ल० ९५०-९९० ई.) की ओर से एक युद्ध में लड़ते हुए इन दोनों पति-पत्नि ने बीरगति पाई थी। [प्रमुख. ८४-८५] उज्यमी- चन्द्रवाड के प्रसिद्ध जैन राज्यमन्त्री कासाघर (१३९७ ६.) की अत्यन्त दानशीला धर्मात्मा भार्या। {प्रमुख. २४९] उदयसागर- पवे., ल० १५५० ई०, उत्तराध्ययनदीपिका के कर्ता । उबसिग- श्रवणबेलगोल के एक यात्रा लेख में उल्लिखित उत्तरापथ का एक यात्री। [क्षिसं.i.३४८] उपसिह- १. नाडोल का बिनधर्मी पाहमान नरेश, समरसिंह का उत्तरा धिकारी, ल. १२०० ई.. [कंच: २२] ऐतिहासिक व्यक्तिको Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. डूंगरपुर-बासवाडा का जिनधर्म पोषक नरेश, रावल गंगदास का उत्तराधिकारी, ल० १५१४ ६० । [ कैच. ३४] ३. सिरोही का जैनधर्म पोषक नरेश, ल० १५६५ ई० । [कंच. ३७] उदयसिंह राजा - मेवाड़नरेश, राणा सांगा के पुत्र और राणा प्रताप के पिता - बाल्यावस्था में इसकी रजा कुम्भलमेर के जैन दुर्गपाल आशाशाह ने की यो। [ प्रमुख. २५७; कंच. २२४, २२५ ] उपसह सुराणा, संघपति साहू पालहंस के पिता और संघपति माणिक सुराणा के पितामह, ल० १५३० ई० । [ प्रमुख. २८६ ] दर्यासह श्रीभ के शिष्य और श्रीप्रमकृत धर्मविधि की टीका (११९६ ई०) के कर्ता । जिनवल्लभकृत पिण्डविशुद्धिदीपिका के कर्ता भी संभवतया यही श्वे० विद्वान हैं । उदयसेन- उदयादित्य - १६८ १. सेनगण से सम्बद्ध ग्याट (लाट) वागड़ संघ के आचार्य सिद्धान्तसार के रचयिता नरेन्द्रसेन के गुरु गुणसेन तथा जयसेन के सर्मा और वीरसेन के शिष्य उदयसेन, ल० ११०० ई० । [ प्रवी. . ५६ ] २. उपरोक्त नरेन्द्रसेनाचार्य के शिष्य उदयसेन, ल. ११२५ ई० । ३. पं० आशाधर (ल० ११९०-१२५० ई०) को नयविश्वचक्षु' एवं 'कलिकालिदास' उपाधियां प्रदान करने वाले, उनके गुणानुरागी वयज्येष्ठ मुनि । [ जैसाइ. १३०, १३७; प्रमुख. २१२ ] ४. मुनिसुव्रत पुराण (१६२४ ई०) के रचयिता ब्रह्म कृष्णदास की गुरु परम्परा में काष्ठासंधी सोमकीर्ति के प्रशिष्य, यश कीर्ति के शिष्य, त्रिभुवनकीर्ति के गुरु और लेखक के गुरु रत्नभूषण के प्रगुरु उदयसेन, ल० १५५० ई० । [ प्रवी. . ४६ ] - त्रिभुवनकीति ने जीवंधररास की रचना १५५१ ई० में की थी। १. चालुक्य पेर्माडि भुवनेकवीर महाराज उदयादित्य पश्चिमी चालुक्य सम्राट भुवनेकमल्लदेव सोमेश्वर द्वि. (१०६८-७६ ई०) का जैन सामन्त और कोलालपुर का राजा था। उसकी प्रेरणा से सम्राट ने, १०७४ ई० में, वन्दनिके तीर्थ की प्रसिद्ध शान्तिनाथबसदि का जीर्णोद्धार कराया और एक दानशासन द्वारा उक्त मंदिर के संरक्षण एवं चतुविष दान व्यवस्था के लिए मूल ऐतिहासिक व्यक्तिकोश Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संच कारगण के कुलचन्द्रदेव को नावर खंड में भूमि प्रदान की थी । [प्रमुख. १२१] २. होयसल युबराज एरेवंग महाप्रभु और गुजराशी एचलदेवी का तृतीयपुत्र, बल्लाल प्र० तथा विष्णुवर्धन का अनुज, वीर एवं जिनभक्त राजकुमार, मृत्यु ११२३ ई० । [ मेजं. ११५, ११८: प्रमुख. १३६; जैशिसं: iv. २१२, २७१, २५२] ३. उदयपुर (ग्वालियर ) प्रशस्ति का प्रस्तोता मालवा का परमार नरेश, भोजपरमार का अनुज एवं उत्तराधिकारी ( ल० १०५९-१०८७ ई०), लक्ष्मवर्म, नर वर्म तथा वीर जगदेव का पिता । कई अभिलेखों में उदयी नाम से उल्लिखित । शायद इसी का नाम जयसिंह प्रथम था । [ देसाई. २१०, २४४-२४६; बेशिसं. iv. १७४; एच. १२९ ] विद्वान, ल० ४. कन्नड भाषा में अलंकार शास्त्र के रचयित ११०० ई० । सभवतया न ० २ से अभिन्न हैं। [ककच. ] ५. कल्याणी के चालुक्य सम्राटों का सामन्त राजा, सोमदेव और कञ्चलदेवी का पुत्र उदयादित्य जिसने ११९५ ई० में, ताडपत्री (आन्ध्रप्रदेश) की प्रसिद्ध चन्द्रनाथ- पार्श्वनाथ वसदि के लिए मूल संघ - देशी गण-पुस्तकगच्छ इंगलेश्वर बलिके बाहुबलि . के प्रशिष्य और मानुकीर्ति के शिष्य मेषचन्द्र को भूमिदान दिया [ देसाई. २२; मेजे. २५३; प्रमुख. १९१; जैशिसं. iv. था। २८४ ] ६. होयसल नरेशों का प्रसिद्ध मन्त्री, शान्तिक्का का पति, चिनराज दण्डाधीश का पिता और उदयण एवं बालवीर सर्वाधिकारी विष्णु दण्डाधिपति का पितामह । [ मेजं. १३८ प्रमूख. १४८ ] ७. होयसल नरसिंह प्र० के महाप्रधान देवराज ( द्वि.) का पिता और कोषिकगोत्री जैन ब्राह्मण देवराज ( 50 ) का पुत्र । [ प्रमुख. १५० ] ८. होयसल नरेश के सेवक पेगंडे वासुदेव का जिनभक्त पुत्र उदयादित्य, जिसने सूरस्यगण के गुरु चन्द्रनन्दि के उपदेश से, १२वीं शती ई० में, वासुदेव जिनालय का निर्माण कराया था । [जैशि. iv. २८९ ] ऐतिहासिक व्यक्तिकोश १३९ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. शलना का परमार नरेश उदयादित्य द्वि. जो मोज का मनुज और जयसिंह ( ११५५-६० ई०) का चचा एवं उत्तराधिकारी था और कर्ण सोलंकी का समकालीन था । [ गुच. २४२ ] उदयाम्बिका-- चालुक्य सम्राट त्रैलोक्यमहल के सामन्त, बनवासि प्रान्त के शासक गोविन्दरस के पुत्र राजभक्त सोवरस ( सोमनुप) की धर्मात्मा पत्नी सोमाबि से उत्पन्न राजकुमारी उदयाम्बिका और बीराम्बिका बड़ी धर्मात्मा एवं दानशीला थीं। इन्होंने, ११०० ई० के लगभग सण्ड नामक स्थान में अति उत्तुंग भव्य जिनालय निर्माण कराया था। उदयाम्बिका का विवाह जूजिननृप के पराक्रमी पुत्र कुमार गजकेसरी के साथ हुआ था । [प्रमुख. १९५९ जेसिसं. ii. २४३; एक. vii. ३११] १. दे. अजउदयी व उदायी अजातशत्रु का पुत्र एवं उत्तराधिकारी मगधनरेश । [ प्रमुख. २० ] २. मालवा के परमार नरेश उदयादित्य (न० ३ ) का अपरनाम । [देमाई. २४५ ] उदग्री---- उदयेन्दु उदाई उदायन- उदायी ९. बाणवंशी, वीर विब्वरस का वंशज और वीर गोंकरस के पुत्र राजा उदयादित्य ने कलचुरि नरेश रायमुरारि सोविदेव के शासनकाल में, ११७३ ई० में, कालगी के जिनालय के लिए दान दिया था। [देसाई. ३१४] १४० दे. उदयचन्द ( न० ८), शास्त्रसार समुच्य टोका के कर्त्ता माघनन्दि ( १२६० ई०) के प्रगुरु, कुमदचन्द्र के गुरु मौर वासुपूज्य afar के शिष्य, उदयेन्दु या उदयचन्द्र, मूलसघी भट्टारक । के पौत्र नाथू ने १५४३ ई० में आगरा में एक जिनप्रतिमा प्रतिष्ठित कराई थी। [बंशिसं. v. २३७ ] उायन या उदयन (०२), महावीर का एक आदर्श श्रावक, वीतभयपत्तन नरेश - दे. उदयन न० २ । [ प्रमुख. १२-१३ ] उदयी, उदयन, उदयभट या अजउदयी, मगध सम्राट अजातशत्रु कुष्णकि का पुत्र एवं उत्तराधिकारी, महान जैन नरेश, राजधानी पाटिलपुत्र का वास्तविक निर्माता, कुशल प्रशासक, पराक्रमी विजेता, युबराजकाल में अंगदेश (चम्पा) का प्रान्तीय शासक रह चुका था । अन्त में एक शत्रु द्वारा छल से हत्या कर दी ऐतिहासिक व्यक्तिकोश • Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गई । इसको जननी पट्टरानी पद्मावती बी, पुत्र एवं उत्तराfuकारी अनुरुद्ध वा । समय म० ५०३-४७५ ईसापूर्व [प्रमुख. २०: मा. ६९ ] उतिया या उदितादेवी- ग्वालियर के तोमर नरेश दोरमदेव (ल० १४०० ई०) के जैसबालवंशी जैन राज्यमन्त्री कुशराज की पितामही, साहू भुल्लन की मार्या और साहु जैनपाल की माता कुशराव ने पद्मनाभ कायस्थ से यशोधर चरित्र की रचना कराई थी। [प्रवी. i. ३; प्रमुख. २५० ] बुन्देला नरेश महाराजकुमार छत्रसाल के भाई या पुत्र के शासनकाल में, १९९० ई० में, सोनागिर (बतिया, म० प्र०) पर उसके एक अधिकारी गोपालमणि ने भ० विश्वभूषण के उपदेश से एक जिनमंदिर निर्माण कराया था ( तलहटी का वर्तमान मंदिर न० ९) । [ जैशिसं. v. २७२] उदितोदय- ती० महावीर कालोन मथुरा नरेश, जिसके राज्यश्रेष्ठि महंद्दास, उसकी आठ पत्नियों और सुवर्णदुर बोर का प्रसंग लेकर सभ्यare कौमुदी कथा प्रचलित हुई कही जाती है । [ प्रमुख. २१] उपविदेव- तोंडेयमंडल ( तमिल देश ) में आरनीग्राम (जिलाबेल्लोर ) निवासी दिग. जिनभक्त कवि, freeकलम्बगम् नामक ललित तमिल भक्ति काव्य के रचयिता । ११३८ ई० में नडलाई के नेमि जिनालय के लिए दान देने वाले जैन राम्रो राजदेव के पिता, गुहिलवंशी रावत । [ गुच. १७९ ] श्रावक, जिसके पुत्र जिसालिम्ब ने, ११६१ ई० में जालोर ( राजस्थान) के पावं - जिनालय में दो कलापूर्ण पाषाण-स्तंभ बनवाये थे । [ जैशिसं. v. १०२ ] उहि उद्धरण उद्धरण- उद्धरणनूप उद्धरलेग- या उद्धरणदेव, ग्वालियर के तोमर राज्य का संस्थापक ल० १४०० ई० में इसका पुत्र वीरमदेव राजा हुआ या ग्वालियर के तोमर राजे जैनधर्म के प्रश्रयदाता रहे । [भाइ. ४५२: प्रमुख. २५० ] काष्ठासंघ- माथुरगच्छ पुष्करगण के म. माधवसेन के पट्टधर सिद्धान्त-जन-समुद्र' मुनि उद्धरसेन, म० १२५० ई० । ऐतिहासिक व्यक्तिकोश १४१ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खोतकेसरी ललाटे- कलिग (उड़ीसा) सोमवंशी प्रसिद्ध जैन नरेश, १०वी-११वीं शती ई०, देशीगण के आचार्य कुलचन्द्र के शिष्य मल्ल शुषचन्द्र का भक्त एवं गृहस्थ शिष्य था। उसके राज्य के ५ से १८वें वर्ष पर्यंत के कई शि. ले. मिले हैं, जिनसे विदित है कि उसने कुमारापर्वत के प्राचीन जिनग्रहामंदिरों का जीणोद्धार कराया था, नवीन गुफाबों यथा ललाटेग्दुगुफा अनेक तीर्थकर प्रतिमाओं का भी निर्माण कराया था। [प्रमुख. २२१; भाइ. १९४; जैशिसं. iv. ९३-९५; गुत्र. ६३-६४] ज्योतम- कुबलयमाला के कर्ता उद्योतनसूरि के पितामह, महाद्वार के चन्द्रवंशी जैन नरेश। [जैसो. १९२] उचोतमसरि- अपरनाम दाक्षिण्यांक सूरिया दाक्षिण्य-चिन्ह ने गुर्जर प्रतिहार वत्सराज के राज्य में जाबालिपुर (जालौर, मारवाड़) के रविभद्र द्वारा निर्मापित ऋषभदेव-जिनालय में, ७७८ ई. में, रोचक प्राकृत कपा कुवलयमाला की रचना की थी। यह महाद्वार के चन्द्रवंशीराजा उद्योतन के पौत्र और सम्प्रति अपरनाम वेदसार के पुत्र थे। इनके दीक्षागुरु तत्त्वाचाय थे, सिद्धान्तशास्त्र के गुरु वीरभद्र और न्यायशास्त्र के गुरु हरिभद्रसूरि थे। [सो. १९२-१९५; प्रमुख. २०३] अपकल्कि- महावीर निर्वाण के ५०० वर्ष पश्चात होने वाला धर्मविध्वसक अत्याचारी राजा-अत: उपकल्कि प्रथम ईस्वी सन् के प्रारंभ के लगभग हुआ, तदनन्तर द्वितीय उपकल्कि १०वीं-११वीं पाती ई० में, तृतीय २०वीं शती ई. में। [सो. ३२-३३] उपवासपर गुरु- स्तूपान्बय के वृषमनन्दि मुनि के अन्तेवासी (शिष्य) ने, ल.७..ई. में, कटवा पर्वत (श्रवणबेनस्य) पर समाधिमरण किया था। शिसं.i. १८९] उपनिक- महावीर कालीन मगधनरेश श्रेणिक बिम्बसार का पिता, अपर. नाम प्रसेनजित एवं भट्टि। [प्रमुख.१४] उपाध्ये, ग. ए. एम.- दे. आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये । अपरनाम कृष्ण और गजराज ने ९वीं शती ई.के उत्तरार्ष में मालवदेश की पारानगरी में परमार वंश एवं राज्य की स्थापना १४२ ऐतिहासिक व्यक्तिकोश Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की— इसका उत्तराधिकारी सीधक उपनाम हर्ष था। [ प्रमुख, २१०; भाई. १६६ ] श्रीमाल का एक राजपूत, बोसिया का राजा हुआ, वहाँ रत्नप्रभ सूरि द्वारा अपनी प्रजासहित जैनधर्म में दीक्षित हुआा- ये ही लोग व इनके वंशज बोसवाल कहलाये । [कंच. ९४] उप्पलक- नाडोल के जैन चाहमान नरेश अश्वराज (१११० ई०) का जैन [ कंच. २०] ८०० ई०) द्वारा उल्लिखित उप्पलदेव- उमट उमयचक्रवर्ती उमयण्ये उमयाचार्य- मूलसंघ- देशीगण - हमसोगेजलि के दिगम्बराचार्य को कोमलबसदि के अध्यक्ष मे, मोर जिन्हें होयसल नरेश बीर बल्लाल द्वि. ( ११७३-१२२० ई० ) के शासनकाल में दान दिया गया था । वह होयसल नरेश रामनाथ द्वारा भी सम्मानित हुए ये 1 [देसाई. १५१; प्रमुख. १६४ ] या मक्के, विष्णुवर्धन होयसल के करणिक ( एकाउन्टेन्ट) तथा अजितसेन भट्टारक के गृहस्थ शिष्य, और ११४५ ई० के लगभग श्रीकरण नामक भव्य जिनालय का निर्माण कराने वाले माडिराज अपरनाम मानव की धर्मात्मा भार्या। [जंशिसं. lii. ३१९; एक. iv. १०० ] राष्ट्रकूट सम्राट अमोघवर्ष प्र० (८१५-७६ ई०) की पट्टमहिषी, जिनभक्त राजरानी | [ प्रमुख. १०४ ] १. तस्वार्थ सूत्रकार आचार्य उमास्वामि का अपरनाम - दे. उमास्वामि । जमादेवी महासाहणीय ( चुड़सालाध्यक्ष ) या उद्रट, महाकवि स्वयंभू (स० प्राकृत भाषा के पुरातन कवि । उमास्वाति- अपरनाम सारस्वत पुराणाचार्य, कलर भाषा के पुराणचूडामणि (५६००) नामक ग्रन्थ के रचयिता, ल० १४०० ई०प्राचीनतम प्राप्त प्रति १४६१ ई० की है । २. उमास्वाति या स्वाति, श्वेताम्बराचार्य, जिनका जन्म ५६० ई० में हुआ बताया जाता है, और जो ३०वें युग प्रधानाचार्य जिनमद्रगणिक्षमाश्रमण के स्वर्गस्थ होने पर ३१ वें युग प्रधानाचार्य बने थे, ७वीं शती ई० के प्रारंभिक दशकों में। तस्वार्थसूत्र के ऐतिहासिक व्यक्तिकोश vn Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथाकथित स्वोपज भाष्य तथा प्रशमरतिप्रकरण आदि अन्यों के रचयिता यही प्रतीत हैं। रमास्वामि- १. तस्वाभिगमसूत्र, अपरनाम मोलशास्त्र, दशाध्यायी, सस्वार्थमहामास्त्र बादि, नामक अत्यन्त महत्वपूर्ण तथा दिगम्बर स्वेताम्बर मादि सभी जैन सम्प्रदायों मे समानरूप से मान्य धर्मशास्त्र के प्रणेना। उमास्वाति, गृपिच्छ मादि उपनाम मोर श्रुनकेवसिदेशीय, पूर्ववित्, बापक से विशेषणों से युक्त यह महानाचार्य न पुस्तक साहित्य के प्रारंभिक पुरस्कायों में से हैं। इनके तत्वार्थ सूत्र पर उभय सम्प्रदाय के विद्वानों द्वारा लिखित विपुल टीका साहित्य है -शायद किसी अन्य एक ग्रन्थ पर इतनी टीकाएं नहीं लिखी गई, जितनी मात्र ३५७ लघुसंस्कृत सूत्रों वाली इस रचना पर निखी गई है। यह ग्रन्थ मागमिक कोटिका है । एक अनुश्रुति के अनुसार यह कुन्दकुन्दा. चाय के शिष्य थे। इन उमास्वामि का समय ईस्वी सन् की प्रथम शती के मध्य के लगभग (४४-८५ ई.) प्रायः निश्चित किया गया है। जैसो. १३४-१३७] २. उमास्वामि भट्टारक, उमास्वामिश्रावकाचार के कर्ता, ल. १४वीं शती ई.। उमेवचन- इवे...