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महावन्गपालि
विशषज्ञ विन्यास
१९२८
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धम्मगिरि - पालि - गन्थमाला [ देवनागरी]
सुत्तपिटके
दीघनिकायो
यो भागो
महावग्गपाळि
विपश्यना विशोधन विन्यास
इगतपुरी
१९९८
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धम्मगिरि-पालि-गन्थमाला-२ [देवनागरी] दीघनिकाय एवं तत्संबंधित पालि साहित्य ग्यारह ग्रंथों में प्रकाशित किया गया है।
प्रथम आवृत्तिः १९९८ ताइवान में मुद्रित, १२०० प्रतियां
मूल्य : अनमोल यह ग्रंथ निःशुल्क वितरण हेतु है, विक्रयार्थ नहीं । सर्वाधिकार मुक्त। पुनर्मुद्रण का स्वागत है। इस ग्रंथ के किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन के लिए लिखित अनुमति आवश्यक नहीं। ISBN 81-7414-051-4
यह ग्रंथ छट्ठ संगायन संस्करण के पालि ग्रंथ से लिप्यंतरित है। इस ग्रंथ को विपश्यना विशोधन विन्यास के भारत एवं म्यंमा स्थित पालि विद्वानों ने देवनागरी में लिप्यंतरित कर संपादित किया। कंप्यूटर में निवेशन और पेज-सेटिंग का कार्य विपश्यना विशोधन विन्यास, भारत में हुआ।
प्रकाशक: विपश्यना विशोधन विन्यास धम्मगिरि, इगतपुरी, महाराष्ट्र- ४२२४०३, भारत फोन : (९१-२५५३) ८४०७६, ८४०८६ फैक्स : (९१-२५५३)८४१७६
सह-प्रकाशक, मुद्रक एवं दायक : दि कारपोरेट बॉडी ऑफ दि बुद्ध एज्युकेशनल फाउंडेशन ११ वीं मंजिल, ५५ हंग चाउ एस. रोड, सेक्टर १, ताइपे, ताइवान आर.ओ. सी. फोन : (८८६-२)२३९५-११९८, फैक्स : (८८६-२)२३९१-३४१५
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Dhammagiri-Pali-Ganthamālā [Devanagari]
Suttapiṭake
Dighanikāyo
Dutiyo Bhago
Mahāvaggapāļi
Devanagari edition of the Pali text of the Chattha Sangayana
Published by
Vipassana Research Institute Dhammagiri, Igatpuri -422403, India
Co-published, Printed and Donated by The Corporate Body of the Buddha Educational Foundation 11th Floor, 55 Hang Chow S. Rd. Sec 1, Taipei, Taiwan R.O.C. Tel: (886-2)23951198, Fax: (886-2)23913415
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Dhammagiri-Pali-Ganthamālā-2
[Devanagari]
The Digha Nikaya and related literature is being published together in eleven
volumes.
First Edition: 1998
Printed in Taiwan, 1200 copies
Price: Priceless
This set of books is for free distribution, not to be sold.
No Copyright-Reproduction Welcome.
All parts of this set of books may be freely reproduced without prior permission.
ISBN 81-7414-051-4
This volume is prepared from the Pali text of the Chattha Sangayana edition. Typing and typesetting on computers have been done by Vipassana Research Institute, India. MS was transcribed into Devanagari and thoroughly examined by the scholars of Vipassana Research Institute in Myanmar and India.
Publisher:
Vipassana Research Institute
Dhammagiri, Igatpuri, Maharashtra - 422 403, India Tel: (91-2553) 84076, 84086, 84302
Co-publisher, Printer and Donor:
The Corporate Body of the Buddha Educational Foundation 11th Floor, 55 Hang Chow S. Rd. Sec 1, Taipei, Taiwan R.O.C. Tel: (886-2)23951198, Fax: (886-2)23913415
Fax: (91-2553) 84176
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प्रस्तुत ग्रंथ
सुत्त-सार
Present Text
१.
महापदानसुतं पुब्बेनिवासपटिसंयुत्तकथा बोधिसत्तधम्मता
द्वत्तिंसमहापुरिस लक्खणा
विपस्सीसमञ्ञा
ब्याधितपुरिसो कालङ्कतपुरिसो
पब्बजितो
बोधिसत्तपब्बज्जा
महाजनकाय अनुपब्बज्जा
बोधिसत्तअभिनिवेसो
ब्रह्मयाचनकथा
अग्गसावकयुगं
महाजनकायपब्बज्जा
पुरिमपब्बजितानं धम्माभिसमयो
चारिका अनुजा देवतारोचनं
विसय-सूची
[१] | २. महानिदानसुत्तं
[३]
पटिच्चसमुप्पादो
९
१२
१५
१६
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१९
२१
२२
२२
२३
२८
३१
.३३
३४
३५
३८
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अत्तपञ्ञत्ति
नअत्तपञ्ञत्ति
अत्तसमनुपस्सना
सत्तविञ्ञति
अविमोक्खा
३. महापरिनिब्बानसुत्तं
वस्सकारब्राह्मणो
राज अपरिहानियधम्मा
भिक्खु अपरिहानियधम्मा
सारिपुत्तह
दुस्सीलआदीनवा
सीलवन्तआनिसंसा पाटलिपुत्तनगरमापनं अरियसच्चकथा
अनावत्तिधम्मसम्बोधिपरायणा धम्मादासधम्मपरियाया
अम्बपालीगणिका वेळुवगामवस्सूपगमनं निमित्तोभासकथा
मारयाचनकथा
आयुसङ्घारओस्सज्जनं
४३
४३
४९
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७९
८०
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महाभूमिचा हेतु अट्ठपरिसा
अट्ठ अभिभायतनानि
अट्ठ विमोक्खा
आनन्दयाचनकथा
नागापलोकितं
चतुमहापथ
कम्मारपुत्तचुन्दवत्थु
पानीयाहरणं
पुक्कुसमल्लपुत्तवत्थु
यमकसाला
उपवाणत्थेरो
चतुसंवेजनीयट्ठानानि
आनन्दपुच्छाकथा थूपारहपुग्गलो आनन्दअच्छरियधम्मो
महासुदरसनसुत्तदेसना
मल्लानं वन्दना
सुभद्दपरिब्बाजकवत्थु
तथागतपच्छिमवाचा
परिनिब्बु कथा
बुद्धसरपूजा
महाकस्सपत्थेरवत्थु
सरीरधातुविभाजनं
धातुथूपपूजा
४. महासुदरसनसुत्तं
कुसावतीराजधानी
चक्करतनं
हस्थिरतनं
अस्सरतनं
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८४
८५
८६
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९३
९४
९६
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१०३
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१०६
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१२३
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१२७
१२९
१३०
१३०
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मणिरतनं
इत्थिर नं
गहपतिरतनं
परिणायकरतनं
चतुइद्धिसमन्नागतो
धम्मपासादपोक्खरणी
झानसम्पत्ति
चतुरासीति नगरसहस्सादि सुभद्दादेविउपसङ्कमनं ब्रह्मलोकूपमं
५. जनवसभसुत्तं
नातिकियादिब्याकरणं
आनन्दपरिकथा
जनवसभयक्खो
देवसभा
सनङ्कुमारकथा भावितइद्धिपादो
तिविधो ओकासाधिगमो
चतुतिपट्ठानं
सत्त समाधिपरिक्खारा
६. महागोविन्दत्तं
देवसभा
अट्ठ यथाभुच्चवण्णा
सनङ्कुमारकथा
अट्ठ यथाभुच्चवण्णा
गोविन्दब्राह्मणवत्थु
महागोविन्दवत्थु
रज्जसंविभजनं
कित्तिसद्दअब्भुग्गमनं
ब्रह्मना साकच्छा
१३१
१३१
१३१
१३२
१३२
१३३
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१४०
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१४८
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१७१
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२२८ २३० २३२
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१९५ १९८
२३७ २३९ २३९ २४० २४२ २४४ २४४ २४६ २४८ २४९ २५० २५१
२०५
रेणुराजआमन्तना
१७८ दुक्खसच्चनिद्देसो छ खत्तियआमन्तना
समुदयसच्चनिद्देसो ब्राह्मणमहासालादीनं आमन्तना १८१ निरोधसच्चनिद्देसो भरियानं आमन्तना
१८२ मग्गसच्चनिद्देसो महागोविन्दपब्बज्जा
१८२ १०. पायासिसुत्तं ७. महासमयसुत्तं
१८५ पायासिराजञवत्थु देवतासन्निपाता
१८६ नत्थिकवादो ८. सक्कपञ्चसुत्तं
१९४ चन्दिमसूरियउपमा पञ्चसिखगीतगाथा
चोरउपमा सक्कूपसङ्कम
गूथकूपपुरिसउपमा गोपकवत्थु
१९९
तावतिंसदेवउपमा वेदनाकम्मट्ठानं
जच्चन्धउपमा पातिमोक्खसंवरो
२०६
गब्भिनीउपमा इन्द्रियसंवरो
सुपिनकउपमा सोमनस्सपटिलाभकथा
२१०
सन्तत्तअयोगुळउपमा ९. महासतिपट्टानसुत्तं
२१४
सङ्खधमउपमा
अग्गिकजटिलउपमा उद्देसो
२१४
द्वे सत्थवाहउपमा कायानुपस्सना आनापानपब्बं २१५
गूथभारिकउपमा कायानुपस्सना इरियापथपब्बं २१६
अक्खधुत्तकउपमा कायानुपस्सना सम्पजानपब्बं २१६
साणभारिकउपमा कायानुपस्सना पटिकूलमनसिकारपब्बं २१७ कायानुपस्सना धातुमनसिकारपब्बं २१७
सरणगमनं
यञकथा कायानुपस्सना नवसिवथिकपब्बं २१८
उत्तरमाणववत्थु वेदनानुपस्सना
२२०
पायासिदेवपुत्तो चित्तानुपस्सना
२२१ धम्मानुपस्सना नीवरणपब्बं
२२२
तस्सुद्दानं धम्मानुपस्सनाखन्धपब्बं
२२३ / सद्दानुक्कमणिका धम्मानुपस्सना आयतनपब्धं २२४ | गाथानुक्कमणिका धम्मानुपस्सना बोज्झङ्गपब्बं २२५ | संदर्भ-सूची धम्मानुपस्सना सच्चपब्बं
२२७
२०७
२५३
२५६ २५७ २५८ २५९ २६० २६१ २६२ २६३
[३३]
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चिरं तिद्वतु सद्धम्मो ! चिरस्थायी हो सद्धर्म !
द्वेमे, भिक्खवे, धम्मा सद्धम्मस्स ठितिया असम्मोसाय अनन्तरधानाय संवत्तन्ति। कतमे वे? सुनिक्खित्तञ्च पदव्यञ्जनं अत्थो च सुनीतो। सुनिक्खित्तस्स, भिक्खवे, पदव्यञ्जनस्स अत्थोपि सुनयो होति। अ०नि० १.२.२१, अधिकरणवग्ग
भिक्षुओ, दो बातें हैं जो कि सद्धर्म के कायम रहने का, उसके विकृत न होने का, उसके अंतर्धान न होने का कारण बनती हैं। कौनसी दो बातें ? धर्म वाणी सुव्यवस्थित, सुरक्षित रखी जाय
और उसके सही, स्वाभाविक, मौलिक अर्थ कायम रखे जांय । भिक्षुओ, सुव्यवस्थित, सुरक्षित वाणी से अर्थ भी स्पष्ट, सही कायम रहते हैं।
...ये वो मया धम्मा अभिज्ञा देसिता. तत्थ सब्बेहेव सङ्गम्म समागम्म अत्थेन अत्थं व्यञ्जनेन ब्यञ्जनं सङ्गायितब्बं न विवदितब्बं, यथयिदं ब्रह्मचरियं अद्धनियं अस्स चिरट्ठितिकं...।
दी० नि० ३.१७७, पासादिकसुत्त
...जिन धर्मों को तुम्हारे लिए मैंने स्वयं अभिज्ञात करके उपदेशित किया है, उसे अर्थ और ब्यंजन सहित सब मिल-जुल कर, बिना विवाद किये संगायन करो, जिससे कि यह धर्माचरण चिर स्थायी हो...।
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प्रस्तुत ग्रंथ प्रस्तुत ग्रंथ दीघनिकाय, भाग-२ (महावग्गपाठि) सुत्तपिटक के प्रथम निकाय, दीघनिकाय के तीन खंडों में से द्वितीय खंड है।
हमें पूर्ण विश्वास है कि यह प्रकाशन विपश्यी साधकों और विशोधकों के लिए अत्यधिक लाभदायक सिद्ध होगा।
निदेशक,
विपश्यना विशोधन विन्यास
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सुत्त-सार
१. महापदानसुत्त एक समय सावत्थी में अनाथपिण्डिक के जेतवन आराम में विहार करते हुए भगवान ने भिक्षुगण के अनुरोध पर उन्हें पूर्वजन्म-संबंधी धार्मिक कथा कही । उन्होंने बतलाया कि आज से इक्यानवे कल्प पहले विपस्सी भगवान, अरहंत और सम्यक संबुद्ध संसार में उत्पन्न हुए थे। उनके बाद सिखी, वेस्सभू, ककुसन्ध, कोणागमन, कस्सप और वे स्वयं सम्यक संबुद्ध हुए हैं।
इन सबका संक्षिप्त परिचय देने के बाद उन्होंने विपस्सी भगवान की जीवनी का विस्तार से उल्लेख करते हुए बतलाया कि उनके पिता राजा बन्धुमान और माता देवी बन्धुमती थी। उनकी राजधानी का नाम भी बन्धुमती था । वे तुसित देव-लोक से च्युत हो कर, स्मृति और संप्रज्ञान के साथ, अपनी माता की कोख में प्रविष्ट हुए थे। उनके उत्पन्न होने पर नैमित्तिक ब्राह्मणों ने बतलाया था कि इनका शरीर महापुरुष के बत्तीस लक्षणों से युक्त है | यदि ये घर में रहे तो चक्रवर्ती राजा होंगे और घर से बे-घर हो प्रव्रजित हुए तो सम्यक संबुद्ध होंगे।
राजा बन्धुमान ने विपस्सी कुमार के लिए सर्व-प्रकार की सुख-सुविधाएं जुटायीं और पांचों कामगुणों का प्रबन्ध करवाया । परंतु अलग-अलग अवसरों पर वृद्ध, रोगी, मृत और संन्यासी को देख कर उनके मन में निर्वेद जागने से वे अपने सिर-दाढ़ी मुँड़वा, काषाय वस्त्र पहन, घर से बे-घर हो प्रव्रजित हो गये।
तत्पश्चात एकांत में ध्यान करते समय उनके मन में यह विचार आया कि यह संसार बहुत कष्ट में पड़ा है। कोई जन्मता है, जीर्ण होता है, मर जाता है। एक स्थिति से च्युत होता है और दूसरी में उत्पन्न हो जाता है। इससे बाहर निकलने का रास्ता कैसे जाना जाये ? तब सही चिंतन के द्वारा, अपनी प्रज्ञा जगा कर, उन्होंने यह जान लिया कि नामरूप के कारण विज्ञान, और विज्ञान
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के कारण नामरूप, नामरूप के कारण छह इन्द्रियां, छह इन्द्रियों के कारण स्पर्श, स्पर्श के कारण वेदना, वेदना के कारण तृष्णा, तृष्णा के कारण उपादान, उपादान के कारण भव, भव के कारण जन्म और जन्म के कारण बुढ़ापा, मृत्यु, शोक, विलाप, दुःख, दौर्मनस्य और उपायास होते हैं । इस प्रकार इस 'केवल दुःख - समूह' की ही उत्पत्ति होती है ।
तदनंतर उन्होंने यह भी जान लिया कि नामरूप के निरोध से विज्ञान, विज्ञान के निरोध से नामरूप, नामरूप के निरोध छह इन्द्रियां, छह इन्द्रियों के निरोध से स्पर्श, स्पर्श के निरोध से वेदना, वेदना के निरोध से तृष्णा, तृष्णा के निरोध से उपादान, उपादान के निरोध से भव, भव के निरोध से जन्म और जन्म के निरोध से बुढ़ापा, मृत्यु, शोक, विलाप, दुःख, दौर्मनस्य और उपायास- सभी निरुद्ध हो जाते हैं । इस प्रकार सारे दुःखों का निरोध हो जाता है ।
इस सारे प्रपंच की उत्पत्ति और निरोध को जानकर बोधिसत्व विपश्यी के चक्षु ऐसे धर्म में खुले जिसके बारे में पहले कभी सुना ही नहीं था। उनमें ज्ञान जाग उठा और जाग उठे - प्रज्ञा, विद्या, आलोक |
तत्पश्चात बोधिसत्व ने पांच उपादान स्कंधों में उदय - व्यय को देखा - यह रूप है, यह रूप का समुदय है, यह रूप का अस्त जाना है; यह वेदना है, यह वेदना का समुदय है, यह वेदना का अस्त हो जाना है; यह संज्ञा है, यह संज्ञा का समुदय है, यह संज्ञा का अस्त हो जाना है; यह संस्कार है, यह संस्कार का समुदय है, यह संस्कार का अस्त हो जाना है; यह विज्ञान है, यह विज्ञान का समुदय है, यह विज्ञान का अस्त हो जाना है। इन पांचों स्कंधों के उत्पत्ति - विनाश को देखकर उनका चित्त शीघ्र ही चित्त-मलों से सर्वथा मुक्त हो गया ।
तब सम्यक संबुद्ध हुए विपस्सी भगवान ने अपने बुद्ध-चक्षु से संसार को देखा। इसके फलस्वरूप उन्होंने विविध प्रकार के प्राणियों को देखा - अल्प रज वाले, अधिक रज वाले; तीक्ष्ण इन्द्रिय वाले, मृदु इन्द्रिय वाले; अच्छे आकार वाले, बुरे आकार वाले; बात को जल्दी समझने वाले, बात को देर से समझने वाले; परलोक का भय खाने वाले, परलोक का भय न खाने वाले । तब उनके मन में हुआ कि जो कोई श्रद्धा के साथ मेरी बात सुनेंगे उनके लिए अमृत अर्थात क्ष द्वार खुल जायेगा ।
तदनंतर विपस्सी भगवान ने सर्वप्रथम मेधावी राजपुत्र खण्ड और पुरोहितपुत्र तिस्स को स्वयं अनुभव किये गये धर्मदुःख, समुदय, निरोध तथा मार्ग का उपदेश दिया जिससे इन्हें भी विमल धर्मचक्षु उत्पन्न हुआ - 'जो कुछ समुदयधर्मा है वह सब निरोधधर्मा है।' इस प्रकार इसी जीवन में धर्म
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का साक्षात्कार कर, सभी संशयों से मुक्त हो, उन्होंने बुद्ध और धर्म की शरण ग्रहण की और शनैः शनैः उनके चित्त नितांत आसव-विहीन हो गये | फिर धर्म के महत्व को भांप कर बहुत बड़ी संख्या में अन्य लोग भी घर से बे-घर हो भगवान के पास धर्म सीखने के लिए आये और इसी प्रकार आसव-विहीन हुए।
उन दिनों राजधानी बन्धुमती में अड़सठ लाख भिक्षुओं का महासंघ निवास करता था। भगवान ने उन्हें संबोधित करते हुए कहा – 'भिक्षुओं! चारिका के लिए जाओ, बहुत लोगों के हित के लिए, बहुत लोगों के सुख के लिए, लोगों पर अनुकंपा करने के लिए, देवों और मनुष्यों के अर्थ, हित
और सुख के लिए । एकाकी नहीं, दो-दो होकर जाओ | आदि में कल्याणकारी, मध्य में कल्याणकारी, अंत में कल्याणकारी, अर्थ-युक्त, विशद, केवल परिपूर्ण, परिशुद्ध ब्रह्मचर्य का प्रकाशन करो। थोड़े से मैल के कारण धूमिल दृष्टि वाले ऐसे लोग हैं जो धर्म की बात न सुनने के कारण हानि उठा रहे हैं । वे धर्म को समझने वाले हो जायेंगे । और छह छह वर्षों के अंतराल पर प्रातिमोक्ष के वाचन के लिए राजधानी बन्धुमती में आते रहना।'
यह सुनकर अधिकांश भिक्षु एक ही दिन में चारिका के लिए निकल पड़े और छह वर्ष बाद राजधानी में लौट आये । उस समय भिक्षु-संघ के लिए प्रातिमोक्ष का पाठ करते हुए विपस्सी भगवान ने कहा
‘क्षांति और तितिक्षा परम तप हैं; प्रव्रजित श्रमण दूसरों को हानि नहीं पहुँचाता, न दूसरों को कष्ट देता है । बुद्ध-जन निर्वाण को सबसे उत्तम बतलाते हैं।'
'सब प्रकार के पापों का न करना, कुशल कर्मों का संचय करना, चित्त को निर्मल करते रहना - यह बुद्धों की शिक्षा है।'
'कठोर वचन, दुर्वचन न कहना, दूसरों की हिंसा न करना, प्रातिमोक्ष में संयम बरतना, भोजन की मात्रा को जानना, एकांत में सोना-बैठना, समाधि का अभ्यास - यह बुद्धों की शिक्षा है।*
अंत में भगवान ने कहा एक समय मुझे सुद्धावास देवों ने कहा था कि आज से इक्यानवे कल्प पहले विपस्सी भगवान ने संसार में जन्म लेकर संबोधि प्राप्त कर धर्मचक्र प्रवर्तित किया था और हम लोग उन्हीं के शासन में ब्रह्मचर्य का पालन कर, सांसारिक भोग-विलासों से विरक्त हो, यहां उत्पन्न हए हैं। अन्य देव-लोकों के देवों ने भी अपने आप को भगवान विपस्सी से लेकर उनके
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उत्तरवर्ती सम्यक-संबुद्धों सिखी, वेस्सभू, ककुसन्ध, कोणागमन, कस्सप तथा मेरा साक्षी होना बतलाया था । तथागत की धर्म-धातु इतनी बींधने वाली होती है कि इससे वह अतीत काल में परिनिर्वाण प्राप्त किये हुए, सारे प्रपंच को छिन्न-भिन्न किये हुए, सारे दुःखों से विमुक्त हुए, बुद्धों को उनके सारे विवरण सहित उन्हें जान लेते हैं।
२. महानिदानसुत्त एक समय जब भगवान कुरु-देश में कुरुओं के निगम कम्मासधम्म में विहार कर रहे थे, आयुष्मान आनन्द ने उनसे कहा - 'आश्चर्य है भंते ! अद्भुत है भंते ! कितना गंभीर है और गंभीर-सा दीखता भी है यह प्रतीत्यसमुत्पाद, किन्तु मुझे यह साफ-साफ दिखलाई पड़ता है।'
इस पर भगवान ने उन्हें समझाया- 'ऐसा मत कहो आनन्द ! यह प्रतीत्यसमुत्पाद गंभीर है और गंभीर-सा दिखलाई भी देता है । आनन्द ! इस धर्म के न जानने से ही यह प्रजा उलझे सूत-सी, गांठें पड़ी रस्सी-सी, ज-बल्वज-सी, अपाय, दुर्गति और पतन को प्राप्त होती है और संसार से पार नहीं हो पाती।'
तत्पश्चात भगवान ने उन्हें, कारणों के विश्लेषण सहित, प्रतीत्यसमुत्पाद का सिद्धांत समझाया- “नाम-रूप के कारण विज्ञान होता है, विज्ञान के कारण नाम-रूप । नाम-रूप के कारण स्पर्श होता है, स्पर्श के कारण वेदना, वेदना के कारण तृष्णा, तृष्णा के कारण उपादान, उपादान के कारण भव, भव के कारण जन्म और जन्म के कारण बुढ़ापा, मृत्यु, शोक, विलाप, दुःख, दौर्मनस्य और उपायास होते हैं । इस प्रकार इस 'केवल दुःख-पुंज' का समुदय होता है।"
तदनंतर भगवान ने बतलाया कि आत्मा को मानने वाले आत्मा का प्रज्ञापन चार प्रकार से करते हैं- १.यह रूपवान और सूक्ष्म है; २.रूपवान और अनंत है; ३.रूपरहित और सूक्ष्म है; ४.रूपरहित और अनंत है | आत्मा को नहीं मानने वाले इन प्रज्ञप्तियों को नकारते हैं।
आत्म-दर्शी आत्मा को तीन प्रकार से जानता है -- १.वेदना मेरी आत्मा है; २.वेदना मेरी आत्मा नहीं, अ-प्रतिसंवेदन मेरी आत्मा है; अथवा ३.न वेदना मेरी आत्मा है, न अ-प्रतिसंवेदन मेरी आत्मा है, मेरी आत्मा वेदना धर्म वाली है । ये तीनों प्रकार के चिंतन ठीक नहीं हैं।
पहले प्रकार के चिंतन में यह दोष है कि वेदनाएं तीन प्रकार की होती हैं - सुखद, दु:खद और अदु:खद-असुखद - और इन तीनों में से जिस समय जो प्रकट होती है उस समय वही अनुभव
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होती है, अन्य दो प्रकार की नहीं; और ये सब अनित्यधर्मा भी हैं; तो जो कोई जिस किसी वेदना को आत्मा मान लेता है वह थोड़ी ही देर में निरुद्ध हो जाती है और तब ऐसे लगने लगता है कि मेरी आत्मा तो चली गई। दूसरे प्रकार के चिंतन में यह दोष है कि जहां अ-प्रतिसंवेदन है अर्थात, कुछ भी अनुभव नहीं होता, वहां 'मैं हूं'- ऐसा नहीं कह सकते । तीसरे प्रकार के चिंतन में यह दोष है कि यदि सारी-की-सारी वेदनाएं सर्व प्रकार से सर्वथा नष्ट हो जाएं तो वेदनाओं के सर्वथा निरुद्ध हो जाने से 'मैं हूं' - ऐसा कह पाना संभव नहीं रहता ।
परंतु जो व्यक्ति न वेदना को आत्मा समझता है, न अ-प्रतिसंवेदन को, और न ही इसे वेदना-धर्म वाला मानता है. वह लोक में किसी को 'मैं और मेरा' करके ग्रहण नहीं करता. ग्रहण न करने वाला होने से त्रास नहीं पाता, त्रास न पाने से स्वयं परिनिर्वाण को प्राप्त होता है । तब वह अपनी प्रज्ञा से जान लेता है -- 'जन्म क्षीण हुआ, ब्रह्मचर्य पूरा हुआ, जो करना था सो कर लिया, अब इससे परे करने को कुछ रहा नहीं ।' ऐसा व्यक्ति संसार में जितने भी अधिवचन, वचन-व्यवहार, निरुक्ति, भाषा-व्यवहार, प्रज्ञप्ति, प्रज्ञप्ति-व्यवहार, ज्ञान, ज्ञान के जो विषय होते हैं उन्हें जान कर मुक्त होता है। ऐसे व्यक्ति के लिए यह कहना अ-युक्त होता है- 'नहीं जानता है, नहीं देखता है, यह इसका दर्शन है।'
तदनंतर भगवान ने यह समझाया कि 'प्रज्ञा-विमुक्त' कौन कहलाता है। प्रज्ञा-विमुक्त वह होता है जो सात प्रकार की विज्ञान की स्थितियों और दो प्रकार के आयतनों के समुदय, अवसान, आस्वाद, परिणाम तथा निस्सरण को यथाभूत जान कर उपादानों को ग्रहण न करते हुए मुक्त होता है। विज्ञान की सात स्थितियां हैं- १.नाना काया- नाना संज्ञा, २.नाना काया- एक संज्ञा, ३.एक काया- नाना संज्ञा, ४.एक काया- एक संज्ञा, ५.आकाश- आयतन, ६.विज्ञान- आयतन, ७.आकिंचन्य - आयतन । दो आयतन हैं- १. असंज्ञि-सत्व-आयतन अर्थात, संज्ञारहित सत्वों का आवास, और २.नैव-संज्ञा-न-असंज्ञा-आयतन अर्थात, न तो संज्ञा वाला और न ही अ-संज्ञा वाला आयतन ।
भगवान ने आठ विमोक्ष भी गिनवाये हैं। इनमें से आठवें विमोक्ष के अंतर्गत कोई व्यक्ति नैव-संज्ञा-न-असंज्ञा-आयतन का अतिक्रमण कर संज्ञा-वेदयित-निरोध की अवस्था, जिसमें संज्ञा और वेदना का पूर्णतया निरोध हो जाने से सर्व प्रकार का लोकीय अनुभव भी निरुद्ध हो जाता है, प्राप्त कर विहरने लगता है। जब आठों विमोक्षों को अनुलोम अर्थात, १ से ८, प्रतिलोम अर्थात, ८ से १, तथा अनुलोम - प्रतिलोम अर्थात, १ से ८, फिर ८ से १, जहां चाहता है, जब चाहता है, जितना चाहता है उतनी समाधि प्राप्त कर उठ खड़ा होता है, और आम्रवों के क्षय से इसी जन्म में
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आम्नव-रहित चित्त की मुक्ति, प्रज्ञा-विमुक्ति को स्वयं जान कर, साक्षात्कार कर, प्राप्त हो विहरता है, तब वह 'उभयतोभाग-विमुक्त' कहलाता है।
३. महापरिनिब्बानसुत्त
एक समय भगवान राजगह में गिज्झकूट पर्वत पर विहार करते थे। उस समय मगध का राजा अजातसत्तु वज्जी पर आक्रमण कर उसे तहस-नहस करना चाहता था। इस बारे में भगवान का मत जानने के लिए उसने अपने ब्राह्मण मंत्री को उनके पास भेजा । भगवान ने उसे बतलाया कि एक समय मैंने वज्जियों को सात अपरिहाणीय धर्म कहे थे। जब तक वे इन धर्मों का पालन करते रहेंगे तब तक उनका उत्कर्ष ही होगा, अपकर्ष नहीं । ब्राह्मण के चले जाने पर भगवान ने भिक्षुओं को भी प्रकार प्रकार से अपरिहाणीय धर्मों की जानकारी दी जिससे उनका भी उत्कर्ष हो, अपकर्ष नहीं।
विहार के समय भगवान प्रायः यही धर्म-कथा कहा करते थे- 'यह शील है, यह समाधि है, यह प्रज्ञा है। शील से परिभावित समाधि महाफलदायी होती है। समाधि से परिभावित प्रज्ञा महाफलदायी होती है। प्रज्ञा से परिभावित चित्त आसवों- कामानव, भवानव, अविद्यानव-से भली प्रकार मुक्त हो जाता है।'
कुछ समय पश्चात भगवान के जीवन की अंतिम यात्रा प्रारंभ हुई। वे अम्बलट्ठिका होते हुए नाळन्दा पहुंचे जहां सारिपुत्त ने उनके प्रति बड़ी उदार वाणी कही कि संबोधि में उनसे बढ़कर न कोई हुआ है, न होगा, न है। (इस बारे में देखिए 'सम्पसादनीय-सुत्त' - दीघ०३-५)। वहां से पाटलिगाम पहुँच कर भगवान ने गृहस्थों को दुराचार के पांच दुष्परिणाम और सदाचार के पांच सपरिणाम गिनाये। उन्हीं दिनों वज्जिओं की रोक-थाम के लिए इस ग्राम में एक बड़ा नगर बसाने का काम भी चल रहा था । इसे देख भगवान ने कहा कि जितने भी आर्यों के निवास हैं और जितने भी व्यापारिक मार्ग हैं, उनमें यह पाटलिपुत्त प्रधान नगर होगा, पर इसके तीन शत्रु होंगे- आग, पानी और आपस की फूट ।
वहां से कोटिगाम पहुँच भगवान ने भिक्षुओं से कहा कि चार आर्य-सत्यों का यथाभूत दर्शन न करने से ही इस संसार में आवागमन का क्रम चलता आ रहा है। जब इन्हें (विपश्यना द्वारा) देख लेते हैं तब भव-रज्जु (तृष्णा) नष्ट हो जाती है और दुःख की जड़ कट जाने से पुनर्जन्म नहीं होता | फिर नातिका पहुँच उन्होंने 'धर्म-आदर्श' नाम का उपदेश दिया जिससे युक्त हुआ आर्यश्रावक अपनी आगे की गति स्वयं जान सकता है।
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तत्पश्चात वेसाली पहुँच भगवान ने भिक्षुओं से कहा कि 'स्मृति' और 'संप्रज्ञान' के साथ विहार करो, यही हमारा अनुशासन है । फिर यह भी समझाया कि 'स्मृतिमान' कैसे होते हैं और ‘संप्रज्ञानी' कैसे ? जब कोई व्यक्ति राग और द्वेष को दूर करने के लिए जागरूक रह, संप्रज्ञान जगाये हुए, उद्योगशील हो काया में कायानुपश्यना, वेदनाओं में वेदनानुपश्यना, चित्त में चित्तानुपश्यना और धर्मों में धर्मानुपश्यना करता है तब वह 'स्मृतिमान' होता है; और जब वह चलते-फिरते, उठते-बैठते, खाते-पीते, सोते-जागते शरीर की हर अवस्था में किसी भी प्रकार की शारीरिक क्रिया करते हुए अपने बारे में संपूर्ण जानकारी बनाये रखता है तब वह 'संप्रज्ञानी' होता है ।
वेसाली में भगवान ने भिक्षु संघ के साथ अम्बपाली गणिका के यहां भोजन पाया और उसके द्वारा भिक्षु संघ को दान में दिये गये उसके उपवन को स्वीकार किया । फिर वहां से चल कर वेळुवगाम पहुँचे जहां वर्षावास किया । इस काल में उन्हें भयानक बीमारी लग गयी और मरणान्तक पीड़ा होने लगी परंतु उन्होंने उसे स्मृति और संप्रज्ञान के साथ, बिना दुःख मानते हुए, सहन कर लिया ।
भगवान के स्वस्थ होते ही आनन्द ने भगवान से कहा कि आपकी बीमारी के समय मुझे कुछ नहीं सूझता था, केवल यह विश्वास था कि आप तब तक परिनिर्वाण प्राप्त नहीं करेंगे जब तक भिक्षु संघ को कुछ कह न लेंगे। यह सुन कर भगवान बोले कि मैंने सब तरह से खुलासा करके धर्म दर्शा दिया है | मेरी कोई आचार्य - मुष्टि नहीं है । ऐसा है कि मैं भिक्षु संघ को धारण करता हूं अथवा यह मेरे उद्देश्य से है । अतः बिना किसी दूसरे का सहारा ढूंढे अपना द्वीप, अपना सहारा स्वयं बन कर विहार करो। धर्म को अपना द्वीप बना, धर्म के सहारे विहार करो। और यह तब होता है जब कोई व्यक्ति स्मृतिमान, संप्रज्ञानी, उद्योगशील हो काया, वेदनाओं, चित्त तथा धर्मों की अनुपश्यना करने लगता है ।
तत्पश्चात भगवान ने वेसाली के चापाल चैत्य में जाकर यह घोषणा की कि तब से तीन माह बाद तथागत परिनिर्वाण को प्राप्त होंगे। इसके साथ ही उन्होंने स्मृति और संप्रज्ञान के साथ अपने आयु संस्कार को छोड़ दिया । उस समय बड़ा भीषण, लोमहर्षक भूचाल आया और देव-दुन्दुभियां बज उठीं | आनन्द के पूछने पर भगवान ने उसे उन आठ प्रत्ययों के बारे में बतलाया जिनकी वजह से ऐसे बड़े भूचाल आते हैं ।
तदुपरांत उन्होंने आठ प्रकार की परिषदों, आठ प्रकार के अभिभू-आयतनों तथा आठ विमोक्षों के बारे में भी आनन्द को समझाया । उन्होंने कहा कि आठवां विमोक्ष वह होता है जब कोई व्यक्ति
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नैव-संज्ञा-न-असंज्ञा आयतन का सर्वथा अतिक्रमण कर संज्ञा-वेदयित-निरोध को प्राप्त हो कर विहार करने लगे।
इसके बाद भगवान ने महावन की उपस्थानशाला में भिक्षुओं को संबोधित करते हुए कहा कि मैंने स्वयं जान कर जो धर्म उपदिष्ट किया है उसे अच्छी तरह सीख कर उसका सेवन, भावन, संवर्धन करना जिससे यह ब्रह्मचर्य चिरस्थायी हो, बहुत लोगों का हितकारक, बहुत लोगों का सुखकारक, लोकों का अनुकंपक और देवों तथा मनुष्यों के अर्थ, हित और सुख के लिए हो । ये धर्म हैं - चार स्मृति-प्रस्थान, चार सम्यक-प्रधान, चार ऋद्धि-पाद, पांच इन्द्रिय, पांच बल, सात बोध्यंग और आर्य अष्टांगिक मार्ग।
भगवान ने उन्हें यह भी कहा कि सारे संस्कार व्ययधर्मा हैं, प्रमादरहित हो इस सच्चाई का संपादन करो। उन्होंने उनको तीन माह बाद अपना परिनिर्वाण होने की सूचना भी दी।
फिर वेसाली को छोड़ भोगनगर पहुँच कर भगवान ने भिक्षुओं को चार महाप्रदेशों का उपदेश दिया । इसमें उन्होंने यह समझाया कि यदि कोई व्यक्ति किसी का भी हवाला देकर यह कहे कि 'यह धर्म है, यह विनय है, यह शास्ता का उपदेश है,' तो बिना इस उक्ति का अभिनंदन किये. बिना इसकी निंदा किये इसकी तुलना सूत्र से कर लेनी चाहिए और विनय को देख जाना चाहिए । यदि यह इनसे मेल खाये, तो इसे सु-गृहीत जानें, अन्यथा दुर्गृहीत ।
__ वहां से भगवान पावा पहुँचे जहां पर उन्होंने कर्मार-पुत्र चुन्द के आमंत्रण पर उसके यहां भोजन किया । इस भोजन को खाकर उन्हें खून गिरने की कड़ी बीमारी उत्पन्न हुई और मरणान्तक पीड़ा होने लगी। उसे उन्होंने स्मृति और संप्रज्ञान से युक्त हो, बिना दुःखित हुए, सहन कर लिया। वहां से उन्होंने कुसिनारा की ओर प्रस्थान किया । मार्ग में ककुधा नदी में स्नान कर जहां आम्रवन था वहां गये और यह घोषणा की कि आज रात के पिछले पहर कुसिनारा के उपवत्तन नामक मल्लों के शालवन में जुड़वां शाल-वृक्षों के बीच वे परिनिर्वाण-लाभ करेंगे।
वहां से आगे प्रस्थान करने से पूर्व भगवान ने आनन्द से कहा कि शायद कोई करि-पुत्र चुन्द को चिंतित करे कि तूने अ-लाभ कमाया है जैसा कि तेरा पिंडपात खा कर तथागत परिनिर्वाण को प्राप्त हुए हैं । तुम उसकी चिंता को यह कह कर दूर करना कि मैंने स्वयं भगवान के मुख से सुना था कि 'दो पिंडपात समान फल वाले हैं, दूसरे पिंडपातों से बहुत ही महाफलप्रद हैं। कौन से दो? १.जिस पिंडपात का भोजन कर तथागत अनुत्तर सम्यक संबोधि को प्राप्त हुए, और २.जिस पिंडपात का भोजन कर तथागत अनुपाधिशेष निर्वाणधातु को प्राप्त हुए।'
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इसके पश्चात भगवान कुसिनारा के मल्लों के शालवन उपवत्तन में गये और वहां जुड़वें शालों के बीच मंचक बिछवा कर स्मृति-संप्रज्ञान के साथ विश्राम करने लगे। उस समय अकाल होने पर भी वह जुड़वां शाल फूलों से लद रहे थे और तथागत की पूजा के लिए वे फूल उनके शरीर पर बिखरने लगे। ऐसे ही आकाश से दिव्य मंदार-पुष्प, चंदन-चूर्ण उनके शरीर पर गिरने लगे। दिव्य वाद्य बजने लगे, दिव्य संगीत होने लगे। यह देख भगवान ने आनन्द से कहा कि इनसे तथागत सत्कृत, गुरुकृत, मानित, पूजित नहीं होते । जो भिक्षु, भिक्षुणी, उपासक, उपासिका धर्म के मार्ग पर आरूढ़ हो विहार करते हैं उसी से तथागत सत्कृत, गुरुकृत, मानित, पूजित होते हैं।
उस समय दसों लोकधातुओं के बहुत से देवता तथागत के दर्शनार्थ एकत्रित हुए। भगवान ने देखा कि जो देवता अ-वीतराग थे वे बुरी तरह क्रंदन कर रहे थे कि सुगत बहुत जल्दी निर्वाण को प्राप्त कर रहे हैं, परंतु जो देवता वीतराग थे वे स्मृति-संप्रज्ञान के साथ, शांत रह कर यह जान रहे थे- 'संस्कार (बने हुए पदाथ) अनित्य हैं, तो कैसे इन्हें बनाये रख सकते हैं ?'
तत्पश्चात भगवान ने आनन्द को समझाया कि श्रद्धालु कुलपुत्र के लिए ये चार स्थान दर्शनीय, वैराग्य पैदा करने वाले होते हैं- १.जहां तथागत उत्पन्न हुए, २.जहां सम्यक-संबुद्ध बने, ३.जहां धर्मचक्रप्रवर्तन किया, और ४.जहां अनुपाधिशेष निर्वाण-धातु को प्राप्त हुए। उन्होंने उसे यह भी समझाया कि तम तथागत की शरीर-पूजा की तरफ से बेपरवाह रहना और सदर्थ के लिए ही उद्योगशील रहना | जिन्हें तथागत में बहुत अनुराग होगा वे ही उनकी शरीर-पूजा करेंगे । फिर उसे यह भी समझाया कि तथागत के महापरिनिर्वाण के पश्चात उनके शरीर का क्या करना होता है और कौन लोग स्तूप बनाये जाने के योग्य होते हैं।
तब आनन्द विहार में जाकर विलाप करने लगा कि मैं अभी शैक्ष्य हूं और मेरे शास्ता का परिनिर्वाण हो रहा है। भगवान ने उसे बुलवा कर कहा कि तुम शोक मत करो। मैंने तो पहले ही कह रखा है कि सभी प्रियों से पार्थक्य होने वाला है । जो कुछ उत्पन्न हुआ है, संस्कृत है वह नष्ट होने वाला है। ऐसा नहीं हो सकता कि वह नष्ट न हो । तूने लंबे समय तक तन, मन, वचन से अपरिमित मैत्री के साथ तथागत की सेवा की है। तूने पुण्य कमाया है | तू निर्वाण-साधन में लग, शीघ्र ही अनाम्नव हो जा । फिर उन्होंने आनन्द के चार अद्भुत गुणों का बखान भी किया ।
आनन्द ने भगवान से कहा कि इस छोटे से नगले में परिनिर्वाण को मत प्राप्त हों । चम्पा, राजगह आदि किसी महानगर में परिनिर्वाण-लाभ करें। वहां बहुत से लोग तथागत के भक्त हैं। इस पर भगवान ने उसे बतलाया कि यही कुसिनारा पूर्वकाल में महासुदस्सन नाम के चक्रवर्ती राजा की कुसावती नाम की राजधानी थी जो दूर दूर तक फैली हुई, जनाकीर्ण, समृद्ध और वैभव-संपन्न थी।
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तब आनन्द ने कुसिनारा में जाकर वहां के निवासियों को उनके क्षेत्र में तथागत के होने वाले महापरिनिर्वाण की जानकारी दी। इस पर बहुत से लोग उनके दर्शनार्थ चले आये और उनकी वंदना की। इसी बीच सुभद्द नाम का परिव्राजक भी वहां पर चला आया। वह धर्म के बारे में अपना कुछ संशय दूर करना चाहता था । पर आनन्द ने यह कह कर उसे भगवान के समीप जाने से रोक दिया कि वे इस समय थके हुए हैं, उन्हें कष्ट मत दो । इन दोनों का कथा-संलाप सुन भगवान ने परिव्राजक को अपने पास बुला उसे धर्मोपदेश दिया और उसके संशय का निवारण किया । भगवान ने उसे बतलाया कि जिस धर्म-विनय में आर्य अष्टांगिक मार्ग उपलब्ध नहीं होता, वहां न सोतापन्न है, न सकदागामी, न अनागामी, न अरहंत । जिस धर्म-विनय में आर्य अष्टांगिक मार्ग उपलब्ध होता है वहां सोतापन्न भी होता है, सकदागामी भी, अनागामी भी और अरहंत भी । यदि भिक्षु ठीक से विहार करें तो लोक अरहंतों से शून्य न हो। कालांतर में प्रव्रज्या, उपसंपदा पा यह परिव्राजक अरहंत हुआ । यही सुभद्द भगवान का अंतिम शिष्य हुआ।
महापरिनिर्वाण प्राप्त करने से पूर्व भगवान ने आनन्द से कहा कि शायद तुम्हें ऐसा लगे कि हमारे शास्ता चले गये, अब हमारे शास्ता नहीं हैं - ऐसा मत सोचना | मैंने जो धर्म और विनय प्रज्ञप्त किये हैं, वे ही मेरे बाद तुम्हारे शास्ता होंगे । फिर उन्होंने भिक्षुओं को भी अंतिम बार संबोधित करते हुए कहा कि सभी संस्कार अनित्य हैं, अ-प्रमाद के साथ इस सच्चाई का संपादन करो अर्थात, इसे अनुभूति पर उतारो । यही भगवान का अंतिम वचन था ।
तत्पश्चात भगवान ध्यानावस्थित हो महापरिनिर्वाण को प्राप्त हुए। इसके साथ ही भीषण, लोमहर्षक महाभूचाल हुआ । देवेंद्र सक्क (शक्र) ने गाथा कही - 'संस्कार (कृत वस्तुएं) अ-नित्य हैं, उत्पाद-व्यय स्वभाव वाले हैं, उत्पन्न हो-होकर नष्ट होते रहते हैं, इनका नितांत उप-शमन ही (वास्तविक) सुख है।'
स्तूप-निनाथागत के शरीर की दाह-क्रिया
तथागत के शरीर की दाह-क्रिया के पश्चात प्रदेशों के शासक उनकी अस्थियों को बटोर उन्हें स्तूप-निर्माण के लिए ले गये ।
. ४. महासुदस्सनसुत्त भगवान अपने परिनिर्वाण के समय कुसिनारा के पास उपवत्तन नाम के मल्लों के शाल-वन में दो शाल-वृक्षों के बीच विहार कर रहे थे। उस समय आनन्द ने उनसे कहा यदि आप इस छोटे से नगले के स्थान पर चम्पा, राजगह, सावत्थी, साकेत, कोसम्बी, बाराणसी जैसे किसी महानगर में
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परिनिर्वाण लाभ करें तो अच्छा हो । वहां बहुत से लोग तथागत के भक्त हैं जो उनके शरीर की पूजा करेंगे।
इस पर भगवान ने कहा कि पूर्वकाल में महासुदस्सन नाम का चारों दिशाओं पर विजय प्राप्त करने वाला एक मूर्धाभिषिक्त क्षत्रिय राजा था । यही कुसिनारा उसकी कुसावती नाम की राजधानी थी जो अत्यंत विस्तीर्ण, समृद्ध तथा वैभव संपन्न थी ।
उस राजा के पास सात रत्न थे - १. चक्र-रत्न, २. हस्ति- रत्न, ३. अश्व - रत्न, ४ . मणि-रत्न, ५. स्त्री- रत्न, ६. गृहपति - रत्न, तथा ७. परिणायक - रत्न । उसे चार ऋद्धियां भी प्राप्त थीं - १. परम- सौंदर्य, २. दीर्घ-आयु, ३. नीरोगता, और ४. ब्राह्मणों तथा गृहस्थों का वात्सल्य |
एक बार वह राजा अपनी चतुरंगिणी सेना के साथ उद्यानभूमि में गया । वहां पर उसने बहुत सी पुष्करिणियां खुदवाईं और उनके तीर पर विविध प्रकार के दान स्थापित किये। इधर ब्राह्मण और गृहस्थ भी राजा को भेंट करने के लिए बहुत सा धन लेकर चले आये परंतु राजा ने उसे स्वीकार नहीं किया, उल्टा उन्हें ही अपने यहां से और धन ले जाने के लिए कहा। उन लोगों ने अपने साथ लाए हुए धन को अपने घरों में वापिस ले जाना उचित नहीं समझा और राजा के लिए एक प्रासाद (महल) तैयार करवाने का निर्णय लिया । राजा इससे सहमत हुआ । देवपुत्र विस्सकम्म ने 'धम्म' नामक प्रासाद तैयार कर दिया। राजा ने उसके सामने धर्म-पुष्करिणी बनवा दी । इन दोनों के तैयार हो जाने पर राजा ने उस समय के अच्छे-अच्छे श्रमणों तथा ब्राह्मणों को संतुष्ट कर ' धम्म ' - प्रासाद में प्रवेश किया ।
तब राजा को यह भान हुआ कि 'यह मेरे दान, दम, संयम इन तीन कर्मों का फल है। जिससे मैं इस समय इतना समृद्धिशाली एवं महानुभाव हुआ हूं।' उसके मुख से प्रीति-वाक्य निकला -
' ठहर काम - वितर्क ! ठहर व्यापाद-वितर्क ! ठहर विहिंसा - वितर्क !
बस काम-वितर्क !! बस व्यापाद-वितर्क !! बस विहिंसा -वितर्क ! !'
तत्पश्चात वह कूटागार में प्रवेश कर उत्तरोत्तर प्रथम, द्वितीय, तृतीय तथा चतुर्थ ध्यान को प्राप्त कर इनमें विहार करने लगा और इसके बाद क्रमशः मैत्री, करुणा, मुदिता तथा उपेक्षा- युक्त श्रेष्ठ चित्त से एक-एक करके सभी दिशाओं को व्याप्त कर विहरने लगा ।
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बहुत समय बाद सुभद्दादेवी नाम की राजमहिषी अन्य स्त्रियों के साथ राजा को देखने के लिए गयी । उसे दरवाजा पकड़े खड़ा हुआ देख राजा ने उसे भीतर आने से रोक दिया और स्वयं तालवन में पलंग बिछवा कर दाहिनी करवट हो, पैर के ऊपर पैर रख, स्मृति और संप्रज्ञान के साथ सिंहशय्या लगा ली।
इस पर महिषी को आशंका हुई कि कहीं राजा मरणासन्न तो नहीं है ? मन में यह विचार आते ही उसने राजा को उसके धन-वैभव की याद दिलाते हुए कहा कि आप इनसे प्रसन्न हो अपने जीवित रहने की कामना करें। इस पर राजा ने उसे कहा, 'तुमने बहुत दिनों तक मेरे साथ इष्ट एवं प्रिय आचरण किया है; अतः इस अंतिम समय में अनिष्ट एवं अप्रिय आचरण करना उचित नहीं है।' इस समय तुम्हें यह कहना चाहिये- 'देव ! सभी प्रिय वस्तुओं से बिछोह होता है। आप किसी कामना के साथ प्राण न छोड़ें । कामना-युक्त मृत्यु दुःखपूर्ण होती है, गर्दा होती है। आपका जो इतना वैभव है उसमें लिप्त न हों । जीवित रहने की कामना मन में न करें ।'
__ महिषी ने ऐसा ही किया। इसके कुछ ही देर बाद राजा की मृत्यु हो गयी। चारों ब्रह्मविहारों की भावना करता हुआ वह ब्रह्मलोक में उत्पन्न हुआ।
अंत में भगवान ने कहा यह राजा महासुदस्सन मैं ही था । वह कुसावती नाम की राजधानी और वह सारा वैभव मेरा ही था । देखो, ये सभी संस्कार (कृत वस्तुएं) क्षीण हो गये, निरुद्ध हो गये, बदल गये । इसी प्रकार सभी संस्कार अ-नित्य हैं, अ-ध्रुव हैं, अ-विश्वसनीय हैं। इसीलिए सभी संस्कारों से निर्वेद प्राप्त करना, विरक्त हो जाना, विमुक्त हो जाना उचित है।
भगवान ने यह भी बतलाया कि पहले छह बार इसी स्थान पर मेरी मृत्यु हो चुकी है। अब यहां सातवीं बार मेरा शरीरपात हो रहा है। मैं सारे लोकों में कोई अन्य स्थान नहीं देखता जहां तथागत को आठवी बार शरीर त्यागना पड़े।
यह कह कर भगवान ने यह भी कहा -
"सभी संस्कार अनित्य हैं; उत्पत्ति और क्षय स्वभाव वाले हैं; ये उत्पन्न हो-हो कर मिट जाते हैं; इनका शांत हो जाना ही 'सुख' है।"
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५. जनवसभसुत्त
एक समय भगवान नातिका में गिञ्जकावसथ में विहार करते हुए कासी और कोसल, वज्जी और मल्ल, चेति और वंस, कुरु और पञ्चाल तथा मच्छ और सूरसेन नामक जनपदों में बुद्ध, धर्म और संघ की परिचर्या करने वाले मृत परिचारकों की पारलौकिक गति का बखान कर रहे थे । आयुष्मान आनन्द के मन में हुआ कि भगवान को अङ्ग और मगध के परिचारकों की गति का भी बखान करना चाहिए क्योंकि वहां पर भी बुद्ध, धर्म और संघ के प्रति श्रद्धा रखने वाले बहुत लोग थे और मगधराज बिम्बिसार तो मरते दम तक भगवान का यशोगान करते रहे | उपयुक्त समय पा कर आयुष्मान आनन्द ने भगवान से इस बारे में निवेदन कर दिया।
कालांतर में भगवान ने अपने समाहित चित्त से मगध के परिचारकों की पारलौकिक गति को जान लिया और बाद में आनन्द को बतलाया कि मेरे ऐसा जान लेने के पश्चात मगधराज बिम्बिसार मेरे सामने जनवसभ नामक यक्ष के रूप में प्रकट हुआ और मुझसे कहा कि मैं अब सातवीं बार वेस्सवण महाराज का मित्र हो कर उत्पन्न हुआ हूं | जब से मैं आप के प्रति श्रद्धावान हुआ हूं तब से मेरी अपाय गति नहीं हुई है और मैं सकदागामी होने के लिए आशान्वित हूं।
जनवसभ ने यह भी बतलाया कि पिछले दिनों उपोसथ को वैशाख पूर्णिमा की रात को सभी तावतिंस देवता सुधर्मा सभा में इकट्ठे होकर बैठे थे। चारों ओर देवताओं की बड़ी भारी सभा लगी थी। चारों दिशाओं के लोकपाल चारों महाराजा भी बैठे थे। उस समय इंद्र के साथ-साथ सभी तावतिंस देवता इस बात से बहुत प्रसन्न थे कि सुगत के शासन में ब्रह्मचर्य का पालन करके हमारे लोक में आये हुए नये देव कांति, आयु और यश में दूसरों से बढ़-चढ़ कर हैं। उन्हें इस बात से भी प्रसन्नता हुई कि 'देव-लोक भर रहा है; असुर-लोक क्षीण हो रहा है।'
तभी वहां पर बड़े भारी तेज-पुंज के साथ सनकुमार ब्रह्मा भी प्रकट हुए । आठ अंगों से युक्त ब्रह्मस्वर में उन्होंने तावतिंस देवताओं को संबोधन करते हुए कहा --
• भगवान लोगों के हित-सुख के लिए प्रयत्नशील हैं। जो कोई बुद्ध, धर्म और संघ की शरण में गये हैं और जिन्होंने शीलों को पूरा किया है वे किसी न किसी देवलोक में उत्पन्न होते हैं। सब से हीन शरीर पाने वाला भी गंधर्व का शरीर पा लेता है।
* सब कुछ जाननहार, देखनहार, अरहंत-अवस्था प्राप्त, सम्यक संबुद्ध को चार ऋद्धिपाद प्राप्त हैं - छंद, वीर्य, चित्त एवं मीमांसा । नाना प्रकार की ऋद्धियों की सिद्धि इन्हीं चार
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ऋद्धिपादों को भावित करने से ही होती है। महाब्रह्मा भी इन्हीं चार ऋद्धिपादों को भावित करने से महान ऋद्धि वाले महानुभाव हुए हैं।
* सब कुछ जाननहार, देखनहार, अरहंत अवस्था प्राप्त, सम्यक संबुद्ध को सुख की प्राप्ति के लिए तीन अवकाश प्राप्त हैं- १. भोगों में और अ-कुशल धर्मों में न लगने से उत्पन्न होने वाला सुख, और फिर इससे बढ़ कर सौमनस्य; २.काया, वाणी और चित्त के स्थूल संस्कारों के शांत हो जाने से उत्पन्न होने वाला सुख, और फिर इससे बढ़ कर सौमनस्य; और ३. अविद्या के दूर हो जाने तथा विद्या के जागने से उत्पन्न होने वाला सुख, और फिर इससे बढ़ कर सौमनस्य।
__ * सब कुछ जाननहार, देखनहार, अरहंत-अवस्था प्राप्त, सम्यक संबुद्ध द्वारा कुशल की प्राप्ति के लिए चारों स्मृति-प्रस्थान प्रज्ञप्त किये गये हैं। कौन से चार ? काया में कायानुपश्यी होकर विहरना, वेदनाओं में वेदनानुपश्यी होकर विहरना, चित्त में चित्तानुपश्यी होकर विहरना, और धर्मों में धर्मानुपश्यी होकर विहरना ।
* सब कुछ जाननहार, देखनहार, अरहंत-अवस्था प्राप्त, सम्यक संबुद्ध ने सम्यक समाधि की भावना और परिशुद्धि के लिए सात समाधि-परिष्कारों को अच्छी तरह प्रज्ञप्त किया है। कौन से सात ? सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्यक वाणी, सम्यक कर्मांत, सम्यक आजीव, सम्यक व्यायाम और सम्यक स्मृति । सम्यक दृष्टि वाला मनुष्य सम्यक संकल्प में समर्थ होता है, सम्यक संकल्प वाला सम्यक वाणी में, सम्यक वाणी वाला सम्यक कर्मांत में, सम्यक कर्मांत वाला सम्यक आजीव में, सम्यक आजीव वाला सम्यक व्यायाम में, सम्यक व्यायाम वाला सम्यक स्मृति में, सम्यक स्मृति वाला सम्यक समाधि में, सम्यक समाधि वाला सम्यक ज्ञान में और सम्यक ज्ञान वाला मनुष्य सम्यक विमुक्ति में समर्थ होता है जिसे सम्यक प्रकार से कहने वाले मनुष्य कहते हैं- भगवान का धर्म स्वाख्यात (सुंदर प्रकार से कहा गया) है, सान्दृष्टिक (इसी संसार में साक्षात्कार किये जाने के योग्य) है, अकालिक (सद्यः फलप्रद) है, एहि-पश्यिक ('आओ देखो।' का भाव जगाने वाला) है. औपनयिक (निर्वाण के समीप ले जाने वाला) है, प्रत्येक (हर एक) के लिए हितकारी है और विज्ञों (पंडितों) द्वारा ज्ञेय है । जो कोई बुद्ध, धर्म तथा संघ में स्थिर रूप से प्रसन्न हैं और उत्तम प्रिय शील से युक्त हैं उनके लिए अमृत (निर्वाण) का मार्ग खुला हुआ है।
तत्पश्चात ब्रह्मा ने घोषणा की कि चौबीस लाख से भी अधिक मगध के परिचारक अतीत
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काल में मार के तीन बंधनों के कट जाने से सोतापन्न हो गये हैं, वे फिर कभी तीन अपायों में नहीं गिर सकते और नियत रूप से संबोधि प्राप्त करने में लगे हैं। और यहां सकदागामी भी हैं।
भगवान ने यह सारा वृत्तांत जनवसभ यक्ष से सुन कर और स्वयं अभिज्ञा से जान कर इसे आयुष्मान आनन्द को बताया । आयुष्मान आनन्द ने इसे भिक्षुओं, भिक्षुणियों, उपासकों, उपासिकाओं को बतलाया । यही ब्रह्मचर्य ऋद्धियुक्त, उन्नत, विस्तारित, विख्यात और विशाल हो कर देवों तथा मनुष्यों में प्रकाशित हुआ।
६. महागोविन्दसुत्त
एक समय जब भगवान राजगह के गिज्झकूट पर्वत पर विहार कर रहे थे, पञ्चसिख नाम का गंधर्वपुत्र ढलती रात में उनके पास आया और कहने लगा कि मैंने जो तावतिंस देवों के मुँह से सुना है, उसे आपसे कहूंगा ।
__ भगवान की अनुमति पा कर उसने कहा कि बहुत दिन पहले एक उपोसथ की रात में सभी तावतिंस देव सुधर्मा-सभा में बैठे थे । बहुत बड़ी देव-परिषद चारों ओर बैठी थी । चारों दिशाओं के लोकपाल चारों महाराजा भी बैठे थे । उस समय तावतिंस देव इस बात से अत्यंत प्रसन्न हो रहे थे कि भगवान के यहां से ब्रह्मचर्य का पालन कर जो लोग देव-लोक में आये हैं वे छवि और यश में अन्य देवों से बढ़-चढ़ कर हैं।
देवों के इंद्र सक्क ने भी इसका अनुमोदन किया और भगवान के गुणों का बखान किया । इतने में सनकुमार ब्रह्मा भी वहां पर आ गये। उन्होंने भी तावतिंस देवों की अभिव्यक्ति का अनुमोदन किया, देवेंद्र सक्क से भगवान के गुणों को सुना और फिर देवों को संबोधित करते हुए कहा कि भगवान बहुत समय पहले भी महाप्रज्ञावान थे।
उन्होंने कहा कि बहुत पहले दिसम्पति नाम का राजा राज्य करता था । गोविन्द नाम का ब्राह्मण उसका पुरोहित था । गोविन्द का पुत्र जोतिपाल था । रेणु राजपुत्र, जोतिपाल और अन्य छह क्षत्रिय- ये आठों मित्र थे। गोविन्द ब्राह्मण के मरने पर उसका स्थान जोतिपाल ने ले लिया जो अपने पिता से भी बढ़-चढ़ कर पंडित और अर्थदर्शी निकला | इस पर लोगों ने उसका नाम 'महागोविन्द' रख दिया।
कालांतर में राजा का भी देहांत हो गया और राजपुत्र रेणु का राज्याभिषेक हुआ। फिर रेणु
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[१८]
के आदेश से महागोविन्द ने भारतवर्ष को सात समान भागों में बांट दिया। बीच का भाग रेणु ने रख लिया और शेष छह भाग अपने क्षत्रिय-मित्रों में बांट दिये । इन मित्रों ने भी महागोविन्द को अपना पुरोहित बना लिया।
तब महागोविन्द इन सात मूर्धाभिषिक्त क्षत्रियों का अनुशासन करने लगा और सात ब्राह्मण महाशालों तथा सात सौ स्नातकों को मंत्र पढ़ाने लगा। कुछ समय बाद उसकी ऐसी ख्याति फैल गयी कि वह ब्रह्मा को साक्षात देखता है, उनसे वार्तालाप व मंत्रणा भी करता है।
तब महागोविन्द के मन में आया कि मेरी ख्याति का कोई आधार नहीं है । पर मैंने बड़े-बूढ़ों तथा आचार्यगण को यह कहते सुना है कि जो वर्षा-काल के चातुर्मास में समाधि लगा कर करुणा-भावना करता है वह ब्रह्मा को साक्षात देख लेता है, उनसे वार्तालाप एवं मंत्रणा भी करने लगता है। अतः मैं भी क्यों न वर्षा-काल के चातुर्मास में समाधि लगा कर करुणा-भावना करूं?
तब महागोविन्द ने रेणु राजा के पास जाकर यह सारी बात बतलायी और उससे कहा कि मेरे समाधि-काल में भोजन लाने वाले को छोड़ कर कोई दूसरा व्यक्ति मेरे पास न आये । राजा इससे सहमत हुआ। फिर छहों क्षत्रियों, ब्राह्मण महाशालों तथा स्नातकों और अपनी स्त्रियों की भी सहमति प्राप्त कर वह एक उपयुक्त स्थान पर समाधि का अभ्यास करने लगा।
कुछ समय के पश्चात सनकुमार ब्रह्मा महागोविन्द के सामने प्रकट हुए । महागोविन्द ने उनसे पूछा – “कहां रह कर और क्या अभ्यास कर मनुष्य अमृत ब्रह्मलोक को प्राप्त होता है ?' ब्रह्मा ने उत्तर दिया - ‘मनुष्यों में ममत्व को छोड़ कर एकांत में रहना, करुणाभाव-युक्त होना, पापों से अलग रहना, मैथुन-कर्म से विरत रहना - इन्हीं का अभ्यास कर, और इन्हीं को सीख कर, मनुष्य अमृत ब्रह्म-लोक को प्राप्त होता है।' ब्रह्मा ने उसे यह भी बतलाया कि क्रोध, मिथ्या-भाषण, वंचना, मित्र-द्रोह, कृपणता, अभिमान, ईर्ष्या, तृष्णा, विचिकित्सा, पर-पीड़ा, राग, द्वेष, मद और मोह - इनसे युक्त हो कर नारकीय लोग ब्रह्मलोक से गिर कर दुर्गंध को प्राप्त होते हैं। इन्हें 'आमगंध' कहते हैं।
महागोविन्द को लगा कि आमगंध गृहस्थ से जल्दी दूर नहीं किये जा सकते । अतः मुझे घर से बे-घर हो प्रवजित हो जाना चाहिए | तब वह रेणु राजा, छहों क्षत्रियों, सातों ब्राह्मणमहाशालों, सात सौ स्नातकों तथा अपनी स्त्रियों को अपना मंतव्य जतला कर सिर और दाढ़ी मूंडवा कर प्रव्रजित हो गया। उसकी देखादेखी ये सब भी प्रव्रजित हो गये और इनके अतिरिक्त हजारों अन्य लोगों ने भी प्रव्रज्या ग्रहण कर ली।
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[१९]
महागोविन्द ने एक-एक करके मैत्री, करुणा, मुदिता तथा उपेक्षा-युक्त चित्त से सभी दिशाओं को आप्लावित किया और अपने श्रावकों को ब्रह्म-लोक का मार्ग बतलाया । उनमें से जिन्होंने धर्म को जान लिया, वे मर कर ब्रह्म-लोक में उत्पन्न हुए | जो धर्म को पूरी तरह नहीं समझ पाये, वे मर कर परनिम्मितवसवत्ती, निम्मानरति, तुसित, यामा, तावतिंस अथवा चातुमहाराजिक देवलोक में उत्पन्न हुए। जिन्होंने सब से हीन शरीर पाया, वे गन्धब्ब-लोक में उत्पन्न हुए । इस प्रकार उन सभी कुलपुत्रों की प्रव्रज्या सार्थक हुई।
भगवान ने पञ्चसिख से कहा, "मैं ही उस समय का महागोविन्द ब्राह्मण था। मैंने ही उन श्रावकों को ब्रह्मलोक का मार्ग बतलाया था । मेरा वह ब्रह्मचर्य न निर्वेद के लिए, न विराग के लिए, न निरोध के लिए, न परम शांति के लिए, न ज्ञान-प्राप्ति के लिए, न संबोधि के लिए और न निर्वाण के लिए था। वह केवल ब्रह्म-लोक की प्राप्ति के लिए था । परंतु मेरा यह ब्रह्मचर्य निर्वेद, विराग, निरोध, परम शांति, ज्ञान-प्राप्ति, संबोधि और निर्वाण के लिए है। और इस ब्रह्मचर्य का आधार है यही 'आर्य अष्टांगिक मार्ग' – सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्यक वचन, सम्यक कर्मांत, सम्यक
, सम्यक व्यायाम, सम्यक स्मृति, सम्यक समाधि ।"
भगवान ने आगे कहा कि जो मेरे श्रावक पूरा पूरा धर्म जानते हैं वे आम्नवों के क्षय होने से, आस्रव-रहित चित्त की विमुक्ति, प्रज्ञाविमुक्ति को इसी जन्म में स्वयं जान कर, साक्षात्कार कर, विहार करते हैं, और जो पूरा पूरा धर्म नहीं जानते वे औपपातिक, सकदागामी अथवा सोतापन्न हो जाते हैं। ऐसे सभी कुलपुत्रों की प्रव्रज्या सार्थक हो जाती है।
तत्पश्चात पञ्चसिख भगवान के कथन का अभिनंदन कर और उनकी प्रदक्षिणा कर वहां से अंतर्धान हो गया। **
७. महासमयसुत्त
एक समय भगवान अरहंत-अवस्था प्राप्त पांच सौ भिक्षुओं के एक बड़े संघ के साथ शाक्यदेश में कपिलवत्थु के महावन में विहार कर रहे थे। उस समय उनका दर्शन करने के लिए दसों लोकधातुओं के बहुत से देवता एकत्र हुए । यह देख चारों सुद्धावास लोक के देवता भी वहां पर चले आये और उन्होंने भगवान के सन्मुख अपनी-अपनी गाथाएं कहीं।
तत्पश्चात भगवान ने भिक्षुओं को कहा कि इन सब देवशरीरधारियों को विवेकपूर्वक जान
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[२०]
लो। इस पर कितनों ने सौ, हजार अथवा सत्तर हजार देवता देखे; कितनों ने सौ हजार देवता देखे और कितनों ने सभी दिशाओं को अनंत देवों से आकीर्ण पाया ।
तब भगवान ने यह सब जान कर श्रावकगण को वहां पर एकत्रित देवशरीरधारियों के नाम, इत्यादि का परिचय दिया ।
इंद्र और ब्रह्मा के साथ सभी देवों के आगमन पर मार सेना भी वहां पर आ धमकी और सबको राग से वश में करने का यत्न करने लगी । इतने में क्रोध से आगबबूला हुआ मार भी वहां पर आ पहुँचा ।
यह सब अपनी अभिज्ञा से जान कर भगवान ने श्रावकों को सचेत किया- 'मार सेना आयी हुई है। इसे विवेकपूर्वक जान लो ।'
भगवान की बात सुन कर सभी श्रावक वीर्यपूर्वक सचेत हो गये। उन वीतराग भिक्षुओं के आगे मार-सेना भाग छूटी और किसी एक का भी बाल बांका नहीं कर पायी ।
८. सक्कपञ्हसुत्त
एक समय भगवान मगध में वेदियक पर्वत की इन्दशाल - गुहा में विहार कर रहे थे । उस समय देवेंद्र सक्क तावतिंस देवों के साथ गंधर्वपुत्र पञ्चसिख को आगे कर उनके दर्शनार्थ गये ।
सक्क ने पञ्चसिख से कहा कि ध्यानमग्न, समाधिस्थ तथागत के पास मेरे जैसा कोई सहसा नहीं जा सकता। अतः पहले आप जा कर उन्हें प्रसन्न करें । हम आपके पीछे उनके दर्शनार्थ आयेंगे ।
इस पर भगवान से न बहुत दूर, न बहुत निकट रह कर पञ्चसिख अपनी बेलुवपण्डु वीणा बजाने लगा और बुद्ध, धर्म, संघ, अरहंत तथा भोग-संबंधी गाथाएं गाने लगा । गाथाओं के पूरा होने पर भगवान ने उससे पूछा तुमने इन्हें कब रचा था । पञ्चसिख ने इसका विवरण दिया ।
तत्पश्चात सक्क भी तावतिंस देवों के साथ भगवान के समीप चले आये । सक्क ने भगवान से कहा मैंने अपने से पहले उत्पन्न हुए देवों को यह कहते सुना है कि जब कोई तथागत संसार में उत्पन्न होते हैं तब देवलोक भरने लगते हैं और असुरलोक क्षीण होने लगते हैं । अब मैंने इसे अपनी
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[२१]
आंखों से देख लिया है। उन्होंने गोपक देवपुत्र के कथन का हवाला देते हुए बतलाया कि कैसे स्मृति खोये हुए व्यक्ति स्मृति-लाभ कर देवों से भी आगे निकल जाते हैं।
तदनंतर सक्क ने भगवान से अनुमति प्राप्त कर उनसे पूछा कि ऐसा कौन सा बंधन है जिसके कारण सभी प्राणी वैर, दंड, शत्रुता और हिंसाभाव को छोड़ कर वैर-रहित होकर रहना चाहते हुए भी सदा दंड-सहित, शत्रुता और हिंसाभाव से युक्त हो कर ही रहते हैं ? भगवान ने बतलाया ये बंधन हैं- ईर्ष्या और मात्सर्य ।
फिर ईर्ष्या और मात्सर्य के निदान, समुदय के बारे में पूछे जाने पर भगवान ने कहा ये प्रिय और अ-प्रिय के कारण होते हैं और इनके नहीं होने से नहीं होते । प्रिय और अ-प्रिय छंद (चाह) के कारण होते हैं । छंद वितर्क के कारण होता है। वितर्क प्रपंचसंज्ञासंख्या के कारण होता है। फिर भगवान ने सौमनस्य, दौर्मनस्य और उपेक्षा-भाव को लेकर प्रपंचसंज्ञासंख्या के निरोध का मार्ग प्रज्ञप्त किया।
तत्पश्चात सक्क के प्रश्नों के उत्तर में भगवान ने प्रातिमोक्ष-संवर, इन्द्रिय-संवर के बारे में बतलाया और यह भी स्पष्ट किया कि सभी श्रमण और ब्राह्मण एक ही सिद्धांत का प्रतिपादन करने वाले, एक ही शील को मानने वाले, एक ही अभिप्राय वाले क्यों नहीं होते हैं ? भगवान ने कहा इसका कारण यह है कि संसार के सभी लोग भिन्न-भिन्न धातु के बने होते हैं, तो जो जीव जिस धातु का बना होता है उसी को हठपूर्वक, दृढ़तापूर्वक ग्रहण कर लेता है कि यही सच है, बाकी सब झूठ । इसी कारण सभी श्रमण, ब्राह्मण एकरूप नहीं होते।
सक्क ने भगवान के प्रति आभार व्यक्त किया कि आपने बहुत दिनों से चली आ रही मेरी शंका और दुविधा को दूर कर दिया है । भगवान ने उससे पूछा कि क्या इससे पहले भी तुम्हें कभी ऐसा संतोष सौमनस्य प्राप्त हआ था? सक्क ने कहा देवासर संग्राम के समय देवताओं की जीत होने पर मेरे मन में जो संतोष, सौमनस्य हुआ था वह लड़ाई-झगड़े के संबंध में था- निर्वेद, विराग, निरोध, शांति, ज्ञान, संबोधि, निर्वाण के लिए नहीं था। अब भगवान का धर्मोपदेश सुन मुझे जो संतोष, सौमनस्य प्राप्त हुआ है, वह लड़ाई-झगड़े के संबंध में नहीं, बल्कि पूर्णतया निर्वेद, विराग, निरोध, शांति, ज्ञान, संबोधि और निर्वाण के लिए है।
तब देवेंद्र सक्क ने हाथ से पृथ्वी को छू कर तीन बार प्रीति-वाक्य कहे --
'नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स !'
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सक्क के इस प्रकार कहते-कहते उसे विरज, विमल धर्म-चक्षु उत्पन्न हुआ- 'जो कुछ समुदयधर्मा है, वह सब निरोधधर्मा है ।' और अन्य अस्सी हजार देवताओं को भी।
९. महासतिपट्टानसुत्त
एक समय भगवान कुरु-प्रदेश में कुरुओं के निगम कम्मासधम्म में विहार करते थे। उस समय भिक्षुओं को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि ये जो चार स्मृति-प्रस्थान हैं वे सत्वों की विशुद्धि, शोक और क्रंदन का विनाश, दुःख और दौर्मनस्य का अवसान, सत्य की प्राप्ति, निर्वाण का साक्षात्कार - इन सब के लिए अकेला मार्ग है।
चार स्मृति-प्रस्थान हैं - लोलुपता और दौर्मनस्य को दूर कर, स्मृति और संप्रज्ञान के साथ, उद्योगशील हो, काया में कायानुपश्यी हो कर विहरना, और ऐसे ही वेदनाओं में वेदनानुपश्यी हो कर, चित्त में चित्तानुपश्यी हो कर और धर्मों में धर्मानुपश्यी हो कर विहरना ।
'कायानुपश्यना' के लिए भिक्षु किसी निर्जन स्थान पर जा कर पालथी मार, शरीर को सीधा रख, मुख के इर्द-गिर्द जागरूकता बनाये रख, नैसर्गिक तौर पर आने जाने वाले श्वास को जानने का काम शुरू करता है। फिर सारी काया को अनुभव करते हुए, और तदुपरांत काया पर होने वाले उपद्रवों के शांत होने पर, श्वास लेना वा छोड़ना सीखता है। इस प्रकार काया के भीतरी अथवा बाहरी; अथवा भीतरी और बाहरी दोनों प्रकार के भागों में कायानुपश्यना करता हुआ विहार करता है, काया में उदय अथवा व्यय; अथवा उदय के साथ-साथ व्यय होने वाले धर्मों का अनुपश्यी हो कर विहार करता है । तब ‘यह काया है !' – इस पर जागरूकता स्थिर हो जाती है। जितनी देर तक इस प्रकार का केवल ज्ञान, केवल दर्शन बना रहता है उतनी देर तक अनासक्त हो कर विहार करता है और संसार में कुछ भी ग्रहण करने योग्य नहीं रहता । इस प्रकार काया में कायानुपश्यी हो कर विहार करना होता है।
फिर केवल बैठे-बैठे ही नहीं, चलते-फिरते, खड़े रहते, लेटे-लेटे अथवा शरीर की अन्य अवस्थाओं में भी, इन अवस्थाओं को यथाभूत जानते हुए, कायानुपश्यना की जाती है। और फिर इससे भी आगे बढ़ कर हर प्रकार की शारीरिक क्रिया में संप्रज्ञान बनाये रख कर कायानुपश्यना करनी होती है। शरीर के भीतर अशुचि याने प्रतिकूल विषयों को आलंबन बना कर उक्त प्रकार से कायानुपश्यना करनी होती है।
'वेदनानुपश्यना' करते समय जैसी भी वेदना अनुभव हो - सुखद, दुःखद, अदुःखद-असुखद,
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सामिष, निरामिष - उसे प्रज्ञापूर्वक यथाभूत जानना होता है और पूर्ववत भीतर, बाहर, सर्वत्र उदय-व्यय की अनुभूति के साथ विहार करना होता है जिससे जागरूकता स्थिर हो कर केवल इसी बात का ज्ञान अथवा दर्शन प्राप्त हो 'यह वेदना है !'
-
'चित्तानुपश्यना' करते समय जैसी भी चित्त की स्थिति हो - रागयुक्त, रागविहीन; द्वेषयुक्त, द्वेषविहीन, मोहयुक्त, मोहविहीन; इत्यादि उसे प्रज्ञापूर्वक यथाभूत जानना होता है और पूर्ववत भीतर, बाहर, सर्वत्र उदय-व्यय की अनुभूति के साथ विहार करना होता है जिससे जागरूकता स्थिर हो कर केवल इसी बात का ज्ञान, अथवा दर्शन, प्राप्त हो- 'यह चित्त है !'
'धर्मानुपश्यना' करते समय भी चित्त में जागने वाले धर्मों की जैसी जैसी स्थिति उन्हें प्रज्ञापूर्वक यथाभूत जानना होता है और पूर्ववत भीतर, बाहर, सर्वत्र उदय-व्यय की अनुभूति के साथ विहार करना होता है जिससे जागरूकता स्थिर होकर केवल इसी बात का ज्ञान, अथवा दर्शन, प्राप्त हो - 'ये धर्म हैं !'
