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अव्ययगड - धर्मात्मा जैन सामन्त, जिसकी पत्नी कालि गोडि ने १४१७ ई० में समाधिमरण गिया था [ प्रमुख २६५ ]
दे. अय्यप । [ एवं x पृ. ६५] - उसका ज्येष्ठपुत्र अन्निगबीर नोलंब भी जैन था । [ मेजं. ६९ ]
मम्यपदेव
अय्यपायें-
अय्यप्प
४९ पृ. ३३३; मेजं. २६३] अपोटि मुनीन्द्र- बलहारिगण-अड्डकलिगच्छ के सकलचन्द्र सिद्धान्त के शिष्य ओर उन अर्हनन्दि भट्टारक के गुरु थे, जिनकी गृहस्थ श्राविका शिप्या राजरानी चामकाम्बा ने वेंगि के पूर्वी चालुक्य नरेश अम्मराज द्वि. (९४५-७० ई०) से एक दान पत्र द्वारा सर्वलोकाश्रय जिनालय के लिए एक ग्राम का दान कराया था। [ प्रमुख. ९५. ]
श्रीयम के साथ, रणपाकरस के राज्यकाल में, दवीं शती ई० में, कुडलूर की नदीतटस्थित पूर्वीय-बसदि ( जिनालय) के लिए, कई उद्यान आदि दान किये थे। [जैशिसं. iv ४७ ] तलका का जिनधर्मी गंगनरेश, ल० ३०० ई०, माधव प्र. का पौत्र, और माधव द्वि. का पुत्र । after, गणिनी, जो बलहारीगण के अर्हनंदि मुनि की गुरुनि थीं। [ एवं. vii. २५, पृ. १७७ ]
[ मेजे. ८ ]
अव्यवर्मा---
अम्मोपोति
अय्यप, अयंप, आध्यंप, अप्पयार्य आदि विभिन्न नामरूपों से उल्लेखित अय्यपाय जिनेन्द्र - कल्याणाम्युदय अपरनाम विद्यानु वादांग नामक संस्कृत प्रतिष्ठापाठ के रचयिता हैं, जिसे उन्होंने १३१९ ई० में, ककातीय नरेश रुद्रदेव के राज्य में, एकलपुर ( वारंगल - राजधानी) में लिख कर पूर्ण किया था । वह हस्तिमल्ल सूरि के प्रशिष्य और गुणवीर सूरि के शिष्य पुष्पसेन सुनि के गृहस्थ शिष्य, काश्यपगोत्री - जैनालपाकवंशी सागारधर्मी करुणाकर और अर्कमाम्बा के सुपुत्र थे, श्रीपाल इनके बन्धु थे, और वह घरसेनाचार्य, कुमारसेन मुनि और पुष्पसेन को स्वगुरु मानते थे - पुष्पसेनाचार्य के आदेश से हो उक्न ग्रन्थ की रचना की थी । मूल संघ से मगण से सम्बद्ध थे, किन्तु गृहस्थ विद्वान हो रहे प्रतीत होते हैं । दिग. परम्परा के महत्वपूर्ण प्रतिष्ठापाठों में इनके प्रत्थ की गणना है । [प्रमुख. १९१; प्रवी.. -१; शोषांक
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ऐतिहासिक व्यक्तिकोच