१८३०ई० में प्रश्नोत्तरशतक' के रचयिता, वाचक राम चन्द्र के शिष्य। [कैच. १५८] सर्व- प्राचीन संस्कृत कवि जिन्होंने, सोमदेवसूरि (९५९ ई.) के उल्लेखानुमार, जैन मुनियों का उल्लेख अपने अन्य में किया है। [साइ. ७१, ७८] रबिलारामी- ल. २०० ईसापूर्व में, मथुरानरेश पूतिमुख की जैन रानी थी। उसकी पत्नी बौद्ध थी, राजा भी उसी के प्रभाव में था। तभी मथुरा के प्राचीन देवनिर्मित स्तूप के अधिकारी को लेकर बैनों और बौद्धों के बीच विवाद हमा। महारानी उक्लिा ने दूर-दूर से जैन विद्वानों को बुलाकर शास्त्रार्थ कराया, यह सिड करा दिया कि स्तूप जनों का ही है, फलत: रानी ने जिनेन्द्र की रथयात्रा निकाली और धर्मोत्सव किया। [प्रमुख. ५९, ६५] १४४ ऐतिहासिक व्यक्तिकोष Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाल-वालियर के तोमर नरेश नीतिसिंह के पापात्र सवाल धनकुबेर साहु पसिंह का पिता। [प्रमुख, २५५] अलिबागु- मा उल्लिका के नगुए, जिन्होंने अपनवेमगोमस्य पवनिरि पर, स.७... में, सस्नेखनापूर्वक प्राणोत्सर्ग किया । जैशिसं.-११] अपरनाम शुक, कौटिलीय अर्थशास्त्र में उस्लिखित पूर्ववर्ती राजनीति शास्त्र के बाचार्य। या ऋषमवत, सौराष्ट्र के शक शहरात नहपान (ल. २६-६६ १.) का मामाता एवं उत्तराधिकारी, बिनधर्मी रहा प्रतीत होता है। [प्रमुख. ६३-६४, सो.] उसेरोलाल- ला. उसेरीमम (या मास) नवाबगंज (बाराबंकी, उ.प्र.) वाले, दिग. अग्रवाल, नसुनके पौत्र और नीजीलाल पुत्र, धर्मप्राण, उदार तथा शास्त्रदानी सज्जन थे, मंदिर के निर्माण विकास के अतिरिक्त अनेक अन्यों को प्रतियां लिखवाकर आसपास नगर-मामों के मंदिरों में भिजवाई, न. १७९०-१५३.ई., दिल्ली के काष्ठासंधी भद्रारक ललितकीति की बाम्नायके थे। [शोषक-३७, पृ. ५६६] नाबालीपुर (मारवाड़) नरेश उदयसिंह के पुत्र महाराज चाचिग देव के प्रश्रय में, १२७७ ई. में, महतक पीना एवं अदल मे पाश्र्वनाथ महोत्सव के लिए भूमिदान दिया था। [गुच. १९८% [बैलेसं.i, ९३५] नधि- जिसकी पुत्री जितामित्रा मे, जो बुद्धि की पत्नी बोर मन्धिक की जननी थी, आनन्दि के उपदेश से मथुरा में, ११.६० में महंत की सर्वतोभद्र प्रतिमा प्रतिष्ठापित की थी। [भिसं. 1.४१%; प्रमुख. ६८] ইভিত্তিক বিজীয় m Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इडिसावर- श्वे., स. १५.०, 'निर्णय-प्रभाकर' नामक वानिक बन्ध के रचयिता। ऋषभदेव, ऋषभनाष, वृषमनाव, पुरुदेव, मादिदेव बाविनाय, इक्वाकु, केसी, महादेव, मजापति, स्वयंभू मादि अनेक नामांतर, अन्तिम मनु, प्रथम तीर्थकर, पिता १४ कुसकर नाभिराय, जननी मरदेवी, पत्नियां सुनन्दा एवं सुमंगला, पुत्र भरतचक्रवर्ती बाहुबलि, वृषभवेन बादि १.०, पुत्रियां ब्राह्मी और सुन्दरी, प्रवानगणषर वृषमसेन, लांछन वृषभ, मम्मस्थान अयोध्या, केबलमानस्थल प्रयाग का अक्षयवट, निर्वाणस्थल कैलासपर्वत, कर्मभूमि एवं कर्मयुग के प्रस्तोता, धर्म और मोक्षमार्ग के, वर्तमान कल्पकाल में, मा प्रतिपादक एवं प्रदर्भक, छः-सात सहस्त्रवर्ष पूर्व की सिन्धुपाटी सभ्यता में पूषित, ऋग्वेदादि वेदों में तथा श्रीमद्भागवत आदि ब्राह्मणीय पुराणों में स्मृत एवं उल्लिखित, -आचार्य जिनसेनादिकृत जैन महापुराणों में इनका चरित्र विस्तार के साथ पणित है। [भाइ. २३-२८] राजगही का महावीर कालीन प्रसिद्ध नसेठ, मन्तिमकेवलि बम्यूकुमार का पिता। [प्रमुख, २६] है. आगरा निवासी अकबरकालीन गंगोत्री अग्रवाल दिगन धर्मात्मा टोडर साह के ज्येष्ठ पुत्र माहु ऋषभदास । [प्रमुख. २८५] २. खंभात निवासी संघवी सांगण के पुत्र, श्वे. कवि, गुजराती भाषा में १६१५. में कुमारपालरास की बोर १६२८ ई. में हीरविजयसूरि रास की रचना की थी। ३. मुमतान नगर के वर्षमान नवलखा (१९५०.९० १०) की मुमुल गोष्ठी के एक प्रमुख सदस्य । [प्रमुख. २९१] ४. ५० दौलतराम कासमीपाल के समकालीन बागरा के एक दि. जैन पंडित ल. १७३० ई.। (प्रमुख. ३१८] ५. बाचार्य देवेन्द्र भूषण के शिष्य प. ऋषभदास १६६७ ई.। [कास. २०४] ६. पं. ऋषभदास निमोत्या. दिग., जयपुर निवासी खंडेलवाल ने १८३१ ई. में पं० नन्दलाल बावड़ा के सहयोग से प्राकृतग्रन्थ ऐतिहासिकम्पत्तिकोश १४६ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाचार की भाषा मचनिका लिखो वो एक रत्नत्रयपूजा की भी रचना की थी। जन्म १७८३ ई०, पिता शोषचंद निगोत्या, पुत्र पं० पारसवास निगोत्या । [ काहि. २२० कास. २४५, २५२; कंच. १५९ ] ७. पं० ऋषभदास, दिन. मग्रवाल, सुलतानपुर- चिलकाना (जिला सहारनपुर, उ० प्र०) निवासी, धर्म तथा हिन्दी, संस्कृत, उर्दू एवं फारसी के ज्ञाता, कवि, लेखक एवं विद्वान, १८८६ ई० में हिन्दी पद्य में पंचबालयति पूजापाठ व सुभराग की हेयोपादेयता की और उर्दू में मिध्यात्वकनाशक नाटक की रचना की। [ अनेकान्त, ३०/२, पृ. ३४] ८. हम जातीय लघुशासा सरजागोत्री संघई नाकर एवं नारंगदे के पुत्र संघ ऋषभदास ने अपनी भार्या एवं पुत्र धर्मदास सहित स्वगुरु भ० पचनन्दि के उपदेश से कारंजा में पापप्रतिमा प्रतिष्ठित कराई थी । [ प्रमुख. २९३] ऋषम मन्दि- या ऋषमनस्याचार्य कर्मप्रकृति ( प्रा० ), कर्मस्तव (सं०) तथा कर्मस्वरूपवर्णन (ड) के रचयिता, समय ल० ९५०-७५ ६० । ऋमसेनगुरु के शिष्य नागसेनगुरु ने ल० ७०० ई० में, श्रवणबेलगोलस्थ चन्द्रगिरि पर समाधिमरण किया था। [जैशिसं . १४] १०८० ई० के दानशील जायसवाल श्रेष्ठि दाहट का अग्रज, जयदेव का पुत्र व जासूक का पोत्र - पंडोभनिवासी, नगरसेठ | प्रमुख. २१३; गुच, ७९] ऋषिगुप्त - हरिवंशपुराण (७८३ ई०) मे प्रदत्त पुज्ञादसंघ की गुरु परम्परा में तीसरे गुरु, विनयधर के प्रशिष्य श्रुतिगुप्त के शिष्य, और शिवगुप्त (बलि) के गुरु । श्रविवास-- ती. महावीर के तीर्थ के प्रथम अनुत्तरोपपादक मुनिराज । विवासवाचक- मथुरा के प्रथम शती ई० के एक जैन प्रतिमालेस में उल्लि fear जैनाचार्य वाचक वार्य ऋऋषिदास । [वैशिसं. iv. १६] ऋषिपालित- श्वे०, इन्द्रदिन के प्रशिष्य शान्ति श्रेणिक के एक शिष्य -१० प्रथम शती ई० । ऋषिपुत्र १. पुरातन जैन ज्योतिबाचार्य, गर्गाचार्य के साथ उल्लेखित, ल० ७०० ई०, किसी प्राकृत ग्रन्थ के कसी ऐतिहासिक व्यक्तिकोश १४७ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. विग., ज्योतिषाचार्य, संस्कृत में निमितशास्त्र (१८८) के ३. दिग., कल्याणमंदिर स्तोत्र-टिप्पण के कर्ता। षटशास्त्र निर्वाहकारक विद्वान, बिनने जहानाबाद (दिल्ली) में, १७३५६० में बालापपद्धति की प्रति निखवाई थी। [कुना. ऋषिरामबह्मचारी- दिग., हिन्दी पद्य में मुदर्शन चरित्र के रचयिता, न. १६..ई.। अषिपर्डन- श्वे., जिनेन्द्रातिशय पंचाशिका (सं०) के रचयिता, म. अविबर्डमरि-- श्वे०, अंचलगच्छोय जयकोति के शिष्य, १४५५ ई० में, चित्तौड में,मल-दमयन्ती रासकी रचना राजस्थानी भाषा मे की थी। [कुशल. अप्रैल ९८, पृ. ३६] ऋषिधी- रणथम्भौर के प्रसिद्ध बनबराज रेखा पण्डित को धर्मात्मा भार्या (ल. १५५० ई.) [प्रमुख. २४५] एकपद्धगर मटार- कुन्दकुन्दावय के आचार्य, संभवतया मिट्टी का बना कमणलु रखते थे। इनके शिष्य आचार्य सर्वनन्दि थे जो महान विद्वान, सिद्धान्तक, कवि और प्रभावक नाचार्य थे, और जिन्होंने ८८१ ई. में सन्यासमरण किया था। [देसाई. २२४, ३४०. १४१] एकमेवमोणि- देवगणामी गुणनिधि देवेन्द्र भट्टारक के शिष्य एकदेव योगि, जिनके शिष्य जयदेव पंडित को गंगनरेश मारसिंहदेव सत्यवाक्य कोंगुणि ने शवती के स्वनिर्मापित मंगकन्दप-जिनालय के लिए ९६८ १० में प्रभूत दान दिया था। [शिसं.-१४९; इंए. vii. ३८; देसाई. १८९; प्रमुख..,८६] एकवीरतुनि- सूरस्थगण के आचार्य अनन्तवार्य की शिष्य परम्परा में विनय. नन्दि के शिष्य और पल्लपण्डित (पल्लकोति या पाल्यकोति) के ज्येष्ठ सधर्मा एवं गुरु-पल्लपडित का समय १११८.है। [शिसं.-२६९; एक. iv. १९] १४० ऐतिहासिक व्यक्तिको Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकीयांचाई- १२१५६० में मोगा के कदम्बनरेण जयकेपी ४० से मानिक्य. पुर के प्रसिद्ध नामर-जिनालय (मूलनायक-पाबनाय) के लिए दान प्राप्त करने वाले मापनीय संघ के बाहुबलि सिद्धान्तिदेव के प्रगुरु । [देसाई. १४५] ल. १२०.ई. में समाधिमरण करने वाले नामिसेट्टि की जननी उक्किसेट्टि की धर्मात्मा पस्नी, नामिसेट्टि नयकीर्ति व्रतीश का शिष्य था। [शिसं. iv. ३७१] एकसन्धि- १. द्रविड़संघ-नंदिगण अरुङ्गनान्बय के पुरातन आचार्यों में, सिंहनंदि और नकलकुदेष के मध्य नपा सुमति भट्टारक के साथ संयुक्त रूप से, १०७७ १. के तपा ११२५ ई. के व अन्य शिलालेखों मे उल्लिखित माचार्य, ल० ६.००। [शिसं. iv. २४६; 1. २१३; i. ४९३; एक. viii. ३५] -यह स्पष्ट नहीं है कि यह स्वतन्त्र व्यक्ति हैं, अपवा सुमति. भट्टारक का ही विशेषण 'एकसंधि' है। २. अय्यपार्य के जिनेन्द्रकल्याणाभ्युदय (१३१९६०) में उल्लि. खित एक पूर्ववर्ती प्रतिष्ठापाठ के कर्ता -इनका उल्लेख हस्तिमल्ल के पश्चात किया है। इनका अन्य प्रतिष्ठापाठ, जिनसंहिता या एकसंघिसंहिता भी कहलाता है। यह एकसंधि भट्टारक ल. १२०० ई. में हुए प्रतीत होते हैं। [सं. ५८. ६१, प्रवी.i. १ ३. उपलब्ध इन्द्रनंदिसंहिता (प्रा.) में उल्लिखित एक 'पूजाविधि' के रचयिता मुनि एक सन्धिगणी-संभव है, न. २ से अभिन्न हों। [पुजैवासू. १०७] एकान्त बासवेश्वर- एकान्त रामय्य की परम्परा में उत्पन्न लिंगायत या वीर शैव सम्प्रदाय का एक महान आचार्य एवं प्रचारक, अनेकान्तमत (जैनधर्म) का प्रबल विरोधी, ल० १४००६०, विजयनगर के बुक्कराय का समकालीन। [मेज. २९३] एकान्त रामम्य- कुन्तलदेशस्थ मानन्द निवासी शैव ब्राह्मण पुरुषोत्तमभट्ट का पुत्र राम या रामग्य, लिंगायत या वीरशंव सम्प्रदाय का सर्व. प्रसिद्ध मेता एव प्रचारक, बनेकान्तवादी जिनधर्म का कट्टर ऐतिहासिक व्यक्तिकोश Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक्कामोर बिषी एवं विरोषी। इसके तथा इसके अनुयायियों के सत्यापारों एवं प्रचार ने दक्षिण भारत में जैनधर्म को भारी अति पहुंचाई। वह बिज्जलकलचुरि (१९५६-६७६.)-, चालुक्य सोमेश्वर चतुर्ष (१९८२-८९ ई.) बोर कदम्ब कामदेव (११०१-१२०००)का समकालीन था-इन राजामों को प्रभावित किया ल. १२०.ई. के बब्लूर शि. ले. में उसके कार्यकलापों का विस्तृत वर्णन है। मेज. २८०.२८१: देसाई. ३९७, ४००, ४०२; जैक्षिसं. ii. ४३५; एई. v. २५] २. यह एकाग्तर रामय्यकलचरि नरेश बिज्जल दि.के साले और मन्त्री बस या बासवेश्वर का प्रधान शिष्य था। मूलत बसब बन पा, किन्तु राजा का विरोषी हो गया और उसने जैन धर्म छोड़कर वीरशैव मत को स्थापना की थी। [प्रमुख १२८] मागुडि में भव्य शान्तिनाथ-जिनालय बनवाने वाले और कदम्बनरेश बोपदेव के प्रधान जैन सामन्त शंकर के पिता बोपगावंड का पितृव्य, नण्डवंशी जैन सामन्त, ल. ११०. ई० । [जैशिसं. iii. ४००% प्रमुखः १३२] १. प्रथम, एक्कलदेव या एक्कलरस. उढरे का गंगवंशी जैन महामंडलेश्वर, जिसके शासनकाल में उसके जैन दण्डनायक बोप्पण के पुत्र दण्डनायक सिंगल ने ११२९ ई. में समाधिमरण किया था। [जैशिसं.li २९१; एक.viii.१४९; प्रमुख.१६९] २. एक्कलभूप या राजा एक्कल द्वि. भी परम जैन था, उसने उबरे में कनक-जिनालय निर्मापित करके अपने गुरु क्राणूरगणतिग्त्रिणिगच्छ के भानुकीति सिवान्तदेव को उसके लिए ११३९ 1.