नीवरणों की धर्मानुपश्यना करते समय प्रज्ञापूर्वक यह जानना होता है कि इस समय नीवरण है, अथवा नहीं है, अथवा उत्पन्न हो रहा है, अथवा इसका प्रहाण हो रहा है अथवा प्रहाण हुए-हुए का अब पुन: उद्भव नहीं होता है। (नीवरण हैं : १. कामच्छंद कामुकता, २. व्यापाद = द्रोह, ३. स्त्यानमृद्ध = तन-मन का आलस, ४. औद्धत्य -कौकृत्य = उद्वेग-खेद, ५. विचिकित्सा संदेह 1)
=
उपादान स्कंधों की धर्मानुपश्यना करते समय प्रज्ञापूर्वक यह जानना होता है कि इस समय स्कंध उदय हो रहा है अथवा अस्त हो रहा है । ( उपादान स्कंध हैं : १. रूप, २. वेदना, ३ . संज्ञा, ४. संस्कार, ५. विज्ञान ।)
आयतनों की धर्मानुपश्यना करते समय प्रज्ञापूर्वक यह जानना होता है कि यह भीतर का आयतन है, यह बाहर का आयतन है, यह दोनों के संसर्ग से होने वाला संयोजन है, यह अविद्यमान संयोजन की उत्पत्ति है, यह उत्पन्न हुए संयोजन का प्रहाण है और यह प्रहाण हुए हुए संयोजन का अब अनुद्भव है| (आयतन हैं : १. बाह्य-चक्षु, २. श्रोत्र, ३. घ्राण = नासिका; ४. जिव्हा, ५. काय = त्वक । ६. आभ्यंतर - मन तथा उनके विषय ।)
=
बोध्यंगों की धर्मानुपश्यना करते समय प्रज्ञापूर्वक यह जानना होता है कि इस समय बोध्यंग है, अथवा नहीं है, अथवा उत्पन्न हो रहा है, अथवा भावित हो कर परिपूर्ण हो रहा है । ( बोध्यंग हैं: १. स्मृति, २. धर्मविचय, ३. वीर्य, ४. प्रीति, ५. प्रश्रब्धि, ६. समाधि, ७. उपेक्षा ।)
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आर्य-सत्यों की धर्मानुपश्यना करते समय प्रज्ञापूर्वक, यथाभूत, यह जानना होता है कि यह दुःख है, यह दुःख का समुदय है, यह दुःख का निरोध है, यह दुःख-निरोध का उपाय है।
तत्पश्चात भगवान ने स्पष्ट किया कि दुःख, दुःख का समुदय, दुःख का निरोध और दुःख-निरोध का उपाय – इनसे क्या अभिप्राय है । संक्षेप में पांचों उपादान स्कंध ही 'दुःख' हैं; बार-बार राग जगाने वाली तृष्णा 'दुःख का समुदय' है; इस तृष्णा का सर्वथा निरोध 'दुःख का निरोध' है; और आर्य अष्टांगिक मार्ग (सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्यक वचन, सम्यक कर्मांत, सम्यक आजीव, सम्यक व्यायाम, सम्यक स्मृति, सम्यक समाधि) 'दुःख-निरोध का उपाय' है।
अंत में भगवान ने प्रज्ञप्त किया कि जो कोई मेरे बतलाये अनुसार इन चार स्मृति-प्रस्थानों की सात वर्ष भावना करे उसे इन दो फलों में से एक की आशा रखनी चाहिए- इसी जन्म में अर्हत्व का साक्षात्कार अथवा उपाधि शेष होने पर अनागामि-भाव । भगवान ने आगे प्रज्ञप्त किया कि इससे कहीं कम अवधि में भी इस फल की आशा की जा सकती है।
१०. पायासिराजञसुत्त एक समय आयुष्मान कुमारकस्सप एक बड़े भिक्षु-संघ के साथ कोसल देश में सेतब्या नगर के उत्तर की ओर सिंसपा-वन में विहार करते थे। उस समय पायासि राजन्य कोसल-नरेश प्रसेनदि द्वारा प्रदत्त सेतब्या का स्वामी हो कर रहता था।
उन दिनों कुमारकस्सप की ऐसी कीर्ति फैल रही थी कि वे पंडित, मेधावी, बहुश्रुत, मन की बात जानने वाले, अच्छी प्रतिभा वाले, अनुभवी तथा अरहंत हैं। यह मानते हुए कि अरहंतों का दर्शन करना अच्छा होता है, सेतब्या के बहुत से लोग सिंसपा-वन जाने लगे। पायासि राजन्य भी उनके साथ हो लिया।
वहां पहुँच कर पायासि राजन्य ने कुमारकस्सप से कहा कि मैं ऐसे सिद्धांत को मानने वाला हूं कि न तो कोई परलोक होता है, न जीव मर कर पैदा होते हैं और न ही अच्छे और बुरे कर्मों का कोई फल होता है । इसके लिए उसने अनेक तर्क दिये- १. मरे हुओं को किसी ने लौट कर आते नहीं देखा, २. धर्मात्मा आस्तिकों को भी मरने की इच्छा नहीं होती, ३. जीव के निकल जाने पर मृत शरीर का न तो वज़न ही कम होता है और न ही जीव को कहीं से निकलते जाते देखा जाता है।
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कुमारकस्सप ने ढेर-सारी उपमाएं देकर पायासि राजन्य की इस मिथ्या दृष्टि को दूर किया । इससे भाव-विभोर हो कर पायासि राजन्य ने कहा मैं भगवान गौतम की शरण जाता हूं, धर्म की भी, भिक्षु-संघ की भी । आज से आप जीवन भर के लिए मुझे अपना उपासक स्वीकार करें।
___ इस ‘सुत्त' में यह भी समझाया गया है कि दान कैसे देना चाहिए | दान श्रद्धापूर्वक, अपने हाथ से, उत्तम मन से देना चाहिए।
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Suttapitake Dīghanikāyo
Dutiyo Bhāgo
Mahāvaggapāļi
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Ciram Titthatu Saddhammo!
May the Truth-based Dhamma
Endure for A Long Time !
“Doeme, Bbikebabe, Dhamma saddhammassa thitiyā asammosāya anantaradhānāya samvattanti. Katame dve? Sunikkhittañca padabyañjanam attho ca sunito. Sunikkbittassa, Bbikebape, padabyañjanassa atthopi sunayo hoti."
“There are two things, O monks, which A N. 1. 2. 21, Adhikaranavaggalacha Tmith-based Dhamma end
kamake the Truth-based Dhamma endure
for a long time, without any distortion and without (fear of) eclipse. Which two? Proper placement of words and their natural interpretation. Words properly placed help also in their natural interpretation."
ammas or realizing be recit
...ye vo mayā dhammā abhiñña desitā, tattha sabbeheva sangamma samāgamma atthena attham byañjanena byañjanam sangāyitabbam na vivaditabbam, yathayidam brabmacariyam addhaniyam assa ciratthitikam... ...the dhammas (truths) which I have D. N. 3.177, Pāsādikasutta
taught to you after realizing them with my super-knowledge, should be recited by all, in concert and without dissension, in a uniform version collating meaning with meaning and wording with wording. In this way, this teaching with pure practice will last long and endure for a long time...
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Present Text
The present volume is the Mahāvagga-pāļi : the second of the three volumes of the Dīgha Nikāya, the first nikāya of the Sutta Pițaka.
We sincerely hope that this publication will provide immense benefit to the practitioners of Vipassana as well as to research scholars.
Director, Vipassana Research Institute,
Igatpuri, India.
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The Pali alphabets in Devanagari and Roman characters:
Vowels:
ई 1
अ
आ ä
इ
i
Consonants with Vowel अ (a):
क ka ख kha
च ca
छ cha
ट
ta
त
प
pa
य
र ya
One nasal sound (niggahita):
अं
am
Vowels in combination with consonants “k” and “kh” : (exceptions: रुru, रूrū) क ka का ka कि ki
की ki
कु ku खु khu
कू kū के ke
ख kha खा kha fa khi
đi khi
खूkhū
खे khe
Conjunct-consonants:
क्क kka
ख्य
ग्व
च्य
ञ्च
ड
a
१ 1
ta
khya
gva
cca
ñca
dda
ण्य
nya
त्व
tva
द्व
dva
न्द
nda
न्ह
nha
ब्भ bbha
म्भ
mbha
व्ह
yha
स्त्र stra
ह्म
hma
२ 2
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फ pha
ra
ग ga
ज ja
ल la
क्ख kkha
ख्ख khva ग्ग
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च्छccha
ञ्छncha
प्पppa
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म्म
ल्ल lla
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न्द्र ndra
स्र sna
ह्य hya
३ 3
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ञ्ज ñja
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ध्व dhva
न्ध ndha
प्फ ppha
ब्र
bra
म्य mya
ल्य lya
स्य sya
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45
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ग्घ ggha
वय nkhya
झjjha झnjha
ण्ठ ntha
त्थ ttha
द्म dma
न्त
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प्य
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म्प mpa
म्ह mha
ल्ह lha
स्स ssa
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७ 7
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म्फ mpha
य्य yya
व्ह vha
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९ 9
ओ
०
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द्र dra
न्थ ntha
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the various c
Shed to indicate chipt, the follow
Notes on the pronunciation of Pāli Pāli was a dialect of northern India in the time of Gotama the Buddha. The earliest known script in which it was written was the Brāhmi script of the third century B.C. After that it was preserved in the scripts of the various countries where Pāli was maintained. In Roman script, the following set of diacritical marks has been established to indicate the proper pronunciation. The alphabet consists of forty-one characters: eight vowels, thirty-two
consonants and one nasal sound (niggahita). Vowels (a line over a vowel indicates that it is a long vowel):
a - as the "a" in about ā - as the "a" in father i - as the “”in mint i - as the "ee" in see u - as the “u” in put ū - as the "00" in cool e is pronounced as the "ay" in day, except before double consonants when it is pronounced as the "e" in bed: deva, mettă; o is pronounced as the "o" in no, except before double consonants
when it is pronounced slightly shorter: loka, photthabba. Consonants are pronounced mostly as in English.
g - as the "g" in get C - soft like the "ch" in church
V - a very soft -v- or -WAll aspirated consonants are pronounced with an audible expulsion of breath
following the normal unaspirated sound. th - not as in 'three'; rather 't' followed by 'h' (outbreath)
ph - not as in 'photo’; rather 'p' followed by 'h' (outbreath) The retroflex consonants: t, th, d, dh, n are pronounced with the tip of the
tongueturned back; and I is pronounced with the tongue retroflexed,
almost a combined 'rl' sound. The dental consonants: t, th, d, dh, n are pronounced with the tongue
touching the upper front teeth. The nasal sounds:
n - guttural nasal, like -ng- as in singer ñ - as in Spanish señor n - with tongue retroflexed
m - as in hung, ring Double consonants are very frequent in Pāli and must be strictly pronounced
as long consonants, thus -nn- is like the English 'nn' in "unnecessary”.
Tural na ich seño flexed
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सुत्तपिटके
दीघनिकायो
दुतियो भागो महावग्गपाळि
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।। नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स ।।
दीघनिकायो महावग्गपाळि
१. महापदानसुत्तं
पुब्बेनिवासपटिसंयुत्तकथा १. एवं मे सुतं- एकं समयं भगवा सावत्थियं विहरति जेतवने अनाथपिण्डिकस्स आरामे करेरिकुटिकायं । अथ खो सम्बहुलानं भिक्खूनं पच्छाभत्तं पिण्डपातपटिक्कन्तानं करेरिमण्डलमाळे सन्निसिन्नानं सन्निपतितानं पुब्बेनिवासपटिसंयुत्ता धम्मी कथा उदपादि"इतिपि पुब्बेनिवासो, इतिपि पुब्बेनिवासो''ति ।
२. अस्सोसि खो भगवा दिब्बाय सोतधातुया विसुद्धाय अतिक्कन्तमानुसिकाय तेसं
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दीघनिकायो-२
(२.१.३-५)
भिक्खूनं इमं कथासल्लापं । अथ खो भगवा उट्ठायासना येन करेरिमण्डलमाळो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा पञत्ते आसने निसीदि, निसज्ज खो भगवा भिक्खू आमन्तेसि- “कायनुत्थ, भिक्खवे, एतरहि कथाय सन्निसिन्ना; का च पन वो अन्तराकथा विप्पकता'"ति ?
___एवं वुत्ते ते भिक्खू भगवन्तं एतदवोचुं- “इध, भन्ते, अम्हाकं पच्छाभत्तं पिण्डपातपटिक्कन्तानं करेरिमण्डलमाळे सन्निसिन्नानं सन्निपतितानं पुब्बेनिवासपटिसंयुत्ता धम्मी कथा उदपादि - ‘इतिपि पुब्बेनिवासो इतिपि पुब्बेनिवासो'ति । अयं खो नो, भन्ते, अन्तराकथा विप्पकता | अथ भगवा अनुप्पत्तो''ति ।
३. “इच्छेय्याथ नो तुम्हे, भिक्खवे, पुब्बेनिवासपटिसंयुत्तं धम्मिं कथं सोतु"न्ति ? "एतस्स, भगवा, कालो; एतस्स, सुगत, कालो; यं भगवा पुब्बेनिवासपटिसंयुत्तं धम्मिं कथं करेय्य, भगवतो सुत्वा भिक्खू धारेस्सन्तीति । "तेन हि, भिक्खवे, सुणाथ साधुकं मनसि करोथ भासिस्सामी''ति । “एवं, भन्ते'"ति खो ते भिक्खू भगवतो पच्चस्सोसुं । भगवा एतदवोच
४. “इतो सो, भिक्खवे, एकनवुतिकप्पे यं विपस्सी भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो लोके उदपादि । इतो सो, भिक्खवे, एकतिंसे कप्पे यं सिखी भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो लोके उदपादि । तस्मि व खो, भिक्खवे, एकतिसे कप्पे वेस्सभू भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो लोके उदपादि । इमस्मिञ्चेव खो, भिक्खवे, भद्दकप्पे ककुसन्धो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो लोके उदपादि। इमस्मि व खो, भिक्खवे, भद्दकप्पे कोणागमनो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो लोके उदपादि । इमस्मि व खो, भिक्खवे, भद्दकप्पे कस्सपो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो लोके उदपादि । इमस्मि व खो, भिक्खवे, भद्दकप्पे अहं एतरहि अरहं सम्मासम्बुद्धो लोके उप्पन्नो ।
५. “विपस्सी, भिक्खवे, भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो खत्तियो जातिया अहोसि, खत्तियकुले उदपादि । सिखी, भिक्खवे, भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो खत्तियो जातिया अहोसि, खत्तियकुले उदपादि । वेस्सभू, भिक्खवे, भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो खत्तियो जातिया अहोसि, खत्तियकुले उदपादि । ककुसन्धो, भिक्खवे, भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो ब्राह्मणो जातिया अहोसि, ब्राह्मणकुले उदपादि । कोणागमनो, भिक्खवे, भगवा अरहं
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(२.१.६-८)
१. महापदानसुत्तं
सम्मासम्बुद्धो ब्राह्मणो जातिया अहोसि, ब्राह्मणकुले उदपादि । कस्सपो, भिक्खवे, भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो ब्राह्मणो जातिया अहोसि, ब्राह्मणकुले उदपादि । अहं, भिक्खवे, एतरहि अरहं सम्मासम्बुद्धो खत्तियो जातिया अहोसिं, खत्तियकुले उप्पन्नो ।
६. “विपस्सी, भिक्खवे, भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो कोण्डञो गोत्तेन अहोसि । सिखी, भिक्खवे, भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो कोण्डो गोत्तेन अहोसि । वेस्सभू, भिक्खवे, भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो कोण्डञो गोत्तेन अहोसि । ककुसन्धो, भिक्खवे, भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो कस्सपो गोत्तेन अहोसि | कोणागमनो, भिक्खवे, भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो कस्सपो गोत्तेन अहोसि। कस्सपो, भिक्खवे, भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो कस्सपो गोत्तेन अहोसि । अहं, भिक्खवे, एतरहि अरहं सम्मासम्बुद्धो गोतमो गोत्तेन अहोसिं|
७. “विपस्सिस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स असीतिवस्ससहस्सानि आयुप्पमाणं अहोसि । सिखिस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स सत्ततिवस्ससहस्सानि आयुप्पमाणं अहोसि । वेस्सभुस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स सट्टिवस्ससहस्सानि आयुप्पमाणं अहोसि । ककुसन्धस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स चत्तालीसवस्ससहस्सानि आयुप्पमाणं अहोसि। कोणागमनस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स तिंसवस्ससहस्सानि आयुप्पमाणं अहोसि । कस्सपस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स वीसतिवस्ससहस्सानि आयुप्पमाणं अहोसि । महं, भिक्खवे, एतरहि अप्पकं आयुप्पमाणं परित्तं लहुकं; यो चिरं जीवति, सो वस्ससतं अप्पं वा भिय्यो ।
८. “विपस्सी, भिक्खवे, भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो पाटलिया मूले अभिसम्बुद्धो । सिखी, भिक्खवे, भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो पुण्डरीकस्स मूले अभिसम्बुद्धो । वेस्सभू, भिक्खवे, भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो सालस्स मूले अभिसम्बुद्धो । ककुसन्धो, भिक्खवे, भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो सिरीसस्स मूले अभिसम्बुद्धो । कोणागमनो, भिक्खवे, भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो उदुम्बरस्स मूले अभिसम्बुद्धो । कस्सपो, भिक्खवे, भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो निग्रोधस्स मूले अभिसम्बुद्धो । अहं, भिक्खवे, एतरहि अरहं सम्मासम्बुद्धो अस्सत्थस्स मूले अभिसम्बुद्धो ।
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दीघनिकायो-२
९. “विपस्सिस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स खण्डतिस्सं नाम सावकयुगं अहोसि अग्गं भद्दयुगं । सिखिस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स अभिभूसम्भवं नाम सावकयुगं अहोसि अग्गं भद्दयुगं । वेस्स स्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स सोणुत्तरं नाम सावकयुगं अहोसि अग्गं भद्दयुगं । ककुसन्धस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स विधुरसञ्जीवं नाम सावकयुगं अहोसि अग्गं भद्दयुगं । कोणागमनस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स भिय्योसुत्तरं नाम सावकयुगं अहोसि अग्गं भद्दयुगं । कस्सपस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स तिस्सभारद्वाजं नाम सावकयुगं अहोसि अग्गं भद्दयुगं । मय्हं, भिक्खवे, तर हि सारिपुत्तमोग्गल्लानं नाम सावकयुगं अहोसि अग्गं भद्दयुगं ।
१०. “विपस्सिस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स तयो सावकानं सन्निपाता अहेसुं । एको सावकानं सन्निपातो अहोसि अट्ठसट्ठिभिक्खुसतसहस्सं, एको सावकानं सन्निपातो अहोसि भिक्खुसतसहस्सं, एको सावकानं सन्निपातो अहोसि असीतिभिक्खुसहस्सानि । विपस्सिस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स इमे तयो सावकानं सन्निपाता अहेसुं सब्बेसंयेव खीणासवानं ।
(२.१.९-१०)
“सिखिस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स तयो सावकानं सन्निपाता अहेसुं । एको सावकानं सन्निपातो अहोसि भिक्खुसतसहस्सं, एको सावकानं सन्निपातो अहोसि असीतिभिक्खुसहस्सानि, एको सावकानं सन्निपातो अहोसि सत्ततिभिक्खुसहस्सानि । सिखिस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स इमे तयो सावकानं सन्निपाता अहेसुं सब्बेसंयेव खीणासवानं ।
"वेस्स स्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स तयो सावकानं सन्निपाता अहेसुं । एको सावकानं सन्निपातो अहोसि असीतिभिक्खुसहस्सानि, एको सावकानं सन्निपातो अहोसि सत्ततिभिक्खुसहस्सानि, एको सावकानं सन्निपातो अहो सट्ठिभिक्खुसहस्सानि । वेस्स स्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स इमे तयो सावकानं सन्निपाता अहेसुं सब्बेसंयेव खीणासवानं ।
"ककुसन्धस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स एको सावकानं सन्निपातो
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(२.१.११-१२)
१. महापदानसुत्तं
अहोसि चत्तालीसभिक्खुसहस्सानि । ककुसन्धस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स अयं एको सावकानं सन्निपातो अहोसि सब्बेसंयेव खीणासवानं ।
"कोणागमनस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स एको सावकानं सन्निपातो अहोसि तिसभिक्खुसहस्सानि । कोणागमनस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स अयं एको सावकानं सन्निपातो अहोसि सब्बेसंयेव खीणासवानं ।
“कस्सपस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स एको सावकानं सन्निपातो अहोसि वीसतिभिक्खुसहस्सानि । कस्सपस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स अयं एको सावकानं सन्निपातो अहोसि सब्बेसंयेव खीणासवानं ।
__“महं, भिक्खवे, एतरहि एको सावकानं सन्निपातो अहोसि अड्डतेळसानि भिक्खुसतानि । महं, भिक्खवे, अयं एको सावकानं सन्निपातो अहोसि सब्बेसंयेव खीणासवानं ।
११. “विपस्सिस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स असोको नाम भिक्खु उपट्ठाको अहोसि अग्गुपट्ठाको । सिखिस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स खेमङ्करो नाम भिक्खु उपट्ठाको अहोसि अग्गुपट्ठाको। वेस्सभुस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स उपसन्तो नाम भिक्खु उपट्ठाको अहोसि अग्गुपट्ठाको । ककुसन्धस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स बुद्धिजो नाम भिक्खु उपट्ठाको अहोसि अग्गुपट्ठाको । कोणागमनस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स सोत्थिजो नाम भिक्खु उपट्ठाको अहोसि अग्गुपट्टाको । कस्सपस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स सबमित्तो नाम भिक्खु उपट्ठाको अहोसि अग्गुपट्ठाको। मम्हं, भिक्खवे, एतरहि आनन्दो नाम भिक्खु उपट्ठाको अहोसि अग्गुपट्ठाको।
१२. “विपस्सिस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स बन्धुमा नाम राजा पिता अहोसि । बन्धुमती नाम देवी माता अहोसि जनेत्ति । बन्धुमस्स रञो बन्धुमती नाम नगरं राजधानी अहोसि ।
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दीघनिकायो-२
(२.१.१३-१३)
“सिखिस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स अरुणो नाम राजा पिता अहोसि । पभावती नाम देवी माता अहोसि जनेत्ति । अरुणस्स रञो अरुणवती नाम नगरं राजधानी अहोसि ।
“वेस्सभुस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स सुप्पतितो नाम राजा पिता अहोसि । वस्सवती नाम देवी माता अहोसि जनेत्ति। सुप्पतितस्स रञो अनोमं नाम नगरं राजधानी अहोसि ।
“ककुसन्धस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स अग्गिदत्तो नाम ब्राह्मणो पिता अहोसि । विसाखा नाम ब्राह्मणी माता अहोसि जनेत्ति । तेन खो पन, भिखवे, समयेन खेमो नाम राजा अहोसि । खेमस्स रो खेमवती नाम नगरं राजधानी अहोसि ।
"कोणागमनस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स यज्ञदत्तो नाम ब्राह्मणो पिता अहोसि । उत्तरा नाम ब्राह्मणी माता अहोसि जनेत्ति । तेन खो पन, भिक्खवे, समयेन सोभो नाम राजा अहोसि। सोभस्स रञो सोभवती नाम नगरं राजधानी अहोसि ।
“कस्सपस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स ब्रह्मदत्तो नाम ब्राह्मणो पिता अहोसि । धनवती नाम ब्राह्मणी माता अहोसि जनेत्ति । तेन खो पन, भिक्खवे, समयेन किकी नाम राजा अहोसि । किकिस्स रञो बाराणसी नाम नगरं राजधानी अहोसि ।
"मव्हं, भिक्खवे, एतरहि सुद्धोदनो नाम राजा पिता अहोसि । माया नाम देवी माता अहोसि जनेत्ति । कपिलवत्थु नाम नगरं राजधानी अहोसी''ति । इदमवोच भगवा, इदं वत्वान सुगतो उट्ठायासना विहारं पाविसि ।
१३. अथ खो तेसं भिक्खूनं अचिरपक्कन्तस्स भगवतो अयमन्तराकथा उदपादि“अच्छरियं, आवुसो, अब्भुतं, आवुसो, तथागतस्स महिद्धिकता महानुभावता । यत्र हि नाम तथागतो अतीते बुद्धे परिनिब्बुते छिन्नपपञ्चे छिन्नवटुमे परियादिन्नवट्टे
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१. महापदानसुत्तं
सब्बदुक्खवीतिवत्ते जातितोपि अनुस्सरिस्सति, नामतोपि अनुस्सरिस्सति, गोत्ततोपि अनुरसरिस्सति, आयुप्पमाणतोपि अनुस्सरिस्सति, सावकयुगतोपि अनुस्सरिस्सति, सावकसन्निपाततोपि अनुस्सरिस्सति - ' एवंजच्चा ते भगवन्तो अहेसुं इतिपि, एवंनामा एवंगोत्ता एवंसीला एवंधम्मा एवंपञ्ञा एवंविहारी एवंविमुत्ता ते भगवन्तो अहेसुं इतिपी' 'ति ।
(२.१.१४-१४)
"किं नु खो, आवुसो, तथागतस्सेव नु खो एसा धम्मधातु सुप्पटिविद्धा, यस्सा धम्मधातुया सुप्पटिविद्वत्ता तथागतो अतीते बुद्धे परिनिब्बुते छिन्नपपञ्चे छिन्नवटुमे परियादिन्नवट्टे सब्बदुक्खवीतिवत्ते जातितोपि अनुस्सरति, नामतोपि अनुस्सरति, गोत्ततोपि अनुसरति । आयुप्पमाणतोपि अनुरसरति, सावकयुगतोपि अनुस्सरति, सावकसन्निपाततोपि अनुस्सरति - ' एवंजच्चा ते भगवन्तो अहेसुं इतिपि, एवंनामा एवंगोत्ता एवंसीला एवंधम्मा एवंपञ एवंविहारी एवंविमुत्ता ते भगवन्तो अहेसुं इतिपी 'ति, उदाहु देवता तथागतस्स एतमत्थं आरोचेसुं, येन तथागतो अतीते बुद्धे परिनिब्बुते छिन्नपपञ्चे छिन्नवटुमे परियादिन्नवट्टे सब्बदुक्खवीतिवत्ते जातितोपि अनुस्सरति, नामतोपि अनुसरति, गोत्ततोपि अनुसरति, आयुप्पमाणतोपि अनुस्सरति, सावकयुगतोपि अनुस्सरति, सावकसन्निपाततोपि अनुस्सरति – ‘एवंजच्चा ते भगवन्तो अहेसुं इतिपि, एवंनामा एवंगोत्ता एवंसीला एवंधम्मा एवंपञ एवंविहारी एवंविमुत्ता ते भगवन्तो अहेसुं इतिपी' 'ति । अयञ्च हिदं ते भिक्खूनं अन्तराकथा विप्पकता होति ।
१४. अथ खो भगवा सायन्हसमयं पटिसल्लाना वुट्ठितो येन करेरिमण्डलमाळो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा पञ्ञत्ते आसने निसीदि । निसज्ज खो भगवा भिक्खू आमन्तेसि – “कायनुत्थ, भिक्खवे, एतरहि कथाय सन्निसिन्ना । का च पन वो अन्तराकथा विप्पकता "ति ?
७
एवं वृत्ते ते भिक्खू भगवन्तं एतदवोचुं- “ इध, भन्ते, अम्हाकं अचिरपक्कन्तस्स भगवतो अयं अन्तराकथा उदपादि - ' अच्छरियं, आवुसो, अब्भुतं, आवुसो, तथागतस्स महिद्धिकता महानुभावता, यत्र हि नाम तथागतो अतीते बुद्धे परिनिब्बुते छिन्नपपञ्चे छिन्नवटुमे परियादिन्नवट्टे सब्बदुक्खवीतिवत्ते जातितोपि अनुस्सरिस्सति, नामतोपि अनुस्सरिस्सति, गोत्ततोपि अनुस्सरिस्सति, आयुप्पमाणतोपि अनुस्सरिस्सति, सावकयुगोप अनुस्सरिस्सति, सावकसन्निपाततोपि अनुस्सरिस्सति - एवंजच्चा ते भगवन्तो अहे सुं
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दीघनिकायो-२
(२.१.१५-१५)
इतिपि, एवंनामा एवंगोत्ता एवंसीला एवंधम्मा एवंपञ्जा एवंविहारी एवंविमुत्ता ते भगवन्तो अहेसुं इतिपी'ति । किं नु खो, आवुसो, तथागतस्सेव नु खो एसा धम्मधातु सुप्पटिविद्धा, यस्सा धम्मधातुया सुप्पटिविद्धत्ता तथागतो अतीते बुद्धे परिनिब्बुते छिन्नपपञ्चे छिन्नवटुमे परियादिन्नवट्टे सब्बदुक्खवीतिवत्ते जातितोपि अनुस्सरति, नामतोपि अनुस्सरति, गोत्ततोपि अनुस्सरति, आयुप्पमाणतोपि अनुस्सरति, सावकयुगतोपि अनुस्सरति, सावकसन्निपाततोपि अनुस्सरति - ‘एवंजच्चा ते भगवन्तो अहेसुं इतिपि, एवंनामा एवंगोत्ता एवंसीला एवंधम्मा एवंपञ्जा एवंविहारी एवंविमुत्ता ते भगवन्तो अहेसुं इतिपी'ति । उदाहु देवता तथागतस्स एतमत्थं आरोचेसुं, येन तथागतो अतीते बुद्ध परिनिब्बुते छिन्नपपञ्चे छिन्नवटुमे परियादिन्नवट्टे सब्बदुक्खवीतिवत्ते जातितोपि अनुस्सरति, नामतोपि अनुस्सरति, गो. तोपि अनुस्सरति, आयुप्पमाणतोपि अनुस्सरति, सावकयुगतोपि अनुस्सरति, सावकसन्निपाततोपि अनुस्सरति- एवंजच्चा ते भगवन्तो अहेसुं इतिपि, एवंनामा एवंगोत्ता एवंसीला एवंधम्मा एवंपञ्जा एवंविहारी एवंविमुत्ता ते भगवन्तो अहेसुं इतिपी'ति ? अयं खो नो, भन्ते, अन्तराकथा विप्पकता, अथ भगवा अनुप्पत्तो''ति ।
१५. "तथागतस्सेवेसा, भिक्खवे, धम्मधातु सुष्पटिविद्धा, यस्सा धम्मधातुया सुप्पटिविद्वत्ता तथागतो अतीते बुद्धे परिनिब्बुते छिन्नपपञ्चे छिन्नवटुमे परियादिनवट्टे सब्बदुक्खवीतिवत्ते जातितोपि अनुस्मरति, नामतोपि अनुस्सरति, गोत्ततोपि अनुस्सरति, आयुप्पमाणतोपि अनुस्मरति, सावकयुगतोपि अनुस्मरति, सावकसन्निपाततोपि अनुस्सरति‘एवंजच्चा ते भगवन्तो अहेसुं इतिपि, एवंनामा एवंगोत्ता एवंसीला एवंधम्मा एवंपञ्जा एवंविहारी एवंविमुत्ता ते भगवन्तो अहेसुं इतिपी'ति । देवतापि तथागतस्स एतमत्थं आरोचेसुं, येन तथागतो अतीते बुद्धे परिनिब्बुते छिन्नपपञ्चे छिन्नवटुमे परियादिन्नवट्टे सब्बदुक्खवीतिवत्ते जातितोपि अनुस्सरति, नामतोपि अनुस्सरति, गोत्ततोपि अनुस्सरति, आयुप्पमाणतोपि अनुस्सरति, सावकयुगतोपि अनुस्सरति, सावकसन्निपाततोपि अनुस्सरति - ‘एवंजच्चा ते भगवन्तो अहेसुं इतिपि, एवंनामा एवंगोत्ता एवंसीला एवंधम्मा एवंपञ्जा एवंविहारी एवंविमुत्ता ते भगवन्तो अहेसुं इतिपी'ति ।
“इच्छेय्याथ नो तुम्हे, भिक्खवे, भिय्योसोमत्ताय पुब्बेनिवासपटिसंयुत्तं धम्मिं कथं सोतु''न्ति । “एतस्स, भगवा, कालो; एतस्स, सुगत, कालो; यं भगवा भिय्योसोमत्ताय पुब्बेनिवासपटिसंयुत्तं धम्मिं कथं करेय्य, भगवतो सुत्वा भिक्खू धारेस्सन्ती''ति । “तेन हि,
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(२.१.१६-१८)
१. महापदानसुत्तं
भिक्खवे, सुणाथ साधुकं मनसि करोथ भासिस्सामी''ति । “एवं, भन्ते"ति खो ते भिक्खू भगवतो पच्चस्सोसुं। भगवा एतदवोच -
१६. “इतो सो, भिक्खवे, एकनवुतिकप्पे यं विपस्सी भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो लोके उदपादि । विपस्सी, भिक्खवे, भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो खत्तियो जातिया अहोसि, खत्तियकुले उदपादि । विपस्सी, भिक्खवे, भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो कोण्डो गोत्तेन अहोसि । विपस्सिस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स असीतिवस्ससहस्सानि आयुप्पमाणं अहोसि । विपस्सी, भिक्खवे, भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो पाटलिया मूले अभिसम्बुद्धो । विपस्सिस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स खण्डतिस्सं नाम सावकयुगं अहोसि अग्गं भद्दयुगं । विपस्सिस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स तयो सावकानं सन्निपाता अहेसुं। एको सावकानं सन्निपातो अहोसि अट्ठसटिभिक्खुसतसहस्सं, एको सावकानं सन्निपातो अहोसि भिक्खुसतसहस्सं, एको सावकानं सन्निपातो अहोसि असीतिभिक्खुसहस्सानि । विपस्सिस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स इमे तयो सावकानं सन्निपाता अहेसुं सब्बेसंयेव खीणासवानं । विपस्सिस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स असोको नाम भिक्खु उपट्ठाको अहोसि अग्गुपट्ठाको | विपस्सिस्स, भिक्खवे, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स बन्धुमा नाम राजा पिता अहोसि । बन्धुमती नाम देवी माता अहोसि जनेत्ति । बन्धुमस्स रो बन्धुमती नाम नगरं राजधानी अहोसि ।
बोधिसत्तधम्मता
१७. “अथ खो, भिक्खवे, विपस्सी बोधिसत्तो तुसिता काया चवित्वा सतो सम्पजानो मातुकुच्छिं ओक्कमि। अयमेत्थ धम्मता।
१८. “धम्मता, एसा, भिक्खवे, यदा बोधिसत्तो तुसिता काया चवित्वा मातुकुच्छिं ओक्कमति । अथ सदेवके लोके समारके सब्रह्मके सस्समणब्राह्मणिया पजाय सदेवमनुस्साय अप्पमाणो उळारो ओभासो पातु भवति अतिक्कम्मेव देवानं देवानुभावं । यापि ता लोकन्तरिका अघा असंवुता अन्धकारा अन्धकारतिमिसा, यत्थ पिमे चन्दिमसूरिया एवंमहिद्धिका एवंमहानुभावा आभाय नानुभोन्ति, तत्थपि अप्पमाणो उळारो ओभासो पातु भवति अतिक्कम्मेव देवानं देवानुभावं । येपि तत्थ सत्ता उपपन्ना, तेपि
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०
दीघनिकायो-२
(२.१.१९-२३)
१
तेनोभासेन अचमचं सजानन्ति - 'अ पि किर, भो, सन्ति सत्ता इधूपपन्ना'ति । अयञ्च दससहस्सी लोकधातु सङ्कम्पति सम्पकम्पति सम्पवेधति । अप्पमाणो च उळारो ओभासो लोके पातु भवति अतिक्कम्मेव देवानं देवानुभावं । अयमेत्थ धम्मता ।
१९. "धम्मता एसा, भिक्खवे, यदा बोधिसत्तो मातुकुच्छिं ओक्कन्तो होति । चत्तारो नं देवपुत्ता चतुद्दिसं रक्खाय उपगच्छन्ति - ‘मा नं बोधिसत्तं वा बोधिसत्तमातरं वा मनुस्सो वा अमनुस्सो वा कोचि वा विहेठेसी'ति । अयमेत्थ धम्मता ।
२०. “धम्मता एसा, भिक्खवे, यदा बोधिसत्तो मातुकुच्छिं ओक्कन्तो होति । पकतिया सीलवती बोधिसत्तमाता होति, विरता पाणातिपाता, विरता अदिन्नादाना, विरता कामेसुमिच्छाचारा, विरता मुसावादा, विरता सुरामेरयमज्जप्पमादट्ठाना। अयमेत्थ धम्मता ।
२१. “धम्मता एसा, भिक्खवे, यदा बोधिसत्तो मातुकुच्छिं ओक्कन्तो होति । न बोधिसत्तमातु पुरिसेसु मानसं उप्पज्जति कामगुणूपसंहितं, अनतिक्कमनीया च बोधिसत्तमाता होति केनचि पुरिसेन रत्तचित्तेन । अयमेत्थ धम्मता।
२२. “धम्मता एसा, भिक्खवे, यदा बोधिसत्तो मातुकुच्छिं ओक्कन्तो होति । लाभिनी बोधिसत्तमाता होति पञ्चन्नं कामगुणानं । सा पञ्चहि कामगुणेहि समप्पिता समङ्गीभूता परिचारेति । अयमेत्थ धम्मता ।
२३. “धम्मता एसा, भिक्खवे, यदा बोधिसत्तो मातुकुच्छिं ओक्कन्तो होति । न बोधिसत्तमातु कोचिदेव आबाधो उप्पज्जति । सुखिनी बोधिसत्तमाता होति अकिलन्तकाया, बोधिसत्तञ्च बोधिसत्तमाता तिरोकुच्छिगतं पस्सति सब्बङ्गपच्चङ्गिं अहीनिन्द्रियं । सेय्यथापि, . भिक्खवे, मणि वेळुरियो सुभो जातिमा अटुंसो सुपरिकम्मकतो अच्छो विप्पसन्नो अनाविलो सब्बाकारसम्पन्नो । तत्रास्स सुत्तं आवुतं नीलं वा पीतं वा लोहितं वा ओदातं वा पण्डुसुत्तं वा । तमेनं चक्खुमा पुरिसो हत्थे करित्वा पच्चवेक्खेय्य - 'अयं खो मणि वेळुरियो सुभो जातिमा अटुंसो सुपरिकम्मकतो अच्छो विप्पसन्नो अनाविलो सब्बाकारसम्पन्नो । तत्रिदं सुत्तं आवुतं नीलं वा पीतं वा लोहितं वा ओदातं वा पण्डुसुत्तं वा'ति । एवमेव खो, भिक्खवे, यदा बोधिसत्तो मातुकुच्छिं ओक्कन्तो होति, न बोधिसत्तमातु कोचिदेव आबाधो उप्पज्जति, सुखिनी बोधिसत्तमाता होति
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(२.१.२४-३०)
१. महापदानसुत्तं
अकिलन्तकाया, बोधिसत्तञ्च बोधिसत्तमाता तिरोकुच्छिगतं पस्सति सब्बङ्गपच्चङ्गिं अहीनिन्द्रियं । अयमेत्थ धम्मता ।
२४. “धम्मता एसा, भिक्खवे, सत्ताहजाते बोधिसत्ते बोधिसत्तमाता कालङ्करोति तुसितं कायं उपपज्जति । अयमेत्थ धम्मता ।
२५. "धम्मता एसा, भिक्खवे, यथा अञा इथिका नव वा दस वा मासे गब्भं कुच्छिना परिहरित्वा विजायन्ति, न हेवं बोधिसत्तं बोधिसत्तमाता विजायति । दसेव मासानि बोधिसत्तं बोधिसत्तमाता कुच्छिना परिहरित्वा विजायति । अयमेत्थ धम्मता ।
२६. “धम्मता एसा, भिक्खवे, यथा अञा इथिका निसिन्ना वा निपन्ना वा विजायन्ति, न हेवं बोधिसत्तं बोधिसत्तमाता विजायति । ठिताव बोधिसत्तं बोधिसत्तमाता विजायति । अयमेत्थ धम्मता ।
२७. “धम्मता एसा, भिक्खवे, यदा बोधिसत्तो मातुकुच्छिम्हा निक्खमति, देवा पठमं पटिग्गण्हन्ति, पच्छा मनुस्सा । अयमेत्थ धम्मता ।
२८. “धम्मता एसा, भिक्खवे, यदा बोधिसत्तो मातुकुच्छिम्हा निक्खमति, अप्पत्तोव बोधिसत्तो पथविं होति, चत्तारो नं देवपुत्ता पटिग्गहेत्वा मातु पुरतो ठपेन्ति – “अत्तमना, देवि, होहि; महेसक्खो ते पुत्तो उप्पन्नो''ति । अयमेत्थ धम्मता ।
२९. “धम्मता एसा, भिक्खवे, यदा बोधिसत्तो मातुकुच्छिम्हा निक्खमति, विसदोव निक्खमति अमक्खितो उदेन अमक्खितो सेम्हेन अमक्खितो रुहिरेन अमक्खितो केनचि असुचिना सुद्धो विसदो। सेय्यथापि, भिक्खवे, मणिरतनं कासिके वत्थे निक्खित्तं नेव मणिरतनं कासिकं वत्थं मक्खेति, नापि कासिकं वत्थं मणिरतनं मक्खेति । तं किस्स हेतु ? उभिन्नं सुद्धत्ता । एवमेव खो, भिक्खवे, यदा बोधिसत्तो मातुकुच्छिम्हा निक्खमति, विसदोव निक्खमति अमक्खितो, उदेन अमक्खितो सेम्हेन अमक्खितो रुहिरेन अमक्खितो केनचि असुचिना सुद्धो विसदो । अयमेत्थ धम्मता ।
३०. “धम्मता एसा, भिक्खवे, यदा बोधिसत्तो मातुकुच्छिम्हा निक्खमति, द्वे
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दीघनिकायो-२
(२.१.३१-३३)
उदकस्स धारा अन्तलिक्खा पातु भवन्ति - एका सीतस्स एका उण्हस्स; येन बोधिसत्तस्स उदककिच्चं करोन्ति मातु च । अयमेत्थ धम्मता ।
३१. “धम्मता एसा, भिक्खवे, सम्पतिजातो बोधिसत्तो समेहि पादेहि पतिहित्वा उत्तराभिमुखो सत्तपदवीतिहारेन गच्छति सेतम्हि छत्ते अनुधारियमाने, सब्बा च दिसा अनुविलोकेति, आसभिं वाचं भासति - ‘अग्गोहमस्मि लोकस्स, जेट्ठोहमस्मि लोकस्स, सेट्ठोहमस्मि लोकस्स, अयमन्तिमा जाति, नत्थिदानि पुनब्भवो'ति । अयमेत्थ धम्मता ।
३२. “धम्मता एसा, भिक्खवे, यदा बोधिसत्तो मातुकुच्छिम्हा निक्खमति, अथ सदेवके लोके समारके सब्रह्मके सस्समणब्राह्मणिया पजाय सदेवमनुस्साय अप्पमाणो उळारो ओभासो पातु भवति, अतिक्कम्मेव देवानं देवानुभावं । यापि ता लोकन्तरिका अघा असंवुता अन्धकारा अन्धकारतिमिसा, यत्थ पिमे चन्दिमसूरिया एवंमहिद्धिका एवंमहानभावा आभाय नानभोन्ति. तत्थपि अप्पमाणो उळारो ओभासो पात भवति अतिक्कम्मेव देवानं देवानुभावं । येपि तत्थ सत्ता उपपन्ना, तेपि तेनोभासेन अञमञ्ज सञ्जानन्ति - 'अञ्जपि किर, भो, सन्ति सत्ता इधूपपन्ना'ति । अयञ्च दससहस्सी लोकधातु सङ्कम्पति सम्पकम्पति सम्पवेधति अप्पमाणो च उळारो ओभासो लोके पातु भवति अतिक्कम्मेव देवानं देवानुभावं । अयमेत्थ धम्मता ।
द्वत्तिंसमहापुरिसलक्खणा ३३. “जाते खो पन, भिक्खवे, विपस्सिम्हि कुमारे बन्धुमतो रो पटिवेदेसुं'पुत्तो ते, देव, जातो, तं देवो पस्सतू'ति । अद्दसा खो, भिक्खवे, बन्धुमा राजा विपस्सिं कुमार, दिस्वा नेमित्ते ब्राह्मणे आमन्तापेत्वा एतदवोच - ‘पस्सन्तु भोन्तो नेमित्ता ब्राह्मणा कुमार'न्ति । अद्दसंसु खो, भिक्खवे, नेमित्ता ब्राह्मणा विपस्सिं कुमार, दिस्वा बन्धुमन्तं राजानं एतदवोचुं- “अत्तमनो, देव, होहि, महेसक्खो ते पुत्तो उप्पन्नो, लाभा ते, महाराज, सुलद्धं ते, महाराज, यस्स ते कुले एवरूपो पुत्तो उप्पन्नो | अयहि, देव, कुमारो द्वत्तिंसमहापुरिसलक्खणेहि समन्नागतो, येहि समन्नागतस्स महापुरिसस्स द्वेव गतियो भवन्ति अनञा। सचे अगारं अज्झावसति, राजा होति चक्कवत्ती धम्मिको धम्मराजा चातुरन्तो विजितावी जनपदत्थावरियप्पत्तो सत्तरतनसमन्नागतो। तस्सिमानि सत्तरतनानि भवन्ति । सेय्यथिदं - चक्करतनं हत्थिरतनं अस्सरतनं मणिरतनं इत्थिरतनं गहपतिरतनं
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१. महापदानसुतं
परिणायकरतनमेव सत्तमं । परोसहस्सं खो पनस्स पुत्ता भवन्ति सूरा वीरङ्गरूपा परसेनप्पमद्दना । सो इमं पथविं सागरपरियन्तं अदण्डेन असत्थेन धम्मेन अभिविजिय अज्झावसति । सचे खो पन अगारस्मा अनगारियं पब्बजति, अरहं होति सम्मासम्बुद्ध लोके विवटच्छदो |
(२.१.३४-३५)
३४. कतमेहि चायं, देव, कुमारो द्वत्तिंसमहापुरिसलक्खणेहि समन्नागतो, येहि समन्नागतस्स महापुरिसस्स द्वेव गतियो भवन्ति अनञ्ञा । सचे अगारं अज्झावसति, राजा होति चक्कवत्ती धम्मिको धम्मराजा चातुरन्तो विजितापी जनपदत्थावरियप्पत्तो सत्तरतनसमन्नागतो । तस्सिमानि सत्तरतनानि भवन्ति । सेय्यथिदं - चक्करतनं हस्थिरतनं अस्सरतनं मणिरतनं इत्थिरतनं गहपतिरतनं परिणायकरतनमेव सत्तमं । परोसहस्सं खो पनस्स पुत्ता भवन्ति सूरा वीरङ्गरूपा परसेनप्पमद्दना । सो इमं पथविं सागरपरियन्तं अदण्डेन असत्थेन धम्मेन अभिविजिय अज्झावसति । सचे खो पन अगारस्मा अनगारियं पब्बजति, अरहं होति सम्मासम्बुद्धो लोके विवटच्छदो ।
३५. अयञ्हि, देव, कुमारो सुप्पतिट्ठितपादो । यं पायं, देव, कुमारो सुप्पतिट्ठितपादो । इदम्पिस्स महापुरिसस्स महापुरिसलक्खणं भवति ।
इमस्स, देव, कुमारस्स हेट्ठा पादतलेसु चक्कानि जातानि सहस्सारानि सनेमिकानि सनाभिकानि सब्बाकारपरिपूरानि । यम्पि, इमस्स देव, कुमारस्स हेट्ठा पादतलेसु चक्कानि जातानि सहस्सारानि सनेमिकानि सनाभिकानि सब्बाकारपरिपूरानि, इदम्पिस्स महापुरिसस्स महापुरिसलक्खणं भवति ।
अयञ्हि देव, कुमारो आयतपण्ही...पे०... अयहि, देव, कुमारो दीघङ्गुली...पे..... अयहि, देव, कुमारी मुदुतलुनहत्थपादो....पे..... अहि, देव कुमारो जालहत्थपादो... पे०... अयहि, देव, कुमारो उस्सङ्घपादो...पे०... अयञ्हि, देव, कुमारो एणिजङ्घो...पे....
अयहि, देव, कुमारो ठितकोव अनोनमन्तो उभोहि पाणितलेहि जण्णुकानि परिमसति परिमज्जति...पे०...
१३
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१४
दीघनिकायो-२
(२.१.३५-३५)
अयहि, देव, कुमारो कोसोहितवत्थगुय्हो...पे०... अयहि, देव, कुमारो सुवण्णवण्णो कञ्चनसन्निभत्तचो...पे०... अयहि, देव, कुमारो सुखुमच्छवी; सुखुमत्ता छविया रजोजल्लं काये न उपलिम्पति...पे०... अयव्हि, देव, कुमारो एकेकलोमो; एकेकानि लोमानि लोमकूपेसु जातानि...पे०... अयहि, देव, कुमारो उद्धग्गलोमो; उद्धग्गानि लोमानि जातानि नीलानि अञ्जनवण्णानि कुण्डलावट्टानि दक्खिणावट्टकजातानि...पे०... अयहि, देव, कुमारो ब्रह्मजुगत्तो...पे०... अयहि, देव, कुमारो सत्तुस्सदो...पे०... अयहि, देव, कुमारो सीहपुब्बद्धकायो...पे०... अयहि, देव, कुमारो चितन्तरंसो...पे०... अयहि, देव, कुमारो निग्रोधपरिमण्डलो यावतक्वस्स कायो तावतक्वस्स ब्यामो, यावतक्वस्स ब्यामो, तावतक्वस्स कायो...पे०... अयहि, देव, कुमारो समवट्टक्खन्धो...पे०... अयहि, देव, कुमारो रसग्गसग्गी...पे०... अयहि, देव, कुमारो सीहहनु...पे०... अयहि, देव, कुमारो चत्तालीसदन्तो...पे०... अयहि, देव, कुमारो समदन्तो...पे०... अयव्हि, देव, कुमारो अविरळदन्तो...पे०... अयहि, देव, कुमारो सुसुक्कदाठो...पे०... अयहि, देव, कुमारो पहूतजिव्हो...पे०... अयहि, देव, कुमारो ब्रह्मस्सरो करवीकभाणी...पे०... अयहि, देव, कुमारो अभिनीलनेत्तो...पे०... अयहि, देव, कुमारो गोपखुमो...पे०...
इमस्स, देव, कुमारस्स उण्णा भमुकन्तरे जाता ओदाता मुदुतूलसन्निभा। यम्पि इमस्स देव कुमारस्स उण्णा भमुकन्तरे जाता ओदाता मुदुतूलसन्निभा, इदम्पिमस्स महापुरिसस्स महापुरिसलक्खणं भवति ।
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(२.१.३६-३८)
१. महापदानसुत्तं
अयव्हि, देव, कुमारो उण्हीससीसो। यं पायं, देव, कुमारो उण्हीससीसो, इदम्पिस्स महापुरिसस्स महापुरिसलक्खणं भवति ।
३६. 'इमेहि खो अयं, देव, कुमारो द्वत्तिंसमहापुरिसलक्खणेहि समन्नागतो, येहि समन्नागतस्स महापुरिसस्स द्वेव गतियो भवन्ति अनञा। सचे अगारं अज्झावसति, राजा होति चक्कवत्ती धम्मिको धम्मराजा चातुरन्तो विजितावी जनपदत्थावरियप्पत्तो सत्तरतनसमन्नागतो। तस्सिमानि सत्तरतनानि भवन्ति । सेय्यथिदं - चक्करतनं हत्थिरतनं अस्सरतनं मणिरतनं इत्थिरतनं गहपतिरतनं परिणायकरतनमेव सत्तमं । परोसहस्सं खो पनस्स पुत्ता भवन्ति सूरा वीरङ्गरूपा परसेनप्पमद्दना। सो इमं पथविं सागरपरियन्तं अदण्डेन असत्थेन धम्मेन अभिविजिय अज्झावसति । सचे खो पन अगारस्मा अनगारियं पब्बजति, अरहं होति सम्मासम्बुद्धो लोके विवटच्छदो'ति ।
विपस्सीसमा
३७. “अथ खो, भिक्खवे, बन्धुमा राजा नेमित्ते ब्राह्मणे अहतेहि वत्थेहि अच्छादापेत्वा सब्बकामेहि सन्तप्पेसि । अथ खो. भिक्खवे. बन्धमा राजा विपस्सिस्स कुमारस्स धातियो उपट्ठापेसि । अञा खीरं पायेन्ति, अञा न्हापेन्ति, अञ्जा धारेन्ति, अञ्जा अङ्केन परिहरन्ति । जातस्स खो पन, भिक्खवे, विपस्सिस्स कुमारस्स सेतच्छत्तं धारयित्थ, दिवा चेव रत्तिञ्च - ‘मा नं सीतं वा उण्हं वा तिणं वा रजो वा उस्सावो वा बाधयित्था'ति । जातो खो पन, भिक्खवे, विपस्सी कुमारो बहुनो जनस्स पियो अहोसि मनापो । सेय्यथापि, भिक्खवे, उप्पलं वा पदुमं वा पुण्डरीकं वा बहुनो जनस्स पियं मनापं; एवमेव खो, भिक्खवे, विपस्सी कुमारो बहुनो जनस्स पियो अहोसि मनापो । स्वास्सुदं अङ्केनेव अङ्क परिहरियति ।
३८. “जातो खो पन, भिक्खवे, विपस्सी कुमारो मञ्जुस्सरो च अहोसि वग्गुस्सरो च मधुरस्सरो च पेमनियस्सरो च । सेय्यथापि, भिक्खवे, हिमवन्ते पब्बते करवीका नाम सकुणजाति मञ्जुस्सरा च वग्गुस्सरा च मधुरस्सरा च पेमनियस्सरा च; एवमेव खो, भिक्खवे, विपस्सी कुमारो मञ्जुस्सरो च अहोसि वग्गुस्सरो च मधुरस्सरो च पेमनियस्सरो च।
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१६
दीघनिकायो-२
३९. “जातस्स खो पन, भिक्खवे, विपस्सिस्स कुमारस्स कम्मविपाकजं दिब्बचक्खु पातुरहोसि। येन सुदं समन्ता योजनं पस्सति दिवा चेव रत्तिञ्च ।
४०. “जातो खो पन, भिक्खवे, विपस्सी कुमारो अनिमिसन्तो पेक्खति यथापि देवा तावतिंसा । 'अनिमिसन्तो कुमारो पेक्खती 'ति खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स कुमारस्स 'विपस्सी विपस्सी' त्वेव समञ्ञ उदपादि ।
(२.१.३९-४३)
४१. “अथ खो, भिक्खवे, बन्धुमा राजा अत्थकरणे निसिन्नो विपस्सिं कुमारं अ निसीदापेत्वा अत्थे अनुसासति । तत्र सुदं, भिक्खवे, विपस्सी कुमारो पितुअङ्के निसिन्नो विचेय्य विचेय्य अत्थे पनायति आयेन । विचेय्य विचेय्य कुमारो अत्थे पनायति आयेनाति खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स कुमारस्स भिय्योसोमत्ताय 'विपस्सी विपस्सी' त्वेव समञ्ञा उदपादि ।
,
४२. “अथ खो, भिक्खवे, बन्धुमा राजा विपस्सिस्स कुमारस्स तयो पासादे कारापेसि, एकं वस्सिकं एकं हेमन्तिकं एकं गिम्हिकं पञ्च कामगुणानि उपट्ठापेसि । तत्र सुदं, भिक्खवे, विपस्सी कुमारो वस्सिके पासादे चत्तारो मासे निप्पुरिसेहि तूरियेहि परिचारयमानो न हेट्ठापासादं ओरोहती 'ति ।
पठमभाणवारो ।
जिण्णपुरिसो
४३. “अथ खो, भिक्खवे, विपस्सी कुमारो बहूनं वस्सानं बहूनं वस्ससतानं बहूनं वस्ससहस्सानं अच्चयेन सारथिं आमन्तेसि - 'योजेहि, सम्म सारथि, भद्दानि भद्दानि यानानि; उय्यानभूमिं गच्छाम सुभूमिदस्सनाया'ति । एवं, देवा' ति खो, भिक्खवे, सारथि विपस्सिस्स कुमारस्स पटिस्सुत्वा भद्दानि भद्दानि यानानि योजेत्वा विपस्सिस्स कुमारस्स पटिवेदेसि -- 'युत्तानि खो ते, देव, भद्दानि भद्दानि यानानि, यस्स दानि कालं
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१. महापदानत्तं
मञ्ञसी'ति । अथ खो, भिक्खवे, विपस्सी कुमारो भद्दं भद्दं यानं अभिरुहित्वा भद्देहि भद्देहि यानेहि उय्यानभूमिं निय्यासि ।
(२.१.४४-४५)
४४. “अद्दसा खो, भिक्खवे, विपस्सी कुमारो उय्यानभूमिं निय्यन्तो पुरिसं जिणं गोपानसिवङ्कं भोग्गं दण्डपरायनं पवेधमानं गच्छन्तं आतुरं गतयोब्बनं । दिवा सारथिं आमन्तेसि – ‘अयं पन, सम्म सारथि, पुरिसो किंकतो ? केसापिस्स न यथा अञ्ञे, कायोपिस्स न यथा अञ्जेस' न्ति । 'एसो खो, देव, जिण्णो नामा'ति । “किं पनेसो, सम्म सारथि, जिण्णो नामा" ति ? " एसो खो, देव, जिण्णो नाम । न दानि तेन चिरं जीवितब्बं भविस्सती 'ति । " किं पन, सम्म सारथि, अहम्पि जराधम्मो, जरं अनतीतो’”ति ? “त्वञ्च, देव, मयञ्चम्ह सब्बे जराधम्मा, जरं अनतीता”ति । “तेन हि, सम्म सारथि, अलं दानज्ज उय्यानभूमिया । इतोव अन्तेपुरं पच्चनिय्याही 'ति । एवं, देवा'ति खो, भिक्खवे, सारथि विपस्सिस्स कुमारस्स पटिस्सुत्वा ततोव अन्तेपुरं पच्चनिय्यासि । तत्र सुदं, भिक्खवे, विपस्सी कुमारो अन्तेपुरं गतो दुक्खी दुम्मनो पज्झायति - 'धिरत्थु किर, भो, जाति नाम, यत्र हि नाम जातस्स जरा पञ्ञायिस्सती 'ति !
४५. “अथ खो, भिक्खवे, बन्धुमा राजा सारथिं आमन्तापेत्वा एतदवोच - 'कच्चि, सम्म सारथि, कुमारो उय्यानभूमिया अभिरमित्थ ? कच्चि, सम्म सारथि, कुमारो उय्यानभूमिया अत्तमनो अहोसी 'ति ? 'न खो, देव, कुमारो उय्यानभूमिया अभिरमित्थ, न खो, देव, कुमारो उय्यानभूमिया अत्तमनो अहोसी 'ति । 'किं पन, सम्म सारथि, अद्दस कुमारो उय्यानभूमिं निय्यन्तो 'ति ? ' अद्दसा खो, देव, कुमारो उय्यानभूमिं निय्यन्तो पुरिसं जिणं गोपानसिव भोग्गं दण्डपरायनं पवेधमानं गच्छन्तं आतुरं गतयोब्बनं । दिस्वा मं एतदवोच - अयं पन, सम्म सारथि, पुरिसो किंकतो, केसापस्स न यथा अञ्ञसं, कायोपिस्स न यथा अञ्जेस' न्ति ? 'एसो खो, देव, जिण्णो नामा'ति । 'किं पनेसो, सम्म सारथि, जिणो नामा'ति ? 'एसो खो, देव, जिण्णो नाम न दानि तेन चिरं जीवितब्बं भविस्सती 'ति । 'किं पन, सम्म सारथि, अहम्पि जराधम्मो, जरं अनतीतो 'ति ? ' त्वञ्च, देव, मयञ्चम्ह सब्बे जराधम्मा, जरं अनतीता'ति ।
तेन हि सम्म पच्चनिय्याही’ति । “एवं
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सारथि, अलं दानज्ज उय्यानभूमिया, इतोव अन्तेपुरं देवा" ति खो अहं, देव, विपस्सिस्स कुमारस्स पटिस्सुवा
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दीघनिकायो-२
(२.१.४६-४७)
ततोव अन्तेपुरं पच्चनिय्यासिं । सो खो, देव, कुमारो अन्तेपुरं गतो दुक्खी दुम्मनो पज्झायति - “धिरत्थु किर भो जाति नाम, यत्र हि नाम जातस्स जरा पञायिस्सती''ति ।
व्याधितपुरिसो ४६. “अथ खो, भिक्खवे, बन्धुमस्स रो एतदहोसि
“मा हेव खो विपस्सी कुमारो न रज्जं कारेसि, मा हेव विपस्सी कुमारो अगारस्मा अनगारियं पब्बजि, मा हेव नेमित्तानं ब्राह्मणानं सच्चं अस्स वचन"न्ति । “अथ खो, भिक्खवे, बन्धुमा राजा विपस्सिस्स कुमारस्स भिय्योसोमत्ताय पञ्च कामगुणानि उपट्ठापेसि - 'यथा विपस्सी कुमारो रज्जं करेय्य, यथा विपस्सी कुमारो न अगारस्मा अनगारियं पब्बजेय्य, यथा नेमित्तानं ब्राह्मणानं मिच्छा अस्स वचन'न्ति ।
“तत्र सुदं, भिक्खवे, विपस्सी कुमारो पञ्चहि कामगुणेहि समप्पितो समङ्गीभूतो परिचारेति । “अथ खो, भिक्खवे, विपस्सी कुमारो बहूनं वस्सानं...पे०... ।
४७. “अहसा खो, भिक्खवे, विपस्सी कुमारो उय्यानभूमिं निय्यन्तो पुरिसं आबाधिकं दुक्खितं बाळहगिलानं सके मुत्तकरीसे पलिपन्नं सेमानं अ हि वुट्ठापियमानं अओहि संवेसियमानं । दिस्वा सारथिं आमन्तेसि - ‘अयं पन, सम्म सारथि, पुरिसो किंकतो? अक्खीनिपिस्स न यथा अञ्जसं, सरोपिस्स न यथा अञ्जसन्ति ? 'एसो खो, देव, ब्याधितो नामा'ति । 'किं पनेसो, सम्म सारथि, ब्याधितो नामा'ति ? “एसो खो, देव, ब्याधितो नाम अप्पेव नाम तम्हा आबाधा वदहेय्या'ति । 'किं पन. सम्म सारथि. अहम्पि ब्याधिधम्मो, ब्याधिं अनतीतो'ति ? 'त्वञ्च, देव, मयञ्चम्ह सब्बे ब्याधिधम्माब्याधिं अनतीता'ति । 'तेन हि, सम्म सारथि, अलं दानज्ज उय्यानभूमिया, इतोव अन्तेपुरं पच्चनिय्याही'ति । ‘एवं देवा'ति खो, भिक्खवे, सारथि विपस्सिस्स कुमारस्स पटिस्सुत्वा ततोव अन्तेपुरं पच्चनिय्यासि । तत्र सुदं, भिक्खवे, विपस्सी कुमारो अन्तेपुरं गतो दुक्खी दुम्मनो पज्झायति - ‘धिरत्थु किर भो जाति नाम, यत्र हि नाम जातस्स जरा पञायिस्सति, ब्याधि पञायिस्सती'ति ।
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१. महापदानत्तं
४८. “अथ खो, भिक्खवे, बन्धुमा राजा सारथिं आमन्तापेत्वा एतदवोच - 'कच्चि, सम्म सारथि, कुमारो उय्यानभूमिया अभिरमित्थ, कच्चि, सम्म सारथि, कुमारो उय्यानभूमिया अत्तमनो अहोसी 'ति ? 'न खो, देव, कुमारो उय्यानभूमिया अभिरमित्थ, न खो, देव, कुमारो उय्यानभूमिया अत्तमनो अहोसी 'ति । 'किं पन, सम्म सारथि, अद्दस कुमारो उय्यानभूमिं निय्यन्तो 'ति ? ' अद्दसा खो, देव, कुमारो उय्यानभूमिं निय्यन्तो पुरिसं आबाधिकं दुक्खितं बाळहगिलानं सके मुत्तकरीसे पलिपन्नं सेमानं अहि वुट्ठापियमानं अञ्ञेहि संवेसियमानं । दिस्वा मं एतदवोच अयं पन, सम्म सारथि, पुरिसो किंकतो, अक्खीनिपिस्स न यथा अञ्ञसं, सरोपिस्स न यथा अञ्जेस' न्ति ? 'एसो खो, देव, ब्याधितो नामा'ति । 'किं पनेसो, सम्म सारथि, ब्याधितो नामा'ति ? 'एसो खो, देव, ब्याधितो नाम अप्पेव नाम तम्हा आबाधा वुट्टहेय्या'ति । 'किं पन, सम्म सारथि, अहम्पि ब्याधिधम्मो, ब्याधिं अनतीतो 'ति ? ' त्वञ्च देव, मयञ्चम्ह सब्बे ब्याधिधम्मा, ब्याधिं अनतीता'ति । 'तेन हि सम्म सारथि, अलं दानज्ज उय्यानभूमिया, इतोव अन्तेपुरं पच्चनिय्याही 'ति । एवं देवा' ति खो अहं, देव, विपस्सिस्स कुमारस्स पटिस्सुत्वा ततोव अन्तेपुरं पच्चनिय्यासि । सो खो, देव, कुमारो अन्तेपुरं गतो दुक्खी दुम्मनो पज्झायति - 'धिरत्थु किर भो जाति नाम, यत्र हि नाम जातस्स जरा पञ्ञायिस्सति, ब्याधि पञ्ञास्सिती 'ति ।
(२.१.४८-५०)
कालङ्कतपुरिसो
४९. “अथ खो, भिक्खवे, बन्धुमस्स रज्ञ एतदहोसि - ' मा हेव खो विपस्सी कुमारो न रज्जं कारेसि, मा हेव विपस्सी कुमारो अगारस्मा अनगारियं पब्बजि, मा हेव नेमित्तानं ब्राह्मणानं सच्चं अस्स वचन 'न्ति । अथ खो, भिक्खवे, बन्धुमा राजा विपस्सिस्स कुमारस्स भिय्योसोमत्ताय पञ्च कामगुणानि उपट्ठापेसि - 'यथा विपस्सी कुमारो रज्जं करेय्य, यथा विपस्सी कुमारो न अगारस्मा अनगारियं पब्बजेय्य, यथा नेमित्तानं ब्राह्मणानं मिच्छा अस्स वचन 'न्ति ।
" तत्र सुदं, भिक्खवे, विपस्सी कुमारो पञ्चहि कामगुणेहि समप्पितो समङ्गीभूतो परिचारेति । अथ खो, भिक्खवे, विपस्सी कुमारो बहूनं वस्सानं... पे ० ... ।
५०. “ अद्दसा खो, भिक्खवे, विपस्सी कुमारो उय्यानभूमिं निय्यन्तो महाजनका
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दीघनिकायो-२
(२.१.५१-५१)
सन्निपतितं नानारत्तानञ्च दुस्सानं विलातं कयिरमानं । दिस्वा सारथिं आमन्तेसि - “किं नु खो, सो, सम्म सारथि, महाजनकायो सन्निपतितो नानारत्तानञ्च दुस्सानं विलातं कयिरती"ति ? 'एसो खो, देव, कालङ्कतो नामा'ति । 'तेन हि, सम्म सारथि, येन सो कालङ्कतो तेन रथं पेसेही'ति । “ “एवं, देवा'ति खो, भिक्खवे, सारथि विपस्सिस्स कुमारस्स पटिस्सुत्वा येन सो कालङ्कतो तेन रथं पेसेसि । अद्दसा खो, भिक्खवे, विपस्सी कुमारो पेतं कालङ्कतं, दिस्वा सारथिं आमन्तेसि - ‘किं पनायं, सम्म सारथि, कालङ्कतो नामा'ति ? ‘एसो खो, देव, कालङ्कतो नाम । न दानि तं दक्खन्ति माता वा पिता वा अछे वा आतिसालोहिता, सोपि न दक्खिस्सति मातरं वा पितरं वा अछे वा आतिसालोहिते'ति । “किं पन, सम्म सारथि, अहम्पि मरणधम्मो मरणं अनतीतो; मम्पि न दक्खन्ति देवो वा देवी वा अञ्चे वा आतिसालोहिता; अहम्पि न दक्खिस्सामि देवं वा देविं वा अञ्ज वा जातिसालोहिते"ति? 'त्वञ्च. देव. मयञ्चम्ह सब्बे मरणधम्मा मरणं अनतीता; तम्पि न दक्खन्ति देवो वा देवी वा अछे वा जातिसालोहिता; त्वम्पि न दक्खिस्ससि देवं वा देविं वा अछु वा आतिसालोहिते'ति । 'तेन हि, सम्म सारथि, अलं दानज्ज उय्यानभूमिया, इतोव अन्तेपुरं पच्चनिय्याही'ति । ‘एवं, देवा'ति खो, भिक्खवे, सारथि विपस्सिस्स कुमारस्स पटिस्सुत्वा ततोव अन्तेपुरं पच्चनिय्यासि । तत्र सुदं, भिक्खवे, विपस्सी कुमारो अन्तेपुरं गतो दुक्खी दुम्मनो पज्झायति- 'धिरत्थु किर, भो, जाति नाम, यत्र हि नाम जातस्स जरा पञायिस्सति, ब्याधि पायिस्सति, मरणं पञायिस्सती'ति ।
५१. “अथ खो, भिक्खवे, बन्धुमा राजा सारथिं आमन्तापेत्वा एतदवोच – ‘कच्चि, सम्म सारथि, कुमारो उय्यानभूमिया अभिरमित्थ, कच्चि, सम्म सारथि, कुमारो उय्यानभूमिया अत्तमनो अहोसी'ति ? 'न खो, देव, कुमारो उय्यानभूमिया अभिरमित्थ, न खो, देव, कुमारो उय्यानभूमिया अत्तमनो अहोसी'ति । 'किं पन, सम्म सारथि, अद्दस कुमारो उय्यानभूमिं निय्यन्तो'ति ? 'अद्दसा खो, देव, कुमारो उय्यानभूमि निय्यन्तो महाजनकायं सन्निपतितं नानारत्तानञ्च दुस्सानं विलातं कयिरमानं । दिस्वा मं एतदवोच - “किं नु खो, सो, सम्म सारथि, महाजनकायो सन्निपतितो नानारत्तानञ्च दुस्सानं विलातं कयिरती'ति ? ‘एसो खो, देव, कालङ्कतो नामा'ति । 'तेन हि, सम्म सारथि, येन सो कालङ्कतो तेन रथं पेसेही ति। " ‘एवं देवाति खो अहं, देव, विपस्सिस्स कुमारस्स पटिस्सुत्वा येन सो कालङ्कतो तेन रथं पेसेसिं । अद्दसा खो, देव, कुमारो पेतं कालङ्कतं, दिस्वा मं एतदवोच – 'किं पनायं, सम्म सारथि, कालङ्कतो
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(२.१.५२-५२)
१. महापदानसुत्तं
नामा'ति ? ‘एसो खो, देव, कालङ्कतो नाम । न दानि तं दक्खन्ति माता वा पिता वा अछे वा जातिसालोहिता, सोपि न दक्खिस्सति मातरं वा पितरं वा अञ्जे वा आतिसालोहिते'ति । 'किं पन, सम्म सारथि, अहम्पि मरणधम्मो मरणं अनतीतो; मम्पि न दक्खन्ति देवो वा देवी वा अञ्चे वा आतिसालोहिता; अहम्पि न दक्खिस्सामि देवं वा देविं वा अछे वा जातिसालोहिते'ति? 'त्वञ्च, देव, मयञ्चम्ह सब्बे मरणधम्मा मरणं अनतीता; तम्पि न दक्खन्ति देवो वा देवी वा अछे वा आतिसालोहिता, त्वम्पि न दक्खिस्ससि देवं वा देविं वा अछे वा जातिसालोहिते'ति । 'तेन हि, सम्म सारथि, अलं दानज्ज उय्यानभूमिया, इतोव अन्तेपुरं पच्चनिय्याही'ति । " ‘एवं, देवा'ति खो अहं, देव, विपस्सिस्स कुमारस्स पटिस्सुत्वा ततोव अन्तेपुरं पच्चनिय्यासिं । सो खो, देव, कुमारो अन्तेपुरं गतो दुक्खी दुम्मनो पज्झायति - ‘धिरत्थु किर भो जाति नाम, यत्र हि नाम जातस्स जरा पञायिस्सति, ब्याधि पञायिस्सति, मरणं पञायिस्सती'ति ।
पब्बजितो
५२. “अथ खो, भिक्खवे, बन्धुमस्स रञो एतदहोसि - ‘मा हेव खो विपस्सी कुमारो न रज्जं कारेसि, मा हेव विपस्सी कुमारो अगारस्मा अनगारियं पब्बजि, मा हेव नेमित्तानं ब्राह्मणानं सच्चं अस्स वचन'न्ति । अथ खो, भिक्खवे, बन्धुमा राजा विपस्सिस्स कुमारस्स भिय्योसोमत्ताय पञ्च कामगुणानि उपट्ठापेसि - 'यथा विपस्सी कुमारो रज्जं करेय्य, यथा विपस्सी कुमारो न अगारस्मा अनगारियं पब्बजेय्य, यथा नेमित्तानं ब्राह्मणानं मिच्छा अस्स वचन'न्ति ।
__ "तत्र सुदं, भिक्खवे, विपस्सी कुमारो पञ्चहि कामगुणेहि समप्पितो समझीभूतो परिचारेति । अथ खो, भिक्खवे, विपस्सी कुमारो बहूनं वस्सानं बहूनं वस्ससतानं बहूनं वस्ससहस्सानं अच्चयेन सारथिं आमन्तेसि- “योजेहि, सम्म सारथि, भद्दानि भद्दानि यानानि; उय्यानभूमिं गच्छाम सुभूमिदस्सनाया''ति । “ ‘एवं, देवा'ति खो, भिक्खवे, सारथि विपस्सिस्स कुमारस्स पटिस्सुत्वा भद्दानि भद्दानि यानानि योजेत्वा विपस्सिस्स कुमारस्स पटिवेदेसि - ‘युत्तानि खो ते, देव, भद्दानि भद्दानि यानानि; यस्स दानि कालं मञ्जसी'ति । अथ खो, भिक्खवे, विपस्सी कुमारो भई भई यानं अभिरुहित्वा भद्देहि भद्देहि यानेहि उय्यानभूमि निय्यासि ।
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दीघनिकायो-२
५३. “अद्दसा खो, भिक्खवे, विपस्सी कुमारो उय्यानभूमिं निय्यन्तो पुरिसं भण्डुं पब्बजितं कासायवसनं। दिस्वा सारथिं आमन्तेसि - 'अयं पन, सम्म सारथि, पुरिसो किंकतो ? सीसंपिस्स न यथा अञ्ञेसं, वत्थानिपिस्स न यथा अञ्ञेस 'न्ति ? 'एसो खो, देव, पब्बजितो नामा'ति । 'किं पनेसो, सम्म सारथि, पब्बजितो नामा'ति ? 'एसो खो, देव, पब्बजितो नाम साधु धम्मचरिया साधु समचरिया साधु कुसलकिरिया साधु पुञ्ञकिरिया साधु अविहिंसा साधु भूतानुकम्पा 'ति । 'साधु खो सो, सम्म सारथि, पब्बजितो नाम; साधु धम्मचरिया साधु समचरिया साधु कुसलकिरिया साधु पुञ्ञकिरिया साधु अविहिंसा साधु भूतानुकम्पा । तेन हि सम्म सारथि, येन सो पब्बजितो तेन रथं पेसेही 'ति । ' एवं, देवा'ति खो, भिक्खवे, सारथि विपस्सिस्स कुमारस्स पटिस्सुत्वा येन सो पब्बजितो तेन रथं पेसेसि । अथ खो, भिक्खवे, विपस्सी कुमारो तं पब्बजितं एतदवोच – 'त्वं पन, सम्म, किंकतो, सीसम्पि ते न यथा असं, वत्थानिपि ते न यथा अञ्ञेस'न्ति ? 'अहं खो, देव, पब्बजितो नामा'ति । 'किं पन त्वं, सम्म, पब्बजितो नामा'ति ? ' अहं खो, देव, पब्बजितो नाम; साधु धम्मचरिया साधु समचरिया साधु कुसलकिरिया साधु पुञ्ञकिरिया साधु अविहिंसा साधु भूतानुकम्पा 'ति । 'साधु खो त्वं, सम्म, पब्बजितो नाम; साधु धम्मचरिया साधु समचरिया साधु कुसलकिरिया साधु पुञ्ञकिरिया साधु अविहिंसा साधु भूतानुकम्पा 'ति ।
"
बोधिसत्तपब्बज्जा
""
५४. “ अथ खो, भिक्खवे, विपस्सी कुमारो सारथिं आमन्तेसि - " तेन हि, सम्म सारथि, रथं आदाय इतोव अन्तेपुरं पच्चनिय्याहि । अहं पन इधेव केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजिस्सामी 'ति । 'एवं, देवा'ति खो, भिक्खवे, सारथि विपस्सिस्स कुमारस्स पटिस्सुत्वा रथं आदाय अन्तेपुरं पच्चनिय्यासि । विपस्सी पन कुमारो तत्थेव केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजि ।
२२
महाजनकाय अनुपब्बज्जा
५५. “अस्सोसि खो, भिक्खवे, बन्धुमतिया राजधानिया महाजनकायो चतुरासीति पाणसहस्सानि – ‘विपस्सी किर कुमारो केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि
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(२.१.५३-५५)
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(२.१.५६-५७)
१. महापदानसुत्तं
अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो'ति । सुत्वान तेसं एतदहोसि - 'न हि नून सो ओरको धम्मविनयो, न सा ओरका पब्बज्जा, यत्थ विपस्सी कुमारो केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो। विपस्सीपि नाम कुमारो केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजिस्सति, किमङ्गं पन मयन्ति ।
“अथ खो, सो भिक्खवे, महाजनकायो चतुरासीति पाणसहस्सानि केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा विपस्सिं बोधिसत्तं अगारस्मा अनगारियं पब्बजितं अनुपब्बजिंसु । ताय सुदं, भिक्खवे, परिसाय परिवुतो विपस्सी बोधिसत्तो गामनिगमजनपदराजधानीसु चारिकं चरति ।
५६. “अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स रहोगतस्स पटिसल्लीनस्स एवं चेतसो परिवितक्को उदपादि - 'न खो मेतं पतिरूपं योहं आकिण्णो विहरामि, यंनूनाहं एको गणम्हा वूपकट्ठो विहरेय्य'न्ति । अथ खो, भिक्खवे, विपस्सी बोधिसत्तो अपरेन समयेन एको गणम्हा वूपकट्ठो विहासि, अजेनेव तानि चतुरासीति पब्बजितसहस्सानि अगमंसु, अन मग्गेन विपस्सी बोधिसत्तो ।
बोधिसत्तअभिनिवेसो ५७. “अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स वासूपगतस्स रहोगतस्स पटिसल्लीनस्स एवं चेतसो परिवितक्को उदपादि- 'किच्छं वतायं लोको आपन्नो, जायति च जीयति च मीयति च चवति च उपपज्जति च, अथ च पनिमस्स दुक्खस्स निस्सरणं नप्पजानाति जरामरणस्स, कुदास्सु नाम इमस्स दुक्खस्स निस्सरणं पञआयिस्सति जरामरणस्सा'ति ?
“अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स एतदहोसि - 'किम्हि नु खो सति जरामरणं होति, किंपच्चया जरामरणन्ति ? अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स योनिसो मनसिकारा अहु पञ्जाय अभिसमयो -- 'जातिया खो सति जरामरणं होति, जातिपच्चया जरामरण'न्ति।
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२४
दीघनिकायो-२
(२.१.५७-५७)
“अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स एतदहोसि - ‘किम्हि नु खो सति जाति होति किंपच्चया जाती'ति ? अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स योनिसो मनसिकारा अहु पाय अभिसमयो- 'भवे खो सति जाति होति, भवपच्चया जाती'ति ।
“अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स एतदहोसि - ‘किम्हि नु खो सति भवो होति किंपच्चया भवो'ति ? अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स योनिसो मनसिकारा अहु पञाय अभिसमयो- 'उपादाने खो सति भवो होति, उपादानपच्चया भवो'ति।
“अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स एतदहोसि - 'किम्हि नु खो सति उपादानं होति किंपच्चया उपादान'न्ति ? अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स योनिसो मनसिकारा अहु पञ्जाय अभिसमयो- 'तण्हाय खो सति उपादानं होति, तण्हापच्चया उपादान'न्ति।
“अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स एतदहोसि -- 'किम्हि नु खो सति तण्हा होति किंपच्चया तण्हा'ति ? अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स योनिसो मनसिकारा अहु पाय अभिसमयो- 'वेदनाय खो सति तण्हा होति, वेदनापच्चया तण्हा'ति।
“अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स एतदहोसि - 'किम्हि नु खो सति वेदना होति किंपच्चया वेदना'ति ? अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स योनिसो मनसिकारा अहु पाय अभिसमयो- 'फस्से खो सति वेदना होति, फस्सपच्चया वेदना'ति।
“अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स एतदहोसि - 'किम्हि नु खो सति फस्सो होति किंपच्चया फस्सो'ति ? अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स योनिसो मनसिकारा अहु पञाय अभिसमयो- 'सळायतने खो सति फस्सो होति, सळायतनपच्चया फस्सो 'ति।
“अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स एतदहोसि - ‘किम्हि नु खो सति
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on International
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(२.१.५८-६०)
१. महापदानसुत्तं
सळायतनं होति किंपच्चया सळायतन'न्ति ? अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स योनिसो मनसिकारा अहु पञ्ञाय अभिसमयो- 'नामरूपे खो सति सळायतनं होति, नामरूपपच्चया सळायतन'न्ति ।
“अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स एतदहोसि - 'किम्हि नु खो सति नामरूपं होति किंपच्चया नामरूप 'न्ति ? अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स योनिसो मनसिकारा अहु पञ्ञाय अभिसमयो - 'विञ्ञाणे खो सति नामरूपं होति, विञ्ञणपच्चया नामरूप 'न्ति ।
"अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स एतदहोसि 'किम्हि नु खो सति विञ्ञाणं होति, किंपच्चया विञ्ञाणन्ति ? अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स योनिसो मनसिकारा अहु पञ्ञाय अभिसमयो- 'नामरूपे खो सति विज्ञानं होति, नामरूपपच्चया विञ्ञाण'न्ति ।
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५८. “अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स एतदहोसि - ' पच्चुदावत्तति खो इदं विणं नामरूपम्हा, नापरं गच्छति । एत्तावता जायेथ वा जिय्येथ वा मिय्येथ वा चवेथ वा उपपज्जेथ वा, यदिदं नामरूपपच्चया विज्ञणं, विञ्ञणपच्चया नामरूपं, नामरूपपच्चया सळायतनं, सळायतनपच्चया फस्सो, फरसपच्चया वेदना, वेदनापच्चया तण्हा, तण्हापच्चया उपादानं, उपादानपच्चया भवो, भवपच्चया जाति, जातिपच्चया जरामरणं सोक - परिदेव - दुक्खदोमनस्सुपायासा सम्भवन्ति । एवमेतस्स केवलस्स दुक्खक्खन्धस्स समुदयो होति' ।
५९. “समुदयो समुदयो "ति खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स पुब्बे अननुस्सुतेसु धम्मेसु चक्खुं उदपादि, आणं उदपादि, पञ्ञा उदपादि, विज्जा उदपादि, आलोको उदपादि ।
६०. “अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स एतदहोसि - ' किम्हि नु खो असति जरामरणं न होति किस्स निरोधा जरामरणनिरोधो 'ति ? अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स योनिसो मनसिकारा अहु पञ्ञाय अभिसमयो- 'जातिया खो असति जरामरणं न होति, जातिनिरोधा जरामरणनिरोधो 'ति ।
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दीघनिकायो-२
(२.१.६०-६०)
“अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स एतदहोसि - ‘किम्हि नु खो असति जाति न होति किस्स निरोधा जातिनिरोधो'ति ? अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स योनिसो मनसिकारा अहु पञ्जाय अभिसमयो- 'भवे खो असति जाति न होति, भवनिरोधा जातिनिरोधोति।
“अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स एतदहोसि- 'किम्हि नु खो असति भवो न होति किस्स निरोधा भवनिरोधो'ति ? अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स योनिसो मनसिकारा अहु पञ्जाय अभिसमयो- 'उपादाने खो असति भवो न होति, उपादाननिरोधा भवनिरोधो'ति।
"अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स एतदहोसि - ‘किम्हि नु खो असति उपादानं न होति किस्स निरोधा उपादाननिरोधो'ति ? अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स योनिसो मनसिकारा अहु पञाय अभिसमयो- 'तण्हाय खो असति उपादानं न होति, तण्हानिरोधा उपादाननिरोधो'ति ।
“अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स एतदहोसि - ‘किम्हि नु खो असति तण्हा न होति किस्स निरोधा तण्हानिरोधोति ? अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स योनिसो मनसिकारा अहु पञाय अभिसमयो- 'वेदनाय खो असति तण्हा न होति, वेदनानिरोधा तण्हानिरोधो'ति।
“अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स एतदहोसि - 'किम्हि नु खो असति वेदना न होति किस्स निरोधा वेदनानिरोधोति ? अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स योनिसो मनसिकारा अहु पाय अभिसमयो- 'फस्से खो असति वेदना न होति, फस्सनिरोधा वेदनानिरोधो'ति।
“अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स एतदहोसि - ‘किम्हि नु खो असति फस्सो न होति किस्स निरोधा फस्सनिरोधो'ति ? अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स योनिसो मनसिकारा अहु पञ्जाय अभिसमयो- “सळायतने खो असति फस्सो न होति, सळायतननिरोधा फस्सनिरोधोति।
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(२.१.६१-६३)
१. महापदानसुत्तं
“अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स एतदहोसि - ‘किम्हि नु खो असति सळायतनं न होति किस्स निरोधा सळायतननिरोधोति ? अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स योनिसो मनसिकारा अहु पञाय अभिसमयो- 'नामरूपे खो असति सळायतनं न होति, नामरूपनिरोधा सळायतननिरोधोति।
“अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स एतदहोसि- ‘किम्हि नु खो असति नामरूपं न होति किस्स निरोधा नामरूपनिरोधोति ? अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स योनिसो मनसिकारा अहु पञ्जाय अभिसमयो- 'विज्ञाणे खो असति नामरूपं न होति, विज्ञाणनिरोधा नामरूपनिरोधोति।
“अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स एतदहोसि - ‘किम्हि न खो असति विज्ञाणं न होति किस्स निरोधा विज्ञाणनिरोधोति ? अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स योनिसो मनसिकारा अहु पञ्जाय अभिसमयो- 'नामरूपे खो असति विज्ञाणं न होति, नामरूपनिरोधा विज्ञाणनिरोधो'ति।
६१. “अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स एतदहोसि- 'अधिगतो खो म्यायं मग्गो सम्बोधाय यदिदं- नामरूपनिरोधा विज्ञाणनिरोधो, विज्ञाणनिरोधा नामरूपनिरोधो, नामरूपनिरोधा सळायतननिरोधो, सळायतननिरोधा फस्सनिरोधो, फस्सनिरोधा वेदनानिरोधो, वेदनानिरोधा तण्हानिरोधो, तण्हानिरोधा उपादाननिरोधो, उपादाननिरोधा भवनिरोधो, भवनिरोधा जातिनिरोधो, जातिनिरोधा जरामरणं सोकपरिदेवदुक्खदोमनस्सुपायासा निरुज्झन्ति। एवमेतस्स केवलस्स दुक्खक्खन्धस्स निरोधो होति'।
६२. “निरोधो निरोधो"ति खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स बोधिसत्तस्स पुब्बे अननुस्सुतेसु धम्मेसु चक्खं उदपादि, आणं उदपादि, पञा उदपादि, विज्जा उदपादि, आलोको उदपादि।
६३. “अथ खो, भिक्खवे, विपस्सी बोधिसत्तो अपरेन समयेन पञ्चसु उपादानक्खन्धेसु उदयब्बयानुपस्सी विहासि- "इति रूपं, इति रूपस्स समुदयो, इति रूपस्स अत्थङ्गमोः इति वेदना, इति वेदनाय समुदयो, इति वेदनाय अत्थङ्गमो; इति सञ्जा, इति साय समुदयो, इति साय अत्थङ्गमो; इति सङ्घारा, इति सङ्घारानं समुदयो, इति
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दीघनिकायो-२
(२.१.६४-६५)
सङ्घारानं अत्थङ्गमोः इति विज्ञाणं, इति विज्ञाणस्स समुदयो, इति विज्ञाणस्स अत्थङ्गमो"ति, तस्स पञ्चसु उपादानक्खन्धेसु उदयब्बयानुपस्सिनो विहरतो न चिरस्सेव अनुपादाय आसवेहि चित्तं विमुच्चीति।
दुतियभाणवारो।
ब्रह्मयाचनकथा
६४. “अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स एतदहोसि - 'यंनूनाहं धम्म देसेय्यन्ति । “अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स एतदहोसि - “अधिगतो खो म्यायं धम्मो गम्भीरो दुद्दसो दुरनुबोधो सन्तो पणीतो अतक्कावचरो निपुणो पण्डितवेदनीयो । आलयरामा खो पनायं पजा आलयरता आलयसम्मुदिता। आलयरामाय खो पन पजाय आलयरताय आलयसम्मुदिताय दुद्दसं इदं ठानं यदिदं इदप्पच्चयतापटिच्चसमुप्पादो । इदम्पि खो ठानं दुद्दसं यदिदं सब्बसङ्घारसमथो सब्बूपधिपटिनिस्सग्गो तण्हाक्खयो विरागो निरोधो निब्बानं । अहञ्चेव खो पन धम्म देसेय्यं, परे च मे न आजानेय्यु; सो ममस्स किलमथो, सा ममस्स विहेसा''ति ।
६५. “अपिस्सु, भिक्खवे, विपस्सिं भगवन्तं अरहन्तं सम्मासम्बुद्धं इमा अनच्छरिया गाथायो पटिभंसु पुब्बे अस्सुतपुब्बा -
“किच्छेन मे अधिगतं, हलं दानि पकासितुं । रागदोसपरेतेहि, नायं धम्मोसुसम्बुधो ।।
पटिसोतगामि निपुणं, गम्भीरं दुद्दसं अणुं । रागरत्ता न दक्खन्ति, तमोखन्धेन आवुटा'ति ।।
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(२.१.६६-६७)
१. महापदानसुत्तं
२९
"इतिह, भिक्खवे, विपस्सिस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स पटिसञ्चिक्खतो अप्पोस्सुक्कताय चित्तं नमि, नो धम्मदेसनाय ।
६६. “अथ खो, भिक्खवे, अञ्जतरस्स महाब्रह्मनो विपस्सिस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स चेतसा चेतोपरिवितक्कमञाय एतदहोसि - 'नस्सति वत भो लोको, विनस्सति वत भो लोको, यत्र हि नाम विपस्सिस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स अप्पोस्सुक्कताय चित्तं नमति, नो धम्मदेसनाया'ति । अथ खो सो, भिक्खवे, महाब्रह्मा सेय्यथापि नाम बलवा पुरिसो समिञ्जितं वा बाहं पसारेय्य, पसारितं वा बाहं समिजेय्य; एवमेव ब्रह्मलोके अन्तरहितो विपस्सिस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स पुरतो पातुरहोसि । अथ खो सो, भिक्खवे, महाब्रह्मा एकंसं उत्तरासङ्गं करित्वा दक्खिणं जाणुमण्डलं पथवियं निहन्त्वा येन विपस्सी भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो तेनञ्जलिं पणामेत्वा विपस्सिं भगवन्तं अरहन्तं सम्मासम्बुद्धं एतदवोच – 'देसेतु, भन्ते, भगवा धम्म, देसेतु सुगतो धम्मं, सन्ति सत्ता अप्परजक्खजातिका; अस्सवनता धम्मस्स परिहायन्ति, भविस्सन्ति धम्मस्स अज्ञातारो'ति ।
६७. “एवं वुत्ते, भिक्खवे, विपस्सी भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो तं महाब्रह्मानं एतदवोच – “मव्हम्पि खो, ब्रह्मे, एतदहोसि - ‘यंनूनाहं धम्मं देसेय्य'न्ति । तस्स मव्हं, ब्रह्मे, एतदहोसि - अधिगतो खो म्यायं धम्मो गम्भीरो दुद्दसो दुरनुबोधो सन्तो पणीतो अतक्कावचरो निपुणो पण्डितवेदनीयो। आलयरामा खो पनायं पजा आलयरता आलयसम्मुदिता, आलयरामाय खो पन पजाय आलयरताय आलयसम्मुदिताय दुद्दसं इदं ठानं यदिदं इदप्पच्चयतापटिच्चसमुप्पादो । इदम्पि खो ठानं दुद्दसं यदिदं सब्बसङ्घारसमथो सब्बूपधिपटिनिस्सग्गो तण्हाक्खयो विरागो निरोधो निब्बानं। अहञ्चेव खो पन धम्म देसेय्यं, परे च मे न आजानेय्यु; सो ममस्स किलमथो, सा ममस्स विहेसाति । अपिस्सु मं, ब्रह्मे, इमा अनच्छरिया गाथायो पटिभंसु पुब्बे अस्सुतपुब्बा -
"किच्छेन मे अधिगतं, हलं दानि पकासितुं । रागदोसपरेतेहि, नायं धम्मोसुसम्बुधो ।।
“पटिसोतगामिं निपुणं, गम्भीरं दुद्दसं अणुं । रागरत्ता न दक्खन्ति, तमोखन्धेन आवुटा''ति ।।
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दीघनिकायो-२
(२.१.६८-७०)
इतिह मे, ब्रह्मे, पटिसञ्चिक्खतो अप्पोस्सुक्कताय चित्तं नमि, नो धम्मदेसनाया''ति ।
६८. “दुतियम्पि खो, भिक्खवे, सो महाब्रह्मा...पे०... ततियम्पि खो, भिक्खवे, सो महाब्रह्मा विपस्सिं भगवन्तं अरहन्तं सम्मासम्बद्धं एतदवोच- 'देसेतु, भन्ते, भगवा धम्म, देसेतु सुगतो धम्म, सन्ति सत्ता अप्परजक्खजातिका, अस्सवनता धम्मस्स परिहायन्ति, भविस्सन्ति धम्मस्स अज्ञातारो'ति ।
६९. “अथ खो, भिक्खवे, विपस्सी भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो ब्रह्मनो च अज्झेसनं विदित्वा सत्तेसु च कारुतं पटिच्च बुद्धचक्खुना लोकं वोलोकेसि । अद्दसा खो, भिक्खवे, विपस्सी भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो बुद्धचक्खुना लोकं वोलोकेन्तो सत्ते अप्परजक्खे महारजक्खे तिक्खिन्द्रिये मुदिन्द्रिये स्वाकारे द्वाकारे सुविञापये दुविज्ञापये अप्पेकच्चे परलोकवज्जभयदस्साविने विहरन्ते, अप्पेकच्चे न परलोकवज्जभयदस्साविने विहरन्ते । सेय्यथापि नाम उप्पलिनियं वा पदुमिनियं वा पुण्डरीकिनियं वा अप्पेकच्चानि उप्पलानि वा पदुमानि वा पुण्डरीकानि वा उदके जातानि उदके संवड्डानि उदकानुग्गतानि अन्तो निमुग्गपोसीनि। अप्पेकच्चानि उप्पलानि वा पदुमानि वा पुण्डरीकानि वा उदके जातानि उदके संवड्ढानि समोदकं ठितानि । अप्पेकच्चानि उप्पलानि वा पदुमानि वा पुण्डरीकानि वा उदके जातानि उदके संवड्वानि उदका अच्चुग्गम्म ठितानि अनुपलित्तानि उदकेन । एवमेव खो, भिक्खवे, विपस्सी भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो बुद्धचक्खुना लोकं वोलोकेन्तो अद्दस सत्ते अप्परजक्खे महारजक्खे तिक्खिन्द्रिये मुदिन्द्रिये स्वाकारे द्वाकारे सुविज्ञापये दुविज्ञापये अप्पेकच्चे परलोकवज्जभयदस्साविने विहरन्ते अप्पेकच्चे न परलोकवज्जभयदस्साविने विहरन्ते ।
७०. “अथ खो सो, भिक्खवे, महाब्रह्मा विपस्सिस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स चेतसा चेतोपरिवितक्कमञाय विपस्सिं भगवन्तं अरहन्तं सम्मासम्बुद्धं गाथाहि अज्झभासि
'सेले यथा पब्बतमुद्धनिट्ठितो, यथापि पस्से जनतं समन्ततो । तथूपमं धम्ममयं सुमेध, पासादमारुम्ह समन्तचक्खु ।।
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(२.१.७१-७३)
१. महापदानसुत्तं
३१
'सोकावतिण्णं जनतमपेतसोको,
अवेक्खस्सु जातिजराभिभूतं । उठेहि वीर विजितसङ्गाम,
सत्थवाह अणण विचर लोके ।। देसस्सु भगवा धम्म,
अज्ञातारो भविस्सन्तीति ।।
७१. “अथ खो, भिक्खवे, विपस्सी भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो तं महाब्रह्मानं गाथाय अज्झभासि
'अपारुता तेसं अमतस्स द्वारा,
___ ये सोतवन्तो पमुञ्चन्तु सद्धं । विहिंससञी पगुणं न भासिं,
. धम्मं पणीतं मनुजेसु ब्रह्मेति ।।
“अथ खो सो, भिक्खवे, महाब्रह्मा 'कतावकासो खोम्हि विपस्सिना भगवता अरहता सम्मासम्बुद्धेन धम्मदेसनाया'ति विपस्सिं भगवन्तं अरहन्तं सम्मासम्बुद्धं अभिवादेत्वा पदक्खिणं कत्वा तत्थेव अन्तरधायि ।
अग्गसावकयुगं
७२. “अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स एतदहोसि- 'कस्स नु खो अहं पठमं धम्मं देसेय्यं, को इमं धम्मं खिप्पमेव आजानिस्सती'ति? अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स एतदहोसि - 'अयं खो खण्डो च राजपुत्तो तिस्सो च पुरोहितपुत्तो बन्धुमतिया राजधानिया पटिवसन्ति पण्डिता वियत्ता मेधाविनो दीघरत्तं अप्परजक्खजातिका । यंनूनाहं खण्डस्स च राजपुत्तस्स, तिस्सस्स च पुरोहितपुत्तस्स पठमं धम्मं देसेय्यं, ते इमं धम्म खिप्पमेव आजानिस्सन्ती'ति ।
७३. “अथ खो, भिक्खवे, विपस्सी भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो सेय्यथापि नाम
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international
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दीघनिकायो-२
(२.१.७४-७६)
बलवा पुरिसो समिञ्जितं वा बाहं पसारेय्य, पसारितं वा बाहं समिजेय्य; एवमेव बोधिरुक्खमूले अन्तरहितो बन्धुमतिया राजधानिया खेमे मिगदाये पातुरहोसि । अथ खो, भिक्खवे, विपस्सी भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो दायपालं आमन्तेसि - ‘एहि त्वं, सम्म दायपाल, बन्धुमतिं राजधानिं पविसित्वा खण्डञ्च राजपुत्तं तिस्सञ्च पुरोहितपुत्तं एवं वदेहि - विपस्सी, भन्ते, भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो बन्धुमतिं राजधानि अनुप्पत्तो खेमे मिगदाये विहरति, सो तुम्हाकं दस्सनकामो'ति । ‘एवं, भन्ते'ति खो, भिक्खवे, दायपालो विपस्सिस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स पटिस्सुत्वा बन्धुमतिं राजधानिं पविसित्वा खण्डञ्च राजपुत्तं तिस्सञ्च पुरोहितपुत्तं एतदवोच - 'विपस्सी, भन्ते, भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो बन्धुमतिं राजधानि अनुप्पत्तो खेमे मिगदाये विहरति; सो तुम्हाकं दस्सनकामो'ति ।
७४. “अथ खो, भिक्खवे, खण्डो च राजपुत्तो तिस्सो च पुरोहितपुत्तो भद्दानि भद्दानि यानानि योजापेत्वा भई भदं यानं अभिरुहित्वा भद्देहि भद्देहि यानेहि बन्धुमतिया राजधानिया निय्यिंसु । येन खेमो मिगदायो तेन पायिंसु । यावतिका यानस्स भूमि, यानेन गन्त्वा याना पच्चोरोहित्वा पत्तिकाव येन विपस्सी भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो तेनुपसङ्कमिंसु । उपसङ्कमित्वा विपस्सिं भगवन्तं अरहन्तं सम्मासम्बुद्धं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु ।
७५. “तेसं विपस्सी भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो अनुपुब्बिं कथं कथेसि, सेय्यथिदं - दानकथं सीलकथं सग्गकथं कामानं आदीनवं ओकारं संकिलेसं नेक्खम्मे आनिसंसं पकासेसि । यदा ते भगवा अञासि कल्लचित्ते मुदुचित्ते विनीवरणचित्ते उदग्गचित्ते पसन्नचित्ते, अथ या बुद्धानं सामुक्कंसिका धम्मदेसना, तं पकासेसि- दुक्खं समुदयं निरोधं मग्गं। सेय्यथापि नाम सुद्धं वत्थं अपगतकाळकं सम्मदेव रजनं पटिग्गण्हेय्य, एवमेव खण्डस्स च राजपुत्तस्स तिस्सस्स च पुरोहितपुत्तस्स तस्मिंयेव आसने विरजं वीतमलं धम्मचक्ढे उदपादि- 'यं किञ्चि समुदयधम्म, सब्बं तं निरोधधम्म'न्ति।
७६. "ते दिट्ठधम्मा पत्तधम्मा विदितधम्मा परियोगाळ्हधम्मा तिण्णविचिकिच्छा विगतकथंकथा वेसारज्जप्पत्ता अपरप्पच्चया सत्थुसासने विपस्सिं भगवन्तं अरहन्तं सम्मासम्बुद्धं एतदवोचुं- “अभिक्कन्तं, भन्ते, अभिक्कन्तं, भन्ते । सेय्यथापि, भन्ते, निक्कुज्जितं वा उक्कुज्जेय्य, पटिच्छन्नं वा विवरेय्य, मूळहस्स वा मग्गं आचिक्खेय्य,
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(२.१.७७-७९)
१. महापदानसुत्तं
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अन्धकारे वा तेलपज्जोतं धारेय्य 'चक्खुमन्तो रूपानि दक्खन्ती'ति । एवमेवं भगवता अनेकपरियायेन धम्मो पकासितो। एते मयं, भन्ते, भगवन्तं सरणं गच्छाम धम्मञ्च । लभेय्याम मयं, भन्ते, भगवतो सन्तिके पब्बज्जं लभेय्याम उपसम्पदन्ति ।
७७. “अलत्थु खो, भिक्खवे, खण्डो च राजपुत्तो, तिस्सो च पुरोहितपुत्तो विपस्सिस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स सन्तिके पब्बज्जं अलत्थं उपसम्पदं । ते विपस्सी भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो धम्मिया कथाय सन्दस्सेसि समादपेसि समुत्तेजेसि सम्पहंसेसि; सङ्घारानं आदीनवं ओकारं संकिलेसं निब्बाने आनिसंसं पकासेसि । तेसं विपस्सिना भगवता अरहता सम्मासम्बुद्धेन धम्मिया कथाय सन्दस्सियमानानं समादपियमानानं समुत्तेजियमानानं सम्पहंसियमानानं नचिरस्सेव अनुपादाय आसवेहि चित्तानि विमुच्चिंसु ।
महाजनकायपब्बज्जा
७८. “अस्सोसि खो, भिक्खवे, बन्धुमतिया राजधानिया महाजनकायो चतुरासीतिपाणसहस्सानि- 'विपस्सी किर भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो बन्धुमतिं राजधानिं अनुप्पत्तो खेमे मिगदाये विहरति । खण्डो च किर राजपुत्तो तिस्सो च पुरोहितपुत्तो विपस्सिस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स सन्तिके केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजिता'ति । सुत्वान नेसं एतदहोसि- 'न हि नून सो ओरको धम्मविनयो, न सा ओरका पब्बज्जा, यत्थ खण्डो च राजपुत्तो तिस्सो च पुरोहितपुत्तो केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजिता । खण्डो च राजपुत्तो तिस्सो च पुरोहितपुत्तो केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजिस्सन्ति, किमङ्गं पन मय'न्ति । अथ खो सो, भिक्खवे, महाजनकायो चतुरासीतिपाणसहस्सानि बन्धुमतिया राजधानिया निक्खमित्वा येन खेमो मिगदायो, येन विपस्सी भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा विपस्सिं भगवन्तं अरहन्तं सम्मासम्बुद्धं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु ।
७९. “तेसं विपस्सी भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो अनुपुब्बिं कथं कथेसि । सेय्यथिदं - दानकथं सीलकथं सग्गकथं कामानं आदीनवं ओकारं संकिलेसं नेक्खम्मे आनिसंसं पकासेसि । यदा ते भगवा अासि कल्लचित्ते मुदुचित्ते विनीवरणचित्ते उदग्गचित्ते
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दीघनिकायो-२
(२.१.८०-८२)
पसन्नचित्ते, अथ या बुद्धानं सामुक्कंसिका धम्मदेसना, तं पकासेसि- दुक्खं समुदयं निरोधं मग्गं। सेय्यथापि नाम सुद्धं वत्थं अपगतकाळकं सम्मदेव रजनं पटिग्गण्हेय्य, एवमेव तेसं चतुरासीतिपाणसहस्सानं तस्मिंयेव आसने विरजं वीतमलं धम्मचक्खं उदपादि- 'यं किञ्चि समुदयधम्म सब्बं तं निरोधधम्म'न्ति।
८०. "ते दिट्ठधम्मा पत्तधम्मा विदितधम्मा परियोगाळ्हधम्मा तिण्णविचिकिच्छा विगतकथंकथा वेसारज्जप्पत्ता अपरप्पच्चया सत्थुसासने विपस्सिं भगवन्तं अरहन्तं सम्मासम्बुद्धं एतदवोचुं- “अभिक्कन्तं, भन्ते, अभिक्कन्तं, भन्ते । सेय्यथापि, भन्ते, निक्कुज्जितं वा उक्कुज्जेय्य, पटिच्छन्नं वा विवरेय्य, मूळ्हस्स वा मग्गं आचिक्खेय्य, अन्धकारे वा तेलपज्जोतं धारेय्य 'चक्खुमन्तो रूपानि दक्खन्तीति । एवमेवं भगवता अनेकपरियायेन धम्मो पकासितो। एते मयं, भन्ते, भगवन्तं सरणं गच्छाम धम्मञ्च भिक्खुसङ्घञ्च । लभेय्याम मयं, भन्ते, भगवतो सन्तिके पब्बज्जं, लभेय्याम उपसम्पद'"न्ति।
८१. “अलत्थु खो, भिक्खवे, तानि चतुरासीतिपाणसहस्सानि विपस्सिस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स सन्तिके पब्बज्जं अलत्थु उपसम्पदं । ते विपस्सी भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो धम्मिया कथाय सन्दस्सेसि समादपेसि समुत्तेजेसि सम्पहंसेसि; सङ्खारानं आदीनवं ओकारं संकिलेसं निब्बाने आनिसंसं पकासेसि । तेसं विपस्सिना भगवता अरहता सम्मासम्बुद्धेन धम्मिया कथाय सन्दस्सियमानानं समादपियमानानं समुत्तेजियमानानं सम्पहंसियमानानं नचिरस्सेव अनुपादाय आसवेहि चित्तानि विमुच्चिंसु ।
पुरिमपब्बजितानं धम्माभिसमयो ८२. “अस्सोसुं खो, भिक्खवे, तानि पुरिमानि चतुरासीतिपब्बजितसहस्सानि - “विपस्सी किर भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो बन्धुमतिं राजधानि अनुप्पत्तो खेमे मिगदाये विहरति, धम्मञ्च किर देसेती"ति। अथ खो, भिक्खवे, तानि चतुरासीतिपब्बजितसहस्सानि येन बन्धुमती राजधानी, येन खेमो मिगदायो, येन विपस्सी भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा विपस्सिं भगवन्तं अरहन्तं सम्मासम्बुद्धं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु ।
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(२.१.८३-८६)
१. महापदानसुत्तं
८३. “तेसं विपस्सी भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो अनुपुब्बिं कथं कथेसि । सेय्यथिदं - दानकथं सीलकथं सग्गकथं कामानं आदीनवं ओकारं संकिलेसं नेक्खम्मे आनिसंसं पकासेसि । यदा ते भगवा अञासि कल्लचित्ते मुदुचित्ते विनीवरणचित्ते उदग्गचित्ते पसन्नचित्ते, अथ या बुद्धानं सामुक्कंसिका धम्मदेसना, तं पकासेसि- दुक्खं समुदयं निरोधं मग्गं। सेय्यथापि नाम सुद्धं वत्थं अपगतकाळकं सम्मदेव रजनं पटिग्गण्हेय्य, एवमेव तेसं चतुरासीतिपब्बजितसहस्सानं तस्मिंयेव आसने विरजं वीतमलं धम्मचक्टुं उदपादि- 'यं किञ्चि समुदयधम्म सब्बं तं निरोधधम्म'न्ति।
८४. "ते दिट्ठधम्मा पत्तधम्मा विदितधम्मा परियोगाळहधम्मा तिण्णविचिकिच्छा विगतकथंकथा वेसारज्जप्पत्ता अपरप्पच्चया सत्थुसासने विपस्सिं भगवन्तं अरहन्तं सम्मासम्बुद्धं एतदवोचुं- “अभिक्कन्तं, भन्ते, अभिक्कन्तं, भन्ते । सेय्यथापि, भन्ते, निक्कुज्जितं वा उक्कुज्जेय्य, पटिच्छन्नं वा विवरेय्य, मूळहस्स वा मग्गं आचिक्खेय्य, अन्धकारे वा तेलपज्जोतं धारेय्य 'चक्खुमन्तो रूपानि दक्खन्तीति । एवमेवं भगवता अनेकपरियायेन धम्मो पकासितो। एते मयं, भन्ते, भगवन्तं सरणं गच्छाम धम्मञ्च भिक्खुसङ्घञ्च । लभेय्याम मयं, भन्ते, भगवतो सन्तिके पब्बज्जं लभेय्याम उपसम्पदन्ति ।
८५. “अलत्थु खो, भिक्खवे, तानि चतुरासीतिपब्बजितसहस्सानि विपस्सिस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स सन्तिके पब्बज्जं अलत्थु उपसम्पदं । ते विपस्सी भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो धम्मिया कथाय सन्दस्सेसि समादपेसि समुत्तेजेसि सम्पहंसेसि; सङ्घारानं आदीनवं ओकारं संकिलेसं निब्बाने आनिसंसं पकासेसि । तेसं विपस्सिना भगवता अरहता सम्मासम्बुद्धेन धम्मिया कथाय सन्दस्सियमानानं समादपियमानानं समुत्तेजियमानानं सम्पहंसियमानानं नचिरस्सेव अनुपादाय आसवेहि चित्तानि विमुच्चिंसु ।
चारिकाअनुजाननं
८६. “तेन खो पन, भिक्खवे, समयेन बन्धुमतिया राजधानिया महाभिक्खुसङ्घो पटिवसति अट्ठसटिभिक्खुसतसहस्सं । अथ खो, भिक्खवे, विपस्सिस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स रहोगतस्स पटिसल्लीनस्स एवं चेतसो परिवितक्को उदपादि- “महा खो एतरहि भिक्खुसङ्घो बन्धुमतिया राजधानिया पटिवसति अट्ठसट्ठिभिक्खुसतसहस्सं, यंनूनाहं भिक्खू अनुजानेय्यं - ‘चरथ, भिक्खवे, चारिकं बहुजनहिताय बहुजनसुखाय
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दीघनिकायो-२
(२.१.८७-८८)
लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सानं; मा एकेन द्वे अगमित्थ; देसेथ, भिक्खवे, धम्मं आदिकल्याणं मज्झेकल्याणं परियोसानकल्याणं सात्थं सब्यञ्जनं केवलपरिपुण्णं परिसुद्धं ब्रह्मचरियं पकासेथ । सन्ति सत्ता अप्परजक्खजातिका, अस्सवनता धम्मस्स परिहायन्ति, भविस्सन्ति धम्मस्स अज्ञातारो। अपि च छन्नं छन्नं वस्सानं अच्चयेन बन्धुमती राजधानी उपसङ्कमितब्बा पातिमोक्खुद्देसाया' "ति ।
८७. “अथ खो, भिक्खवे, अञतरो महाब्रह्मा विपस्सिस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स चेतसा चेतोपरिवितक्कमञाय सेय्यथापि नाम बलवा पुरिसो समिञ्जितं वा बाहं पसारेय्य, पसारितं वा बाहं समिओय्य । एवमेव ब्रह्मलोके अन्तरहितो विपस्सिस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स पुरतो पातुरहोसि । अथ खो सो, भिक्खवे, महाब्रह्मा एकंसं उत्तरासङ्गं करित्वा येन विपस्सी भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो, तेनञ्जलिं पणामेत्वा विपस्सिं भगवन्तं अरहन्तं सम्मासम्बुद्धं एतदवोच – “एवमेतं, भगवा, एवमेतं, सुगत । महा खो, भन्ते, एतरहि भिक्खुसङ्घो बन्धुमतिया राजधानिया पटिवसति अट्ठसटिभिक्खुसतसहस्सं, अनुजानातु, भन्ते, भगवा भिक्खू - ‘चरथ भिक्खवे चारिकं बहुजनहिताय बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सानं; मा एकेन द्वे अगमित्थ; देसेथ, भिक्खवे, धम्म आदिकल्याणं मज्झेकल्याणं परियोसानकल्याणं सात्थं सब्यञ्जनं केवलपरिपुण्णं परिसुद्धं ब्रह्मचरियं पकासेथ । सन्ति सत्ता अप्परजक्खजातिका, अस्सवनता धम्मस्स परिहायन्ति, भविस्सन्ति धम्मस्स अज्ञातारो'ति । अपि च, भन्ते, मयं तथा करिस्साम यथा भिक्खू छन्नं छन्नं वस्सानं अच्चयेन बन्धुमति राजधानिं उपसङ्कमिस्सन्ति पातिमोक्खुद्देसाया"ति | इदमवोच, भिक्खवे, सो महाब्रह्मा, इदं वत्वा विपस्सिं भगवन्तं अरहन्तं सम्मासम्बुद्धं अभिवादेत्वा पदक्खिणं कत्वा तत्थेव अन्तरधायि ।
८८. “अथ खो, भिक्खवे, विपस्सी भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो सायन्हसमयं पटिसल्लाना बुट्टितो भिक्खू आमन्तेसि - इध मय्हं, भिक्खवे, रहोगतस्स पटिसल्लीनस्स एवं चेतसो परिवितक्को उदपादि - “महा खो एतरहि भिक्खुसङ्घो बन्धुमतिया राजधानिया पटिवसति अट्ठसट्ठिभिक्खुसतसहस्सं । यंनूनाहं भिक्खू अनुजानेय्यं - ‘चरथ, भिक्खवे, चारिकं बहुजनहिताय बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सानं; मा एकेन द्वे अगमित्थ; देसेथ, भिक्खवे, धम्मं आदिकल्याणं मज्झेकल्याणं परियोसानकल्याणं सात्थं सब्यञ्जनं केवलपरिपुण्णं परिसुद्धं ब्रह्मचरियं पकासेथ । सन्ति
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(२.१.८९-८९)
१. महापदानसुत्तं
३७
सत्ता अप्परजक्खजातिका, अस्सवनता धम्मस्स परिहायन्ति, भविस्सन्ति धम्मस्स अञातारो । अपि च, छन्नं छन्नं वस्सानं अच्चयेन बन्धुमती राजधानी उपसङ्कमितब्बा पातिमोक्खुद्देसाया' 'ति ।।
“अथ खो, भिक्खवे, अञ्जतरो महाब्रह्मा मम चेतसा चेतोपरिवितक्कमञाय सेय्यथापि नाम बलवा पुरिसो समिञ्जितं वा बाहं पसारेय्य, पसारितं वा बाहं समिछुय्य, एवमेव ब्रह्मलोके अन्तरहितो मम पुरतो पातुरहोसि । अथ खो सो, भिक्खवे, महाब्रह्मा एकंसं उत्तरासङ्गं करित्वा येनाहं तेनञ्जलिं पणामेत्वा मं एतदवोच – "एवमेतं, भगवा, एवमेतं, सुगत । महा खो, भन्ते, एतरहि भिक्खुसङ्घो बन्धुमतिया राजधानिया पटिवसति अट्ठसट्ठिभिक्खुसतसहस्सं । अनुजानातु, भन्ते, भगवा भिक्खू - 'चरथ, भिक्खवे, चारिकं बहुजनहिताय बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सानं; मा एकेन द्वे अगमित्थ; देसेथ, भिक्खवे, धम्म...पे०... सन्ति सत्ता अप्परजक्खजातिका, अस्सवनता धम्मस्स परिहायन्ति, भविस्सन्ति धम्मस्स अज्ञातारो'ति । अपि च, भन्ते, मयं तथा करिस्साम, यथा भिक्खू छन्नं छन्नं वस्सानं अच्चयेन बन्धुमतिं राजधानिं उपसङ्कमिस्सन्ति पातिमोक्खुद्देसाया''ति । इदमवोच, भिक्खवे, सो महाब्रह्मा, इदं वत्वा मं अभिवादेत्वा पदक्खिणं कत्वा तत्थेव अन्तरधायि ।
" 'अनुजानामि, भिक्खवे, चरथ चारिकं बहुजनहिताय बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सानं । मा एकेन द्वे अगमित्थ । देसेथ, भिक्खवे, धम्मं आदिकल्याणं मज्झेकल्याणं परियोसानकल्याणं सात्थं सब्यञ्जनं केवलपरिपुण्णं परिसुद्धं ब्रह्मचरियं पकासेथ । सन्ति सत्ता अप्परजक्खजातिका, अस्सवनता धम्मस्स परिहायन्ति, भविस्सन्ति धम्मस्स अातारो । अपि च, भिक्खवे, छन्नं छन्नं वस्सानं अच्चयेन बन्धुमती राजधानी उपसमितब्बा पातिमोक्खुद्देसाया'ति । अथ खो, भिक्खवे, भिक्खू येभुय्येन एकाहेनेव जनपदचारिकं पक्कमिंसु ।
८९. "तेन खो पन समयेन जम्बुदीपे चतुरासीति आवाससहस्सानि होन्ति । एकम्हि हि वस्से निक्खन्ते देवता सद्दमनुस्सावेसुं- “निक्खन्तं खो, मारिसा, एकं वस्सं; पञ्च दानि वस्सानि सेसानि; पञ्चन्नं वस्सानं अच्चयेन बन्धुमती राजधानी उपसङ्कमितब्बा पातिमोक्खुद्देसाया'ति । "द्वीसु वस्सेसु निक्खन्तेसु...। तीसु वस्सेसु निक्खन्तेसु... | चतूसु वस्सेसु निक्खन्तेसु... । पञ्चसु वस्सेसु निक्खन्तेसु देवता सद्दमनुस्सावेसुं- “निक्खन्तानि
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दीघनिकायो-२
'
खो, मारिसा, पञ्चवस्सानि; एकं दानि वस्सं सेसं एकस्स वस्सस्स अच्चयेन बन्धुमती राजधानी उपसङ्कमितब्बा पातिमोक्खुद्देसाया "ति । छसु वस्सेसु निक्खन्तेसु देवता सद्दमनुस्सावेसुं – “निक्खन्तानि खो, मारिसा, छब्बस्सानि, समयो दानि बन्धुम राजधानिं उपसङ्कमितुं पातिमोक्खुद्देसाया'ति । अथ खो ते, भिक्खवे, भिक्खू अप्पेकच्चे सकेन इद्धानुभावेन अप्पेकच्चे देवतानं इद्धानुभावेन एकाहेनेव बन्धुमतिं राजधानिं उपसङ्कमिंसु पातिमोक्खुद्देसाया”ति ।
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९०. “तत्र सुदं, भिक्खवे, विपस्सी भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो भिक्खुसङ्घे एवं पातिमोक्खं उद्दिसति -
'खन्ती परमं तपो तितिक्खा,
निब्बानं परमं वदन्ति बुद्धा ।
न हि पब्बजितो परूपघाती,
न समणो होति परं विहेठयन्तो ।।
सब्बपापस्स अकरणं, कुसलस्स उपसम्पदा । सचित्तपरियोदपनं, एतं बुद्धानसासनं । ।
अनूपवादो अनूपघातो, पातिमोक्खे च संवरो । मत्तञ्ञता च भत्तस्मिं, पन्तञ्च सयनासनं । अधिचित्ते च आयोगो, एतं बुद्धानसासन न्ति । ।
देवतारोचनं
'न
९१. “एकमिदाहं, भिक्खवे, समयं उक्कट्ठायं विहरामि सुभगवने सालराजमूले । तस्स मय्हं, भिक्खवे, रहोगतस्स पटिसल्लीनस्स एवं चेतसो परिवितक्को उदपादिखो सो सत्तावासी सुलभरूपो, यो मया अनावुत्थपुब्बो इमिना दीघेन अद्भुना अञ्ञत्र सुद्धावासेहि देवेहि। यंनूनाहं येन सुद्धावासा देवा तेनुपसङ्कमेय्यन्ति । अथ ख्वाहं, भिक्खवे – सेय्यथापि नाम बलवा पुरिसो समिञ्जितं वा बाहं पसारेय्य, पसारितं वा बाहं समिञ्जेय्य, एवमेव उक्कट्ठायं सुभगवने सालराजमूले अन्तरहितो अविहेसु देवेसु
(२.१.९०-९१)
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(२.१.९१-९१)
१. महापदानसुत्तं
पातुरहोसिं। तस्मिं, भिक्खवे, देवनिकाये अनेकानि देवतासहस्सानि अनेकानि देवतासतसहस्सानि येनाहं तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा में अभिवादेत्वा एकमन्तं अटुंसु । एकमन्तं ठिता खो, भिक्खवे, ता देवता मं एतदवोचुं- 'इतो सो, मारिसा, एकनवुतिकप्पे यं विपस्सी भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो लोके उदपादि । विपस्सी, मारिसा, भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो खत्तियो जातिया अहोसि, खत्तियकुले उदपादि । विपस्सी, मारिसा, भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो कोण्डञो गोत्तेन अहोसि । विपस्सिस्स, मारिसा, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स असीतिवस्ससहस्सानि आयुप्पमाणं अहोसि । विपस्सी, मारिसा, भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो पाटलिया मूले अभिसम्बुद्धो । विपस्सिस्स, मारिसा, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स खण्डतिस्सं नाम सावकयुगं अहोसि अग्गं भद्दयुगं । विपस्सिस्स, मारिसा, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स तयो सावकानं सन्निपाता अहेसुं । एको सावकानं सन्निपातो अहोसि अट्ठसट्ठिभिक्खुसतसहस्सं । एको सावकानं सन्निपातो अहोसि भिक्खुसतसहस्सं । एको सावकानं सन्निपातो अहोसि असीतिभिक्खुसहस्सानि । विपस्सिस्स, मारिसा, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स इमे तयो सावकानं सन्निपाता अहेसुं सब्बेसंयेव खीणासवानं । विपस्सिस्स, मारिसा, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स असोको नाम भिक्खु उपट्ठाको अहोसि अग्गुपट्ठाको । विपस्सिस्स, मारिस, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स बन्धुमा नाम राजा पिता अहोसि । बन्धुमती नाम देवी माता अहोसि जनेत्ति । बन्धुमस्स रञो बन्धुमती नाम नगरं राजधानी अहोसि । विपस्सिस्स, मारिसा, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स एवं अभिनिक्खमनं अहोसि एवं पब्बज्जा एवं पधानं एवं अभिसम्बोधि एवं धम्मचक्कप्पवत्तनं । ते मयं, मारिसा, विपस्सिम्हि भगवति ब्रह्मचरियं चरित्वा कामेसु कामच्छन्दं विराजेत्वा इधूपपन्ना'ति ।...पे०...
"तस्मिंयेव खो, भिक्खवे, देवनिकाये अनेकानि देवतासहस्सानि अनेकानि देवतासतसहस्सानि येनाहं तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा में अभिवादेत्वा एकमन्तं अटुंसु । एकमन्तं ठिता खो, भिक्खवे, ता देवता मं एतदवोचुं- 'इमस्मिंयेव खो, मारिसा, भद्दकप्पे भगवा एतरहि अरहं सम्मासम्बुद्धो लोके उप्पन्नो । भगवा, मारिसा, खत्तियो जातिया खत्तियकुले उप्पन्नो। भगवा, मारिसा, गोतमो गोत्तेन । भगवतो, मारिसा, अप्पकं आयुप्पमाणं परित्तं लहुकं यो चिरं जीवति, सो वस्ससतं अप्पं वा भिय्यो । भगवा, मारिसा, अस्सत्थस्स मूले अभिसम्बुद्धो । भगवतो, मारिसा, सारिपुत्तमोग्गल्लानं नाम सावकयुगं अहोसि अग्गं भद्दयुगं । भगवतो, मारिसा, एको सावकानं सन्निपातो अहोसि अड्डतेळसानि भिक्खुसतानि । भगवतो, मारिसा, अयं एको सावकानं सन्निपातो
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दीघनिकायो-२
(२.१.९२-९२)
अहोसि सब्बेसंयेव खीणासवानं । भगवतो, मारिसा, आनन्दो नाम भिक्खु उपट्ठाको अहोसि अग्गुपट्ठाको । भगवतो, मारिसा, सुद्धोदनो नाम राजा पिता अहोसि । माया नाम देवी माता अहोसि जनेत्ति । कपिलवत्थु नाम नगरं राजधानी अहोसि । भगवतो, मारिसा, एवं अभिनिक्खमनं अहोसि एवं पब्बज्जा एवं पधानं एवं अभिसम्बोधि एवं धम्मचक्कप्पवत्तनं । ते मयं, मारिसा, भगवति ब्रह्मचरियं चरित्वा कामेसु कामच्छन्दं विराजेत्वा इधूपपन्ना'ति ।
९२. “अथ ख्वाहं, भिक्खवे, अविहेहि देवेहि सद्धिं येन अतप्पा देवा तेनुपसङ्कमिं...पे०... अथ ख्वाहं, भिक्खवे, अविहेहि च देवेहि अतप्पेहि च देवेहि सद्धिं येन सुदस्सा देवा तेनुपसङ्कमिं । अथ ख्वाहं, भिक्खवे, अविहेहि च देवेहि अतप्पेहि च देवेहि सुदस्सेहि च देवेहि सद्धिं येन सुदस्सी देवा तेनुपसङ्कमिं । अथ ख्वाहं, भिक्खवे, अविहेहि च देवेहि अतप्पेहि च देवेहि सुदस्सेहि च देवेहि सुदस्सीहि च देवेहि सद्धिं येन अकनिट्ठा देवा तेनुपसङ्कमिं । तस्मिं, भिक्खवे, देवनिकाये अनेकानि देवतासहस्सानि अनेकानि देवतासतसहस्सानि येनाहं तेनुपसङ्कमिंसु, उपसङ्कमित्वा मं अभिवादेत्वा एकमन्तं अटुंसु ।
एकमन्तं ठिता खो, भिक्खवे, ता देवता मं एतदवोचुं- 'इतो सो, मारिसा, एकनवुतिकप्पे यं विपस्सी भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो लोके उदपादि । विपस्सी, मारिसा, भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो खत्तियो जातिया अहोसि । खत्तियकुले उदपादि । विपस्सी, मारिसा, भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो कोण्डो गोत्तेन अहोसि । विपस्सिस्स, मारिसा, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स असीतिवस्ससहस्सानि आयुप्पमाणं अहोसि । विपस्सी, मारिसा, भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो पाटलिया मूले अभिसम्बुद्धो। विपस्सिस्स, मारिसा, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स खण्डतिस्सं नाम सावकयुगं अहोसि अग्गं भद्दयुगं । विपस्सिस्स, मारिसा, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स तयो सावकानं सन्निपाता अहेसुं । एको सावकानं सन्निपातो अहोसि अट्ठसट्ठिभिक्खुसतसहस्सं | एको सावकानं सन्निपातो अहोसि भिक्खसतसहस्सं । एको सावकानं सन्निपातो अहोसि असीतिभिक्खसहस्सानि । विपस्सिस्स. मारिसा. भगवतो अरहतो सम्मासम्बद्धस्स इमे तयो सावकानं सा अहेसुं सब्बेसंयेव खीणासवानं । विपस्सिस्स, मारिसा, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स असोको नाम भिक्खु उपट्ठाको अहोसि अग्गुपट्ठाको । विपस्सिस्स, मारिसा, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स बन्धुमा नाम राजा पिता अहोसि बन्धुमती नाम देवी माता
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(२.१.९३-९४)
१. महापदानसुत्तं
अहोसि जनेत्ति । बन्धुमस्स रो बन्धुमती नाम नगरं राजधानी अहोसि । विपस्सिस्स, मारिसा, भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स एवं अभिनिक्खमनं अहोसि एवं पब्बज्जा एवं पधानं एवं अभिसम्बोधि, एवं धम्मचक्कप्पवत्तनं । ते मयं, मारिसा, विपस्सिम्हि भगवति ब्रह्मचरियं चरित्वा कामेसु कामच्छन्दं विराजेत्वा इधूपपन्ना'ति । तस्मिंयेव खो, भिक्खवे, देवनिकाये अनेकानि देवतासहस्सानि अनेकानि देवतासतसहस्सानि येनाहं तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा मं अभिवादेत्वा एकमन्तं अटुंसु । एकमन्तं ठिता खो, भिक्खवे, ता देवता मं एतदवोचुं- 'इतो सो, मारिसा, एकतिसे कप्पे यं सिखी भगवा...पे०... ते मयं, मारिसा, सिखिम्हि भगवति तस्मि व खो मारिसा, एकतिसे कप्पे यं वेस्सभू भगवा...पे०... ते मयं, मारिसा, वेस्सभुम्हि भगवति...पे०... इमस्मिंयेव खो, मारिसा, भद्दकप्पे ककसन्धो कोणागमनो कस्सपो भगवा...पे०... ते मयं. मारिसा. ककसन्धम्हि कोणागमनम्हि कस्सपम्हि भगवति ब्रह्मचरियं चरित्वा कामेसु कामच्छन्दं विराजेत्वा इधूपपन्ना'ति ।
९३. “तस्मिंयेव खो, भिखवे, देवनिकाये अनेकानि देवतासहस्सानि अनेकानि देवतासतसहस्सानि येनाहं तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा मं अभिवादेत्वा एकमन्तं अटुंसु । एकमन्तं ठिता खो, भिक्खवे, ता देवता मं एतदवोचुं- 'इमस्मिंयेव खो, मारिसा, भद्दकप्पे भगवा एतरहि अरहं सम्मासम्बुद्धो लोके उप्पन्नो । भगवा, मारिसा, खत्तियो जातिया, खत्तियकुले उप्पन्नो । भगवा, मारिसा, गोतमो गोत्तेन । भगवतो, मारिसा अप्पकं आयुप्पमाणं परित्तं लहुकं यो चिरं जीवति, सो वस्ससतं अप्पं वा भिय्यो । भगवा, मारिसा, अस्सत्थस्स मूले अभिसम्बुद्धो । भगवतो, मारिसा, सारिपुत्तमोग्गल्लानं नाम सावकयुगं अहोसि अग्गं भद्दयुगं । भगवतो, मारिसा, एको सावकानं सन्निपातो अहोसि अड्डतेळसानि भिक्खुसतानि । भगवतो, मारिसा, अयं एको सावकानं सन्निपातो अहोसि सब्बेसंयेव खीणासवानं । भगवतो, मारिसा, आनन्दो नाम भिक्खु उपट्ठाको अग्गुपट्ठाको अहोसि । भगवतो, मारिसा, सुद्धोदनो नाम राजा पिता अहोसि । माया नाम देवी माता अहोसि जनेत्ति । कपिलवत्थु नाम नगरं राजधानी अहोसि । भगवतो, मारिसा, एवं अभिनिक्खमनं अहोसि, एवं पब्बज्जा, एवं पधानं, एवं अभिसम्बोधि, एवं धम्मचक्कप्पवत्तनं । ते मयं, मारिसा, भगवति ब्रह्मचरियं चरित्वा कामेसु कामच्छन्दं विराजेत्वा इधूपपन्ना'ति ।
९४. “इति खो, भिक्खवे, तथागतस्सेवेसा धम्मधातु सुप्पटिविद्धा, यस्सा धम्मधातुया
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दीघनिकायो-२
सुप्पटिविद्वत्ता तथागतो अतीते बुद्धे परिनिब्बुते छिन्नपपञ्चे छिन्नवटुमे परियादिन्नवट्टे सब्बदुक्खवीतिवत्ते जातितोपि अनुस्सरति, नामतोपि अनुसरति, गोत्ततोपि अनुस्सरति, आयुष्पमाणतोपि अनुसरति, सावकयुगतोपि अनुस्सरति, सावकसन्निपाततोपि अनुसरति 'एवंजच्चा ते भगवन्तो अहेसुं' इतिपि । एवंनामा एवंगोत्ता एवंसीला एवंधम्मा एवंपञ एवंविहारी एवंविमुत्ता ते भगवन्तो अहेसुं' इतिपी 'ति ।
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‘“देवतापि तथागतस्स एतमत्थं आरोचेसुं, येन तथागतो अतीते बुद्धे परिनिब्बुते छिन्नपपञ्चे छिन्नवटुमे परियादिन्नवट्टे सब्बदुक्खवीतिवत्ते जातितोपि अनुसरति, नामतोपि अनुस्सरति, गोत्ततोपि अनुस्सरति, आयुप्पमाणतोपि अनुस्सरति, सावकयुगोपि अनुस्सरति, सावकसन्निपाततोपि अनुस्सरति ' एवंजच्चा ते भगवन्तो अहेसुं' इतिपि । ' एवंनामा एवंगोत्ता एवंसीला एवंधम्मा एवंपञ्ञ एवंविहारी एवंविमुत्ता ते भगवन्तो अहेसुं' इतिपी’'ति ।
इदमवोच भगवा । अत्तमना ते भिक्खू भगवतो भासितं अभिनन्दु”न्ति ।
महापदानत्तं निट्ठितं पठमं ।
(२.१.९४-९४)
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२. महानिदानसुत्तं
पटिच्चसमुप्पादो
९५. एवं मे सुतं- एकं समयं भगवा कुरूसु विहरति कम्मासधम्मं नाम कुरूनं निगमो । अथ खो आयस्मा आनन्दो येन भगवा तेनुपसङ्कमि, उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि । एकमन्तं निसिन्नो खो आयस्मा आनन्दो भगवन्तं एतदवोच - “अच्छरियं, भन्ते, अब्भुतं, भन्ते! याव गम्भीरो चायं, भन्ते, पटिच्चसमुप्पादो गम्भीरावभासो च, अथ च पन मे उत्तानकुत्तानको विय खायतीति । मा हेवं, आनन्द, अवच, मा हेवं, आनन्द, अवच । गम्भीरो चायं, आनन्द, पटिच्चसमुप्पादो गम्भीरावभासो च । एतस्स, आनन्द, धम्मस्स अननुबोधा अप्पटिवेधा एवमयं पजा तन्ताकुलकजाता कुलगण्ठिकजाता मुञ्जपब्बजभूता अपायं दुग्गतिं विनिपातं संसारं नातिवत्तति ।
९६. “ 'अत्थि इदप्पच्चया जरामरणन्ति इति पुढेन सता, आनन्द, अस्थीतिस्स वचनीयं । 'किंपच्चया जरामरण'न्ति इति चे वदेय्य, 'जातिपच्चया जरामरण'न्ति इच्चस्स वचनीयं ।
" 'अत्थि इदप्पच्चया जाती'ति इति पुढेन सता, आनन्द, अस्थीतिस्स वचनीयं । 'किंपच्चया जातीति इति चे वदेय्य, 'भवपच्चया जातीति इच्चस्स वचनीयं ।
“ 'अस्थि इदप्पच्चया भवो'ति इति पुढेन सता, आनन्द, अस्थीतिस्स वचनीयं । 'किंपच्चया भवो'ति इति चे वदेय्य, 'उपादानपच्चया भवो'ति इच्चस्स वचनीयं ।
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४४
दीघनिकायो-२
(२.२.९७-९८)
" ‘अस्थि इदप्पच्चया उपादान'न्ति इति पुढेन सता, आनन्द, अस्थीतिस्स वचनीयं । 'किंपच्चया उपादान'न्ति इति चे वदेय्य, 'तण्हापच्चया उपादान'न्ति इच्चस्स वचनीयं ।
" 'अस्थि इदप्पच्चया तण्हा ति इति पुढेन सता, आनन्द, अत्थीतिस्स वचनीयं । 'किंपच्चया तण्हा'ति इति चे वदेय्य, 'वेदनापच्चया तण्हा'ति इच्चस्स वचनीयं ।
" 'अत्थि इदप्पच्चया वेदना'ति इति पुढेन सता, आनन्द, अत्थीतिस्स वचनीयं । 'किंपच्चया वेदना'ति इति चे वदेय्य, ‘फस्सपच्चया वेदना'ति इच्चस्स वचनीयं ।
" 'अत्थि इदप्पच्चया फस्सो'ति इति पुढेन सता, आनन्द, अत्थीतिस्स वचनीयं । 'किंपच्चया फस्सो'ति इति चे वदेय्य, 'नामरूपपच्चया फस्सो'ति. इच्चस्स वचनीयं ।
" 'अत्थि इदप्पच्चया नामरूप'न्ति इति पुठून सता, आनन्द, अत्थीतिस्स वचनीयं । 'किंपच्चया नामरूप'न्ति इति चे वदेय्य, 'विज्ञाणपच्चया नामरूप'न्ति इच्चस्स वचनीयं ।
“ 'अत्थि इदप्पच्चया विज्ञाण'न्ति इति पुढेन सता, आनन्द, अत्थीतिस्स वचनीयं । 'किंपच्चया विज्ञाण'न्ति इति चे वदेय्य, 'नामरूपपच्चया विज्ञाण'न्ति इच्चस्स वचनीयं ।
९७. “इति खो, आनन्द, नामरूपपच्चया विजाणं, विज्ञाणपच्चया नामरूपं, नामरूपपच्चया फस्सो, फस्सपच्चया वेदना, वेदनापच्चया तण्हा, तण्हापच्चया उपादानं, उपादानपच्चया भवो, भवपच्चया जाति, जातिपच्चया जरामरणं सोक-परिदेव-दुक्खदोमनस्सुपायासा सम्भवन्ति। एवमेतस्स केवलस्स दुक्खक्खन्धस्स समुदयो होति।
९८. “ 'जातिपच्चया जरामरण'न्ति इति खो पनेतं वुत्तं, तदानन्द, इमिनापेतं परियायेन वेदितबं, यथा जातिपच्चया जरामरणं । जाति च हि, आनन्द, नाभविस्स, सब्बेन सब्बं सब्बथा सब् कस्सचि किम्हिचि, सेय्यथिदं - देवानं वा देवत्ताय, गन्धब्बानं वा गन्धब्बत्ताय, यक्खानं वा यक्खत्ताय, भूतानं वा भूतत्ताय, मनुस्सानं वा मनुस्सत्ताय, चतुप्पदानं वा चतुप्पदत्ताय, पक्खीनं वा पक्खित्ताय, सरीसपानं वा सरीसपत्ताय । तेसं तेसञ्च हि, आनन्द, सत्तानं तदत्ताय जाति नाभविस्स | सब्बसो जातिया असति
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(२.२.९९-१०२)
२. महानिदानसुत्तं
जातिनिरोधा अपि नु खो जरामरणं पञ्जायेथा''ति ? “नो हेतं, भन्ते'। “तस्मातिहानन्द, एसेव हेतु एतं निदानं एस समुदयो एस पच्चयो जरामरणस्स, यदिदं जाति' |
९९. “ 'भवपच्चया जाती'ति इति खो पनेतं वुत्तं; तदानन्द, इमिनापेतं परियायेन वेदितब्बं यथा भवपच्चया जाति । भवो च हि, आनन्द, नाभविस्स सब्बेन सब्बं सब्बथा सब्बं कस्सचि किम्हिचि, सेय्यथिदं- कामभवो वा रूपभवो वा अरूपभवो वा। सब्बसो भवे असति भवनिरोधा अपि नु खो जाति पञ्जायेथा"ति ? "नो हेतं, भन्ते"। "तस्मातिहानन्द, एसेव हेतु एतं निदानं एस समुदयो एस पच्चयो जातिया, यदिदं भवो"।
१००. “ 'उपादानपच्चया भवो'ति इति खो पनेतं वुत्तं; तदानन्द, इमिनापेतं परियायेन वेदितब्, यथा - उपादानपच्चया भवो । उपादानञ्च हि, आनन्द, नाभविस्स सब्बेन सब्बं सब्बथा सब् कस्सचि किम्हिचि, सेय्यथिदं - कामुपादानं वा दिलृपादानं वा सीलब्बतुपादानं वा अत्तवादुपादानं वा। सब्बसो उपादाने असति उपादाननिरोधा अपि नु खो भवो पायेथा'"ति ? “नो हेतं, भन्ते" | "तस्मातिहानन्द, एसेव हेतु एतं निदानं एस समुदयो एस पच्चयो भवस्स, यदिदं उपादानं"।
१०१. " 'तण्हापच्चया उपादान'न्ति इति खो पनेतं वुत्तं; तदानन्द, इमिनापेतं परियायेन वेदितब्बं, यथा तण्हापच्चया उपादानं । तण्हा च हि, आनन्द, नाभविस्स सब्बेन सब्बं सब्बथा सब्बं कस्सचि किम्हिचि, सेय्यथिदं - रूपतण्हा सद्दतण्हा गन्धतण्हा रसतण्हा फोट्ठब्बतण्हा धम्मतण्हा। सब्बसो तण्हाय असति तण्हानिरोधा अपि नु खो उपादानं पञआयेथा'"ति ? “नो हेतं, भन्ते"। "तस्मातिहानन्द, एसेव हेतु एतं निदानं एस समुदयो एस पच्चयो उपादानस्स, यदिदं तण्हा"।
१०२. “ 'वेदनापच्चया तण्हा'ति इति खो पनेतं वुत्तं; तदानन्द, इमिनापेतं परियायेन वेदितब्बं, यथा वेदनापच्चया तण्हा | वेदना च हि, आनन्द, नाभविस्स सब्बेन सब्बं सब्बथा सब्बं कस्सचि किम्हिचि, सेय्यथिदं - चक्खुसम्फस्सजा वेदना सोतसम्फस्सजा वेदना घानसम्फस्सजा वेदना जिव्हासम्फस्सजा वेदना कायसम्फस्सजा वेदना मनोसम्फस्सजा वेदना। सब्बसो वेदनाय असति वेदनानिरोधा अपि नु खो तण्हा
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दीघनिकायो-२
(२.२.१०३-१०६)
पञ्जायेथा''ति ? “नो हेतं, भन्ते"। "तस्मातिहानन्द, एसेव हेतु एतं निदानं एस समुदयो एस पच्चयो तण्हाय, यदिदं वेदना'।
१०३. “इति खो पनेतं, आनन्द, वेदनं पटिच्च तण्हा, तण्हं पटिच्च परियेसना, परियेसनं पटिच्च लाभो, लाभं पटिच्च विनिच्छयो, विनिच्छयं पटिच्च छन्दरागो, छन्दरागं पटिच्च अज्झोसानं, अज्झोसानं पटिच्च परिग्गहो, परिग्गहं पटिच्च मच्छरियं, मच्छरियं पटिच्च आरक्खो। आरक्खाधिकरणं दण्डादानसत्थादानकलहविग्गहविवादतुवंतुवंपेसुञ्जमुसावादा अनेके पापका अकुसला धम्मा सम्भवन्ति ।
१०४. “ 'आरक्खाधिकरणं दण्डादानसत्थादानकलहविग्गहविवादतुवंतुवंपेसुञमुसावादा अनेके पापका अकुसला धम्मा सम्भवन्तीति इति खो पनेतं वुत्तं; तदानन्द, इमिनापेतं परियायेन वेदितब्बं, यथा आरक्खाधिकरणं दण्डादानसत्थादानकलहविग्गहविवादतुवंतुवंपेसुञमुसावादा अनेके पापका अकुसला धम्मा सम्भवन्ति । आरक्खो च हि, आनन्द, नाभविस्स सब्बेन सब्बं सब्बथा सब् कस्सचि किम्हिचि, सब्बसो आरक्खे असति आरक्खनिरोधा अपि नु खो दण्डादानसत्थादानकलहविग्गहविवादतुवंतुवंपेसुञमुसावादा अनेके पापका अकुसला धम्मा सम्भवेय्यु''न्ति ? “नो हेतं, भन्ते'। "तस्मातिहानन्द, एसेव हेतु एतं निदानं एस समुदयो एस पच्चयो दण्डादानसत्थादानकलहविग्गहविवादतुवंतुवंपेसुञमुसावादानं अनेकेसं पापकानं अकुसलानं धम्मानं सम्भवाय यदिदं आरक्खो।
१०५. " 'मच्छरियं पटिच्च आरक्खो'ति इति खो पनेतं वुत्तं; तदानन्द, इमिनापेतं परियायेन वेदितब्बं, यथा मच्छरियं पटिच्च आरक्खो। मच्छरियञ्च हि, आनन्द, नाभविस्स सब्बेन सब्बं सब्बथा सब्बं कस्सचि किम्हिचि, सब्बसो मच्छरिये असति मच्छरियनिरोधा अपि नु खो आरक्खो पञ्जायेथा''ति ? “नो हेतं, भन्ते" । "तस्मातिहानन्द, एसेव हेतु एतं निदानं एस समुदयो एस पच्चयो आरक्खस्स, यदिदं मच्छरियं"।
१०६. “ 'परिग्गहं पटिच्च मच्छरियन्ति इति खो पनेतं वुत्तं; तदानन्द, इमिनापेतं परियायेन वेदितब्बं, यथा परिग्गहं पटिच्च मच्छरियं । परिग्गहो च हि, आनन्द, नाभविस्स सब्बेन सब्बं सब्बथा सब्बं कस्सचि किम्हिचि, सब्बसो परिग्गहे
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२. महानिदानसुतं
असति परिग्गहनिरोधा अपि नु खो मच्छरियं पञ्ञायेथा "ति ? “नो हेतं, भन्ते” । " तस्मातिहानन्द, एसेव हेतु एतं निदानं एस समुदयो एस पच्चयो मच्छरियस्स, यदिदं परिग्गहो" ।
( २.२.१०७-११०)
१०७. 'अज्झोसानं पटिच्च परिग्गहो 'ति इति खो पनेतं वृत्तं; तदानन्द, इमिनापेतं परियायेन वेदितब्बं, यथा अज्झोसानं पटिच्च परिग्गहो । अज्झोसानञ्च हि, आनन्द, नाभविस्स सब्बेन सब्बं सब्बथा सब्बं कस्सचि किम्हिचि, सब्बसो अज्झोसाने असति अज्झोसाननिरोधा अपि नु खो परिग्गहो पञ्ञायेथा "ति ? “नो हेतं, भन्ते” । " तस्मातिहानन्द, एसेव हेतु एतं निदानं एस समुदयो एस पच्चयो परिग्गहस्स - यदिदं अज्झोसानं" ।
"
१०८. 'छन्दरागं पटिच्च अज्झोसान 'न्ति इति खो पनेतं वृत्तं; तदानन्द, इमिनापेतं परियायेन वेदितब्बं यथा छन्दरागं पटिच्च अज्झोसानं । छन्दरागो च हि, आनन्द, नाभविस्स सब्बेन सब्बं सब्बथा सब्बं कस्सचि किम्हिचि, सब्बसो छन्दरागे असति छन्दरागनिरोधा अपि नु खो अज्झोसानं पञ्ञायेथा "ति ? " नो हेतं, भन्ते” । " तस्मातिहानन्द, एसेव हेतु एतं निदानं एस समुदयो एस पच्चयो अज्झोसानस्स, यदिदं छन्दरागो” ।
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"" १०९. 'विनिच्छयं पटिच्च छन्दरागो ति इति खो पनेतं वृत्तं; तदानन्द, इमिनापेतं परियायेन वेदितब्बं यथा विनिच्छ्यं पटिच्च छन्दरागो । विनिच्छयो च हि, आनन्द, नाभविस्स सब्बेन सब्बं सब्बथा सब्बं कस्सचि किम्हिचि, सब्बसो विनिच्छये असति विनिच्छयनिरोधा अपि नु खो छन्दरागो पञ्ञायेथा "ति ? “नो हेतं, भन्ते” । “तस्मातिहानन्द, एसेव हेतु एतं निदानं एस समुदयो एस पच्चयो छन्दरागस्स, यदिदं विनिच्छयो” ।
११०. 'लाभं पटिच्च विनिच्छयो 'ति इति खो पनेतं वृत्तं; तदानन्द, इमिनापेतं परियायेन वेदितब्बं, यथा लाभं पटिच्च विनिच्छयो । लाभो च हि, आनन्द, नाभविस्स सब्बेन सब्बं सब्बथा सब्बं कस्सचि किम्हिचि, सब्बसो लाभे असति लाभनिरोधा अपि नु खो विनिच्छयो पञ्ञयेथा" ति ? “नो हेतं, भन्ते " । " तस्मातिहानन्द एसेव हेतु एतं निदानं एस समुदयो एस पच्चयो विनिच्छयस्स, यदिदं लाभो” ।
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दीघनिकायो-२
(२.२.१११-११४)
१११. “ 'परियेसनं पटिच्च लाभो'ति इति खो पनेतं वुत्तं; तदानन्द, इमिनापेतं परियायेन वेदितब्, यथा परियेसनं पटिच्च लाभो । परियेसना च हि, आनन्द, नाभविस्स सब्बेन सब्बं सब्बथा सब्बं कस्सचि किम्हिचि, सब्बसो परियेसनाय असति परियेसनानिरोधा अपि नु खो लाभो पञ्जायेथा''ति ? “नो हेतं, भन्ते'। "तस्मातिहानन्द, एसेव हेतु एतं निदानं एस समुदयो एस पच्चयो लाभस्स, यदिदं परियेसना'।