में प्रभूत दान दिया था। बह गंगमारसिंह का पुत्र एवं उत्तराधिकारी था और चालुक्य सम्राट अगदेकमाल दि. (११३८-५०६०) का सामन्त था। [मेजे. १६४.१६५; एक. vili. २३३; जैशिसं: iii. ३१३; प्रमुख. १६९, १७०] ३. महामंडलेश्वर एक्कलरस तृतीय भी इसी वंश का जैम मरेश पा, जिसके नाम पर उसके दमनायक महादेव ने राजधानी उदरे में. ११९७१.में एरग-जिनालय बनवाया था, और राजा १५. ऐतिहासिक व्यक्तिकोश Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवमेव एचन एचय-एच नेक्राणूरमण-तिविभिगच्छ के कुलभूषण विद्या के शिष्य सफलचन्द्र भट्टारक को भूमि बादि दान दिये थे। [ मेजं. १५१; जैशि. iii. ४३१; प्रमुख. १५८; एक. vili. १४० ] दे. उग्रसेन, मदनरेश । [ प्रमुख. ३१] १. नामान्तर एबराज, एचिग. एचिता, एचिराज, अपरनाम बुधमित्र, होयसल मरेश नृपकाम (१०४७-६० ई०) के सेनापति, कौण्डिन्यगोत्री नागधर्मा का पौत्र, मार एवं माकणब्बे का पुत्र, frogen होयसल के प्रसिद्ध प्रधान मन्त्री गंगराज तथा बमचभ्रूप ( सेनापति) का पिता, पौचिकब्बे का पति होयसल नरेशों का परमर्जन राज्याधिकारी, मुल्लूर के दिगम्बराचार्य कनकनंदि का गृहस्थ शिष्य - पति-पत्नि दोनों बड़े धर्मात्मा एवं दानशील थे । [ प्रमुख. १४२; मेजे. ११६; जैशिसं. 1. ४४, ४५,५९, ९०, १४४; . ३०१] २. एचण, एविराज, येचि - होयसल विष्णुवर्धन का दण्डनायक एच, उपरोक्त एचराज का पौत्र, गंगराज का भतीजा, बम्म. her और बागण का पुत्र, शूरवीर सेनानायक - इसने श्रवणबेलगोल में 'लोक्यरंजन' अपरनाम बोध्यण- चस्यालय निर्माण कराया था, और इसके समाधिमरण करने पर गंगराब के पुत्र atoपदेव ने इसकी निषद्या निर्माण कराई थी, ११३५ ई० में । इसकी पत्नि का नाम एचिकने था । [ प्रमुख. १३८, १४४, १४५; मेजे. ११४, १३७. १९७; जैशिसं . ६६, १४४] ३. नागलदेवी (लक्ष्मी) से उत्पन्न गंगराज का पुत्र एक या एचिराज (१११८ ई०) शायद दण्डनायक बीप का भी अपरनाम रहा हो। [ मेजं. ११६.१२६, १३०] होयसल बल्लाल द्वि. का संधिविग्रहिक जैनमन्त्री, जिसने १२०५ ई० में एक अनुपम बिनालय निर्माण कराया था बेलगवतिनाथ में । [ मे. १५२,१७०] - उसकी पत्नी सोमलवेदी ने भी १२०७ ई० में एक वसति निर्माण कराकर उसके लिए दान दिया था। दे. एच । [ मेजं. १३०, १९७ ] दे. एचिकम् । ऐतिहासिक व्यक्तिकोष १५१ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एचनूप- एचरस--- एबलदेवी एबले- fafeeder का unfवलंबी हैह्यवंशी राजा एचसूप ( प्रथम ) वह चालुक्य विक्रमादित्य षष्ठ (१०७६-१९२८ ई०) का सामंत था। [ देसाई. २१५, २१७, २१९, ३०४, ३०६, ३०७] एचभूप का पौत्र, महामंडेश्वर एचरस जो कलचुरि नरेश रायगरि सोदिदेव (११७१ ई०) का जिनभक्त सामन्त था । [देसाई. २१७, ३१७,३१८] १५२ १. होयसल युबराज एरेयंग महाप्रभु (ल. १०७०-११०० ई० ) की विदुषी एवं धर्मात्मा भार्या, युवराज्ञी एचलदेवी, बल्लाल प्र०, विष्णुवर्धन और उदयादित्य की जननी कुमारी शान्नले को पुत्रवधु बनाने का चुनाव उसी का था। बड़ी तेजोमयी, दयालु एवं दानशीला, रूपवती रमणीग्न थीं. आचार्य गोपनंदि उसके गुरु थे । [ प्रमुख. १३६; बेशिसं . १२४, १३७, १३८. ४९०, ४९३, ४९४; २१८, २६३, २९९, ३०१; iii. सिंघी आचार्य अजितसेन वादीभसिंह के गृहस्थ शिष्य और विष्णुवर्धन होयसल के कृपापात्र, धर्मात्मा बक्किसेट्टि की धर्मिष्ठ जननी । [जंशिसं . २७४ ] एचण्डमाकिति होयसल मरेशों के कौण्डिन्यगोत्री, जैनधर्मावलम्बी दण्डनायक डाकरस (प्रथम) की धर्मात्मा पत्नी, नाकण और मरि ऐतिहासिक व्यक्तिकोष ३०८, ३४७, ३९४, ४११ ; iv २७१] २. होयसल नरसिंह प्रथम ( ११४६-७३ ई०), उपरोक्न युवराशी के पौत्र की पट्टरानी और बल्लाल द्वि. की जननी, धार्मिक जैन नागे । [प्रमुख. १५६; जैशिसं. ६. ९०, १२४, ४९१; jii. ३७९, ३९४, ४११, ४४८, ४९६; iv. २७१, २८२] ३. एचलदेवि, जिसके गुरु नन्दिसघ-द्रविलमण - अरंगलान्वय के गुणसेन पण्डित (ल० १०६० ई०) ये सभवतया युवराशी एचनदेवि (न० १ ) से अभिप्राय हो, वह उसके प्रारंभिक काल के गुरु हों। १०५८-६० ई० के कई लेखों में इन गुणमेन का उल्लेख है। [जैशिसं । - १९२; एक. v. ९८ ] ४. सौन्दति के रट्टनरेश कार्तवीर्यं चतुर्थ (१९२०४ ई०) जो feat चक्रवर्ती की पुत्री थी, कलाचतुर विशाललोचना, सती और धर्मिष्ठ था । | जैसि. iii. ४४° ] Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एचिक माने दण्डनायकों को बननी, डाकरस द्वि. को fuarant, तथा प्रसिद्ध content भरत एवं मरियाने तू, की परदादी । इस महिला का अपरनाम येचियक्के या एचियके था । [जैणिसं. iii. ३०८, ४११] १. होयसल विष्णुवर्धन के महामन्त्री गंगराज के भतीजे एचिराज ( द्वि०) दण्डनायक की धर्मात्मा पहनी और शुभचन्द्र सिद्धान्त की गृहस्थ शिष्या । ल० ११३२ ई० केशि ले. में इस महिला की उपमा पुराण प्रसिद्ध सीता और कम्मिणी से दो है, अपने पति एजिराज द्वि का समाधिलेख उसने ही बंकित कराया था । लेख में उसका अपरनाम एचम्बे दिया है । [जैशिसं. १४४] २. २०५१ ६० के लक्ष्मेश्वर के शि. ले. में उल्लिखित दिनकर के पुत्र दूडम की धर्मात्मा पत्नि । [ जैशिस iv. १६५ ] एविगांक-- दे. एच प्र० । [ मेजे. ११६] दे. एचव दण्डनायकिति । एचिमकेएधिराज - एचिसेट्टि - दे. एच प्र. व द्वि । [ मेजं. १२६ ] १. श्रवणबेलगोल की विन्ध्यगिरि पर गोम्मटटेव सूत्रालय मे मोसले के बहु व्यवहारो बस्रविसेट्टि द्वारा प्रतिष्ठापित चतुर्विंशति तीर्थंकरों की अष्टविध पूजार्था के लिए मासिक व वार्षिक दान देने वाला, ११८५ ई० में, एक धर्मात्मा महावन । [जैशिस. i. ८६, ३६१] २. वीर बक्ष्लाल- जिनालय का संभवतया पितामह । (११७९ ई०) के निर्माता देविसेट्टि [जैशिख. iv. २७१] एक्जलदेवी हमच के त्यागि सान्तर की रानी और बोर सारतर को धर्मात्मा जननी 1 [प्रमुख. १७२] एरव्य- नल्लूर का एक श्रावक, जिसकी धर्मारमा पनि जक्कियन्वे ने, जो कस्तूरी भट्टार की श्राविका थी और चन्दिमध्ये बाबुदि की मन्त्राणी थी, ल० १०५० ई० में समाधिमरण किया था । [जैशि. ii. १८३] एनावि कुलनम~- तमिल देशस्थ विरुमलइपर्यंत के प्राचीन तमिल लेख में ऐतिहासिक व्यक्तिकोश १५३ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए. बी. लट्ठे- दे. लट्ठे । एम्मेवर पृथियौड - कोपण के १२वीं शती ई० के एक शि. ले. में उल्लिखित, उसी नगर के निवासी, और रामराजगुरु माघनंदि सिद्धान्तचक्रवर्ती के गृहस्थ शिष्य तथा मादण दंडनायक द्वारा निर्मार्पित जिनालय मे चौबीसी प्रतिमा प्रतिष्ठापित करने वाले बोप्पण का पिता और मलवे का पति धर्मात्मा राज्याधिकारी । [ देसाई. ३८० ] अपभ्रम्श महाकवि पुष्पदन्त के आश्रयदाता और राष्ट्रकूट कृष्ण तू. के जैनमन्त्री भरत के पिता । [ जैसाई. ३१६; प्रमुख. १०९ ] पोसवूर में जिनालय बनवाने वाले मोरकवशो आययगाबुंड का पुत्र और पोलेग (१०२६ ई०) का पिता ये लोग चालुक्य जगदेकमल्ल प्र० के जैन सामन्त थे । [ जंशिसं. iv. १२५] afrefus के प्रभु (शासक) और देशीगण के शुभचन्द्रदेव के गृहस्थ शिष्य ने १११२ ई० में बनकेरे के पार्श्व जिनालय की पूजार्चा के लिए भूमि आदि का दान दिया था । [ जंशिस. २५३; एक. vii. ९७ ] एरकाट्टि सेट्टि होयसल बोर बल्लाल के राज्यकाल के एक दान-शासन में उल्लिखित धर्मात्मा श्रेष्ठ, जिसका अनुज माचिसेट्टि, भतीजा कालिसेट्टि था- • कालिसेट्टि का पुत्र उदारदानी बम्मय था । [जैशिसं. ii. २१८; एक. xii. १०१] या एरिकोटि, अमोघवर्ष प्र० के ८६० ई० के कोनूर शि. ले. के अनुसार सम्राट के प्रधान सेनापति जंन वीर चेल्लकेतन बखूश या वायरस का पितामहं और कोलनूर के राजा घोर का पिता, तथा वीर मुकुल का पुत्र, राष्ट्रकूट वधारा वर्ष का सचिव व सेनानायक । [जैशिसं. ii. १२७ ए. vi ४; एयण एरकरण- उल्लिखित after frenesकुरत्ति का एक शिष्य साधु । [वेसाई. ६७ ] एरकोटि भाइ ३०३; प्रमुख. १०४ ] एरिकोटिगोड ल० १२०० ई० में नागरखंड के कणसेगि का धर्मात्मा दानो जैन सामन्त । [प्रमुख. १३२] १५४ ऐतिहासिक व्यक्तिकोश Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एरमंदि एरहगोड एरिनि एरेकप एरेग एरेगंक एरेगङ्ग एरेमय्यएरेब १. होयसल युवराज एरेयङ्ग, बल्लाल प्र० और विष्णुवर्धन के पिता का अपरनाम, एरमस्टप । [शिर्स 1. १४४ ] २. सौन्दति के रट्टवंश में उत्पन्न एक जैन राजा, कसकर का पुत्र, वाचा का अनुज [जैशिसं. ii. २३७] ३. दानशीला रानी पटियम्बरसि का ज्येष्ठ पुत्र, एक्कलरस का भानजा । [प्रमुख. १७० ] उपनाम नरतोंग पल्लवरेयन, जिसने, ल० ११०० ई० में, तमिल देशस्थ तण्डपुरम् की जैनवसति के लिए दान दिया था। [जैशिसं. iv. २२५ ] बंदलिके के १२०३ ई० के शि. ले. में उल्लिखित नागरखंड का एक प्रमुख जैन, मल विल्ले का प्रशासक एरहगोड । [प्रमुख. १३२] चेरवंशी जैन नरेश अतिमान का पूर्वज वजि का राजा । एरेप [जेसिस. iii दे. एरेमथ्य । दे. एरेमय्य, तथा दे. एरेयंग कदम्ब नरेश । होयसलों के धर्मात्मा नगरसेठ सोविसेट्टि (११७८ ई०) का ४३४] [ जैशिसं. iv. १६५ ] renteral प्रपितामह। [ प्रमुख. १६२ ] जिनधर्मी गंगवंशी नरेश रायमल्ल प्र० एरेगंग (७१३-७२६ ई०) जो शिवमार नवकाम का पुत्र एवं उत्तराधिकारी था। [प्रमुख. ७५] दे. एरेयमय्य । गंगवंशी जैन नरेश, जिसके समय, ल० ९०० ई० में, एलाचार्य के समाधिमरण करने पर उनके शिष्य कल्नेलेदेव ने उनकी गमाथि बनवाई थी । [जैशिस iv. ७६ ] या एरेयम्प गंगनरेश ब्रूतुम द्वि. का पुत्र और राजमल्ल का पिता । अमोधवर्ष तु० की पुत्री रेवक्का का पति, ल० ९६० ई० । दे. एरेय, तथा एयप्रस । [जैशिख. iv. ९६ एरेयमम्य - एरेमम्य, एरेग या एरेकप, चालुक्य विक्रमादि षष्ठ के पुत्र एव मे. १०५ ] वायसराय जयसिंह का महासामन्त एवं महाप्रचंड दण्डनायक, जिसके अनुज दानवीर दोन ने सेनगण के आचार्य नयसेन के ऐतिहासिक व्यक्तिकोश १५५ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिव्य नरेन्द्रसेन को, १०८१ ६० में, दानादि दिये थे । एरेबय्य उस समय पुलिगेरे ( लक्ष्मेश्वर) का शासक भी था। [ जंशिसं. iv. १६५ ] एरेयंग (एरेयङ्ग)- १. गंगनरेश शिवमार संगोत का भतीजा, विजयादित्य [ का पुत्र, रायमल्ल का पिता । जैशिखं. ॥ २१२; iv. ९६ ] २. एरेयङ्ग, एरेगङ्ग, एरेयप्प, एरेय, एरंग, एलेरेगंग आदि नामरूपों से उल्लिखित गंगनरेश नीतिमागं प्र० कोगुणिवर्मन, जो रायमल्ल प्र० सत्यवाक्य का पुत्र, गुणदुतरंग बूलुग का पिता । इस धर्मात्मा शूरवीर जननरेश ने पल्लवों को पराजित किया था । अत: रणविक्रम भी कहलाता था। इसका समय ८५३८७० ई० है । संभवतया कल्लेदेव द्वारा एलाचार्य की समाधि इसी के समय निर्माणित हुई थी। [प्रमुख. ७७-७८: भाइ २६९; शिसं . १४२, २१३, २६७, २७७, २९९; मे. १७३] १५६ ३. एरेय एरेयंग ( या ररेगंग) कोमरबेडंग नीतिमार्ग हि. उपरोक्त एरेगंग नीतिमागं प्र० का पौत्र, रायमल्ल सत्यवाक्य का भतीजा, पल्लवराज को लूटनेवाले गुणदुसरंग वृतुग का अमोधव प्र. की कन्या राजकुमारी चन्द्रबलम्बे ( अब्बलब्बा) से उत्पन्न पुत्र, वीर बेडंग नरसिंह सत्यवाक्य का पिता, कच्चेयगंगराचमल्ल और ब्रूतुग द्वि. (९३६ ई०) का पिता । यह महेन्द्रान्तक भी कहलाता था, राज्यकाल न० ९०७-९१७ ई० । [प्रमुख. ७८; भाइ २६९; शिसं. ii. १४२, २१३, २६७, २७७, २९९ ] ४. होयसल विनयादित्य द्वि. (१०६०-११०१ ई०) का पुत्र, युवराज एरेमग महाप्रभु गगत्रिभुवनमल्ल, युवराशी एचलदेवि का पति, बल्लाल प्र०, विष्णुवर्धन और उदयादित्य का पिता, बुद्धिमान कुशल राजनीतिज्ञ एवं प्रशासक, शूरवीर योखा, देशीयगण के गोपनंदिपडितदेव का गृहस्थ शिष्य । पिता के राज्य का वास्तविक सचालक पिता के बीवनकाल में अथवा तुरन्त पश्चात मृत्यु हुई । उसने अन्य अनेक धार्मिक कार्यों के अतिरिक्त, १०९३ ई० में श्रवणबेलगोलस्थ चन्द्रगिरि के जिना ऐतिहासिक व्यक्तिकोश Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सयों आदि के द्वार के लिए स्वबुक को ग्राम दान किये थे। [बाइ ३४२: प्रमुख. १३६: एक. . १४८; शिसं - ५३, एरेवबेगएरेंग्य ५६, १२४, १३०, १३७, १३८, १४४, ४९१, ४९२, ४९३४९५; iv. २१२, २४६, २७१, २८२, ३७६; मेजं. ७६,७७, १३८ ] ५. दान चिन्तामणि धर्मात्मा रानी चट्रियम्बरसि (चट्टले ) और राजा दशवर्मा का पुत्र, केशव का अग्रज, गंगनरेश मारसिह का दौहित्र और एक्कलभूप का भानबा, fareक्त राजकुमार११३९ ई० के लेस में उल्लिसित । [ जैशिसं. iii. ३१३; एक. viii. २३३] ६. कदम्बवंशी राजा हृदुव का प्रपौत्र, कूत का पौत्र, चिष्ण का पुत्र एरेयंग प्रथम । [ जैशिसं. iv. १६९-१७० ] ७. उपरोक्त एरेयंग प्र० का पोत्र मोर