११२. " 'तण्हं पटिच्च परियेसना'ति इति खो पनेतं वुत्तं; तदानन्द, इमिनापेतं परियायेन वेदितब्बं, यथा तण्हं पटिच्च परियेसना । तण्हा च हि, आनन्द, नाभविस्स सब्बेन सब् सब्बथा सब्बं कस्सचि किम्हिचि, सेय्यथिदं - कामतण्हा भवतण्हा विभवतण्हा। सब्बसो तण्हाय असति तण्हानिरोधा अपि नु खो परियेसना पञ्जायेथा''ति ? "नो हेतं, भन्ते"। "तस्मातिहानन्द, एसेव हेतु एतं निदानं एस समुदयो एस पच्चयो परियेसनाय, यदिदं तण्हा | इति खो, आनन्द, इमे द्वे धम्मा द्वयेन वेदनाय एकसमोसरणा भवन्ति"।
११३. “ ‘फस्सपच्चया वेदना'ति इति खो पनेतं वुत्तं; तदानन्द, इमिनापेतं परियायेन वेदितब्, यथा फस्सपच्चया वेदना'ति । फस्सो च हि, आनन्द, नाभविस्स सब्बेन सब्बं सब्बथा सब्बं कस्सचि किम्हिचि, सेय्यथिदं - चक्खुसम्फस्सो सोतसम्फस्सो घानसम्फस्सो जिव्हासम्फस्सो कायसम्फस्सो मनोसम्फस्सो। सब्बसो फस्से असति फस्सनिरोधा अपि न खो वेदना पञ्जायेथा"ति ? "नो हेतं, भन्ते"। "तस्मातिहानन्द, एसेव हेतु एतं निदानं एस समुदयो एस पच्चयो वेदनाय, यदिदं फस्सो"।
११४. “ 'नामरूपपच्चया फस्सो'ति इति खो पनेतं वुत्तं; तदानन्द, इमिनापेतं परियायेन वेदितब्बं, यथा नामरूपपच्चया फस्सो। येहि, आनन्द, आकारेहि येहि लिङ्गेहि येहि निमित्तेहि येहि उद्देसेहि नामकायस्स पञत्ति होति, तेसु आकारेसु तेसु लिङ्गेसु तेसु निमित्तेसु तेसु उद्देसेसु असति अपि नु खो रूपकाये अधिवचनसम्फस्सो पञ्जायेथा''ति ? “नो हेतं, भन्ते'। “येहि, आनन्द, आकारेहि येहि लिङ्गेहि येहि निमित्तेहि येहि उद्देसेहि रूपकायस्स पञत्ति होति, तेसु आकारेसु...पे०... तेसु उद्देसेसु असति अपि नु खो नामकाये पटिघसम्फस्सो पञ्जायेथा"ति ? “नो हेतं, भन्ते"। "येहि, आनन्द, आकारेहि...पे०... येहि उद्देसेहि नामकायस्स च रूपकायस्स च पञ्जत्ति
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(२.२.११५-११७)
२. महानिदानसुत्तं
होति, तेसु आकारेसु...पे०... तेसु उद्देसेसु असति अपि नु खो अधिवचनसम्फस्सो वा पटिघसम्फस्सो वा पञ्जायेथा"ति ? “नो हेतं, भन्ते'। “येहि, आनन्द, आकारेहि...पे०... येहि उद्देसेहि नामरूपस्स पञत्ति होति, तेसु आकारेसु...पे०... तेसु उद्देसेसु असति अपि नु खो फस्सो पञ्जायेथा''ति ? “नो हेतं, भन्ते" । "तस्मातिहानन्द, एसेव हेतु एतं निदानं एस समुदयो एस पच्चयो फस्सस्स, यदिदं नामरूपं"।
११५. “ 'विज्ञाणपच्चया नामरूप'न्ति इति खो पनेतं वुत्तं; तदानन्द, इमिनापेतं परियायेन वेदितब्बं, यथा विज्ञाणपच्चया नामरूपं । विज्ञाणञ्च हि, आनन्द, मातुकुच्छिस्मिं न ओक्कमिस्सथ, अपि नु खो नामरूपं मातुकुच्छिस्मिं समुच्चिस्सथा''ति ? "नो हेतं, भन्ते"। "
विणञ्च हि, आनन्द, मातुकुच्छिस्मिं ओक्कमित्वा वोक्कमिस्सथ, अपि नु खो नामरूपं इत्थत्ताय अभिनिब्बत्तिस्सथा"ति ? “नो हेतं, भन्ते' । “विज्ञाणञ्च हि, आनन्द, दहरस्सेव सतो वोच्छिज्जिस्सथ कुमारकस्स वा कुमारिकाय वा, अपि नु खो नामरूपं वुद्धिं विरूळ्हिं वेपुल्लं आपज्जिस्सथा"ति ? “नो हेतं, भन्ते" । "तस्मातिहानन्द, एसेव हेतु एतं निदानं एस समुदयो एस पच्चयो नामरूपस्स - यदिदं विज्ञाणं"।
११६. “ 'नामरूपपच्चया विज्ञाण'न्ति इति खो पनेतं वुत्तं; तदानन्द, इमिनापेतं परियायेन वेदितब्बं, यथा नामरूपपच्चया विज्ञाणं । विज्ञाणञ्च हि, आनन्द, नामरूपे पतिटुं न लभिस्सथ, अपि नु खो आयतिं जातिजरामरणं दुक्खसमुदयसम्भवो पञ्जायेथा''ति ? “नो हेतं, भन्ते"। "तस्मातिहानन्द, एसेव हेतु एतं निदानं एस समुदयो एस पच्चयो विज्ञाणस्स यदिदं नामरूपं, एत्तावता खो, आनन्द, जायेथ वा जीयेथ वा मीयेथ वा चवेथ वा उपपज्जेथ वा । एत्तावता अधिवचनपथो, एत्तावता निरुत्तिपथो, एत्तावता पञत्तिपथो, एत्तावता पञ्जावचरं, एत्तावता वढं वत्तति इत्थत्तं पञापनाय यदिदं नामरूपं सह विज्ञाणेन अञमञ्जपच्चयता पवत्तति ।
अत्तपत्ति
११७. “कित्तावता च, आनन्द, अत्तानं पञपेन्तो पञपेति ? रूपिं वा हि, आनन्द, परित्तं अत्तानं पञपेन्तो पञपेति - “रूपी मे परित्तो अत्ता'ति । रूपिं वा
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दीघनिकायो-२
(२.२.११८-११९)
हि, आनन्द, अनन्तं अत्तानं पञपेन्तो पञपेति- “रूपी मे अनन्तो अत्ता"ति | अरूपिं वा हि, आनन्द, परित्तं अत्तानं पञपेन्तो पञपेति - “अरूपी मे परित्तो अत्ता''ति । अरूपिं वा हि, आनन्द, अनन्तं अत्तानं पञपेन्तो पञपेति - “अरूपी मे अनन्तो अत्ता'"ति।
११८. “तत्रानन्द, यो सो रूपिं परित्तं अत्तानं पञपेन्तो पञपेति । एतरहि वा सो रूपिं परित्तं अत्तानं पञपेन्तो पञपेति, तत्थ भाविं वा सो रूपिं परित्तं अत्तानं पञपेन्तो पञपेति, “अतथं वा पन सन्तं तथत्ताय उपकप्पेस्सामी"ति इति वा पनस्स होति । एवं सन्तं खो, आनन्द, रूपिं परित्तत्तानुदिट्ठि अनुसेतीति इच्चालं वचनाय ।
"तत्रानन्द, यो सो रूपिं अनन्तं अत्तानं पञपेन्तो पञपेति । एतरहि वा सो रूपिं अनन्तं अत्तानं पञपेन्तो पञपेति, तत्थ भाविं वा सो रूपिं अनन्तं अत्तानं पञपेन्तो पञपेति, “अतथं वा पन सन्तं तथत्ताय उपकप्पेस्सामी"ति इति वा पनस्स होति । एवं सन्तं खो, आनन्द, रूपिं अनन्तत्तानुदिट्ठि अनुसेतीति इच्चालं वचनाय ।
"तत्रानन्द, यो सो अरूपिं परितं अत्तानं पञपेन्तो पञपेति । एतरहि वा सो अरूपिं परित्तं अत्तानं पञपेन्तो पञपेति, तत्थ भाविं वा सो अरूपिं परित्तं अत्तानं पञपेन्तो पञपेति, “अतथं वा पन सन्तं तथत्ताय उपकप्पेस्सामी"ति इति वा पनस्स होति । एवं सन्तं खो, आनन्द, अरूपिं परित्तत्तानुदिट्ठि अनुसेतीति इच्चालं वचनाय ।
"तत्रानन्द, यो सो अरूपिं अनन्तं अत्तानं पञपेन्तो पञपेति । एतरहि वा सो अरूपिं अनन्तं अत्तानं पञपेन्तो पञपेति, तत्थ भाविं वा सो अरूपिं अनन्तं अत्तानं पञपेन्तो पति , “अतथं वा पन सन्तं तथत्ताय उपकप्पेस्सामी"ति इति वा पनस्स होति । एवं सन्तं खो, आनन्द, अरूपिं अनन्तत्तानुदिट्ठि अनुसेतीति इच्चालं वचनाय । एत्तावता खो, आनन्द, अत्तानं पञपेन्तो पञपेति ।
नअत्तपञत्ति
११९. “कित्तावता च, आनन्द, अत्तानं न पञपेन्तो न पञपेति ? रूपिं वा हि, आनन्द, परित्तं अत्तानं न पञपेन्तो न पञपेति- “रूपी मे परित्तो अत्ता'ति ।
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(२.२.१२०-१२०)
२. महानिदानसुत्तं
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रूपिं वा हि, आनन्द, अनन्तं अत्तानं न पञपेन्तो न पचपेति- “रूपी मे अनन्तो अत्ता'ति । अरूपिं वा हि, आनन्द, परित्तं अत्तानं न पञपेन्तो न पञपेति"अरूपी मे परित्तो अत्ता"ति । अरूपिं वा हि, आनन्द, अनन्तं अत्तानं न पझपेन्तो न पञपेति - “अरूपी मे अनन्तो अत्ता'ति ।
१२०. "तत्रानन्द, यो सो रूपिं परित्तं अत्तानं न पञपेन्तो न पञपेति । एतरहि वा सो रूपिं परित्तं अत्तानं न पञपेन्तो न पञपेति, तत्थ भाविं वा सो रूपिं परित्तं अत्तानं न पञपेन्तो न पञपेति, “अतथं वा पन सन्तं तथत्ताय उपकप्पेस्सामी"ति इति वा पनस्स न होति । एवं सन्तं खो, आनन्द, रूपिं परित्तत्तानुदिट्ठि नानुसेतीति इच्चालं वचनाय |
"तत्रानन्द, यो सो रूपिं अनन्तं अत्तानं न पञपेन्तो न पञपेति । एतरहि वा सो रूपिं अनन्तं अत्तानं न पचपेन्तो न पञपेति, तत्थ भाविं वा सो रूपिं अनन्तं अत्तानं न पञपेन्तो न पञपेति, “अतथं वा पन सन्तं तथत्ताय उपकप्पेस्सामी"ति इति वा पनस्स न होति । एवं सन्तं खो, आनन्द, रूपिं अनन्तत्तानुदिट्ठि नानुसेतीति इच्चालं वचनाय ।
___“तत्रानन्द, यो सो अरूपिं परित्तं अत्तानं न पञपेन्तो न पञपेति । एतरहि वा सो अरूपिं परित्तं अत्तानं न पञपेन्तो न पञपेति, तत्थ भाविं वा सो अरूपिं परित्तं अत्तानं न पञपेन्तो न पञपेति, “अतथं वा पन सन्तं तथत्ताय उपकप्पेस्सामी"ति इति वा पनस्स न होति । एवं सन्तं खो, आनन्द, अरूपिं परित्तत्तानुदिट्ठि नानुसेतीति इच्चालं वचनाय ।
"तत्रानन्द, यो सो अरूपिं अनन्तं अत्तानं न पञपेन्तो न पञपेति । एतरहि वा सो अरूपिं अनन्तं अत्तानं न पञपेन्तो न पञपेति, तत्थ भाविं वा सो अरूपिं अनन्तं अत्तानं न पचपेन्तो न पञपेति, “अतथं वा पन सन्तं तथत्ताय उपकप्पेस्सामी"ति इति वा पनस्स न होति । एवं सन्तं खो, आनन्द, अरूपिं अनन्तत्तानुदिहि नानुसेतीति इच्चालं वचनाय । एत्तावता खो, आनन्द, अत्तानं न पञपेन्तो न पञपेति ।
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दीघनिकायो-२
(२.२.१२१-१२३)
अत्तसमनुपस्सना
१२१. “कित्तावता च, आनन्द, अत्तानं समनुपस्समानो समनुपस्सति ? वेदनं वा हि, आनन्द, अत्तानं समनुपस्समानो समनुपस्सति- “वेदना मे अत्ता'ति । “न हेव खो मे वेदना अत्ता, अप्पटिसंवेदनो मे अत्ता"ति इति वा हि, आनन्द, अत्तानं समनुपस्समानो समनुपस्सति । “न हेव खो मे वेदना अत्ता, नोपि अप्पटिसंवेदनो मे अत्ता, अत्ता मे वेदियति, वेदनाधम्मो हि मे अत्ता''ति इति वा हि, आनन्द, अत्तानं समनुपस्समानो समनुपस्सति ।।
१२२. “तत्रानन्द, यो सो एवमाह- "वेदना मे अत्ता"ति, सो एवमस्स वचनीयो- “तिस्सो खो इमा, आवुसो, वेदना- सुखा वेदना दुक्खा वेदना अदुक्खमसुखा वेदना। इमासं खो त्वं तिस्सनं वेदनानं कतमं अत्ततो समनुपस्ससी"ति ? यस्मिं, आनन्द, समये सुखं वेदनं वेदेति, नेव तस्मिं समये दुक्खं वेदनं वेदेति, न अदुक्खमसुखं वेदनं वेदेति; सुखंयेव तस्मिं समये वेदनं वेदेति। यस्मिं, आनन्द, समये दुक्खं वेदनं वेदेति, नेव तस्मिं समये सुखं वेदनं वेदेति, न अदुक्खमसुखं वेदनं वेदेतिः दुक्खंयेव तस्मिं समये वेदनं वेदेति। यस्मिं, आनन्द, समये अदुक्खमसुखं वेदनं वेदेति, नेव तस्मिं समये सुखं वेदनं वेदेति, न दुक्खं वेदनं वेदेति; अदुक्खमसुखंयेव तस्मिं समये वेदनं वेदेति ।
१२३. "सुखापि खो, आनन्द, वेदना अनिच्चा सङ्घत्ता पटिच्चसमुप्पना खयधम्मा वयधम्मा विरागधम्मा निरोधधम्मा। दुक्खापि खो, आनन्द, वेदना अनिच्चा सङ्घता पटिच्चसमुप्पना खयधम्मा वयधम्मा विरागधम्मा निरोधधम्मा। अदुक्खमसुखापि खो, आनन्द, वेदना अनिच्चा सकता पटिच्चसमप्पन्ना खयधम्मा वयधम्मा विरागधम्मा निरोधधम्मा। तस्स सुखं वेदनं वेदियमानस्स “एसो मे अत्ताति होति । तस्सायेव सुखाय वेदनाय निरोधा "ब्यगा मे अत्ता''ति होति । दुक्खं वेदनं वेदियमानस्स “एसो मे अत्ता"ति होति | तस्सायेव दुक्खाय वेदनाय निरोधा “ब्यगा मे अत्ता''ति होति । अदुक्खमसुखं वेदनं वेदियमानस्स “एसो मे अत्ता''ति होति । तस्सायेव अदुक्खमसुखाय वेदनाय निरोधा "ब्यगा मे अत्ता''ति होति । इति सो दिद्वैव धम्मे अनिच्चसुखदुक्खवोकिण्णं उप्पादवयधम्मं अत्तानं समनुपस्समानो समनुपस्सति, यो सो एवमाह - “वेदना मे अत्ता''ति । तस्मातिहानन्द, एतेन पेतं नक्खमति -- “वेदना मे अत्ता''ति समनुपस्सितुं ।
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२. महानिदानत्तं
१२४. “ तत्रानन्द, यो सो एवमाह - “न हेव खो मे वेदना अत्ता, अप्पटिसंवेदनो अत्ता "ति, सो एवमस्स वचनीयो- “ यत्थ पनावुसो, सब्बसो वेदयितं नत्थ अपि खो, तत्थ ' अयमहमस्मीति सिया "ति ? “नो हेतं, भन्ते" । तस्मातिहानन्द, एतेन पेतं नक्खमति - " न हेव खो मे वेदना अत्ता, अप्पटिसंवेदनो मे अत्ता "ति समनुपस्सितुं ।
(२.२.१२४-१२७)
१२५. " तत्रानन्द, यो सो एवमाह - "न हेव खो मे वेदना अत्ता, नोपि अप्पटिसंवेदनो मे अत्ता, अत्ता मे वेदियति, वेदनाधम्मो हि मे अत्ता "ति । सो एवमस्स वचनीयो - वेदना च हि, आवुसो, सब्बेन सब्बं सब्बथा सब्बं अपरिसेसा निरुज्झेय्युं । सब्बसो वेदनाय असति वेदनानिरोधा अपि नु खो तत्थ 'अयमहमस्मीति सिया "ति ? “नो हेतं, भन्ते" । " तस्मातिहानन्द, एतेन पेतं नक्खमति - “न हेव खो मे वेदना अत्ता, नोपि अप्पटिसंवेदनो मे अत्ता, अत्ता मे वेदियति, वेदनाधम्मो हि मे अत्ता "ति समनुपसितुं ।
१२६. “ यतो खो, आनन्द, भिक्खु नेव वेदनं अत्तानं समनुपस्सति, नोपि अप्पटिसंवेदनं अत्तानं समनुपस्सति, नोपि “अत्ता मे वेदियति, वेदनाधम्मो हि मे अत्ताि समनुपस्सति । सो एवं न समनुपस्सन्तो न च किञ्चि लोके उपादियति, अनुपादियं न परितस्सति, अपरितस्सं पच्चत्तञ्ञेव परिनिब्बायति, “खीणा जाति, वुसितं ब्रह्मचरियं, कतं करणीयं, नापरं इत्थत्ताया" ति पजानाति । एवं विमुत्तचित्तं खो, आनन्द, भिक्खु यो एवं वदेय्य - “होति तथागतो परं मरणा इतिस्स दिट्ठी "ति, तदकल्लं । " न होति तथागतो परं मरणा इतिस्स दिट्ठी "ति, तदकल्लं । “होति च न च होति तथागतो परं मरणा' इतिस्स दिट्ठी”ति, तदकल्लं । “नेव होति न न होति तथागतो परं मरणा इतिस्स दिट्ठी’ति, तदकल्लं | तं किस्स हेतु ? यावता, आनन्द, अधिवचनं यावता अधिवचनपथो, यावता निरुत्ति यावता निरुत्तिपथो, यावता पञ्ञत्ति यावता पञ्ञत्तिपथो, यावता पञ्ञा यावता पञ्ञावचरं, यावता वट्टं, यावता वट्टति, तदभिञ्ञाविमुत्तो भिक्खु, तदभिञविमुत्तं भिक्खुं " न जानाति न पस्सति इतिस्स दिट्ठी "ति, तदकल्लं ।
सत्त विञट्टिति
१२७. “सत्त खो, आनन्द, विञ्ञाणट्ठितियो, द्वे आयतनानि । कतमा सत्त ? सन्तानन्द, सत्ता नानत्तकाया नानत्तसञ्ञिनो, सेय्यथापि मनुस्सा, एकच्चे च देवा, एकच्चे
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दीघनिकायो-२
विञ्ञाणट्ठिति । सन्तानन्द, सत्ता नानत्तकाया एकत्तसञ्ञिनो, ब्रह्मकायिका पठमाभिनिब्बत्ता । अयं दुतिया विञ्ञाणट्ठिति । सन्तानन्द, सत्ता एकत्तकाया नानत्तसञ्ञिनो, सेय्यथापि देवा आभस्सरा । अयं ततिया विञट्ठिति । सन्तानन्द, सत्ता एकत्तकाया एकत्तसञ्ञिनो, सेय्यथापि देवा सुभकिण्हा । अयं चतुत्थी विञ्ञाणट्ठिति । सन्तानन्द, सत्ता सब्बसो रूपसञ्जानं समतिक्कमा पटिघसनं अत्थङ्गमा नानत्तसञानं अमनसिकारा “ अनन्तो आकासो 'ति आकासानञ्चायतनूपगा । अयं पञ्चमी विञ्ञाणट्ठिति । सन्तानन्द, सत्ता सब्बसो आकासानञ्चायतनं समतिक्कम्म "अनन्तं विञ्ञाण "न्ति विञ्ञाणञ्चायतनूपगा । अयं छट्ठी विञ्ञाणट्ठिति । सन्तानन्द, सत्ता सब्बसो विञ्ञाणञ्चायतनं समतिक्कम्म “नत्थि किञ्ची”ति आकिञ्चञ्ञायतनूपगा । अयं सत्तमी विञ्ञणट्ठिति । असञ्ञसत्तायतनं नेवसञ्ज्ञनासञयतनमेव दुतियं ।
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च
विनिपातिका । अयं पठमा सेय्यथापि देवा
१२८. “तत्रानन्द, यायं पठमा विञ्ञाणट्ठिति नानत्तकाया नानत्तसञ्ञिनो, सेय्यथापि मनुस्सा, एकच्चे च देवा, एकच्चे च विनिपातिका । यो नु खो, आनन्द, तञ्च पजानाति, तस्सा च समुदयं पजानाति, तस्सा च अत्थङ्गमं प्रजानाति, तस्सा च अस्सादं पजानाति, तस्सा च आदीनवं पजानाति, तस्सा च निस्सरणं पजानाति । कल्लं नु तेन तदभिनन्दितु "न्ति ? “नो हेतं, भन्ते” ।... पे०... “तत्रानन्द, यमिदं असञ्ञसत्तायतनं । यो नु खो, आनन्द, तञ्च पजानाति, तस्स च समुदयं पजानाति, तस्स च अत्थङ्गमं पजानाति, तस्स च अस्सादं पजानाति, तस्स च आदीनवं पजानाति, तस्स च निस्सरणं पजानाति, कल्लं नु तेन तदभिनन्दितु "न्ति ? “नो हेतं, भन्ते” । “तत्रानन्द, यमिदं नेवसनासञ्ञायतनं । यो नु खो, आनन्द, तञ्च पजानाति, तस्स च समुदयं पजानाति, तस्स च अत्थङ्गमं पजानाति, तस्स च अस्सादं पजानाति, तस्स च आदीनवं पजानाति, तस्स च निस्सरणं पजानाति । कल्लं नु तेन तदभिनन्दितु "न्ति ? "नो हेतं, भन्ते" । यतो खो, आनन्द, भिक्खु इमासञ्च सत्तनं विञ्ञणट्ठितीनं इमेसञ्च द्विनं आयतनानं समुदयञ्च अत्थङ्गमञ्च अस्सादञ्च आदीनवञ्च निस्सरणञ्च यथाभूतं विदित्वा अनुपादा विमुत्तो होति, अयं वुच्चतानन्द, भिक्खु पञ्ञाविमुत्तो ।
अट्ठ विमोक्खा
१२९. “ अट्ठ खो इमे, आनन्द, विमोक्खा । कतमे अट्ठ ? रूपी रूपानि पति
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(२.२.१२८-१२९)
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(२.२.१३०-१३०)
२. महानिदानसुत्तं
५५
अयं पठमो विमोक्खो। अज्झत्तं अरूपसझी बहिद्धा रूपानि पस्सति, अयं दुतियो विमोक्खो। सुभन्तेव अधिमुत्तो होति, अयं ततियो विमोक्खो। सब्बसो रूपसानं समतिक्कमा पटिघसञानं अत्थङ्गमा नानत्तसञानं अमनसिकारा “अनन्तो आकासो"ति आकासानञ्चायतनं उपसम्पज्ज विहरति, अयं चतुत्थो विमोक्खो। सब्बसो आकासानञ्चायतनं समतिक्कम्म “अनन्तं विज्ञाण''न्ति विज्ञाणञ्चायतनं उपसम्पज्ज विहरति, अयं पञ्चमो विमोक्खो। सब्बसो विज्ञाणञ्चायतनं समतिक्कम्म “नत्थि किञ्ची''ति आकिञ्चञआयतनं उपसम्पज्ज विहरति, अयं छट्ठो विमोक्खो। सब्बसो
आकिञ्चज्ञायतनं समतिक्कम्म नेवसञ्जानासञ्जायतनं उपसम्पज्ज विहरति, अयं सत्तमो विमोक्खो। सब्बसो नेवसञ्जानास आयतनं समतिक्कम्म सञ्जावेदयितनिरोधं उपसम्पज्ज विहरति, अयं अट्ठमो विमोक्खो। इमे खो, आनन्द, अट्ठ विमोक्खा ।
१३०. “यतो खो, आनन्द, भिक्खु इमे अट्ठ विमोक्खे अनुलोमम्पि समापज्जति, पटिलोमम्पि समापज्जति, अनुलोमपटिलोमम्पि समापज्जति, यत्थिच्छकं यदिच्छकं यावतिच्छकं समापज्जतिपि वुढातिपि । आसवानञ्च खया अनासवं चेतोविमुत्तिं पाविमुत्तिं दिदेव धम्मे सयं अभिञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरति, अयं बुच्चतानन्द, भिक्खु उभतोभागविमुत्तो। इमाय च आनन्द उभतोभागविमुत्तिया अञा उभतोभागविमुत्ति उत्तरितरा वा पणीततरा वा नत्थी'ति। इदमवोच भगवा । अत्तमनो आयस्मा आनन्दो भगवतो भासितं अभिनन्दीति ।
महानिदानसुत्तं निहितं दुतियं ।
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३. महापरिनिब्बानसुत्तं
१३१. एवं मे सुतं - एकं समयं भगवा राजगहे विहरति गिज्झकूटे पब्बते । तेन खो पन समयेन राजा मागधो अजातसत्तु वेदेहिपुत्तो वज्जी अभियातुकामो होति । सो एवमाह - “अहं हिमे वज्जी एवंमहिद्धिके एवंमहानुभावे उच्छेच्छामि वज्जी, विनासेस्सामि वज्जी, अनयब्यसनं आपादेस्सामि वज्जी''ति ।
१३२. अथ खो राजा मागधो अजातसत्तु वेदेहिपुत्तो वस्सकारं ब्राह्मणं मगधमहामत्तं आमन्तेसि - “एहि त्वं, ब्राह्मण, येन भगवा तेनुपसङ्कम; उपसङ्कमित्वा मम वचनेन भगवतो पादे सिरसा वन्दाहि, अप्पाबाधं अप्पातकं लहुट्ठानं बलं फासुविहारं पुच्छ – 'राजा, भन्ते, मागधो अजातसत्तु वेदेहिपुत्तो भगवतो पादे सिरसा वन्दति, अप्पाबाधं अप्पातङ्कं लहुट्ठानं बलं फासुविहारं पुच्छती'ति । एवञ्च वदेहि - ‘राजा, भन्ते, मागधो अजातसत्तु वेदेहिपुत्तो वज्जी अभियातुकामो । सो एवमाह - अहं हिमे वज्जी एवंमहिद्धिके एवंमहानुभावे उच्छेच्छामि वज्जी विनासेस्सामि वज्जी अनयब्यसनं आपादेस्सामी'ति । यथा ते भगवा ब्याकरोति, तं साधुकं उग्गहेत्वा मम आरोचेय्यासि । न हि तथागता वितथं भणन्तीति ।
वस्सकारब्राह्मणो
१३३. “एवं, भो''ति खो वस्सकारो ब्राह्मणो मगधमहामत्तो रो मागधस्स अजातसत्तुस्स वेदेहिपुत्तस्स पटिस्सुत्वा भद्दानि भद्दानि यानानि योजत्वा भदं भदं यानं अभिरुहित्वा भद्देहि भद्देहि यानेहि राजगहम्हा निय्यासि, येन गिज्झकूटो पब्बतो तेन पायासि । यावतिका यानस्स भूमि, यानेन गन्त्वा, याना पच्चोरोहित्वा पत्तिकोव येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवता सद्धिं सम्मोदि । सम्मोदनीयं कथं सारणीयं
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३. महापरिनिब्बानसुत्तं
वीतिसारेत्वा एकमन्तं निसीदि । एकमन्तं निसिन्नो खो वस्सकारो ब्राह्मणो मगधमहामत्तो भगवन्तं एतदवोच – “राजा, भो गोतम, मागधी अजातसत्तु वेदेहिपुत्तो भोतो गोतमस्स पादे सिरसा वन्दति, अप्पाबाधं अप्पातङ्कं लहुट्ठानं बलं फासुविहारं पुच्छति । राजा, भो गोतम, मागधो अजातसत्तु वेदेहिपुत्तो वज्जी अभियातुकामो । सो एवमाह - 'अहं वज्जी एवंमहिद्धिके एवंमहानुभावे उच्छेच्छामि वज्जी, विनासेस्सामि वज्जी, अनयब्यसनं आपादेस्सामी 'ति ।
(२.३.१३४-१३४)
राज अपरिहानियधम्मा
१३४. तेन खो पन समयेन आयस्मा आनन्दो भगवतो पिट्ठितो ठितो होति भगवन्तं बीजयमानो । अथ खो भगवा आयस्मन्तं आनन्दं आमन्तेसि - " किन्ति ते, आनन्द, सुतं, 'वज्जी अभिण्हं सन्निपाता सन्निपातबहुला'ति ? सुतं मेतं, भन्ते - ' वज्जी अभिण्हं सन्निपाता सन्निपातबहुला'ति । यावकीवञ्च, आनन्द, वज्जी अभिण्हं सन्निपाता सन्निपातबहुला भविस्सन्ति, वुद्धियेव, आनन्द, वज्जीनं पाटिका, नो परिहानि ।
“किन्ति ते, आनन्द, सुतं, ' वज्जी समग्गा सन्निपतन्ति, समग्गा वुट्ठहन्ति, समग्गा वज्जिकरणीयानि करोन्ती 'ति ? सुतं मेतं, भन्ते - ' वज्जी समग्गा सन्निपतन्ति, समग्गा हन्ति, समग्गा वज्जिकरणीयानि करोन्ती 'ति । यावकीवञ्च, आनन्द, वज्जी समग्गा सन्निपतिस्सन्ति, समग्गा वुट्ठहिस्सन्ति, समग्गा वज्जिकरणीयानि करिस्सन्ति, वुद्धियेव, आनन्द, वज्जीनं पाटिकङ्क्षा, दो परिहानि ।
५७
“किन्ति ते, आनन्द, सुतं, 'वज्जी अपञ्ञत्तं न पञ्ञपेन्ति, पञ्ञत्तं न समुच्छिन्दन्ति, यथापञ्ञत्ते पोराणे वज्जिधम्मे समादाय वत्तन्ती 'ति ? सुतं मेतं, भन्ते - ' वज्जी अपञ्ञत्तं न पञ्ञपेन्ति, पञ्ञत्तं न समुच्छिन्दन्ति यथापञ्ञत्ते पोराणे वज्जिधम्मे समादाय वत्तन्ती 'ति । यावकीवञ्च, आनन्द, वज्जी अपञ्ञत्तं न पञ्ञपेस्सन्ति, पञ्ञत्तं न समुच्छिन्दिस्सन्ति, यथापञ्ञत्ते पोराणे वज्जिधम्मे समादाय वत्तिस्सन्ति, वुद्धियेव, आनन्द, वज्जीनं पाटिकङ्क्षा, नो परिहानि ।
“किन्ति ते, आनन्द, सुतं, 'वज्जी ये ते वज्जीनं वज्जिमहल्लका, ते सक्करोन्ति गरुं करोन्ति मानेन्ति पूजेन्ति, तेसञ्च सोतब्बं मञ्ञन्तीति ? सुतं मेतं, भन्ते - 'वज्जी
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दीघनिकायो-२
(२.३.१३४-१३४)
ये ते वज्जीनं वज्जिमहल्लका, ते सक्करोन्ति गरुं करोन्ति मानेन्ति पूजेन्ति, तेसञ्च सोतब्बं मञन्तीति । यावकीवञ्च, आनन्द, वज्जी ये ते वज्जीनं वज्जिमहल्लका, ते सक्करिस्सन्ति गरुं करिस्सन्ति मानेस्सन्ति पूजेस्सन्ति, तेसञ्च सोतब्बं मञिस्सन्ति, वुद्धियेव, आनन्द, वज्जीनं पाटिकङ्खा, नो परिहानि ।
“किन्ति ते, आनन्द, सुतं, 'वज्जी या ता कुलित्थियो कुलकुमारियो, ता न ओक्कस्स पसव्ह वासेन्ती'ति? सुतं मेतं, भन्ते- 'वज्जी या ता कुलिथियो कुलकुमारियो ता न ओक्कस्स पसव्ह वासेन्ती'ति । यावकीवञ्च, आनन्द, वज्जी या ता कुलिथियो कुलकुमारियो, ता न ओक्कस्स पसव्ह वासेस्सन्ति, वुद्धियेव, आनन्द, वज्जीनं पाटिकङ्खा, नो परिहानि ।
"किन्ति ते, आनन्द, सुतं, 'वज्जी यानि तानि वज्जीनं वज्जिचेतियानि अब्भन्तरानि चेव बाहिरानि च, तानि सक्करोन्ति गरुं करोन्ति मानेन्ति पूजेन्ति, तेसञ्च दिन्नपुब्बं कतपुब्बं धम्मिकं बलिं नो परिहापेन्तीति ? सुतं मेतं, भन्ते- 'वज्जी यानि तानि वज्जीनं वज्जिचेतियानि अब्भन्तरानि चेव बाहिरानि च, तानि सक्करोन्ति गरूँ करोन्ति मानेन्ति पूजेन्ति तेसञ्च दिन्नपुब्बं कतपुब्बं धम्मिकं बलिं नो परिहापेन्ती'ति । यावकीवञ्च, आनन्द, वज्जी यानि तानि वज्जीनं वज्जिचेतियानि अब्भन्तरानि चेव बाहिरानि च, तानि सक्करिस्सन्ति गरुं करिस्सन्ति मानेस्सन्ति पूजेस्सन्ति, तेसञ्च दिन्नपुब्बं कतपुब्बं धम्मिकं बलिं नो परिहापेस्सन्ति, वुद्धियेव, आनन्द, वज्जीनं पाटिकङ्खा, नो परिहानि।
"किन्ति ते, आनन्द, सुतं, 'वज्जीनं अरहन्तेसु धम्मिका रक्खावरणगुत्ति सुसंविहिता, किन्ति अनागता च अरहन्तो विजितं आगच्छेय्युं, आगता च अरहन्तो विजिते फासु विहरेय्यु'न्ति ? सुतं मेतं, भन्ते “वज्जीनं अरहन्तेसु धम्मिका रक्खावरणगुत्ति सुसंविहिता ‘किन्ति अनागता च अरहन्तो विजितं आगच्छेय्युं, आगता च अरहन्तो विजिते फासु विहरेय्यु'न्ति । यावकीवञ्च, आनन्द, वज्जीनं अरहन्तेसु धम्मिका रक्खावरणगुत्ति सुसंविहिता भविस्सति, 'किन्ति अनागता च अरहन्तो विजितं आगच्छेय्यु, आगता च अरहन्तो विजिते फासु विहरेय्यु'न्ति । वुद्धियेव, आनन्द, वज्जीनं पाटिकङ्खा, नो परिहानी'ति ।
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(२.३.१३५-१३६)
३. महापरिनिब्बानसुत्तं
१३५. अथ खो भगवा वस्सकारं ब्राह्मणं मगधमहामत्तं आमन्तेसि - " एकमिदाहं, ब्राह्मण, समयं वेसालियं विहरामि सारन्ददे चेतिये । तत्राहं वज्जीनं इमे सत्त अपरिहानिये धम्मे देसेसिं । यावकीवञ्च ब्राह्मण, इमे सत्त अपरिहानिया धम्मा वज्जीसु ठस्सन्ति, इमेसु च सत्तसु अपरिहानियेसु धम्मेसु वज्जी सन्दिस्सिस्सन्ति, वुद्धियेव, ब्राह्मण, वज्जीनं पाटिकङ्क्षा, नो परिहानी 'ति ।
एवं वुत्ते, वस्सकारो ब्राह्मणो मगधमहामत्तो भगवन्तं एतदवोच - “एकमेकेनपि, भो गोतम, अपरिहानियेन धम्मेन समन्नागतानं वज्जीनं वुद्धियेव पाटिका, नो परिहानि । को पन वादो सत्तहि अपरिहानियेहि धम्मेहि । अकरणीयाव भो गोतम, वज्जी रञ्ञा मागधेन अजातसत्तुना वेदेहिपुत्तेन यदिदं युद्धस्स, अञ्ञत्र उपलापनाय अञ्ञत्र मिथुभेदा । हन्द च दानि मयं भो गोतम गच्छाम, बहुकिच्चा मयं बहुकरणीया " ति । " यस्स दानि त्वं ब्राह्मण, कालं मञ्ञसी 'ति । अथ खो वस्सकारो ब्राह्मणो मगधमहामत्तो भगवतो भासितं अभिनन्दित्वा अनुमोदित्वा उट्ठायासना पक्कामि ।
भिक्खु अपरिहानियधम्मा
१३६. अथ खो भगवा अचिरपक्कन्ते वस्सकारे ब्राह्मणे मगधमहामत्ते आयस्मन्तं आनन्दं आमन्तेसि - " गच्छ त्वं, आनन्द, यावतिका भिक्खू राजगहं उपनिस्साय विहरन्ति ते सब्बे उपट्ठानसालायं सन्निपातेही "ति । “एवं, भन्ते 'ति खो आयस्मा आनन्दो भगवतो पटिस्सुत्वा यावतिका भिक्खू राजगहं उपनिस्साय विहरन्ति ते सब्बे उपट्ठानसालायं सन्निपातेत्वा येन भगवा तेनुपसङ्कमि, उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं अट्ठासि । एकमन्तं ठितो खो आयस्मा आनन्दो भगवन्तं एतदवोच “सन्निपतितो, भन्ते, भिक्खुसो, यस्स दानि, भन्ते, भगवा कालं मञ्ञती”ति ।
अथ खो भगवा उट्ठायासना येन उपट्ठानसाला तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा पञ्ञत्ते आसने निसीदि । निसज्ज खो भगवा भिक्खू आमन्तेसि - " सत्त वो, भिक्खवे, अपरिहानिये धम्मे देसेस्सामि, तं सुणाथ; साधुकं मनसिकरोथ; भासिस्सामी 'ति । “एवं, भन्ते 'ति खो ते भिक्खू भगवतो पच्चस्सोसुं। भगवा एतदवोच
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दीघनिकायो-२
(२.३.१३७-१३७)
"यावकीवञ्च, भिक्खवे, भिक्खू अभिण्हं सन्निपाता सन्निपातबहुला भविस्सन्ति, वुद्धियेव, भिक्खवे, भिक्खूनं पाटिका, नो परिहानि ।
६०
"यावकीवञ्च, भिक्खवे, भिक्खू समग्गा सन्निपतिस्सन्ति, समग्गा वुट्ठहिस्सन्ति, समग्गा सङ्घकरणीयानि करिस्सन्ति, वुद्धियेव, भिक्खवे, भिक्खूनं पाटिका, नो परिहानि |
"यावकीवञ्च, भिक्खवे, भिक्खू अपञ्ञत्तं न पञ्ञपेस्सन्ति, पञ्ञत्तं न समुच्छिन्दिरसन्ति, यथापञ्ञत्तेसु सिक्खापदेसु समादाय वत्तिस्सन्ति, वुद्धियेव, भिक्खवे, भिक्खूनं पाटिकङ्क्षा, नो परिहानि ।
"यावकीवञ्च, भिक्खवे, भिक्खू ये ते भिक्खू थेरा रत्तञ्ञू चिरपब्बजिता सङ्घपितरो सङ्घपरिणायका, ते सक्करिस्सन्ति गरुं करिस्सन्ति मानेस्सन्ति पूजेस्सन्ति, सञ्च सोब्बं मञ्ञिस्सन्ति, वुद्धियेव, भिक्खवे, भिक्खूनं पाटिकङ्क्षा, नो परिहानि ।
“यावकीवञ्च, भिक्खवे, भिक्खू उप्पन्नाय तण्हाय पोनोब्भविकाय न वसं गच्छिस्सन्ति, वुद्धियेव, भिक्खवे, भिक्खूनं पाटिकङ्क्षा, नो परिहानि ।
"यावकीवञ्च, भिक्खवे, भिक्खू आरञ्ञकेसु सेनासनेसु सापेक्खा भविस्सन्ति, वुद्धियेव, भिक्खवे, भिक्खूनं पाटिकङ्क्षा, नो परिहानि ।
"यावकीवञ्च, भिक्खवे, भिक्खू पच्चत्तञ्ञेव सतिं उपट्ठपेस्सन्ति - ‘किन्ति अनागता च पेसला सब्रह्मचारी आगच्छेय्युं, आगता च पेसला सब्रह्मचारी फासु विहरेय्यु'न्ति । वुद्धियेव, भिक्खवे, भिक्खूनं पाटिकङ्खा, नो परिहानि ।
“यावकीवञ्च, भिक्खवे, इमे सत्त अपरिहानिया धम्मा भिक्खूसु ठस्सन्ति, इमेसु च सत्तसु अपरिहानियेसु धम्मेसु भिक्खू सन्दिस्सिस्सन्ति, वुद्धियेव, भिक्खवे, भिक्खून पाटिकङ्क्षा, नो परिहानि ।
१३७. “अपरेपि वो, भिक्खवे, सत्त अपरिहानिये धम्मे देसेस्सामि,
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तं सुणाथ;
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(२.३.१३८-१३८)
३. महापरिनिब्बानसुत्तं
६१
साधुकं मनसिकरोथ; भासिस्सामी"ति । “एवं, भन्ते''ति खो ते भिक्खू भगवतो पच्चस्सोसुं। भगवा एतदवोच
__“यावकीवञ्च, भिक्खवे, भिक्खू न कम्मारामा भविस्सन्ति न कम्मरता न कम्मारामतमनुयुत्ता, बुद्धियेव, भिक्खवे, भिक्खूनं पाटिकवा, नो परिहानि ।
"यावकीवञ्च, भिक्खवे, भिक्खू न भस्सारामा भविस्सन्ति न भस्सरता न भस्सारामतमनुयुत्ता, वुद्धियेव, भिक्खवे, भिक्खूनं पाटिकङ्खा, नो परिहानि |
“यावकीवञ्च, भिक्खवे, भिक्खू न निद्दारामा भविस्सन्ति न निद्दारता न निद्दारामतमनुयुत्ता, वुद्धियेव, भिक्खवे, भिक्खूनं पाटिकङ्खा, नो परिहानि ।
“यावकीवञ्च, भिक्खवे, भिक्खू न सङ्गणिकारामा भविस्सन्ति न सङ्गणिकरता न सङ्गणिकारामतमनुयुत्ता, वुद्धियेव, भिक्खवे, भिक्खूनं पाटिकवा, नो परिहानि ।।
___“यावकीवञ्च, भिक्खवे, भिक्खू न पापिच्छा भविस्सन्ति न पापिकानं इच्छानं वसं गता, वुद्धियेव, भिक्खवे, भिक्खूनं पाटिकङ्खा, नो परिहानि ।
“यावकीवञ्च, भिक्खवे, भिक्खू न पापमित्ता भविस्सन्ति न पापसहाया न पापसम्पवङ्का, वुद्धियेव, भिक्खवे, भिक्खूनं पाटिकङ्खा, नो परिहानि ।
“यावकीवञ्च, भिक्खवे, भिक्खू न ओरमत्तकेन विसेसाधिगमेन अन्तरावोसानं आपज्जिस्सन्ति, वुद्धियेव, भिक्खवे, भिक्खूनं पाटिकङ्खा, नो परिहानि ।
“यावकीवञ्च, भिक्खवे, इमे सत्त अपरिहानिया धम्मा भिक्खूसु ठस्सन्ति, इमेसु च सत्तसु अपरिहानियेसु धम्मेसु भिक्खू सन्दिस्सिस्सन्ति, वुद्धियेव, भिक्खवे, भिक्खून पाटिकङ्खा, नो परिहानि।
१३८. “अपरेपि वो, भिक्खवे, सत्त अपरिहानिये धम्मे देसेस्सामि...पे०... यावकीवञ्च, भिक्खवे, भिक्खू सद्धा भविस्सन्ति...पे०... हिरिमना भविस्सन्ति... ओत्तप्पी
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(२.३.१३९-१४०)
भविस्सन्ति... बहुस्सुता भविस्सन्ति... आरद्धवीरिया भविस्सन्ति... उपट्ठितस्सी भविस्सन्ति... पञ्ञवन्तो भविस्सन्ति, वुद्धियेव, भिक्खवे, भिक्खूनं पाटिकङ्क्षा, नो परिहानि । यावकीवञ्च, भिक्खवे, इमे सत्त अपरिहानिया धम्मा भिक्खूसु ठस्सन्ति, इमेसु च सत्तसु अपरिहानियेसु धम्मेसु भिक्खू सन्दिस्सिरसन्ति, वुद्धियेव, भिक्खवे, भिक्खून पाटिकङ्क्षा, नो परिहानि" ।
दीघनिकायो-२
तं सुणाथ;
१३९. “अपरेपि वो, भिक्खवे, सत्त अपरिहानिये धम्मे देसेस्सामि, साधुकं मनसिकरोथ; भासिस्सामी 'ति । “एवं, भन्ते" ति खो ते भिक्खू भगवतो पच्चस्सोसुं । भगवा एतदवोच -
"यावकीवञ्च, भिक्खवे, भिक्खु सतिसम्बोज्झङ्गं भावेस्सन्ति... पे०... धम्मविचयसम्बोज्झङ्गं भावेस्सन्ति... वीरियसम्बोज्झङ्गं भावेस्सन्ति... पीतिसम्बोज्झङ्गं भावेस्सन्ति... पस्सद्धिसम्बोज्झङ्ग भावेस्सन्ति... समाधिसम्बोज्झङ्गं भावेस्सन्ति... उपेक्खासम्बोज्झङ्गं भावेस्सन्ति, वुद्धियेव, भिक्खवे, भिक्खूनं पाटिकमा, नो परिहानि ।
" यावकीवञ्च, भिक्खवे, इमे सत्त अपरिहानिया धम्मा भिक्खूसु ठस्सन्ति, इमेसु च सत्तसु अपरिहानियेसु धम्मेसु भिक्खू सन्दिस्सिस्सन्ति, वुद्धियेव, भिक्खवे, भिक्खूनं पाटिकङ्क्षा नो परिहानि ।
१४०. “अपरेपि वो, भिक्खवे, सत्त अपरिहानिये धम्मे देसेस्सामि, तं सुणाथ; साधुकं मनसिकरोथ; भासिस्सामी 'ति । “ एवं, भन्ते "ति खो ते भिक्खू भगवतो पच्चस्सोसुं । भगवा एतदवोच -
“यावकीवञ्च, भिक्खवे, भिक्खू अनिच्चसञ्ञ भावेस्सन्ति...पे०... अनत्तसञ भावेस्सन्ति... असुभसञ्ञ भावेस्सन्ति... आदीनवस भावेस्सन्ति... पहानस भावेस्सन्ति... विरागस भावेस्सन्ति... निरोधसञ्ञ भावेस्सन्ति, वुद्धियेव, भिक्खवे, भिक्खूनं पाटिकवा, नो परिहानि ।
“यावकीवञ्च, भिक्खवे, इमे सत्त अपरिहानिया धम्मा भिक्खूसु ठस्सन्ति, इमेसु
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(२.३.१४१-१४१)
३. महापरिनिब्बानसुत्तं
च सत्तसु अपरिहानियेसु धम्मेसु भिक्खू सन्दिस्सिस्सन्ति, वुद्धियेव, भिक्खवे, भिक्खून पाटिकङ्खा, नो परिहानि"।
१४१. “छ, वो भिक्खवे, अपरिहानिये धम्मे देसेस्सामि, तं सुणाथ; साधुकं मनसिकरोथ; भासिस्सामी''ति । “एवं, भन्ते''ति खो ते भिक्खू भगवतो पच्चस्सोसुं । भगवा एतदवोच
“यावकीवञ्च, भिक्खवे, भिक्खू मेत्तं कायकम्मं पच्चुपट्ठापेस्सन्ति सब्रह्मचारीसु आवि चेव रहो च, वुद्धियेव, भिक्खवे, भिक्खूनं पाटिकङ्खा, नो परिहानि ।।
“यावकीवञ्च, भिक्खवे, भिक्खू मेत्तं वचीकम्मं पच्चुपट्ठापेस्सन्ति...पे०... मेत्तं मनोकम्मं पच्चुपट्ठापेस्सन्ति सब्रह्मचारीसु आवि चेव रहो च, वुद्धियेव, भिक्खवे, भिक्खून पाटिकङ्खा, नो परिहानि ।
___“यावकीवञ्च, भिक्खवे, भिक्खू, ये ते लाभा धम्मिका धम्मलद्धा अन्तमसो पत्तपरियापन्नमत्तम्पि तथारूपेहि लाभेहि अप्पटिविभत्तभोगी भविस्सन्ति सीलवन्तेहि सब्रह्मचारीहि साधारणभोगी, वुद्धियेव, भिक्खवे, भिक्खूनं पाटिकङ्खा, नो परिहानि ।
“यावकीवञ्च, भिक्खवे, भिक्खू यानि कानि सीलानि अखण्डानि अच्छिद्दानि असबलानि अकम्मासानि भुजिस्सानि विजृपसत्थानि अपरामट्ठानि समाधिसंवत्तनिकानि तथारूपेसु सीलेसु सीलसामञगता विहरिस्सन्ति सब्रह्मचारीहि आवि चेव रहो च, वुद्धियेव, भिक्खवे, भिक्खूनं पाटिकङ्खा, नो परिहानि ।
“यावकीवञ्च, भिक्खवे, भिक्खू यायं दिट्ठि अरिया निय्यानिका, निय्याति तक्करस्स सम्मा दुक्खक्खयाय, तथारूपाय दिट्ठिया दिविसामञ्जगता विहरिस्सन्ति सब्रह्मचारीहि आवि चेव रहो च, वुद्धियेव, भिक्खवे, भिक्खूनं पाटिकङ्खा, नो परिहानि ।
“यावकीवञ्च, भिक्खवे, इमे छ अपरिहानिया धम्मा भिक्खूसु ठस्सन्ति, इमेसु च छसु अपरिहानियेसु धम्मेसु भिक्खू सन्दिस्सिस्सन्ति, वुद्धियेव, भिक्खवे, भिक्खूनं पाटिकवा, नो परिहानी''ति ।
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दीघनिकायो-२
(२.३.१४२-१४५)
१४२. तत्र सुदं भगवा राजगहे विहरन्तो गिज्झकूटे पब्बते एतदेव बहुलं भिक्खूनं धम्मिं कथं करोति- "इति सील, इति समाधि, इति पञा। सीलपरिभावितो समाधि महप्फलो होति महानिसंसो। समाधिपरिभाविता पञ्जा महाफला होति महानिसंसा। पापरिभावितं चित्तं सम्मदेव आसवेहि विमुच्चति, सेय्यथिदं- कामासवा, भवासवा, अविज्जासवा"ति।
१४३. अथ खो भगवा राजगहे यथाभिरन्तं विहरित्वा आयस्मन्तं आनन्दं आमन्तेसि- “आयामानन्द, येन अम्बलट्ठिका तेनुपसङ्कमिस्सामा'ति । “एवं, भन्ते"ति खो आयस्मा आनन्दो भगवतो पच्चस्सोसि । अथ खो भगवा महता भिक्खुसङ्घन सद्धिं येन अम्बलट्ठिका तदवसरि । तत्र सुदं भगवा अम्बलट्ठिकायं विहरति राजागारके । तत्रापि सुदं भगवा अम्बलट्ठिकायं विहरन्तो राजागारके एतदेव बहुलं भिक्खूनं धम्मिं कथं करोति- "इति सीलं इति समाधि इति पञा। सीलपरिभावितो समाधि महप्फलो होति महानिसंसो। समाधिपरिभाविता पञ्जा महप्फला होति महानिसंसा। पञापरिभावितं चित्तं सम्मदेव आसवेहि विमुच्चति, सेय्यथिदं- कामासवा, भवासवा, अविज्जासवा"ति।
१४४. अथ खो भगवा अम्बलट्ठिकायं यथाभिरन्तं विहरित्वा आयस्मन्तं आनन्दं आमन्तेसि - “आयामानन्द, येन नाळन्दा तेनुपसङ्कमिस्सामा''ति । “एवं, भन्ते''ति खो आयस्मा आनन्दो भगवतो पच्चस्सोसि । अथ खो भगवा महता भिक्खुसङ्घन सद्धिं येन नाळन्दा तदवसरि, तत्र सुदं भगवा नाळन्दायं विहरति पावारिकम्बवने ।
सारिपुत्तसीहनादो १४५. अथ खो आयस्मा सारिपुत्तो येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि । एकमन्तं निसिन्नो खो आयस्मा सारिपुत्तो भगवन्तं एतदवोच – “एवं पसन्नो अहं, भन्ते, भगवति, न चाहु न च भविस्सति न चेतरहि विज्जति अञ्जो समणो वा ब्राह्मणो वा भगवता भिय्योभितरो यदिदं सम्बोधियन्ति | "उळारा खो ते अयं, सारिपुत्त, आसभी वाचा भासिता, एकंसो गहितो, सीहनादो नदितो- ‘एवंपसन्नो अहं, भन्ते, भगवति, न चाहु न च भविस्सति न चेतरहि विज्जति अञ्जो समणो वा ब्राह्मणो वा भगवता भिय्योभितरो यदिदं सम्बोधियन्ति ।
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(२.३.१४६-१४६)
३. महापरिनिब्बानसुत्तं
६५
"किं ते, सारिपुत्त, ये ते अहेसु अतीतमद्धानं अरहन्तो सम्मासम्बुद्धा, सब्बे ते भगवन्तो चेतसा चेतो परिच्च विदिता - ‘एवंसीला ते भगवन्तो अहेसुं इतिपि, एवंधम्मा एवंपञ्जा एवंविहारी एवंविमुत्ता ते भगवन्तो अहेसुं इतिपी' "ति ? “नो हेतं, भन्ते'।
"किं पन ते, सारिपुत्त, ये ते भविस्सन्ति अनागतमद्धानं अरहन्तो सम्मासम्बुद्धा, सब्बे ते भगवन्तो चेतसा चेतो परिच्च विदिता- ‘एवंसीला ते भगवन्तो भविस्सन्ति इतिपि, एवंधम्मा एवंपञ्जा एवंविहारी एवंविमुत्ता ते भगवन्तो भविस्सन्ति इतिपी' ''ति ? "नो हेतं, भन्ते"।
"किं पन ते, सारिपुत्त, अहं एतरहि अरहं सम्मासम्बुद्धो चेतसा चेतो परिच्च विदितो – “एवंसीलो भगवा इतिपि, एवंधम्मो एवंपञो एवंविहारी एवंविमुत्तो भगवा इतिपी' ''ति? “नो हेतं, भन्ते"।
"एत्थ च हि ते, सारिपुत्त, अतीतानागतपच्चुप्पन्नेसु अरहन्तेसु सम्मासम्बुद्धेसु चेतोपरियाणं नस्थि । अथ किञ्चरहि ते अयं, सारिपुत्त, उळारा आसभी वाचा भासिता, एकंसो गहितो, सीहनादो नदितो- ‘एवंपसन्नो अहं, भन्ते, भगवति, न चाहु न च भविस्सति न चेतरहि विज्जति अञो समणो वा ब्राह्मणो वा भगवता भिय्योभितरो यदिदं सम्बोधिय' "न्ति ?
१४६. “न खो मे, भन्ते, अतीतानागतपच्चुप्पन्नेसु अरहन्तेसु सम्मासम्बुद्धेसु चेतोपरियजाणं अत्थि, अपि च मे धम्मन्वयो विदितो । सेय्यथापि, भन्ते, रो पच्चन्तिम नगरं दळ्हुद्धापं दळहपाकारतोरणं एकद्वारं, तत्रस्स दोवारिको पण्डितो वियत्तो मेधावी अञातानं निवारेता जातानं पवेसेता। सो तस्स नगरस्स समन्ता अनुपरियायपथं अनुक्कममानो न पस्सेय्य पाकारसन्धिं वा पाकारविवरं वा, अन्तमसो बिळारनिक्खमनमत्तम्पि। तस्स एवमस्स – 'ये खो केचि ओळारिका पाणा इमं नगरं पविसन्ति वा निक्खमन्ति वा, सब्बे ते इमिनाव द्वारेन पविसन्ति वा निक्खमन्ति वा'ति । एवमेव खो मे, भन्ते, धम्मन्वयो विदितो - 'ये ते, भन्ते, अहेसुं अतीतमद्धानं अरहन्तो सम्मासम्बुद्धा, सब्बे ते भगवन्तो पञ्च नीवरणे पहाय चेतसो उपक्किलेसे पाय दुब्बलीकरणे चतूसु सतिपट्ठानेसु सुपतिहितचित्ता सत्तबोज्झङ्गे यथाभूतं भावेत्वा अनुत्तरं सम्मासम्बोधिं अभिसम्बुझिं। येपि ते, भन्ते, भविस्सन्ति अनागतमद्धानं अरहन्तो
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दीघनिकायो-२
(२.३.१४७-१४८)
सम्मासम्बुद्धा, सब्बे ते भगवन्तो पञ्च नीवरणे पहाय चेतसो उपक्किलेसे पाय दुब्बलीकरणे चतूसु सतिपट्टानेसु सुपतिद्वितचित्ता सत्त बोज्झङ्गे यथाभूतं भावेत्वा अनुत्तरं सम्मासम्बोधिं अभिसम्बुझिस्सन्ति। भगवापि, भन्ते, एतरहि अरहं सम्मासम्बुद्धो पञ्च नीवरणे पहाय चेतसो उपक्किलेसे पाय दुब्बलीकरणे चतूस सतिपट्ठानेसु सुपतिहितचित्तो सत्त बोज्झङ्गे यथाभूतं भावेत्वा अनुत्तरं सम्मासम्बोधिं अभिसम्बुद्धो'ति।
१४७. तत्रपि सुदं भगवा नाळन्दायं विहरन्तो पावारिकम्बवने एतदेव बहुलं भिक्खूनं धम्मिं कथं करोति- “इति सीलं, इति समाधि, इति पञा। सीलपरिभावितो समाधि महप्फलो होति महानिसंसो। समाधिपरिभाविता पञ्जा महप्फला होति महानिसंसा। पञापरिभावितं चित्तं सम्मदेव आसवेहि विमुच्चति, सेय्यथिदं- कामासवा, भवासवा, अविज्जासवा"ति।
दुस्सीलआदीनवा
१४८. अथ खो भगवा नाळन्दायं यथाभिरन्तं विहरित्वा आयस्मन्तं आनन्दं आमन्तेसि - “आयामानन्द, येन पाटलिगामो तेनुपसङ्कमिस्सामा"ति। “एवं, भन्ते''ति खो आयस्मा आनन्दो भगवतो पच्चस्सोसि । अथ खो भगवा महता भिक्खुसङ्घन सद्धिं येन पाटलिगामो तदवसरि । अस्सोसुं खो पाटलिगामिका उपासका - "भगवा किर पाटलिगामं अनुप्पत्तो''ति । अथ खो पाटलिगामिका उपासका येन भगवा तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु । एकमन्तं निसिन्ना खो पाटलिगामिका उपासका भगवन्तं एतदवोचुं- “अधिवासेतु नो, भन्ते, भगवा आवसथागार''न्ति । अधिवासेसि भगवा तुण्हीभावेन । अथ खो पाटलिगामिका उपासका भगवतो अधिवासनं विदित्वा उट्ठायासना भगवन्तं अभिवादेत्वा पदक्खिणं कत्वा येन आवसथागारं तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा सब्बसन्थरिं आवसथागारं सन्थरित्वा आसनानि पञपेत्वा उदकमणिकं पतिढापेत्वा तेलपदीपं आरोपेत्वा येन भगवा तेनुपसङ्कमिंसु, उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं अटुंसु | एकमन्तं ठिता खो पाटलिगामिका उपासका भगवन्तं एतदवोचुं- “सब्बसन्थरिसन्थतं, भन्ते, आवसथागारं, आसनानि पञ्चत्तानि, उदकमणिको पतिठ्ठापितो, तेलपदीपो आरोपितो; यस्स दानि, भन्ते, भगवा कालं मझतीति । अथ खो भगवा सायन्हसमयं निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय सद्धिं भिक्खुसङ्घन येन आवसथागारं तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा पादे पक्खालेत्वा आवसथागारं
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(२.३.१४९-१५०)
३. महापरिनिब्बानसुत्तं
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पविसित्वा मज्झिमं थम्भं निस्साय पुरत्थाभिमुखो निसीदि । भिक्खुसङ्घोपि खो पादे पक्खालेत्वा आवसथागारं पविसित्वा पच्छिमं भित्तिं निस्साय पुरत्थाभिमुखो निसीदि भगवन्तमेव पुरक्खत्वा । पाटलिगामिकापि खो उपासका पादे पक्खालेत्वा आवसथागारं पविसित्वा पुरत्थिमं भित्तिं निस्साय पच्छिमाभिमुखा निसीदिंसु भगवन्तमेव पुरक्खत्वा ।
१४९. अथ खो भगवा पाटलिगामिके उपासके आमन्तेसि - “पञ्चिमे, गहपतयो, आदीनवा दुस्सीलस्स सीलविपत्तिया। कतमे पञ्च ? "इध, गहपतयो, दुस्सीलो सीलविपन्नो पमादाधिकरणं महतिं भोगजानिं निगच्छति । अयं पठमो आदीनवो दुस्सीलस्स सीलविपत्तिया।
"पुन चपरं, गहपतयो, दुस्सीलस्स सीलविपन्नस्स पापको कित्तिसद्दो अब्भुग्गच्छति । अयं दुतियो आदीनवो दुस्सीलस्स सीलविपत्तिया ।
__ “पुन चपरं, गहपतयो, दुस्सीलो सीलविपन्नो यञ्जदेव परिसं उपसङ्कमति - यदि खत्तियपरिसं यदि ब्राह्मणपरिसं यदि गहपतिपरिसं यदि समणपरिसं - अविसारदो उपसङ्कमति मङ्घभूतो । अयं ततियो आदीनवो दुस्सीलस्स सीलविपत्तिया ।
"पुन चपरं, गहपतयो, दुस्सीलो सीलविपन्नो सम्मूळहो कालङ्करोति । अयं चतुत्थो आदीनवो दुस्सीलस्स सीलविपत्तिया ।
"पुन चपरं, गहपतयो, दुस्सीलो सीलविपन्नो कायस्स भेदा परं मरणा अपायं दुग्गतिं विनिपातं निरयं उपपज्जति । अयं पञ्चमो आदीनवो दुस्सीलस्स सीलविपत्तिया । इमे खो, गहपतयो, पञ्च आदीनवा दुस्सीलस्स सीलविपत्तिया ।
सीलवन्तआनिसंसा १५०. “पञ्चिमे, गहपतयो, आनिसंसा सीलवतो सीलसम्पदाय | कतमे पञ्च ? इध, गहपतयो, सीलवा सीलसम्पन्नो अप्पमादाधिकरणं महन्तं भोगक्खन्धं अधिगच्छति । अयं पठमो आनिसंसो सीलवतो सीलसम्पदाय ।
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दीघनिकायो-२
" पुन चपरं, गहपतयो, सीलवतो सीलसम्पन्नस्स कल्याणो कित्तिसद्दो अब्भुग्गच्छति । अयं दुतियो आनिसंसो सीलवतो सीलसम्पदाय ।
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" पुन चपरं, गहपतयो, सीलवा सीलसम्पन्नो यञ्ञदेव परिसं उपसङ्कमति – यदि खत्तियपरिसं यदि ब्राह्मणपरिसं यदि गहपतिपरिसं यदि समणपरिसं विसारदो उपसङ्कमति अमङ्कुभूतो । अयं ततियो आनिसंसो सीलवतो सीलसम्पदाय ।
" पुन चपरं, गहपतयो, सीलवा सीलसम्पन्नो असम्मूळहो कालङ्करोति । अयं चतुथो आनिसंसो सीलवतो सीलसम्पदाय ।
(२.३.१५१-१५२)
“पुन चपरं, गहपतयो, सीलवा सीलसम्पन्नो कायरस भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपज्जति । अयं पञ्चमो आनिसंसो सीलवतो सीलसम्पदाय । इमे खो, गहपतयो, पञ्च आनिसंसा सीलवतो सीलसम्पदाया ''ति ।
१५१. अथ खो भगवा पाटलिगामिके उपासके बहुदेव रत्तिं धम्मिया कथा सन्दस्सेत्वा समादपेत्वा समुत्तेजेत्वा सम्पहंसेत्वा उय्योजेसि - “अभिक्कन्ता खो, गहपतयो, रत्ति, यस्स दानि तुम्हे कालं मञ्ञथा "ति । “ एवं, भन्ते 'ति खो पाटलिगामिका उपासका भगवतो पटिस्सुत्वा उट्ठायासना भगवन्तं अभिवादेत्वा पदक्खिणं कत्वा पक्कमिंसु । अथ खो भगवा अचिरपक्कन्तेसु पाटलिगामिकेसु उपासकेसु सुञागारं पाविसि ।
पाटलिपुत्तनगरमापनं
१५२. तेन खो पन समयेन सुनिधवस्सकारा मगधमहामत्ता पाटलिगामे नगरं मापेन्ति वज्जीनं पटिबाहाय । तेन समयेन सम्बहुला देवतायो सहस्सेव पाटलिगामे वत्थूनि परिग्गण्हन्ति । यस्मिं पदेसे महेसक्खा देवता वत्थूनि परिग्गण्हन्ति, महेसक्खानं तत्थ रञ राजमहामत्तानं चित्तानि नमन्ति निवेसनानि मापेतुं । यस्मिं पदेसे मज्झिमा देवता वत्थूनि परिग्गण्हन्ति, मज्झिमानं तत्थ र राजमहामत्तानं चित्तानि नमन्ति निवेसनानि मापेतुं । यस्मिं पदेसे नीचा देवता वत्थूनि परिग्गण्हन्ति, नीचानं तत्थ र राजमहामत्तानं चित्तानि नमन्ति निवेसनानि मापेतुं । अद्दसा खो भगवा दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्कन्तमानुसकेन ता देवतायो सहस्सेव पाटलिगामे वत्थूनि परिग्गहन्तियो । अथ खो
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(२.३.१५३-१५३)
३. महापरिनिब्बानसुत्तं
भगवा रत्तिया पच्चूससमयं पच्चुट्ठाय आयस्मन्तं आनन्दं आमन्तेसि - “के नु खो, आनन्द, पाटलिगामे नगरं मापेन्ती''ति? "सुनिधवस्सकारा, भन्ते, मगधमहामत्ता पाटलिगामे नगरं मापेन्ति वज्जीनं पटिबाहाया''ति । “सेय्यथापि, आनन्द, देवेहि तावतिंसेहि सद्धिं मन्तेत्वा, एवमेव खो, आनन्द, सुनिधवस्सकारा मगधमहामत्ता पाटलिगामे नगरं मापेन्ति वज्जीनं पटिबाहाय । इधाहं, आनन्द, अद्दसं दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्कन्तमानुसकेन सम्बहुला देवतायो सहस्सेव पाटलिगामे वत्थूनि परिग्गण्हन्तियो। यस्मिं, आनन्द, पदेसे महेसक्खा देवता वत्थूनि परिग्गण्हन्ति, महेसक्खानं तत्थ रनं राजमहामत्तानं चित्तानि नमन्ति निवेसनानि मापेतुं | यस्मिं पदेसे मज्झिमा देवता वत्थूनि परिग्गण्हन्ति, मज्झिमानं तत्थ रनं राजमहामत्तानं चित्तानि नमन्ति निवेसनानि मापेतुं | यस्मिं पदेसे नीचा देवता वत्थूनि परिग्गण्हन्ति, नीचानं तत्थ रखं राजमहामत्तानं चित्तानि नमन्ति निवेसनानि मापेतुं । यावता, आनन्द, अरियं आयतनं यावता वणिप्पथो इदं अग्गनगरं भविस्सति पाटलिपुत्तं पुटभेदनं । पाटलिपुत्तस्स खो, आनन्द, तयो अन्तराया भविस्सन्ति- अग्गितो वा उदकतो वा मिथुभेदा वा''ति ।
१५३. अथ खो सुनिधवस्सकारा मगधमहामत्ता येन भगवा तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा भगवता सद्धिं सम्मोदिंसु, सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं अटुंसु, एकमन्तं ठिता खो सुनिधवस्सकारा मगधमहामत्ता भगवन्तं एतदवोचुं“अधिवासेतु नो भवं गोतमो अज्जतनाय भत्तं सद्धिं भिक्खुसङ्घना''ति । अधिवासेसि भगवा तुण्हीभावेन । अथ खो सुनिधवस्सकारा मगधमहामत्ता भगवतो अधिवासनं विदित्वा येन सको आवसथो तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा सके आवसथे पणीतं खादनीयं भोजनीयं पटियादापेत्वा भगवतो कालं आरोचापेसुं- “कालो, भो गोतम, निहितं भत्त"न्ति |
अथ खो भगवा पुब्बण्हसमयं निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय सद्धिं भिक्खुसङ्घन येन सुनिधवस्सकारानं मगधमहामत्तानं आवसथो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा पञ्जत्ते आसने निसीदि । अथ खो सुनिधवस्सकारा मगधमहामत्ता बुद्धप्पमुखं भिक्खुसद्धं पणीतेन खादनीयेन भोजनीयेन सहत्था सन्तप्पेसुं सम्पवारेसुं। अथ खो सुनिधवस्सकारा मगधमहामत्ता भगवन्तं भुत्ताविं ओनीतपत्तपाणिं अञतरं नीचं आसनं गहेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु । एकमन्तं निसिन्ने खो सुनिधवस्सकारे मगधमहामत्ते भगवा इमाहि गाथाहि अनुमोदि -
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दीघनिकायो-२
(२.३.१५४-१५४)
“यस्मिं पदेसे कप्पेति, वासं पण्डितजातियो । सीलवन्तेत्थ भोजेत्वा, सञते ब्रह्मचारयो ।।
"या तत्थ देवता आसुं, तासं दक्खिणमादिसे । ता पूजिता पूजयन्ति, मानिता मानयन्ति नं ।।
"ततो नं अनुकम्पन्ति, माता पुत्तंव ओरसं । देवतानुकम्पितो पोसो, सदा भद्रानि पस्सती''ति ।।
अथ खो भगवा सुनिधवस्सकारे मगधमहामत्ते इमाहि गाथाहि अनुमोदित्वा उठायासना पक्कामि।
१५४. तेन खो पन समयेन सुनिधवस्सकारा मगधमहामत्ता भगवन्तं पिट्टितो पिट्ठितो अनुबन्धा होन्ति- "येनज्ज समणो गोतमो द्वारेन निक्खमिस्सति, तं गोतमद्वारं नाम भविस्सति । येन तित्थेन गङ्गं नदिं तरिस्सति, तं गोतमतित्थं नाम भविस्सती"ति । अथ खो भगवा येन द्वारेन निक्खमि, तं गोतमद्वारं नाम अहोसि । अथ खो भगवा येन गङ्गा नदी तेनुपसङ्कमि । तेन खो पन समयेन गङ्गा नदी पूरा होति समतित्तिका काकपेय्या। अप्पेकच्चे मनुस्सा नावं परियेसन्ति, अप्पेकच्चे उलुम्पं परियेसन्ति, अप्पेकच्चे कुल्लं बन्धन्ति अपारा पारं गन्तुकामा । अथ खो भगवा - सेय्यथापि नाम बलवा पुरिसो समिञ्जितं वा बाहं पसारेय्य, पसारितं वा बाहं समिओय्य, एवमेव - गङ्गाय नदिया ओरिमतीरे अन्तरहितो पारिमतीरे पच्चुट्ठासि सद्धिं भिक्खुसङ्घन । अद्दसा खो भगवा ते मनुस्से अप्पेकच्चे नावं परियेसन्ते अप्पेकच्चे उळुम्पं परियेसन्ते अप्पेकच्चे कुल्लं बन्धन्ते अपारा पारं गन्तुकामे । अथ खो भगवा एतमत्थं विदित्वा तायं वेलायं इमं उदानं उदानेसि
"ये तरन्ति अण्णवं सरं, सेतुं कत्वान विसज्ज पल्ललानि । कुल्लन्हि जनो बन्धति, तिण्णा मेधाविनो जना"ति ।।
पठमभाणवारो।
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(२.३.१५५-१५५)
३. महापरिनिब्बानसुत्तं
अरियसच्चकथा
१५५. अथ खो भगवा आयस्मन्तं आनन्दं आमन्तेसि 'आयामानन्द, येन कोटिगामो तेनुपसङ्कमिस्सामा "ति । “ एवं, भन्ते 'ति खो आयस्मा आनन्दो भगवतो पच्चस्सोसि । अथ खो भगवा महता भिक्खुसङ्घन सद्धिं येन कोटिगामो तदवसरि । तत्र सुदं भगवा कोटिगामे विहरति । तत्र खो भगवा भिक्खू आमन्तेसि -
“चतुन्नं अरियसच्चानं, यथाभूतं अदस्सना । संसितं दीघमद्धानं, तासु तास्वेव जातिसु । ।
तानि एतानि दिट्ठानि, भवनेत्ति समूहता । उच्छिन्नं मूलं दुक्खस्स, नत्थि दानि पुनब्भवो 'ति । ।
"चतुन्नं, भिक्खवे, अरियसच्चानं अननुबोधा अप्पटिवेधा एवमिदं दीघमद्धानं सन्धावितं संसरितं ममञ्चेव तुम्हाकञ्च । कतमेसं चतुन्नं ? दुक्खस्स, भिक्खवे, अरियसच्चस्स अननुबोधा अप्पटिवेधा एवमिदं दीघमद्धानं सन्धावितं संसरितं ममञ्चेव तुम्हाकञ्च । दुक्खसमुदयस्स, भिक्खवे, अरियसच्चस्स अननुबोधा अप्पटिवेधा एवमिदं दीघमद्धानं सन्धावितं संसरितं ममञ्चेव तुम्हाकञ्च । दुक्खनिरोधस्स, भिक्खवे, अरियसच्चस्स अननुबोधा अप्पटिवेधा एवमिदं दीघमद्धानं सन्धावितं संसरितं ममञ्चेव तुम्हाकञ्च । दुक्खनिरोधगामिनिया पटिपदाय, भिक्खवे, अरियसच्चस्स अननुबोधा अप्पटिवेधा एवमिदं दीघमद्धानं सन्धावितं संसरितं ममञ्चेव तुम्हाकञ्च । तयिदं, भिक्खवे, दुक्खं अरियसच्चं अनुबुद्धं पटिविद्धं, दुक्खसमुदयं अरियसच्चं अनुबुद्धं पटिविद्धं, दुक्खनिरोधं अरियसच्चं अनुबुद्धं पटिविद्धं, दुक्खनिरोधगामिनी पटिपदा अरियसच्चं अनुबुद्धं पटिविद्धं, उच्छिन्ना भवतण्हा, खीणा भवनेत्ति, नत्थिदानि पुनब्भवो " ति । इदमवोच भगवा । इदं वत्वान सुगतो अथापरं एतदवोच सत्था -
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तत्रपि सुदं भगवा कोटिगामे विहरन्तो एतदेव बहुलं भिक्खूनं धम्मिं कथं करोति - " इति सीलं, इति समाधि, इति पञ्ञा । सीलपरिभावितो समाधि महम्फलो होति महानिसंसो । समाधिपरिभाविता पञ्ञा महम्फला होति महानिसंसा । पञ्ञापरिभावितं चित्तं सम्मदेव आसवेहि विमुच्चति, सेय्यथिदं- कामासवा, भवासवा, अविज्जासवा "ति ।
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दीघनिकायो-२
(२.३.१५६-१५७)
अनावत्तिधम्मसम्बोधिपरायणा
१५६. अथ खो भगवा कोटिगामे यथाभिरन्तं विहरित्वा आयस्मन्तं आनन्दं आमन्तेसि - “आयामानन्द, येन नातिका तेनुपङ्कमिस्सामा''ति । “एवं, भन्ते''ति खो आयस्मा आनन्दो भगवतो पच्चस्सोसि । अथ खो भगवा महता भिक्खुसङ्घन सद्धिं येन नातिका तदवसरि। तत्रपि सुदं भगवा नातिके विहरति गिञ्जकावसथे। अथ खो आयस्मा आनन्दो येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि । एकमन्तं निसिन्नो खो आयस्मा आनन्दो भगवन्तं एतदवोच - “साळ्हो नाम, भन्ते, भिक्खु नातिके कालङ्कतो, तस्स का गति, को अभिसम्परायो ? नन्दा नाम, भन्ते, भिक्खुनी नातिके कालङ्कता, तस्सा का गति, को अभिसम्परायो ? सुदत्तो नाम, भन्ते, उपासको नातिके कालङ्कतो, तस्स का गति, को अभिसम्परायो ? सुजाता नाम, भन्ते, उपासिका नातिके कालङ्कता, तस्सा का गति, को अभिसम्परायो ? कुक्कुटो नाम, भन्ते, उपासको नातिके कालङ्कतो, तस्स का गति, को अभिसम्परायो ? काळिम्बो नाम, भन्ते, उपासको...पे०... निकटो नाम, भन्ते, उपासको... कटिस्सहो नाम, भन्ते, उपासको... तुट्ठो नाम, भन्ते, उपासको... सन्तुट्ठो नाम, भन्ते, उपासको... भद्दो नाम, भन्ते, उपासको... सुभद्दो नाम, भन्ते, उपासको नातिके कालङ्कतो, तस्स का गति, को अभिसम्परायोति ?
१५७. “साळहो, आनन्द, भिक्खु आसवानं खया अनासवं चेतोविमुत्तिं पञाविमुत्तिं दिवेव धम्मे सयं अभिञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहासि । नन्दा, आनन्द, भिक्खुनी पञ्चन्नं ओरम्भागियानं संयोजनानं परिक्खया ओपपातिका तत्थ परिनिब्बायिनी अनावत्तिधम्मा तस्मा लोका । सुदत्तो, आनन्द, उपासको तिण्णं संयोजनानं परिक्खया रागदोसमोहानं तनुत्ता सकदागामी सकिदेव इमं लोकं आगन्त्वा दुक्खस्सन्तं करिस्सति । सुजाता, आनन्द, उपासिका तिण्णं संयोजनानं परिक्खया सोतापन्ना अविनिपातधम्मा नियता सम्बोधिपरायणा । कुक्कुटो, आनन्द, उपासको पञ्चन्नं ओरम्भागियानं संयोजनानं परिक्खया ओपपातिको तत्थ परिनिब्बायी अनावत्तिधम्मो तस्मा लोका। काळिम्बो, आनन्द, उपासको...पे०... निकटो, आनन्द, उपासको... कटिस्सहो, आनन्द, उपासको... तुट्ठो, आनन्द, उपासको... सन्तुट्ठो, आनन्द, उपासको... भद्दो, आनन्द, उपासको... सुभद्दो, आनन्द, उपासको पञ्चन्नं ओरम्भागियानं संयोजनानं परिक्खया ओपपातिको तत्थ परिनिब्बायी अनावत्तिधम्मो तस्मा लोका । परोपञ्जासं, आनन्द, नातिके
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३. महापरिनिब्बानसुत्तं
उपासका कालङ्कता, पञ्चन्नं ओरम्भागियानं संयोजनानं परिक्खया ओपपातिका तत्थ परिनिब्बायिनो अनावत्तिधम्मा तस्मा लोका । साधिका नवुति, आनन्द, नातिके उपासका कालङ्कता तिण्णं संयोजनानं परिक्खया रागदोसमोहानं तनुत्ता सकदागामिनो सकिदेव इमं लोकं आगन्त्वा दुक्खस्सन्तं करिस्सन्ति । सातिरेकानि, आनन्द, पञ्चसतानि नातिके उपासका कालङ्कता, तिण्णं संयोजनानं परिक्खया सोतापन्ना अविनिपातधम्मा नियता सम्बोधिपरायणा ।
(२.३.१५८-१५९)
धम्मादासधम्मपरियाया
१५८. “अनच्छरियं खो पनेतं, आनन्द, यं मनुस्सभूतो कालङ्करेय्य । तस्मिंयेव कालङ्कते तथागतं उपसङ्कमित्वा एतमत्थं पुच्छिस्सथ, विहेसा हेसा, आनन्द, तथागतस्स । तस्मातिहानन्द, धम्मादासं नाम धम्मपरियायं देसेस्सामि, येन समन्नागतो अरियसावको आकङ्क्षमा अत्तनाव अत्तानं ब्याकरेय्य - 'खीणनिरयोम्हि खीणतिरच्छानयोनि खीणपेत्तिविसयो खीणापायदुग्गतिविनिपातो, सोतापन्नोहमस्मि अविनिपातधम्मो सम्बोधिपरायणो' "ति ।
१५९. “ कतमो च सो, आनन्द, धम्मादासो धम्मपरियायो, येन समन्नागतो अरियसावको आकङ्क्षमानो अत्तनाव अत्तानं ब्याकरेय्य - 'खीणनिरयोहि खीणतिरच्छानयोनि खीणपेत्तिविसयो सोतापन्नोहमस्मि अविनिपातधम्मो नियतो सम्बोधिपरायणो' "ति ?