चिण्ण द्वि का पुत्र, जिसके राज्यकाल में, १०९६ ई० में देशीगण के आचार्य रविचन्द्र सैद्धान्त के उपदेश से माचवेगन्ति द्वारा जिनालय के लिए भूमिदान दिया गया था। [ जैशिसं. iv. १६९-१७० ] एरेयंनमय्य -- सर्वाधिकारी-सेनापति दंडनायक, जो होयसल नरसिंह प्र० के सेनापति ईश्वरभूप (११६० ई०) का पिता था । १४६-१४७; प्रमुख. १५३] दे. एलेवबेडंग । [मेजं. वातापी के पश्चिमी चालुक्य वंश के रणपराक्रमाङ्क महाराज (संभवतया वंश संस्थापक जयमिह प्रथम का पुत्र रणराग) का पुत्र और सत्याश्रय का पिता । भुजगेन्द्रान्वयो सेन्द्रवंशी राजा कुन्दशक्ति के पुत्र दुर्गशक्ति द्वारा लक्ष्मेश्वर के शंखजिनेन्द्रचैत्यालय के दान शासन में उल्लिखित, ल० छठी शती ई० । ये सेन्द्र राजे चालुक्यों के सामन्त थे । [जैशिसं. ii. १०९; इंए. vii. ३८] एप्परस पेमंड गंगनरेश ने, न० ९०० ई० में पेर्मनडि-पाषाण-वसदि के लिए कोमारसेन भटार को विविध दानादि दिये थे। संभवतथा एरेयंग (न० ३) से अभिन्न है, लेख उसके राज्यप्राप्ति से पूर्व कुमार काल का प्रतीत होता है। [जैशिस ii. १६८; एक. iii. १४७; मे. ९५] ऐतिहासिक व्यक्तिकोश १५७ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एन एलवराय- दे. एलवराय | या एल, एक राजा, जिसका कुष्टरोम शिरपुर (जि० बकोला) के अन्तरीक्ष पार्श्वनाथ जिनालय के कुंए के जल से स्नान करने सेलर हो गया था, ऐसा कहा जाता है । [ बसाइ २२७; अकोला गजेटियर ] एलवासुंड - जिसने दोणगामुण्ड के साथ, वातापी के पश्चिमी चालुक्य नरेश कीर्तिवर्म (राज्यान्त ५६७ ई०) के सामन्त, पाण्डीपुर के राजा मावति को सहमति से राजमान्य जिनेन्द्रभवन की पूजार्था के लिए परलूरगण के प्रभाचन्द्र गुरु को चावल आदि दान किये थे । [जैशिसं. ii. १०७; ईए. xi. १२० ] एलवाचार्य गुरु- कोण्डकुन्दान्वय के कुमारनन्दि भट्टारक के शिष्य और उन वर्षमान मुनि के गुरु जिन्हें, ८०७-८०८ ई० में, चामराजनगर ताम्रशासन द्वारा राष्ट्रकूट गोविन्द तु० जगतुंग के अनुज 'रणावलोक' कम्भराज ने अपने पुत्र शंकरगण को प्रार्थना पर गगराजधानी तालवननगर (तलकाड) को सुप्रसिद्ध श्री विजयबसदि के लिए बदनगुप्पे नामक ग्राम दान किया था। [ प्रमुख. ७७, १००; ; भाइ, २९८; जैशिसं. iv. ५४ ] - दे. एलाचार्य । एसाइरिय- दे. एलाचार्य । [ प्रवी.. १२३ ] एलाचार्य १५८ १. मूल संचाग्रणी कुन्दकुन्दाचार्य (६ ई० पू०-४४ ई०) का अपरनाम, जो तमिल भाषा के प्राचीन संगम साहित्य में अति प्रसिद्ध है - इन्होंने तमिलवेद रूपो विश्वविख्यात नीतिशास्त्र कुरलकाव्य को अपने शिष्य तिरुवल्लवर द्वारा मदुरा के संगम में प्रस्तुत कराया था। [ जैसो. १२१, १२६; प्रमुख. ६९; भाइ २३७; जैशिसं ॥ ५८५ मेजं. २४०-२४१] २. भवल- जयभवलकार स्वामि वीरसेन (ल० ७१०-७९० ई० ) के विद्यागुरु, जिनके सानिध्य में, चित्रकूटपुर (चित्तौड़ दुर्ग ) में स्वामी ने ल० ७४०-७५० ई० में, सिद्धान्त शास्त्र का अध्ययन किया था। [ जैसो. १०६, १८८; प्रवी. . १२३] ३. एलाचार्य या हेलाचार्य, ज्वालमालिनी मन्त्रशास्त्र के मूल बाविष्कर्ता, ल० ७०० ई० । वह आचार्य तमिलनाड के उत्तरी ऐतिहासिक व्यक्तिकोश Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाट जिले के पोपुर ग्राम के निवासी-इसी का परका हेमयाम था। [देसाई. ४७, ४८, १७२; प्रवी. i. ९१] यह अविसंच के आचार्य। ४. एमाचार्य, या एलवाचावं, वर्षमानगुरू (८०८९०)* मुरु और कुमारनंदि के शिष्य। -दे. एलवाचार्य। ५. एलाचार्य, जिनके समाधिमरण के उपरान्त, ल. ९०० ई. में, उनके शिष्य कल्नेलेदेव ने, गंगनरेश एरेय (एरेयंग था एरे. पप्प) के समय में उनकी निषवा स्थापित की भी। [शिस. iv.७६; मेज. १७३] ६. सूरस्थगण के एलाचार्य, जिन्हें ९६२ ई० में गंगनरेश मार. सिंह लि. ने अपनी जननी कल्लम्बे द्वारा निर्धापित चिनालय के लिए ग्राम दान किया था। इनके गुरु रविनवि, गुरु रविचन्द्र जो स्वयं कल्नेसेदेव के शिष्य और प्रभाषन्द्र योगीश के प्रशिभ्य थे। [शिसं. iv. ८५; v. १७] ७.देशीगण-पुस्तकगच्छ के श्रीधरदेव के शिष्य एलाचार्य जिनके शिष्य वामनंदि और चन्द्रकीति थे, प्रशिष्य दिवाकरनंदि थे -दिवाकरनदि के शिष्य जयोति अपरनाम चान्द्रायणीदेव के, ल. ११.०६. के शि. ले. में उल्लिखित। [शिसं.. २४१; एक. iv. २८; मेजं. २४.] ८. एलाचार्य मलधारिदेव, जो पूर्णचन्द्र के शिष्य और दामनंदिके शिष्य श्रीधराचार्य के शिष्य थे, और जिनके शिष्य चन्द्रकोनि तथा प्रशिष्य वह दिवाकरनंदिसिदान्तदेव थे जिनकी शिष्या नायिका बेसम्बेगन्ति को १०९९६० में दान दिया गया था -२०७ से अभिन्न प्रतीत होते हैं। इन्हीं के शिष्य शुभचन्द्र ने १०९३६० में समाधिमरण किया था। पुलिस. ii. २३९, २३२] ९. १४वीं शती के एक लि. ले. में अमरकीति से पूर्ण उल्लिक्षित एनाचार्य। [शिसं. iv. ४.३] १०. श्रीधराचार्य के शिष्य, को संस्कृत में गणित संग्रह बन्ष के कर्ता है, ल. १.१.ई.। ऐतिहासिक व्यक्तिकोश Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन केरल का जिनधर्मी चेर नरेश, ल.१००००। उसके बंश में कई पीढ़ियों तक जैन धर्म की प्रवृत्ति रही-यम-यक्षियों को भक्ति विशेष रही। [रेसाई.४४, ४५, ७८] एलेवरंग- या एरेवबेडंग, राष्ट्रकूट इन्द्र चतुर्ष (मृत्यु ९८२०) को उपाधि। [शिसं. i. ५७; ii. १६४] ऐष ऐचिष्टि जैनधर्मावलम्बी हैहयवंशी राजा, लोकप्र.का पौत्र, बानेग प्र. का पुत्र, बिज्ज प्र.का पिता, ल. ११०० ई. । [देसाई. २१५, ३.६] -इस नाम के इस वंश में और राजा हुए प्रतीत होते हैं। दे.ऐचभूप एवं एचरस । जिसके पुत्र रामिसेट्टि ने को एरम्बर्गेवाड का सेट्टिगुत्त (प्रधान श्रेष्ठि) या और मूलसंध-बलात्कारगण के कुमुदेन्दु (आचार्य कुमुदचन्द्र) का गृहस्थ शिष्य था, ल. १२०० ई. में समाधिमरण किया था। [शिसं. iii. ४४४] दे. खारवेल। [प्रमुख.५३-५९] दिग., प्राकृत ग्रन्थ सम्यक्त्व प्रकाश के रचयिता. ल.११००ई०। पलाशपुर का महावीर भक्त राजकुमार -महावीरकालीन । [प्रमुख. २०-२१] ऐलवारवेल- ओ बोला मोनारिक श्रावक भगिनी (साध्वी), मोखारिका की पुत्री, संभवतया शकपहलव मादि विदेशी जातीय जैन महिला, प्राचीन मथुरा के ल. दूसरी शती के शि. ले. में उल्लिखित। [शिसं. ii. c८] की पत्नी और दमित्र की पुत्री दत्ता ने १६२६. में मथुरा में वर्षमान प्रतिमा स्थापित की थी। [शिसं. iv. १५] को पुत्रियों बोखा और उमतिका ने मथुरा में, वर्ष २९९ या ९९ में महावीर प्रतिमा प्रतिष्ठापित की थी। [क्षिस. ii. ८८] मोबारित १. ऐतिहासिक व्यक्तिकोष Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोव--- औधनग्य ओजण श्रेष्ठि जिनने, वर्धमान (१५४२ ई०) के उल्लेखानुसार गेहसोप्पेनगर के मध्य में विराजित भव्य नेमि - विनालय पूर्वकाल में वनबाया था। [ प्रसं. १३७] एक शि. ले. मैं ओजण के प्रपौत्र और कल्लपश्रेष्ठि एवं मावाम्बा के पुत्र अजनश्रेष्ठि द्वारा tator aratsafe के ललितकीर्ति के शिष्य देवचन्द्रसूरि के उपदेश नेमि जिनकी प्रतिमा प्रतिष्ठापित की थी । [जंशिसं. iv. ५३८] कनडकवि, कव्विगरकाव्य (११७० ई०) का प्रणेता । होयसल नरसिंह प्र० एवं बल्लाल द्वि. द्वारा पराजित एक प्रमुख शत्रु राजा । [जैशिसं . . ९०, १२४, १३० ] अपरनाम श्रीविजयपंडितदेव जो द्रविड़गण-नन्दिसंच-मरंगला - न्वय के आचार्य कनकसेन वादिराज के शिष्य थे, पुष्पसेन, दयापाल और बादिराज (१०२५ ई०) के ज्येष्ठ सघर्मा थे, बोर अजितसेन वादी सिंह, श्रेयांसदेव, कुमारसेन तथा कमलभद्र के गुरु, और मल्लिषेण मलपारि (स्वर्ग. ११२६ ई०) के प्रगुरु थे । [जैशिसं. 1. ५४; प्रमुख. १७५] ओडेयमसेट्ठि — ने स्वगुरु अनन्तवीर्यदेव के उपदेश से जिनप्रतिमा को गलि में प्रतिष्ठापित की थी। [जैशिसं. iv. ६१६] ओडन- ओष ओडमरस- हुमच का जैनधर्मी सान्तर नरेश आचार्य अजितसेन बादसिंह का गृहस्थ शिष्य, वीरदेव सान्तर और कञ्चलदेवी का पुत्र, चट्टनदेवी का पोष्यपुत्र, तेल, गोग्णि एवं बम्मं शान्तरों का भाई । इसका अपरनाम विक्रम सान्तर था, प्रतापी धर्मात्मा नरेश बा, ल० १०७७०८७ ६० [शिसं. iii. ३२६; प्रमुख. १७२, १७४ ] ओडव्य- ओरोप आर्य बोच, मथुरा के वर्ष २० (सन् १० ई०) के जैनले. में उल्लिखित कोट्टिबगण ब्रह्मदा सियकुल- उच्च नागरीशाला के ares referent के शिष्य और आदत के गुरु । [वि. ii. ३१] दे. ओहनन्दि । ओडेमदेव ओहम-मोमरस- दे. मोड ऐतिहासिक व्यक्तिकोष २६ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोवेवमट्टि - अनन्तवीर्यदेव के शिष्य ने कोयल में जिनप्रतिमा की स्थापना की थी। [जैशिसं, iv. ५६७ ] मोकलबायगर ने गंगनरेश शिवमार नवकाम के राज्य में, स० ६७० ई० में, एक जिनमंदिर के लिए क्षेत्र दान किये थे। मंदिर के afroorat चन्द्रसेनाचार्य थे। [वैशिसं. iv. २४; प्रमुख. ७४-७५ ] मोहनदि या ओोधनन्दि, प्राचीन मथुरा संघ के वामिककुल से सम्बद्ध, आचार्य सेन के शि. ले. में उल्लिखित । [ जैशिसं औ मोरंगजेब-- मुगल बादशाह (१६५८-१७०७ ई०) जैन साहित्योल्लेखों में बहुधा मोरंगसाहि या अबरंगसाहि रूप में उल्लिखित । दे. अवरंगसाहि । [ भाइ ५१६-५२९ ] मोलुक्य रोहगुप्त- दार्शनिक कणार का अपरनाम, स्थानांगसूत्र में उल्लिखित । मोवार मौबे अं अं आचार्य, वारणगण-पेतिगुरु – १२५ ई० के दो . ४७, ४८ ] १६२ [मे. २२० ] एक महान आर्यिका और तमिल भाषा की प्रसिद्ध कवियत्री, कुरलकाव्य प्रणेता तिरुवल्लवर की बहिन थी, ल० प्रथम शती ६० । [टांक. ] माता बौने मूलतः एक जैन राजकुमारी थी, जो बालब्रह्मचारिणी रही और अपनी निःस्वार्थ सेवा, सुमधुर वाणी, नीतिपूर्ण उपदेशों और कवित्व के लिए तमिल भाषियों के लिए स्मरणीय एवं पूजनीय बनी हुई हैं इस आर्यिका माता का समय ल० प्रथम शती ई० है शायद उपरोक्त ओववार से अभिन्न है । [ प्रमुख. ७०] सौन्दसि के रट्टनरेश कार्त्तवीर्य प्रथम का पौत्र महासामंत अंक, जिसने २०४८ ई० में, चालुक्य सोमेश्वर प्र० के समय में एक ऐतिहासिक व्यक्तिकोश Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनालय के लिए भपिसाव किया था। [देसाई. ११४ जैमि. iv. २०९] गरिब मल्लिखेट्टि- नामक धर्मात्मा जैन सेठ ने चालुक्य सोमेश्वर तु.के राज्यकाल में,कई अन्य जैन व्यापारियों के सहयोग से, न. ११७५-७६१.में,गोलिहल्ली में विशाल बिमालय बनवाया पा। और उसके लिए भूमि बादि का दान दिया था। शायद यह पेठ अंगडिका निवासी था। दान बलात्कारपण के नेमिचः भट्टारक के शिष्य वासुपूज्य मट्टारक को दिया गया पा। [देसाई. ११७; गैशिसं iv. २१.] अंगरिक-कालिसेष्टि- ११८५६० के श्रवणबेलगोस के शि. ले. में उल्लिखित बसुविसेट्टी द्वारा प्रतिष्ठापित चतुर्विशति-तीर्थकरों की पूजार्चा के लिए दान देने वाला एक बानी श्रावक सेठ -नामान्तर बङ्गरिक भी। वैशिसं. .. १६१] अंगारगण- स्वयंभू छन्द (ल.८०.