खीणापायदुग्गतिविनिपातो,
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'इतिपि सो
"इधानन्द, अरियसावको बुद्धे अवेच्चप्पसादेन समन्नागतो होति - भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो विज्जाचरणसम्पन्नो सुगतो लोकविदू अनुत्तरो पुरिसदम्मसारथि सत्था देवमनुस्सानं बुद्धो भगवा' "ति ।
“धम्मे अवेच्चप्पसादेन समन्नागतो होति - 'स्वाक्खातो भगवता धम्मो सन्दिट्टिको अकालिको एहिपस्सिको ओपनेय्यिको पच्चत्तं वेदितब्बो विञ्जूही' "ति ।
“सङ्घे अवेच्चप्पसादेन समन्नागतो होति - 'सुप्पटिपन्नो भगवतो सावकसङ्घो, उजुप्पटिपन्नो भगवतो सावकसङ्घो, ञायप्पटिपन्नो भगवतो सावकसङ्घो, सामीचिप्पटिपन्नो
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दीघनिकायो-२
(२.३.१६०-१६०)
भगवतो सावकसङ्घो यदिदं चत्तारि पुरिसयुगानि अट्ठ पुरिसपुग्गला, एस भगवतो सावकसङ्घो आहुनेय्यो पाहुनेय्यो दक्खिणेय्यो अञ्जलिकरणीयो अनुत्तरं पुञक्खेत्तं लोकस्सा' ''ति ।
“अरियकन्तेहि सीलेहि समन्नागतो होति अखण्डेहि अच्छिद्देहि असबलेहि अकम्मासेहि भुजिस्सेहि विपसत्थेहि अपरामटेहि समाधिसंवत्तनिकेहि ।
"अयं खो सो, आनन्द, धम्मादासो धम्मपरियायो, येन समन्त्रागतो अरियसावको आकङ्घमानो अत्तनाव अत्तानं ब्याकरेय्य - 'खीणनिरयोम्हि खीणतिरच्छानयोनि खीणपेत्तिविसयो खीणापायदुग्गतिविनिपातो, सोतापनोहमस्मि अविनिपातधम्मो नियतो सम्बोधिपरायणो' "ति।
तत्रपि सुदं भगवा नातिके विहरन्तो गिञ्जकावसथे एतदेव बहुलं भिक्खून धम्मि कथं करोति
"इति सीलं इति समाधि इति पञा। सीलपरिभावितो समाधि महप्फलो होति महानिसंसो। समाधिपरिभाविता पञ्जा महप्फला होति महानिसंसा । पापरिभावितं चित्तं सम्मदेव आसवेहि विमुच्चति, सेय्यथिदं - कामासवा, भवासवा, अविज्जासवा'ति ।
१६०. अथ खो भगवा नातिके यथाभिरन्तं विहरित्वा आयस्मन्तं आनन्दं आमन्तेसि - “आयामानन्द, येन वेसाली तेनुपसङ्कमिस्सामा"ति । “एवं, भन्ते'ति खो आयस्मा आनन्दो भगवतो पच्चस्सोसि । अथ खो भगवा महता भिक्खुसङ्घन सद्धिं येन वेसाली तदवसरि । तत्र सुदं भगवा वेसालियं विहरति अम्बपालिवने । तत्र खो भगवा भिक्खू आमन्तेसि -
"सतो, भिक्खवे, भिक्खु विहरेय्य सम्पजानो, अयं वो अम्हाकं अनुसासनी। कथञ्च, भिक्खवे, भिक्खु सतो होति ? इध, भिक्खवे, भिक्खु काये कायानुपस्सी विहरति आतापी सम्पजानो सतिमा विनेय्य लोके अभिज्झादोमनस्सं। वेदनासु वेदनानुपस्सी विहरति आतापी सम्पजानो सतिमा विनेय्य लोके अभिज्झादोमनस्सं। चित्ते चित्तानुपस्सी विहरति आतापी सम्पजानो सतिमा विनेय्य लोके अभिज्झादोमनस्सं। धम्मेसु धम्मानुपस्सी विहरति आतापी सम्पजानो सतिमा विनेय्य लोके अभिज्झादोमनस्सं। एवं खो, भिक्खवे, भिक्खु सतो होति ।
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(२.३.१६१-१६१)
३. महापरिनिब्दानसुत्तं
“कथञ्च, भिक्खवे, भिक्खु सम्पजानो होति ? इध, भिक्खवे, भिक्खु अभिक्कन्ते पटिक्कन्ते सम्पजानकारी होति, आलोकिते विलोकिते सम्पजानकारी होति, समिञ्जिते पसारिते सम्पजानकारी होति, सङ्घाटिपत्तचीवरधारणे सम्पजानकारी होति, असिते पीते खायिते सायिते सम्पजानकारी होति, उच्चारपस्सावकम्मे सम्पजानकारी होति, गते ठिते निसिन्ने सुत्ते जागरिते भासिते तुण्हीभावे सम्पजानकारी होति । एवं खो, भिक्खवे, भिक्खु सम्पजानो होति । सतो, भिक्खवे, भिक्खु विहरेय्य सम्पजानो, अयं वो अम्हाकं अनुसासनी"ति।
अम्बपालीगणिका
१६१. अस्सोसि खो अम्बपाली गणिका -- “भगवा किर वेसालिं अनुप्पत्तो वेसालियं विहरति मय्हं अम्बवने''ति । अथ खो अम्बपाली गणिका भद्दानि भद्दानि यानानि योजापेत्वा भई भई यानं अभिरुहित्वा भद्देहि भद्देहि यानेहि वेसालिया निय्यासि । येन सको आरामो तेन पायासि । यावतिका यानस्स भूमि, यानेन गन्त्वा, याना पच्चोरोहित्वा पत्तिकाव येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि । एकमन्तं निसिन्नं खो अम्बपालिं गणिकं भगवा धम्मिया कथाय सन्दस्सेसि समादपेसि समुत्तेजेसि सम्पहंसेसि । अथ खो अम्बपाली गणिका भगवता धम्मिया कथाय सन्दस्सिता समादपिता समुत्तेजिता सम्पहंसिता भगवन्तं एतदवोच -- “अधिवासेतु मे, भन्ते, भगवा स्वातनाय भत्तं सद्धिं भिक्खुसङ्घना'ति । अधिवासेसि भगवा तुण्हीभावेन । अथ खो अम्बपाली गणिका भगवतो अधिवासनं विदित्वा उट्ठायासना भगवन्तं अभिवादेत्वा पदक्खिणं कत्वा पक्कामि ।
अस्सोसु खो वेसालिका लिच्छवी - "भगवा किर वेसालिं अनुप्पत्तो वेसालियं विहरति अम्बपालिवने"ति । अथ खो ते लिच्छवी भद्दानि भद्दानि यानानि योजापेत्वा भई भदं यानं अभिरुहित्वा भद्देहि भद्देहि यानेहि वेसालिया निय्यिंसु । तत्र एकच्चे लिच्छवी नीला होन्ति नीलवण्णा नीलवत्था नीलालङ्कारा, एकच्चे लिच्छवी पीता होन्ति पीतवण्णा पीतवत्था पीतालङ्कारा, एकच्चे लिच्छवी लोहिता होन्ति लोहितवण्णा लोहितवत्था लोहितालङ्कारा, एकच्चे लिच्छवी ओदाता होन्ति ओदातवण्णा ओदातवत्था ओदातालङ्कारा । अथ खो अम्बपाली गणिका दहरानं दहरानं लिच्छवीनं अक्खेन अक्खं चक्केन चक्कं युगेन युगं पटिवट्टेसि । अथ खो ते लिच्छवी अम्बपालिं गणिकं एतदवोचुं- “किं, जे
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दीघनिकायो-२
(२.३.१६२-१६२)
अम्बपालि, दहरानं दहरानं लिच्छवीनं अक्खेन अक्खं चक्केन चक्कं युगेन युगं पटिवट्टेसी''ति ? “तथा हि पन मे, अय्यपुत्ता, भगवा निमन्तितो स्वातनाय भत्तं सद्धिं भिक्खुसङ्घना'ति । “देहि, जे अम्बपालि, एतं भत्तं सतसहस्सेना''ति । “सचेपि मे, अय्यपुत्ता, वेसालिं साहारं दस्सथ, एवमहं तं भत्तं न दस्सामी''ति । अथ खो ते लिच्छवी अङ्गुलिं फोटेसुं- “जितम्ह वत भो अम्बकाय, जितम्ह वत भो अम्बकाया'ति ।
अथ खो ते लिच्छवी येन अम्बपालिवनं तेन पायिंसु । अद्दसा खो भगवा ते लिच्छवी दूरतोव आगच्छन्ते । दिस्वान भिक्खू आमन्तेसि - “येसं, भिक्खवे, भिक्खूनं
देवा तावतिंसा अदिठ्ठपुब्बा, ओलोकेथ, भिक्खवे, लिच्छविपरिसं; अपलोकेथ, भिक्खवे, लिच्छविपरिसं; उपसंहरथ, भिक्खवे, लिच्छविपरिसं - तावतिंससदिस"न्ति । अथ खो ते लिच्छवी यावतिका यानस्स भूमि, यानेन गन्त्वा, याना पच्चोरोहित्वा पत्तिकाव येन भगवा तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु । एकमन्तं निसिन्ने खो ते लिच्छवी भगवा धम्मिया कथाय सन्दस्सेसि समादपेसि समुत्तेजेसि सम्पहंसेसि । अथ खो ते लिच्छवी भगवता धम्मिया कथाय सन्दस्सिता समादपिता समुत्तेजिता सम्पहंसिता भगवन्तं एतदवोचुं– “अधिवासेतु नो, भन्ते, भगवा स्वातनाय भत्तं सद्धिं भिक्खुसङ्घना''ति । अथ खो भगवा ते लिच्छवी एतदवोच – “अधिवुत्थं खो मे, लिच्छवी, स्वातनाय अम्बपालिया गणिकाय भत्त'न्ति । अथ खो ते लिच्छवी अङ्गुलिं फोटेसुं- “जितम्ह वत भो अम्बकाय, जितम्ह वत भो अम्बकाया'ति । अथ खो ते लिच्छवी भगवतो भासितं अभिनन्दित्वा अनुमोदित्वा उट्ठायासना भगवन्तं अभिवादेत्वा पदक्खिणं कत्वा पक्कमिंसु ।
१६२. अथ खो अम्बपाली गणिका तस्सा रत्तिया अच्चयेन सके आरामे पणीतं खादनीयं भोजनीयं पटियादापेत्वा भगवतो कालं आरोचापेसि – “कालो, भन्ते, निहितं भत्त"न्ति । अथ खो भगवा पुब्बण्हसमयं निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय सद्धिं भिक्खुसङ्घन येन अम्बपालिया गणिकाय निवेसनं तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा पञत्ते आसने निसीदि | अथ खो अम्बपाली गणिका बुद्धप्पमुखं भिक्खुसद्धं पणीतेन खादनीयेन भोजनीयेन सहत्था सन्तप्पेसि सम्पवारेसि । अथ खो अम्बपाली गणिका भगवन्तं भुत्ताविं ओनीतपत्तपाणिं अञ्जतरं नीचं आसनं गहेत्वा एकमन्तं निसीदि । एकमन्तं निसिन्ना खो अम्बपाली गणिका भगवन्तं एतदवोच - "इमाहं, भन्ते, आरामं बुद्धप्पमुखस्स भिक्खुसङ्घस्स दम्मी''ति । पटिग्गहेसि भगवा आरामं । अथ खो भगवा अम्बपालिं गणिकं धम्मिया
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(२.३.१६३-१६४)
३. महापरिनिब्बानसुत्तं
৩৩
कथाय सन्दस्सेत्वा समादपेत्वा समुत्तेजेत्वा सम्पहंसेत्वा उट्ठायासना पक्कामि । तत्रपि सुदं भगवा वेसालियं विहरन्तो अम्बपालिवने एतदेव बहुलं भिक्खूनं धम्मिं कथं करोति"इति सीलं, इति समाधि, इति पञा। सीलपरिभावितो समाधि महप्फलो होति महानिसंसो। समाधिपरिभाविता पञ्जा महप्फला होति महानिसंसा। पापरिभावितं चित्तं सम्मदेव आसवेहि विमुच्चति, सेय्यथिदं- कामासवा, भवासवा, अविज्जासवा"ति।
वेळुवगामवस्सूपगमनं
१६३. अथ खो भगवा अम्बपालिवने यथाभिरन्तं विहरित्वा आयस्मन्तं आनन्दं आमन्तेसि- “आयामानन्द, येन वेळुवगामको तेनुपसङ्कमिस्सामा"ति । “एवं, भन्ते''ति खो आयस्मा आनन्दो भगवतो पच्चस्सोसि । अथ खो भगवा महता भिक्खुसङ्घन सद्धिं येन वेळुवगामको तदवसरि। तत्र सुदं भगवा वेळुवगामके विहरति । तत्र खो भगवा भिक्खू आमन्तेसि - “एथ तुम्हे, भिक्खवे, समन्ता वेसालिं यथामित्तं यथासन्दिटुं यथासम्भत्तं वस्सं उपेथ। अहं पन इधेव वेळुवगामके वस्सं उपगच्छामी''ति । “एवं, भन्ते''ति खो ते भिक्खू भगवतो पटिस्सुत्वा समन्ता वेसालिं यथामित्तं यथासन्दिटुं यथासम्भत्तं वस्सं उपगच्छिंसु । भगवा पन तत्थेव वेळुवगामके वस्सं उपगच्छि
१६४. अथ खो भगवतो वस्सूपगतस्स खरो आबाधो उप्पज्जि, बाळहा वेदना वत्तन्ति मारणन्तिका । ता सुदं भगवा सतो सम्पजानो अधिवासेसि अविहञ्जमानो। अथ खो भगवतो एतदहोसि- “न खो मेतं पतिरूपं, य्वाहं अनामन्तेत्वा उपट्टाके अनपलोकेत्वा भिक्खुसद्धं परिनिब्बायेय्यं । यंनूनाहं इमं आबाधं वीरियेन पटिपणामेत्वा जीवितसङ्घारं अधिट्ठाय विहरेय्यन्ति । अथ खो भगवा तं आबाधं वीरियेन पटिपणामेत्वा जीवितसङ्खारं अधिट्ठाय विहासि । अथ खो भगवतो सो आबाधो पटिपस्सम्भि । अथ खो भगवा गिलाना बुद्वितो अचिरवुट्ठितो गेलञा विहारा निक्खम्म विहारपच्छायायं पञत्ते आसने निसीदि । अथ खो आयस्मा आनन्दो येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि । एकमन्तं निसिन्नो खो आयस्मा आनन्दो भगवन्तं एतदवोच- "दिट्ठो मे, भन्ते, भगवतो फासु; दिलु मे, भन्ते, भगवतो खमनीयं, अपि च मे, भन्ते, मधुरकजातो विय कायो। दिसापि मे न पक्खायन्ति; धम्मापि मं न पटिभन्ति भगवतो गेलझेन, अपि च मे, भन्ते, अहोसि काचिदेव
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दीघनिकायो-२
अस्सासमत्ता - ' न ताव भगवा परिनिब्बायिस्सति, न याव भगवा भिक्खुस आरब्भ किञ्चिदेव उदाहरती' 'ति ।
१६५. “किं पनानन्द, भिक्खुसङ्घो मयि पच्चासीसति ? देसितो, आनन्द, मया धम्मो अनन्तरं अबाहिरं करित्वा । नत्थानन्द, तथागतस्स धम्मेसु आचरियमुट्ठि । यस्स नून, आनन्द, एवमस्स 'अहं भिक्खुस परिहरिस्सामी 'ति वा 'ममुद्देसिको भिक्खुसङ्घो 'ति वा, सो नून, आनन्द, भिक्खुसङ्घ आरम्भ किञ्चिदेव उदाहरेय्य । तथागतस्स खो, आनन्द, न एवं होति - ' अहं भिक्खुसङ्घं परिहरिस्सामी 'ति वा 'ममुद्देसिको भिक्खुङ्घ' वा । सकिं, आनन्द, तथागतो भिक्खुसङ्कं आरम्भ किञ्चिदेव उदाहरिस्सति । अहं खो पनानन्द, एतरहि जिण्णो वुद्धो महल्लको अद्धगतो वयोअनुप्पत्तो । आसीतिको मे वयो वत्तति । सेय्यथापि, आनन्द, जज्जरसकटं वेठमिस्सकेन यापेति, एवमेव खो, आनन्द, वेठमिस्सकेन मञ्जे तथागतस्स कायो यापेति । यस्मिं, आनन्द, समये तथागतो सब्बनिमित्तानं अमनसिकारा एकच्चानं वेदनानं निरोधा अनिमित्तं चेतोसमाधिं उपसम्पज्ज विहरति, फासुतरो, आनन्द, तस्मिं समये तथागतस्स कायो होति । तस्मातिहानन्द, अत्तदीपा विहरथ अत्तसरणा अनञ्ञसरणा, धम्मदीपा धम्मसरणा अनञ्ञसरणा । कथञ्चानन्द, भिक्खु अत्तदीपो विहरति अत्तसरणो अनञ्ञसरणो, धम्मदीपो धम्मसरणो अनञ्ञसरणो ? इधानन्द, भिक्खु काये कायानुपस्सी विहरति अतापी सम्पजानो सतिमा, विनेय्य लोके अभिज्झादोमनस्सं । वेदनासु वेदनानुपस्सी विहरति आतापी सम्पजानो सतिमा, विनेय्य लोके अभिज्झादोमनस्सं । चित्ते चित्तानुपस्सी विहरति आतापी सम्पजानो सतिमा, विनेय्य लोके अभिज्झादोमनस्सं । धम्मेसु धम्मानुपस्सी विहरति आतापी सम्पजानो सतिमा, विनेय्य लोके अभिज्झादोमनस्सं । एवं खो, आनन्द, भिक्खु अत्तदीपो विहरति अत्तसरणो अनञ्ञसरणो, धम्मदीपो धम्मसरणो अनञ्ञसरणो । ये हि केचि, आनन्द, एतरहि वा मम वा अच्चयेन अत्तदीपा विहरिस्सन्ति अत्तसरणा अनञ्ञसरणा, धम्मदीपा धम्मसरणा अनञ्ञसरणा, तमतग्गे मे ते, आनन्द, भिक्खू भविस्सन्ति ये केचि सिक्खाकामा "ति ।
दुतियभाणवारो ।
(२.३.१६५-१६५)
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(२.३.१६६-१६७)
३. महापरिनिब्बानसुत्तं
निमित्तोभासकथा
१६६. अथ खो भगवा पुब्बण्हसमयं निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय वेसालिं पिण्डाय पाविसि । वेसालियं पिण्डाय चरित्वा पच्छाभत्तं पिण्डपातपटिक्कन्तो आयस्मन्तं आनन्दं आमन्तेसि - “गण्हाहि, आनन्द, निसीदनं, येन चापालं चेतियं तेनुपसङ्कमिस्साम दिवा विहाराया'ति । “एवं, भन्ते''ति खो आयस्मा आनन्दो भगवतो पटिस्सुत्वा निसीदनं
आदाय भगवन्तं पिट्ठितो पिडितो अनुबन्धि । अथ खो भगवा येन चापालं चेतियं तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा पञत्ते आसने निसीदि । आयस्मापि खो आनन्दो भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि ।
१६७. एकमन्तं निसिन्नं खो आयस्मन्तं आनन्दं भगवा एतदवोच – “रमणीया, आनन्द, वेसाली, रमणीयं उदेनं चेतियं, रमणीयं गोतमकं चेतियं, रमणीयं सत्तम्बं चेतियं, रमणीयं बहुपुत्तं चेतियं, रमणीयं सारन्ददं चेतियं, रमणीयं चापालं चेतियं । यस्स कस्सचि, आनन्द, चत्तारो इद्धिपादा भाविता बहुलीकता यानीकता वत्थुकता अनुट्ठिता परिचिता सुसमारद्धा, सो आकङ्घमानो कप्पं वा तिट्टेय्य कप्पावसेसं वा । तथागतस्स खो, आनन्द, चत्तारो इद्धिपादा भाविता बहुलीकता यानीकता वत्थुकता अनुट्ठिता परिचिता सुसमारद्धा, सो आकङ्घमानो, आनन्द, तथागतो कप्पं वा तिट्टेय्य कप्पावसेसं वाति । एवम्पि खो आयस्मा आनन्दो भगवता ओळारिके निमित्ते कयिरमाने ओळारिके ओभासे कयिरमाने नासक्खि पटिविज्झितुं; न भगवन्तं याचि - “तिठ्ठतु, भन्ते, भगवा कप्पं, तिठ्ठतु सुगतो कप्पं बहुजनहिताय बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सान"न्ति, यथा तं मारेन परियुट्टितचित्तो । दुतियम्पि खो भगवा...पे०... ततियम्पि खो भगवा आयस्मन्तं आनन्दं आमन्तेसि - "रमणीया, आनन्द, वेसाली, रमणीयं उदेनं चेतियं, रमणीयं गोतमकं चेतियं, रमणीयं सत्तम्बं चेतियं, रमणीयं बहुपुत्तं चेतियं, रमणीयं सारन्ददं चेतियं, रमणीयं चापालं चेतियं । यस्स कस्सचि, आनन्द, चत्तारो इद्धिपादा भाविता बहुलीकता यानीकता वत्थुकता अनुट्ठिता परिचिता सुसमारद्धा, सो आकङ्खमानो कप्पं वा तिठेय्य कप्पावसेसं वा। तथागतस्स खो, आनन्द, चत्तारो इद्धिपादा भाविता बहुलीकता यानीकता वत्थुकता अनुट्ठिता परिचिता सुसमारद्धा, सो आकङ्घमानो, आनन्द, तथागतो कप्पं वा तिट्टेय्य कप्पावसेसं वा''ति । एवम्पि खो आयस्मा आनन्दो भगवता ओळारिके निमित्ते कयिरमाने ओळारिके ओभासे कयिरमाने नासक्खि पटिविज्झितुं; न भगवन्तं याचि -
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दीघनिकायो-२
(२.३.१६८-१६८)
“तिठ्ठतु, भन्ते, भगवा कप्पं, तिठ्ठतु सुगतो कप्पं बहुजनहिताय बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सान'"न्ति, यथा तं मारेन परियुट्टितचित्तो । अथ खो भगवा आयस्मन्तं आनन्दं आमन्तेसि- “गच्छ त्वं, आनन्द, यस्स दानि कालं मञसी''ति । “एवं, भन्ते''ति खो आयस्मा आनन्दो भगवतो पटिस्सुत्वा उट्ठायासना भगवन्तं अभिवादेत्वा पदक्खिणं कत्वा अविदूरे अञतरस्मिं रुक्खमूले निसीदि ।
मारयाचनकथा
१६८. अथ खो मारो पापिमा अचिरपक्कन्ते आयस्मन्ते आनन्दे येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा एकमन्तं अट्ठासि । एकमन्तं ठितो खो मारो पापिमा भगवन्तं एतदवोच- "परिनिब्बात दानि. भन्ते. भगवा: परिनिब्बात सगतो. परिनिब्बानकालो दानि. भन्ते. भगवतो। भासिता खो पनेसा. भन्ते. भगवता वाचा- 'न तावाह पापिम. परिनिब्बायिस्सामि. याव मे भिक्ख न सावका भविस्सन्ति वियत्ता विनीता विसारदा बहुस्सूता धम्मधरा धम्मानूधम्मप्पटिपन्ना सामीचिप्पटिपन्ना अनुधम्मचारिनो, सकं
आचरियकं उग्गहेत्वा आचिक्खिस्सन्ति देसेस्सन्ति पञपेस्सन्ति पट्ठपेस्सन्ति विवरिस्सन्ति विभजिस्सन्ति उत्तानीकरिस्सन्ति, उप्पन्नं परप्पवादं सहधम्मेन सुनिग्गहितं निग्गहेत्वा सप्पाटिहारियं धम्मं देसेस्सन्ती'ति । एतरहि खो पन, भन्ते, भिक्खू भगवतो सावका वियत्ता विनीता विसारदा बहुस्सुता धम्मधरा धम्मानुधम्मप्पटिपन्ना सामीचिप्पटिपन्ना अनुधम्मचारिनो, सकं आचरियकं उग्गहेत्वा आचिक्खन्ति देसेन्ति पञपेन्ति पट्टपेन्ति विवरन्ति विभजन्ति उत्तानीकरोन्ति, उप्पन्नं परप्पवादं सहधम्मेन सुनिग्गहितं निग्गहेत्वा सप्पाटिहारियं धम्मं देसेन्ति । परिनिब्बातु दानि, भन्ते, भगवा; परिनिब्बातु सुगतो, परिनिब्बानकालो दानि, भन्ते, भगवतो ।
“भासिता खो पनेसा, भन्ते, भगवता वाचा - 'न तावाहं, पापिम, परिनिब्बायिस्सामि, याव मे भिक्खुनियो न साविका भविस्सन्ति वियत्ता विनीता विसारदा बहुस्सुता धम्मधरा धम्मानुधम्मप्पटिपन्ना सामीचिप्पटिपन्ना अनुधम्मचारिनियो, सकं आचरियकं उग्गहेत्वा आचिक्खिस्सन्ति देसेस्सन्ति पञपेस्सन्ति पट्ठपेस्सन्ति विवरिस्सन्ति विभजिस्सन्ति उत्तानीकरिस्सन्ति, उप्पन्नं परप्पवादं सहधम्मेन सुनिग्गहितं निग्गहेत्वा सप्पाटिहारियं धम्म देसेस्सन्ती'ति । एतरहि खो पन, भन्ते, भिक्खुनियो भगवतो साविका वियत्ता विनीता विसारदा बहुस्सुता धम्मधरा धम्मानुधम्मप्पटिपन्ना सामीचिप्पटिपन्ना
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(२.३.१६८-१६८)
३. महापरिनिब्बानसुत्तं
८१
अनुधम्मचारिनियो, सकं आचरियकं उग्गहेत्वा आचिक्खन्ति देसेन्ति पञ्चपेन्ति पट्ठपेन्ति विवरन्ति विभजन्ति उत्तानीकरोन्ति, उप्पन्नं परप्पवादं सहधम्मेन सुनिग्गहितं निग्गहेत्वा सप्पाटिहारियं धम्मं देसेन्ति । परिनिब्बातु दानि, भन्ते, भगवा; परिनिब्बातु सुगतो, परिनिब्बानकालो दानि, भन्ते, भगवतो ।
“भासिता खो पनेसा, भन्ते, भगवता वाचा – 'न तावाहं, पापिम, परिनिब्बायिस्सामि, याव मे उपासका न सावका भविस्सन्ति वियत्ता विनीता विसारदा बहुस्सुता धम्मधरा धम्मानुधम्मप्पटिपन्ना सामीचिप्पटिपन्ना अनुधम्मचारिनो, सकं आचरियकं उग्गहेत्वा आचिक्खिस्सन्ति देसेस्सन्ति पञपेस्सन्ति पट्ठपेस्सन्ति विवरिस्सन्ति विभजिस्सन्ति उत्तानीकरिस्सन्ति, उप्पन्नं परप्पवादं सहधम्मेन सुनिग्गहितं निग्गहेत्वा सप्पाटिहारियं धम्म देसेस्सन्तीति । एतरहि खो पन, भन्ते, उपासका भगवतो सावका वियत्ता विनीता विसारदा बहुस्सुता धम्मधरा धम्मानुधम्मप्पटिपन्ना सामीचिप्पटिपन्ना अनुधम्मचारिनो, सकं आचरियकं उग्गहेत्वा आचिक्खन्ति देसेन्ति पञपेन्ति पट्ठन्ति विवरन्ति विभजन्ति उत्तानीकरोन्ति, उप्पन्नं परप्पवादं सहधम्मेन सुनिग्गहितं निग्गहेत्वा सप्पाटिहारियं धम्म देसेन्ति । परिनिब्बातु दानि, भन्ते, भगवा; परिनिब्बातु सुगतो, परिनिब्बानकालो दानि, भन्ते, भगवतो।
“भासिता खो पनेसा, भन्ते, भगवता वाचा - 'न तावाहं, पापिम परिनिब्बायिस्सामि, याव मे उपासिका न साविका भविस्सन्ति वियत्ता विनीता विसारदा बहुस्सुता धम्मधराधम्मानुधम्मप्पटिपन्ना सामीचिप्पटिपन्ना अनुधम्मचारिनियो, सकं आचरियकं उग्गहेत्वा आचिक्खिस्सन्ति देसेस्सन्ति पञपेस्सन्ति पट्ठपेस्सन्ति विवरिस्सन्ति विभजिस्सन्ति उत्तानीकरिस्सन्ति, उप्पन्नं परप्पवादं सहधम्मेन सुनिग्गहितं निग्गहेत्वा सप्पाटिहारियं धम्म देसेस्सन्ती'ति । एतरहि खो पन, भन्ते, उपासिका भगवतो साविका वियत्ता विनीता विसारदा बहुस्सुता धम्मधरा धम्मानुधम्मप्पटिपन्ना सामीचिप्पटिपन्ना अनुधम्मचारिनियो, सकं आचरियकं उग्गहेत्वा आचिक्खन्ति देसेन्ति पञपेन्ति पट्टपेन्ति विवरन्ति विभजन्ति उत्तानीकरोन्ति, उप्पन्नं परप्पवादं सहधम्मेन सुनिग्गहितं निग्गहेत्वा सप्पाटिहारियं धम्म देसेन्ति । परिनिब्बातु दानि, भन्ते, भगवा; परिनिब्बातु सुगतो, परिनिब्बानकालो दानि, भन्ते, भगवतो।
“भासिता
खो
पनेसा, भन्ते, भगवता वाचा - 'न तावाहं, पापिम,
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दीघनिकायो-२
( २.३.१६९-१७०)
परिनिब्बायिस्सामि, याव मे इदं ब्रह्मचरियं न इद्धं चेव भविस्सति फीतञ्च वित्थारिकं बाहु पुथुभूतं याव देवमनुस्सेहि सुप्पकासित 'न्ति । एतरहि खो पन, भन्ते, भगवतो ब्रह्मचरियं इद्धं चेव फीतञ्च वित्थारिकं बाहुजञ्जं पुथुभूतं, याव देवमनुस्सेहि सुप्पकासितं । परिनिब्बातु दानि, भन्ते, भगवा; परिनिब्बातु सुगतो, परिनिब्बान कालो दानि, भन्ते, भगवतो 'ति ।
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एवं वुत्ते भगवा मारं पापिमन्तं एतदवोच - " अप्पोस्सुक्को त्वं, पापिम, होहि, न चिरं तथागतस्स परिनिब्बानं भविस्सति । इतो तिण्णं मासानं अच्चयेन तथागतो परिनिब्बायिस्सती'ति ।
आयुसङ्घार ओस्सज्जनं
१६९. अथ खो भगवा चापाले चेतिये सतो सम्पजानो आयुसङ्घारं ओस्सजि । ओस्सट्टे च भगवता आयुसङ्घारे महाभूमिचालो अहोसि भिसनको सलोमहंसो, देवदुन्दुभियो च फलिंसु । अथ खो भगवा एतमत्थं विदित्वा तायं वेलायं इमं उदानं उदानेसि -
" तुलमतुलञ्च सम्भवं भवसङ्घारमवस्सजि मुनि ।
अज्झत्तरतो समाहितो, अभिन्दि कवचमिवत्तसम्भव "न्ति । ।
महाभूमिचालहेतु
१७०. अथ खो आयस्मतो आनन्दस्स एतदहोसि - " अच्छरियं वत भो, अब्भुतं वत भो, महा वतायं भूमिचालो; सुमहा वतायं भूमिचालो भिंसनको सलोमहंसो ; देवदुन्दुभियो च फलिंसु । को नु खो हेतु को पच्चयो महतो भूमिचालस्स पातुभावाया "ति ?
अथ खो आयस्मा आनन्दो येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि, एकमन्तं निसिन्नो खो आयस्मा आनन्दो भगवन्तं एतदवोच - “अच्छरियं, भन्ते, अब्भुतं, भन्ते, महा वतायं, भन्ते, भूमिचालो; सुमहा
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(२.३.१७१-१७१)
३. महापरिनिब्बानसुत्तं
वतायं, भन्ते, भूमिचालो भिंसनको सलोमहंसो; देवदुन्दुभियो च फलिंसु । को नु खो, भन्ते, हेतु को पच्चयो महतो भूमिचालस्स पातुभावाया''ति ?
१७१. “अट्ठ खो इमे, आनन्द, हेतू, अट्ठ पच्चया महतो भूमिचालस्स पातुभावाय । कतमे अट्ठ ? अयं, आनन्द, महापथवी उदके पतिट्ठिता, उदकं वाते पतिद्वितं, वातो आकासट्ठो । होति खो सो, आनन्द, समयो, यं महावाता वायन्ति । महावाता वायन्ता उदकं कम्पेन्ति । उदकं कम्पितं पथविं कम्पेति । अयं पठमो हेतु, पठमो पच्चयो महतो भूमिचालस्स पातुभावाय ।
“पुन चपरं, आनन्द, समणो वा होति ब्राह्मणो वा इद्धिमा चेतोवसिप्पत्तो, देवो वा महिद्धिको महानुभावो, तस्स परित्ता पथवीसा भाविता होति, अप्पमाणा आपोसञा । सो इमं पथविं कम्पेति सङ्कम्पेति सम्पकम्पेति सम्पवेधेति । अयं दुतियो हेतु दुतियो पच्चयो महतो भूमिचालस्स पातुभावाय ।
“पुन चपरं, आनन्द, यदा बोधिसत्तो तुसितकाया चवित्वा सतो सम्पजानो मातकुच्छिं ओक्कमति, तदायं पथवी कम्पति सङ्कम्पति सम्पकम्पति सम्पवेधति । अयं ततियो हेतु ततियो पच्चयो महतो भूमिचालस्स पातुभावाय ।
“पुन चपरं, आनन्द, यदा बोधिसत्तो सतो सम्पजानो मातुकुच्छिस्मा निक्खमति, तदायं पथवी कम्पति सङ्कम्पति सम्पकम्पति सम्पवेधति । अयं चतुथो हेतु चतुत्थो पच्चयो महतो भूमिचालस्स पातुभावाय ।
“पुन चपरं, आनन्द, यदा तथागतो अनुत्तरं सम्मासम्बोधिं अभिसम्बुज्झति, तदायं पथवी कम्पति सङ्कम्पति सम्पकम्पति सम्पवेधति । अयं पञ्चमो हेतु पञ्चमो पच्चयो महतो भूमिचालस्स पातुभावाय ।
“पुन चपरं, आनन्द, यदा तथागतो अनुत्तरं धम्मचक्कं पवत्तेति, तदायं पथवी कम्पति सम्पति सम्पकम्पति सम्पवेधति । अयं छट्ठो हेतु छट्ठो पच्चयो महतो भूमिचालस्स पातुभावाय ।
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दीघनिकायो-२
(२.३.१७२-१७२)
"पुन चपरं, आनन्द, यदा तथागतो सतो सम्पजानो आयुसवारं ओस्सज्जति, तदायं पथवी कम्पति सङ्कम्पति सम्पकम्पति सम्पवेधति । अयं सत्तमो हेतु सत्तमो पच्चयो महतो भूमिचालस्स पातुभावाय ।
"पुन चपरं, आनन्द, यदा तथागतो अनुपादिसेसाय निब्बानधातुया परिनिब्बायति, तदायं पथवी कम्पति सङ्कम्पति सम्पकम्पति सम्पवेधति । अयं अट्ठमो हेतु अट्ठमो पच्चयो महतो भूमिचालस्स पातुभावाय । “इमे खो, आनन्द, अट्ट हेतू, अट्ठ पच्चया महतो भूमिचालस्स पातुभावाया''ति ।
अट्ठ परिसा
१७२. “अट्ठ खो इमा, आनन्द, परिसा। कतमा अट्ठ? खत्तियपरिसा, ब्राह्मणपरिसा, गहपतिपरिसा, समणपरिसा, चातुमहाराजिकपरिसा, तावतिसपरिसा, मारपरिसा, ब्रह्मपरिसा । अभिजानामि खो पनाहं, आनन्द, अनेकसतं खत्तियपरिसं उपसङ्कमिता। तत्रपि मया सन्निसिन्नपुब्बं चेव सल्लपितपुब्बञ्च साकच्छा च समापज्जितपुब्बा | तत्थ यादिसको तेसं वण्णो होति, तादिसको महं वण्णो होति । यादिसको तेसं सरो होति, तादिसको महं सरो होति । धम्मिया कथाय सन्दस्सेमि समादपेमि समुत्तेजेमि सम्पहंसेमि । भासमानञ्च मं न जानन्ति -- 'को नु खो अयं भासति देवो वा मनुस्सो वा ति ? धम्मिया कथाय सन्दस्सेत्वा समादपेत्वा समुत्तेजेत्वा सम्पहंसेत्वा अन्तरधायामि । अन्तरहितञ्च मं न जानन्ति – 'को नु खो अयं अन्तरहितो देवो वा मनुस्सो वा'ति ? अभिजानामि खो पनाहं, आनन्द, अनेकसतं ब्राह्मणपरिसं...पे०... गहपतिपरिसं... समणपरिसं... चातुमहाराजिकपरिसं... तावतिंसपरिसं... मारपरिसं... ब्रह्मपरिसं उपसङ्कमिता । तत्रपि मया सन्निसिन्नपुब्बं चेव सल्लपितपुब्बञ्च साकच्छा च समापज्जितपुब्बा । तत्थ यादिसको तेसं वण्णो होति, तादिसको महं वण्णो होति । यादिसको तेसं सरो होति, तादिसको महं सरो होति । धम्मिया कथाय सन्दस्सेमि समादपेमि समुत्तेजेमि सम्पहंसेमि। भासमानञ्च मं न जानन्ति - 'को नु खो अयं भासति देवो वा मनुस्सो वा'ति ? धम्मिया कथाय सन्दस्सेत्वा समादपेत्वा समुत्तेजेत्वा सम्पहंसेत्वा अन्तरधायामि । अन्तरहितञ्च मं न जानन्ति – 'को नु खो अयं अन्तरहितो देवो वा मनुस्सो वा'ति ? इमा खो, आनन्द, अट्ठ परिसा।
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३. महापरिनिब्बानसुत्तं
अट्ठ अभिभायतनानि
१७३. " अट्ठ खो इमानि आनन्द, अभिभायतनानि । कतमानि अट्ठ" ? “अज्झत्तं रूपसञ्जी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति परित्तानि सुवण्णदुब्बण्णानि । 'तानि अभिभूय्य जानामि पस्सामी 'ति एवंसञ्जी होति । इदं पठमं अभिभायतनं ।
(२.३.१७३-१७३)
7
“अज्झत्तं रूपसञ्जी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति अप्पमाणानि सुवण्णदुब्बण्णानि । 'तानि अभिभुय्य जानामि पस्सामी ति एवंसञ्जी होति । इदं दुतियं अभिभायतनं ।
‘“अज्झत्तं अरूपसञ्जी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति परित्तानि सुवण्णदुब्बण्णानि । 'तानि अभिभूय्य जानामि पस्सामी 'ति एवंसञ्जी होति । इदं ततियं अभिभायतनं ।
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" अज्झत्तं अरूपसञ्जी एको बहद्धा रूपानि पस्सति अप्पमाणानि सुवण्णदुब्बण्णानि । 'तानि अभिभुय्य जानामि पस्सामी 'ति एवंसञ्जी होति । इदं चतुत्थं अभिभायतनं ।
“अज्झत्तं अरूपसञ्जी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति नीलानि नीलवण्णानि नीलनिदस्सनानि नीलनिभासानि । सेय्यथापि नाम उमापुप्फं नीलं नीलवण्णं नीलनिदस्सनं नीलनिभासं । सेय्यथा वा पन तं वत्थं बाराणसेय्यकं उभतोभागविमट्टं नीलं नीलवण्णं नीलनिदस्सनं नीलनिभासं । एवमेव अज्झत्तं अरूपसञ्जी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति नीलानि नीलवण्णानि नीलनिदस्सनानि नीलनिभासानि । 'तानि अभिभूय्य जाना पस्सामी 'ति एवंसञ्ञी होति । इदं पञ्चमं अभिभायतनं ।
"अज्झत्तं अरूपसञ्ञी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति पीतानि पीतवण्णानि पीतनिदस्सनानि पीतनिभासानि । सेय्यथापि नाम कणिकारपुप्फं पीतं पीतवण्णं पीतनिदस्सनं पीतनिभासं । सेय्यथा वा पन तं वत्थं बाराणसेय्यकं उभतोभागविमट्टं पीतं पीतवण्णं पीतनिदस्सनं पीतनिभासं । एवमेव अज्झत्तं अरूपसज्ञी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति पीतानि पीतवण्णानि पीतनिदस्सनानि पीतनिभासानि । 'तानि अभिभूय्य जान पस्सामी 'ति एवंसञ्जी होति । इदं छटुं अभिभायतनं ।
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दीघनिकायो-२
(२.३.१७४-१७४)
“अज्झत्तं अरूपसञ्जी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति लोहितकानि लोहितकवण्णानि लोहितकनिदस्सनानि लोहितकनिभासानि । सेय्यथापि नाम बन्धुजीवकपुष्कं लोहितकं लोहितकवण्णं लोहितकनिदस्सनं लोहितकनिभासं । सेय्यथा वा पन तं वत्थं बाराणसेय्यकं उभतोभागविमटुं लोहितकं लोहितकवण्णं लोहितकनिदस्सनं लोहितकनिभासं । एवमेव अज्झत्तं अरूपसञी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति लोहितकानि लोहितकवण्णानि लोहितकनिदस्सनानि लोहितकनिभासानि | 'तानि अभिभुय्य जानामि पस्सामी'ति एवंसञ्जी होति । इदं सत्तमं अभिभायतनं ।
___“अज्झत्तं अरूपसञी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति ओदातानि ओदातवण्णानि ओदातनिदस्सनानि ओदातनिभासानि । सेय्यथापि नाम ओसधितारका ओदाता ओदातवण्णा ओदातनिदस्सना ओदातनिभासा । सेय्यथा वा पन तं वत्थं बाराणसेय्यकं उभतोभागविमटुं ओदातं ओदातवण्णं ओदातनिदस्सनं ओदातनिभासं । एवमेव अज्झत्तं अरूपसञी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति ओदातानि ओदातवण्णानि ओदातनिदस्सनानि ओदातनिभासानि । 'तानि अभिभुय्य जानामि पस्सामी'ति एवंसजी होति । इदं अट्ठमं अभिभायतनं । इमानि खो, आनन्द, अट्ठ अभिभायतनानि ।
अट्ठ विमोक्खा
१७४. “अट्ठ खो इमे, आनन्द, विमोक्खा । कतमे अट्ठ ? रूपी रूपानि पस्सति, अयं पठमो विमोक्खो । अज्झत्तं अरूपसञी बहिद्धा रूपानि पस्सति, अयं दुतियो विमोक्खो। सुभन्तेव अधिमुत्तो होति, अयं ततियो विमोक्खो। सब्बसो रूपसञानं समतिक्कमा पटिघसञानं अत्थङ्गमा नानत्तसञानं अमनसिकारा 'अनन्तो आकासो'ति आकासानञ्चायतनं उपसम्पज्ज विहरति, अयं चतुत्थो विमोक्खो। सब्बसो आकासानञ्चायतनं समतिक्कम्म 'अनन्तं विज्ञाण'न्ति विज्ञाणञ्चायतनं उपसम्पज्ज विहरति, अयं पञ्चमो विमोक्खो। सब्बसो विज्ञाणञ्चायतनं समतिक्कम्म 'नस्थि किञ्ची'ति आकिञ्चायतनं उपसम्पज्ज विहरति, अयं छट्ठो विमोक्खो। सब्बसो
आकिञ्चञआयतनं समतिक्कम्म नेवसानासचायतनं उपसम्पज्ज विहरति । अयं सत्तमो विमोक्खो। सब्बसो नेवसञ्जानासायतनं समतिक्कम्म सञआवेदयितनिरोधं उपसम्पज्ज विहरति, अयं अट्ठमो विमोक्खो। इमे खो, आनन्द, अट्ठ विमोक्खा ।
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(२.३.१७५-१७५)
३. महापरिनिब्बानसुत्तं
१७५. “एकमिदाहं, आनन्द, समयं उरुवेलायं विहरामि नज्जा नेरञ्जराय तीरे अजपालनिग्रोधे पठमाभिसम्बुद्धो । अथ खो, आनन्द, मारो पापिमा येनाहं तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा एकमन्तं अट्ठासि । एकमन्तं ठितो खो, आनन्द, मारो पापिमा मं एतदवोच - ‘परिनिब्बातु दानि, भन्ते, भगवा; परिनिब्बातु सुगतो, परिनिब्बानकालो दानि, भन्ते, भगवतो'ति । एवं वुत्ते अहं, आनन्द, मारं पापिमन्तं एतदवोचं -
__न तावाहं, पापिम, परिनिब्बायिस्सामि, याव मे भिक्खू न सावका भविस्सन्ति वियत्ता विनीता विसारदा बहुस्सुता धम्मधरा धम्मानुधम्मप्पटिपन्ना सामीचिप्पटिपन्ना अनुधम्मचारिनो, सकं आचरियकं उग्गहेत्वा आचिक्खिस्सन्ति देसेस्सन्ति पञपेस्सन्ति पठ्ठपेस्सन्ति विवरिस्सन्ति विभजिस्सन्ति उत्तानीकरिस्सन्ति, उप्पन्नं परप्पवाद सहधम्मेन सुनिग्गहितं निग्गहेत्वा सप्पाटिहारियं धम्म देसेस्सन्ति ।
“न तावाहं, पापिम, परिनिब्बायिस्सामि, याव मे भिक्खुनियो न साविका भविस्सन्ति वियत्ता विनीता विसारदा बहुस्सुता धम्मधरा धम्मानुधम्मप्पटिपन्ना सामीचिप्पटिपन्ना अनुधम्मचारिनियो, सकं आचरियकं उग्गहेत्वा आचिक्खिस्सन्ति देसेस्सन्ति पञपेस्सन्ति पट्ठपेस्सन्ति विवरिस्सन्ति विभजिस्सन्ति उत्तानीकरिस्सन्ति, उप्पन्नं परप्पवादं सहधम्मेन सुनिग्गहितं निग्गहेत्वा सप्पाटिहारियं धम्मं देसेस्सन्ति ।
"न तावाहं, पापिम, परिनिब्बायिस्सामि, याव मे उपासका न सावका भविस्सन्ति वियत्ता विनीता विसारदा बहुस्सुता धम्मधरा धम्मानुधम्मप्पटिपन्ना सामीचिप्पटिपन्ना अनुधम्मचारिनो, सकं आचरियकं उग्गहेत्वा आचिक्खिस्सन्ति देसेस्सन्ति पञपेस्सन्ति पट्ठपेस्सन्ति विवरिस्सन्ति विभजिस्सन्ति उत्तानीकरिस्सन्ति, उप्पन्नं परप्पवादं सहधम्मेन सुनिग्गहितं निग्गहेत्वा सप्पाटिहारियं धम्मं देसेस्सन्ति ।।
“न तावाहं, पापिम, परिनिब्बायिस्सामि, याव मे उपासिका न साविका भविस्सन्ति वियत्ता विनीता विसारदा बहुस्सुता धम्मधरा धम्मानुधम्मप्पटिपन्ना सामीचिप्पटिपन्ना अनुधम्मचारिनियो, सकं आचरियकं उग्गहेत्वा आचिक्खिस्सन्ति देसेस्सन्ति पञपेस्सन्ति पट्टपेस्सन्ति विवरिस्सन्ति विभजिस्सन्ति उत्तानीकरिस्सन्ति, उप्पन्नं परप्पवादं सहधम्मेन सुनिग्गहितं निग्गहेत्वा सप्पाटिहारियं धम्मं देसेस्सन्ति ।
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दीघनिकायो-२
(२.३.१७६-१७८)
“न तावाहं, पापिम, परिनिब्बायिस्सामि, याव मे इदं ब्रह्मचरियं न इद्धञ्चेव भविस्सति फीतञ्च वित्थारिकं बाहुजनं पुथुभूतं याव देवमनुस्सेहि सुप्पकासित"न्ति ।
१७६. “इदानेव खो, आनन्द, अज्ज चापाले चेतिये मारो पापिमा येनाहं तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा एकमन्तं अट्ठासि । एकमन्तं ठितो खो, आनन्द, मारो पापिमा मं एतदवोच – 'परिनिब्बातु दानि, भन्ते, भगवा; परिनिब्बातु सुगतो, परिनिब्बानकालो दानि, भन्ते. भगवतो। भासिता खो पनेसा, भन्ते, भगवता वाचा- न तावाहं, पापिम, परिनिब्बायिस्सामि, याव मे भिक्खू न सावका भविस्सन्ति...पे०... याव मे भिक्खुनियो न साविका भविस्सन्ति...पे०... याव मे उपासका न सावका भविस्सन्ति...पे०... याव मे उपासिका न साविका भविस्सन्ति...पे०... याव मे इदं ब्रह्मचरियं न इद्धञ्चेव भविस्सति फीतञ्च वित्थारिकं बाहुजनं पुथुभूतं, याव देवमनुस्सेहि सुप्पकासित'न्ति । एतरहि खो पन, भन्ते, भगवतो ब्रह्मचरियं इद्धञ्चेव फीतञ्च वित्थारिकं बाहुजनं पुथुभूतं, याव देवमनुस्सेहि सुप्पकासितं । परिनिब्बातु दानि, भन्ते, भगवा; परिनिब्बातु सुगतो. परिनिब्बानकालो दानि. भन्ते. भगवतो"ति ।
१७७. “एवं वुत्ते, अहं, आनन्द, मारं पापिमन्तं एतदवोचं – 'अप्पोस्सुक्को त्वं, पापिम, होहि, नचिरं तथागतस्स परिनिब्बानं भविस्सति । इतो तिण्णं मासानं अच्चयेन तथागतो परिनिब्बायिस्सती'ति । इदानेव खो, आनन्द, अज्ज चापाले चेतिये तथागतेन सतेन सम्पजानेन आयुसङ्घारो ओस्सट्ठो"ति।
आनन्दयाचनकथा
१७८. एवं वुत्ते आयस्मा आनन्दो भगवन्तं एतदवोच – “तिद्वतु, भन्ते, भगवा कप्पं, तिहतु सुगतो कप्पं बहुजनहिताय बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सान''न्ति ।
“अलंदानि, आनन्द । मा तथागतं याचि, अकालो दानि, आनन्द, तथागतं याचनाया'ति । दुतियम्पि खो आयस्मा आनन्दो...पे०... ततियम्पि खो आयस्मा आनन्दो भगवन्तं एतदवोच - “तिद्वतु, भन्ते, भगवा कप्पं, तिट्टतु सुगतो कप्पं बहुजनहिताय बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सान''न्ति ।
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३. महापरिनिब्बानसुत्तं
“सद्दहसि त्वं, आनन्द, तथागतस्स बोधि "न्ति ? “ एवं, भन्ते” । “अथ किञ्चरहि त्वं, आनन्द, तथागतं यावततियकं अभिनिप्पीळेसी "ति ? " सम्मुखा मेतं, भन्ते, भगवतो सुतं सम्मुखा पटिग्गहितं - 'यस्स कस्सचि, आनन्द, चत्तारो इद्धिपादा भाविता बहुलीकता यानीकता वत्थुकता अनुट्ठिता परिचिता सुसमारद्धा, सो आकङ्खमानो कप्पं वा तिट्ठेय्य कप्पावसेसं वा । तथागतस्स खो, आनन्द, चत्तारो इद्विपादा भाविता बहुलीकता यानीकता वत्थुकता अनुट्टिता परिचिता सुसमारद्धा । सो आकङ्खमानो, आनन्द, तथागत कप्पं वा तिट्ठेय्य कप्पावसेसं वा'ति । ' सद्दहसि त्वं, आनन्दाति ? ' एवं, भन्ते' | तस्मातिहानन्द, तुम्हेवेतं दुक्कटं, तुम्हेवेतं अपरद्धं, यं त्वं तथागतेन एवं ओळारिके निमित्ते कयिरमाने ओळारिके ओभासे कयिरमाने नासक्खि पटिविज्झितुं, न तथागतं याचि - 'तिट्ठतु, भन्ते, भगवा कप्पं, तिट्ठतु सुगतो कप्पं बहुजनहिताय बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सान 'न्ति । सचे त्वं, आनन्द, तथागतं याचेय्यासि, द्वेव ते वाचा तथागतो पटिक्खिपेय्य, अथ ततियकं अधिवासेय्य । तस्मातिहानन्द, तुम्हेवेतं दुक्कटं, तुम्हेवेतं अपरद्धं ।
( २.३.१७९ - १८० )
१७९. “एकमिदाहं, आनन्द, समयं राजगहे विहरामि गिज्झकूटे पब्बते । तत्रापि खो ताहं, आनन्द, आमन्तेसिं- 'रमणीयं, आनन्द, राजगहं, रमणीयो, आनन्द, गिज्झकूटो पब्बतो। यस्स कस्सचि, आनन्द, चत्तारो इद्विपादा भाविता बहुलीका यानीकता वत्थुकता अनुट्ठिता परिचिता सुसमारद्धा, सो आकङ्घमानो कप्पं वा तिट्ठेय्य कप्पावसेसं वा । तथागतस्स खो, आनन्द, चत्तारो इद्विपादा भाविता बहुलीकता यानीकता वत्थुकता अनुट्ठिता परिचिता सुसमारद्धा, सो आकङ्घमानो, आनन्द, तथागतो कप्पं वा तिट्ठेय्य कप्पावसेसं वा'ति । एवम्पि खो त्वं, आनन्द, तथागतेन ओळारिके निमित्ते कयिरमाने ओळारिके ओभासे कयिरमाने नासक्खि पटिविज्झितुं, न तथागतं याचि - 'तिट्ठतु, भन्ते, भगवा कप्पं, तिट्ठतु सुगतो कप्पं बहुजनहिताय बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सान' न्ति । सचे त्वं, आनन्द, तथागतं याचेय्यासि, द्वे ते वाचा तथागतो पटिक्खिपेय्य, अथ ततियकं अधिवासेय्य । तस्मातिहानन्द, तुम्हेवेतं दुक्कटं, तुम्हेवेतं अपरद्धं ।
१८०. “एकमिदाहं, आनन्द, समयं तत्थेव राजगहे विहरामि गोतमनिग्रोधे ... पे०.... तत्थेव राजगहे विहरामि चोरपपाते... तत्थेव राजग विहरामि वेभारपस्से सत्तपण्णिगुहायं... तत्थेव राजगहे विहरामि इसिगिलिपस्से काळसिलायं... तत्थेव राजग
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दीघनिकायो-२
(२.३.१८१-१८२)
विहरामि सीतवने सप्पसोण्डिकपब्भारे... तत्थेव राजगहे विहरामि तपोदारामे... तत्थेव राजगहे विहरामि वेळुवने कलन्दकनिवापे... तत्थेव राजगहे विहरामि जीवकम्बवने... तत्थेव राजगहे विहरामि मद्दकुच्छिस्मिं मिगदाये... तत्रापि खो ताहं, आनन्द, आमन्तेसिं- 'रमणीयं, आनन्द, राजगह, रमणीयो गिज्झकूटो पब्बतो, रमणीयो गोतमनिग्रोधो, रमणीयो चोरपपातो, रमणीया वेभारपस्से सत्तपण्णिगुहा, रमणीया इसिगिलिपस्से काळसिला, रमणीयो सीतवने सप्पसोण्डिकपब्भारो, रमणीयो तपोदारामो, रमणीयो वेळवने कलन्दकनिवापो. रमणीयं जीवकम्बवनं. रमणीयो महकच्छिस्मिं मिगदायो। यस्स कस्सचि. आनन्द. चत्तारो इद्धिपादा भाविता बहलीकता र नीकता वत्थुकता अनुट्ठिता परिचिता सुसमारद्धा...पे०... आकङ्खमानो, आनन्द, तथागतो कप्पं वा
देय्य कप्पावसेसं वाति । एवम्पि खो त्वं. आनन्द तथागतेन ओळारिके निमित्ते कयिरमाने ओळारिके ओभासे कयिरमाने नासक्खि पटिविज्झितुं, न तथागतं याचि'तिट्टतु, भन्ते, भगवा कप्पं, तिठ्ठतु सुगतो कप्पं बहुजनहिताय बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सान'न्ति । सचे त्वं, आनन्द, तथागतं याचेय्यासि, देव ते वाचा तथागतो पटिक्खिपेय्य, अथ ततियकं अधिवासेय्य । तस्मातिहानन्द, तुम्हेवेतं दुक्कटं, तुम्हेवेतं अपरद्धं ।
१८१. “एकमिदाहं, आनन्द, समयं इधेव वेसालियं विहरामि उदेने चेतिये । तत्रापि खो ताहं, आनन्द, आमन्तेसिं- 'रमणीया, आनन्द, वेसाली, रमणीयं उदेनं चेतियं । यस्स कस्सचि, आनन्द, चत्तारो इद्धिपादा भाविता बहुलीकता यानीकता वत्थुकता अनुट्टिता परिचिता सुसमारद्धा, सो आकङ्खमानो कप्पं वा तिट्टेय्य कप्पावसेसं वा । तथागतस्स खो, आनन्द, चत्तारो इद्धिपादा भाविता बहुलीकता यानीकता वत्थुकता अनुट्ठिता परिचिता सुसमारद्धा, सो आकङ्खमानो, आनन्द, तथागतो कप्पं वा तिढेय्य कप्पावसेसं वा'ति । एवम्पि खो त्वं, आनन्द, तथागतेन ओळारिके निमित्ते कयिरमाने
ओळारिके ओभासे कयिरमाने नासक्खि पटिविज्झितुं, न तथागतं याचि – 'तिद्वतु, भन्ते, भगवा कप्पं, तिठ्ठतु सुगतो कप्पं बहुजनहिताय बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सान'न्ति । सचे त्वं, आनन्द, तथागतं याचेय्यासि, द्वेव ते वाचा तथागतो पटिक्खिपेय्य, अथ ततियकं अधिवासेय्य, तस्मातिहानन्द, तुम्हेवेतं दुक्कटं, तुम्हेवेतं अपरद्धं ।
१८२. “एकमिदाहं, आनन्द, समयं इधेव वेसालियं विहरामि गोतमके
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(२.३.१८३-१८३)
३. महापरिनिब्बानसुत्तं
चेतिये...पे०... इधेव वेसालियं विहरामि सत्तम्बे चेतिये... इधेव वेसालियं विहरामि बहुपुत्ते चेतिये... इधेव वेसालियं विहरामि सारन्ददे चेतिये... इदानेव खो ताहं, आनन्द, अज्ज चापाले चेतिये आमन्तेसिं - 'रमणीया, आनन्द, वेसाली, रमणीयं उदेनं चेतियं, रमणीयं गोतमकं चेतियं, रमणीयं सत्तम्बं चेतियं, रमणीयं बहुपुत्तं चेतियं, रमणीयं सारन्ददं चेतियं, रमणीयं चापालं चेतियं । यस्स कस्सचि, आनन्द, चत्तारो इद्धिपादा भाविता बहुलीकता यानीकता वत्थुकता अनुट्ठिता परिचिता सुसमारद्धा, सो आकङ्खमानो कप्पं वा तिढेय्य कप्पावसेसं वा । तथागतस्स खो, आनन्द, चत्तारो इद्धिपादा भाविता बहुलीकता यानीकता वत्थुकता अनुट्ठिता परिचिता सुसमारद्धा, सो आकङ्खमानो, आनन्द, तथागतो कप्पं वा तिट्टेय्य कप्पावसेसं वाति । एवम्पि खो त्वं, आनन्द, तथागतेन
ओळारिके निमित्ते कयिरमाने ओळारिके ओभासे कयिरमाने नासक्खि पटिविज्झितुं, न तथागतं याचि - 'तिठ्ठतु भगवा कप्पं, तिठ्ठतु सुगतो कप्पं बहुजनहिताय बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सान'न्ति । सचे त्वं, आनन्द, तथागतं याचेय्यासि, द्वेव ते वाचा तथागतो पटिक्खिपेय्य, अथ ततियकं अधिवासेय्य । तस्मातिहानन्द, तुम्हेवेतं दुक्कटं, तुम्हेवेतं अपरद्धं ।
१८३. ननु एतं, आनन्द, मया पटिकच्चेव अक्खातं - 'सब्बेहेव पियेहि मनापेहि नानाभावो विनाभावो अञ्जथाभावो । तं कुतेत्थ, आनन्द, लब्भा, यं तं जातं भूतं सङ्खतं पलोकधम्मं, तं वत मा पलुज्जीति नेतं ठानं विज्जति'। यं खो पनेतं, आनन्द, तथागतेन चत्तं वन्तं मुत्तं पहीनं पटिनिस्सटुं ओस्सट्ठो आयुसङ्खारो, एकंसेन वाचा भासिता - 'न चिरं तथागतस्स परिनिब्बानं भविस्सति । इतो तिण्णं मासानं अच्चयेन तथागतो परिनिब्बायिस्सती'ति । तञ्च तथागतो जीवितहेतु पुन पच्चावमिस्सतीति नेतं ठानं विज्जति । “आयामानन्द, येन महावनं कूटागारसाला तेनुपसङ्कमिस्सामा''ति । “एवं, भन्ते"ति खो आयस्मा आनन्दो भगवतो पच्चस्सोसि ।
अथ खो भगवा आयस्मता आनन्देन सद्धिं येन महावनं कूटागारसाला तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा आयस्मन्तं आनन्दं आमन्तेसि - “गच्छ त्वं, आनन्द, यावतिका भिक्खू वेसालिं उपनिस्साय विहरन्ति, ते सब्बे उपट्टानसालायं सन्निपातेही''ति । “एवं, भन्ते''ति खो आयस्मा आनन्दो भगवतो पटिस्सुत्वा यावतिका भिक्खू वेसालिं उपनिस्साय विहरन्ति, ते सब्बे उपट्ठानसालायं सन्निपातेत्वा येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं अट्ठासि । एकमन्तं ठितो खो आयस्मा आनन्दो भगवन्तं
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दीघनिकायो-२
(२.३.१८४-१८५)
एतदवोच – “सन्निपतितो, भन्ते, भिक्खुसङ्घो, यस्स दानि, भन्ते, भगवा कालं मञ्जती''ति ।
१८४. अथ खो भगवा येनुपट्ठानसाला तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा पञत्ते आसने निसीदि । निसज्ज खो भगवा भिक्खू आमन्तेसि - "तस्मातिह, भिक्खवे, ये ते मया धम्मा अभिञा देसिता, ते वो साधुकं उग्गहेत्वा आसेवितब्बा भावेतब्बा बहुलीकातब्बा, यथयिदं ब्रह्मचरियं अद्धनियं अस्स चिरट्ठितिकं, तदस्स बहुजनहिताय बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सानं । कतमे च ते, भिक्खवे, धम्मा मया अभिञा देसिता, ये वो साधुकं उग्गहेत्वा आसेवितब्बा भावेतब्बा बहुलीकातब्बा, यथयिदं ब्रह्मचरियं अद्धनियं अस्स चिरद्वितिकं, तदस्स बहुजनहिताय बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सानं। सेय्यथिदं- चत्तारो सतिपट्टाना चत्तारो सम्मप्पधाना चत्तारो इद्धिपादा पञ्चिन्द्रियानि पञ्च बलानि सत्त बोज्झङ्गा अरियो अट्ठगिको मग्गो। इमे खो ते, भिक्खवे, धम्मा मया अभिञा देसिता, ये वो साधुकं उग्गहेत्वा आसेवितब्बा भावेतब्बा बहुलीकातब्बा, यथयिदं ब्रह्मचरियं अद्धनियं अस्स चिरट्ठितिकं, तदस्स बहुजनहिताय बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सान''न्ति ।
१८५. अथ खो भगवा भिक्खू आमन्तेसि- “हन्द दानि, भिक्खवे, आमन्तयामि वो, वयधम्मा सङ्घारा; अप्पमादेन सम्पादेथ । नचिरं तथागतस्स परिनिब्बानं भविस्सति । इतो तिण्णं मासानं अच्चयेन तथागतो परिनिब्बायिस्सती"ति । इदमवोच भगवा, इदं वत्वान सुगतो अथापरं एतदवोच सत्था
“परिपक्को वयो महं, परित्तं मम जीवितं । पहाय वो गमिस्सामि, कतं मे सरणमत्तनो ।।
"अप्पमत्ता सतीमन्तो, सुसीला होथ भिक्खवो । सुसमाहितसङ्कप्पा, सचित्तमनुरक्खथ ।।
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(२.३.१८६-१८६)
३. महापरिनिब्बानसुत्तं
“यो इमस्मिं धम्मविनये, अप्पमत्तो विहस्सति | पहाय जातिसंसारं, दुक्खस्सन्तं करिस्सती''ति ।।
ततियो भाणवारो।
नागापलोकितं
१८६. अथ खो भगवा पुब्बण्हसमयं निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय वेसालिं पिण्डाय पाविसि । वेसालियं पिण्डाय चरित्वा पच्छाभत्तं पिण्डपातप्पटिक्कन्तो नागापलोकितं वेसालिं अपलोकेत्वा आयस्मन्तं आनन्दं आमन्तेसि – “इदं पच्छिमकं, आनन्द, तथागतस्स वेसालिया दस्सनं भविस्सति । आयामानन्द, येन भण्डगामो तेनुपसङ्कमिस्सामा'ति । “एवं, भन्ते''ति खो आयस्मा आनन्दो भगवतो पच्चस्सोसि ।
अथ खो भगवा महता भिक्खुसङ्घन सद्धिं येन भण्डगामो तदवसरि । तत्र सुदं भगवा भण्डगामे विहरति । तत्र खो भगवा भिक्खू आमन्तेसि - “चतुन्नं, भिक्खवे, धम्मानं अननुबोधा अप्पटिवेधा एवमिदं दीघमद्धानं सन्धावितं संसरितं ममञ्चेव तुम्हाकञ्च । कतमेसं चतुन्नं ? अरियस्स, भिक्खवे, सीलस्स अननुबोधा अप्पटिवेधा एवमिदं दीघमद्धानं सन्धावितं संसरितं ममं चेव तुम्हाकञ्च । अरियस्स, भिक्खवे, समाधिस्स अननुबोधा अप्पटिवेधा एवमिदं दीघमद्धानं सन्धावितं संसरितं ममं चेव तुम्हाकञ्च । अरियाय, भिक्खवे, पाय अननुबोधा अप्पटिवेधा एवमिदं दीघमद्धानं सन्धावितं संसरितं ममं चेव तुम्हाकञ्च । अरियाय, भिक्खवे, विमुत्तिया अननुबोधा अप्पटिवेधा एवमिदं दीघमद्धानं सन्धावितं संसरितं ममं चेव तुम्हाकञ्च । तयिदं, भिक्खवे, अरियं सीलं अनुबुद्धं पटिविद्धं, अरियो समाधि अनुबुद्धो पटिविद्धो, अरिया पञ्जा अनुबुद्धा पटिविद्धा, अरिया विमुत्ति अनुबुद्धा पटिविद्धा, उच्छिन्ना भवतण्हा, खीणा भवनेत्ति, नथि दानि पुनभवो'ति। इदमवोच भगवा, इदं वत्वान सुगतो अथापरं एतदवोच सत्था -
"सीलं समाधि पञ्जा च, विमुत्ति च अनुत्तरा। अनुबुद्धा इमे धम्मा, गोतमेन यसस्सिना ।।
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दीघनिकायो-२
(२.३.१८७-१८८)
"इति बुद्धो अभिज्ञाय, धम्ममक्खासि भिक्खुनं । दुक्खस्सन्तकरो सत्था, चक्खुमा परिनिब्बुतो''ति ।।
तत्रापि सुदं भगवा भण्डगामे विहरन्तो एतदेव बहुलं भिक्खून धम्मिं कथं करोति"इति सील, इति समाधि, इति पञ्जा। सीलपरिभावितो समाधि महप्फलो होति महानिसंसो। समाधिपरिभाविता पञ्जा महप्फला होति महानिसंसा। पापरिभावितं चित्तं सम्मदेव आसवेहि विमुच्चति, सेय्यथिदं - कामासवा, भवासवा, अविज्जासवा"ति।
चतुमहापदेसकथा १८७. अथ खो भगवा भण्डगामे यथाभिरन्तं विहरित्वा आयस्मन्तं आनन्दं आमन्तेसि- “आयामानन्द, येन हथिगामो, येन अम्बगामो, येन जम्बुगामो, येन भोगनगरं तेनुपसङ्कमिस्सामा''ति । “एवं, भन्ते"ति खो आयस्मा आनन्दो भगवतो पच्चस्सोसि । अथ खो भगवा महता भिक्खुसङ्घन सद्धिं येन भोगनगरं तदवसरि | तत्र सुदं भगवा भोगनगरे विहरति आनन्दे चेतिये । तत्र खो भगवा भिक्खू आमन्तेसि - "चत्तारोमे, भिक्खवे, महापदेसे देसेस्सामि, तं सुणाथ; साधुकं मनसिकरोथ; भासिस्सामी''ति । “एवं, भन्ते''ति खो ते भिक्खू भगवतो पच्चस्सोसुं। भगवा एतदवोच -
१८८. “इध, भिक्खवे, भिक्खु एवं वदेय्य - ‘सम्मुखा मेतं, आवुसो, भगवतो सुतं सम्मुखा पटिग्गहितं, अयं धम्मो अयं विनयो इदं सत्थुसासनन्ति । तस्स, भिक्खवे, भिक्खुनो भासितं नेव अभिनन्दितब्बं नप्पटिक्कोसितब्बं । अनभिनन्दित्वा अप्पटिक्कोसित्वा तानि पदब्यञ्जनानि साधुकं उग्गहेत्वा सुत्ते ओसारेतब्बानि, विनये सन्दस्सेतब्बानि | तानि चे सुत्ते ओसारियमानानि विनये सन्दस्सियमानानि न चेव सुत्ते ओसरन्ति, न च विनये सन्दिस्सन्ति, निट्ठमेत्थ गन्तब् – 'अद्धा, इदं न चेव तस्स भगवतो वचनं; इमस्स च भिक्खुनो दुग्गहित'न्ति । इतिहेतं, भिक्खवे, छड्डेय्याथ । तानि चे सुत्ते ओसारियमानानि विनये सन्दस्सियमानानि सुत्ते चेव ओसरन्ति, विनये च सन्दिस्सन्ति, निट्ठमेत्थ गन्तब्बं - 'अद्धा, इदं तस्स भगवतो वचनं; इमस्स च भिक्खुनो सुग्गहित'न्ति । इदं, भिक्खवे, पठमं महापदेसं धारेय्याथ ।
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(२.३.१८८ - १८८)
३. महापरिनिब्बानसुत्तं
“इध पन, भिक्खवे, भिक्खु एवं वदेय्य - 'अमुकस्मिं नाम आवासे सङ्घो विहरति सथेरो सपामोक्खो | तस्स मे सङ्घस्स सम्मुखा सुतं सम्मुखा पटिग्गहितं, अयं धम्मो अयं विनयो इदं सत्थुसासन 'न्ति । तस्स, भिक्खवे, भिक्खुनो भासितं नेव अभिनन्दितब्बं नप्पटिक्कोसितब्बं | अनभिनन्दित्वा अप्पटिक्कोसित्वा तानि पदब्यञ्जनानि साधुकं उग्गहेत्वा सुत्ते ओसारेतब्बानि, विनये सन्दस्सेतब्बानि । तानि चे सुत्ते ओसारियमानानि विनये सन्दस्सियमानानि न चेव सुत्ते ओसरन्ति न च विनये सन्दिस्सन्ति, निट्ठमेत्थ गन्तब्बं – ‘अद्धा, इदं न चेव तस्स भगवतो वचनं तस्स च सङ्घस्स दुग्गहित 'न्ति । इतिहेतं, भिक्खवे, छड्डेय्याथ । तानि चे सुत्ते ओसारियमानानि विनये सन्दस्सियमानानि सुत्ते चेव ओसरन्ति विनये च सन्दिस्सन्ति, निट्ठमेत्थ गन्तब्बं - 'अद्धा, इदं तस्स भगवतो वचनं; तस्स च सङ्घस्स सुग्गहित 'न्ति । इदं भिक्खवे, दुतियं महापदेसं धारेय्याथ |
-
"इध पन, भिक्खवे, भिक्खु एवं वदेय्य - 'अमुकस्मिं नाम आवासे सम्बहुला भिक्खू विहरन्ति बहुस्सुता आगतागमा धम्मधरा विनयधरा मातिकाधरा । तेसं मे थेरानं सम्मुखा सुतं सम्मुखा पटिग्गहितं - अयं धम्मो अयं विनयो इदं सत्थुसासन 'न्ति । तस् भिक्खवे, भिक्खुनो भासितं नेव अभिनन्दितब्बं... पे०... न च विनये सन्दिस्सन्ति । निट्ठमेत्थ गन्तब्बं - 'अद्धा, इदं न चेव तस्स भगवतो वचनं; तेसञ्च थेरानं दुग्गहित 'न्ति । इतिहेतं, भिक्खवे, छड्डेय्याथ । तानि चे सुत्ते ओसारियमानानि ...पे०... विनये च सन्दिस्सन्ति, निट्ठमेत्थ गन्तब्बं - ' अद्धा, इदं तस्स भगवतो वचनं; तेसञ्च थेरानं सुग्गहित 'न्ति । इदं, भिक्खवे, ततियं महापदेसं धारेय्याथ |
"इध पन, भिक्खवे, भिक्खु एवं वदेय्य - 'अमुकस्मिं नाम आवासे एक थेरो भिक्खु विहरति बहुस्सुतो आगतागमो धम्मधरो विनयधरो मातिकाधरी । तस्स में थेरस्स सम्मुखा सुतं सम्मुखा पटिग्गहितं - अयं धम्मो अयं विनयो इदं सत्थुसासन 'न्ति । तस्स, भिक्खवे, भिक्खुनो भासितं नेव अभिनन्दितब्बं नप्पटिक्कोसितब्बं; अनभिनन्दित्वा अप्पटिक्कोसित्वा तानि पदब्यञ्जनानि साधुकं उग्गहेत्वा सुत्ते ओसारितब्बानि, विनये सन्दस्सेतब्बानि । तानि चे सुत्ते ओसारियमानानि विनये सन्दस्सियमानानि न चेव सुत्ते ओसरन्ति, न च विनये सन्दिस्सन्ति, निट्ठमेत्थ गन्तब्बं - ' अद्धा, इदं न चेव तस्स भगवतो वचनं; तस्स च थेरस्स दुग्गहित 'न्ति । इतिहेतं, भिक्खवे, छड्डेय्याथ । तानि च सुत्ते ओसारियमानानि विनये सन्दस्सियमानानि सुत्ते चेव ओसरन्ति, विनये च
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दीघनिकायो-२
(२.३.१८९-१८९)
सन्दिस्सन्ति, निट्ठमेत्थ गन्तब्बं - 'अद्धा, इदं तस्स भगवतो वचनं; तस्स च थेरस्स सुग्गहित'न्ति । इदं, भिक्खवे, चतुत्थं महापदेसं धारेय्याथ । इमे खो, भिक्खवे, चत्तारो महापदेसे धारेय्याथा"ति ।
तत्रपि सुदं भगवा भोगनगरे विहरन्तो आनन्दे चेतिये एतदेव बहुलं भिक्खून धम्मि कथं करोति- “इति सीलं, इति समाधि, इति पञा। सीलपरिभावितो समाधि महप्फलो होति महानिसंसो। समाधिपरिभाविता पञ्जा महप्फला होति महानिसंसा। पापरिभावितं चित्तं सम्मदेव आसवेहि विमुच्चति, सेय्यथिदं- कामासवा, भवासवा, अविज्जासवा"ति।
कम्मारपुत्तचुन्दवत्थु १८९. अथ खो भगवा भोगनगरे यथाभिरन्तं विहरित्वा आयस्मन्तं आनन्दं आमन्तेसि - “आयामानन्द, येन पावा तेनुपसङ्कमिस्सामा''ति । “एवं, भन्ते''ति खो आयस्मा आनन्दो भगवतो पच्चस्सोसि । अथ खो भगवा महता भिक्खुसङ्घन सद्धिं येन पावा तदवसरि । तत्र सुदं भगवा पावायं विहरति चुन्दस्स कम्मारपुत्तस्स अम्बवने । अस्सोसि खो चुन्दो कम्मारपुत्तो – “भगवा किर पावं अनुप्पत्तो, पावायं विहरति महं अम्बवने''ति । अथ खो चुन्दो कम्मारपुत्तो येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि । एकमन्तं निसिन्नं खो चुन्दं कम्मारपुत्तं भगवा धम्मिया कथाय सन्दस्सेसि समादपेसि समुत्तेजेसि सम्पहंसेसि । अथ खो चुन्दो कम्मारपुत्तो भगवता धम्मिया कथाय सन्दस्सितो समादपितो समुत्तेजितो सम्पहंसितो भगवन्तं एतदवोच - “अधिवासेतु मे, भन्ते, भगवा स्वातनाय भत्तं सद्धिं भिक्खुसङ्घना''ति । अधिवासेसि भगवा तुण्हीभावेन । अथ खो चुन्दो कम्मारपुत्तो भगवतो अधिवासनं विदित्वा उट्ठायासना भगवन्तं अभिवादेत्वा पदक्खिणं कत्वा पक्कामि ।
___ अथ खो चुन्दो कम्मारपुत्तो तस्सा रत्तिया अच्चयेन सके निवेसने पणीतं खादनीयं भोजनीयं पटियादापेत्वा पहूतञ्च सूकरमद्दवं भगवतो कालं आरोचापेसि - “कालो, भन्ते, निहितं भत्त"न्ति । अथ खो भगवा पुब्बण्हसमयं निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय सद्धिं भिक्खुसङ्घन येन चुन्दस्स कम्मारपुत्तस्स निवेसनं तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा पञत्ते आसने निसीदि । निसज्ज खो भगवा चुन्दं कम्मारपुत्तं आमन्तेसि – “यं ते, चुन्द, सूकरमद्दवं पटियत्तं, तेन मं परिविस । यं पनजं खादनीयं भोजनीयं पटियत्तं, तेन
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(२.३.१९०-१९१)
३. महापरिनिब्बानसुत्तं
भिक्खुसद्धं परिविसा''ति । “एवं, भन्ते''ति खो चुन्दो कम्मारपुत्तो भगवतो पटिस्सुत्वा यं अहोसि सूकरमद्दवं पटियत्तं, तेन भगवन्तं परिविसि । यं पननं खादनीयं भोजनीयं पटियत्तं, तेन भिक्खुसद्धं परिविसि । अथ खो भगवा चुन्दं कम्मारपुत्तं आमन्तेसि -- “यं ते, चुन्द, सूकरमद्दवं अवसिटुं, तं सोब्भे निखणाहि । नाहं तं, चुन्द, पस्सामि सदेवके लोके समारके सब्रह्मके सस्समणब्राह्मणिया पजाय सदेवमनुस्साय, यस्स तं परिभुत्तं सम्मा परिणामं गच्छेय्य अत्र तथागतस्सा'ति । “एवं, भन्ते''ति खो चुन्दो कम्मारपुत्तो भगवतो पटिस्सुत्वा यं अहोसि सूकरमद्दवं अवसि, तं सोब्भे निखणित्वा येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि । एकमन्तं निसिन्नं खो चुन्दं कम्मारपुत्तं भगवा धम्मिया कथाय सन्दस्सेत्वा समादपेत्वा समुत्तेजेत्वा सम्पहंसेत्वा उठायासना पक्कामि।
१९०. अथ खो भगवतो चुन्दस्स कम्मारपुत्तस्स भत्तं भुत्ताविस्स खरो आबाधो उप्पज्जि, लोहितपक्खन्दिका पबाळहा वेदना वत्तन्ति मारणन्तिका। ता सुदं भगवा सतो सम्पजानो अधिवासेसि अविहञमानो। अथ खो भगवा आयस्मन्तं आनन्दं आमन्तेसि - “आयामानन्द, येन कुसिनारा तेनुपसङ्कमिस्सामा'ति । “एवं, भन्ते''ति खो आयस्मा आनन्दो भगवतो पच्चस्सोसि ।
चुन्दस्स भत्तं भुजित्वा, कम्मारस्साति मे सुतं । आबाधं सम्फुसी धीरो, पबाळ्हं मारणन्तिकं ।।
भुत्तस्स च सूकरमद्दवेन,
___ ब्याधिप्पबाळहो उदपादि सत्थुनो । विरेचमानो भगवा अवोच,
गच्छामहं कुसिनारं नगरन्ति ।।
पानीयाहरणं
१९१. अथ खो भगवा मग्गा ओक्कम्म येन अञ्जतरं रुक्खमूलं तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा आयस्मन्तं आनन्दं आमन्तेसि - “इच मे त्वं, आनन्द, चतुग्गुणं सङ्घाटिं पञपेहि, किलन्तोस्मि, आनन्द, निसीदिस्सामी''ति । “एवं, भन्ते''ति खो आयस्मा
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दीघनिकायो-२
(२.३.१९१-१९१)
आनन्दो भगवतो पटिस्सुत्वा चतुग्गुणं सङ्घाटिं पञपेसि । निसीदि भगवा पञत्ते आसने । निसज्ज खो भगवा आयस्मन्तं आनन्दं आमन्तेसि – “इच मे त्वं, आनन्द, पानीयं आहर, पिपासितोस्मि, आनन्द, पिविस्सामी''ति । एवं वुत्ते आयस्मा आनन्दो भगवन्तं एतदवोच - “इदानि, भन्ते, पञ्चमत्तानि सकटसतानि अतिक्कन्तानि, तं चक्कच्छिन्नं उदकं परित्तं लुळितं आविलं सन्दति । अयं, भन्ते, ककुधा नदी अविदूरे अच्छोदका सातोदका सीतोदका सेतोदका सुप्पतित्था रमणीया । एत्थ भगवा पानीयञ्च पिविस्सति, गत्तानि च सीतीकरिस्सती''ति ।
दुतियम्पि खो भगवा आयस्मन्तं आनन्दं आमन्तेसि - "इच मे त्वं, आनन्द, पानीयं आहर, पिपासितोस्मि, आनन्द, पिविस्सामी''ति । दुतियम्पि खो आयस्मा आनन्दो भगवन्तं एतदवोच- "इदानि, भन्ते, पञ्चमत्तानि सकटसतानि अतिक्कन्तानि, तं चक्कच्छिन्नं उदकं परित्तं लुळितं आविलं सन्दति । अयं, भन्ते, ककुधा नदी अविदूरे अच्छोदका सातोदका सीतोदका सेतोदका सुप्पतित्था रमणीया । एत्थ भगवा पानीयञ्च पिविस्सति, गत्तानि च सीतीकरिस्सती''ति ।
ततियम्पि खो भगवा आयस्मन्तं आनन्दं आमन्तेसि- “इच मे त्वं, आनन्द, पानीयं आहर, पिपासितोस्मि, आनन्द, पिविस्सामी''ति । “एवं, भन्ते'ति खो आयस्मा आनन्दो भगवतो पटिस्सुत्वा पत्तं गहेत्वा येन सा नदिका तेनुपसङ्कमि । अथ खो सा नदिका चक्कच्छिन्ना परित्ता लुळिता आविला सन्दमाना, आयस्मन्ते आनन्दे उपसङ्कमन्ते अच्छा विप्पसन्ना अनाविला सन्दित्थ । अथ खो आयस्मतो आनन्दस्स एतदहोसि - "अच्छरियं वत, भो, अब्भुतं वत, भो, तथागतस्स महिद्धिकता महानुभावता । अयहि सा नदिका चक्कच्छिन्ना परित्ता लुळिता आविला सन्दमाना मयि उपसङ्कमन्ते अच्छा विप्पसन्ना अनाविला सन्दती'ति । पत्तेन पानीयं आदाय येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं एतदवोच- “अच्छरियं, भन्ते, अब्भुतं, भन्ते, तथागतस्स महिद्धिकता महानुभावता । इदानि सा भन्ते नदिका चक्कच्छिन्ना परित्ता लुळिता आविला सन्दमाना मयि उपसङ्कमन्ते अच्छा विप्पसन्ना अनाविला सन्दित्थ । पिवतु भगवा पानीयं पिवतु सुगतो पानीय''न्ति । अथ खो भगवा पानीयं अपायि ।
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(२.३.१९२-१९३)
३. महापरिनिब्बानसुत्तं
पुक्कुसमल्लपुत्तवत्थु
१९२. तेन खो पन समयेन पुक्कुसो मल्लपुत्तो आळारस्स कालामस्स सावको कुसिनाराय पावं अद्धानमग्गप्पटिप्पन्नो होति । अद्दसा खो पुक्कुसो मल्लपुत्तो भगवन्तं अञतरस्मिं रुक्खमूले निसिन्नं । दिस्वा येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि । एकमन्तं निसिन्नो खो पुक्कुसो मल्लपुत्तो भगवन्तं एतदवोच – “अच्छरियं, भन्ते, अब्भुतं, भन्ते, सन्तेन वत, भन्ते, पब्बजिता विहारेन विहरन्ति । भूतपुब्बं, भन्ते, आळारो कालामो अद्धानमग्गप्पटिप्पन्नो मग्गा ओक्कम्म अविदूरे अञतरस्मिं रुक्खमूले दिवाविहारं निसीदि । अथ खो, भन्ते, पञ्चमत्तानि सकटसतानि आळारं कालामं निस्साय निस्साय अतिक्कमिंसु । अथ खो, भन्ते, अञ्जतरो पुरिसो तस्स सकटसत्थस्स पिट्टितो पिट्टितो आगच्छन्तो येन आळारो कालामो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा आळारं कालामं एतदवोच – “अपि, भन्ते, पञ्चमत्तानि सकटसतानि अतिक्कन्तानि अद्दसा'"ति ? 'न खो अहं, आवुसो, अद्दसन्ति । 'किं पन, भन्ते, सई अस्सोसी'ति ? 'न खो अहं, आवुसो, सदं अस्सोसिन्ति । 'किं पन, भन्ते, सुत्तो अहोसी'ति ? 'न खो अहं, आवुसो, सुत्तो अहोसिन्ति । 'किं पन, भन्ते, सञ्जी अहोसी'ति ? 'एवमावुसो'ति । 'सो त्वं, भन्ते, सञी समानो जागरो पञ्चमत्तानि सकटसतानि निस्साय निस्साय अतिक्कन्तानि नेव अद्दस, न पन सदं अस्सोसि; अपिसु ते, भन्ते, सङ्घाटि रजेन ओकिण्णा'ति ? ‘एवमावुसो'ति । अथ खो, भन्ते, तस्स पुरिसस्स एतदहोसि- 'अच्छरियं वत भो, अब्भुतं वत भो, सन्तेन वत भो पब्बजिता विहारेन विहरन्ति । यत्र हि नाम सञी समानो जागरो पञ्चमत्तानि सकटसतानि निस्साय निस्साय अतिक्कन्तानि नेव दक्खति, न पन सई सोस्सती'ति ! आळारे कालामे उळारं पसादं पवेदेत्वा पक्कामी''ति ।
१९३. "तं किं मञ्जसि, पुक्कुस, कतमं नु खो दुक्करतरं वा दुरभिसम्भवतरं वा- यो वा सञ्जी समानो जागरो पञ्चमत्तानि सकटसतानि निस्साय निस्साय अतिक्कन्तानि नेव पस्सेय्य, न पन सदं सुणेय्य; यो वा सञी समानो जागरो देवे वस्सन्ते देवे गळगळायन्ते विज्जुल्लतासु निच्छरन्तीसु असनिया फलन्तिया नेव पस्सेय्य, न पन सदं सुणेय्या''ति ? “किहि, भन्ते, करिस्सन्ति पञ्च वा सकटसतानि छ वा सकटसतानि सत्त वा सकटसतानि अट्ठ वा सकटसतानि नव वा सकटसतानि, सकटसहस्सं वा सकटसतसहस्सं वा । अथ खो एतदेव दुक्करतरं चेव दुरभिसम्भवतरञ्च
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१००
दीघनिकायो-२
यो सञ्जी समानो जागरो देवे वस्सन्ते देवे गळगळायन्ते विज्जुल्लतासु निच्छरन्तीसु असनिया फलन्तिया नेव पस्सेय्य, न पन सद्दं सुणेय्या "ति ।
“एकमिदाहं, पुक्कुस, समयं आतुमायं विहरामि भुसागारे । तेन खो पन समयेन देवे वसन्ते देवे गळगळायन्ते विज्जुल्लतासु निच्छरन्तीसु असनिया फलन्तिया अविदूरे भुसागारस्स द्वे कस्सका भातरो हता चत्तारो च बलिबद्दा । अथ खो, पुक्कुस, आतुमाय महाजनकायो निक्खमित्वा येन ते द्वे कस्सका भातरो हता चत्तारो च बलिबद्दा तेनुपसङ्कमि । तेन खो पनाहं, पुक्कुस, समयेन भुसागारा निक्खमित्वा भुसागारद्वारे अब्भोकासे चङ्कमामि। अथ खो, पुक्कुस, अञ्ञतरो पुरिसो तम्हा महाजनकाया येनाहं तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा मं अभिवादेत्वा एकमन्तं अट्ठासि । एकमन्तं ठितं खो अहं, पुक्कुस, तं पुरिसं एतदवोचं - 'किं नु खो एसो, आवुसो, महाजनकायो सन्निपतितो’ति ? ‘इदानि, भन्ते, देवे वस्सन्ते देवे गळगळायन्ते विज्जुल्लतासु निच्छरन्तीसु असनिया फलन्तिया द्वे कस्सका भातरो हता चत्तारो च बलिबद्दा । एत्थेसो महाजनकायो सन्निपतितो । त्वं पन, भन्ते, क्व अहोसी 'ति ? 'इधेव खो अहं, आवुसो, अहोसिन्ति । 'किं पन, भन्ते, अद्दसा'ति ? 'न खो अहं, आवुसो, अद्दसन्ति । किं पन, भन्ते, सद्दं अस्सोसी 'ति ? 'न खो अहं, आवुसो, सद्दं अस्सोसि 'न्ति । 'किं पन, भन्ते, सुत्तो अहोसी 'ति ? 'न खो अहं, आवुसो, सुत्तो अहोसि 'न्ति । किं पन, भन्ते, सञ्जी अहोसी 'ति ? 'एवमावुसो 'ति । 'सो त्वं, भन्ते, सञ्ञी समानो जागरो देवे वसन्ते देवे गळगळायन्ते विज्जुल्लतासु निच्छरन्तीसु असनिया फलन्तिया नेव अद्दस, न पन सद्दं अस्सोसी'ति ? “एवमावुसो "ति ?