ई.) में उल्लिखित प्राकृत भाषा का पूर्ववर्ती कवि। [जैसाइ. ३८४] अंतिग एक पल्लव नरेश, जिसे राष्ट्रकूट कृष्ण तृ. (९३९-९६७६०) ने पराजित किया था- देवली के सि. ले. में उल्लिखित । [जैसाइ. ३२३] ऐतिहासिक क्तिको Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट अ कलंक प्रसाद, बी०ए०-- दिगम्बर जैन मुखफ्फरनगर (उ० प्र०) निवासी, स्वतंत्रता सेनानी, १९४२ ई० में जेलयात्रा की थी। [ उ. प्र. नं. ८५] मगरचन्ध माहटा (१९११-१९८३६०), बीकानेर (राजस्थान) के सम्पन्न areerut शंकरराव नाहटा के सुपुत्र, प्रसिद्ध साहित्यान्वेषक, विद्वान, लेखक, सम्पादक, कलाकृतियों तथा पुरानी पांडुलिपियों के बोजी एवं संग्रहकर्त्ता, 'समाजग्रन', 'जैन इतिहास रत्न', 'विद्यावारिधि', 'सिद्धान्ताचार्य' जैसी मानद उपाधियां प्राप्त, बीकानेर की नाहटों की गुवाड़ में स्थित अपने भवन में 'अभय जैन पुस्तकालय' तथा 'श्री शंकरराव नाहटा कला भवन के संस्थापक, जिनमें स्वयं के परिश्रम से विपुल उपयोगी सामग्री का संग्रह किया, साधिक ४० पुस्तकों के रचयिता सम्पादक तथा साविक ४००० प्रकाशित लेखों के लेखक, अनेक जैन एवं जनेतर साहित्यिक, सांस्कृतिक, धार्मिक एवं सामाजिक संस्थाओं से सम्बद्ध, समाजचेता श्वेताम्बर सदगृहस्थ एवं साहित्य साधक । जन्मतिथि १३ मार्च १९११. स्वर्गवास १२ जनवरी. १९८३ ई० । अभिनन्दन ग्रन्थ भी प्रकाशित हुआ है ( भाग - १ सन् १९७६ ई० में, भाग-२ सन् १९७८ में बीकानेर से ) । मलसिंह सेठ आगरा निवासी श्रीमत ओसवाल, गांधीवादी स्वतन्त्रता सेनानी, अनेक बार जेलयात्राएँ को, २५ वर्ष तक स्वतन्त्र भारत को लोकसभा के सदस्य रहे, राष्ट्रसेवा में अनेक उत्तरदायित्वपूर्ण पदों पर कार्य किया, अनेक राष्ट्रीय, सामाजिक, सांस्कृतिक संस्थाओं एवं योजनाओं से सम्बद्ध, शिक्षा प्रेमी, उदार, दानी, लोकप्रिय राजनेता, नागरिक एवं सज्जन । जन्म ५ मई, १८९५ ई०, स्वर्गवास ८८ वर्ष की परिपक्व आयु में २२ दिसंबर १९८३ ई० । इन्होंने १९२८ में अचलग्राम सेवा संघ की स्थापना की थी, १९३५ में अचलट्रस्ट तथा पुस्तकालय की, ऐतिहासिक व्यक्तिकोष १६४ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ } और दानशीला नर्मसी भगवती देवी द्वारा प्रदत्त अढ़ाई साथ ० के दान से भगवती देवी शिक्षा समिति को स्थापना की, जिसके द्वारा एक कालिय एक हायर सेकेन्डरी विद्यालय, एक प्रायमरी शाला तथा एक बालमंदिर चलाये जा रहे हैं। १९७४ में भारत के राष्ट्रपति ने इन्हें अभिनन्दन ग्रन्थ भेंट किया था । अजित कुमार, पंडित, शास्त्री-- जन्म आगरा जिले के चावलो ग्राम में १९०० ६०, स्वर्गवास २० मई १९६८ ई० शान्तिवीर नगर महावीर जी में, १९२४ से १९४७ तक मुस्तान में रहे, अध्यापकी, व्यापार और प्रेस में संलग्न रहे । देश के विभाजन के समय सहारनपुर मा गये, तदनंतर दिल्ली में रहे अन्तिम दो वर्ष उदासोन श्रावक के रूप में शान्तिवीर नगर -महावीर जी में रहे । अच्छे विद्वान, ओजस्वी वक्ता, उद्भट् शास्त्रार्थी, जंगगजट, जैन दर्शन आदि कई पत्रों के वर्षो सफल सम्पादक रहे, सत्यार्थदर्पण (स्वा० दयानन्द कृत सत्यार्थप्रकाश का प्रत्युत्तर) तथा सत्पथदर्पण, अनेकान्त परिचय, दैनिक जीवनचर्या आदि लगभग एक दर्जन पुस्तकों के रचयिता [दिवस. १८०-१५१] अजित प्रसाद (१८७४-१९५२ ई०), 'अजिताश्रम' (गणेशगज, लखनऊ ) के जिन्दल गोजीय अग्रवाल, दिग. जैम ला० देवीदास जैन के सुपुत्र, एम. ए., एल. एल. बी., वकील, लखनऊ में सरकारी वकील तथा जावरा- राज्य में जज भी रहे। बड़े समाजचेता, सज्जन थे, स्व० बज जगमदरलाल जैनी, कुमार देवेन्द्रप्रसाद ( आरा), ब्र. शीतलप्रसाद, बेरि, बम्पतराय, महात्मा भगवानदीन आदि के साथी एवं सहयोगी, ऋषभ ब्रह्मचर्याश्रम हस्तिनापुर सेन्ट्रल जैन पब्लिशिग हाउस, मा. दि. जैन परिषद मादि के सस्थापकों मे से थे, लगभग दो दशक अग्रेजी जंनगजट के सम्पादक एव प्रकाशक रहे, पुरुषार्थसिद्धयोमाय, अमितगतिकृत द्वात्रिंशिका, गोम्मटसार (कर्मकांड-भा० २) आदि के अग्रेजी अनुवाद किये, देवेन्द्रचरित, व सीतल आदि कई पुस्तकें तथा स्वयं का आत्मaft 'अज्ञात जीवन' लिखी । अपने समय मे दिग० जन ऐतिहासिक व्यक्तिकोश १६५ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज के प्रमुख प्रबुद्ध नेतामों में परिगणित। जन्म १. अप्रैल १८७४, स्वर्गवास १७ सितम्बर १९५११०। अमित प्रसाद मंग- (१९०२-७७६०), एम. ए., एल-एल. बी., वकील, सहारनपुर में बकालत की, स्वतन्त्रता सेनानी के माते बेलयाषाएँ भी की, कुशल राजनेता, उत्तर प्रदेश तथा केन्द्र की राजनीति में उल्लेखनीय स्थान रहा, १९३६.४७ में विधानसभा के सदस्य, तदनन्तर संविधान निर्मात्री परिषद के एकमात्र जैन सदस्य, लोकसभा के सांसद, राज्यसभा के सदस्य, प्रान्तीय कांग्रेस के अध्यक्ष, केन्द्रीयमग्निमंडल के सदस्य, केरल के राज्यपाल, आदि अनेक उत्तरदायित्वपूर्ण पदों पर कार्य किया। गूंगे-बहरे बच्चों के लिए एक स्कूल स्थापित किया। अनेक बार विदेश यात्राएं को। मतरसेन जंग, बी.ए- सदर मेरठ निवासी स्व. वा. गिरवरसिंह रईस के पोष्यपुत्र थे, जो १९२० ई. के लगभग सपत्नीक जापान चले गये थे, और जापानी नागरिक बनकर वहीं बस जाने वाले शायद प्रथम न थे। क्रान्तिकारी रासदा, नेताजी सुभाषचन्द्र बोस आदि से सम्पर्क रहे। जापानयात्रा करने वाले भारतीय जैन विद्वानों एवं संस्कृतिसेषियों का भातिथ्य उत्साह से करते थे। पतरसेन बसमक्त'- मेरठ (३०प्र०) निवासी ला० अतरसेन जन देशभक्त' बड़े गरम गांधीवादी कांग्रेसी कार्यकर्ता थे, उर्दू में 'देशभक्त' नामक मसबार निकालते थे जो अंग्रेजी सरकार द्वारा कई बार बतहबा, १९२१ बोर १९१.१.के बाग्दोलनों में उन्होंने जेल यात्राएँ भी की। स्वतन्त्रता प्राप्ति के आसपास ही स्वतन्त्रता सेनानी का निधन हो गया था। [उ. प्र. . ८४] मतिसुबराब- वि.जन, ल. १८००ई० में श्रीपाल चरित्र की रचना को दी। [.प्र. ज. ७८] बनतीति भूमि- २.वीं शती के प्रारम्भ के मगमग दक्षिण भारत से उत्तर की बोर विहार करने वाले शायद प्रथम दिन. मुनिराज थे, बम्बई में इनके नाम से बनन्तकीति दिग. जैन अन्धमामा स्था १६६ ऐतिहासिक व्यक्तिको Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पित हुई थी, जिससे बनेक प्राचीन ग्रन्थ प्रकाशित हुए, बोर जिसके मन्त्री सेठ राजमल बड़जात्या (विदिता) थे । अनन्त प्रसाद जैन 'लोकपाल', प्रो०- दिन जैन, संस्कृति-साहित्य- समाब सेवी, पटना के इंजीनियरिंग कालेज के अध्यक्ष पद से अवकाश लेकर गोरखपुर (उ० प्र०) में मा बसे थे, वहाँ ८० वर्ष की आयु में, ३० मई १९८६ ई० को उनका निधन हुआ । चैन feared की वैज्ञानिक व्याख्या करने में निपुण थे, हिन्दी और अंग्रेजी में अनेक लेल ट्रैक्ट एवं पुरुनकें लिखकर प्रकाशित को या कराई। अनन्तबेला चैरिटेबल ट्रस्ट की स्थापना की, वैशाली एवं पावानगर ( फाजिलनगर-सठियांव डीह, जिला देवरिया) तीर्थों का अपूर्व उत्माह से प्रचार किया । व्र० शीतल प्रसाद के अनन्य भक्त, अ० वि० जैन मिशन के सहयोगी, ओर ती. म० स्मृति केन्द्र लखनऊ के प्रेमी थे । [शोधादनं २. २७] अनन्तमाला जैन -- मेरठ के ख्यातिप्राप्त अध्यापक तथा जैन बोडिंग हाउस मेरठ के मूल संस्थापक मा० उग्रसेन कंसल की पुत्री, बा० पारस दास जैन की पुत्रवधु, विद्यावारिधि डा० ज्योतिप्रसाद जैन की धर्मपत्नि और डा० शशिकान्त एवं रमाकान्त जैन को जननी श्रीमती अनन्तमाला जैन (जन्म अक्तूबर १९१२, स्वर्ग. ५ अप्रेल १९५६ ई०) धार्मिक प्रवृत्ति की स्वाध्यायशील विदुषी महिला थीं, और अनन्त ज्योति विद्यापीठ लखनऊ की संस्थापिका थीं, जिसके अन्तर्गत अन्य सांस्कृतिक, शैक्षिक एव सामाजिक प्रवृत्तियों के अतिरिक्त कान्त बाल केन्द्र नामक बाल-विद्यालय लखनऊ में १९७० ई० से सफलता पूर्वक चल रहा है। मूलत: केकड़ी निवासी दिग. जैन, पण्डित, न्यायतीर्थ, आयुर्वेदाचार्य, कुशल वैद्य, मानवभूमि के धार्मिक-सामाfre क्षेत्र में लोकप्रिय, महावीर फार्मेसी उज्जैन के संस्थापक, आयुर्वेद महाविद्यालय की स्थापना में प्रेरक, विक्रम विश्वविद्यालय के प्रमुख सदस्य । [ विद्वत् १९३] धारा (बिहार) के लब्धप्रतिष्ठ संस्कृति-साहित्य-समाजसेवी रईस स्व० वा० देवकुमार जी की धर्मपानी स्व० ब्रह्म अनन्तराज शास्त्री. पं० जपमालादेवी, ४० ऐतिहासिक व्यक्तिकोश १६७ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिणी बनूपमाला देवी, अपनी देवरानी न.पंडिता चन्दाबाई बोको सहयोगिनी, दानशीला, संयमी, पारमा महिला थीं। उन्हीं के सुपुत्र स्व. वा. निर्मलकुमार एवं चकेवर कुमार थे। बैमा सम्पन्न एवं भरापुरा परिवार रहते भी उन्होंने अपना सुदीचं वैधव्य उदासीन प्रतिमाघारी श्राविका के रूप में बिताया। अमयपना, पति- जनदर्शनाचार्य, वायुर्वेदाचार्य, काव्यतीर्थ, अन्म १८९५ ई०, भानगढ़ (जिला सागर, म. प्र.) के परवार जातीय बासल्लगोत्री नाथूराम मोदी के सुपुत्र । दिग. जैन धार्मिक विधान, उत्साही अध्यापक एवं कुशल बंग, संस्कृत प्रेमी। कलकत्ता, वाराणसी, तथा इंदौर, जबलपुर, मोरेना बादि म.प्र. के कई नगरों में रहकर अध्यापन एवं वचको को। [विद्वत्. अनिमावन कुमार टांगा- ललितपुर के सेठ मथुरादास टईया के भतीजे बभिनंदन कुमार टईया ललितपुर-झांसी के प्रसिद्ध वकील रहे, सन् ४२ के भारत-छोड़ो मान्दोलन में सक्रिय योग देकर १ वर्ष की जेलयात्रा और १०० रु. अर्थदण्ड भोगा। [उ.प्र. ज. ९४] बमीरचन राक्याम- जन्म अमृतसर १९०० ई०, दिल्ली में निवास १९२२ २३ से, सफल व्यापारी एवं अच्छे समाजसेवी श्वे. सद्गृहस्थ, प्यारेलाल राक्यान के पुत्र। [प्रोग्रे. ११०] अमोलकचनमकील- वाराणसी निवासी इस युवक वकील ने सन् ३० का द्वितीय स्वतन्त्रता संग्राम प्रारम्भ होते ही समस्त राजनैतिक मुकदमें मुफ्त लडे, फलतः ब्रिटिश शासन की निगाहों मे जेल में हुए अत्याचारों के भण्डाफोड़ को लेकर इन पर मुकदमा चलाया गया और ५०० ६० जुर्माना किया गया। सन् ३७ में श्री गोविंदवल्लभ पंत की अध्यक्षता में हुए जिना राजनीतिक सम्मेमन के प्रधानमन्त्री बने, सन् ३८-३९ में संयुक्तप्रांत के शिक्षा. मंत्रीबा. संपूर्णानद के निजी मषिय रहे, और सन् ४२ में व्यक्तिमत सत्याबह मे भाग लेकर मासका कारावास तथा १०.२० अर्थदण्ड भोगा। [उ.प्र.जे. ९६] अमृतलाल चंचल'-- माडरवारा (म०प्र०) निवासी, तारमपंथी-समैया जैनी, ऐतिहासिक व्यक्तिकोष Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाय. 'कविभूषण', वाणीरत्न' अमृतलाल चंचल (१९१३-१९८७ १०), सुकवि, सुलेखक, स्वतन्त्रता सेनानी, बसाम्प्रदायिक चिन्तक, प्रगतिशीम सुधारक, कई नाटक, मूल्य-माटिकानों, कहानियों एवं कविता संग्रहों के बेशक, पार्मिक ग्रन्थ भी लिखे है, उनकी तारम-त्रिवेणी प्रसिड कृति है। [तारण बन्धु, फर्वरी २८, पृ. ११-१४] मम्बावास बरे कील- २०वीं शती के प्रारंभिक दशकों में महाराष्ट्र के अकोला मावि क्षेत्रों के प्रसिद्ध सुधारवादी प्रगतिशील जैन नेता थे। अम्बाबास शास्त्री, पं0- कासी के नेतराह्मण पंडितपयर और न्यायशास्त्र के शीर्षस्थ विद्वान असाम्प्रदायिक मनोवृत्ति के ऐसे उदारममा विद्वान थे कि जब, वर्तमान मती के प्रारम्भ में, स्व. गणेश प्रसाद वर्णी को जैन न्याय पढ़ाने से काशी के सभी पंडितों ने इंकार कर दिया था, तो उन सबका कोपभाजन बनने की परबाहन करके. उक्त शास्त्री जी ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। फलस्वरूप स्यावाद महाविद्यालय की स्थापना हई और शास्त्री जी जीवनपर्यंत उसके सफल न्यायाध्यापक बने रहे। उनके प्रसाद से उक्त विद्यालय ने अनेक जैन न्यायाचार्यो एवं न्याय शास्त्री जन पंडितों को जन्म दिया। [वित्. १७५] अम्बालाल सारामाई-- (१८९०.१९६७ ई.), अहमदा के सुप्रसिद्ध उद्योगी तथा समानता श्वे. जैन सेठ, बनेक बौद्योगिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्थानों से सम्बद्ध, बंग्रेज सरकार से कैसरहिंदस्वर्णपदक प्राप्त, १९३० में महात्मा गांधी की गिरफतारी पर वह पदक सरकार को वापस कर दिया, स्वातंत्र्य बांदोलन में कांग्रेस को प्रभूत बार्षिक योग दिया। अंतराष्ट्रीय राजनीति के भी पंडित थे। [प्रोगे. २३-२४] अयोध्याप्रसाद नोबली-प्रायः बाल्यावस्था से ही दिल्ली में रहे, स्वतंत्रता सेनानी, सुधारक समाजसेबी, मेखक, कवि एवं पत्रकार, भा. दि.जैन परिषद के कर्मठ कार्यकर्ता, भारतीय ज्ञानपीठ के साहित्य विभाष में सेवारत, जामोदय के सम्पादक, उर्दू शायरों ऐतिहासिक व्यक्तिकोष १९९ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के कई कवितासंग्रह संकलित करके प्रकाशित कराये, मौर्यसमाज्य के जैनबीर, राजपुताने के मबीर, न जागरण के अग्रदूत बादि ऐतिहासिक पुस्तकों के लेखक, समाजसुधार बादि विषयों पर लगभग एक दर्जन बन्य छोटी-बड़ी पुस्तकें लिखीं। लगभग ७. वर्ष की वायु में सहारनपुर (उ.प्र.) में २९ अक्तूबर १९७५ को स्वर्गवास हुना। परहवाल - पानीपत (हरयाणा) निवासी पं. मारहदास (जन्म.१८९६, स्वर्ग. २५ मार्च १९३३ ई.) बर्जुनलाल, पं०- २०वौं शती ई. के प्रारम्म के लगभग हुए, बहुषा कलकत्ता में रहे, गोम्मटसारादि करणानुयोग के ग्रंथों के गम्भीर अध्येता एवं निष्णात पंडित। अर्जुनलाल सेठी, पंडित- जन्म जयपुर में ९ सितम्बर १८८०६०, स्वर्गवास बजमेर में २२ दिसम्बर १९४१ई। दिल्ली निवासी भवानीदास सेठी के पौत्र, जवाहरलाल सेठी के पुत्र, जयपुर के मोहन लाल नाजिम के जामाता, विद्वान पंडित, कवि, लेखक, सुवक्ता, बहुभाषाविज्ञ, अध्यापक, पत्रकार समाजसेवी, और उग्र क्रांतिकारी देशभक्त, १९०५-१२६० के क्रांतिकारी आंदोलनों में सक्रिय रहे, अंग्रेज सरकार ने छह वर्ष बंदीगृह में बन्द रखा -उनकी मुक्ति के लिए सार्वजनिक आंदोलन चला, डा. एनी. बेसेन्ट मे भी वायसराय से सिफारिश की, बंदीगृह में देवदर्शन बिना अन्नग्रहण न करने की प्रतिज्ञा के कारण ७० दिन उपवासे रहे, महात्मा भगवानदीन के प्रयत्न से जेल में जिनप्रतिमा पहुंचाई गई तब अनशन छोड़ा। बाल गंगाधर तिलक, महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरु, सुभाषचन्द्र बोस आदि प्रमुख भारतीय नेता सेठी जी से परामर्श करते थे, १९३४ ई. में वह राजपूताना एवं मध्य भारत कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष भी चुने गये। अपने समय की नसमाज के सुधारकदल के नेताबों में परिगणित थे। उन्होंने १९.