(२.३.१९३-१९३)
"अथ खो, पुक्कुस, पुरिसस्स एतदहोसि - " अच्छरियं वत भो, अब्भुतं वत भो, सन्तेन वत भो पब्बजिता विहारेन विहरन्ति । यत्र हि नाम सञ्ञी समानो जागरो देवे वसन्ते देवे गळगळायन्ते विज्जुल्लतासु निच्छरन्तीसु असनिया फलन्तिया नेव दक्खति, न पन सद्दं सोस्सती 'ति । मयि उळारं पसादं पवेदेत्वा मं अभिवादेत्वा पदक्खिणं त्वा पक्कामीति ।
एवं वुत्ते पुक्कुसो मल्लपुत्तो भगवन्तं एतदवोच - " एसाहं, भन्ते, यो मे आळारे काला पसादो तं महावाते वा ओफुणामि सीघसोताय वा नदिया पवाहेमि । अभिक्कन्तं, भन्ते, अभिक्कन्तं, भन्ते ! सेय्यथापि, भन्ते, निक्कुज्जितं वा उक्कुज्जेय्य,
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(२.३.१९४-१९५)
३. महापरिनिब्बानसुत्तं
१०१
पटिच्छन्नं वा विवरेय्य, मूळहस्स वा मग्गं आचिक्खेय्य, अन्धकारे वा तेलपज्जोतं धारेय्य 'चक्खुमन्तो रूपानि दक्खन्ती'ति; एवमेवं भगवता अनेकपरियायेन धम्मो पकासितो । एसाह, भन्ते, भगवन्तं सरणं गच्छामि धम्मञ्च भिक्खुसङ्घञ्च । उपासकं मं भगवा धारेतु अज्जतग्गे पाणुपेतं सरणं गत''न्ति ।
१९४. अथ खो पुक्कुसो मल्लपुत्तो अञ्जतरं पुरिसं आमन्तेसि - "इच मे त्वं, भणे, सिङ्गीवण्णं युगमटुं धारणीयं आहरा'ति । “एवं, भन्ते''ति खो सो पुरिसो पुक्कुसस्स मल्लपुत्तस्स पटिस्सुत्वा तं सिङ्गीवण्णं युगमटुं धारणीयं आहरि । अथ खो पुक्कुसो मल्लपुत्तो तं सिङ्गीवण्णं युगमटुं धारणीयं भगवतो उपनामेसि - “इदं, भन्ते, सिङ्गीवण्णं युगमटुं धारणीयं, तं मे भगवा पटिग्गण्हातु अनुकम्पं उपादाया'ति । “तेन हि, पुक्कुस, एकेन में अच्छादेहि, एकेन आनन्द"न्ति । “एवं, भन्ते''ति खो पुक्कुसो मल्लपुत्तो भगवतो पटिस्सुत्वा एकेन भगवन्तं अच्छादेति, एकेन आयस्मन्तं आनन्दं । अथ खो भगवा पुक्कुसं मल्लपुत्तं धम्मिया कथाय सन्दस्सेसि समादपेसि समुत्तेजेसि सम्पहंसेसि । अथ खो पुक्कुसो मल्लपुत्तो भगवता धम्मिया कथाय सन्दस्सितो समादपितो समुत्तेजितो सम्पहंसितो उट्ठायासना भगवन्तं अभिवादेत्वा पदक्खिणं कत्वा पक्कामि ।
१९५. अथ खो आयस्मा आनन्दो अचिरपक्कन्ते पुक्कुसे मल्लपुत्ते तं सिङ्गीवण्णं युगमटुं धारणीयं भगवतो कायं उपनामेसि । तं भगवतो कायं उपनामितं हतच्चिकं विय खायति । अथ खो आयस्मा आनन्दो भगवन्तं एतदवोच – “अच्छरियं, भन्ते, अब्भुतं, भन्ते, याव परिसुद्धो, भन्ते, तथागतस्स छविवण्णो परियोदातो । इदं, भन्ते, सिङ्गीवण्णं युगमटुं धारणीयं भगवतो कायं उपनामितं हतच्चिकं विय खायती"ति । “एवमेतं, आनन्द, एवमेतं, आनन्द द्वीसु कालेसु अतिविय तथागतस्स कायो परिसुद्धो होति छविवण्णो परियोदातो। कतमेसु द्वीसु? यञ्च, आनन्द, रत्तिं तथागतो अनुत्तरं सम्मासम्बोधिं अभिसम्बुज्झति, यञ्च रत्तिं अनुपादिसेसाय निब्बानधातुया परिनिब्बायति । इमेसु खो आनन्द द्वीसु कालेसु अतिविय तथागतस्स कायो परिसुद्धो होति छविवण्णो परियोदातो । “अज्ज खो पनानन्द, रत्तिया पच्छिमे यामे कुसिनारायं उपवत्तने मल्लानं सालवने अन्तरेन यमकसालानं तथागतस्स परिनिब्बानं भविस्सति । आयामानन्द, येन ककुधा नदी तेनुपसङ्कमिस्सामा"ति । “एवं, भन्ते''ति खो आयस्मा आनन्दो भगवतो पच्चस्सोसि ।
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१०२
दीघनिकायो-२
(२.३.१९६-१९७)
सिङ्गीवण्णं युगमटुं, पुक्कुसो अभिहारयि । तेन अच्छादितो सत्था, हेमवण्णो असोभथाति ।।
१९६. अथ खो भगवा महता भिक्खुसङ्घन सद्धिं येन ककुधा नदी तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा ककुधं नदिं अज्झोगाहेत्वा न्हत्वा च पिवित्वा च पच्चुत्तरित्वा येन अम्बवनं तेनुपसङ्कमि । उपसङ्कमित्वा आयस्मन्तं चुन्दकं आमन्तेसि- "इच मे त्वं, चुन्दक, चतुग्गुणं सङ्घाटिं पञपेहि, किलन्तोस्मि, चुन्दक, निपज्जिस्सामी''ति ।
“एवं, भन्ते''ति खो आयस्मा चुन्दको भगवतो पटिस्सुत्वा चतुग्गुणं सङ्घाटिं पञपेसि । अथ खो भगवा दक्षिणेन पस्सेन सीहसेय्यं कप्पेसि पादे पादं अच्चाधाय सतो सम्पजानो उट्ठानसझं मनसिकरित्वा। आयस्मा पन चुन्दको तत्थेव भगवतो पुरतो निसीदि ।
गन्त्वान बुद्धो नदिकं ककुधं,
___ अच्छोदकं सातुदकं विप्पसन्नं । ओगाहि सत्था अकिलन्तरूपो,
तथागतो अप्पटिमो च लोके ।।
न्हत्वा च पिवित्वा चुदतारि सत्था,
पुरक्खतो भिक्खुगणस्स मज्झे । वत्ता पवत्ता भगवा इध धम्मे,
उपागमि अम्बवनं महेसि ।।
आमन्तयि चुन्दकं नाम भिक्खुं,
चतुग्गुणं सन्थर मे निपज्जं । सो चोदितो भावितत्तेन चुन्दो,
चतुग्गुणं सन्थरि खिप्पमेव ।। निपज्जि सत्था अकिलन्तरूपो,
चुन्दोपि तत्थ पमुखे निसीदीति ।।
१९७. अथ खो भगवा आयस्मन्तं आनन्दं आमन्तेसि - “सिया खो पनानन्द,
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ernational
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३. महापरिनिब्बानसुत्तं
चुन्दस्स कम्मारपुत्तस्स कोचि विप्पटिसारं उप्पादेय्य - ' तस्स ते, आवुसो चुन्द, अलाभा तस्स ते दुल्लद्धं, यस्स ते तथागतो पच्छिमं पिण्डपातं परिभुञ्जित्वा परिनिब्बुतो 'ति । चुन्दस्स, आनन्द, कम्मारपुत्तस्स एवं विप्पटिसारो पटिविनेतब्बो - 'तस्स ते, आवुसो चुन्द, लाभा तस्स ते सुलद्धं, यस्स ते तथागतो पच्छिमं पिण्डपातं परिभुञ्जित्वा परिनिब्बुतो । सम्मुखा मेतं, आवुसो चुन्द, भगवतो सुतं सम्मुखा पटिग्गहितं - द्वे मे पिण्डपाता समसमफला समविपाका, अतिविय अञ्ञेहि पिण्डपातेहि महफ्फलतरा च महानिसंसतरा च । कतमे द्वे ? यञ्च पिण्डपातं परिभुञ्जित्वा तथागतो अनुत्तरं सम्मासम्बोधिं अभिसम्बुज्झति, यञ्च पिण्डपातं परिभुञ्जित्वा तथागतो अनुपादिसेसाय निब्बानधातुया परिनिब्बायति । इमे द्वे पिण्डपाता समसमफला समविपाका, अतिविय अञ्ञेहि पिण्डपातेहि महफ्फलतरा च महानिसंसतरा च । आयुसंवत्तनिकं आयस्मता चुन्देन कम्मारपुत्तेन कम्मं उपचितं, वण्णसंवत्तनिकं आयस्मता चुन्देन कम्मारपुत्तेन कम्म उपचितं, सुखसंवत्तनिकं आयस्मता चुन्देन कम्मारपुत्तेन कम्मं उपचितं, यससंवत्तनिकं आयस्मता चुन्देन कम्मारपुत्तेन कम्मं उपचितं, सग्गसंवत्तनिकं आयस्मता चुन्देन कम्मारपुत्तेन कम्मं उपचितं, आधिपतेय्यसंवत्तनिकं आयस्मता चुन्देन कम्मारपुत्तेन कम्म उपचितन्ति । चुन्दस्स, आनन्द, कम्मारपुत्तस्स एवं विप्पटिसारो पटिविनेतब्बो 'ति । अथ खो भगवा एतमत्थं विदित्वा तायं वेलायं इमं उदानं उदानेसि -
(२.३.१९८-१९८)
“ ददतो पुञ्ञ पवड्डति,
संयमतो वेरं न चीयति । कुसलो च जहाति पापकं,
रागदोसमोहक्खया सनिब्बुतो 'ति । । चतुथो भाणवारो ।
यमकसाला
१९८. अथ खो भगवा आयस्मन्तं आनन्दं आमन्तेसि - " आयामानन्द, येन हिरञवतिया नदिया पारिमं तीरं येन कुसिनारा उपवत्तनं मल्लानं सालवनं
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१०४
दीघनिकायो-२
(२.३.१९९-१९९)
तेनुपसङ्कमिस्सामा''ति । “एवं, भन्ते''ति खो आयस्मा आनन्दो भगवतो पच्चस्सोसि । अथ खो भगवा महता भिक्खसङ्केन सद्धिं येन हिरवतिया नदिया पारिमं तीरं येन कुसिनारा उपवत्तनं मल्लानं सालवनं तेनुपसङ्कमि । उपसङ्कमित्वा आयस्मन्तं आनन्दं आमन्तेसि - “इङ्घ मे त्वं, आनन्द, अन्तरेन यमकसालानं उत्तरसीसकं मञ्चकं पञपेहि, किलन्तोस्मि, आनन्द, निपज्जिस्सामी''ति । “एवं, भन्ते''ति खो आयस्मा आनन्दो भगवतो पटिस्सत्वा अन्तरेन यमकसालानं उत्तरसीसकं मञ्चकं पञपेसि। अथ खो भगवा दक्खिणेन पस्सेन सीहसेय्यं कप्पेसि पादे पादं अच्चाधाय सतो सम्पजानो।
तेन खो पन समयेन यमकसाला सब्बफालिफुल्ला होन्ति अकालपुप्फेहि। ते तथागतस्स सरीरं ओकिरन्ति अज्झोकिरन्ति अभिप्पकिरन्ति तथागतस्स पूजाय । दिब्बानिपि मन्दारवपुप्फानि अन्तलिक्खा पपतन्ति, तानि तथागतस्स सरीरं ओकिरन्ति अज्झोकिरन्ति अभिप्पकिरन्ति तथागतस्स पूजाय । दिब्बानिपि चन्दनचुण्णानि अन्तलिक्खा पपतन्ति, तानि तथागतस्स सरीरं ओकिरन्ति अज्झोकिरन्ति अभिप्पकिरन्ति तथागतस्स पूजाय । दिब्बानिपि तूरियानि अन्तलिक्खे वज्जन्ति तथागतस्स पूजाय । दिब्बानिपि सङ्गीतानि अन्तलिक्खे वत्तन्ति तथागतस्स पूजाय ।
१९९. अथ खो भगवा आयस्मन्तं आनन्दं आमन्तेसि - “सब्बफालिफुल्ला खो, आनन्द, यमकसाला अकालपुप्फेहि। ते तथागतस्स सरीरं ओकिरन्ति अज्झोकिरन्ति अभिप्पकिरन्ति तथागतस्स पूजाय । दिब्बानिपि मन्दारवपुप्फानि अन्तलिक्खा पपतन्ति, तानि तथागतस्स सरीरं ओकिरन्ति अज्झोकिरन्ति अभिप्पकिरन्ति तथागतस्स पूजाय । दिब्बानिपि चन्दनचुण्णानि अन्तलिक्खा पपतन्ति, तानि तथागतस्स सरीरं ओकिरन्ति अज्झोकिरन्ति अभिप्पकिरन्ति तथागतस्स पूजाय । दिब्बानिपि तूरियानि अन्तलिक्खे वज्जन्ति तथागतस्स पूजाय । दिब्बानिपि सङ्गीतानि अन्तलिक्खे वत्तन्ति तथागतस्स पूजाय । न खो, आनन्द, एत्तावता तथागतो सक्कतो वा होति गरुकतो वा मानितो वा पूजितो वा अपचितो वा । यो खो, आनन्द, भिक्खु वा भिक्खुनी वा उपासको वा उपासिका वा धम्मानुधम्मप्पटिपन्नो विहरति सामीचिप्पटिपन्नो अनुधम्मचारी, सो तथागतं सक्करोति गरुं करोति मानेति पूजेति अपचियति परमाय पूजाय। तस्मातिहानन्द, धम्मानुधम्मप्पटिपन्ना विहरिस्साम सामीचिप्पटिपन्ना अनुधम्मचारिनोति। एवहि वो, आनन्द, सिक्खितब्ब"न्ति।
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(२.३.२००-२०१)
३. महापरिनिब्बानसुत्तं
उपवाणत्थे
२००. तेन खो पन समयेन आयस्मा उपवाणो भगवतो पुरतो ठितो होति भगवन्तं बीजयमानो । अथ खो भगवा आयस्मन्तं उपवाणं अपसारेसि - " अपेहि, भिक्खु, मा मे पुरतो अट्ठासी 'ति । अथ खो आयस्मतो आनन्दस्स एतदहोसि - " अयं खो आयस्मा उपवाणो दीघरत्तं भगवतो उपट्टाको सन्तिकावचरो समीपचारी । अथ च पन भगवा पच्छिमे काले आयस्मन्तं उपवाणं अपसारेति - 'अपेहि भिक्खु, मा मे पुरतो अट्ठासी 'ति । को नु खो हेतु, को पच्चयो, यं भगवा आयस्मन्तं उपवाणं अपसारेति – 'अपेहि, भिक्खु, मा मे पुरतो अट्ठासी 'ति ? अथ खो आयस्मा आनन्दो भगवन्तं एतदवोच अयं, भन्ते, आयस्मा उपवाणो दीघरत्तं भगवतो उपट्टाको सन्तिकावचरो समीपचारी । अथ च पन भगवा पच्छिमे काले आयस्मन्तं उपवाणं अपसारेति - 'अपेहि, भिक्खु, मा मे पुरतो अट्ठासी 'ति । को नु खो, भन्ते, हेतु, को पच्चयो, यं भगवा आयस्मन्तं उपवाणं अपसारेति - 'अपेहि, भिक्खु, मा मे पुरतो अट्ठासी 'ति ? येभुय्येन, आनन्द, दससु लोकधातूसु देवता सन्निपतिता तथागतं दस्सनाय । यावता, आनन्द, कुसिनारा उपवत्तनं मल्लानं सालवनं समन्ततो द्वादस योजनानि, नत्थि सो पदेसो वालग्गकोटिनितुदनमत्तोपि महेसक्खाहि देवताहि अप्फुटो । देवता, आनन्द, उज्झायन्ति - 'दूरा च वतम्ह आगता तथागतं दस्सनाय । कदाचि करहचि तथागता लोके उप्पज्जन्ति अरहन्तो सम्मासम्बुद्धा । अज्जेव रत्तिया पच्छिमे यामे तथागतस्स परिनिब्बानं भविस्सति । अयञ्च महेसक्खो भिक्खु भगवतो पुरतो ठितो ओवारेन्तो, न मयं लभाम पच्छिमे काले तथागतं दस्सनाया'ति ।
"सन्तानन्द,
२०१. " कथंभूता पन, भन्ते, भगवा देवता मनसिकरोती 'ति ? देवता आकासे पथवीसञ्जिनियो केसे पकिरिय कन्दन्ति, बाहा पग्गय्ह कन्दन्ति, छिन्नपातं पपतन्ति, आवट्टन्ति, विवट्टन्ति - 'अतिखिप्पं भगवा परिनिब्बायिस्सति, अतिखिप्पं सुगतो परिनिब्बायिस्सति, अतिखिप्पं चक्खुं लोके अन्तरधायिस्सती 'ति ।
“सन्तानन्द, देवता पथवियं पथवीसञ्ञिनियो केसे पकिरिय कन्दन्ति, बाहा पग्गह कन्दन्ति, छिन्नपातं पपतन्ति, आवट्टन्ति, विवट्टन्ति - 'अतिखिप्पं भगवा परिनिब्बायिस्सति, अतिखिप्पं सुगतो परिनिब्बायिस्सति, अतिखिप्पं चक्खुं लोके अन्तरधायिस्सती' 'ति ।
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दीघनिकायो-२
___
दीघनिकायो-२
(२.३.२०२-२०३)
(२.३.२०२-२०३)
या पन ता देवता वीतरागा, ता सता सम्पजाना अधिवासेन्ति- “अनिच्चा सङ्घारा, तं कुतत्थ लन्भा"ति।
चतुसंवेजनीयद्वानानि
__ २०२. “पुब्बे, भन्ते, दिसासु वस्सं वुट्ठा भिक्खू आगच्छन्ति तथागतं दस्सनाय । ते मयं लभाम मनोभावनीये भिक्खू दस्सनाय, लभाम पयिरुपासनाय । भगवतो पन मयं, भन्ते, अच्चयेन न लभिस्साम मनोभावनीये भिक्खू दस्सनाय, न लभिस्साम पयिरुपासनाया'ति ।
"चत्तारिमानि, आनन्द, सद्धस्स कुलपुत्तस्स दस्सनीयानि संवेजनीयानि ठानानि । कतमानि चत्तारि ? 'इध तथागतो जातोति, आनन्द, सद्धस्स कुलपुत्तस्स दस्सनीयं संवेजनीयं ठानं । ‘इध तथागतो अनुत्तरं सम्मासम्बोधिं अभिसम्बुद्धो'ति, आनन्द, सद्धस्स कुलपुत्तस्स दस्सनीयं संवेजनीयं ठानं । ‘इध तथागतेन अनुत्तरं धम्मचक्कं पवत्तित'न्ति, आनन्द, सद्धस्स कुलपुत्तस्स दस्सनीयं संवेजनीयं ठानं । 'इध तथागतो अनुपादिसेसाय निब्बानधातुया परिनिब्बुतो'ति, आनन्द, सद्धस्स कुलपुत्तस्स दस्सनीयं संवेजनीयं ठानं । इमानि खो, आनन्द, चत्तारि सद्धस्स कुलपुत्तस्स दस्सनीयानि संवेजनीयानि ठानानि ।
“आगमिस्सन्ति खो, आनन्द, सद्धा भिक्खू भिक्खुनियो उपासका उपासिकायो'इध तथागतो जातो तिपि, ‘इध तथागतो अनुत्तरं सम्मासम्बोधिं अभिसम्बुद्धोतिपि, 'इध तथागतेन अनुत्तरं धम्मचक्कं पवत्तित न्तिपि, ‘इध तथागतो अनुपादिसेसाय निब्बानधातुया परिनिब्बुतो'तिपि। ये हि केचि, आनन्द, चेतियचारिकं आहिण्डन्ता पसन्नचित्ता कालङ्करिस्सन्ति, सब्बे ते कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपज्जिस्सन्ती''ति ।
आनन्दपुच्छाकथा
२०३. “कथं मयं, भन्ते, मातुगामे पटिपज्जामा'"ति ? “अदस्सनं, आनन्दा''ति । "दस्सने, भगवा, सति कथं पटिपज्जितब्ब"न्ति ? “अनालापो, आनन्दा''ति | "आलपन्तेन पन, भन्ते, कथं पटिपज्जितब्बन्ति ? “सति, आनन्द, उपट्ठापेतब्बा''ति ।
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३. महापरिनिब्बानसुत्तं
२०४. “कथं मयं, भन्ते, तथागतस्स सरीरे पटिपज्जामा ' 'ति ? " अब्यावटा तुम्हे, आनन्द, होथ तथागतस्स सरीरपूजाय । इस तुम्हे, आनन्द, सारत्थे घटथ अनुयुञ्जथ, सारत्थे अप्पमत्ता आतापिनो पहितत्ता विहरथ । सन्तानन्द, खत्तियपण्डितापि ब्राह्मणपण्डितापि गहपतिपण्डितापि तथागते अभिप्पसन्ना, ते तथागतस्स सरीरपूजं करिस्सन्ती 'ति ।
(२.३.२०४-२०६)
२०५. “कथं पन, भन्ते, तथागतस्स सरीरे पटिपज्जितब्ब "न्ति ? " यथा खो, आनन्द, रञो चक्कवत्तिस्स सरीरे पटिपज्जन्ति, एवं तथागतस्स सरीरे पटिपज्जितब्ब"न्ति । " कथं पन, भन्ते, रञो चक्कवत्तिस्स सरीरे पटिपज्जन्ती 'ति ? “रञ्ञो, आनन्द, चक्कवत्तिस्स सरीरं अहतेन वत्थेन वेठेन्ति, अहतेन वत्थेन वेठेत्वा विहतेन कप्पासेन वेठेन्ति, विहतेन कप्पासेन वेठेत्वा अहतेन वत्थेन वेठेन्ति । एतेनुपायेन पञ्चहि युगसतेहि रज्ञो चक्कवत्तिस्स सरीरं वेठेत्वा आयसाय तेलदोणिया पक्खिपित्वा अञ्ञिस्सा आयसाय दोणिया पटिकुज्जित्वा सब्बगन्धानं चितकं करित्वा रञ्ञो चक्कवत्तिस्स सरीरं झापेन्ति । चातुमहापथे रज्ञो चक्कवत्तिस्स थूपं करोन्ति । एवं खो, आनन्द, रञ्ञ चक्कवत्तिस्स सरीरे पटिपज्जन्ति । यथा खो, आनन्द, रञ्ञो चक्कवत्तिस्स सरीरे पटिपज्जन्ति, एवं तथागतस्स सरीरे पटिपज्जितब्बं । चातुमहापथे तथागतस्स पो कातब्बो । तत्थ ये मालं वा गन्धं वा चुण्णकं वा आरोपेस्सन्ति वा अभिवादेस्सन्ति वा चित्तं वा पसादेस्सन्ति तेसं तं भविस्सति दीघरत्तं हिताय सुखाय ।
धूपारहपुग्गलो
२०६. “ चत्तारोमे, आनन्द, थूपारहा । कतमे चत्तारो ? तथागतो अरहं सम्मासम्बुद्धो थूपारहो, पच्चेकसम्बुद्धो थूपारहो, तथागतस्स सावको थूपारहो, राजा चक्कवत्ती थूपारहो 'ति ।
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“किञ्चानन्द, अत्थवसं पटिच्च तथागतो अरहं सम्मासम्बुद्धी थूपारहो ? 'अयं तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स थूपो ति, आनन्द, बहुजना चित्तं पसादेन्ति । ते तथ चित्तं पसादेत्वा कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपज्जन्ति । इदं खो, आनन्द, अत्थवसं पटिच्च तथागतो अरहं सम्मासम्बुद्धी थुपारहो ।
“किञ्चानन्द, अत्थवसं पटिच्च पच्चेकसम्बुद्धो थूपारहो ? 'अयं तस्स भगवतो
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दीघनिकायो-२
(२.३.२०७-२०७)
पच्चेकसम्बुद्धस्स थूपो'ति, आनन्द, बहुजना चित्तं पसादेन्ति । ते तत्थ चित्तं पसादेत्वा कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपज्जन्ति । इदं खो, आनन्द, अत्थवसं पटिच्च पच्चेकसम्बुद्धो थूपारहो ।
“किञ्चानन्द, अत्थवसं पटिच्च तथागतस्स सावको थूपारहो ? 'अयं तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स सावकस्स थूपो'ति आनन्द, बहुजना चित्तं पसादेन्ति । ते तत्थ चित्तं पसादेत्वा कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपज्जन्ति । इदं खो, आनन्द, अत्थवसं पटिच्च तथागतस्स सावको थूपारहो ।
“किञ्चानन्द, अत्थवसं पटिच्च राजा चक्कवत्ती थूपारहो ? 'अयं तस्स धम्मिकस्स धम्मरो थूपो'ति, आनन्द, बहुजना चित्तं पसादेन्ति । ते तत्थ चित्तं पसादेत्वा कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपज्जन्ति । इदं खो, आनन्द, अत्थवसं पटिच्च राजा चक्कवत्ती थूपारहो । इमे खो, आनन्द चत्तारो थूपारहा"ति ।
आनन्दअच्छरियधम्मो २०७. अथ खो आयस्मा आनन्दो विहारं पविसित्वा कपिसीसं आलम्बित्वा रोदमानो अट्टासि - “अहञ्च वतम्हि सेखो सकरणीयो, सत्थु च मे परिनिब्बानं भविस्सति, यो मम अनुकम्पको''ति । अथ खो भगवा भिक्खू आमन्तेसि – “कहं नु खो, भिक्खवे, आनन्दो"ति ? “एसो, भन्ते, आयस्मा आनन्दो विहारं पविसित्वा कपिसीसं आलम्बित्वा रोदमानो ठितो - 'अहञ्च वतम्हि सेखो सकरणीयो, सत्थु च मे परिनिब्बानं भविस्सति, यो मम अनुकम्पको'ति । अथ खो भगवा अतरं भिक्खुं आमन्तेसि - “एहि त्वं, भिक्खु, मम वचनेन आनन्दं आमन्तेहि - ‘सत्था तं, आवुसो आनन्द, आमन्तेती' "ति । “एवं, भन्ते''ति खो सो भिक्खु भगवतो पटिस्सुत्वा येनायस्मा आनन्दो तेनुपसङ्कमि; उपसमित्वा आयस्मन्तं आनन्दं एतदवोच – 'सत्था तं, आवुसो आनन्द, आमन्तेतीति । “एवमावुसो'"ति खो आयस्मा आनन्दो तस्स भिक्खुनो पटिस्सुत्वा येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि । एकमन्तं निसिन्नं खो आयस्मन्तं आनन्दं भगवा एतदवोच- “अलं, आनन्द, मा सोचि मा परिदेवि, ननु एतं, आनन्द, मया पटिकच्चेव अक्खातं - 'सब्बेहेव पियेहि मनापेहि नानाभावो विनाभावो अञ्जथाभावो'; तं कुतेत्थ, आनन्द, लब्भा। 'यं तं जातं भूतं
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(२.३.२०८-२०९)
३. महापरिनिब्बानसुत्तं
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सङ्घतं पलोकधम्म, तं वत तथागतस्सापि सरीरं मा पलुज्जी'ति नेतं ठानं विज्जति । दीघरत्तं खो ते, आनन्द, तथागतो पच्चुपट्ठितो मेत्तेन कायकम्मेन हितेन सुखेन अद्वयेन अप्पमाणेन, मेत्तेन वचीकम्मेन हितेन सुखेन अद्वयेन अप्पमाणेन, मेत्तेन मनोकम्मेन हितेन सुखेन अद्वयेन अप्पमाणेन । कतपुञोसि त्वं, आनन्द, पधानमनुयुञ्ज, खिप्पं होहिसि अनासवो"ति।
२०८. अथ खो भगवा भिक्खू आमन्तेसि - “येपि ते, भिक्खवे, अहेसुं अतीतमद्धानं अरहन्तो सम्मासम्बुद्धा, तेसम्पि भगवन्तानं एतप्परमायेव उपट्ठाका अहेसुं, सेय्यथापि मय्हं आनन्दो। येपि ते, भिक्खवे, भविस्सन्ति अनागतमद्धानं अरहन्तो सम्मासम्बुद्धा, तेसम्पि भगवन्तानं एतप्परमायेव उपट्ठाका भविस्सन्ति, सेय्यथापि मव्हं आनन्दो । पण्डितो, भिक्खवे, आनन्दो; मेधावी, भिक्खवे, आनन्दो । जानाति ‘अयं कालो तथागतं दस्सनाय उपसङ्कमितुं भिक्खून, अयं कालो भिक्खुनीनं, अयं कालो उपासकानं, अयं कालो उपासिकानं, अयं कालो रओ राजमहामत्तानं तित्थियानं तित्थियसावकान' "न्ति ।
२०९. “चत्तारोमे, भिक्खवे, अच्छरिया अब्भुता धम्मा आनन्दे । कतमे चत्तारो ? "सचे, भिक्खवे, भिक्खुपरिसा आनन्दं दस्सनाय उपसङ्कमति, दस्सनेन सा अत्तमना होति । तत्र चे आनन्दो धम्मं भासति, भासितेनपि सा अत्तमना होति । अतित्ताव भिक्खवे, भिक्खुपरिसा होति, अथ खो आनन्दो तुण्ही होति । सचे, भिक्खवे, भिक्खुनीपरिसा आनन्दं दस्सनाय उपसङ्कमति, दस्सनेन सा अत्तमना होति । तत्र चे
आनन्दो धम्मं भासति, भासितेनपि सा अत्तमना होति । अतित्ताव भिक्खवे, भिक्खुनीपरिसा होति, अथ खो आनन्दो तुण्ही होति । सचे, भिक्खवे, उपासकपरिसा आनन्दं दस्सनाय उपसङ्कमति, दस्सनेन सा अत्तमना होति । तत्र चे आनन्दो धम्म भासति, भासितेनपि सा अत्तमना होति । अतित्ताव भिक्खवे, उपासकपरिसा होति, अथ खो आनन्दो तुण्ही होति। सचे, भिक्खवे, उपासिकापरिसा आनन्दं दस्सनाय उपसङ्कमति, दस्सनेन सा अत्तमना होति । तत्र चे, आनन्दो, धम्मं भासति, भासितेनपि सा अत्तमना होति । अतित्ताव भिक्खवे, उपासिकापरिसा होति, अथ खो आनन्दो तुण्ही होति । इमे खो, भिक्खवे, चत्तारो अच्छरिया अब्भुता धम्मा आनन्दे ।
"चत्तारोमे भिक्खवे, अच्छरिया अब्भुता धम्मा रझे चक्कवत्तिम्हि । कतमे
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दीघनिकायो-२
चत्तारो ? सचे, भिक्खवे, खत्तियपरिसा राजानं चक्कवत्तिं दस्सनाय उपसङ्कमति, दस्सनेन सा अत्तमना होति । तत्र चे राजा चक्कवत्ती भासति, भासितेनपि सा अत्तमना होति । अतित्ताव भिक्खवे, खत्तियपरिसा होति । अथ खो राजा चक्कवत्ती तुम्ही होति । सचे भिक्खवे ब्राह्मणपरिसा... पे०... गहपतिपरिसा...पे०... समणपरिसा राजानं चक्कवत्तिं दस्सनाय उपसङ्कमति, दस्सनेन सा अत्तमना होति । तत्र चे राजा चक्कवत्ती भासति, भासितेनपि सा अत्तमना होति । अतित्ताव भिक्खवे, समणपरिसा होति, अथ खो राजा चक्कवत्ती तुण्ही होति । एवमेव खो, भिक्खवे, चत्तारोमे अच्छरिया अब्भुता धम्मा आनन्दे । सचे, भिक्खवे, भिक्खुपरिसा आनन्दं दस्सनाय उपसङ्कमति, दस्सनेन सा अत्तमना होति । तत्र चे आनन्दो धम्मं भासति, भासितेनपि सा अत्तमना होति । अतित्ताव भिक्खवे, भिक्खुपरिसा होति । अथ खो आनन्दो तुम्ही होति । सचे भक् भिक्खुनीपरिसा...पे०... उपासकपरिसा...पे०... उपासिकापरिसा आनन्दं उपसङ्कमति, दस्सनेन सा अत्तमना होति । तत्र चे आनन्दो धम्मं भासति, भासितेनपि सा अत्तमना होति। अतित्ताव भिक्खवे, उपासिकापरिसा होति । अथ खो आनन्दो तुही होति । इमे खो, भिक्खवे, चत्तारो अच्छरिया अब्भुता धम्मा आनन्दे 'ति ।
दस्सनाय
महासुदरसनसुत्तदेसना
२१०. एवं वुत्ते आयस्मा आनन्दो भगवन्तं एतदवोच "मा, भन्ते, भगवा इमस्मिं खुद्दकनगरके उज्जङ्गलनगरके साखानगरके परिनिब्बायि । सन्ति, भन्ते, अञ्ञानि महानगरानि, सेय्यथिदं - चम्पा राजगहं सावत्थी साकेतं कोसम्बी बाराणसी; एत्थ भगवा परिनिब्बायतु । एत्थ बहू खत्तियमहासाला, ब्राह्मणमहासाला गहपतिमहासाला तथागते अभिप्पसन्ना। ते तथागतस्स सरीरपूजं करिस्सन्ती 'ति । माहेवं, आनन्द, अवच; माहेवं, आनन्द, अवच - 'खुद्दकनगरकं उज्जङ्गलनगरकं साखानगरक 'न्ति ।
११०
“भूतपुब्बं, आनन्द, राजा महासुदस्सनो नाम अहोसि चक्कवत्ती धम्मिको धम्मराजा चातुरन्तो विजितावी जनप्पदत्थावरियप्पत्तो सत्तरतनसमन्नागतो । रञो, आनन्द, महासुदस्सनस्स अयं कुसिनारा कुसावती नाम राजधानी अहोसि, पुरत्थिमेन च पच्छिमेन च द्वादसयोजनानि आयामेन; उत्तरेन च दक्खिणेन च सत्तयोजनानि वित्थारेन । कुसावती, आनन्द, राजधानी इद्धा चेव अहोसि फीता च बहुजना च आण्णा च सुभिक्खा च । सेय्यथापि, आनन्द, देवानं आळकमन्दा नाम राजधानी इद्धा चेव होति
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(२.३.२१०-२१०)
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(२.३.२११-२११)
३. महापरिनिब्बानसुत्तं
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फीता च बहुजना च आकिण्णयक्खा च सुभिक्खा च; एवमेव खो, आनन्द, कुसावती राजधानी इद्धा चेव अहोसि फीता च बहुजना च आकिण्णमनुस्सा च सुभिक्खा च । कुसावती, आनन्द, राजधानी दसहि सद्देहि अविवित्ता अहोसि दिवा चेव रत्तिञ्च, सेय्यथिदं - हत्थिसद्देन अस्ससद्देन रथसद्देन भेरिसदेन मुदिङ्गसद्देन वीणासद्देन गीतसद्देन सङ्घसद्देन सम्मसद्देन पाणिताळसद्देन 'अनाथ पिवथ खादथा'ति दसमेन सद्देन ।
"गच्छ त्वं, आनन्द, कुसिनारं पविसित्वा कोसिनारकानं मल्लानं आरोचेहि - 'अज्ज खो, वासेट्ठा, रत्तिया पच्छिमे यामे तथागतस्स परिनिब्बानं भविस्सति । अभिक्कमथ वासेट्टा, अभिक्कमथ वासेट्ठा । मा पच्छा विप्पटिसारिनो अहुवत्थ - अम्हाकञ्च नो गामक्खेत्ते तथागतस्स परिनिब्बानं अहोसि, न मयं लभिम्हा पच्छिमे काले तथागतं दस्सनाया' "ति । “एवं, भन्ते''ति खो आयस्मा आनन्दो भगवतो पटिस्सुत्वा निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय अत्तदुतियो कुसिनारं पाविसि ।
मल्लानं वन्दना २११. तेन खो पन समयेन कोसिनारका मल्ला सन्धागारे सन्निपतिता होन्ति केनचिदेव करणीयेन । अथ खो आयस्मा आनन्दो येन कोसिनारकानं मल्लानं सन्धागारं तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा कोसिनारकानं मल्लानं आरोचेसि - “अज्ज खो, वासेट्ठा, रत्तिया पच्छिमे यामे तथागतस्स परिनिब्बानं भविस्सति । अभिक्कमथ वासेट्ठा अभिक्कमथ वासेट्ठा। मा पच्छा विप्पटिसारिनो अहुवत्थ - 'अम्हाकञ्च नो गामक्खेत्ते तथागतस्स परिनिब्बानं अहोसि, न मयं लभिम्हा पच्छिमे काले तथागतं दस्सनाया' "ति । इदमायस्मतो आनन्दस्स वचनं सुत्वा मल्ला च मल्लपुत्ता च मल्लसुणिसा च मल्लपजापतियो च अघाविनो दुम्मना चेतोदुक्खसमप्पिता अप्पेकच्चे केसे पकिरिय कन्दन्ति, बाहा पग्गय्ह कन्दन्ति, छिन्नपातं पपतन्ति, आवट्टन्ति विवट्टन्ति - ‘अतिखिप्पं भगवा परिनिब्बायिस्सति, अतिखिप्पं सुगतो परिनिब्बायिस्सति, अतिखिप्पं चक्टुं लोके अन्तरधायिस्सती'ति । अथ खो मल्ला च मल्लपुत्ता च मल्लसुणिसा च मल्लपजापतियो च अघाविनो दुम्मना चेतोदुक्खसमप्पिता येन उपवत्तनं मल्लानं सालवनं येनायस्मा आनन्दो तेनुपसङ्कमिंसु । अथ खो आयस्मतो आनन्दस्स एतदहोसि - “सचे खो अहं कोसिनारके मल्ले एकमेकं भगवन्तं वन्दापेस्सामि, अवन्दितो भगवा कोसिनारकेहि मल्लेहि भविस्सति, अथायं रत्ति विभायिस्सति । यंनूनाहं कोसिनारके मल्ले कुलपरिवत्तसो
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दीघनिकायो-२
(२.३.२१२-२१२)
कुलपरिवत्तसो ठपेत्वा भगवन्तं वन्दापेय्यं - 'इत्थन्नामो, भन्ते, मल्लो सपुत्तो सभरियो सपरिसो सामच्चो भगवतो पादे सिरसा वन्दती'ति । अथ खो आयस्मा आनन्दो कोसिनारके मल्ले कुलपरिवत्तसो कुलपरिवत्तसो ठपेत्वा भगवन्तं वन्दापेसि - ‘इत्थन्नामो, भन्ते, मल्लो सपुत्तो सभरियो सपरिसो सामच्चो भगवतो पादे सिरसा वन्दती' ''ति । अथ खो आयस्मा आनन्दो एतेन उपायेन पठमेनेव यामेन कोसिनारके मल्ले भगवन्तं वन्दापेसि ।
सुभद्दपरिब्बाजकवत्थु २१२. तेन खो पन समयेन सुभद्दो नाम परिब्बाजको कुसिनारायं पटिवसति । अस्सोसि खो सुभद्दो परिब्बाजको- “अज्ज किर रत्तिया पच्छिमे यामे समणस्स गोतमस्स परिनिब्बानं भविस्सती''ति । अथ खो सुभद्दस्स परिब्बाजकस्स एतदहोसि - "सुतं खो पन मेतं परिब्बाजकानं वुड्डानं महल्लकानं आचरियपाचरियानं भासमानानं'कदाचि करहचि तथागता लोके उप्पज्जन्ति अरहन्तो सम्मासम्बुद्धा'ति । अज्जेव रत्तिया पच्छिमे यामे समणस्स गोतमस्स परिनिब्बानं भविस्सति । अत्थि च मे अयं कङ्खाधम्मो उप्पन्नो, एवं पसन्नो अहं समणे गोतमे । ‘पहोति मे समणो गोतमो तथा धम्मं देसेतुं, यथाहं इमं कङ्खाधम्मं पजहेय्य' "न्ति । अथ खो सुभद्दो परिब्बाजको येन उपवत्तनं मल्लानं सालवनं, येनायस्मा आनन्दो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा आयस्मन्तं आनन्दं एतदवोच – “सुतं मेतं भो आनन्द, परिब्बाजकानं वुड्डानं महल्लकानं आचरियपाचरियानं भासमानानं - 'कदाचि करहचि तथागता लोके उप्पज्जन्ति अरहन्तो सम्मासम्बुद्धा'ति । अज्जेव रत्तिया पच्छिमे यामे समणस्स गोतमस्स परिनिब्बानं भविस्सति । अस्थि च मे अयं कवाधम्मो उप्पन्नो- एवं पसन्नो अहं समणे गोतमे ‘पहोति मे समणो गोतमो तथा धम्मं देसेतुं, यथाहं इमं कङ्खाधम्मं पजहेय्य'न्ति । साधाहं, भो आनन्द, लभेय्यं समणं गोतमं दस्सनाया''ति । एवं वुत्ते आयस्मा आनन्दो सुभदं परिब्बाजकं एतदवोच"अलं, आवुसो सुभद्द, मा तथागतं विहेठेसि, किलन्तो भगवा''ति । दुतियम्पि खो सुभद्दो परिब्बाजको...पे०... ततियम्पि खो सुभद्दो परिब्बाजको आयस्मन्तं आनन्दं एतदवोच – "सुतं मेतं, भो आनन्द, परिब्बाजकानं वुड्डानं महल्लकानं आचरियपाचरियानं भासमानानं- 'कदाचि करहचि तथागता लोके उप्पज्जन्ति अरहन्तो सम्मासम्बुद्धा'ति । अज्जेव रत्तिया पच्छिमे यामे समणस्स गोतमस्स परिनिब्बानं भविस्सति । अत्थि च मे अयं कङ्खाधम्मो उप्पन्नो - एवं पसन्नो अहं समणे गोतमे, ‘पहोति मे समणो गोतमो
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(२.३.२१३-२१४)
३. महापरिनिब्बानसुत्तं
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तथा धम्म देसेतुं, यथाहं इमं कजाधम्मं पजहेय्य'न्ति । साधाहं, भो आनन्द, लभेय्यं समणं गोतमं दस्सनाया'ति । ततियम्पि खो आयस्मा आनन्दो सुभदं परिब्बाजकं एतदवोच - “अलं, आवुसो सुभद्द, मा तथागतं विहेठेसि, किलन्तो भगवा''ति ।
२१३. अस्सोसि खो भगवा आयस्मतो आनन्दस्स सुभद्देन परिब्बाजकेन सद्धिं इमं कथासल्लापं । अथ खो भगवा आयस्मन्तं आनन्दं आमन्तेसि- "अलं, आनन्द, मा सुभदं वारेसि, लभतं, आनन्द, सुभद्दो तथागतं दस्सनाय । यं किञ्चि मं सुभद्दो पुच्छिस्सति, सब्बं तं अापेक्खोव पुच्छिस्सति, नो विहेसापेक्खो । यं चस्साहं पुट्ठो ब्याकरिस्सामि, तं खिप्पमेव आजानिस्सती''ति । अथ खो आयस्मा आनन्दो सुभदं परिब्बाजकं एतदवोच - "गच्छावुसो सुभद्द, करोति ते भगवा ओकास''न्ति । अथ खो सुभद्दो परिब्बाजको येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसमित्वा भगवता सद्धिं सम्मोदि, सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं निसीदि । एकमन्तं निसिन्नो खो सुभद्दो परिब्बाजको भगवन्तं एतदवोच – “येमे, भो गोतम, समणब्राह्मणा सचिनो गणिनो गणाचरिया आता यसस्सिनो तित्थकरा साधुसम्मता बहुजनस्स, सेय्यथिदं - पूरणो कस्सपो, मक्खलि गोसालो, अजितो केसकम्बलो, पकुधो कच्चायनो, सञ्चयो बेलठ्ठपुत्तो, निगण्ठो नाटपुत्तो, सब्बेते सकाय पटिञाय अब्भचिंसु, सब्बेव न अब्भअिंसु, उदाहु एकच्चे अब्भअिंसु, एकच्चे न अब्भजिंसूति ? अलं, सुभद्द, तिठ्ठतेतं- “सब्बेते सकाय पटिञाय अब्भजिंसु, सब्बेव न अब्भनिंसु, उदाहु एकच्चे अब्भअिंसु, एकच्चे न अब्भअिंसू'ति । “धम्मं ते, सुभद्द, देसेस्सामि; तं सुणाहि साधुकं मनसिकरोहि, भासिस्सामी''ति । “एवं, भन्ते''ति खो सुभद्दो परिब्बाजको भगवतो पच्चस्सोसि । भगवा
एतदवोच
२१४. “यस्मिं खो, सुभद्द, धम्मविनये अरियो अट्ठङ्गिको मग्गो न उपलब्भति, समणोपि तत्थ न उपलब्भति । दुतियोपि तत्थ समणो न उपलब्भति । ततियोपि तत्थ समणो न उपलब्भति । चतुत्थोपि तत्थ समणो न उपलब्भति । यस्मिञ्च खो, सुभद्द, धम्मविनये अरियो अट्ठङ्गिको मग्गो उपलब्भति, समणोपि तत्थ उपलब्भति, दुतियोपि तत्थ समणो उपलब्भति, ततियोपि तत्थ समणो उपलब्भति, चतुत्थोपि तत्थ समणो उपलब्भति । इमस्मिं खो, सुभद्द, धम्मविनये अरियो अट्ठङ्गिको मग्गो उपलब्भति, इधेव, सुभद्द, समणो, इध दुतियो समणो, इध ततियो समणो, इध चतुत्थो समणो, सुझा परप्पवादा
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दीघनिकायो-२
(२.३.२१५-२१५)
समणेभि अञहि । इमे च, सुभद्द, भिक्खू सम्मा विहरेय्युं, असुझो लोको अरहन्तेहि अस्सा'ति ।
एकूनतिंसो वयसा सुभद्द,
यं पब्बजिं किंकुसलानुएसी। वस्सानि पचास समाधिकानि,
यतो अहं पब्बजितो सुभद्द । । आयस्स धम्मस्स पदेसवत्ती,
___ इतो बहिद्धा समणोपि नस्थि ।।
“दुतियोपि समणो नत्थि । ततियोपि समणो नत्थि । चतुत्थोपि समणो नत्थि । सुञा परप्पवादा समणेभि अओहि । इमे च, सुभद्द, भिक्खू सम्मा विहरेय्युं, असुञो लोको अरहन्तेहि अस्सा'"ति ।
___ २१५. एवं वुत्ते सुभद्दो परिब्बाजको भगवन्तं एतदवोच - "अभिक्कन्तं, भन्ते, अभिक्कन्तं, भन्ते । सेय्यथापि, भन्ते, निक्कुज्जितं वा उक्कुज्जेय्य, पटिच्छन्नं वा विवरेय्य, मूळहस्स वा मग्गं आचिक्खेय्य, अन्धकारे वा तेलपज्जोतं धारेय्य, 'चक्खुमन्तो रूपानि दक्खन्ती'ति । एवमेवं भगवता अनेकपरियायेन धम्मो पकासितो, एसाहं, भन्ते, भगवन्तं सरणं गच्छामि धम्मञ्च भिक्खुसङ्घञ्च । लभेय्याहं, भन्ते, भगवतो सन्तिके पब्बज्जं, लभेय्यं उपसम्पद''न्ति । “यो खो, सुभद्द, अञतित्थियपुब्बो इमस्मिं धम्मविनये आकङ्घति पब्बज्जं, आकङ्घति उपसम्पदं, सो चत्तारो मासे परिवसति । चतुन्नं मासानं अच्चयेन आरद्धचित्ता भिक्खू पब्बाजेन्ति उपसम्पादेन्ति भिक्खुभावाय | अपि च मेत्थ पुग्गलवेमत्तता विदिता''ति । “सचे, भन्ते, अञतित्थियपुब्बा इमस्मिं धम्मविनये आकयन्ता पब्बज्जं आकङ्घन्ता उपसम्पदं चत्तारो मासे परिवसन्ति, चतुन्नं मासानं अच्चयेन आरद्धचित्ता भिक्खू पब्बाजेन्ति उपसम्पादेन्ति भिक्खुभावाय । अहं चत्तारि वस्सानि परिवसिस्सामि, चतुन्नं वस्सानं अच्चयेन आरद्धचित्ता भिक्खू पब्बाजेन्तु उपसम्पादेन्तु भिक्खुभावाया''ति ।
अथ खो भगवा आयस्मन्तं आनन्दं आमन्तेसि- "तेनहानन्द, सुभदं पब्बाजेही''ति । “एवं, भन्ते''ति खो आयस्मा आनन्दो भगवतो पच्चस्सोसि । अथ खो
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३. महापरिनिब्बानसुत्तं
सुभद्दो परिब्बाजको आयस्मन्तं आनन्दं एतदवोच - “लाभा वो, आवुसो आनन्द; सुद्धं वो, आवुसो आनन्द, एत्थ सत्थु सम्मुखा अन्तेवासिकाभिसेकेन अभिसित्ता'ति । अलत्थ खो सुभद्दो परिब्बाजको भगवतो सन्तिके पब्बज्जं, अलत्थ उपसम्पदं । अचिरूपसम्पन्नो खो पायस्मा सुभद्दो को वूपकट्ठो अप्पमत्तो आतापी पहितत्तो विहरन्तो नचिरस्सेव - 'यस्सत्थाय कुलपुत्ता सम्मदेव अगारस्मा अनगारियं पब्बजन्ति' तदनुत्तरं ब्रह्मचरियपरियोसानं दिट्टेव धम्मे सयं अभिज्ञ सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहासि । “खीणा जाति, वुसितं ब्रह्मचरियं, कतं करणीयं, नापरं इत्थत्ताया" ति अब्भञ्ञासि । अञ्ञतरो खो पनायस्मा सुभद्दो अरहतं अहोसि । सो भगवतो पच्छिमो सक्खिसावको अहोसीति ।
पञ्चमो भाणवारो ।
(२.३.२१६-२१७)
तथागतपच्छिमवाचा
२१६. अथ खो भगवा आयस्मन्तं आनन्दं आमन्तेसि – “सिया खो पनानन्द, तुम्हाकं एवमस्स - 'अतीतसत्थुकं पावचनं, नत्थि नो सत्था'ति । न खो पनेतं, आनन्द, एवं दट्ठब्बं । यो वो, आनन्द, मया धम्मो च विनयो च देसितो पञ्ञत्तो, सो वो ममच्चयेन सत्था। यथा खो पनानन्द, एतरहि भिक्खू अञ्ञमञ्ञ आवसोवादेन समुदाचरन्ति, न खो ममच्चयेन एवं समुदाचरितब्बं । थेरतरेन, आनन्द, भिक्खुना नवकतरो भिक्खु नामेन वा गोत्तेन वा आवुसोवादेन वा समुदाचरितब्बो । नवकतरेन भिक्खुना थेरतरो भिक्खु ' भन्ते 'ति वा 'आयस्मा ति वा समुदाचरितब्बो । आकङ्खमानो, आनन्द, सङ्घो ममच्चयेन खुद्दानुखुद्दकानि सिक्खापदानि समूहनतु । छन्नस्स, आनन्द, भिक्खुनो ममच्चयेन ब्रह्मदण्डो दातब्बो 'ति । " कतमो पन, भन्ते, ब्रह्मदण्डो 'ति ? “छन्नो, आनन्द, भिक्खु यं इच्छेय्य, तं वदेय्य । सो भिक्खूहि नेव वत्तब्बो, न ओवदितब्बो, न अनुसासितब्बो 'ति ।
भिक्खवे,
२१७. अथ खो भगवा भिक्खू आमन्तेसि - "सिया खो पन, एक भिक्खुस्सापि कङ्क्षा वा विमति वा बुद्धे वा धम्मे वा सङ्घे वा मग्गे वा पटिपदाय वा, पुच्छथ, भिक्खवे, मा पच्छा विप्पटिसारिनो अहुवत्थ - ' सम्मुखीभूतो नो सत्था
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दीघनिकायो-२
अहोसि, न मयं सक्खिम्हा भगवन्तं सम्मुखा पटिपुच्छितु' "न्ति । एवं वृत्ते ते भिक्खू तुही असुं । दुतियम्पि खो भगवा...पे०... ततियम्पि खो भगवा भिक्खू आमन्तेसि - "सिया खो पन, भिक्खवे, एकभिक्खुस्सापि कङ्क्षा वा विमति वा बुद्धे वा धम्मेवा सङ्घे वा मग्गे वा पटिपदाय वा, पुच्छथ, भिक्खवे, मा पच्छा विप्पटिसारिनो अहुवत्थ - 'सम्मुखीभूतो नो सत्था अहोसि, न मयं सक्खिम्हा भगवन्तं सम्मुखा पटिपुच्छितु' "न्ति । ततियम्पिखो ते भिक्खू तुम्ही अहेसुं । अथ खो भगवा भिक्खू आमन्तेसि - "सिया खोपन, भिक्खवे, सत्थुगारवेनपि न पुच्छेय्याथ । सहायकोपि, भिक्खवे, सहायकस्स आरोचेतू'ति । एवं वुत्ते ते भिक्खू तुम्ही अहेसुं । अथ खो आयस्मा आनन्दो भगवन्तं एतदवोच – “अच्छरियं, भन्ते, अब्भुतं, भन्ते, एवं पसन्नो अहं, भन्ते, इमस्मिं भिक्खुसङ्घे, ‘नत्थि एकभिक्खुस्सापि कडा वा विमति वा बुद्धे वा धम्मे वा सङ्घे वा मग्गे वा पटिपदाय वा "ति । पसादा खो त्वं, आनन्द, वदेसि, आणमेव हेत्थ, आनन्द, तथागतस्स। नत्थि इमस्मिं भिक्खुस एकभिक्खुस्सापि कङ्क्षा वा विमति वा बुद्धे वा धम्मे वा सङ्घे वा मग्गे वा पटिपदाय वा । इमेसञ्हि, आनन्द, पञ्चन्नं भिक्खुतानं यो पच्छिमको भिक्खु, सो सोतापन्नो अविनिपातधम्मो नियतो सम्बोधिपरायणो 'ति ।
२१८. अथ खो भगवा भिक्खू आमन्तेसि - “हन्द दानि, भिक्खवे, आमन्तयामि वो, वयधम्मा सङ्घारा अप्पमादेन सम्पादेथा "ति । अयं तथागतस्स पच्छिमा वाचा ।
परिनिब्बुतकथा
२१९. अथ खो भगवा पठमं झानं समापज्जि, पठमज्झाना वुट्ठहित्वा दुतियं झानं समापज्जि, दुतियज्झाना वुट्ठहित्वा ततियं झानं समापज्जि, ततियज्झाना वुट्ठहित्वा चतुथं झानं समापज्जि । चतुत्थज्झाना वुट्ठहित्वा आकासानञ्चायतनं समापज्जि आकासानञ्चायतनसमापत्तिया वुट्ठहित्वा विञ्ञाणञ्चायतनं समापज्जि, विञ्ञाणञ्चायतनसमापत्तिया वुट्ठहित्वा आकिञ्चञ्ञायतनं समापज्जि, आकिञ्चञ्ञायतनसमापत्तिया वुट्ठहित्वा नेवसञ्ञानासञ्ञायतनं समापज्जि, नेवसञ्जनासञ्ञायतनसमापत्तिया हिवा सञ्ञावेदयितनिरोधं समापज्जि ।
अथ खो आयस्मा आनन्दो आयस्मन्तं अनुरुद्धं एतदवोच - " परिनिब्बुतो, भन्ते
(२.३.२१८-२१९)
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(२.३.२२०-२२२)
३. महापरिनिब्बानसुत्तं
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अनुरुद्ध, भगवा''ति। “नावुसो आनन्द, भगवा परिनिब्बुतो, सञ्जावेदयितनिरोधं समापन्नोति ।
अथ खो भगवा सञआवेदयितनिरोधसमापत्तिया बुढहित्वा नेवसञ्जानासायतनं समापन्जि. नेवसनासञ्जायतनसमापत्तिया वदहित्वा आकिञ्चचायतनं समापज्जि. आकिञ्चायतनसमापत्तिया वदाहित्वा विज्ञाणञ्चायतनं समापज्जि. विआणञ्चायतनसमापत्तिया वुट्ठहित्वा आकासानञ्चायतनं समापज्जि, आकासानञ्चायतनसमापत्तिया वुट्ठहित्वा चतुत्थं झानं समापज्जि, चतुत्थज्झाना वुट्ठहित्वा ततियं झानं समापज्जि, ततियज्झाना वुट्ठहित्वा दुतियं झानं समापज्जि, दुतियज्झाना वुट्ठहित्वा पठमं झानं समापज्जि, पठमज्झाना वुट्ठहित्वा दुतियं झानं समापज्जि, दुतियज्झाना वुट्ठहित्वा ततियं झानं समापज्जि, ततियज्झाना वुट्टहित्वा चतुत्थं झानं समापज्जि, चतुत्थज्झाना वुट्टहित्वा समनन्तरा भगवा परिनिब्बायि।
२२०. परिनिब्बुते भगवति सह परिनिब्बाना महाभूमिचालो अहोसि भिंसनको सलोमहंसो । देवदुन्दुभियो च फलिंसु । परिनिब्बुते भगवति सह परिनिब्बाना ब्रह्मासहम्पति इमं गाथं अभासि
"सब्बेव निक्खिपिस्सन्ति, भूता लोके समुस्सयं । यत्थ एतादिसो सत्था, लोके अप्पटिपुग्गलो । तथागतो बलप्पत्तो, सम्बुद्धो परिनिब्बुतो''ति ।।
२२१. परिनिब्बुते भगवति सह परिनिब्बाना सक्को देवानमिन्दो इमं गाथं अभासि
“अनिच्चा वत सङ्घारा, उप्पादवयधम्मिनो। उप्पज्जित्वा निरुज्झन्ति, तेसं वूपसमो सुखो''ति ।।
२२२. परिनिब्बुते भगवति सह परिनिब्बाना आयस्मा अनुरुद्धो इमा गाथायो अभासि
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दीघनिकायो-२
(२.३.२२३-२२५)
"नाहु अस्सासपस्सासो, ठितचित्तस्स तादिनो । अनेजो सन्तिमारब्भ, यं कालमकरी मुनि । ।
“असल्लीनेन चित्तेन, वेदनं अज्झवासयि । पज्जोतस्सेव निब्बानं, विमोक्खो चेतसो अहू'ति ।।
२२३. परिनिब्बुते भगवति सह परिनिब्बाना आयस्मा आनन्दो इमं गाथं अभासि
"तदासि यं भिंसनकं, तदासि लोमहंसनं । सब्बाकारवरूपेते, सम्बुद्धे परिनिब्बुते''ति ।।
२२४. परिनिब्बुते भगवति ये ते तत्थ भिक्खू अवीतरागा अप्पेकच्चे बाहा पग्गयह कन्दन्ति, छिन्नपातं पपतन्ति, आवट्टन्ति विवट्टन्ति, “अतिखिप्पं भगवा परिनिब्बुतो, अतिखिप्पं सुगतो परिनिब्बुतो, अतिखिप्पं चक्टुं लोके अन्तरहितो''ति । ये पन ते भिक्खू वीतरागा, ते सता सम्पजाना अधिवासेन्ति- “अनिच्चा सङ्घारा, तं कुतेत्थ लब्भा"ति।
२२५. अथ खो आयस्मा अनुरुद्धो भिक्खू आमन्तेसि – “अलं, आवुसो, मा सोचिस्थ मा परिदेवित्थ । ननु एतं, आवुसो, भगवता पटिकच्चेव अक्खातं - 'सब्बेहेव पियेहि मनापेहि नानाभावो विनाभावो अञ्जथाभावो' । तं कुतेत्थ, आवुसो, लब्भा । 'यं तं जातं भूतं सङ्घतं पलोकधम्म, तं वत मा पलुज्जी'ति, नेतं ठानं विज्जति । देवता, आवुसो, उज्झायन्ती'ति । “कथंभूता पन, भन्ते, आयस्मा अनुरुद्धो देवता मनसि करोती"ति ?
___ “सन्तावुसो आनन्द, देवता आकासे पथवीसञ्जिनियो केसे पकिरिय कन्दन्ति, बाहा पग्गय्ह कन्दन्ति, छिन्नपातं पपतन्ति, आवट्टन्ति, विवट्टन्ति - "अतिखिप्पं भगवा परिनिब्बुतो, अतिखिप्पं सुगतो परिनिब्बुतो, अतिखिप्पं चक्टुं लोके अन्तरहितो''ति । सन्तावुसो आनन्द, देवता पथविया पथवीसञिनियो केसे पकिरिय कन्दन्ति, बाहा पग्गयह कन्दन्ति, छिन्नपातं पपतन्ति, आवट्टन्ति, विवट्टन्ति- “अतिखिप्पं भगवा
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(२.३.२२६-२२७)
३. महापरिनिब्बानसुत्तं
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परिनिब्बुतो, अतिखिप्पं सुगतो परिनिब्बुतो, अतिखिप्पं चक्टुं लोके अन्तरहितो''ति । या पन ता देवता वीतरागा, ता सता सम्पजाना अधिवासेन्ति- “अनिच्चा सङ्घारा, तं कुतेत्थ लन्भा"ति। अथ खो आयस्मा च अनुरुद्धो आयस्मा च आनन्दो तं रत्तावसेसं धम्मिया कथाय वीतिनामेसुं ।
२२६. अथ खो आयस्मा अनुरुद्धो आयस्मन्तं आनन्दं आमन्तेसि- "गच्छावुसो आनन्द, कुसिनारं पविसित्वा कोसिनारकानं मल्लानं आरोचेहि - ‘परिनिब्बुतो, वासेट्ठा, भगवा, यस्स दानि कालं माथा' 'ति । “एवं, भन्ते'ति खो आयस्मा आनन्दो आयस्मतो अनुरुद्धस्स पटिस्सुत्वा पुब्बण्हसमयं निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय अत्तदुतियो कुसिनारं पाविसि । तेन खो पन समयेन कोसिनारका मल्ला सन्धागारे सन्निपतिता होन्ति तेनेव करणीयेन । अथ खो आयस्मा आनन्दो येन कोसिनारकानं मल्लानं सन्धागारं तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा कोसिनारकानं मल्लानं आरोचेसि - ‘परिनिब्बुतो, वासेट्ठा, भगवा, यस्स दानि कालं माथा'ति । इदमायस्मतो आनन्दस्स वचनं सुत्वा मल्ला च मल्लपुत्ता च मल्लसुणिसा च मल्लपजापतियो च अघाविनो दुम्मना चेतोदुक्खसमप्पिता अप्पेकच्चे केसे पकिरिय कन्दन्ति, बाहा पग्गय्ह कन्दन्ति, छिन्नपातं पपतन्ति, आवट्टन्ति, विवट्टन्ति- “अतिखिप्पं भगवा परिनिब्बुतो, अतिखिप्पं सुगतो परिनिब्बुतो, अतिखिप्पं चक्टुं लोके अन्तरहितो''ति ।
बुद्धसरीरपूजा २२७. अथ खो कोसिनारका मल्ला पुरिसे आणापेसुं- “तेन हि, भणे, कुसिनारायं गन्धमालञ्च सब्बञ्च ताळावचरं सन्निपातेथा'ति । अथ खो कोसिनारका मल्ला गन्धमालञ्च सब्बञ्च ताळावचरं पञ्च च दुस्सयुगसतानि आदाय येन उपवत्तनं मल्लानं सालवनं, येन भगवतो सरीरं तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा भगवतो सरीरं नच्चेहि गीतेहि वादितेहि मालेहि गन्धेहि सक्करोन्ता गरुं करोन्ता मानेन्ता पूजेन्ता चेलवितानानि करोन्ता मण्डलमाळे पटियादेन्ता एकदिवसं वीतिनामेसुं।।
अथ खो कोसिनारकानं मल्लानं एतदहोसि - “अतिविकालो खो अज्ज भगवतो सरीरं झापेतुं, स्वे दानि मयं भगवतो सरीरं झापेस्सामा"ति । अथ खो कोसिनारका मल्ला भगवतो सरीरं नच्चेहि गीतेहि वादितेहि मालेहि गन्धेहि सक्करोन्ता गरुं करोन्ता
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दीघनिकायो-२
(२.३.२२८-२२९)
मानेन्ता पूजेन्ता चेलवितानानि करोन्ता मण्डलमाळे पटियादेन्ता दुतियम्पि दिवसं वीतिनामसुं, ततियम्पि दिवसं वीतिनामसुं, चतुत्थम्पि दिवसं वीतिनामेसुं, पञ्चमम्पि दिवसं वीतिनामेसुं, छट्टम्पि दिवसं वीतिनामेसुं।
अथ खो सत्तमं दिवसं कोसिनारकानं मल्लानं एतदहोसि - "मयं भगवतो सरीरं नच्चेहि गीतेहि वादितेहि मालेहि गन्धेहि सक्करोन्ता गरुं करोन्ता मानेन्ता पूजेन्ता दक्खिणेन दक्खिणं नगरस्स हरित्वा बाहिरेन बाहिरं दक्खिणतो नगरस्स भगवतो सरीरं झापेस्सामा'ति ।
२२८. तेन खो पन समयेन अट्ठ मल्लपामोक्खा सीसंन्हाता अहतानि वत्थानि निवत्था "मयं भगवतो सरीरं उच्चारेस्सामा"ति न सक्कोन्ति उच्चारेतूं । अथ खो कोसिनारका मल्ला आयस्मन्तं अनुरुद्धं एतदवोचुं- “को नु खो, भन्ते अनुरुद्ध, हेतु को पच्चयो, येनिमे अट्ठ मल्लपामोक्खा सीसंन्हाता अहतानि वत्थानि निवत्था ‘मयं भगवतो सरीरं उच्चारेस्सामा'ति न सक्कोन्ति उच्चारेतु"न्ति ? “अञथा खो, वासेट्टा, तुम्हाकं अधिप्पायो, अञथा देवतानं अधिप्पायो"ति। "कथं पन, भन्ते, देवतानं अधिप्पायो'"ति? "तुम्हाकं खो, वासेट्ठा, अधिप्पायो- "मयं भगवतो सरीरं नच्चेहि गीतेहि वादितेहि मालेहि गन्धेहि सक्करोन्ता गरुं करोन्ता मानेन्ता पूजेन्ता दक्खिणेन दक्खिणं नगरस्स हरित्वा बाहिरेन बाहिरं दक्खिणतो नगरस्स भगवतो सरीरं झापेस्सामा"ति; देवतानं खो, वासेठ्ठा, अधिप्पायो - "मयं भगवतो सरीरं दिब्बेहि नच्चेहि गीतेहि वादितेहि गन्धेहि सक्करोन्ता गरुं करोन्ता मानेन्ता पूजेन्ता उत्तरेन उत्तरं नगरस्स हरित्वा उत्तरेन द्वारेन नगरं पवेसेत्वा मज्झेन मज्झं नगरस्स हरित्वा पुरथिमेन द्वारेन निक्खमित्वा पुरथिमतो नगरस्स मकुटबन्धनं नाम मल्लानं चेतियं एत्थ भगवतो सरीरं झापेस्सामा''ति । “यथा, भन्ते, देवतानं अधिप्पायो, तथा होतू'ति ।
___ २२९. तेन खो पन समयेन कुसिनारा याव सन्धिसमलसंकटीरा जण्णुमत्तेन ओधिना मन्दारवपुप्फेहि सन्थता होति । अथ खो देवता च कोसिनारका च मल्ला भगवतो सरीरं दिब्बेहि च मानुसकेहि च नच्चेहि गीतेहि वादितेहि मालेहि गन्धेहि सक्करोन्ता गरुं करोन्ता मानेन्ता पूजेन्ता उत्तरेन उत्तरं नगरस्स हरित्वा उत्तरेन द्वारेन नगरं पवेसेत्वा मज्झेन मज्झं नगरस्स हरित्वा पुरथिमेन द्वारेन निक्खमित्वा पुरथिमतो नगरस्स मकुटबन्धनं नाम मल्लानं चेतियं एत्थ च भगवतो सरीरं निक्खिपिंसु ।
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(२.३.२३०-२३१)
३. महापरिनिब्बानसुत्तं
२३०. अथ खो कोसिनारका मल्ला आयस्मन्तं आनन्दं एतदवोचुं - "कथं मयं, भन्ते आनन्द, तथागतस्स सरीरे पटिपज्जामा "ति ? " यथा खो, वासेट्ठा, रञ्ञो चक्कवत्तिस्स सरीरे पटिपज्जन्ति, एवं तथागतस्स सरीरे पटिपज्जितब्ब”न्ति । “कथं पन, भन्ते आनन्द, रञ्ञो चक्कवत्तिस्स सरीरे पटिपज्जन्ती 'ति ? “रञ्ञो, वासेट्ठा, चक्कवत्तिस्स सरीरं अहतेन वत्थेन वेठेन्ति, अहतेन वत्थेन वेठेत्वा विहतेन कप्पासेन वेठेन्ति, विहतेन कप्पासेन वेठेत्वा अहतेन वत्थेन वेठेन्ति । एतेन उपायेन पञ्चहि युगसतेहि रञ्ञ चक्कवत्तिस्स सरीरं वेठेत्वा आयसाय तेलदोणिया पक्खिपित्वा अञ्ञिस्सा आयसाय दोणिया पटिकुज्जित्वा सब्बगन्धानं चितकं करित्वा रञ्ञो चक्कवत्तिस्स सरीरं झापेन्ति । चातुमहापथे रञ्ञो चक्कवत्तिस्स थूपं करोन्ति । एवं खो, वासेट्ठा, रञ्ञो चक्कवत्तिस्स सरीरे पटिपज्जन्ति । यथा खो, वासेट्ठा, रज्ञो चक्कवत्तिस्स सरीरे पटिपज्जन्ति, एवं तथागतस्स सरीरे पटिपज्जितब्बं । चातुमहापथे तथागतस्स थूपो कातब्बो | तत्थ ये मालं वा गन्धं वा चुण्णकं वा आरोपेस्सन्ति वा अभिवादेस्सन्ति वा चित्तं वा पसादेस्सन्ति, तेसं तं भविस्सति दीघरत्तं हिताय सुखाया ''ति । अथ खो कोसिनारका मल्ला पुरिसे आणापेसुं- “तेन हि, भणे, मल्लानं विहतं कप्पासं सन्निपातेथा ''ति ।
अथ खो कोसिनारका मल्ला भगवतो सरीरं अहतेन वत्थेन वेठेत्वा विहतेन कप्पासेन वेठेसुं, विहतेन कप्पासेन वेठेत्वा अहतेन वत्थेन वेठेसुं । एतेन उपायेन पञ्चहि युगसतेहि भगवतो सरीरं वेठेत्वा आयसाय तेलदोणिया पक्खिपित्वा अञ्ञिस्सा आयसाय दोणिया पटिकुज्जित्वा सब्बगन्धानं चितकं करित्वा भगवतो सरीरं चितकं आरोपेसुं ।
महाकरसपत्थरवत्थु
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२३१. तेन खो पन समयेन आयस्मा महाकस्सपो पावाय कुसिनारं अद्धानमग्गप्पटिप्पन्नो होति महता भिक्खुसङ्घन सद्धिं पञ्चमत्तेहि भिक्खुसतेहि । अथ खो आयस्मा महाकस्सपो मग्गा ओक्कम्म अञ्ञतरस्मिं रुक्खमूले निसीदि । तेन खो पन समयेन अञ्ञतरो आजीवको कुसिनाराय मन्दारवपुष्पं गत्वा पावं अद्धानमग्गप्पटिप्पन्नो होति । अद्दसा खो आयस्मा महाकस्सपो तं आजीवकं दूरतोव आगच्छन्तं, दिस्वातं आजीवकं एतदवोच – “अपावुसो, अम्हाकं सत्थारं जानासी "ति ? " आमावुसो, जानामि, अज्ज सत्ताहपरिनिब्बुतो समणो गोतमो । ततो मे इदं मन्दारवपुष्पं गहित "न्ति । तथ
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दीघनिकायो-२
(२.३.२३२-२३४)
ते भिक्खू अवीतरागा अप्पेकच्चे बाहा पग्गय्ह कन्दन्ति, छिन्नपातं पपतन्ति, आवट्टन्ति, विवट्टन्ति - “अतिखिप्पं भगवा परिनिब्बुतो, अतिखिप्पं सुगतो परिनिब्बुतो, अतिखिप्पं चक्खं लोके अन्तरहितो''ति । ये पन ते भिक्खू वीतरागा, ते सता सम्पजाना अधिवासेन्ति- “अनिच्चा सङ्घारा, तं कुतेत्थ लन्भा"ति।
२३२. तेन खो पन समयेन सुभद्दो नाम वुद्धपब्बजितो तस्सं परिसायं निसिन्नो होति । अथ खो सुभद्दो वुद्धपब्बजितो ते भिक्खू एतदवोच -- “अलं, आवुसो, मा सोचित्थ, मा परिदेवित्थ, सुमुत्ता मयं तेन महासमणेन । उपटुता च होम – 'इदं वो कप्पति, इदं वो न कप्पतीति । इदानि पन मयं यं इच्छिस्साम, तं करिस्साम, यं न इच्छिस्साम, न तं करिस्सामा'ति । अथ खो आयस्मा महाकस्सपो भिक्खू आमन्तेसि - “अलं, आवुसो, मा सोचित्थ, मा परिदेवित्थ । ननु एतं, आवुसो, भगवता पटिकच्चेव अक्खातं - ‘सब्बेहेव पियेहि मनापेहि नानाभावो विनाभावो अञ्जथाभावो' । तं कुतेत्थ, आवुसो, लब्भा। 'यं तं जातं भूतं सङ्घतं पलोकधम्म, तं तथागतस्सापि सरीरं मा पलुज्जी'ति, नेतं ठानं विज्जती''ति ।।
२३३. तेन खो पन समयेन चत्तारो मल्लपामोक्खा सीसंन्हाता अहतानि वत्थानि निवत्था - "मयं भगवतो चितकं आळिम्पेस्सामा"ति न सक्कोन्ति आलिम्पेतुं । अथ खो कोसिनारका मल्ला आयस्मन्तं अनुरुद्धं एतदवोचुं- “को नु खो, भन्ते अनुरुद्ध, हेतु को पच्चयो, येनिमे चत्तारो मल्लपामोक्खा सीसंन्हाता अहतानि वत्थानि निवत्था - 'मयं भगवतो चितकं आळिम्पेस्सामा ति न सक्कोन्ति आळिम्पेतु"न्ति ? “अञथा खो, वासेट्ठा, देवतानं अधिप्पायो"ति । “कथं पन, भन्ते, देवतानं अधिप्पायो''ति ? "देवतानं खो, वासेट्ठा, अधिप्पायो – “अयं आयस्मा महाकस्सपो पावाय कुसिनारं अद्धानमग्गप्पटिप्पन्नो महता भिक्खुसङ्घन सद्धिं पञ्चमत्तेहि भिक्खुसतेहि । न ताव भगवतो चितको पज्जलिस्सति, यावायस्मा महाकस्सपो भगवतो पादे सिरसा न वन्दिस्सती"ति । “यथा, भन्ते, देवतानं अधिप्पायो, तथा होतू'ति ।।
२३४. अथ खो आयस्मा महाकस्सपो येन कसिनारा मकटबन्धनं नाम मल्लानं चेतियं, येन भगवतो चितको तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा एकंसं चीवरं कत्वा अञ्जलिं पणामेत्वा तिक्खत्तं चितकं पदक्खिणं कत्वा भगवतो पादे सिरसा वन्दि । तानिपि खो पञ्चभिक्खुसतानि एकंसं चीवरं कत्वा अञ्जलिं पणामेत्वा तिक्खत्तुं चितकं पदक्खिणं
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(२.३.२३५-२३६)
३. महापरिनिब्बानसुत्तं
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कत्वा भगवतो पादे सिरसा वन्दिंसु । वन्दिते च पनायस्मता महाकस्सपेन तेहि च पञ्चहि भिक्खुसतेहि सयमेव भगवतो चितको पज्जलि ।
२३५. झायमानस्स खो पन भगवतो सरीरस्स यं अहोसि छवीति वा चम्मन्ति वा मंसन्ति वा न्हारूति वा लसिकाति वा, तस्स नेव छारिका पञायित्थ, न मसि; सरीरानेव अवसिस्सिंसु । सेय्यथापि नाम सप्पिस्स वा तेलस्स वा झायमानस्स नेव छारिका पञ्जायति, न मसि; एवमेव भगवतो सरीरस्स झायमानस्स यं अहोसि छवीति वा चम्मन्ति वा मंसन्ति वा न्हारूति वा लसिकाति वा, तस्स नेव छारिका पञायित्थ, न मसि; सरीरानेव अवसिस्सिंसु । तेसञ्च पञ्चन्नं दुस्सयुगसतानं देव दुस्सानि न डव्हिंसु यञ्च सब्बअब्भन्तरिमं यञ्च बाहिरं । दड्डे च खो पन भगवतो सरीरे अन्तलिक्खा उदकधारा पातुभवित्वा भगवतो चितकं निब्बापेसि । उदकसालतोपि अब्भुन्नमित्वा भगवतो चितकं निब्बापेसि । कोसिनारकापि मल्ला सब्बगन्धोदकेन भगवतो चितकं निब्बापेसुं । अथ खो कोसिनारका मल्ला भगवतो सरीरानि सत्ताहं सन्धागारे सत्तिपञ्जरं करित्वा धनुपाकारं परिक्खिपापेत्वा नच्चेहि गीतेहि वादितेहि मालेहि गन्धेहि सक्करिंसु गरुं करिंसु मानेसुं पूजेसुं।
सरीरधातुविभाजनं
२३६. अस्सोसि खो राजा मागधो अजातसत्तु वेदेहिपुत्तो- “भगवा किर कुसिनारायं परिनिब्बुतो"ति । अथ खो राजा मागधो अजातसत्तु वेदेहिपुत्तो कोसिनारकानं मल्लानं दूतं पाहेसि - “भगवापि खत्तियो अहम्पि खत्तियो, अहम्पि अरहामि भगवतो सरीरानं भागं, अहम्पि भगवतो सरीरानं थूपञ्च महञ्च करिस्सामी''ति ।
अस्सोसु खो वेसालिका लिच्छवी - "भगवा किर कुसिनारायं परिनिब्बुतो''ति । अथ खो वेसालिका लिच्छवी कोसिनारकानं मल्लानं दृतं पाहेसं - "भगवापि खत्तियो मयम्पि खत्तिया, मयम्पि अरहाम भगवतो सरीरानं भागं, मयम्पि भगवतो सरीरानं थूपञ्च महञ्च करिस्सामा''ति ।
अस्सोसुं खो कपिलवत्थुवासी सक्या - "भगवा किर कुसिनारायं परिनिब्बुतो''ति । अथ खो कपिलवत्थुवासी सक्या कोसिनारकानं मल्लानं दूतं पाहेसुं- "भगवा अम्हाकं
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दीघनिकायो-२
(२.३.२३७-२३७)
आतिसेट्ठो, मयम्पि अरहाम भगवतो सरीरानं भागं, मयम्पि भगवतो सरीरानं थूपञ्च महञ्च करिस्सामा'ति ।
अस्सोसुं खो अल्लकप्पका बुलयो - "भगवा किर कुसिनारायं परिनिब्बुतो"ति । अथ खो अल्लकप्पका बुलयो कोसिनारकानं मल्लानं दूतं पाहेसुं- "भगवापि खत्तियो मयम्पि खत्तिया, मयम्पि अरहाम भगवतो सरीरानं भागं, मयम्पि भगवतो सरीरानं थूपञ्च महञ्च करिस्सामा''ति ।
अस्सोसुं खो रामगामका कोळिया- “भगवा किर कुसिनारायं परिनिब्बुतो"ति । अथ खो रामगामका कोळिया कोसिनारकानं मल्लानं दूतं पाहेसुं-- "भगवापि खत्तियो मयम्पि खत्तिया, मयम्पि अरहाम भगवतो सरीरानं भागं, मयम्पि भगवतो सरीरानं थूपञ्च महञ्च करिस्सामा'ति ।
अस्सोसि खो वेठ्ठदीपको ब्राह्मणो – “भगवा किर कुसिनारायं परिनिब्बुतो''ति । अथ खो वेठ्ठदीपको ब्राह्मणो कोसिनारकानं मल्लानं दूतं पाहेसि - “भगवापि खत्तियो अहं पिस्मि ब्राह्मणो, अहम्पि अरहामि भगवतो सरीरानं भागं, अहम्पि भगवतो सरीरानं थूपञ्च महञ्च करिस्सामी''ति ।
___ अस्सोसुं खो पावेय्यका मल्ला - "भगवा किर कुसिनारायं परिनिब्बुतो''ति । अथ खो पावेय्यका मल्ला कोसिनारकानं मल्लानं दूतं पाहेसुं– “भगवापि खत्तियो मयम्पि खत्तिया, मयम्पि अरहाम भगवतो सरीरानं भागं, मयम्पि भगवतो सरीरानं थूपञ्च महञ्च करिस्सामा'ति ।
एवं वुत्ते कोसिनारका मल्ला ते सङ्के गणे एतदवोचुं- "भगवा अम्हाकं गामक्खेत्ते परिनिब्बुतो, न मयं दस्साम भगवतो सरीरानं भाग"न्ति ।
२३७. एवं वुत्ते दोणो ब्राह्मणो ते सङ्के गणे एतदवोच
"सुणन्तु भोन्तो मम एकवाचं,
अम्हाक बुद्धो अहु खन्तिवादो ।
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(२.३.२३८-२३९)
३. महापरिनिब्बानसुत्तं
न हि साधु यं उत्तमपुग्गलस्स,
सरीरभागे सिया सम्पहारो ।।
सब्बेव भोन्तो सहिता समग्गा,
सम्मोदमाना करोमट्ठभागे ।
वित्थारिका होन्तु दिसासु थूपा,
बहू जना चक्खुमतो पसन्ना "ति । ।
२३८. " तेन हि ब्राह्मण, त्वञ्ञेव भगवतो सरीरानि अट्ठधा समं सविभत्तं विभजाही 'ति । “एवं, भो”ति खो दोणो ब्राह्मणो तेसं सङ्घानं गणानं पटिस्सुत्वा भगवतो सरीरानि अट्ठधा समं सुविभत्तं विभजित्वा ते सङ्घे गणे एतदवोच - "इमं मे भोतो तुम्बं ददन्तु अहम्पि तुम्बस्स थूपञ्च महञ्च करिस्सामी 'ति । अदंसु खो ते दोणस ब्राह्मणस्स तुम्बं ।
अस्सोसुं खो पिप्पलिवनिया मोरिया - “भगवा किर कुसिनारायं परिनिब्बुतो 'ति । अथ खो पिप्पलिवनिया मोरिया कोसिनारकानं मल्लानं दूतं पाहेसुं - “भगवापि खत्तियो मयम्पि खत्तिया, मयम्पि अरहाम भगवतो सरीरानं भागं, मयम्पि भगवतो सरीरानं थूपञ्च महञ्च करिस्सामा "ति । “नत्थि भगवतो सरीरानं भागो, विभत्तानि भगवतो सरीरानि । इतो अङ्गारं हरथा" ति । ते ततो अङ्गारं हरिंसु ।
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धातुथूपपूजा
२३९. अथ खो राजा मागधो अजातसत्तु वेदेहिपुत्तो राजगहे भगवतो सरीरानं थूपञ्च महञ्च अकासि | वेसालिकापि लिच्छवी वेसालियं भगवतो सरीरानं धूपञ्च महञ्च अकंसु । कपिलवत्थुवासीपि सक्या कपिलवत्थुस्मिं भगवतो सरीरानं थूपञ्च महञ्च अकं । अल्लकप्पकापि बुलयो अल्लकप्पे भगवतो सरीरानं थूपञ्च महञ्च अकं । रामगामा कोळिया रामगामे भगवतो सरीरानं थूपञ्च महञ्च अकंसु । वेट्ठदीपकोपि ब्राह्मणो वेदी भगवतो सरीरानं थूपञ्च महञ्च अकासि । पावेय्यकापि मल्ला पावायं भगवतो सरीरानं थूपञ्च महञ्च अकंसु । कोसिनारकापि मल्ला कुसिनारायं भगवतो सरीरानं थूपञ्च महञ्च अकं । दोणोपि ब्राह्मणो तुम्बस्स थूपञ्च महञ्च अकासि । पिप्पलिवनियापि मोरिया
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दीघनिकायो-२
पिप्पलिवने अङ्गारानं थूपञ्च महञ्च अकंसु । इति अट्ठ सरीरथूपा नवमो तुम्बधूपो समो अङ्गारथूपो । एवमेतं भूतपुब्बन्ति ।
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२४०. अट्ठदोणं चक्खुमतो सरीरं, सत्तदोणं जम्बुदीपे महेन्ति । एकञ्च दोणं पुरिसवरुत्तमस्स, रामगामे नागराजा महेति । ।
एकाहि दाठा तिदिवेहि पूजिता, एका पन गन्धारपुरे महीयति । कालिङ्गरञ विजिते पुनेकं, एकं पन नागराजा महेति । ।
तस्सेव तेजेन अयं वसुन्धरा,
आयागसेट्ठेहि मही अलङ्कता । एवं इमं चक्खुमतो सरीरं,
सुक्कतं सक्कतसक्कतेहि । ।
देविन्दनागिन्दनरिन्दपूजितो,
मनुस्सिन्दट्ठेहि तथैव पूजितो । तं वन्दथ पञ्जलिका लभित्वा,
बुद्धो हवे कप्पसतेहि दुल्लभो 'ति । ।
चत्तालीस समा दन्ता, केसा लोमा च सब्बसो । देवा हरिंसु एकेकं, चक्कवाळपरम्पराति । ।
महापरिनिब्बानसुत्तं निट्ठितं ततियं ।
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(२.३.२४०-२४०)
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४. महासुदस्सनसुत्तं
२४१. एवं मे सुतं - एकं समयं भगवा कुसिनारायं विहरति उपवत्तने मल्लानं सालवने अन्तरेन यमकसालानं परिनिब्बानसमये । अथ खो आयस्मा आनन्दो येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि । एकमन्तं निसिन्नो खो आयस्मा आनन्दो भगवन्तं एतदवोच – “मा, भन्ते, भगवा इमस्मिं खुद्दकनगरके उज्जङ्गलनगरके साखानगरके परिनिब्बायि । सन्ति, भन्ते, अञानि महानगरानि । सेय्यथिदं - चम्पा, राजगह, सावत्थि, साकेतं, कोसम्बी, बाराणसी; एत्थ भगवा परिनिब्बायतु । एत्थ बहू खत्तियमहासाला ब्राह्मणमहासाला गहपतिमहासाला तथागते अभिप्पसन्ना, ते तथागतस्स सरीरपूजं करिस्सन्ती"ति ।
२४२. “मा हेवं, आनन्द, अवच; मा हेवं, आनन्द, अवच - खुद्दकनगरकं उज्जङ्गलनगरकं साखानगरकन्ति ।
कुसावतीराजधानी
"भूतपुब्बं, आनन्द, राजा महासुदस्सनो नाम अहोसि खत्तियो मुद्धावसित्तो चातुरन्तो विजितावी जनपदत्थावरियप्पत्तो। रो, आनन्द, महासुदस्सनस्स अयं कुसिनारा कुसावती नाम राजधानी अहोसि । पुरथिमेन च पच्छिमेन च द्वादसयोजनानि आयामेन, उत्तरेन च दक्खिणेन च सत्तयोजनानि वित्थारेन । कुसावती, आनन्द, राजधानी इद्धा चेव अहोसि फीता च बहुजना च आकिण्णमनुस्सा च सुभिक्खा च । सेय्यथापि, आनन्द, देवानं आळकमन्दा नाम राजधानी इद्धा चेव होति फीता च बहुजना च आकिण्णयक्खा च सुभिक्खा च; एवमेव खो, आनन्द, कुसावती राजधानी इद्धा चेव अहोसि फीता च बहुजना च आकिण्णमनुस्सा च सुभिक्खा च । कुसावती,
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दीघनिकायो-२
(२.४.२४२-२४२)
आनन्द, राजधानी दसहि सद्देहि अविवित्ता अहोसि दिवा चेव रत्तिञ्च, सेय्यथिदं - हत्थिसद्देन अस्ससद्देन रथसद्देन भेरिसद्देन मुदिङ्गसद्देन वीणासद्देन गीतसद्देन सङ्घसद्देन सम्मसद्देन पाणिताळसद्देन “अनाथ पिवथ खादथा''ति दसमेन सद्देन ।
“कुसावती, आनन्द, राजधानी सत्तहि पाकारेहि परिक्खित्ता अहोसि । एको पाकारो सोवण्णमयो, एको रूपियमयो, एको वेळुरियमयो, एको फलिकमयो, एको लोहितङ्कमयो, एको मसारगल्लमयो, एको सब्बरतनमयो। कुसावतिया, आनन्द, राजधानिया चतुन्नं वण्णानं द्वारानि अहेसुं । एकं द्वारं सोवण्णमयं, एकं रूपियमयं, एकं वेळुरियमयं, एकं फलिकमयं । एकेकस्मिं द्वारे सत्त सत्त एसिका निखाता अहेसुं तिपोरिसङ्गा तिपोरिसनिखाता द्वादसपोरिसा उब्बेधेन । एका एसिका सोवण्णमया, एका रूपियमया, एका वेळुरियमया, एका फलिकमया, एका लोहितङ्कमया, एका मसारगल्लमया, एका सब्बरतनमया । कुसावती, आनन्द, राजधानी सत्तहि तालपन्तीहि परिक्खित्ता अहोसि । एका तालपन्ति सोवण्णमया, एका रूपियमया, एका वेळुरियमया, एका फलिकमया, एका लोहितङ्कमया, एका मसारगल्लमया, एका सब्बरतनमया । सोवण्णमयस्स तालस्स सोवण्णमयो खन्धो अहोसि, रूपियमयानि पत्तानि च फलानि च । रूपियमयस्स तालस्स रूपियमयो खन्धो अहोसि, सोवण्णमयानि पत्तानि च फलानि च । वेळुरियमयस्स तालस्स वेळुरियमयो खन्धो अहोसि, फलिकमयानि पत्तानि च फलानि च । फलिकमयस्स तालस्स फलिकमयो खन्धो अहोसि, वेळुरियमयानि पत्तानि च फलानि च । लोहितङ्कमयस्स तालस्स लोहितङ्कमयो खन्धो अहोसि, मसारगल्लमयानि पत्तानि च फलानि च । मसारगल्लमयस्स तालस्स मसारगल्लमयो खन्धो अहोसि, लोहितङ्कमयानि पत्तानि च फलानि च । सब्बरतनमयस्स तालस्स सब्बरतनमयो खन्धो अहोसि, सब्बरतनमयानि पत्तानि च फलानि च । तासं खो पनानन्द, तालपन्तीनं वातेरितानं सद्दो अहोसि वग्गु च रजनीयो च खमनीयो च मदनीयो च । सेय्यथापि, आनन्द, पञ्चङ्गिकस्स तूरियस्स सुविनीतस्स सुप्पटिताळितस्स सुकुसलेहि समन्नाहतस्स सद्दो होति वग्गु च रजनीयो च खमनीयो च मदनीयो च । एवमेव खो, आनन्द, तासं तालपन्तीनं वातेरितानं सद्दो अहोसि वग्गु च रजनीयो च खमनीयो च मदनीयो च । ये खो पनानन्द, तेन समयेन कुसावतिया राजधानिया धुत्ता अहेसुं सोण्डा पिपासा, ते तासं तालपन्तीनं वातेरितानं सद्देन परिचारेसुं ।
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(२.४.२४३-२४४)
४. महासुदरसनसुतं
चक्करतनं
२४३. “राजा, आनन्द, महासुदस्सनो सत्तहि रतनेहि समन्नागतो अहोसि चतूहि च इद्धीहि। कतमेहि सत्तहि ? इधानन्द, रज्ञो महासुदस्सनस्स तदहुपोसथे पन्नरसे सीसंन्हातस्स उपोसथिकस्स उपरिपासादवरगतस्स दिब्बं चक्करतनं पातुरहोसि सहस्सारं सनेमिकं सनाभिकं सब्बाकारपरिपूरं । दिस्वा रञ्ञो महासुदस्सनस्स एतदहोसि - “सुतं खो पतं 'यस्स रञ्ञो खत्तियस्स मुद्धावसित्तस्स तदहुपोसथे पन्नरसे सीसंन्हातस्स उपोसथिकस्स उपरिपासादवरगतस्स दिब्बं चक्करतनं पातुभवति सहस्सारं सनेमिकं सनाभिकं सब्बाकारपरिपूरं, सो होति राजा चक्कवत्ती 'ति । अस्सं नु खो अहं राजा चक्कवत्ती 'ति ।
२४४. “अथ खो, आनन्द, राजा महासुदस्सनो उट्ठायासना एकंसं उत्तरासङ्गं करित्वा वामेन हत्थेन सुवण्णभिङ्कारं गत्वा दक्खिणेन हत्थेन चक्करतनं अब्भुक्किरि - 'पवत्ततु भवं चक्करतनं, अभिविजिनातु भवं चक्करतन 'न्ति । अथ खो तं, आनन्द, चक्करतनं पुरत्थिमं दिसं पवत्ति, अन्वदेव राजा महासुदस्सनो सद्धिं चतुरङ्गिनिया सेनाय, यस्मिं खो पनानन्द, पदेसे चक्करतनं पतिट्ठासि, तत्थ राजा महासुदस्सनो वासं उपगच्छ सद्धिं चतुरङ्गिनिया सेनाय । ये खो पनानन्द, पुरत्थिमाय दिसाय पटिराजानो, ते राजानं महासुदस्सनं उपसङ्कमित्वा एवमाहंसु - 'एहि खो, महाराज; स्वागतं ते महाराज; सकं ते महाराज; अनुसास महाराजा'ति । राजा महासुदस्सनो एवमाह - 'पाणो न हन्तब्बो, अदिन्नं न आदातब्बं, कामेसु मिच्छा न चरितब्बा, मुसा न भणितब्बा, मज्जं न पातब्बं यथाभुत्तञ्च भुञ्जथा 'ति । ये खो पनानन्द, पुरत्थिमाय दिसाय पटिराजानो, ते रञ महासुदस्सनस्स अनुयन्ता अहेसुं । अथ खो तं, आनन्द, चक्करतनं पुरत्थिमं समुदं अज्झोगाहेत्वा पच्चुत्तरित्वा दक्खिणं दिसं पवत्ति...पे०... दक्खिणं समुदं अज्झोगाहेत्वा पच्चुत्तरित्वा पच्छिमं दिसं पवत्ति...पे०... पच्छिमं समुद्दं अज्झोगाहेत्वा पच्चुत्तरित्वा उत्तरं दिसं पवत्ति, अन्वदेव राजा महासुदस्सनो सद्धिं चतुरङ्गिनिया सेनाय । यस्मिं खो पनानन्द, पदेसे चक्करतनं पतिट्ठासि, तत्थ राजा महासुदस्सनो वासं उपगच्छि सद्धिं चतुरङ्गिनिया सेनाय । ये खो पनानन्द उत्तराय दिसाय पटिराजानो, ते राजानं महासुदस्सनं उपसङ्कमित्वा एवमाहंसु - 'एहि खो, महाराज; स्वागतं ते महाराज; सकं ते महाराज; अनुसास महाराजा'ति । राजा महासुदस्सनो एवमाह - 'पाणो न हन्तब्बो, अदिन्नं न आदातब्बं, कामेसु मिच्छा न चरितब्बा, मुसा न भणितब्बा, मज्जं न
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दीघनिकायो-२
(२.४.२४५-२४७)
पातब्बं, यथाभुत्तञ्च भुञ्जथा'ति । ये खो पनानन्द, उत्तराय दिसाय पटिराजानो, ते रो महासुदस्सनस्स अनुयन्ता अहेसुं।
२४५. “अथ खो तं, आनन्द, चक्करतनं समुद्दपरियन्तं पथविं अभिविजिनित्वा कुसावतिं राजधानिं पच्चागन्त्वा रो महासुदस्सनस्स अन्तेपुरद्वारे अत्थकरणपमुखे अक्खाहतं मझे अट्ठासि रो महासुदस्सनस्स अन्तेपुरं उपसोभयमानं । रञो, आनन्द, महासुदस्सनस्स एवरूपं चक्करतनं पातुरहोसि ।
हत्थिरतनं
२४६. “पुन चपरं, आनन्द, रञो महासुदस्सनस्स हस्थिरतनं पातुरहोसि सब्बसेतो सत्तप्पतिट्ठो इद्धिमा वेहासङ्गमो उपोसथो नाम नागराजा । तं दिस्वा रो महासुदस्सनस्स चित्तं पसीदि - ‘भद्दकं वत भो हथियानं, सचे दमथं उपेय्या'ति । अथ खो तं आनन्द, हत्थिरतनं - सेय्यथापि नाम गन्धहत्थाजानियो दीघरत्तं सुपरिदन्तो, एवमेव दमथं उपगच्छि । भूतपूब्बं, आनन्द, राजा महासुदस्सनो तमेव हत्थिरतनं वीमंसमानो पब्बण्हसमयं अभिरुहित्वा समुद्दपरियन्तं पथविं अनुयायित्वा कुसावतिं राजधानि पच्चागन्त्वा पातरासमकासि । रञो, आनन्द, महासुदस्सनस्स एवरूपं हत्थिरतनं पातुरहोसि ।
अस्सरतनं
२४७. “पुन चपरं, आनन्द, रो महासुदस्सनस्स अस्सरतनं पातुरहोसि सब्बसेतो काळसीसो मुञ्जकेसो इद्धिमा वेहासङ्गमो वलाहको नाम अस्सराजा । तं दिस्वा रञो महासुदस्सनस्स चित्तं पसीदि - ‘भद्दकं वत भो अस्सयानं सचे दमथं उपेय्या'ति । अथ खो तं, आनन्द, अस्सरतनं सेय्यथापि नाम भद्दो अस्साजानियो दीघरत्तं सुपरिदन्तो, एवमेव दमथं उपगच्छि । भूतपुब्बं, आनन्द, राजा महासुदस्सनो तमेव अस्सरतनं वीमंसमानो पुब्बण्हसमयं अभिरुहित्वा समुद्दपरियन्तं पथविं अनुयायित्वा कुसावतिं राजधानि पच्चागन्त्वा पातरासमकासि । रञो, आनन्द, महासुदस्सनस्स एवरूपं अस्सरतनं पातुरहोसि ।
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(२.४.२४८-२५०)
४. महासुदस्सनसुत्तं
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मणिरतनं
२४८. “पुन चपरं, आनन्द, रञो महासुदस्सनस्स मणिरतनं पातुरहोसि । सो अहोसि मणि वेळुरियो सुभो जातिमा अटुंसो सुपरिकम्मकतो अच्छो विप्पसन्नो अनाविलो सब्बाकारसम्पन्नो। तस्स खो, पनानन्द, मणिरतनस्स आभा समन्ता योजनं फुटा अहोसि । भूतपुब्बं, आनन्द, राजा महासुदस्सनो तमेव मणिरतनं वीमंसमानो चतुरङ्गिनिं सेनं सन्नव्हित्वा मणिं धजग्गं आरोपेत्वा रत्तन्धकारतिमिसाय पायासि । ये खो पनानन्द, समन्ता गामा अहेसुं, ते तेनोभासेन कम्मन्ते पयोजेसुं दिवाति मञमाना। रञो, आनन्द, महासुदस्सनस्स एवरूपं मणिरतनं पातुरहोसि ।
इत्थिरतनं
२४९. “पुन चपरं, आनन्द, रो महासुदस्सनस्स इत्थिरतनं पातुरहोसि अभिरूपा दस्सनीया पासादिका परमाय वण्णपोक्खरताय समन्नागता नातिदीघा नातिरस्सा नातिकिसा नातिथूला नातिकाळिका नाच्चोदाता अतिक्कन्ता मानुसिवण्णं अप्पत्ता दिब्बवण्णं । तस्स खो पनानन्द, इस्थिरतनस्स एवरूपो कायसम्फस्सो होति, सेय्यथापि नाम तूलपिचुनो वा कप्पासपिचुनो वा । तस्स खो पनानन्द, इत्थिरतनस्स सीते उण्हानि गत्तानि होन्ति, उण्हे सीतानि । तस्स खो पनानन्द, इस्थिरतनस्स कायतो चन्दनगन्धो वायति, मुखतो उप्पलगन्धो। तं खो पनानन्द, इस्थिरतनं रो महासुदस्सनस्स पुब्बुढायिनी अहोसि पच्छानिपातिनी किङ्कारपटिस्साविनी मनापचारिनी पियवादिनी। तं खो, पनानन्द, इत्थिरतनं राजानं महासुदस्सनं मनसापि नो अतिचरि, कुतो पन कायेन । रो, आनन्द, महासुदस्सनस्स एवरूपं इत्थिरतनं पातुरहोसि ।
गहपतिरतनं
२५०. “पुन चपरं, आनन्द, रञो महासुदस्सनस्स गहपतिरतनं पातुरहोसि । तस्स कम्मविपाकजं दिब्बचक्खु पातुरहोसि, येन निधिं पस्सति सस्सामिकम्पि अस्सामिकम्पि । सो राजानं महासुदस्सनं उपसङ्कमित्वा एवमाह - ‘अप्पोस्सुक्को त्वं, देव, होहि, अहं ते धनेन धनकरणीयं करिस्सामी'ति । “भूतपुब्बं, आनन्द, राजा महासुदस्सनो तमेव गहपतिरतनं वीमंसमानो नावं अभिरुहित्वा मज्झे गङ्गाय नदिया सोतं ओगाहित्वा
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दीघनिकायो-२
गहपतिरतनं एतदवोच – ' अत्थो मे, गहपति, हिरञ्ञसुवण्णेना'ति । 'तेन हि महाराज, एकं तीरं नावा उपेतू'ति । 'इधेव मे, गहपति, अत्थो हिरञ्ञसुवण्णेनाति । अथ खोतं, आनन्द, गहपतिरतनं उभोहि हत्थेहि उदकं ओमसित्वा पूरं हिरञ्ञसुवण्णस्स कुम्भिं उद्धरित्वा राजानं महासुदस्सनं एतदवोच- 'अलमेत्तावता, महाराज; कतमेत्तावता महाराज पूजितमेत्तावता महाराजा'ति ? राजा महासुदस्सनो एवमाह - 'अलमेत्तावता गहपति; कतमेत्तावता गहपति; पूजितमेत्तावता गहपती 'ति । रञ्ञो, महासुदस्सनस्स एवरूपं गहपतिरतनं पातुरहोसि |
आनन्द,
परिणायकरतनं
२५१. “पुन चपरं, आनन्द, रज्ञो महासुदस्सनस्स परिणायकरतनं पातुर होसि पण्डितो वियत्तो मेधावी पटिबलो राजानं महासुदस्सनं उपयापेतब्बं उपयापेतुं, अपयापेतब्बं अपयापेतुं, ठपेतब्बं ठपेतुं । सो राजानं महासुदस्सनं उपसङ्कमित्वा एवमाह 'अप्पोस्सुक्को त्वं, देव, होहि, अहमनुसासिस्सामी 'ति । रञ्ञो, आनन्द, महासुदस्सनस्स एवरूपं परिणायकरतनं पातुरहोसि ।
"राजा, आनन्द, महासुदस्सनो इमेहि सत्तहि रतनेहि समन्नागतो अहोसि ।
चतुइद्धिसमन्नागतो
२५२. राजा, आनन्द, महासुदस्सनो चतूहि इद्धीहि समन्नागतो अहोसि । कहि चतूहि इद्धीहि ? इधानन्द, राजा महासुदस्सनो अभिरूपो अहोसि दस्सनीयो पासादिको परमाय वण्णपोक्खरताय समन्नागतो अतिविय अञेहि मनुस्सेहि । राजा, आनन्द, महासुदस्सनो इमाय पठमाय इद्धिया समन्नागतो अहोसि ।
(२.४.२५१-२५२)
“पुन चपरं, आनन्द, राजा महासुदस्सनो दीघायुको अहोसि चिरट्ठितिको अतिवि अहि मनुस्सेहि । राजा, आनन्द, महासुदस्सनो इमाय दुतियाय इद्धिया समन्नागतो अहोसि ।
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(२.४.२५३-२५३)
४. महासुदस्सनसुत्तं
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“पुन चपरं, आनन्द, राजा महासुदस्सनो अप्पाबाधो अहोसि अप्पातको समवेपाकिनिया गहणिया समन्नागतो नातिसीताय नाच्चुण्हाय अतिविय अजेहि मनुस्सेहि । राजा, आनन्द, महासुदस्सनो इमाय ततियाय इद्धिया समन्नागतो अहोसि ।
"पुन चपरं, आनन्द, राजा महासुदस्सनो ब्राह्मणगहपतिकानं पियो अहोसि मनापो । सेय्यथापि, आनन्द, पिता पुत्तानं पियो होति मनापो; एवमेव खो, आनन्द, राजा महासुदस्सनो ब्राह्मणगहपतिकानं पियो अहोसि मनापो। रोपि, आनन्द, महासुदस्सनस्स ब्राह्मणगहपतिका पिया अहेसुं मनापा । सेय्यथापि, आनन्द, पितु पुत्ता पिया होन्ति मनापा; एवमेव खो, आनन्द, रोपि महासुदस्सनस्स ब्राह्मणगहपतिका पिया अहेसुं मनापा।
___ "भूतपुर, आनन्द, राजा महासुदस्सनो चतुरङ्गिनिया सेनाय उय्यानभूमि निय्यासि। अथ खो. आनन्द. ब्राह्मणगहपतिका राजानं महासदस्सनं उपसमित्वा एवमाहंसु - ‘अतरमानो, देव, याहि, यथा तं मयं चिरतरं पस्सेय्यामा'ति । राजापि, आनन्द, महासुदस्सनो सारथिं आमन्तेसि - ‘अतरमानो, सारथि, रथं पेसेहि, यथा अहं ब्राह्मणगहपतिके चिरतरं पस्सेय्य'न्ति । राजा, आनन्द, महासुदस्सनो इमाय चतुत्थिया इद्धिया समन्नागतो अहोसि । राजा, आनन्द, महासुदस्सनो इमाहि चतूहि इद्धीहि समन्नागतो अहोसि ।
धम्मपासादपोक्खरणी
२५३. “अथ खो, आनन्द, रञो महासुदस्सनस्स एतदहोसि - ‘यंनूनाहं इमासु तालन्तरिकासु धनुसते धनुसते पोक्खरणियो मापेय्य'न्ति ।
“मापेसि खो, आनन्द, राजा महासुदस्सनो तासु तालन्तरिकासु धनुसते धनुसते पोक्खरणियो। ता खो पनानन्द, पोक्खरणियो चतुन्नं वण्णानं इट्टकाहि चिता अहेसुंएका इट्टका सोवण्णमया, एका रूपियमया, एका वेळुरियमया, एका फलिकमया ।
“तासु खो पनानन्द, पोक्खरणीसु चत्तारि चत्तारि सोपानानि अहेसुं चतुन्नं वण्णानं, एकं सोपानं सोवण्णमयं एकं रूपियमयं एकं वेळुरियमयं एकं फलिकमयं ।
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दीघनिकायो-२
सोवण्णमयस्स सोपानस्स सोवण्णमया थम्भा अहेसुं, रूपियमया सूचियो च उण्हीसञ्च । रूपियमयस्स सोपानस्स रूपियमया थम्भा अहेसुं, सोवण्णमया सूचियो च उण्हीसञ्च । वेळुरियमयस्स सोपानस्स वेळुरियमया थम्भा अहेसुं, फलिकमया सूचियो च उण्हीसञ्च । फलिकमयस्स सोपानस्स फलिकमया थम्भा अहेसुं, वेळुरियमया सूचियो च उण्हीसञ्च । ता खो पनानन्द, पोक्खरणियो द्वीहि वेदिकाहि परिक्खित्ता अहेसुं एका वेदिका सोवण्णमया, एका रूपियमया । सोवण्णमयाय वेदिकाय सोवण्णमया थम्भा अहे, रूपियमया सूचियो च उण्हीसञ्च । रूपियमयाय वेदिकाय रूपियमया थम्भा अहेसुं, सोवण्णमया सूचियो च उण्हीसञ्च । अथ खो, आनन्द, रज्ञो महासुदस्सनस्स एतदहोसि - 'यंनूनाहं इमासु पोक्खरणीसु एवरूपं मालं रोपापेय्यं उप्पलं पदुमं कुमुदं पुण्डरीकं सब्बोतुकं सब्बजनस्स अनावट 'न्ति । रोपापेसि खो, आनन्द, राजा महासुदस्सनो तासु पोक्खरणीसु एवरूपं मालं उप्पलं पदुमं कुमुदं पुण्डरीकं सब्बोतुकं सब्बजनस्स अनावटं ।
२५४. “अथ खो, आनन्द, रञो महासुदस्सनस्स एतदहोसि - 'यंनूनाहं इमासं पोक्खरणीनं तीरे न्हापके पुरिसे ठपेय्यं, ये आगतागतं जनं न्हापेस्सन्ती 'ति । ठपेसि खो, आनन्द, राजा महासुदरसनो तासं पोक्खरणीनं तीरे न्हापके पुरिसे, ये आगतागतं जनं न्हापेसुं ।
(२.४.२५४-२५५)
" अथ खो, आनन्द, रञो महासुदस्सनस्स एतदहोसि - 'यंनूनाहं इमासं पोक्खरणीनं तीरे एवरूपं दानं पट्टपेय्यं - अन्नं अन्नट्ठिकस्स, पानं पानट्ठिकस्स, वत्थं वत्थट्ठिकस्स, यानं यानट्ठिकस्स, सयनं सयनट्ठिकस्स, इत्थिं इत्थिट्ठिकस्स, हिरञ हिरञट्ठिकस्स, सुवण्णं सुवण्णट्ठिकस्सा'ति । पट्ठपेसि खो, आनन्द, राजा महासुदस्सनो तासं पोक्खरणीनं तीरे एवरूपं दानं - अन्नं अन्नट्ठिकस्स, पानं पानट्ठिकस्स, वत्थं वत्थट्ठिकस्स, यानं यानट्ठिकस्स, सयनं सयनट्ठिकस्स, इत्थिं इत्थिट्ठिकस्स, हिरञ हिरञट्ठिकस्स, सुवण्णं सुवण्णट्ठिकस्स ।
२५५. “अथ खो, आनन्द, ब्राह्मणगहपतिका पहूतं सापतेय्यं आदाय राजानं महासुदस्सनं उपसङ्कमित्वा एवमाहंसु - 'इदं देव, पहूतं सापतेय्यं देवञ्ञेव उद्दिस्स आभतं तं देवो पटिग्गण्हतू'ति । 'अलं भो, ममपिदं पहूतं सापतेय्यं धम्मिकेन बलिना अभिसङ्घतं, तञ्च वो होतु, इतो च भिय्यो हरथा'ति । ते रञ्ञा परिक्खित्ता एकमन्तं
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(२.४.२५६-२५६)
४. महासुदस्सनसुत्तं
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अपक्कम्म एवं समचिन्तेसुं- 'न खो एतं अम्हाकं पतिरूपं, यं मयं इमानि सापतेय्यानि पुनदेव सकानि घरानि पटिहरेय्याम। यंनून मयं रो महासुदस्सनस्स निवेसनं मापेय्यामा'ति । ते राजानं महासदस्सनं उपसमित्वा एवमाहंस- 'निवेसनं ते. देव. मापेस्सामा'ति । अधिवासेसि खो, आनन्द, राजा महासुदस्सनो तुण्हीभावेन ।
२५६. “अथ खो, आनन्द, सक्को देवानमिन्दो रो महासुदस्सनस्स चेतसा चेतोपरिवितक्कम आय विस्सकम्मं देवपत्तं आमन्तेसि- 'एहि त्वं, सम्म विस्सकम्म, रञो महासुदस्सनस्स निवेसनं मापेहि धम्मं नाम पासादन्ति । “एवं भद्दन्तवा''ति खो, आनन्द, विस्सकम्मो देवपुत्तो सक्कस्स देवानमिन्दस्स पटिस्सुत्वा सेय्यथापि नाम बलवा पुरिसो समिञ्जितं वा बाहं पसारेय्य पसारितं वा बाहं समिञ्जय्य; एवमेव देवेसु तावतिंसेसु अन्तरहितो रो महासुदस्सनस्स पुरतो पातुरहोसि । अथ खो, आनन्द, विस्सकम्मो देवपुत्तो राजानं महासुदस्सनं एतदवोच – “निवेसनं ते, देव, मापेस्सामि धम्म नाम पासादन्ति । अधिवासेसि खो, आनन्द, राजा महासुदस्सनो तुण्हीभावेन ।
__“मापेसि खो, आनन्द, विस्सकम्मो देवपुत्तो रो महासुदस्सनस्स निवेसनं धम्म नाम पासादं | धम्मो, आनन्द, पासादो पुरथिमेन पच्छिमेन च योजनं आयामेन अहोसि । उत्तरेन दक्खिणेन च अड्डयोजनं वित्थारेन । धम्मस्स, आनन्द, पासादस्स तिपोरिसं उच्चतरेन वत्थु चितं अहोसि चतुन्नं वण्णानं इठ्ठकाहि - एका इट्टका सोवण्णमया, एका रूपियमया, एका वेळुरियमया, एका फलिकमया ।
“धम्मस्स, आनन्द, पासादस्स चतुरासीति थम्भसहस्सानि अहेसुं चतुन्नं वण्णानं - एको थम्भो सोवण्णमयो, एको रूपियमयो, एको वेळुरियमयो, एको फलिकमयो । धम्मो, आनन्द, पासादो चतुन्नं वण्णानं फलकेहि सन्थतो अहोसि- एकं फलकं सोवण्णमयं, एकं रूपियमयं, एकं वेळुरियमयं, एकं फलिकमयं ।
"धम्मस्स, आनन्द, पासादस्स चतुवीसति सोपानानि अहेसुं चतुन्नं वण्णानं - एकं सोपानं सोवण्णमयं, एकं रूपियमयं, एकं वेळुरियमयं, एकं फलिकमयं । सोवण्णमयस्स सोपानस्स सोवण्णमया थम्भा अहेसुं रूपियमया सूचियो च उण्हीसञ्च । रूपियमयस्स सोपानस्स रूपियमया थम्भा अहेसुं सोवण्णमया सूचियो च उण्हीसञ्च । वेळुरियमयस्स
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दीघनिकायो-२
(२.४.२५७-२५८)
सोपानस्स वेळुरियमया थम्भा अहेसुं फलिकमया सूचियो च उण्हीसञ्च । फलिकमयस्स सोपानस्स फलिकमया थम्भा अहेसुं वेळुरियमया सूचियो च उण्हीसञ्च ।
“धम्मे, आनन्द, पासादे चतुरासीति कूटागारसहस्सानि अहेसुं चतुन्नं वण्णानंएकं कूटागारं सोवण्णमयं, एकं रूपियमयं, एकं वेळुरियमयं, एकं फलिकमयं । सोवण्णमये कूटागारे रूपियमयो पल्लङ्को पञत्तो अहोसि, रूपियमये कूटागारे सोवण्णमयो पल्लङ्को पञ्जत्तो अहोसि, वेळुरियमये कूटागारे दन्तमयो पल्लङ्को पञ्जत्तो अहोसि, फलिकमये कूटागारे सारमयो पल्लङ्को पञ्जत्तो अहोसि। सोवण्णमयस्स कूटागारस्स द्वारे रूपियमयो तालो ठितो अहोसि; तस्स रूपियमयो खन्धो सोवण्णमयानि पत्तानि च फलानि च । रूपियमयस्स कूटागारस्स द्वारे सोवण्णमयो तालो ठितो अहोसि; तस्स सोवण्णमयो खन्धो, रूपियमयानि पत्तानि च फलानि च। वेळुरियमयस्स कूटागारस्स द्वारे फलिकमयो तालो ठितो अहोसि; तस्स फलिकमयो खन्धो, वेळुरियमयानि पत्तानि च फलानि च । फलिकमयस्स कूटागारस्स द्वारे वेळुरियमयो तालो ठितो अहोसि; तस्स वेळुरियमयो खन्धो, फलिकमयानि पत्तानि च फलानि च ।
२५७. “अथ खो, आनन्द, रञो महासुदस्सनस्स एतदहोसि - 'यंनूनाहं महावियूहस्स कूटागारस्स द्वारे सब्बसोवण्णमयं तालवनं मापेय्यं, यत्थ दिवाविहारं निसीदिस्सामी'ति । मापेसि खो, आनन्द, राजा महासुदस्सनो महावियूहस्स कूटागारस्स द्वारे सब्बसोवण्णमयं तालवनं, यत्थ दिवाविहारं निसीदि । धम्मो, आनन्द, पासादो द्वीहि वेदिकाहि परिक्खित्तो अहोसि, एका वेदिका सोवण्णमया, एका रूपियमया । सोवण्णमयाय वेदिकाय सोवण्णमया थम्भा अहेसुं, रूपियमया सूचियो च उण्हीसञ्च । रूपियमयाय वेदिकाय रूपियमया थम्भा अहेसुं, सोवण्णमया सूचियो च उण्हीसञ्च ।
२५८. “धम्मो, आनन्द, पासादो द्वीहि किङ्किणिकजालेहि परिक्खित्तो अहोसि - एकं जालं सोवण्णमयं एकं रूपियमयं । सोवण्णमयस्स जालस्स रूपियमया किङ्किणिका अहेसुं, रूपियमयस्स जालस्स सोवण्णमया किङ्किणिका अहेसुं। तेसं खो पनानन्द, किङ्किणिकजालानं वातेरितानं सद्दो अहोसि वग्गु च रजनीयो च खमनीयो च मदनीयो च । सेय्यथापि, आनन्द, पञ्चङ्गिकस्स तूरियस्स सुविनीतस्स सुप्पटिताळितस्स सुकुसलेहि समन्नाहतस्स सद्दो होति, वग्गु च रजनीयो च खमनीयो च मदनीयो च; एवमेव खो, आनन्द, तेसं किङ्किणिकजालानं वातेरितानं सद्दो अहोसि वग्गु च रजनीयो च खमनीयो
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(२.४.२५९-२५९)
४. महासुदस्सनसुत्तं
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च मदनीयो च। ये खो पनानन्द, तेन समयेन कुसावतिया राजधानिया धुत्ता अहेसुं सोण्डा पिपासा, ते तेसं किङ्किणिकजालानं वातेरितानं सद्देन परिचारेसुं। निहितो खो पनानन्द, धम्मो पासादो दुद्दिक्खो अहोसि मुसति चक्खूनि । सेय्यथापि, आनन्द, वस्सानं पच्छिमे मासे सरदसमये विद्धे विगतवलाहके देवे आदिच्चो नभं अब्भुस्सक्कमानो दुद्दिक्खो होति मुसति चक्खूनि; एवमेव खो, आनन्द, धम्मो पासादो दुद्दिक्खो अहोसि मुसति चक्खूनि ।
२५९. “अथ खो, आनन्द, रञो महासुदस्सनस्स एतदहोसि - 'यंनूनाहं धम्मस्स पासादस्स पुरतो धम्मं नाम पोक्खरणिं मापेय्य'न्ति । मापेसि खो, आनन्द, राजा महासुदस्सनो धम्मस्स पासादस्स पुरतो धम्मं नाम पोक्खरणिं । धम्मा, आनन्द, पोक्खरणी पुरथिमेन पच्छिमेन च योजनं आयामेन अहोसि, उत्तरेन दक्खिणेन च अड्डयोजनं वित्थारेन । धम्मा, आनन्द, पोक्खरणी चतुन्नं वण्णानं इट्टकाहि चिता अहोसि -- एका इट्ठका सोवण्णमया, एका रूपियमया, एका वेळुरियमया, एका फलिकमया ।
"धम्माय, आनन्द, पोक्खरणिया चतुवीसति सोपानानि अहेसुं चतुन्नं वण्णानं - एकं सोपानं सोवण्णमयं, एकं रूपियमयं, एकं वेरियमयं, एकं फलिकमयं । सोवण्णमयस्स सोपानस्स सोवण्णमया थम्भा अहेसुं रूपियमया सूचियो च उण्हीसञ्च। रूपियमयस्स सोपानस्स रूपियमया थम्भा अहेसुं सोवण्णमया सूचियो च उण्हीसञ्च । वेळुरियमयस्स सोपानस्स वेळुरियमया थम्भा अहेसुं फलिकमया सूचियो च उण्हीसञ्च । फलिकमयस्स सोपानस्स फलिकमया थम्भा अहेसुं वेळुरियमया सूचियो च उण्हीसञ्च ।
"धम्मा, आनन्द, पोक्खरणी द्वीहि वेदिकाहि परिक्खित्ता अहोसि- एका वेदिका सोवण्णमया. एका रूपियमया। सोवण्णमयाय वेदिकाय सोवण्णमया थम्भा अहेसं रूपियमया सूचियो च उण्हीसञ्च । रूपियमयाय वेदिकाय रूपियमया थम्भा अहेसुं सोवण्णमया सूचियो च उण्हीसञ्च ।
“धम्मा, आनन्द, पोक्खरणी सत्तहि तालपन्तीहि परिक्खित्ता अहोसि - एका तालपन्ति सोवण्णमया, एका रूपियमया, एका वेळुरियमया, एका फलिकमया, एका लोहितङ्कमया, एका मसारगल्लमया, एका सब्बरतनमया। सोवण्णमयस्स तालस्स सोवण्णमयो खन्धो अहोसि, रूपियमयानि पत्तानि च फलानि च । रूपियमयस्स तालस्स
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दीघनिकायो-२
रूपियमयो खन्धो अहोसि, सोवण्णमयानि पत्तानि च फलानि च । वेळुरियमयस्स तालस्स वेळुरियमयो खन्धो अहोसि, फलिकमयानि पत्तानि च फलानि च । फलिकमयस्स तालस्स फलिकमयो खन्धो अहोसि, वेळुरियमयानि पत्तानि च फलानि च । लोहितङ्कमयस्स तालस्स लोहितङ्कमयो खन्धो अहोसि, मसारगल्लमयानि पत्तानि च फलानि च । मसारगल्लमयस्स तालस्स मसारगल्लमयो खन्धो अहोसि, लोहितङ्कमयानि पत्तानि च फलानि च । सब्बरतनमयस्स तालस्स सब्बरतनमयो खन्धो अहोसि, सब्बरतनमयानि पत्तानि च फलानि च । तासं खो पनानन्द, तालपन्तीनं वातेरितानं सद्दो अहोसि, वग्गु च रजनीयो च खमनीयो च मदनीयो च । सेय्यथापि, आनन्द, पञ्चङ्गिकस्स तूरियस्स सुविनीतस्स सुप्पटिताळितस्स सुकुसलेहि समन्नाहतस्स सद्दो होति वग्गु च रजनीयो च खमनीयो च मदनीयो च एवमेव खो, आनन्द, तासं तालपन्तीनं वातेरितानं सद्दो अहोसि वग्गु च रजनीयो च खमनीयो च मदनीयो च । ये खो पनानन्द, तेन समयेन कुसावतिया राजधानिया धुत्ता अहेसुं सोण्डा पिपासा, ते तासं तालपन्तीनं वातेरितानं सद्देन परिचारेसुं ।
१३८
“निट्ठिते खो पनानन्द, धम्मे पासादे निट्ठिताय धम्माय च पोक्खरणिया राजा महासुदस्सनो 'ये तेन समयेन समणेसु वा समणसम्मता ब्राह्मणेसु वा ब्राह्मणसम्मता', ते सब्बकामेहि सन्तप्पेत्वा धम्मं पासादं अभिरुहि ।
पठमभाणवारो ।
झा सम्पत्ति
२६०. 'अथ खो, आनन्द, रज्ञो महासुदस्सनस्स एतदहोसि - 'किस्स नु खो मे इदं कम्मस्स फलं किस्स कम्मस्स विपाको, येनाहं एतरहि एवंमहिद्धिको एवंमहानुभावो 'ति ? अथ खो, आनन्द, रञ्ञो महासुदस्सनस्स एतदहोसि - 'तिण्णं खो मे इदं कम्मानं फलं तिण्णं कम्मानं विपाको, येनाहं एतरहि एवंमहिद्धिको एवं महानुभावो, सेय्यथिदं दानस्स दमस्स संयमस्सा 'ति ।
(२.४.२६०-२६०)
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(२.४.२६१-२६३)
४. महासुदस्सनसुत्तं
१३९
___“अथ खो, आनन्द, राजा महासुदस्सनो येन महावियूहं कूटागारं तेनुपसङ्कमि; उपसमित्वा महावियूहस्स कूटागारस्स द्वारे ठितो उदानं उदानेसि- 'तिट्ठ, कामवितक्क, तिट्ट, ब्यापादवितक्क, तिठ्ठ, विहिंसावितक्क । एत्तावता कामवितक्क, एत्तावता ब्यापादवितक्क, एत्तावता विहिंसावितक्का'ति ।
२६१. “अथ खो, आनन्द, राजा महासुदस्सनो महावियूहं कूटागारं पविसित्वा सोवण्णमये पल्लङ्के निसिन्नो विविच्चेव कामेहि विविच्च अकुसलेहि धम्मेहि सवितक्कं सविचारं विवेकजं पीतिसुखं पठमं झानं उपसम्पज्ज विहासि । वितक्कविचारानं वूपसमा अज्झत्तं सम्पसादनं चेतसो एकोदिभावं अवितक्कं अविचारं समाधिजं पीतिसुखं दुतियं झानं उपसम्पज्ज विहासि । पीतिया च विरागा उपेक्खको च विहासि, सतो च सम्पजानो सुखञ्च कायेन पटिसंवेदेसि, यं तं अरिया आचिक्खन्ति- 'उपेक्खको सतिमा सुखविहारी'ति ततियं झानं उपसम्पज्ज विहासि। सुखस्स च पहाना दुक्खस्स च पहाना पुब्बेव सोमनस्सदोमनस्सानं अत्थङ्गमा अदुक्खमसुखं उपेक्खासतिपारिसुद्धि चतुत्थं झानं उपसम्पज्ज विहासि।
२६२. “अथ खो, आनन्द, राजा महासुदस्सनो महावियूहा कूटागारा निक्खमित्वा सोवण्णमयं कूटागारं पविसित्वा रूपियमये पल्लङ्के निसिन्नो मेत्तासहगतेन चेतसा एकं दिसं फरित्वा विहासि । तथा दुतियं तथा ततियं तथा चतुत्थं । इति उद्धमधो तिरियं सब्बधि सब्बत्तताय सब्बावन्तं लोकं मेत्तासहगतेन चेतसा विपुलेन महग्गतेन अप्पमाणेन अवेरेन अब्यापज्जेन फरित्वा विहासि । करुणासहगतेन चेतसा...पे०... मुदितासहगतेन चेतसा...पे०... उपेक्खासहगतेन चेतसा एकं दिसं फरित्वा विहासि तथा दुतियं तथा ततियं तथा चतुत्थं । इति उद्धमधो तिरियं सब्बधि सब्बत्तताय सब्बावन्तं लोकं उपेक्खासहगतेन चेतसा विपुलेन महग्गतेन अप्पमाणेन अवेरेन अब्यापज्जेन फरित्वा विहासि ।
चतुरासीति नगरसहस्सादि २६३. “रओ, आनन्द, महासुदस्सनस्स चतुरासीति नगरसहस्सानि अहेसुं कुसावतीराजधानिप्पमुखानि; "चतुरासीति पासादसहस्सानि अहेसुं धम्मपासादप्पमुखानि; "चतुरासीति कूटागारसहस्सानि अहेसुं महावियूहकूटागारप्पमुखानि; "चतुरासीति
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१४०
दीघनिकायो-२
(२.४.२६४-२६५)
पल्लङ्कसहस्सानि अहेसुं सोवण्णमयानि रूपियमयानि दन्तमयानि सारमयानि गोनकत्थतानि पटिकत्थतानि पटलिकत्थतानि कदलि-मिग-पवर-पच्चत्थरणानि सउत्तरच्छदानि उभतोलोहितकूपधानानि; "चतुरासीति नागसहस्सानि अहेसुं सोवण्णालङ्कारानि सोवण्णधजानि हेमजालपटिच्छन्नानि उपोसथनागराजप्पमुखानि; "चतुरासीति अस्ससहस्सानि अहेसुं सोवण्णालङ्कारानि सोवण्णधजानि हेमजालपटिच्छन्नानि वलाहकअस्सराजप्पमुखानि; "चतुरासीति रथसहस्सानि अहेसुं सीहचम्मपरिवारानि ब्यग्घचम्मपरिवारानि दीपिचम्मपरिवारानि पण्डुकम्बलपरिवारानि सोवण्णालङ्कारानि सोवण्णधजानि हेमजालपटिच्छन्नानि वेजयन्तरथप्पमुखानि; "चतुरासीति मणिसहस्सानि अहेसुं मणिरतनप्पमुखानि; "चतुरासीति इत्थिसहस्सानि अहेसुं सुभद्दादेविप्पमुखानि; "चतुरासीति गहपतिसहस्सानि अहेसुं गहपतिरतनप्पमुखानि; "चतुरासीति खत्तियसहस्सानि अहेसुं अनुयन्तानि परिणायकरतनप्पमुखानि; "चतुरासीति धेनुसहस्सानि अहेसुं दुहसन्दनानि कंसूपधारणानि; "चतुरासीति वत्थकोटिसहस्सानि अहेसुं खोमसुखुमानं कप्पासिकसुखुमानं कोसेय्यसुखुमानं कम्बलसुखुमान; (रओ, आनन्द, महासुदस्सनस्स) “चतुरासीति थालिपाकसहस्सानि अहेसुं सायं पातं भत्ताभिहारो अभिहरियित्थ ।
२६४. “तेन खो पनानन्द, समयेन रो महासुदस्सनस्स चतुरासीति नागसहस्सानि सायं पातं उपट्टानं आगच्छन्ति । अथ खो, आनन्द, रो महासुदस्सनस्स एतदहोसि - ‘इमानि खो मे चतुरासीति नागसहस्सानि सायं पातं उपट्टानं आगच्छन्ति, यंनून वस्ससतस्स वस्ससतस्स अच्चयेन द्वेचत्तालीसं द्वेचत्तालीसं नागसहस्सानि सकिं सकिं उपट्ठानं आगच्छेय्यु'न्ति । अथ खो, आनन्द, राजा महासुदस्सनो परिणायकरतनं आमन्तेसि - ‘इमानि खो मे, सम्म परिणायकरतन, चतुरासीति नागसहस्सानि सायं पातं उपट्टानं आगच्छन्ति, तेन हि, सम्म परिणायकरतन, वस्ससतस्स वस्ससतस्स अच्चयेन द्वेचत्तालीसं द्वेचत्तालीसं नागसहस्सानि सकिं सकिं उपट्ठानं आगच्छन्तू'ति । “एवं, देवा''ति खो, आनन्द, परिणायकरतनं रो महासुदस्सनस्स पच्चस्सोसि । अथ खो, आनन्द, रञो महासुदस्सनस्स अपरेन समयेन वस्ससतस्स वस्ससतस्स अच्चयेन द्वेचत्तालीसं द्वेचत्तालीसं नागसहस्सानि सकिं सकिं उपट्ठानं आगमंसु ।
सुभद्दादेविउपसङ्कमनं
२६५. “अथ खो, आनन्द, सुभद्दाय देविया बहुन्नं वस्सानं बहुन्नं वस्ससतानं
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४. महासुदस्सनसुत्तं
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बहुन्नं वस्ससहस्सानं अच्चयेन एतदहोसि – 'चिरं दिट्ठो खो मे राजा महासुदस्सनो । यंनूनाहं राजानं महासुदस्सनं दस्सनाय उपसङ्कमेय्यन्ति । अथ खो, आनन्द, सुभद्दा देवी इत्थागारं आमन्तेसि - 'एथ तुम्हे सीसानि न्हायथ पीतानि वत्थानि पारुपथ | चिरं दिट्ठो नो राजा महासुदस्सनो राजानं महासुदस्सनं दस्सनाय उपसङ्कमिस्सामा 'ति । ' एवं अय्ये 'ति खो, आनन्द, इत्थागारं सुभद्दाय देविया पटिस्सुत्वा सीसानि न्हायित्वा पीतानि वत्थानि पारुपित्वा येन सुभद्दा देवी तेनुपसङ्कमि । अथ खो, आनन्द, सुभद्दा देवी परिणायकरतनं आमन्तेसि - ' कप्पेहि, सम्म परिणायकरतन, चतुरङ्गिनिं सेनं चिरं दिट्ठो नो राजा महासुदस्सनो राजानं महासुदस्सनं दस्सनाय उपसङ्कमिस्सामा 'ति । "एवं, देवी'ति खो, आनन्द, परिणायकरतनं सुभद्दाय देविया पटिस्सुत्वा चतुरङ्गिनिं सेनं कप्पापेत्वा सुभद्दा देविया पटिवेदेसि - 'कप्पिता खो, देवि, चतुरङ्गिनी सेना, यस्स दानि कालं मञ्ञसी”ति । अथ खो, आनन्द, सुभद्दा देवी चतुरङ्गिनिया सेनाय सद्धिं इत्थागारेन येन धम्मो पासादो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा धम्मं पासादं अभिरुहित्वा येन महावियूहं कूटागारं तेनुपसङ्कमि । उपसङ्कमित्वा महावियूहस्स कूटागारस्स द्वारबाहं आलम्बित्वा अट्ठासि। अथ खो, आनन्द, राजा महासुदस्सनो सद्दं सुत्वा - " किं नु खो महतो विय जनकायस्स सद्दो 'ति महावियूहा कूटागारा निक्खमन्तो अद्दस सुभद्दं देविं द्वारबाहं आलम्बित्वा ठितं, दिस्वान सुभद्दं देविं एतदवोच - 'एत्थेव देवि, तिट्ठ मा पाविसी 'ति । अथ खो, आनन्द, राजा महासुदस्सनो अञ्ञतरं पुरिसं आमन्तेसि - 'एहि त्वं अम्भो पुरिस, महावियूहा कूटागारा सोवण्णमयं पल्लङ्कं नीहरित्वा सब्बसोवण्णमये तालवने पञ्ञपेही 'ति । "एवं देवाति खो, आनन्द, सो पुरिसो रज्ञो महासुदस्सनस्स पटिस्सुत्वा महावियूहा कूटागारा सोवण्णमयं पल्लङ्कं नीहरित्वा सब्बसोवण्णमये तालवने पञ्ञसि । अथ खो, आनन्द, राजा महासुदस्सनो दक्खिणेन परसेन सीहसेय्यं कप्पेसि पादे पादं अच्चाधाय सतो सम्पजानो ।
(२.४.२६६-२६६)
"
२६६. “अथ खो, आनन्द, सुभद्दाय देविया एतदहोसि - 'विप्पसन्नानि खो रञ्ञो महासुदस्सनस्स इन्द्रियानि परिसुद्धो छविवण्णो परियोदातो, मा हेव खो राजा महासुदस्सनो कालमकासी 'ति राजानं महासुदस्सनं एतदवोच -
'इमानि ते, देव, चतुरासीति नगरसहस्सानि कुसावतीराजधानिप्पमुखानि । एत्थ, देव, छन्दं जनेहि जीविते अपेक्खं करोहि । इमानि ते, देव, चतुरासीति पासादसहस्सानि धम्मपासादप्पमुखानि । एत्थ, देव, छन्दं जनेहि जीविते अपेक्खं करोहि । इमानि ते, देव,
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दीघनिकायो-२
चतुरासीति कूटागारसहस्सानि महावियूहकूटागारप्पमुखानि । एत्थ देव, छन्दं जनेहि जीविते अपेक्खं करोहि । इमानि ते, देव, चतुरासीति पल्लङ्कसहस्सानि सोवण्णमयानि रूपियमयानि दन्तमयानि सारमयानि गोनकत्थतानि पटिकत्थतानि पटलिकत्थतानि कदलिमिग-पवर-पच्चत्थरणानि सउत्तरच्छदानि उभतोलोहितकूपधानानि । एत्थ, देव, छन्दं जनेहि, जीविते अपेक्खं करोहि । इमानि ते, देव, चतुरासीति नागसहस्सानि सोवण्णालङ्कारानि सोवण्णधजानि हेमजालपटिच्छन्नानि उपोसथनागराजप्पमुखानि । एत्थ, देव, छन्दं जनेहि जीविते अपेक्खं करोहि । इमानि ते, देव, चतुरासीति अस्ससहस्सानि सोवण्णालङ्कारान सोवण्णधजानि हेमजालपटिच्छन्नानि वलाहक अस्सराजप्पमुखानि । एत्थ, देव, छन्दं जनेहि जीविते अपेक्खं करोहि । इमानि ते, देव चतुरासीति रथसहस्सानि सीहचम्मपरिवारानि ब्यग्घचम्मपरिवारानि दीपिचम्मपरिवारानि पण्डुकम्बलपरिवारानि सोवण्णालङ्कारानि सोवण्णधजानि हेमजालपटिच्छन्नानि वेजयन्तरथप्पमुखानि । एत्थ, देव, छन्दं जनेहि जीविते अपेक्खं करोहि। इमानि ते, देव, चतुरासीति मणिसहस्सानि मणिरतनप्पमुखानि । एत्थ, देव, छन्दं जनेहि जीविते अपेक्खं करोहि । इमानि ते, देव, चतुरासीति इत्थिसहस्सा नि इत्थिरतनप्पमुखानि । एत्थ, देव, छन्दं जनेहि जीविते अपेक्खं करोहि । इमानि ते, देव, चतुरासीति गहपतिसहस्सानि गहपतिरतनप्पमुखानि । एत्थ देव, छन्दं जनेहि जीविते अपेक्खं करोहि । इमानि ते, देव, चतुरासीति खत्तियसहस्सानि अनुयन्तानि परिणायकरतनप्पमुखानि । एत्थ देव, छन्दं जनेहि जीविते अपेक्खं करोहि । इमानि ते, देव, चतुरासीति धेनुसहस्सानि दुहसन्दनानि कंसूपधारणानि । एत्थ देव, छन्दं जनेहि जीविते अपेक्खं करोहि । इमानि ते, देव, चतुरासीति वत्थकोटिसहस्सानि खोमसुखमानं कप्पासिकसुखुमानं कोसेय्यसुखुमानं कम्बलसुखुमानं । एत्थ देव, छन्दं जनेहि, जीविते अपेक्खं करोहि। इमानि ते, देव, चतुरासीति थालिपाकसहस्सानि सायं पातं भत्ताभिहारो अभिहरियति । एत्थ, देव, छन्दं जनेहि जीविते अपेक्खं करोही 'ति ।
२६७. “ एवं वुत्ते आनन्द, राजा महासुदस्सनो सुभद्दं देविं एतदवोच
‘दीघरत्तं खो मं त्वं, देवि, इट्ठेहि कन्तेहि पियेहि मनापेहि समुदाचरित्थ; अथ च पन मं त्वं पच्छिमे काले अनिट्ठेहि अकन्तेहि अप्पियेहि अमनापेहि समुदाचरसी 'ति । 'कथं चरहि तं, देव, समुदाचरामी'ति ? ' एवं खो मं त्वं, देवि, समुदाचर - सब्बेहेव, देव, पियेहि मनापेहि नानाभावो विनाभावो अञ्ञथाभावो, मा खो त्वं, देव, सापेक्खो कालमकासि, दुक्खा सापेक्खस्स कालङ्किरिया, गरहिता च सापेक्खस्स कालङ्किरिया ।
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(२.४.२६७-२६७)
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(२.४.२६८-२६८)
४. महासुदस्सनसुत्तं
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इमानि ते, देव, चतुरासीति नगरसहस्सानि कुसावतीराजधानिप्पमुखानि । एत्थ, देव, छन्दं पजह जीविते अपेक्खं माकासि । इमानि ते, देव, चतुरासीति पासादसहस्सानि धम्मपासादप्पमुखानि । एत्थ, देव, छन्दं पजह जीविते अपेक्खं माकासि । इमानि ते, देव, चतुरासीति कूटागारसहस्सानि महावियूहकूटागारप्पमुखानि । एत्थ, देव, छन्दं पजह जीविते अपेक्खं माकासि । इमानि ते, देव, चतुरासीति पल्लङ्कसहस्सानि सोवण्णमयानि रूपियमयानि दन्तमयानि सारमयानि गोनकत्थतानि पटिकत्थतानि पटलिकत्थतानि कदलिमिगपवरपच्चत्थरणानि सउत्तरच्छदानि उभतोलोहितकूपधानानि । एत्थ, देव, छन्दं पजह जीविते अपेक्खं माकासि । इमानि ते, देव, चतुरासीति नागसहस्सानि सोवण्णालङ्कारानि सोवण्णधजानि हेमजालपटिच्छन्नानि उपोसथनागराजप्पमुखानि । एत्थ, देव, छन्दं पजह जीविते अपेक्खं माकासि । इमानि ते, देव, चतुरासीति अस्ससहस्सानि सोवण्णालङ्कारानि सोवण्णधजानि हेमजालपटिच्छन्नानि वलाहकअस्सराजप्पमुखानि । एत्थ, देव, छन्दं पजह जीविते अपेक्खं माकासि | इमानि ते, देव, चतुरासीति रथसहस्सानि सीहचम्मपरिवारानि ब्यग्घचम्मपरिवारानि दीपिचम्मपरिवारानि पण्डुकम्बलपरिवारानि सोवण्णालङ्कारानि सोवण्णधजानि हेमजालपटिच्छन्नानि वेजयन्तरथप्पमुखानि । एत्थ, देव, छन्दं पजह जीविते अपेक्खं माकासि । इमानि ते, देव, चतुरासीति मणिसहस्सानि मणिरतनप्पमुखानि । एत्थ, देव, छन्दं पजह जीविते अपेक्खं माकासि । इमानि ते, देव, चतुरासीति इत्थिसहस्सानि सुभद्दादेविप्पमुखानि । एत्थ, देव, छन्दं पजह जीविते अपेक्खं माकासि । इमानि ते, देव, चतुरासीति गहपतिसहस्सानि गहपतिरतनप्पमुखानि । एत्थ, देव, छन्दं पजह जीविते अपेक्खं माकासि । इमानि ते, देव, चतुरासीति खत्तियसहस्सानि अनुयन्तानि परिणायकरतनप्पमुखानि । एत्थ, देव, छन्दं पजह जीविते अपेक्खं माकासि । इमानि ते, देव, चतुरासीति धेनुसहस्सानि दुहसन्दनानि कंसूपधारणानि । एत्थ देव, छन्दं पजह जीविते अपेक्खं माकासि । इमानि ते, देव, चतुरासीति वत्थकोटिसहस्सानि खोमसुखुमानं कप्पासिकसुखुमानं कोसेय्यसुखुमानं कम्बलसुखुमानं । एत्थ, देव, छन्दं पजह जीविते अपेक्खं माकासि । इमानि ते देव चतुरासीति थालिपाकसहस्सानि सायं पातं भत्ताभिहारो अभिहरियति । एत्थ, देव, छन्दं पजह जीविते अपेक्खं माकासी'ति ।
२६८. “एवं वुत्ते, आनन्द, सुभद्दा देवी परोदि अस्सूनि पवत्तेसि । अथ खो, आनन्द, सुभद्दा देवी अस्सूनि पुञ्छित्वा राजानं महासुदस्सनं एतदवोच -
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दीघनिकायो-२
(२.४.२६८-२६८)
“सब्बेहेव, देव, पियेहि मनापेहि नानाभावो विनाभावो अचथाभावो, मा खो त्वं, देव, सापेक्खो कालमकासि, दुक्खा सापेक्खस्स कालकिरिया, गरहिता च सापेक्खस्स कालकिरिया । इमानि ते, देव, चतुरासीति नगरसहस्सानि कुसावतीराजधानिप्पमुखानि । एत्थ, देव, छन्दं पजह जीविते अपेक्खं माकासि । इमानि ते, देव, चतुरासीति पासादसहस्सानि धम्मपासादप्पमुखानि । एत्थ, देव, छन्दं पजह जीविते अपेक्खं माकासि । इमानि ते, देव, चतुरासीति कूटागारसहस्सानि महावियूहकूटागारप्पमुखानि | एत्थ, देव, छन्दं पजह जीविते अपेक्खं माकासि । इमानि ते, देव, चतुरासीति पल्लङ्कसहस्सानि सोवण्णमयानि रूपियमयानि दन्तमयानि सारमयानि गोनकत्थतानि पटिकत्थतानि पटलिकत्थतानि कदलिमिगपवरपच्चत्थरणानि सउत्तरच्छदानि उभतोलोहितकूपधानानि । एत्थ, देव, छन्दं पजह जीविते अपेक्खं माकासि । इमानि ते, देव, चतुरासीति नागसहस्सानि सोवण्णालङ्कारानि सोवण्णधजानि हेमजालपटिच्छन्नानि उपोसथनागराजप्पमुखानि । एत्थ, देव, छन्दं पजह जीविते अपेक्खं माकासि । इमानि ते, देव, चतुरासीति अस्ससहस्सानि सोवण्णालङ्कारानि सोवण्णधजानि हेमजालपटिच्छन्नानि वलाहकअस्सराजप्पमुखानि । एत्थ, देव, छन्दं पजह, जीविते अपेक्खं माकासि । इमानि ते, देव, चतुरासीति रथसहस्सानि सीहचम्मपरिवारानि ब्यग्घचम्मपरिवारानि दीपिचम्मपरिवारानि पण्डुकम्बलपरिवारानि सोवण्णालङ्कारानि सोवण्णधजानि हेमजालपटिच्छन्नानि वेजयन्तरथप्पमुखानि । एत्थ, देव, छन्दं पजह जीविते अपेक्खं माकासि | इमानि ते, देव, चतुरासीति मणिसहस्सानि मणिरतनप्पमखानि | एत्थ. देव. छन्दं पजह जीविते अपेक्खं माकासि । इमानि ते. देव. चतुरासीति इत्थिसहस्सानि इत्थिरतनप्पमुखानि । एत्थ, देव, छन्दं पजह, जीविते अपेक्खं माकासि । इमानि ते, देव, चतुरासीति गहपतिसहस्सानि गहपतिरतनप्पमुखानि । एत्थ, देव, छन्दं पजह जीविते अपेक्खं माकासि । इमानि ते, देव, चतुरासीति खत्तियसहस्सानि अनुयन्तानि परिणायकरतनप्पमुखानि । एत्थ, देव, छन्दं पजह जीविते अपेक्खं माकासि । इमानि ते, देव, चतुरासीति धेनुसहस्सानि दुहसन्दनानि कंसूपधारणानि । एत्थ, देव, छन्दं पजह जीविते अपेक्खं माकासि । इमानि ते, देव, चतुरासीति वत्थकोटिसहस्सानि खोमसुखुमानं कप्पासिकसुखुमानं कोसेय्यसुखुमानं कम्बलसुखुमानं । एत्थ, देव, छन्दं पजह जीविते अपेक्खं माकासि । इमानि ते, देव, चतुरासीति थालिपाकसहस्सानि सायं पातं भत्ताभिहारो अभिहरियति । एत्थ, देव, छन्द पजह जीविते अपेक्खं माकासीति ।
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(२.४.२६९-२७०)
४. महासुदस्सनसुत्तं
१४५
ब्रह्मलोकूपगमं २६९. “अथ खो, आनन्द, राजा महासुदस्सनो नचिरस्सेव कालमकासि । सेय्यथापि, आनन्द, गहपतिस्स वा गहपतिपुत्तस्स वा मनुजे भोजनं भुत्ताविस्स भत्तसम्मदो होति, एवमेव खो, आनन्द, रो महासुदस्सनस्स मारणन्तिका वेदना अहोसि । कालङ्कतो च, आनन्द, राजा महासुदस्सनो सुगतिं ब्रह्मलोकं उपपज्जि । राजा, आनन्द, महासुदस्सनो चतुरासीति वस्ससहस्सानि कुमारकीळं कीळि । चतुरासीति वस्ससहस्सानि ओपरज्जं कारेसि । चतुरासीति वस्ससहस्सानि रज्जं कारेसि । चतुरासीति वस्ससहस्सानि गिहिभूतो धम्मे पासादे ब्रह्मचरियं चरि । सो चत्तारो ब्रह्मविहारे भावेत्वा कायस्स भेदा परं मरणा ब्रह्मलोकपगो अहोसि ।
२७०. “सिया खो पनानन्द, एवमस्स - 'अञो नून तेन समयेन राजा महासुदस्सनो अहोसी'ति, न खो पनेतं, आनन्द, एवं दट्ठब्बं । अहं तेन समयेन राजा महासुदस्सनो अहोसिं । मम तानि चतुरासीति नगरसहस्सानि कुसावतीराजधानिप्पमुखानि, मम तानि चतुरासीति पासादसहस्सानि धम्मपासादप्पमुखानि, मम तानि चतुरासीति कूटागारसहस्सानि महावियूहकूटागारप्पमुखानि, मम तानि चतुरासीति पल्लङ्कसहस्सानि सोवण्णमयानि रूपियमयानि दन्तमयानि सारमयानि गोनकत्थतानि पटिकत्थतानि पटलिकत्थतानि कदलिमिगपवरपच्चत्थरणानि सउत्तरच्छदानि उभतोलोहितकूपधानानि, मम तानि चतुरासीति नागसहस्सानि सोवण्णालङ्कारानि सोवण्णधजानि हेमजालपटिच्छन्नानि उपोसथनागराजप्पमुखानि, मम तानि चतुरासीति अस्ससहस्सानि सोवण्णालङ्कारानि सोवण्णधजानि हेमजालपटिच्छन्नानि वलाहकअस्सराजप्पमुखानि, मम तानि चतुरासीति रथसहस्सानि सीहचम्मपरिवारानि ब्यग्घचम्मपरिवारानि दीपिचम्मपरिवारानि पण्डुकम्बलपरिवारानि सोवण्णालङ्कारानि सोवण्णधजानि हेमजालपटिच्छन्नानि वेजयन्तरथप्पमुखानि, मम तानि चतुरासीति मणिसहस्सानि मणिरतनप्पमुखानि, मम तानि चतुरासीति इत्थिसहस्सानि सुभद्दादेविप्पमुखानि, मम तानि चतुरासीति गहपतिसहस्सानि गहपतिरतनप्पमुखानि, मम तानि चतुरासीति खत्तियसहस्सानि अनुयन्तानि परिणायकरतनप्पमुखानि, मम तानि चतुरासीति धेनुसहस्सानि दुहसन्दनानि कंसूपधारणानि, मम तानि चतुरासीति वत्थकोटिसहस्सानि खोमसुखुमानं कप्पासिकसुखुमानं कोसेय्यसुखुमानं कम्बलसुखुमानं, मम तानि चतुरासीति थालिपाकसहस्सानि सायं पातं भत्ताभिहारो अभिहरियित्थ ।
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दीघनिकायो-२
(२.४.२७१-२७२)
२७१. “तेसं खो पनानन्द, चतुरासीतिनगरसहस्सानं एक व तं नगरं होति, यं तेन समयेन अज्झावसामि यदिदं कुसावती राजधानी । तेसं खो पनानन्द, चतुरासीतिपासादसहस्सानं एकोयेव सो पासादो होति, यं तेन समयेन अज्झावसामि यदिदं धम्मो पासादो । तेसं खो पनानन्द, चतुरासीतिकूटागारसहस्सानं एक व तं कूटागारं होति, यं तेन समयेन अज्झावसामि यदिदं महावियूहं कूटागारं । तेसं खो पनानन्द, चतुरासीतिपल्लङ्कसहस्सानं एकोयेव सो पल्लङ्को होति, यं तेन समयेन परिभुञ्जामि यदिदं सोवण्णमयो वा रूपियमयो वा दन्तमयो वा सारमयो वा । तेसं खो पनानन्द. चतरासीतिनागसहस्सानं एकोयेव सो नागो होति. यं तेन समयेन अभिरुहामि यदिदं उपोसथो नागराजा। तेसं खो पनानन्द. चतरासीतिअस्ससहस्सानं एकोयेव सो अस्सो होति, यं तेन समयेन अभिरुहामि यदिदं वलाहको अस्सराजा। तेसं खो पनानन्द, चतुरासीतिरथसहस्सानं एकोयेव सो रथो होति, यं तेन समयेन अभिरुहामि यदिदं वेजयन्तरथो । तेसं खो पनानन्द, चतुरासीतिइस्थिसहस्सानं एकायेव सा इत्थी होति, या तेन समयेन पच्चुपट्ठाति खत्तियानी वा वेस्सिनी वा । तेसं खो पनानन्द, चतुरासीतिवत्थकोटिसहस्सानं एकंयेव तं दुस्सयुगं होति, यं तेन समयेन परिदहामि खोमसुखुमं वा कप्पासिकसुखुमं वा कोसेय्यसुखुमं वा कम्बलसुखुमं वा । तेसं खो पनानन्द, चतुरासीतिथालिपाकसहस्सानं एकोयेव सो थालिपाको होति, यतो नाळिकोदनपरमं भुञ्जामि तदुपियञ्च सूपेय्यं ।
२७२. "पस्सानन्द, सब्बेते सङ्घारा अतीता निरुद्धा विपरिणता। एवं अनिच्चा खो, आनन्द, सङ्घाराः एवं अद्भुवा खो, आनन्द, सङ्घारा; एवं अनस्सासिका खो, आनन्द, सकारा! यावञ्चिदं, आनन्द, अलमेव सब्बसङ्घारेसु निब्बिन्दितुं, अलं विरन्जितुं, अलं विमुच्चितुं।
"छक्खत्तुं खो पनाहं, आनन्द, अभिजानामि इमस्मिं पदेसे सरीरं निक्खिपितं, तञ्च खो राजाव समानो चक्कवत्ती धम्मिको धम्मराजा चातुरन्तो विजितावी जनपदत्थावरियपत्तो सत्तरतनसमन्नागतो, अयं सत्तमो सरीरनिक्खेपो। न खो पनाहं, आनन्द, तं पदेसं समनुपस्सामि सदेवके लोके समारके सब्रह्मके सस्समणब्राह्मणिया पजाय सदेवमनुस्साय, यत्थ तथागतो अट्ठमं सरीरं निक्खिपेय्या'ति । इदमवोच भगवा, इदं वत्वान सुगतो अथापरं एतदवोच सत्था -
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४. महासुदस्सनसुत्तं
" अनिच्चा वत सङ्घारा, उप्पादवयधम्मिनो । उप्पज्जित्वा निरुज्झन्ति, तेसं वूपसमो सुखोति । ।
महासुदस्सनसुत्तं निट्ठितं चतुत्थं ।
(२.४.२७२-२७२)
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५. जनवसभसुत्तं
नातिकियादिब्याकरणं
२७३. एवं मे सुतं- एकं समयं भगवा नातिके विहरति गिञ्जकावसथे । तेन खो पन समयेन भगवा परितो परितो जनपदेसु परिचारके अब्भतीते कालङ्कते उपपत्तीसु ब्याकरोति कासिकोसलेसु वज्जिमल्लेसु चेतिवंसेसु कुरुपञ्चालेसु मज्झसूरसेनेसु - “असु अमुत्र उपपन्नो, असु अमुत्र उपपन्नो । परोपास नातिकिया परिचारका अब्भतीता कालङ्कता पञ्चन्नं ओरम्भागियानं संयोजनानं परिक्खया ओपपातिका तत्थ परिनिब्बायिनो अनावत्तिधम्मा तस्मा लोका । साधिका नवुति नातिकिया परिचारका अब्भतीता कालङ्कता तिण्णं संयोजनानं परिक्खया रागदोसमोहानं तनुत्ता सकदागामिनो, सकिदेव इमं लोकं आगन्त्वा दुक्खस्सन्तं करिस्सन्ति । सातिरेकानि पञ्चसतानि नातिकिया परिचारका अब्भतीता कालङ्कता तिण्णं संयोजनानं परिक्खया सोतापन्ना अविनिपातधम्मा नियता सम्बोधिपरायणा''ति ।
२७४. अस्सोसुं खो नातिकिया परिचारका - "भगवा किर परितो परितो जनपदेसु परिचारके अब्भतीते कालङ्कते उपपत्तीसु ब्याकरोति कासिकोसलेसु वज्जिमल्लेसु चेतिवंसेसु कुरुपञ्चालेसु मज्झसूरसेनेसु- 'असु अमुत्र उपपन्नो, असु अमुत्र उपपन्नो । परोपचास नातिकिया परिचारका अब्भतीता कालङ्कता पञ्चन्नं ओरम्भागियानं संयोजनानं परिक्खया ओपपातिका तत्थ परिनिब्बायिनो अनावत्तिधम्मा तस्मा लोका । साधिका नवुति नातिकिया परिचारका अब्भतीता कालङ्कता तिण्णं संयोजनानं परिक्खया रागदोसमोहानं तनुत्ता सकदागामिनो सकिदेव इमं लोकं आगन्त्वा दुक्खस्सन्तं करिस्सन्ति । सातिरेकानि पञ्चसतानि नातिकिया परिचारका अब्भतीता कालङ्कता तिण्णं संयोजनानं परिक्खया
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(२.५.२७५-२७६)
५. जनवसभसुत्तं
१४९
सोतापन्ना अविनिपातधम्मा नियता सम्बोधिपरायणा'ति । तेन च नातिकिया परिचारका अत्तमना अहेसुं पमुदिता पीतिसोमनस्सजाता भगवतो पञ्हवेय्याकरणं सुत्वा ।
२७५. अस्सोसि खो आयस्मा आनन्दो - "भगवा किर परितो परितो जनपदेसु परिचारके अब्भतीते कालङ्कते उपपत्तीसु ब्याकरोति कासिकोसलेसु वज्जिमल्लेसु चेतिवंसेसु कुरुपञ्चालेसु मज्झसूरसेनेसु - ‘असु अमुत्र उपपन्नो, असु अमुत्र उपपन्नो । परोपास नातिकिया परिचारका अब्भतीता कालङ्कता पञ्चन्नं ओरम्भागियानं संयोजनानं परिक्खया ओपपातिका तत्थ परिनिब्बायिनो अनावत्तिधम्मा तस्मा लोका । साधिका नवुति नातिकिया परिचारका अब्भतीता कालङ्कता तिण्णं संयोजनानं परिक्खया रागदोसमोहानं तनुत्ता सकदागामिनो सकिदेव इमं लोकं आगन्त्वा दुक्खस्सन्तं करिस्सन्ति । सातिरेकानि पञ्चसतानि नातिकिया परिचारका अब्भतीता कालङ्कता तिण्णं संयोजनानं परिक्खया सोतापन्ना अविनिपातधम्मा नियता सम्बोधिपरायणा'ति । तेन च नातिकिया परिचारका अत्तमना अहेसुं पमुदिता पीतिसोमनस्सजाता भगवतो पञ्हवेय्याकरणं सुत्वा"ति ।
आनन्दपरिकथा
२७६. अथ खो आयस्मतो आनन्दस्स एतदहोसि - “इमे खो पनापि अहेसुं मागधका परिचारका बहू चेव रत्तञ्जू च अब्भतीता कालङ्कता। सुञा मने अङ्गमगधा अङ्गमागधकेहि परिचारकेहि अब्भतीतेहि कालङ्कतेहि । ते खो पनापि अहेसुं बुद्धे पसन्ना धम्मे पसन्ना सङ्के पसन्ना सीलेसु परिपूरकारिनो। ते अब्भतीता कालङ्कता भगवता अब्याकता; तेसम्पिस्स साधु वेय्याकरणं, बहुजनो पसीदेय्य, ततो गच्छेय्य सुगतिं । अयं खो पनापि अहोसि राजा मागधो सेनियो बिम्बिसारो धम्मिको धम्मराजा हितो ब्राह्मणगहपतिकानं नेगमानञ्चेव जानपदानञ्च । अपिस्सुदं मनुस्सा कित्तयमानरूपा विहरन्ति - ‘एवं नो सो धम्मिको धम्मराजा सुखापेत्वा कालङ्कतो, एवं मयं तस्स धम्मिकस्स धम्मरञो विजिते फासु विहरिम्हा'ति । सो खो पनापि अहोसि बुद्धे पसन्नो धम्मे पसन्नो सङ्घ पसन्नो सीलेसु परिपूरकारी । अपिस्सुदं मनुस्सा एवमाहंसु - “याव मरणकालापि राजा मागधो सेनियो बिम्बिसारो भगवन्तं कित्तयमानरूपो कालङ्कतो''ति । सो अब्भतीतो कालङ्कतो भगवता अब्याकतो। तस्सपिस्स साधु वेय्याकरणं बहुजनो पसीदेय्य, ततो गच्छेय्य सुगतिं । भगवतो खो पन सम्बोधि मगधेसु । यत्थ खो पन भगवतो सम्बोधि मगधेसु, कथं तत्र भगवा मागधके परिचारके अब्भतीते कालङ्कते
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१५०
दीघनिकायो-२
(२.५.२७७-२७७)
उपपत्तीसु न ब्याकरेय्य । भगवा चे खो पन मागधके परिचारके अब्भतीते कालङ्कते उपपत्तीसु न ब्याकरेय्य, दीनमना तेनस्सु मागधका परिचारका; येन खो पनस्सु दीनमना मागधका परिचारका कथं ते भगवा न ब्याकरेय्या'ति ?