७ ई. में वर्षमान बैन विद्यालय की ओर तदनन्तर एक शिक्षण समिति की स्थापना की, जिनके द्वारा युवापोड़ी में देशभक्ति एवं क्रांतिकारी विचारों का पोषण किया जाता था। १७. ऐतिहासिक पवितकोश Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेतो बी जितने बच्चे नये, उससे बढ़कर पूर्णतया समर्पित बेधमत्त और समापसेको। इस स्वार्थत्यावी बलिबानी की जीवन-संध्या पड़ेगारिक मभाव एवं कष्टों में बीती, किन्तु पैर्यपूर्वक सब सहन किया। स्वतंत्र भारत में जयपुर की एक नवीन बस्तीको बर्जुनलाल सेठी नगर' नाम दिया गया है। [प्रोग्रेसिवः २२-२३] आ बाव कुमारी- हिन्दी के वरिष्ठ लेखक एवं पत्रकार श्री समपान जैन की धर्मपत्नी, बलोमड़ उ.प्र. के एक सात परिवार में बम्म, दिल्ली विश्वविद्यालय से प्रथम श्रेणी में एम. ए. करने के बार डेनिश सरकार द्वारा प्रदत्त फैलोशिप पर डेनमा गई और वहां माठ माह रहो। लौटने पर दिल्ली कालिन्दी कालेज में १५ वर्ष हिन्दी की प्राध्यापिका रही, तोनों विश्व हिन्दी सम्मेमनों में सम्मिलित हुई और अमेरिका, कनाडा, मारिशस, फ्रांस आदि अनेक विदेशों में हिन्दी के प्रचार प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान दिया। जैनधर्म में गहरी बभिरूचि थी और जैन समा. रोहों में बड़ी लगन से भाग लेती थी। ६९ वर्ष की आयु में अप्रेल १९८८ मे देहावसान। मादिनाब नेमिनाथ उपाध्ये, ना.- जैन सिद्धांत के पारगामी, पुरातन जैन साहित्य के गम्भीर अनुसंधिस्सु, प्राकृतभाषा एवं साहित्य के महापंडित, २०वीं पाती. के अंतरराष्ट्रीय स्यातिप्राप्त प्राच्य. विद एवं अग्रणी जैनविद्याविद, सिद्धांताचार्य डा. भाविनाय नेमिनाथ उपाध्ये का जन्म कणाटक राज्य के बेलगांव जिले के ग्राम सदलगा में, १९०६६. में हुवा था। उनके पिता नेमन्न (नेमिनाप) मोमण्ण उपाध्याय कुलपरम्परा से जिनधर्मी ब्राह्मण थे। उपाध्ये जीने १९३०१० में बम्बई विश्वविद्यालय की एम. ए. परीक्षा संस्कृत-प्राकृत में प्रथम श्रेणी में प्रथम स्थान से उत्तीर्ण की और कोल्हापुर के राजारामकालिज में अर्धमागधी के व्याख्याता, प्राचार्य एवं कलासंकायाध्यम रूप में ३२ वर्ष कार्यरत रहकर १९६२१.में वहां से अवकाश प्राप्त किया। ऐतिहासिक व्यक्तिकोष Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ उन्होंने १९३९ में डी. लिट. किया, १९४०-४३ में स्प्रिंगर शोधकर्ता रहे, कालिज से निम्रत होकर कई वर्ष यू. जी. सी. की वृत्ति पर मानद बाचार्य एवं शोध निदेशक रहे, और १९७१ से मैसूर विश्वविद्यालय में संगविधा एवं प्राकृत भाषाओं के प्राचार्य रहे- ८ अक्तूबर १९७५ ई० को वह महामतोषी स्वर्गस्थ हुआ । बलि भारतीय प्राच्यविद्या सम्मेलन में वह कई बार 'प्राकृत एवं जैनधर्म' विभाग के अध्यक्ष रहे. १९४६ में उसके पालिप्राकृत- जैनधर्म बौद्धधर्म विभाग के अध्यक्ष रहे, और उसके १९६६ में अलीगढ़ में सम्पन्न २३वें अधिवेशन के प्रधानाध्यक्ष रहे, श्रवणबेलगोल के १९६७ के अखिल कल साहित्य सम्मेलन के भी अध्यक्ष रहे। भारतीय सरकार के प्रतिनिधि के रूप में उन्होंने प्राच्यविदों की अन्तर्राष्ट्रिय कांग्रेस के कैनबरा (आस्ट्रेलिया) अधिवेशन में १९७१ में और पेरिस अधिवेशन मे १९७३ में भाग लिया, तथा ल्यूवेन (बेलजियम) के १९७४ के 'धर्म एवं शान्ति विश्व सम्मेलन' में भाग लिया। फ्रांस, जर्मनी, इंग्लैंड आदि कई देशों के विश्वविद्यालयों के आमंत्रण पर १९७३ में वहाँ जाकर व्याख्यान दिये । प्रवचनसार तिलोयपणति, कार्तिकेयानुप्रेक्षा, धूर्ताख्यान, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, शाकटायन व्याकरण, बृहत्कथाकोश, प्रभृति लगभग दो दर्जन महत्त्वपूर्ण प्राचीन ग्रन्थों के सुसम्पादित संस्करण प्रस्तुत किये, जिनकी विस्तृत प्रस्तावनाओं ने शोध-खोज के नये-नये आयाम खोले । अनेक शोधपत्र भी प्रकाशित किये और पचासों शोधछात्रों का निदेशन किया । माणिकचन्द दिग. जैन ग्रंथमाला, भारतीय ज्ञानपीठ की मूर्तिदेवी ग्रंथमाला, और शोलापुर की जीवराज ग्रंथमाला के प्रधानसम्पादक तथा जैन सिद्धांत भास्कर जैना एन्टीक्वेरी आदि शोध पत्रिकाओं के सम्पादक रहे। अपने मधुर सद्व्यवहार एवं उन्मुक्त सहयोग भाव के लिए वह अपने अग्रज, साथी, और कनिष्ट विद्वानों में लोकप्रिय रहे। वर्तमान युग में जनविद्या (जैनालाजी ) तथा उसको शोध प्रवृत्ति को सम्यक् रूप एव स्थान प्राप्त कराने में स्थ० डा० उपाध्ये जी का महत्वपूर्ण योगदान है । ऐतिहासिक व्यक्तिकोष Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मदीश्वर प्रसाद दिल्ली जिवाको दिर. भगवान समाजसेवी (१९१९१९०९६०), उमराह चैन के सुपुत्र कंग मित्र मंडल, बढ़मान पुस्तकालय, सी. चार, जैन ट्रस्ट, चैनसभा, दि. जैन पंचाक्त, बरसेवा मन्दिर, जैन विद्यामंदिर आदि दिल्ली की अनेक सामाजिक-सांस्कृतिक संस्थाओं के साथ सक्रियरूप में सम्बद्ध साहित्य प्रकाशन एवं प्रचार में विशेष सप्ताह । [लो. १०६-१०७] आदीश्वरलाल जैन, रा० खा० (१०९९-१९१० ई०), दिल्ली के दिव० अग्रवाल प्रसिद्ध वकील एवं समाजनेता रा. डा. प्यारमान के सुपुत्र, सांभर झील के सरकारी खकांची, सेन्ट्रल बैंक की कई वाओं के कोशाध्यक्ष, भारत बैंक के डायरेक्टर, नगर महापालिका के सदस्य, मान• मजिस्ट्रेट, दिल्ली विश्वविद्यालय, हिन्दु कालिय इन्द्रप्रस्थ कन्या महाविद्यालय बनायरक्षक सोसाइटी, दिन० जैन पंचायत, चैन मित्रमंडल आदि अनेक संस्थाओं से सम्बद्ध, राज्यमान्य समाजचेता श्रीमत । [ प्रोग्रे २५] मानन्द कुमार जंग - जिला रामपुर (उत्तर प्रदेश) के एक प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता थे। वह एडवोकेट थे। भूतपूर्व रामपुर रियासत में वह वित्त मंत्री और वहां की शिक्षा समिति के अध्यक्ष रहे थे । वह जिला परिषद् रामपुर के भी अध्यक्ष रहे थे । [हेल. डाय, पृ ११६] आगमा प्रकाश जैन- जिला मुजफ्फर नगर (उत्तर प्रदेश) के निवासी थे । इन्होंने सन् १९४२ के [३० प्र० जैन, पृ० ८८ ] १४६० ई० में 'कल्पसूत्र [कुशल निर्देश, वजे १९८८, ये क्रान्तिकारी दल के सदस्य थे। मान्दोलन में बेल यात्रा की थी। राजस्थानी जैन यति । इन्होंने सन् बालाastu' की रचना की थी। पृ. ३७] मासयम--- इ शास्त्री, डा०- बाबवाली मण्डी, जिला हिसार (हरयाणा) में ३० जून, १९१२ को जन्म । आरजिक शिक्षा उर्दू में तदनन्तर १७३ ऐतिहासिक व्यक्तिको Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ** सेठिया विद्यालय बीकानेर में संस्कृत बोर प्राकृत का अध्य सन् १९२६ में बंगाल संस्कृत एसोसियेशन कलकता से जैनधर्म पर 'न्यायतोर्थ' परीक्षा उत्तीर्ण की। सन् १९३० में स्यादवाद महाविद्यालय, वाराणसी और सन् १९३१ में बनारस विश्वविद्यालय के बोरियन्टल कालेज में प्रवेश लेकर वेदांत, संस्कृत और भारतीय दर्शन का सम्यक अध्ययन किया और सन् १९३७ में 'वेदान्ताचार्य' की परीक्षा प्रथम स्थान प्राप्त कर उत्तीर्ण की। सन् १९४०-४४ के दौरान सेठिया इन्स्टीट्यूट, बीकानेर में साहित्य एवं शोध के प्रधान के रूप में कार्य करते समय जैन आगम वीर नागमोत्तर साहित्य का सार प्रस्तुत करने वाले 'श्री जैन सिद्धांत बोम संग्रह' की आठ खण्डों में रचना की। सन् १९४३ में संस्कृत से प्रथम श्रेणी में एम. ए. किया । सन् १९४४-४८ में वैश्य कालेज, भिवानी में प्रबक्ता रहे। अक्तूबर १९४७ में पार्श्वनाथ विद्याश्रम, वाराणसी से शोध छात्रवृत्ति प्राप्त कर भारतीय एवं पाश्चात्य दर्शनों का निरपेक्ष भाव से तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन प्रस्तुत करने वाला ७०० पृष्ठ का शोध प्रबन्ध लिखा जिस पर उन्हें डाक्टरेट की उपाधि प्राप्त हुई ree fruits में कार्य करते समय उन्होंने दाणंनिक जैन साहित्य का इतिहास भी लिखा और मासिक पत्र 'श्रमण' का शुभारम्भ किया। उनके निबन्ध 'भारतीय संस्कृति को दो धाराएं' ने बौद्धिक जगत में खलबली उत्पन्न की। सन् १९५३ में वह रामजस कालेज, दिल्ली में तथा सितम्बर १९५७ में दिल्ली विश्वविद्यालय के स्नातकोत्तर विभाग में प्रवक्ता नियुक्त हुए वहां जुलाई १९५९ में स्नातकोत्तर अध्ययन (सायंकालीन) संस्थान बनने पर उसके विभागाध्यक्ष बने, किन्तु वृष्टि चले जाने के कारण उन्हें शीघ्र ही उसे छोड़ना पड़ा और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की अवकाश प्राप्त प्रोफेसरों के लिये योजना के अन्तर्गत कार्य किया । प्रमुख भारतीय पत्रपत्रिकाओं मे हिन्दी, संस्कृत और अग्रेजी में अनेक लेख और शोध-पत्र प्रकाशित करने के अतिरिक्त १२ ग्रयों के सुखक सन् १९५४-५८ में अखिल भारतीय संस्कृत साहित्य सम्मेलन के ऐतिहासिक व्यक्तिको Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . मंत्री व १९६४ में आम इडिया ओरिए feet अमेजन के मंत्री तथा १९५२-५७ में 'भारतीय संस्कृति' । ३ नवम्बर, १९०६ को ७४ वर्ष की आयु में निधन [प्रो जैन, पृ. ७९ नं. प्र. १६-११-६६ ] इगाचा शास्त्री, पं०मा० दि० जैन संघ, मथुरा के साथ उसके एक परम उत्साही कर्मठ कार्यकता के रूप में प्राय: प्रारम्भ से ही सम्बद्ध रहे । 'न सन्देश' पुत्र के सम्पादन प्रकाशन नादि में प्रभूत योग दिया। धर्म का अच्छा ज्ञान रखने वाले विद्वान पण्डित बोर कुसल प्रचारक | सरल स्वभावी और स्नेही व्यक्तित्व वाले । २ बक्तूबर, १९७२ को निधन । इन्द्रमणि बंध- जिला मथुरा (उ० प्र०) के नगला मंसाराम ग्राम में सन् १९०१ ई० में मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी को बेसवाल जातीय दिगम्बर जैन तेरह पंथी डंडोरिया गोत्रीय धार्मिक एवं विद्वान परिवार में बिन्द्रावनवास और पांचीबाई के पुत्र रूप में जन्म। हिन्दी, उर्दू अंग्रेजी और संस्कृत में शिक्षा प्राप्त की; धर्म का गहन अध्ययन किया और आयुर्वेद के प्रकाण्ड पण्डित बने । वैद्य जी को आयुर्वेद की सेवाओं के लिये 'मिवम्बर' और 'आयुर्वेद वाचस्पति' की उपाधियां मिली। कविता और निबन्ध लिखे जो अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए । 'माता' (गद्य), 'जैन विवाह पद्धति' (गद्य) और 'इन्द्रनिदान' (पक्ष) इनको प्रकाशित रचनाए हैं । 'द्रव्य संग्रह' का हिन्दी छंद में अनुवाद भी किया। 'जैसवाल जैन' और 'जनपद मायुर्वेदीय सम्मेलन' पत्रिकाओं के सम्पादक भी रहे। अनेक शिक्षण एवं स्वास्थ्य संस्थाओं की संस्थापना की तथा अनेक संस्थानों में महत्वपूर्ण पदों से जुडे रह कर असंख्य रोगियों को निश्शुल्क औषधि प्रदान कर एवं असहाय निर्धनों की सहायता कर समाज सेवा का अत्युतम कार्य किया। जैमवान जैन महासभा ने इन्हें 'बासिरल' की उपाधि से विभूषित किया। जीवन में धष्ट विद्या, प धीर की aft की और चार सुयोग्य पुत्रों के जनक बने । अभि., . १९७-१९८ ] [ ऐतिहासिक व्य Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Pासारखी, पं०- २१ सितम्बर, १८९७.श्रेयपुर (राजस्थान) में मानीलाल जी और हीराली पुलाम । शास्त्री' एवं साहित्याचार्य' परीक्षाएं उत्तीर्ण की। विद्यालंकार', 'धर्म दिवाकर' सबा परवीर' उपापियों से विभूषित हुए। भाजीविका हेतु अनेक स्थानों पर शिक्षण कार्य एवं अन्य बनेक व्यवसाय किये। सुकवि, सुलेखक, सुबक्ता और धोपदेशक के रूप में ख्याति प्राप्त । धर्म सोपान, हिसा तत्व विवेक मंजषा दिन साकी पर्वा नपर्म सर्वथा स्वतन्त्र धर्म बन मन्दिर और हरिवन, अयोमार्ग, वर्णविज्ञान, जैन धर्म और जाति, तत्वालोक, बारम भव, महावीर देखना, पुण्य धर्म मौमांसा, भावनिङ्गि लिङ्गि मुनि का स्वरूप, साम्यवाद से मोर्चा, भारतीय संस्कृति का मूलरूप, पशुवध सबसे बड़ा देशद्रोह, मन्दिर प्रवेश मीमांसा, रात्रि भोजन, शान्ति पीयूषधारा, भक्ति कुसुम संचय बादि कृतियों की रचना और पंचस्तोत्र, आत्मानुसासन एवं स्वयंभूस्तोत्र का हिन्दी पचानुवाद किया। मंबरी. लाल बाकलीवालस्मारिका तथा सोलमाल न हितेच्छ, जैन गजट, समार्ग और अहिंसा पत्रों का सम्पादन किया। ७३ वर्ष की आयु में २२ नवम्बर, १९७० को देहावसान। [विद्वत् अभि., पृ. १९५-१९६] उ पोन - मुजफ्फर नगर (उत्तर प्रदेश) निवासी स्वतन्त्रता सेनानी थे। इन्होंने सन् १९१९ में कांग्रेस में कार्य किया। गांधी जी के बामन्य भक्त रहे। इनके परिवार में शादी का ही प्रयोग होता रहा। सन् १९३०और १९१२बाम्दोलनों में जेल यात्रा की मोर सन् १९४१-४२ में नजर बन्द रहे। [उ. प्र. जैन, पृ. ८०] उसनम, स- मेरठ में ला. बनारसीदास बम सूतबाने के वितीय सुपुत्र बोर मा. मित्तर सेन के बगुब। अख, सुधरवादी विचारधारा के व्यक्ति। मिशनरी स्कूल में गोपी के अध्यापक । १७१ ऐमितिकको Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाद में अपना स्वयं का स्कूल चलाया । छोपयोगी भनेक पुस्तकें लिखी और निर्धन छात्रों को निश्शुल्क शिक्षण दिया । महात्मा गांधी के आन्दोलन से प्रभावित रहे। सादा सरल जीवन व्यतीत किया। जैन सभा मेरठ के सक्रिय सदस्य गौर जैन बोर्डिंग हाउस मेरठ के संस्थापकों में रहे । नवम्बर १९३५ ई० में स्वर्गवास | इनकी पुत्री बनन्तमाला का विवाह डाe ज्योति प्रसाद जैन से १२ फरवरी १९२९ को हुवा था । जन्म ६ फरवरी १८९४ स्वर्गवास १८ नवम्बर १९७२ ६०, जन्म स्थान सरधना, शिक्षा मेरठ में हुई, कार्यक्षेत्र बड़ौत, दिल्ली, काशीपुर, कानपुर आदि समाजसेवव्रतो धुन के पक्के कार्यकर्त्ता, सुधारक एवं शिक्षाप्रचारक, मा० दिग० जैन परिषद के एक स्तंभ, उसके भा०वि० चैन. परिषद परीक्षा बोर्ड के, उसकी १९३० में स्थापना से लेकर १९७० ई० पर्यन्त मन्त्री एवं संचालक रहे, उसकी सफलता एवं उपलब्धियों का मुख्य श्रेय उन्हें ही है, स्कूली व कालिजी छात्रairs में धर्म शिक्षा के प्रचार हेतु अनेक योजनाएं चलायीं । परिषद के समाजसुधार के कार्यक्रमों में सदा मागे रहे। अनेक विद्वानों को सतत् प्रेरणा देकर अनेक उपयोगी पुस्तकें लिखवाई और प्रकाशित कराई, जिनमें डा० ज्योति प्रसाद चैन कृत 'भारतीय इतिहास : एक दृष्टि', रुहेलखंड कुमायूँ जैन डायरेक्टरी, आदि मुख्य हैं । पत्र व्यवहार में निरालसी थे । स्व० ब्र० शीतल प्रसाद जी के विशेष भक्त थे । उग्रसेन जंग, मास्टर (परिषद)-- 1 उपसेन जैन, वकील- रोहतक (हरयाणा) निवासी । धर्म ग्रन्थों का अच्छा ज्ञान रखने वाले पण्डित प्रबुद्ध विचारक, समाज सुधारक और सक्रिय कार्यकर्ता रहे । मा० दि० जैन परिषद् परीक्षा बोर्ड के वर्षो मन्त्री रहे और अनेक छात्रोपयोगी धार्मिक पुस्तकें लिखी । उनलेग जंग, सौदागर - मेरठ के दिग० जैन, अग्रवाल गगंगोत्रीय एक कुशल व्यापारी । धर्मात्मा और सरल-सात्विक वृति वाले। इन्होंने हस्तिनापुर के दिग० चैन मन्दिर में मामस्तम्भ के निर्माण में प्रभूत आर्थिक सहयोग दिया अन्य धार्मिक एवं सामाजिक कार्यो में भी बराबर योग देते रहे । इनके पुत्र शीतल प्रसाद से डा० ऐतिहासिक व्यक्तिकीच १७७ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्योति प्रसाद की भगिनी मैनावती विवाहो यो । इनके पीत्र, विशेषकर हुकमचंद जैन, माज भी जैन समाज मेरठ के धार्मिक एवं सामाजिक कार्यों में सक्रिय कार्यकर्ता है । उत्तमचन्द वकील, वरार- जिला आगरा ( उ० प्र०) के निवासी । सन् १९३६ से राष्ट्रीय क्षेत्र में अधिक प्रकाश में आये और बिला कांग्रेस कमेटी के सदस्य तथा मण्डल कांग्रेस कमेटी के पदाधिकारी रहे । किसानों का संगठन किया । सन् १९४० के आंदोलन में नजरबन्द किये गये और लगभग एक वर्ष जेल में रहे । पुनः सन् १९४२ के आंदोलन में ९ अगस्त, १९४२ को गिरफ्तार किये गये और मई १९४४ में छोड़े गये । [ उ० प्र० जे०, पृ० ९२] उदय न कामो श्वेताम्बर जैन विद्वान पण्डित ६४ वर्ष की आयु में २७ नवम्बर, १९७७ को निधन । उदयमान कासलीवाल, पं० १९वीं शती के अन्तिम तथा २०वीं के प्रारंभिक दशकों में सक्रिय साहित्यसेवी, कवि एवं लेखक, दर्जनों संस्कृत की प्राचीन रचनाओं, विशेषकर कथाओं के हिन्दी गद्य में अनुवाद किये, साहित्य प्रचार का बड़ा उत्साह था, बहुधा बम्बई में रहते थे । उमरायसिंह बंग- जन्म रोहतक (हरयाणा) में १८९१ ई० में, स्वर्गवास दिल्ली में ३० जनवरी १९५४ ई०, दिल्ली में बैंक में कार्यरत रहे, बड़े समाजसेवी थे, १९१५ ई० में जैन मित्रमंडल के प्रमुख संस्थापकों में से थे, चिरकाल उसके मंत्री रहे, उसके माध्यम से अनेक पुस्तकें, ट्रैक्ट आदि प्रकाशित कराये, बड़े पैमाने पर महावीर जयन्ति उत्सव मनाने का सफल अभियान चलाया जैन arrerश्रम आदि अनेक संस्थानों से सम्बद्ध रहे । [ प्रो. ६१-६२ ] उमराव सिंह टांक- दिल्ली निवासी ओसवाल, बी. ए., एस-एल. बी. वकील . समाजसेवी, इतिहास प्रेमी और लेखक थे, १९१४ बौर १९१० ई० के बीच उनकी कई ऐतिहासिक पुस्तिकाएं अंग्रेजी में प्रकाशित हुई, यथा 'जेना हिस्टोरी कलस्टडीज' (१९१४), 'डिस्टिंविश्व ओसवाल्स एंड बोसवाल फेमिलीड', 'दी बंना कानो ऐतिहासिक व्यtिaste १७६ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोको', 'ए क्रीिमान बायोको (केबस बार ')' (१९९७), 'डिस्टिंग्विस बैंस' (१९१८), संबोष उत्तरी का बनुयाय, बादि। -१९२० १० के कुछ उपरान्त स्वर्गवास हो मया लगता है। उमरासिंह, पंडित- बीसवीं शती ई. प्रारम्भिक दशकों में जमीन पति के प्रगतिशील एवं सेवाभावी विद्वान थे, स्यावाद विद्यालय वाराणसी के साथ वर्षों सम्बद रहे। उल्फत राष- जिला मुजफ्फरनगर (उ० प्र०) के निवासी। सदा शुद्ध सादी का प्रयोग किया। सन् १९३०, १९१२ १९४२ के स्वतन्त्रता आंदोलनों में जेल यात्राएं की। [उ.प्र.जे., पृ.८८] उल्फत राब- जिला गुड़गांव (हरयाणा) में २८ जुलाई, १८९६ को बम्म । गणेशीलाल जैन के पुत्र। पालियामेन्ट पोस्ट माफिस में पोस्टमास्टर के पद पर कार्यरत रहे। धार्मिक और सामाजिक कार्य कर्ता। नई दिल्ली में जैन बदरहर, नसभा, दिगम्बर बन बिरादरी और बैन क्लब के संस्थापक सदस्य तथा जैन मित्र मण्डल के सक्रिय सदस्य । जैन क्लब तपाबन कोवापरेटिव बैंक लिमिटेड के अध्यक्ष निर्वाचित । दक्षिण दिल्ली में ग्रीन पार्क कालोनी का विकास किया और वहां की कल्याण समिति के मंत्री तथा वहां के बैन गल्स स्कूल के उपाध्यक्ष रहे। सन् १९६२ में चीन के पाक्रमण के उपरान्त सिविल डिफेन्स कार्य किया और पोस्ट वार्डन बने। सन १९६५ पाकिस्तान बाक्रमण के दौरान अपने क्षेत्र में सेक्टर पान का कार्य किया। ७२ वर्ष की बायु में १६ अगस्त, १९६८ को निधन हुमा। होम्योपैथिक डाक्टर के रूप मे रोपियों को निशुल्क औषधि वितरित की। एक कुचल पुसबार और तैराक भी थे। गेहएं रंग, सस्मित बदम, मदुभाषी, उदारमना, सौम्य व्यवहार बाने उल्फतराय बी जेन ही नहीं नेतर मित्रमण्डली में भी लोकप्रिय रहे और यह सम्मान के साथ किबला साहेब' के नाम से पुकारे जाते थे। अपने पीछे सुशिक्षित एवं सुप्रतिष्ठित ४ पुत्र व २ पुत्रियां छोड़ी। [.., पृ. ३०७-३०८] ऐतिहासिक व्यक्तिकोष Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपने समय के एक कुशल इंजीनियर । रुड़की की नहर को बनाने का श्रेय राय बहादुर की उपाधि से सम्मानित | सेवानिवृत्ति के उपरान्त मेरठ नवर में बसे । सरल स्वभावी, उदारमना, धार्मिक वृति के व्यक्ति । ढल्कतराय, रा० सा०- दिल्ली के प्रतिष्ठित व्यक्ति । रायसाहब की उपाधि से सम्मानित | धर्मात्मा और सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता । अयोध्या मोर हस्तिनापुर दिग. जनतीर्थ क्षेत्रों के प्रबन्ध से तथा अन्य अनेक सामाजिक, धार्मिक संस्थाओं से वर्षों तक जुड़े रहे । ६७ वर्ष की आयु में ११-९-१९७९ को निधन । उल्कतराय इंबी०, ० ० E थम चरण १५० - १ जनवरी, १९११ ई० को ग्राम सराय सदर (वर्तमान नोएडा) जिला बुलन्दशहर (उत्तर प्रदेश) के मध्यवर्गीय प्रतिष्ठित दिगम्बर जैन परिवार में जन्म हुआ । ग्यारह वर्ष की मायु में दिल्ली के प्रस्थात वैरिस्टर चम्पतराय द्वारा पौत्र रूप में दत्तक लिये गये । बहुमुखी प्रतिभा के धनी । सन् १९२५ में 'महारथी' में प्रकाशित 'मिट्टी के रुपये' पहली कहानी से साहित्य जगत में प्रवेश । पैंतीस वर्ष की आयु तक पैंतीस पुस्तकों को रचना की। अपनी कहानियों और उपन्यासों के माध्यम से सामाजिक कुरीतियों का भण्डाफोड़ करने का क्रान्तिकारी कार्य किया। उनकी बहुचर्चित कृतियां- 'दिल्ली का कलंक', 'दुराबार के अड्डे', 'चम्पाकली', 'तीन इक्के', 'वेश्यापुत्र', 'बुर्केवाली', 'मयखाना', 'मन्दिरदोष', 'जनानी सवारियाँ' आदि हैं। मौलिक रचनाओं के अतिरिक्त ड्यूमा मोर साल्सताय के कई कथा प्रवों का सफल अनुवाद किया जिनमें 'कंदी', 'कंठहार', 'बादशाह की बेटी', 'वस्त्रकारी', 'महापाप' बोर 'देवदूत' उल्लेखनीय हैं। 'चित्रपट' और 'सचित्र दरबार' के सम्पादन द्वारा पत्रकारिता के क्षेत्र में नये मानदण्ड स्थापित किये। सन् १९२८ में 'साहित्य मण्डल' नामक प्रकाशन संस्था स्थापित की ओर सन् १९४२ में फिल्म व्यवसाय में भी प्रवेश किया, ऐतिहासिक व्यक्ति कोच Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किन्तु में सफल रहने से इन्हें गहरा भक्तक पहुंचा। ७४ वर्ष की आयु में दिल्ली में ७ व्यस्त, १९८६ को इन्होंने महाप्रयास किया । [ऋषम चरण की सच प्रकाशित पुस्तकें ]. धमदास मुस्तार--- स्वाध्याय प्रेमी सामाजिक और धार्मिक कार्यों में सक्रिय रूचि रखने वाले, मूलतः सोमो के निवासी, जीवन का बहुभाग मेरठ नगर और सहारनपुर में व्यतीत करने वाले । मेरठ के बा० सालमन दास के भक्त अवस्त १९६५ में ९२ वर्ष की में निधन । वायु वनवास का एक प्रख्यात समाजसेवी; सुलेखक; पत्रकार एवं राजनैतिक कार्यकर्ता | खानदेश (महाराष्ट्र) के ग्राम फतेपुर में ३ सितम्बर १९०३ को जन्म । फतेपुर, जामनेर, जलगांव, बर्षा, पूना और बम्बई इनकी कार्यस्थली रही । १४ वर्ष की आयु से पैतृक वस्त्र व्यवसाय में हाथ बटाना आरम्भ किया । कृषि और डेरी कार्य भी किया और तदनन्तर इंश्योरेन्स कम्पनी में उच्च पदों पर कार्य किया । महात्मा गांधी के साथ सावरमती आधन में रहकर कार्य किया। आचार्य विनोबा भावे, सेठ जमनालाल बजाज और श्री केदारनाथ के साथ मिलकर कार्य किया। सन् १९३१-३२ के 'नमक आयोजन वा सन्१९४२ के भारत फोटो मान्दोलन' में चाय लेने के कारण अनेक बार जेलयात्रा की । खादी और ग्रामोत्थान, हरिजन कल्याण, को संरक्षण, कस्तूरबा स्मारक बीर गांधी स्मारक के लिये कार्य किया । सन् १९४६ से भारत जैन महामण्डल में सक्रिय हुए और सन् १९४८ से मृत्युपर्यन्त उसके मासिक पत्र 'जैन जगत' का सफल सम्पादन करते रहे। सन् १९६८-७१ में कवित हारतीय अचूत धमिति के उपाध्यक्ष बीर उसके पाक्षिक 'अणुव्रत' के सम्पादक रहे। महावीर कल्याण केन्द्र की जोर से विकि राज्यों में सूबे और बाढ़ से क्षेत्रों का स्वयं दोरा कर प्रभावित व्यक्तियों को चाने की व्यवस्था की । [ प्रो. ., . ९५] सामान तुरम्य पहुँ ऐतिहासिक तोड १५१ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनवास, वकील दिग०, गोयलनोत्रीय भग्रवाल, सा० सूरजभान के सुपुत्र, सा० मनूलाल जंग बैंकर के अग्रण, १८९६ में बी. ए. और १८९९ में वकालत पास की, अंग्रेजी में इनवाइट इन्ट् जेनिज्म लिखी तथा परमात्म प्रकाश मोर पुरुषार्थसिद्धयुपाय के अंग्रेजी अनुवाद किये, जैनधर्म में परमात्मा, अहिंसा, जैनधर्म का महत्व, वर्ण व्यवस्था, जैन फिलासफी आदि कई पुस्तकें हिन्दी और उर्दू में लिखी, पं० टोडरमल कृत मोक्ष मार्ग प्रकाश का सरल भावातरण हिन्दी और उर्दू में छपवाया, जैनगजट (अंग्रेजी), जैनगजट (हिन्दी), जैमप्रदीप (उर्दू). चैनमित्र, जैन जमत बादि पत्रों में तीनों भाषाओं के सैकड़ों लेख छपे, १९११ ई० में मेरठ जैन बोरिंग हाउस के संस्थापकों में से थे और जीवन पर्यन्त उसके मन्त्री रहे, ऋषभ ब्रह्मचर्याश्रम हस्तिनापुर, भारत बनमहामंडल, म० भा० दिन जैन परिषद, दि० जैन महासभा नादि से सक्रिय रूप से सम्बद्ध रहे, समाजसेवी, सुधारक, शिक्षा प्रचारक, शान्त प्रकृति के सज्जन थे । जन्म मेरठ १८७१ ६०, स्वर्गवास मेरठ २४ मई १९३० ६० । ए ए० चक्रवर्ती नयनार, प्रो०-- तमिल, प्राकृत, संस्कृत और अंग्रेजी के सुज्ञाता एवं विद्वान सुलेखक, पंचास्तिकायसार आदि जैन महाग्रम्थों के सफल अंग्रेजी अनुवादक और सम्पादक तथा तमिल जैन साहित्य के सुप्रसिद्ध अन्वेषक | राम्रो बहादुर की उपाधि से विभूषित महास में प्रोफेसर, बाई० ई० एस० के सदस्य । १२ फरवरी, १९९० को निधन । १८२ ए० बी० लट्ठे, दीवान बहादुर महाराष्ट्र प्रदेश के प्रबुद्ध जैन जन-नेता थे । अंग्रेजी शासन में उसति करके उन्होंने दीवान बहादुर की उपाधि पायी तो देव-सेवा एवं कांग्रेस आन्दोलन में भाग लेकर बम्बई राज्य के प्रथम मन्त्रिमण्डल में सम्मिलित हुए। जैनधर्म पर अंग्रेजी में कुछ पुस्तकें भी उन्होंने सिकीं । [ प्रमुख ऐति, पू. ३६४] ऐतिहासिक व्यक्तिको Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एबावारी- कर्नाटक क्षण मारा पिके केयर पाम में मई १५९४ में मनामाराणसी मादि में शिक्षा प्राप्त को, बंगलोर में बरे, बम्बई रेल्ला पत्रालाल दि. जैन सरस्वती भवन और पूना के मंगरकर प्राच्यविद्या मंदिर में शोधकार्य किया, प्राकृत, संस्कृत, कर बोर हिन्दी के विधान, अनेक मानद उपाधियां, बर्षपदक, पुरस्कार प्रादि प्राप्त किये, मक मात्र जोनिपार को प्रकाश जाये, पटसंगम का कार मनुवाद किया, अन्य कई अन्य निजे, समर्पित साहित्यसेवी पिवान। प्रो. ओ मोम प्रकाशन, कोरे- मेरठ नगर के मोबस गोत्रीय भावान विनम्र बन गणेशीलाल कसेरे के पौष संवा विशम्भर सहाय नुस्तार के ज्येष्ठ पत्र नसमा मेरठरसक्रिय कार्यकता और नमि बन गोषधालय मेरठ के मंत्री रहकर नगर पानिकसामाजिक कार्यों में प्रभूत योग दिया। एकबोवस्वी व्यक्तित्व पाने स्वावलम्बी सफल गृहस्प। बनवरी १९५३६० में वर्ष वास। मोन प्रमान- पाराणसी के सुप्रतिष्ठित अपवाल परिवार में ६-२-१९५५ को पम्म; शिक्षाविद् की पुत्री बोर १९५१ में ग. के. सी. बंग से विवाही; एम. ए. (अंग्रेजी साहित्य) और एम-एस.बी. तक शिक्षा प्राप्त; सन् १९४७ से १९७२ दौरान पार बार पहले अविभाजित पंजाब राज्य और तदनन्तर हरयाणा राज्य में कंबल विधान सभा क्षेत्र से विधान सभा सदस्या निर्वाचित पंजाब राज्य में १९६२-६३ में उपमंत्री तथा १९६५-६६ मंत्री गौर हरयाणा राज्य में १९६६-६७ तथा १९६८-७२ तक मंत्री (वित्तविभाग) रही। बनेका राजनैतिक, बोचोमिकक्षिण और सांस्कतिक संगठनों से सम्बट रही। इंगलैड, डेनमार्क, पश्चिम जर्मनी, कांस, स्विटबरम और रोम बावि विदेशों का प्रमण किया। सामाजिक, रापतिक एवं वार्षिक विषयों ऐविशासिक पतिको Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अं अंगूरी देवी जैन--- जागरा के प्रसिद्ध साहित्यकार एवं स्वतन्त्रता सेनानी श्री महेन्द्र जो जैम की धर्मपत्नी । सन् १९३० के आन्दोलन में ६ मास की कड़ी सजा पाई। हर राष्ट्रीय आन्दोलन में सहयोग दिया । सन् १९४०-१९४२ के आन्दोलनों में रिलीफ आदि कार्यों में भाग लिया । २० मई, १९६८ को देहावसान हुआ । [उ. प्र. जैन, पृ. ८९ ] कथानक मस्लेकर.- १. संदर्भ-ग्रन्थ संकेत-सूची अने. पर हिन्दी और अंग्रेजी दोनों ही गानों में बाबर लेखिका कला, साहित्य और संगीत में रूचि रखने वाली स्वभाव, मुकी महिला [जो. बं. पू. २१६] उ. प्र. - संकेत सूचियां आदि पु. बारा./ बारात. सु. - जैन सिद्धान्त भवन बारा में संग्रहीत ग्रन्थों की सूची । इंडियन एन्टीक्वेरी | ई. ए. ३. पु. Pr 'अनेकान्त', बीर सेवा मंदिर सरसावा / दिल्ली की आवधिक शोध-पत्रिका | पं० बनारसीदास (१६४३ ई०), आत्मचरित । डा० ए० एस० अल्लेकर कृत 'राष्ट्रकाटज एण्ड वेभर टाइम्स, पूना, १९३४ ई० । जिनसेन स्वामि (८३७ ई०) कृत 'नादिपुराण', भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, द्वारा प्रकाशित संस्करण । गुणभद्राचार्य (ल० ८५० ई०) कृत 'उत्तरपुराण', भारतीय ज्ञानपीठ संस्करण । उत्तर प्रदेश मोर जैनधर्म', डा० ज्योति प्रसाद जैन कृत, ज्ञानदीप प्रकाशन, लखनऊ, द्वारा १९७६ ६० में प्रकाशित । एपीफ़ी इंडिका । ऐतिहासिक व्यक्तिको Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए. एड. आई एक. -- फास. इंसे. इंडि. $14. काहि. - कुराल. गुच. aro गुलाबचन्द्र चौधरी कृत 'पालिटिकल हिस्टरी बाफ नर्दर्न इंडिया फ्राम जैना सोर्सेज', सोहन लाल जैनधर्म प्रचारक समिति अमृतसर, १९६३ ई० । गोम्मट. कर्म. -- गोम्मटसार-कर्मकाण्ड, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, दिल्ली नोवसीय - 'जीकल सर्वे काफ़ इंडिया-रिपोर्ट' । 'quarter कर्णाटका' 'price ofव चरिते', राम्रो बहादुर बार नरसिंहावर कृत, बंगलोर । कास इन्सक्रिप्शनम् इंडिकेरम । डा० कस्तुरचंद कासलीवाल कत जैन ग्रन्थ भण्डाराज इन राजस्थान, जयपुर, १९६७ ई० । बा० कामता प्रसाद जैन कृत 'हिन्दी जैन साहित्य का सक्षिप्त इतिहास', भारतीय ज्ञानपीठ, १९४७ ई० । श्री भंवरलाल नाहटा कलकत्ता द्वारा सम्पादित प्रकाशित मासिक 'कुशल निर्देश' । डा० कैलाश चन्द्र जैन कृत 'वेनिज्म इन राजस्थान' जैन संस्कृति संरक्षक संघ शोलापुर, १९६३ ई० । पण्डित कैलाश चन्द्र सिद्धान्ताचार्य, तथा उनका 'जैन साहित्य का इतिहास', पूर्वपीठिका, व भा० १ और २, वर्णीग्रम्यमाला वाराणसी, १९६२-७६ । चटर्जी, mempade जे आर. ए. एस. --- बर्नस बाफ दी रायल एशियाटिक सोसाइटी । जैना. - १९८०-८१ । अयोध्या प्रसाद गोलीय कृत जनजागरण के अग्रदूत', भारतीय areपीठ प्रकाशन दिल्ली, १९५२ ६० । डा० ए०के० चटर्जी कृत 'ए कम्प्रहेन्सिव हिस्टरी आफ जैनिज्म' २ भाग, कलकत्ता, १९७५ व १९५३ ई० । जैना एण्टीक्वेरी, जैन सिद्धान्त भजन मारा की अंग्रेजी बो पत्रिका | 'जेना बाप एंड बेवर वनर्स' (वेन धम्यकर्ता मौर उनके ग्राम), डा० ज्योति प्रसाद जैनकृत | ऐतिहासिक व्यक्तिकोश १५३ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बेशाह मोह वैशि बसाइ - जैसिको.-- सिमर. देसाई. मेमिच. १८६ 'dari का प्राचीन इतिहास, २ भाग, पं० वमन एवं पं० परमानन्द शास्त्री कृत, दिल्ली १९७४ । W 'जैनधर्म का मौलिक इतिहास', ४ भान, बा० हस्तीमल के निर्देशन में निर्मित प्रकाशित, जयपुर, १९७१-८७ ई० । ETE. 'एमएस एंड एन्टीक्विटीज माफ़ राजस्थान', फर्मन जेम्सटाड कृत । क./टी. यू. एस. टंक कृत 'ए डिक्सनरी बाफ जंन बायोग्रेफी', पार्ट I. ए., कुमार देवेन्द्र प्रसाद जैन, आरा, द्वारा १९१७ ई० में प्रकाशित । 'जैन - शिलालेख संग्रह', ५ भाग -प्रथम तीन भाग पं० नाथूराम प्रेमी द्वारा श्री माणिकचन्द दि. जैन ग्रन्थमाला समिति बम्बई से क्रमश: १९२८, १९५२ व १९५७ ई० में प्रकाशित, शेष दो भारतीय ज्ञानपीठ दिल्ली से १९६४ व १९७१ में; सम्पादक क्रमश: मा. I - प्रो० हीरालाल जैन, II-पं० विजयमूर्ति, III. वही, प्रस्तावना डा० गुलाबचन्द्र बोवरो की, IV-V-STO विद्याधर जोहरापुरकर पांचों भाग जब भारतीय ज्ञानपीठ दिल्ली से प्राप्य हैं। 'जैन साहित्य और इतिहास', पं० नाथूराम प्रेमी कृत, द्वि. सं., बम्बई, १९५६ ई० । 'जनेन्द्र सिद्धान्त कोश', ४ भाग, क्षु. जिनेन्द्र वर्णी कृत तथा भारतीय ज्ञानपीठ नई दिल्ली द्वारा १९७०-७३ ई० में प्रकाशित । 'जैन सिद्धान्त भास्कर', जैन feared भवन द्वारा प्रकाशित आवधिक शोध पत्रिका | 'दी बेना सोर्सेज बाफ़ दो हिस्टरी बाफ एन्जेन्ट इण्डिया', डा० ज्योति प्रसाद जैन कृत, तथा मे० मुखीराम मनोहरलाल नई दिल्ली द्वारा १९६४ ई० में प्रकाशित । पी. बी. देसाई कृत 'जैनिज्म इन सामथ इंडिया एण्ड सम बैन एपीग्राफस', जैन संस्कृति संरक्षक संघ सोलापुर द्वारा १९५७ ई० में प्रकाशित । डा० मेमिचन्द्र शास्त्री कृत 'तीर्थंकर महावीर और उनकी वाचावे ऐतिहासिक व्यक्तिकोश Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FETU. g. न्याय कुमुदचन्द्र, भा० १ - सम्पादक : डा० महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य, प्रस्तावना लेखक : पं० कैलाशचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री । विषेणाचार्य कृत 'पद्मपुराण' (६७६ ई०), भारतीय ज्ञानपीठ संस्करण | पाण्डवपु. मन्द्राचार्य कृत 'ress पुराण', जीवराजग्रन्थमाला शोलापुर संस्करण | पार्श्व. creenre faद्याश्रम शोषसंस्थान द्वारा प्रकाशित 'जैन साहित्य का बृहद् इतिहास', ७ भाग । पुत्र. /पुचैवा. पुरातन जैन वाक्य सूची' को प्रस्तावना, पं० जुगलकिशोर सुस्तार कृत, बीरसेवा मंदिर सरसावा, १९५० ई० । पद्मपु प्रका. जैसा. --- प्रकाशित जैन साहित्य', डा० ज्योति प्रसाद जैन द्वारा सम्पादित, जनमित्र मंडल दिल्ली द्वारा १९५० ई० में प्रकाशित । प्रज / प्रज- 'राजस्थान के जैन शास्त्र भंडारों की ग्रन्थसूची व प्रशस्ति सग्रह', मा० १, डा० कस्तूरचंद कासलीवाल द्वारा सम्पादित, महावीर शोषसंस्थान, जयपुर, १९५० ई० । प्रभावक -- प्रमुख 'परम्परा, ४ भाग, दि. जैन विद्वत्परिषद सागर द्वारा १९७४ ई० में प्रकाशित 1 प्रवी. श्री. 'बोर शासन के प्रभावक आचार्य, संपा० डा० बी० जोहरापुरकर एव डा० कस्तूरचंद कासलीवाल, भारतीय ज्ञानपीठ दिल्ली, १९७६ ई० । 'प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएँ', डा० ज्योतिप्रसाद जैन कृत, भारतीय ज्ञानपीठ नई दिल्ली, १९७५ ई० । 'जैन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह', २ भाग, पं० जुगल किशोर मुस्तार एवं पं० परमानन्द शास्त्री द्वारा सम्पादित, बोर सेवा मंदिर दिल्ली से क्रमश: १९५४ व १९६३ ई० में प्रकाशित | ₹ 'प्रशस्ति संग्रह', पं० के० मुंजबलि शास्त्री द्वारा सम्पादित नया जैन सिद्धान्त भवन बारा से १९४२ ई० में प्रकाशित । 'प्रोग्रेसिव जेम्स आफ इंडिया', श्री सतीश कुमार जैन द्वारा सम्पादित प्रकाशित दिल्ली, १९७५ ६० । ऐतिहासिक व्यक्तिsta १५३ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोका. ले. सं. --- 'बीकानेर जन लेख संग्रह', अगरचंद, नाहटा-भंवरलाल नाहटा द्वारा सम्पादित, बीकानेर, १९५४ ई० । EЯT. भट्टारक. माह--- महापु· मेव. राइस. विद्वत्- शोधांक. - साइड.- साहती. दि. हरिपु १८६ 'ब्रजभारती', ब्रज साहित्य मंडल मथुरा की मुखपत्रिका के वर्ष १४ अंक ४ ( फरवरी १९५६), पृ. ५-३७ पर प्रकाशित डा० ज्योति प्रसाद जैन का निबन्ध 'प्राज के जैन साहित्यकार' Ge 'भट्टारक सम्प्रदाय', डा० विद्याधर जोहरापुरकर कृत, जीवराज ग्रन्थमाला शोलापुर, १९५५ ई० । 'भारतीय इतिहास : एक दृष्टि', डा० ज्योतिप्रसाद जैन कृत, वि. सं. १९६६ ई०, भारतीय ज्ञानपीठ नई दिल्ली। 'महापुराण', , जिनसेन गुणभद्र कृत, भारतीय ज्ञानपीठ संस्करण; आदिपुराण + उत्तरपुराण; त्रिवष्ठिताका पुरुष चरित । शोधादर्श.-- ती. महावीर स्मृति केन्द्र समिति उ० प्र०, लखनऊ की आवधिक शोधपत्रिका | 'मेडियावल जैनिज्म', डा० बी० ए० सालतोर कृत, कर्णाटक पब्लिशिंग हाउस बम्बई, १९३० ई० । मैसूर एण्ड फाम इन्सक्रिप्शन्स', प्रो० सुई राइस कृत । 'रुहेलखंड कुमायुं जैन डायरेक्टरी', डा० ज्योति प्रसाद जैन द्वारा सम्पादित, दिग. जैन परिषद, काशीपुर, १९७० ई० । 'विद्वत् अभिनन्दन ग्रन्थ', दि. जे. शास्त्रि परिषद के लिए चांदमल सरावगी चैरिटेबिल ट्रस्ट गौहाटी द्वारा १९७६ ६० में प्रकाशित । दि. जैन संघ चौरासी-मथुरा के मुख पत्र जैन सन्देश के शोषविशेषांक | 'साउन इंडियन इन्सक्रिप्शन्स' । प्रो० दयाराम साहनी की देवगढ़ सर्वेक्षण रिपोर्ट । 'हरिवंश पुराण', बा• जिनसेन पुनाट संची (७८३६०), भारतीय ज्ञानपीठ संस्करण । ऐतिहासिक व्यक्तिकोश Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा. डि.- पाद टिप्पणी पृष्ठ, पृष्ठांक अप. - २. सामान्य संकेत सूचीमध्याय, अनुच्छेद, अनुभाग .- अनुवाद, अनुवादक वनुपलम्य अपार अंक, अंग्रेजी प्रा.- वाचायें आ.प्र - आन्ध्रप्रदेश सन् ईस्वी ईसापूर्व प्र.--- प्रथम प्रका. - अकबक प्रश. - प्रशस्ति, प्रशस्ति नम्बर ST.- प्राव प्रो.- प्रोफेसर पं.- पण्डित मो.- फुटनोट फु. .- ब्रह्म, ब्रह्मचारी म. भगवान, भट्टारक भाज्ञाषी.- भारतीय ज्ञानपीठ -- पू-- कनड कोश. - प्रस्तुत ऐतिहासिक व्यक्तिकोश पा.- गाथा, गायक गुज.- गुजराती, गुजरात चतुर्थ जन्म. - वस्मतिथि-वर्ष सिम - जैन सिद्धान्त भवन मारा H सू. - भूमिका मराठी म. मि. सं.- महावीर निर्वाण संग म. टी.- टीका, टीकाकार म. प्र.- मध्यप्रदेश मास्टर मेसर्स राज.- राजस्थान, राजस्थानी मे. JT.- डाक्टर 1.1 तमिल रि.- रिपोर्ट सा.शा.- ताम्रशासन सी.- तीर्थंकर ..-- लगभग 1. लेखक सु. तृतीय तत्काल पूर्वोल्लिखित संदर्भ वही. वि. सं.- विक्रम संवत् वा. प.- दानपत्र दि. / दिग. - दिगम्बर देखिए बोसेमं.- बोर सेवा मंदिर शक. - शक संवत् -- द्वितीय शा.- शास्त्री शि. ले. - शिला लेख श्लो. - श्लोक संस्था नम्बर -- पञ्चम पड्डा.- पट्टावनि ऐतिहासिक व्यक्तिकोश श्वे. श्वेताम्बर 1 Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हि. - सिद्धान्त चक्रवर्ती सि. दे.- सिद्धान्तिदेव सि. शा. - सिद्धान्त शास्त्री सेप- सेन्ट्रल जैन पब्लिशिंग हाउस सेयुर्य. - सेक्रेड बुक्स बाफ दो जैस सोरीक स्थानक- स्थानकवासी स्थ. - स्वर्गीय, दिबंगत स्वर्ग स्वर्गवास वर्ष सं. संस्कृत संपा. --- सम्पादक हि.- हिन्दी हि ग.- हिन्दी गद्य हि. प. हिन्दी पद्म मोट : १. भाग, खंड, जिल्द या वाल्यूम के सूचनांक I, II, III, IV मादि । २. शि. ले. या प्रशस्ति के नम्बर के सूचक १, २, ३, आदि । १. पृष्ठांक भी १, २, ३ आदि । १ ऐतिहासिक व्यक्तिकोस Page #205 -------------------------------------------------------------------------- _