२७७. इदमायस्मा आनन्दो मागधके परिचारके आरब्भ एको रहो अनुविचिन्तेवा रत्तिया पच्चूससमयं पच्चुट्ठाय येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि । एकमन्तं निसिन्नो खो आयस्मा आनन्दो भगवन्तं एतदवोच - “सुतं मेतं, भन्ते - ‘भगवा किर परितो परितो जनपदेसु परिचारके अब्भतीते कालङ्कते उपपत्तीसु ब्याकरोति कासिकोसलेसु वज्जिमल्लेसु चेतिवंसेसु कुरुपञ्चालेसु मज्झसूरसेनेसु - असु अमुत्र उपपन्नो, असु अमुत्र उपपन्नो । परोपचास नातिकिया परिचारका अब्भतीता कालङ्कता पञ्चन्नं ओरम्भागियानं संयोजनानं परिक्खया ओपपातिका तत्थ परिनिब्बायिनो अनावत्तिधम्मा तस्मा लोका । साधिका नवुति नातिकिया परिचारका अब्भतीता कालङ्कता तिण्णं संयोजनानं परिक्खया रागदोसमोहानं तनुत्ता सकदागामिनो, सकिदेव इमं लोकं आगन्त्वा दुक्खस्सन्तं करिस्सन्ति । सातिरेकानि पञ्चसतानि नातिकिया परिचारका अब्भतीता कालङ्कता तिण्णं संयोजनानं परिक्खया सोतापन्ना अविनिपातधम्मा नियता सम्बोधिपरायणाति । तेन च नातिकिया परिचारका अत्तमना अहेसुं पमुदिता पीतिसोमनस्सजाता भगवतो पञ्हवेय्याकरणं सुत्वा'ति । इमे खो पनापि, भन्ते, अहेसुं मागधका परिचारका बहू चेव रत्तच् च अब्भतीता कालङ्कता । सुञा मञ्जे अङ्गमगधा अङ्गमागधकेहि परिचारकेहि अब्भतीतेहि कालङ्कतेहि। ते खो पनापि, भन्ते, अहेसुं बुद्धे पसन्ना धम्मे पसन्ना सङ्के पसन्ना सीलेसु परिपूरकारिनो, ते अब्भतीता कालङ्कता भगवता अब्याकता । तेसम्पिस्स साधु वेय्याकरणं, बहुजनो पसीदेय्य, ततो गच्छेय्य सुगतिं । अयं खो पनापि, भन्ते, अहोसि राजा मागधो सेनियो बिम्बिसारो धम्मिको धम्मराजा हितो ब्राह्मणगहपतिकानं नेगमानञ्चेव जनपदानञ्च | अपिस्सुदं मनुस्सा कित्तयमानरूपा विहरन्ति - ‘एवं नो सो धम्मिको धम्मराजा सुखापेत्वा कालङ्कतो । एवं मयं तस्स धम्मिकस्स धम्मरञो विजिते फासु विहरिम्हा'ति । सो खो पनापि, भन्ते, अहोसि बुद्धे पसन्नो धम्मे पसन्नो सङ्के पसन्नो सीलेसु परिपूरकारी । अपिस्सुदं मनुस्सा एवमाहंसु - ‘याव मरणकालापि राजा मागधो सेनियो बिम्बिसारो भगवन्तं कित्तयमानरूपो कालङ्कतो'ति । सो अब्भतीतो कालङ्कतो भगवता अब्याकतो; तस्सपिस्स साधु वेय्याकरणं, बहुजनो पसीदेय्य, ततो गच्छेय्य सुगतिं । भगवतो खो पन, भन्ते, सम्बोधि मगधेसु । यस्थ खो पन, भन्ते, भगवतो सम्बोधि मगधेसु, कथं तत्र भगवा मागधके परिचारके
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(२.५.२७८-२८०)
५. जनवसभसुत्तं
१५१
अब्भतीते कालते उपपत्तीसु न ब्याकरेय्य ? भगवा चे खो पन, भन्ते, मागधके परिचारके अब्भतीते कालङ्कते उपपत्तीसु न ब्याकरेय्य दीनमना तेनस्सु मागधका परिचारका; येन खो पनस्सु दीनमना मागधका परिचारका कथं ते भगवा न ब्याकरेय्या'ति । इदमायस्मा आनन्दो मागधके परिचारके आरब्भ भगवतो सम्मुखा परिकथं कत्वा उट्ठायासना भगवन्तं अभिवादेत्वा पदक्खिणं कत्वा पक्कामि ।
२७८. अथ खो भगवा अचिरपक्कन्ते आयस्मन्ते आनन्दे पुब्बण्हसमयं निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय नातिकं पिण्डाय पाविसि । नातिके पिण्डाय चरित्वा पच्छाभत्तं पिण्डपातपटिक्कन्तो पादे पक्खालेत्वा गिञ्जकावसथं पविसित्वा मागधके परिचारके आरब्भ अढि कत्वा मनसिकत्वा सब्बं चेतसा समन्नाहरित्वा पञत्ते आसने निसीदि - “गतिं नेसं जानिस्सामि अभिसम्परायं, यंगतिका ते भवन्तो यंअभिसम्पराया'ति । अहसा खो भगवा मागधके परिचारके “यंगतिका ते भवन्तो यंअभिसम्पराया''ति । अथ खो भगवा सायन्हसमयं पटिसल्लाना वुट्ठितो गिञ्जकावसथा निक्खमित्वा विहारपच्छायायं पञत्ते आसने निसीदि।
२७९. अथ खो आयस्मा आनन्दो येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि । एकमन्तं निसिन्नो खो आयस्मा आनन्दो भगवन्तं एतदवोच- "उपसन्तपदिस्सो भन्ते भगवा, भातिरिव भगवतो मुखवण्णो विप्पसन्नत्ता इन्द्रियानं । सन्तेन नूनज्ज, भन्ते, भगवा विहारेन विहासी"ति । “यदेव खो मे त्वं, आनन्द, मागधके परिचारके आरब्भ सम्मुखा परिकथं कत्वा उट्ठायासना पक्कन्तो, तदेवाहं नातिके पिण्डाय चरित्वा पच्छाभत्तं पिण्डपातपटिक्कन्तो पादे पक्खालेत्वा गिञ्जकावसथं पविसित्वा मागधके परिचारके आरब्भ अर्व्हि कत्वा मनसिकत्वा सब्बं चेतसा समन्नाहरित्वा पञत्ते आसने निसीदिं- 'गतिं नेसं जानिस्सामि अभिसम्परायं, यंगतिका ते भवन्तो यंअभिसम्पराया'ति । अद्दसं खो अहं, आनन्द, मागधके परिचारके 'यंगतिका ते भवन्तो यंअभिसम्पराया' "ति ।
जनवसभयक्खो २८०. “अथ खो, आनन्द, अन्तरहितो यक्खो सद्दमनुस्सावेसि - ‘जनवसभो अहं
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१५२
दीघनिकायो-२
(२.५.२८१-२८१)
भगवा; जनवसभी अहं सुगता'ति | अभिजानासि नो त्वं आनन्द, इतो पुब्बे एवरूपं नामधेय्यं सुतं यदिदं जनवसभो''ति ?
"न खो अहं, भन्ते, अभिजानामि इतो पुब्बे एवरूपं नामधेय्यं सुतं यदिदं जनवसभोति, अपि च मे, भन्ते, लोमानि हट्ठानि 'जनवसभोति नामधेय्यं सुत्वा । तस्स महं, भन्ते, एतदहोसि - 'न हि नून सो ओरको यक्खो भविस्सति यदिदं एवरूपं नामधेय्यं सुपञत्तं यदिदं जनवसभो'ति । अनन्तरा खो, आनन्द, सद्दपातुभावा उळारवण्णो मे यक्खो सम्मुखे पातुरहोसि । दुतियम्पि सद्दमनुस्सावेसि - ‘बिम्बिसारो अहं भगवा; बिम्बिसारो अहं सुगता'ति । इदं सत्तमं खो अहं भन्ते, वेस्सवणस्स महाराजस्स सहब्यतं उपपज्जामि, सो ततो चुतो मनुस्सराजा भवितुं पहोमि ।
'इतो सत्त ततो सत्त, संसारानि चतुद्दस । निवासमभिजानामि, यत्थ मे वुसितं पुरे ।।
२८१. “दीघरत्तं खो अहं, भन्ते, अविनिपातो अविनिपातं सञ्जानामि, आसा च पन मे सन्तिठ्ठति सकदागामिताया"ति । “अच्छरियमिदं आयस्मतो जनवसभस्स यक्खस्स, अब्भुतमिदं आयस्मतो जनवसभस्स यक्खस्स । 'दीघरत्तं खो अहं, भन्ते, अविनिपातो अविनिपातं सञ्जानामी'ति च वदेसि, 'आसा च पन मे सन्तिट्ठति सकदागामिताया'ति च वदेसि, कुतोनिदानं पनायस्मा जनवसभो यक्खो एवरूपं उळारं विसेसाधिगमं सञ्जानाती"ति ? “न अझत्र, भगवा, तव सासना न अझत्र, सुगत, तव सासना, यदग्गे अहं, भन्ते, भगवति एकन्तिकतो अभिप्पसन्नो, तदग्गे अहं, भन्ते, दीघरत्तं अविनिपातो अविनिपातं सञ्जानामि, आसा च पन मे सन्तिट्ठति सकदागामिताय । इधाहं, भन्ते, वेस्सवणेन महाराजेन पेसितो विरूळहकस्स महाराजस्स सन्तिके केनचिदेव करणीयेन अद्दसं भगवन्तं अन्तरामग्गे गिञ्जकावसथं पविसित्वा मागधके परिचारके आरब्भ अढेि कत्वा मनसिकत्वा सब्बं चेतसा समन्नाहरित्वा निसिन्नं - ‘गतिं नेसं जानिस्सामि अभिसम्परायं, यंगतिका ते भवन्तो यंअभिसम्पराया'ति । अनच्छरियं खो पनेतं, भन्ते, यं वेस्सवणस्स महाराजस्स तस्सं परिसायं भासतो सम्मुखा सुतं सम्मुखा पटिग्गहितं- 'यंगतिका ते भवन्तो यंअभिसम्पराया'ति । तस्स मव्ह, भन्ते, एतदहोसि - 'भगवन्तञ्च दक्खामि, इदञ्च भगवतो आरोचेस्सामी'ति । इमे खो मे, भन्ते, द्वेपच्चया भगवन्तं दस्सनाय उपसमितुं"।
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५. जनवसभसुत्तं
देवसभा
२८२. “पुरिमानि, भन्ते, दिवसानि पुरिमतरानि तदहुपोसथे पन्नरसे वस्सूपनायिकाय पुण्णाय पुण्णमाय रत्तिया केवलकप्पा च देवा तावतिंसा सुधम्मायं सभायं सन्निसिन्ना होन्ति सन्निपतिता । महती च दिब्बपरिसा समन्ततो निसिन्ना होन्ति, चत्तारो च महाराजानो चतुद्दिसा निसिन्ना होन्ति । पुरत्थिमाय दिसाय धतरट्ठो महाराजा पच्छिमाभिमुखो निसिन्नो होति देवे पुरक्खत्वा ; दक्खिणाय दिसाय विरूळ्हको महाराजा उत्तराभिमुखो निसिन्नो होति देवे पुरक्खत्वा पच्छिमाय दिसाय विरूपक्खो महाराजा पुरत्थाभिमुखो निसिन्नो होति देवे पुरक्खत्वा ; उत्तराय दिसाय वेस्सवणो महाराजा दक्खिणाभिमुखो निसिन्नो होति देवे पुरक्खत्वा । यदा, भन्ते, केवलकप्पा च देवा तावतंसा सुधम्मायं सभायं सन्निसिन्ना होन्ति सन्निपतिता, महती च दिब्ब परिसा समन्ततो निसिन्ना होन्ति, चत्तारो च महाराजानो चतुद्दिसा निसिन्ना होन्ति । इदं नेसं होति आसनस्मिं; अथ पच्छा अम्हाकं आसनं होति । ये ते, भन्ते, देवा भगवति ब्रह्मचरियं चरित्वा अधुनूपपन्ना तावतिंसकायं, ते अञ्ञे देवे अतिरोचन्ति वण्णेन चेव यससा च । तेन सुदं, भन्ते, देवा तावतिंसा अत्तमना होन्ति पमुदिता पीतिसोमनस्सजाता 'दिब्बा वत भो काया परिपूरेन्ति, हायन्ति असुरकाया'ति । अथ खो, भन्ते, सक्को देवानमिन्दो देवानं तावतिंसानं सम्पसादं विदित्वा इमाहि गाथाहि अनुमोदि -
(२.५.२८२-२८२)
" मोदन्ति वत भो देवा, तावतिंसा सहिन्दका । तथागतं नमस्सन्ता, धम्मस्स च सुधम्मतं । ।
नवे देवे च परसन्ता, वण्णवन्ते यसस्सिने । सुगतस्मिं ब्रह्मचरियं, चरित्वान इधागते । ।
ते अञ्ञे अतिरोचन्ति वण्णेन यससायुना । सावका भूरिपञ्ञस्स, विसेसूपगता इध ।।
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इदं दिस्वान नन्दन्ति, तावतिंसा सहिन्दका । तथागतं नमस्सन्ता, धम्मस्स च सुधम्मत "न्ति । ।
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दीघनिकायो-२
(२.५.२८३-२८४)
"तेन सुदं, भन्ते, देवा तावतिंसा भिय्योसोमत्ताय अत्तमना होन्ति पमुदिता पीतिसोमनस्सजाता 'दिब्बा वत, भो, काया परिपूरेन्ति, हायन्ति असुरकाया' "ति । अथ खो, भन्ते, येनत्थेन देवा तावतिंसा सुधम्मायं सभायं सन्निसिन्ना होन्ति सन्निपतिता, तं अत्थं चिन्तयित्वा तं अत्थं मन्तयित्वा वृत्तवचनापि तं चत्तारो महाराजानो तस्मिं अत्थे होन्ति । पच्चानुसिटुवचनापि तं चत्तारो महाराजानो तस्मिं अत्थे होन्ति, सकेसु सकेसु आसनेसु ठिता अविपक्कन्ता ।
ते वुत्तवाक्या राजानो, पटिग्गव्हानुसासनिं । विप्पसन्नमना सन्ता, अटुंसु सम्हि आसनेति ।।
२८३. “अथ खो, भन्ते, उत्तराय दिसाय उळारो आलोको सञ्जायि, ओभासो पातुरहोसि अतिक्कम्मेव देवानं देवानुभावं । अथ खो, भन्ते, सक्को देवानमिन्दो देवे तावतिसे आमन्तेसि - 'यथा खो, मारिसा, निमित्तानि दिस्सन्ति, उळारो आलोको सजायति, ओभासो पातुभवति, ब्रह्मा पातुभविस्सति । ब्रह्मनो हेतं पुब्बनिमित्तं पातुभावाय, यदिदं आलोको सञ्जायति ओभासो पातुभवतीति । ..
यथा निमित्ता दिस्सन्ति, ब्रह्मा पातुभविस्सति । ब्रह्मनो हेतं निमित्तं, ओभासो विपुलो महाति ।।
सनकुमारकथा २८४. “अथ खो, भन्ते, देवा तावतिंसा यथासकेसु आसनेसु निसीदिंसु - 'ओभासमेतं अस्साम, विपाको भविस्सति, सच्छिकत्वाव नं गमिस्सामा'ति । चत्तारोपि महाराजानो यथासकेसु आसनेसु निसीदिंसु- 'ओभासमेतं अस्साम यंविपाको भविस्सति, सच्छिकत्वाव नं गमिस्सामा'ति । इदं सुत्वा देवा तावतिंसा एकग्गा समापज्जिंसु - 'ओभासमेतं अस्साम, यंविपाको भविस्सति, सच्छिकत्वाव नं गमिस्सामा'ति ।
“यदा, भन्ते, ब्रह्मा सनकुमारो देवानं तावतिंसानं पातुभवति, ओळारिकं अत्तभावं अभिनिम्मिनित्वा पातुभवति । यो खो पन, भन्ते, ब्रह्मनो पकतिवण्णो, अनभिसम्भवनीयो सो देवानं तावतिंसानं चक्खुपथस्मिं । यदा, भन्ते, ब्रह्मा सनकुमारो देवानं तावतिंसानं
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(२.५.२८४-२८४)
५. जनवसभसुत्तं
१५५
पातुभवति, सो अञ्चे देवे अतिरोचति वण्णेन चेव यससा च। सेय्यथापि, भन्ते, सोवण्णो विग्गहो मानुसं विग्गहं अतिरोचति; एवमेव खो, भन्ते, यदा ब्रह्मा सनकुमारो देवानं तावतिंसानं पातुभवति, सो अछे देवे अतिरोचति वण्णेन चेव यससा च । यदा, भन्ते, ब्रह्मा सनकुमारो देवानं तावतिंसानं पातुभवति, न तस्सं परिसायं कोचि देवो अभिवादेति वा पच्चुढेति वा आसनेन वा निमन्तेति । सब्बेव तुण्हीभूता पञ्जलिका पल्लङ्केन निसीदन्ति - 'यस्सदानि देवस्स पल्लवं इच्छिस्सति ब्रह्मा सनकुमारो, तस्स देवस्स पल्लङ्के निसीदिस्सती'ति ।
__ “यस्स खो पन, भन्ते, देवस्स ब्रह्मा सनकुमारो पल्लङ्के निसीदति, उळारं सो लभति देवो वेदपटिलाभं; उळारं सो लभति देवो सोमनस्सपटिलाभं । सेय्यथापि, भन्ते, राजा खत्तियो मुद्धावसित्तो अधुनाभिसित्तो रज्जेन, उळारं सो लभति वेदपटिलाभं, उळारं सो लभति सोमनस्सपटिलाभं। एवमेव खो, भन्ते, यस्स देवस्स ब्रह्मा सनकुमारो पल्लङ्के निसीदति, उळारं सो लभति देवो वेदपटिलाभ, उळारं सो लभति देवो सोमनस्सपटिलाभं । अथ, भन्ते, ब्रह्मा सनकुमारो ओळारिकं अत्तभावं अभिनिम्मिनित्वा कुमारवण्णी हुत्वा पञ्चसिखो देवानं तावतिंसानं पातुरहोसि। सो वेहासं अब्भुग्गन्त्वा आकासे अन्तलिक्खे पल्लङ्केन निसीदि । सेय्यथापि, भन्ते, बलवा पुरिसो सुपच्चत्थते वा पल्लङ्के समे वा भूमिभागे पल्लङ्केन निसीदेय्य; एवमेव खो, भन्ते, ब्रह्मा सनकुमारो वेहासं अब्भुग्गन्त्वा आकासे अन्तलिक्खे पल्लङ्केन निसीदित्वा देवानं तावतिंसानं सम्पसादं विदित्वा इमाहि गाथाहि अनुमोदि -
"मोदन्ति वत भो देवा, तावतिंसा सहिन्दका । तथागतं नमस्सन्ता, धम्मस्स च सुधम्मतं ।।
नवे देवे च पस्सन्ता, वण्णवन्ते यसस्सिने । सुगतस्मिं ब्रह्मचरियं, चरित्वान इधागते ।।
ते अछे अतिरोचन्ति, वण्णेन यससायुना । सावका भूरिपञस्स, विसेसूपगता इध ।।
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१५६
दीघनिकायो-२
(२.५.२८५-२८६)
इदं दिस्वान नन्दन्ति, तावतिंसा सहिन्दका । तथागतं नमस्सन्ता, धम्मस्स च सुधम्मत"न्ति । ।
२८५. “इममत्थं, भन्ते, ब्रह्मा सनङ्घमारो भासित्थ, इममत्थं, भन्ते, ब्रह्मनो सनमारस्स भासतो अट्ठङ्गसमन्नागतो सरो होति विस्सट्ठो च विद्येय्यो च मञ्जु च सवनीयो च बिन्दु च अविसारी च गम्भीरो च निन्नादी च । यथापरिसं खो पन, भन्ते, ब्रह्मा सनङ्कमारो सरेन विज्ञापेति; न चस्स बहिद्धा परिसाय घोसो निच्छरति । यस्स खो पन, भन्ते, एवं अट्ठङ्गसमन्नागतो सरो होति, सो वुच्चति “ब्रह्मस्सरो"ति ।
___ “अथ खो, भन्ते, ब्रह्मा सनकुमारो तेत्तिंसे अत्तभावे अभिनिम्मिनित्वा देवानं तावतिंसानं पच्चेकपल्लङ्केसु पल्लङ्केन निसीदित्वा देवे तावतिसे आमन्तेसि - 'तं किं मञ्जन्ति भोन्तो देवा तावतिंसा, यावञ्च सो भगवा बहुजनहिताय पटिपन्नो बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सानं । ये हि केचि, भो, बुद्धं सरणं गता धम्म सरणं गता सर्छ सरणं गता सीलेसु परिपूरकारिनो । ते कायस्स भेदा परं मरणा अप्पेकच्चे परनिम्मितवसवत्तीनं देवानं सहब्यतं उपपज्जन्ति, अप्पेकच्चे निम्मानरतीनं देवानं सहब्यतं उपपज्जन्ति, अप्पेकच्चे तुसितानं देवानं सहब्यतं उपपज्जन्ति, अप्पेकच्चे यामानं देवानं सहब्यतं उपपज्जन्ति, अप्पेकच्चे तावतिंसानं देवानं सहब्यतं उपपज्जन्ति, अप्पेकच्चे चातुमहाराजिकानं देवानं सहब्यतं उपपज्जन्ति । ये सब्बनिहीनं कायं परिपूरेन्ति, ते गन्धब्बकायं परिपूरेन्ती'ति ।
२८६. “इममत्थं, भन्ते, ब्रह्मा सनकुमारो भासित्थ, इममत्थं, भन्ते, ब्रह्मनो सनकुमारस्स भासतो घोसोयेव देवा मञन्ति- 'स्वायं मम पल्लङ्के स्वायं एकोव भासती'ति।
एकस्मिं भासमानस्मिं, सब्बे भासन्ति निम्मिता | एकस्मिं तुण्हिमासीने, सब्बे तुण्ही भवन्ति ते ।।
तदासु देवा मञन्ति, तावतिंसा सहिन्दका । य्वायं मम पल्लङ्कस्मिं, स्वायं एकोव भासतीति ।।
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(२.५.२८७-२८८)
५. जनवसभसुत्तं
१५७
“अथ खो, भन्ते, ब्रह्मा सनमारो एकत्तेन अत्तानं उपसंहरति, एकत्तेन अत्तानं उपसंहरित्वा सक्कस्स देवानमिन्दस्स पल्लङ्के पल्लङ्केन निसीदित्वा देवे तावतिंसे आमन्तेसि
भावितइद्धिपादो
२८७. तं किं मञन्ति, भोन्तो देवा तावतिंसा, याव सुपञत्ता चिमे तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन चत्तारो इद्धिपादा पञत्ता इद्धिपहुताय इद्धिविसविताय इद्धिविकुब्बनताय । कतमे चत्तारो ? इध भो भिक्खु छन्दसमाधिप्पधानसङ्खारसमन्नागतं इद्धिपादं भावेति । वीरियसमाधिप्पधानसङ्खारसमन्नागतं इद्धिपादं भावेति | चित्तसमाधिप्पधानसङ्खारसमन्नागतं इद्धिपादं भावेति । वीमंसासमाधिप्पधानसङ्खारसमन्नागतं इद्धिपादं भावेति । इमे खो भो तेन भगवता जानता पस्सता अरहता. सम्मासम्बुद्धेन चत्तारो इद्धिपादा पञत्ता इद्धिपहुताय इद्धिविसविताय इद्धिविकुब्बनताय ।
ये हि केचि भो अतीतमद्धानं समणा वा ब्राह्मणा वा अनेकविहितं इद्धिविधं पच्चनुभोसुं, सब्बे ते इमेसंयेव चतुन्नं इद्धिपादानं भावितत्ता बहुलीकतत्ता । येपि हि केचि भो अनागतमद्धानं समणा वा ब्राह्मणा वा अनेकविहितं इद्धिविधं पच्चनुभोस्सन्ति, सब्बे ते इमेसंयेव चतुन्नं इद्धिपादानं भावितत्ता बहुलीकतत्ता । येपि हि केचि भो एतरहि समणा वा ब्राह्मणा वा अनेकविहितं इद्धिविधं पच्चनुभोन्ति, सब्बे ते इमेसंयेव चतुन्नं इद्धिपादानं भावितत्ता बहुलीकतत्ता | पस्सन्ति नो भोन्तो देवा तावतिंसा ममपिमं एवरूपं इद्धानुभावन्ति ? “एवं महाब्रह्मेति । “अहम्पि खो भो इमेसंयेव चतुन्नञ्च इद्धिपादानं भावितत्ता बहुलीकतत्ता एवं महिद्धिको एवंमहानुभावो''ति । “इममत्थं, भन्ते, ब्रह्मा सनकुमारो भासित्थ । इममत्थं, भन्ते, ब्रह्मा सनकुमारो भासित्वा देवे तावतिसे आमन्तेसि -
तिविधो ओकासाधिगमो २८८. तं किं मन्ति , भोन्तो देवा तावतिंसा, यावञ्चिदं तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन तयो ओकासाधिगमा अनुबुद्धा सुखस्साधिगमाय । कतमे तयो ? इध भो एकच्चो संसट्ठो विहरति कामेहि संसठ्ठो अकुसलेहि धम्मेहि । सो अपरेन
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१५८
दीघनिकायो-२
(२.५.२८८-२८८)
समयेन अरियधम्मं सुणाति, योनिसो मनसि करोति, धम्मानुधम्मं पटिपज्जति । सो अरियधम्मस्सवनं आगम्म योनिसोमनसिकारं धम्मानुधम्मप्पटिपत्तिं असंसट्ठो विहरति कामेहि असंसठ्ठो अकुसलेहि धम्मेहि । तस्स असंसट्ठस्स कामेहि असंसट्ठस्स अकुसलेहि धम्मेहि उप्पज्जति सुखं, सुखा भिय्यो सोमनस्सं । सेय्यथापि, भो, पमुदा पामोज्जं जायेथ, एवमेव खो, भो, असंसट्ठस्स कामेहि असंसट्ठस्स अकुसलेहि धम्मेहि उप्पज्जति सुखं, सुखा भिय्यो सोमनस्सं । अयं खो, भो, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन पठमो ओकासाधिगमो अनुबुद्धो सुखस्साधिगमाय ।।
___ "पुन चपरं, भो, इधेकच्चस्स ओळारिका कायसङ्खारा अप्पटिप्पस्सद्धा होन्ति, ओळारिका वचीसङ्घारा अप्पटिप्पस्सद्धा होन्ति, ओळारिका चित्तसङ्घारा अप्पटिप्पस्सद्धा होन्ति । सो अपरेन समयेन अरियधम्मं सुणाति, योनिसो मनसि करोति, धम्मानुधम्म पटिपज्जति । तस्स अरियधम्मस्सवनं आगम्म योनिसोमनसिकारं धम्मानुधम्मप्पटिपत्तिं ओळारिका कायसङ्घारा पटिप्पस्सम्भन्ति, ओळारिका वचीसङ्घारा पटिप्पस्सम्भन्ति, ओळारिका चित्तसङ्खारा पटिप्पस्सम्भन्ति । तस्स ओळारिकानं कायसङ्घारानं पटिप्पस्सद्धिया ओळारिकानं वचीसङ्घारानं पटिप्पस्सद्धिया ओळारिकानं चित्तसङ्घारानं पटिप्पस्सद्धिया उप्पज्जति सुखं, सुखा भिय्यो सोमनस्सं । सेय्यथापि, भो, पमुदा पामोज्जं जायेथ, एवमेव खो भो ओळारिकानं कायसङ्घारानं पटिप्पस्सद्धिया ओळारिकानं वचीसङ्घारानं पटिप्पस्सद्धिया ओळारिकानं चित्तसङ्खारानं पटिप्पस्सद्धिया उप्पज्जति सुखं, सुखा भिय्यो सोमनस्सं । अयं खो, भो, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन दुतियो ओकासाधिगमो अनुबुद्धो सुखस्साधिगमाय ।
"पुन चपरं, भो, इधेकच्चो 'इदं कुसल'न्ति यथाभूतं नप्पजानाति, 'इदं अकुसल'न्ति यथाभूतं नप्पजानाति । 'इदं सावज्जं इदं अनवज्ज, इदं सेवितब्बं इदं न सेवितब्बं, इदं हीनं इदं पणीतं, इदं कण्हसुक्कसप्पटिभाग'न्ति यथाभूतं नप्पजानाति । सो अपरेन समयेन अरियधम्मं सुणाति, योनिसो मनसि करोति, धम्मानुधम्मं पटिपज्जति । सो अरियधम्मस्सवनं आगम्म योनिसोमनसिकारं धम्मानुधम्मप्पटिपत्तिं, 'इदं कुसल'न्ति यथाभूतं पजानाति, 'इदं अकुसल'न्ति यथाभूतं पजानाति । इदं सावज्ज इदं अनवज्जं, इदं सेवितब्बं इदं न सेवितब्बं, इदं हीनं इदं पणीतं, इदं कण्हसुक्कसप्पटिभाग"न्ति यथाभूतं पजानाति। तस्स एवं जानतो एवं पस्सतो अविज्जा पहीयति, विज्जा उप्पज्जति। तस्स अविज्जाविरागा विज्जुप्पादा उप्पज्जति सुखं, सुखा भिय्यो सोमनस्सं । सेय्यथापि, भो, पमुदा पामोज्जं
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(२.५.२८९-२९०)
५. जनवसभसुत्तं
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जायेथ, एवमेव खो, भो, अविज्जाविरागा विज्जुप्पादा उप्पज्जति सुखं, सुखा भिय्यो सोमनस्सं । अयं खो, भो, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन ततियो ओकासाधिगमो अनुबुद्धो सुखस्साधिगमाय । इमे खो, भो, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन तयो ओकासाधिगमा अनुबुद्धा सुखस्साधिगमाया'"ति | "इममत्थं, भन्ते, ब्रह्मा सनकुमारो भासित्थ, इममत्थं, भन्ते, ब्रह्मा सनकुमारो भासित्वा देवे तावतिंसे आमन्तेसि
चतुसतिपट्टानं २८९. "तं किं मञ्जन्ति, भोन्तो देवा तावतिंसा, याव सुपञत्ता चिमे तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बद्धेन चत्तारो सतिपट्टाना पञ्जत्ता कसलस्साधिगमाय। कतमे चत्तारो? इध, भो, भिक्खु अज्झत्तं काये कायानुपस्सी विरहति आतापी सम्पजानो सतिमा विनेय्य लोके अभिज्झादोमनस्सं। अज्झत्तं काये कायानपस्सी विहरन्तो तत्थ सम्मा समाधियति. सम्मा विष्पसीदति। सो तत्थ सम्मा समाहितो सम्मा विप्पसनो बहिद्धा परकाये आणदस्सनं अभिनिब्बत्तेति। अज्झत्तं वेदनासु वेदनानुपस्सी विहरति आतापी सम्पजानो सतिमा विनेय्य लोके अभिज्झादोमनस्सं। अज्झत्तं वेदनासु वेदनानुपस्सी विहरन्तो तत्थ सम्मा समाधियति, सम्मा विप्पसीदति। सो तत्थ सम्मा समाहितो सम्मा विपस्सनो बहिद्धा परवेटनास जाणदस्सनं अभिनिब्बत्तेति। अज्झत्तं चित्ते चित्तानपस्सी विहरति आतापी सम्पजानो सतिमा विनेय्य लोके अभिज्झादोमनस्सं। अज्झत्तं चित्ते चित्तानुपस्सी विहरन्तो तत्थ सम्मा समाधियति सम्मा विष्पसीदति। सो तत्थ सम्मा समाहितो सम्मा विष्पसनो बहिद्धा परचित्ते आणदस्सनं अभिनिब्बत्तेति। अज्झत्तं धम्मेसु धम्मानुपस्सी विहरति आतापी सम्पजानो सतिमा विनेय्य लोके अभिज्झादोमनस्सं। अज्झत्तं धम्मेसु धम्मानुपस्सी विहरन्तो तत्थ सम्मा समाधियति, सम्मा विप्पसीदति । सो तत्थ सम्मा समाहितो सम्मा विप्पसनो बहिद्धा परधम्मेसु आणदस्सनं अभिनिब्बत्तेति। इमे खो, भो, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन चत्तारो सतिपट्ठाना पञत्ता कुसलस्साधिगमाया''ति । “इममत्थं, भन्ते, ब्रह्मा सनङ्कुमारो भासित्थ । इममत्थं, भन्ते, ब्रह्मा सनङ्कुमारो भासित्वा देवे तावतिंसे आमन्तेसि -
सत्त समाधिपरिक्खारा २९०. “तं किं मञ्जन्ति, भोन्तो देवा तावतिंसा, याव सुपञत्ता चिमे तेन
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दीघनिकायो-२
(२.५.२९१-२९१)
भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन सत्त समाधिपरिक्खारा सम्मासमाधिस्स परिभावनाय सम्मासमाधिस्स पारिपूरिया । कतमे सत्त ? सम्मादिट्ठि सम्मासङ्कप्पो सम्मावाचा सम्माकम्मन्तो सम्माआजीवो सम्मावायामो सम्मासति । या खो, भो, इमेहि सत्तहङ्गेहि चित्तस्स एकग्गता परिक्खता । अयं वुच्चति, भो, अरियो सम्मासमाधि सउपनिसो इतिपि सपरिक्खारो इतिपि । सम्मादिट्ठिस्स भो, सम्मासङ्कप्पो पहोति, सम्मासङ्कप्पस्स सम्मावाचा पहोति, सम्मावाचस्स सम्माकम्मन्तो पहोति । सम्माकम्मन्तस्स सम्माआजीवो पहोति, सम्माआजीवस्स सम्मावायामो पहोति, सम्मावायामस्स सम्मासति पहोति, सम्मासतिस्स सम्मासमाधि पहोति, सम्मासमाधिस्स सम्माजाणं पहोति, सम्मााणस्स सम्माविमुत्ति पहोति । यहि तं, भो, सम्मा वदमानो वदेय्य -- 'स्वाक्खातो भगवता धम्मो सन्दिट्ठिको अकालिको एहिपस्सिको ओपनेय्यिको पच्चत्तं वेदितब्बो विहि अपारुता अमतस्स द्वारा'ति इदमेव तं सम्मा वदमानो वदेय्य । स्वाक्खातो हि, भो, भगवता धम्मो सन्दिट्ठिको, अकालिको एहिपस्सिको ओपनेय्यिको पच्चत्तं वेदितब्बो विहि अपारुता अमतस्स द्वारा।
“ये हि केचि, भो, बुद्धे अवेच्चप्पसादेन समन्नागता, धम्मे अवेच्चप्पसादेन समन्नागता, सङ्घ अवेच्चप्पसादेन समन्नागता, अरियकन्तेहि सीलेहि समन्नागता, ये चिमे ओपपातिका धम्मविनीता सातिरेकानि चतुवीसतिसतसहस्सानि मागधका परिचारका अब्भतीता कालङ्कता तिण्णं संयोजनानं परिक्खया सोतापन्ना अविनिपातधम्मा नियता सम्बोधिपरायणा । अत्थि चेवेत्थ सकदागामिनो ।
अत्थायं इतरा पजा, पुजाभागाति मे मनो। सङ्खातुं नोपि सक्कोमि, मुसावादस्स ओत्तप्प''न्ति ।।
२९१. “इममत्थं, भन्ते, ब्रह्मा सनकुमारो भासित्थ, इममत्थं, भन्ते, ब्रह्मनो सनकुमारस्स भासतो वेस्सवणस्स महाराजस्स एवं चेतसो परिवितक्को उदपादि'अच्छरियं वत भो, अब्भुतं वत भो, एवरूपोपि नाम उळारो सत्था भविस्सति, एवरूपं उळारं धम्मक्खानं, एवरूपा उळारा विसेसाधिगमा पञायिस्सन्ती'ति । अथ, भन्ते, ब्रह्मा सनकुमारो वेस्सवणस्स महाराजस्स चेतसा चेतोपरिवितक्कमञाय वेस्सवणं महाराजानं एतदवोच - 'तं किं मञति भवं वेस्सवणो महाराजा अतीतम्पि अद्धानं एवरूपो उळारो सत्था अहोसि, एवरूपं उळारं धम्मक्खानं, एवरूपा उळारा विसेसाधिगमा पञायिंसु ।
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(२.५.२९२-२९२)
५. जनवसभसुत्तं
१६१
अनागतम्पि अद्धानं एवरूपो उळारो सत्था भविस्सति, एवरूपं उळारं धम्मक्खानं, एवरूपा उळारा विसेसाधिगमा पञायिस्सन्ती' "ति ।
२९२. "इममत्थं, भन्ते, ब्रह्मा सनङ्कुमारो देवानं तावतिंसानं अभासि, इममत्थं वेस्सवणो महाराजा ब्रह्मनो सनङ्कुमारस्स देवानं तावतिंसानं भासतो सम्मुखा सुतं सम्मुखा पटिग्गहितं सयं परिसायं आरोचेसि" | इममत्थं जनवसभो यक्खो वेस्सवणस्स महाराजस्स सयं परिसायं भासतो सम्मुखा सुतं सम्मुखा पटिग्गहितं भगवतो आरोचेसि । इममत्थं भगवा जनवसभस्स यक्खस्स सम्मुखा सुत्वा सम्मुखा पटिग्गहेत्वा सामञ्च अभिज्ञाय आयस्मतो आनन्दस्स आरोचेसि. इममत्थमायस्मा आनन्दो भगवतो सम्मखा सत्वा सम्मखा पटिग्गहेत्वा आरोचेसि भिक्खूनं भिक्खुनीनं उपासकानं उपासिकानं । तयिदं ब्रह्मचरियं इद्धञ्चेव फीतञ्च वित्थारिकं बाहुजनं पुथुभूतं याव देवमनुस्सेहि सुप्पकासितन्ति ।
जनवसभसुत्तं निहितं पञ्चमं ।
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६. महागोविन्दसुत्तं
२९३. एवं मे सुतं - एकं समयं भगवा राजगहे विहरति गिज्झकूटे पब्बते । अथ खो पञ्चसिखो गन्धब्बपुत्तो अभिक्कन्ताय रत्तिया अभिक्कन्तवण्णो केवलकप्पं गिज्झकूटं पब्बतं ओभासेत्वा येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं अट्ठासि । एकमन्तं ठितो खो पञ्चसिखो गन्धब्बपुत्तो भगवन्तं एतदवोच – “यं खो मे, भन्ते, देवानं तावतिंसानं सम्मुखा सुतं सम्मुखा पटिग्गहितं, आरोचेमि तं भगवतो''ति । “आरोचेहि मे त्वं, पञ्चसिखा''ति भगवा अवोच ।
देवसभा
२९४. “पुरिमानि, भन्ते, दिवसानि पुरिमतरानि तदहुपोसथे पन्नरसे पवारणाय पुण्णाय पुण्णमाय रत्तिया केवलकप्पा च देवा तावतिंसा सुधम्मायं सभायं सन्निसिन्ना होन्ति सन्निपतिता; महती च दिब्बपरिसा समन्ततो निसिन्ना होन्ति, चत्तारो च महाराजानो चतुद्दिसा निसिन्ना होन्ति; पुरथिमाय दिसाय धतरट्ठो महाराजा पच्छिमाभिमुखो निसिन्नो होति देवे पुरक्खत्वा; दक्खिणाय दिसाय विरूळहको महाराजा उत्तराभिमुखो निसिन्नो होति देवे पुरक्खत्वा; पच्छिमाय दिसाय विरूपक्खो महाराजा पुरत्थाभिमुखो निसिन्नो होति देवे पुरक्खत्वा; उत्तराय दिसाय वेस्सवणो महाराजा दक्खिणाभिमुखो निसिन्नो होति देवे पुरक्खत्वा । यदा भन्ते, केवलकप्पा च देवा तावतिंसा सुधम्मायं सभायं सन्निसिन्ना होन्ति सन्निपतिता, महती च दिब्बपरिसा समन्ततो निसिन्ना होन्ति, चत्तारो च महाराजानो चतुद्दिसा निसिन्ना होन्ति, इदं नेसं होति आसनस्मिं; अथ पच्छा अम्हाकं आसनं होति।
"ये ते, भन्ते, देवा भगवति ब्रह्मचरियं चरित्वा अधुनूपपन्ना तावतिंसकायं, ते
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(२.६.२९५-२९६)
६. महागोविन्दसुत्तं
१६३
अञ्चे देवे अतिरोचन्ति वण्णेन चेव यससा च । तेन सुदं, भन्ते, देवा तावतिसा अत्तमना होन्ति पमुदिता पीतिसोमनस्सजाता; 'दिब्बा वत, भो, काया परिपूरेन्ति, हायन्ति असुरकाया'ति ।
२९५. “अथ खो, भन्ते, सक्को देवानमिन्दो देवानं तावतिंसानं सम्पसादं विदित्वा इमाहि गाथाहि अनुमोदि -
"मोदन्ति वत भो देवा, तावतिंसा सहिन्दका । तथागतं नमस्सन्ता, धम्मस्स च सुधम्मतं ।।
नवे देवे च पस्सन्ता, वण्णवन्ते यसस्सिने । सुगतस्मिं ब्रह्मचरियं, चरित्वान इधागते ।।
ते अछे अतिरोचन्ति, वण्णेन यससायुना । सावका भूरिपञस्स, विसेसूपगता इध ।।
इदं दिस्वान नन्दन्ति, तावतिंसा सहिन्दका । तथागतं नमस्सन्ता, धम्मस्स च सुधम्मत"न्ति ।।
"तेन सुदं, भन्ते, देवा तावतिंसा भिय्योसो मत्ताय अत्तमना होन्ति पमुदिता पीतिसोमनस्सजाता; 'दिब्बा वत, भो, काया परिपूरेन्ति, हायन्ति असुरकाया' "ति ।
अट्ठ यथाभुच्चवण्णा
२९६. “अथ खो, भन्ते, सक्को देवानमिन्दो देवानं तावतिंसानं सम्पसादं विदित्वा देवे तावतिसे आमन्तेसि -- ‘इच्छेय्याथ नो तुम्हे, मारिसा, तस्स भगवतो अट्ठ यथाभुच्चे वण्णे सोतु'न्ति ? 'इच्छाम मयं, मारिस, तस्स भगवतो अट्ठ यथाभुच्चे वण्णे सोतु'न्ति । अथ खो, भन्ते, सक्को देवानमिन्दो देवानं तावतिंसानं भगवतो अट्ठ यथाभुच्चे वण्णे पयिरुदाहासि - 'तं किं मञ्जन्ति, भोन्तो देवा तावतिंसा, यावञ्च सो भगवा बहुजनहिताय पटिपन्नो बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सानं ।
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१६४
दीघनिकायो-२
(२.६.२९६-२९६)
एवं बहुजनहिताय पटिपन्नं बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सानं इमिनापङ्गेन समन्नागतं सत्थारं नेव अतीतंसे समनुपस्साम, न पनेतरहि अञत्र तेन भगवता।
‘स्वाक्खातो खो पन तेन भगवता धम्मो सन्दिट्ठिको अकालिको एहिपस्सिको ओपनेय्यिको पच्चत्तं वेदितब्बो विहि। एवं ओपनेय्यिकस्स धम्मस्स देसेतारं इमिनापङ्गेन समन्नागतं सत्थारं नेव अतीतंसे समनुपस्साम न पनेतरहि अञत्र तेन भगवता ।
'इदं कुसलन्ति खो पन तेन भगवता सुपञत्तं, इदं अकुसलन्ति सुपञत्तं । इदं सावज्जं इदं अनवज्जं, इदं सेवितब्बं इदं न सेवितब्ब, इदं हीनं इदं पणीतं, इदं कण्हसुक्कसप्पटिभागन्ति सुपञत्तं । एवं कुसलाकुसलसावज्जानवज्जसेवितब्बासेवितब्बहीनपणीतकण्हसुक्कसप्पटिभागानं धम्मानं पञपेतारं इमिनापङ्गेन समन्नागतं सत्थारं नेव अतीतंसे समनुपस्साम, न पनेतरहि अञत्र तेन भगवता ।
'सुपञत्ता खो पन तेन भगवता सावकानं निब्बानगामिनी पटिपदा, संसन्दति निब्बानञ्च पटिपदा च । सेय्यथापि नाम गङ्गोदकं यमुनोदकेन संसन्दति समेति; एवमेव सुपञत्ता तेन भगवता सावकानं निब्बानगामिनी पटिपदा, संसन्दति निब्बानञ्च पटिपदा च । एवं निब्बानगामिनिया पटिपदाय पञपेतारं इमिनापङ्गेन समन्नागतं सत्थारं नेव अतीतंसे समनुपस्साम, न पनेतरहि अञत्र तेन भगवता ।
'अभिनिप्फन्नो खो पन तस्स भगवतो लाभो अभिनिप्फन्नो सिलोको, याव मञ्चे खत्तिया सम्पियायमानरूपा विहरन्ति, विगतमदो खो पन सो भगवा आहारं आहारेति । एवं विगतमदं आहारं आहरयमानं इमिनापङ्गेन समन्नागतं सत्थारं नेव अतीतंसे समनुपस्साम, न पनेतरहि अञत्र तेन भगवता ।
'लद्धसहायो खो पन सो भगवा सेखानञ्चेव पटिपन्नानं खीणासवानञ्च वुसितवतं । ते भगवा अपनुज्ज एकारामतं अनुयुत्तो विहरति । एवं एकारामतं अनुयुत्तं इमिनापङ्गेन समन्नागतं सत्थारं नेव अतीतंसे समनुपस्साम, न पनेतरहि अञत्र तेन भगवता।
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६. महागोविन्दसुत्तं
' यथावादी खो पन सो भगवा तथाकारी, यथाकारी तथावादी, इति यथावादी तथाकारी, यथाकारी तथावादी । एवं धम्मानुधम्मप्पटिपन्नं इमिनापङ्गेन समन्नागतं सत्थारं नेव अतीतंसे समनुपस्साम, न पनेतरहि अञ्ञत्र तेन भगवता ।
(२.६.२९७-२९८)
'तिण्णविचिकिच्छो खो पन सो भगवा विगतकथंकथो परियोसितसङ्कप्पो अज्झासयं आदिब्रह्मचरियं । एवं तिण्णविचिकिच्छं विगतकथंकथं परियोसितसङ्कप्पं अज्झासयं आदिब्रह्मचरियं इमिनापङ्गेन समन्नागतं सत्थारं नेव अतीतंसे समनुपस्साम, न पनेत रहि अञ्ञत्र तेन भगवता 'ति ।
२९७. “इमे खो, भन्ते, सक्को देवानमिन्दो देवानं तावतिंसानं भगवतो अट्ठ यथाभुच्चे वण्णे पयिरुदाहासि । तेन सुदं भन्ते, देवा तावतिंसा भिय्योसो मत्ताय अत्तमना होन्ति पमुदिता पीतिसोमनस्सजाता भगवतो अट्ठ यथाभुच्चे वण्णे सुत्वा । तत्र, भन्ते, एकच्चे देवा एवमाहंसु - 'अहो वत, मारिसा, चत्तारो सम्मासम्बुद्धा लोके उप्पज्जेय्युं धम्मञ्च देसेय्युं यथरिव भगवा । तदस्स बहुजनहिताय बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सान 'न्ति । एकच्चे देवा एवमाहंसु - ' तिट्ठन्तु, मारिसा, चत्तारो सम्मासम्बुद्धा, अहो वत, मारिसा, तयो सम्मासम्बुद्धा लोके उप्पज्जेय्युं धम्मञ्च देसेय्युं यथरिव भगवा । तदस्स बहुजनहिताय बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सान 'न्ति । 'एकच्चे देवा एवमाहंसु - 'तिट्ठन्तु, मारिसा, तयो सम्मासम्बुद्धा, अहो वत, मारिसा, द्वे सम्मासम्बुद्धा लोके उप्पज्जेय्युं धम्मञ्च देसेय्युं यथरिव भगवा । तदस्स बहुजनहिताय बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सान' "न्ति ।
१६५
२९८. “एवं वुत्ते भन्ते, सक्को देवानमिन्दो देवे तावतिंसे एतदवोच - 'अट्ठानं खो एतं, मारिसा, अनवकासो, यं एकिस्सा लोकधातुया द्वे अरहन्तो सम्मासम्बुद्धा अपुब्बं अचरिमं उप्पज्जेय्युं, नेतं ठानं विज्जति । अहो वत, मारिसा, सो भगवा अप्पाबाधो अप्पातङ्को चिरं दीघमद्धानं तिट्ठेय्य । तदस्स बहुजनहिताय बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सान' न्ति । अथ खो, भन्ते येनत्थेन देवा तावतिंसा सुधम्मायं सभायं सन्निसिन्ना होन्ति सन्निपतिता, तं अत्थं चिन्तयित्वा तं अत्यं मन्तयित्वा वृत्तवचनापि तं चत्तारो महाराजानो तस्मिं अत्थे होन्ति । पच्चानुसिट्ठवचनापि तं चत्तारो महाराजानो तस्मिं अत्थे होन्ति, सकेसु सकेसु आसनेसु ठिता अविपक्कन्ता ।
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१६६
दीघनिकायो-२
(२.६.२९९-३००)
ते वुत्तवाक्या राजानो, पटिग्गय्हानुसासनिं ।। विप्पसन्नमना सन्ता, अटुंसु सम्हि आसनेति ।।
२९९. “अथ खो, भन्ते, उत्तराय दिसाय उळारो आलोको सञ्जायि, ओभासो पातुरहोसि अतिक्कम्मेव देवानं देवानुभावं | अथ खो, भन्ते, सक्को देवानमिन्दो देवे तावतिंसे आमन्तेसि - 'यथा खो, मारिसा, निमित्तानि दिस्सन्ति, उळारो आलोको सञ्जायति, ओभासो पातु भवति, ब्रह्मा पातु भविस्सति; ब्रह्मनो हेतं पुब्बनिमित्तं पातुभावाय, यदिदं आलोको सञ्जायति ओभासो पातु भवतीति ।
'यथा निमित्ता दिस्सन्ति, ब्रह्मा पातु भविस्सति । ब्रह्मनो हेतं निमित्तं, ओभासो विपुलो महाति ।।
_ सनकुमारकथा
सनङ्मारकथा
३००. “अथ खो, भन्ते, देवा तावतिंसा यथासकेसु आसनेसु निसीदिंसु - 'ओभासमेतं अस्साम, यंविपाको भविस्सति, सच्छिकत्वाव नं गमिस्सामा'ति । चत्तारोपि महाराजानो यथासकेसु आसनेसु निसीदिंसु - ‘ओभासमेतं अस्साम, यंविपाको भविस्सति, सच्छिकत्वाव नं गमिस्सामा'ति । इदं सुत्वा देवा तावतिंसा एकग्गा समापज्जिंसु - 'ओभासमेतं अस्साम, यंविपाको भविस्सति, सच्छिकत्वाव नं गमिस्सामा'ति ।
“यदा, भन्ते, ब्रह्मा सनमारो देवानं तावतिंसानं पातु भवति, ओळारिक अत्तभावं अभिनिम्मिनित्वा पातु भवति । यो खो पन, भन्ते, ब्रह्मनो पकतिवण्णो, अनभिसम्भवनीयो सो देवानं तावतिंसानं चक्खुपथस्मिं । यदा, भन्ते, ब्रह्मा सनकुमारो देवानं तावतिंसानं पातु भवति, सो अछे देवे अतिरोचति वण्णेन चेव यससा च । सेय्यथापि, भन्ते, सोवण्णो विग्गहो मानुसं विग्गहं अतिरोचति; एवमेव खो, भन्ते, यदा ब्रह्मा सनकुमारो देवानं तावतिंसानं पातु भवति, सो अछे देवे अतिरोचति वण्णेन चेव यससा च । यदा, भन्ते, ब्रह्मा सनकुमारो देवानं तावतिंसानं पातु भवति, न तस्सं परिसायं कोचि देवो अभिवादेति वा पच्चट्रेति वा आसनेन वा निमन्तेति | सब्बेव तुण्हीभूता पञ्जलिका पल्लङ्केन निसीदन्ति - 'यस्सदानि देवस्स पल्लङ्घ इच्छिस्सति ब्रह्मा सनकुमारो, तस्स देवस्स पल्लङ्के निसीदिस्सती'ति । यस्स खो पन, भन्ते, देवस्स ब्रह्मा
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(२.६.३०१-३०१)
६. महागोविन्दसुत्तं
१६७
सनङ्कमारो पल्लङ्के निसीदति, उळारं सो लभति देवो वेदपटिलाभं, उळारं सो लभति देवो सोमनस्सपटिलाभं । सेय्यथापि, भन्ते, राजा खत्तियो मुद्धावसित्तो अधुनाभिसित्तो रज्जेन, उळारं सो लभति वेदपटिलाभ, उळारं सो लभति सोमनस्सपटिलाभं; एवमेव खो, भन्ते, यस्स देवस्स ब्रह्मा सनमारो पल्लङ्के निसीदति, उळारं सो लभति देवो वेदपटिलाभं, उळारं सो लभति देवो सोमनस्सपटिलाभं । अथ, भन्ते, ब्रह्मा सनमारो देवानं तावतिंसानं सम्पसादं विदित्वा अन्तरहितो इमाहि गाथाहि अनुमोदि -
“मोदन्ति वत भो देवा, तावतिंसा सहिन्दका । तथागतं नमस्सन्ता, धम्मस्स च सुधम्मतं ।।
'नवे देवे च पस्सन्ता, वण्णवन्ते यसस्सिने । सुगतस्मिं ब्रह्मचरियं, चरित्वान इधागते ।।
'ते अछे अतिरोचन्ति, वण्णेन यससायुना । सावका भूरिपञस्स, विसेसूपगता इध ।।
'इदं दिस्वान नन्दन्ति, तावतिंसा सहिन्दका । तथागतं नमस्सन्ता, धम्मस्स च सुधम्मत'न्ति ।।
३०१. “इममत्थं, भन्ते, ब्रह्मा सनमारो अभासित्थ । इममत्थं, भन्ते, ब्रह्मनो सनङ्कुमारस्स भासतो अट्ठङ्गसमन्नागतो सरो होति विस्सट्ठो च विज्ञेय्यो च मञ्जु च सवनीयो च बिन्दु च अविसारी च गम्भीरो च निन्नादी च । यथापरिसं खो पन, भन्ते, ब्रह्मा सनमारो सरेन विज्ञापेति, न चस्स बहिद्धा परिसाय घोसो निच्छरति । यस्स खो पन, भन्ते, एवं अट्ठङ्गसमन्नागतो सरो होति, सो वुच्चति 'ब्रह्मस्सरोति । अथ खो, भन्ते, देवा तावतिंसा ब्रह्मानं सनकुमारं एतदवोचुं- “साधु, महाब्रह्मे, एतदेव मयं सङ्घाय मोदाम, अत्थि च सक्केन देवानमिन्देन तस्स भगवतो अट्ठ यथाभुच्चा वण्णा भासिता; ते च मयं सङ्खाय मोदामा''ति ।
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दीघनिकायो-२
अट्ठ यथाभुच्चवण्णा
३०२. “अथ, भन्ते, ब्रह्मा सनङ्कुमारो सक्कं देवानमिन्दं एतदवोच - 'साधु, देवानमिन्द, मयम्पि तस्स भगवतो अट्ठ यथाभुच्चे वण्णे सुणेय्यामा 'ति । एवं, महाब्रह्मे 'ति खो, भन्ते, सक्को देवानमिन्दो ब्रह्मनो सनङ्कुमारस्स भगवतो अट्ठ यथाभुच्चे वणे परुिदाहासि ।
'तं किं मञ्ञति, भवं महाब्रह्मा, यावञ्च सो भगवा बहुजनहिताय पटिपन्नो बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सानं, एवं बहुजनहिताय पटिपन्नं बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सानं । इमिनापङ्गेन समन्नागतं सत्थारं नेव अतीतंसे समनुपस्साम, न पनेतरहि, अञ्ञत्र तेन भगवता ।
(२.६.३०२-३०२)
'स्वाक्खातो खो पन तेन भगवता धम्मो सन्दिट्ठिको अकालिको एहिपस्सिको ओपनेय्यिको पच्चत्तं वेदितब्बो विनूहि । एवं ओपनेय्यिकस्स धम्मस्स देसेतारं इमिनापङ्गेन समन्नागतं सत्थारं नेव अतीतंसे समनुपस्साम, न पनेतरहि अञ्ञत्र तेन
भगवता ।
'इदं कुसल 'न्ति खो पन तेन भगवता सुपञ्ञत्तं, 'इदं अकुसल 'न्ति सुपञ्ञत्तं, 'इदं सावज्जं इदं अनवज्जं इदं सेवितब्बं इदं न सेवितब्बं, इदं हीनं इदं पणीतं, इदं कण्हसुक्कसप्पटिभाग'न्ति सुपञ्ञत्तं । एवं कुसलाकुसलसावज्जानवज्जसेवितब्बासेवितब्बहीनपणीत कण्हसुक्कसप्पटिभागानं धम्मानं पञ्ञापेतारं । इमिनापङ्गेन समन्नागतं सत्थारं नेव अतीतंसे समनुपस्साम, न पनेतरहि अञ्ञत्र तेन भगवता ।
'सुपञ्ञत्ता खो पन तेन भगवता सावकानं निब्बानगामिनी पटिपदा संसन्दति निब्बानञ्च पटिपदा च । सेय्यथापि नाम गङ्गोदकं यमुनोदकेन संसन्दति समेति, एवमेव सुपञ्ञत्ता तेन भगवता सावकानं निब्बानगामिनी पटिपदा संसन्दति निब्बानञ्च पटिपदा च। एवं निब्बानगामिनिया पटिपदाय पञ्ञापेतारं इमिनापङ्गेन समन्नागतं सत्थारं नेव अतीतंसे समनुपस्साम, न पनेतरहि अञ्ञत्र तेन भगवता ।
'अभिनिप्फन्नो खो पन तस्स भगवतो लाभो अभिनिप्फन्नो सिलोको, याव मञ्जे
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(२.६.३०३-३०४)
६. महागोविन्दसुत्तं
१६९
खत्तिया सम्पियायमानरूपा विहरन्ति । विगतमदो खो पन सो भगवा आहारं आहारेति । एवं विगतमदं आहारं आहरयमानं इमिनापङ्गेन समन्नागतं सत्थारं नेव अतीतंसे समनुपस्साम, न पनेतरहि अञत्र तेन भगवता ।
'लद्धसहायो खो पन सो भगवा सेखानञ्चेव पटिपन्नानं खीणासवानञ्च वुसितवतं, ते भगवा अपनुज्ज एकारामतं अनुयुत्तो विहरति । एवं एकारामतं अनुयुत्तं इमिनापङ्गेन समन्नागतं सत्थारं नेव अतीतंसे समनुपस्साम, न पनेतरहि अञत्र तेन भगवता ।
'यथावादी खो पन सो भगवा तथाकारी, यथाकारी तथावादी; इति यथावादी तथाकारी, यथाकारी तथावादी । एवं धम्मानुधम्मप्पटिप्पन्नं इमिनापङ्गेन समन्नागतं सत्थारं नेव अतीतंसे समनुपस्साम, न पनेतरहि अञत्र तेन भगवता ।
_ 'तिण्णविचिकिच्छो खो पन सो भगवा विगतकथंकथो परियोसितसङ्कप्पो अज्झासयं आदिब्रह्मचरियं । एवं तिण्णविचिकिच्छं विगतकथंकथं परियोसितसङ्कप्पं अज्झासयं आदिब्रह्मचरियं । इमिनापङ्गेन समन्नागतं सत्यारं नेव अतीतंसे समनुपस्साम, न पनेतरहि अञत्र तेन भगवता'ति ।
३०३. “इमे खो, भन्ते, सक्को देवानमिन्दो ब्रह्मनो सनकुमारस्स भगवतो अट्ठ यथाभुच्चे वण्णे पयिरुदाहासि । तेन सुदं, भन्ते, ब्रह्मा सनकुमारो अत्तमनो होति पमुदितो पीतिसोमनस्सजातो भगवतो अट्ठ यथाभुच्चे वण्णे सुत्वा । अथ, भन्ते, ब्रह्मा सनकुमारो
ओळारिकं अत्तभावं अभिनिम्मिनित्वा कुमारवण्णी हुत्वा पञ्चसिखो देवानं तावतिंसानं पातुरहोसि । सो वेहासं अब्भुग्गन्त्वा आकासे अन्तलिक्खे पल्लङ्घन निसीदि । सेय्यथापि, भन्ते, बलवा पुरिसो सुपच्चत्थते वा पल्लङ्के समे वा भूमिभागे पल्लङ्केन निसीदेय्य; एवमेव खो, भन्ते, ब्रह्मा सनङ्कुमारो वेहासं अब्भुग्गन्त्वा आकासे अन्तलिक्खे पल्लङ्केन निसीदित्वा देवे तावतिंसे आमन्तेसि -
गोविन्दब्राह्मणवत्थु ३०४. 'तं किं मञन्ति, भोन्तो देवा तावतिंसा, याव दीघरत्तं महापोव सो भगवा अहोसि । “भूतपुब्बं, भो, राजा दिसम्पति नाम अहोसि । दिसम्पतिस्स रञो
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१७०
दीघनिकायो-२
(२.६.३०५-३०५)
गोविन्दो नाम ब्राह्मणो पुरोहितो अहोसि। दिसम्पतिस्स रो रेणु नाम कुमारो पुत्तो अहोसि । गोविन्दस्स ब्राह्मणस्स जोतिपालो नाम माणवो पुत्तो अहोसि । इति रेणु च राजपुत्तो जोतिपालो च माणवो अछे च छ खत्तिया इच्चेते अट्ठ सहाया अहेसुं । अथ खो, भो, अहोरत्तानं अच्चयेन गोविन्दो ब्राह्मणो कालमकासि । गोविन्दे ब्राह्मणे कालङ्कते राजा दिसम्पति परिदेवेसि - यस्मिं वत, भो, मयं समये गोविन्दे ब्राह्मणे सब्बकिच्चानि सम्मा वोस्सज्जित्वा पञ्चहि कामगुणेहि समप्पिता समङ्गीभूता परिचारेम, तस्मिं नो समये गोविन्दो ब्राह्मणो कालङ्कतो'ति । एवं वुत्ते भो, रेणु राजपुत्तो राजानं दिसम्पतिं एतदवोच - ‘मा खो त्वं, देव, गोविन्दे ब्राह्मणे कालङ्कते अतिबाळ्हं परिदेवेसि । अस्थि, देव, गोविन्दस्स ब्राह्मणस्स जोतिपालो नाम माणवो पुत्तो पण्डिततरो चेव पितरा, अलमत्थदसतरो चेव पितरा; येपिस्स पिता अत्थे अनुसासि, तेपि जोतिपालस्सेव माणवस्स अनुसासनिया'ति । ‘एवं कुमारा'ति ? ‘एवं देवा'ति ।
महागोविन्दवत्थु
३०५. 'अथ खो, भो, राजा दिसम्पति अञ्जतरं पुरिसं आमन्तेसि - ‘एहि त्वं, अम्भो पुरिस, येन जोतिपालो नाम माणवो तेनुपसङ्कम; उपसङ्कमित्वा जोतिपालं माणवं एवं वदेहि - भवमत्थु भवन्तं जोतिपालं, राजा दिसम्पति भवन्तं जोतिपालं माणवं आमन्तयति, राजा दिसम्पति भोतो जोतिपालस्स माणवस्स दस्सनकामो' "ति । एवं, देवाति खो, भो, सो पुरिसो दिसम्पतिस्स रो पटिस्सुत्वा येन जोतिपालो माणवो तेनुपसङ्कमि; उपसमित्वा जोतिपालं माणवं एतदवोच - भवमत्थु भवन्तं जोतिपालं, राजा दिसम्पति भवन्तं जोतिपालं माणवं आमन्तयति, राजा दिसम्पति भोतो जोतिपालस्स माणवस्स दस्सनकामोति । एवं, भोति खो, भो, जोतिपालो माणवो तस्स पुरिसस्स पटिस्सुत्वा येन राजा दिसम्पति तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा दिसम्पतिना रञा सद्धिं सम्मोदि; सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं निसीदि । एकमन्तं निसिन्नं खो, भो, जोतिपालं माणवं राजा दिसम्पति एतदवोच - अनुसासतु नो भवं जोतिपालो, मा नो भवं जोतिपालो अनुसासनिया पच्चब्याहासि । पेत्तिके तं ठाने ठपेस्सामि, गोविन्दिये अभिसिञ्चिस्सामीति । एवं, भोति खो, भो, सो जोतिपालो माणवो दिसम्पतिस्स रो पच्चस्सोसि । अथ खो, भो, राजा दिसम्पति जोतिपालं माणवं गोविन्दिये अभिसिञ्चि, तं पेत्तिके ठाने ठपेसि । अभिसित्तो जोतिपालो माणवो गोविन्दिये पेत्तिके ठाने ठपितो येपिस्स पिता अत्थे अनुसासि तेपि अत्थे अनुसासति, येपिस्स पिता अत्थे नानुसासि,
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(२.६.३०६-३०७)
६. महागोविन्दसुत्तं
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तेपि अत्थे अनुसासति; येपिस्स पिता कम्मन्ते अभिसम्भोसि, तेपि कम्मन्ते अभिसम्भोति, येपिस्स पिता कम्मन्ते नाभिसम्भोसि, तेपि कम्मन्ते अभिसम्भोति । तमेनं मनुस्सा एवमाहंसु - गोविन्दो वत, भो, ब्राह्मणो, महागोविन्दो वत, भो, ब्राह्मणोति । इमिना खो एवं, भो, परियायेन जोतिपालस्स माणवस्स गोविन्दो महागोविन्दोत्वेव समझा उदपादि ।
रज्जसंविभजनं
३०६. 'अथ खो, भो, महागोविन्दो ब्राह्मणो येन ते छ खत्तिया तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा ते छ खत्तिये एतदवोच - दिसम्पति खो, भो, राजा जिण्णो वुद्धो महल्लको अद्धगतो वयोअनुप्पत्तो, को नु खो पन, भो, जानाति जीवितं । ठानं खो पनेतं विज्जति, यं दिसम्पतिम्हि रखे कालते राजकत्तारो रेणुं राजपुत्तं रज्जे अभिसिञ्चेय्युं । आयन्तु भोन्तो, येन रेणु राजपुत्तो तेनुपसङ्कमथ; उपसङ्कमित्वा रेणुं राजपुत्तं एवं वदेथ - मयं खो भोतो रेणुस्स सहाया पिया मनापा अप्पटिकूला, यंसुखो भवं तंसुखा मयं, यंदुक्खो भवं तंदुक्खा मयं । दिसम्पति खो, भो, राजा जिण्णो वुद्धो महल्लको अद्धगतो वयोअनुप्पत्तो, को नु खो पन, भो, जानाति जीवितं! ठानं खो पनेतं विज्जति, यं दिसम्पतिम्हि रछे कालङ्कते राजकत्तारो भवन्तं रेणुं रज्जे अभिसिञ्चेय्युं । सचे भवं रेणु रज्जं लभेथ, संविभजेथ नो रज्जेनाति । एवं, भो, ति खो, भो, ते छ खत्तिया महागोविन्दस्स ब्राह्मणस्स पटिस्सुत्वा येन रेणु राजपुत्तो तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा रेणुं राजपुत्तं एतदवोचुं- मयं खो भोतो रेणुस्स सहाया पिया मनापा अप्पटिकूला; यंसुखो भवं तंसुखा मयं, यंदुक्खो भवं तंदुक्खा मयं । दिसम्पति खो, भो, राजा जिण्णो वुद्धो महल्लको अद्धगतो वयोअनुप्पत्तो, को नु खो पन भो जानाति जीवितं । ठानं खो पनेतं विज्जति, यं दिसम्पतिम्हि रछे कालङ्कते राजकत्तारो भवन्तं रेणुं रज्जे अभिसिञ्चेय्युं । सचे भवं रेणु रज्जं लभेथ, संविभजेथ नो रज्जेना'ति । 'को नु खो, भो, अञो मम विजिते सुखो भवेथ, अञत्र भवन्तेभि । सचाहं, भो, रज्जं लभिस्सामि, संविभजिस्सामि वो रज्जेना'ति ।
३०७. 'अथ खो, भो, अहोरत्तानं अच्चयेन राजा दिसम्पति कालमकासि । दिसम्पतिम्हि रजे कालते राजकत्तारो रेणुं राजपुत्तं रज्जे अभिसिञ्चिंसु । अभिसित्तो रेणु रज्जेन पञ्चहि कामगुणेहि समप्पितो समझीभूतो परिचारेति । अथ खो, भो, महागोविन्दो ब्राह्मणो येन ते छ खत्तिया तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा ते छ खत्तिये
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दीघनिकायो-२
एतदवोच – दिसम्पति खो, भो, राजा कालङ्कतो । अभिसित्तो रेणु रज्जेन पञ्चहि कामगुणेहि समप्पितो समङ्गीभूतो परिचारेति । को नु खो पन, भो, जानाति, मदनीया कामा । आयन्तु भोन्तो, येन रेणु राजा तेनुपसङ्कमथ, उपसङ्कमित्वा रेणुं राजानं एवं वदेथ - दिसम्पति खो, भो, राजा कालङ्कतो, अभिसित्तो भवं रेणु रज्जेन, सरति भवं तं वचन 'न्ति ?
३०८. 'एवं, भोति खो, भो, ते छ खत्तिया महागोविन्दस्स ब्राह्मणस्स पटिस्सुत्वा येन रेणु राजा तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा रेणुं राजानं एतदवोचुं - दिसम्पति खो, भो, राजा कालङ्कतो, अभिसित्तो भवं रेणु रज्जेन, सरति भवं तं वचनन्ति ? 'सरामहं, भो, तं वचनं । को नु खो, भो, पहोति इमं महापथविं उत्तरेन आयतं दक्खिणेन सकटमुखं सत्तधा समं सुविभत्तं विभजितु 'न्ति ? ' को नु खो, भो, अञ्ञो पहोति, अञ्ञत्र महागोविन्देन ब्राह्मणेना'ति ? अथ खो, भो, रेणु राजा अञ्ञतरं पुरिसं आमन्तेसि - एहि त्वं, अम्भो पुरिस, येन महागोविन्दो ब्राह्मणो तेनुपसङ्कम; उपसङ्कमित्वा महागोविन्दं ब्राह्मणं एवं वदेहि- राजा तं भन्ते, रेणु आमन्तेतीति । एवं देवाति खो, भो, सो पुरिसो रेणुस्स रञ्ञो पटिस्सुत्वा येन महागोविन्दो ब्राह्मणो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा महागोविन्दं ब्राह्मणं एतदवोच - राजा तं भन्ते, रेणु आमन्तेतीति । एवं, भोति खो, भो, महागोविन्दो ब्राह्मणो तस्स पुरिसस्स पटिस्सुत्वा येन रेणु राजा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा रेणुना रञ्ञा सद्धिं सम्मोदि । सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं निसीदि । एकमन्तं निसिन्नं खो, भो, महागोविन्दं ब्राह्मणं रेणु राजा एतदवोच - एतु भवं गोविन्दो, इमं महापथविं उत्तरेन आयतं दक्खिणेन सकटमुखं सत्तधा समं सुविभत्तं विभजतूति । एवं भोति खो महागोविन्दो ब्राह्मणो रेणुस्स रञ पटिस्सुत्वा इमं महापथविं उत्तरेन आयतं दक्खिणेन सकटमुखं सत्तधा समं विभत्तं विभजि । सब्बानि सकटमुखानि पट्ठपेसि । तत्र सुदं मज्झे रेणुस्स रज्ञो जनपदो होति ।
३०९.दन्तपुरं कलिङ्गानं, अस्सकानञ्च पोतनं । महेसयं अवन्तीनं, सोवीरानञ्च रोरुकं । ।
मिथिला च विदेहानं, चम्पा असु मापिता । बाराणसी च कासीनं एते गोविन्दमापिताति । ।
(२.६.३०८-३०९)
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(२.६.३१०-३१२)
६. महागोविन्दसुत्तं
१७३
३१०. 'अथ खो, भो, ते छ खत्तिया यथासकेन लाभेन अत्तमना अहेसुं परिपुण्णसङ्कप्पा - 'यं वत नो अहोसि इच्छितं, यं आकसितं, यं अधिप्पेतं, यं अभिपत्थितं, तं नो लद्ध'न्ति ।
'सत्तभू ब्रह्मदत्तो च, वेस्सभू भरतो सह । रेणु द्वे धतरट्ठा च, तदासुं सत्त भारधा'ति ।।
पठमभाणवारो निहितो।
कित्तिसद्दअब्भुग्गमनं
३११. 'अथ खो, भो, ते छ खत्तिया येन महागोविन्दो ब्राह्मणो तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा महागोविन्दं ब्राह्मणं एतदवोचुं- यथा खो भवं गोविन्दो रेणुस्स रञो सहायो पियो मनापो अप्पटिकूलो। एवमेव खो भवं गोविन्दो अम्हाकम्पि सहायो पियो मनापो अप्पटिकूलो, अनुसासतु नो भवं गोविन्दो; मा नो भवं गोविन्दो अनुसासनिया पच्चब्याहासीति । एवं, भोति खो महागोविन्दो ब्राह्मणो तेसं छन्नं खत्तियानं पच्चस्सोसि । अथ खो, भो, महागोविन्दो ब्राह्मणो सत्त च राजानो खत्तिये मुद्धावसित्ते रज्जे अनुसासि, सत्त च ब्राह्मणमहासाले सत्त च न्हातकसतानि मन्ते वाचेसि ।
३१२. 'अथ खो, भो, महागोविन्दस्स ब्राह्मणस्स अपरेन समयेन एवं कल्याणो कित्तिसद्दो अब्भुग्गच्छि – सक्खि महागोविन्दो ब्राह्मणो ब्रह्मानं पस्सति, सक्खि महागोविन्दो ब्राह्मणो ब्रह्मना साकच्छेति सल्लपति मन्तेतीति । अथ खो, भो, महागोविन्दस्स ब्राह्मणस्स एतदहोसि - मय्ह खो एवं कल्याणो कित्तिसद्दो अब्भुग्गतो - सक्खि महागोविन्दो ब्राह्मणो ब्रह्मानं पस्सति, सक्खि महागोविन्दो ब्राह्मणो ब्रह्मना साकच्छेति सल्लपति मन्तेतीति । न खो पनाहं ब्रह्मानं पस्सामि, न ब्रह्मना साकच्छेमि, न ब्रह्मना सल्लपामि, न ब्रह्मना मन्तेमि। सुतं खो पन मेतं ब्राह्मणानं वुद्धानं महल्लकानं आचरियपाचरियानं भासमानानं - यो वस्सिके चत्तारो मासे पटिसल्लीयति,
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१७४
दीघनिकायो-२
(२.६.३१३-३१५)
करुणं झानं झायति, सो ब्रह्मानं पस्सति ब्रह्मना साकच्छेति ब्रह्मना सल्लपति ब्रह्मना मन्तेतीति । यंनूनाहं वस्सिके चत्तारो मासे पटिसल्लीयेय्यं, करुणं झानं झायेय्य'न्ति ।
__ ३१३. 'अथ खो, भो, महागोविन्दो ब्राह्मणो येन रेणु राजा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा रेणुं राजानं एतदवोच- मय्हं खो, भो, एवं कल्याणो कित्तिसद्दो अब्भुग्गतो - सक्खि महागोविन्दो ब्राह्मणो ब्रह्मानं पस्सति, सक्खि महागोविन्दो ब्राह्मणो ब्रह्मना साकच्छेति सल्लपति मन्तेतीति । न खो पनाहं, भो, ब्रह्मानं पस्सामि, न ब्रह्मना साकच्छेमि, न ब्रह्मना सल्लपामि, न ब्रह्मना मन्तेमि । सुतं खो पन मेतं ब्राह्मणानं वुद्धानं महल्लकानं आचरियपाचरियानं भासमानानं- यो वस्सिके चत्तारो मासे पटिसल्लीयति, करुणं झानं झायति, सो ब्रह्मानं पस्सति, ब्रह्मना साकच्छेति ब्रह्मना सल्लपति ब्रह्मना मन्तेतीति । इच्छामहं, भो, वस्सिके चत्तारो मासे पटिसल्लीयितुं, करुणं झानं झायितुं; नम्हि केनचि उपसङ्कमितब्बो अञत्र एकेन भत्ताभिहारेनाति । यस्सदानि भवं गोविन्दो कालं मचती'ति ।
३१४. 'अथ खो, भो, महागोविन्दो ब्राह्मणो येन ते छ खत्तिया तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा ते छ खत्तिये एतदवोच- मय्हं खो, भो, एवं कल्याणो कित्तिसद्दो अब्भुग्गतो- सक्खि महागोविन्दो ब्राह्मणो ब्रह्मानं पस्सति, सक्खि महागोविन्दो ब्राह्मणो ब्रह्मना साकच्छेति सल्लपति मन्तेतीति । न खो पनाहं, भो, ब्रह्मानं पस्सामि, न ब्रह्मना साकच्छेमि, न ब्रह्मना सल्लपामि, न ब्रह्मना मन्तेमि। सुतं खो पन मेतं ब्राह्मणानं वुद्धानं महल्लकानं आचरियपाचरियानं भासमानानं, यो वस्सिके चत्तारो मासे पटिसल्लीयति, करुणं झानं झायति, सो ब्रह्मानं पस्सति ब्रह्मना साकच्छेति ब्रह्मना सल्लपति ब्रह्मना मन्तेतीति । इच्छामहं, भो, वस्सिके चत्तारो मासे पटिसल्लीयितुं, करुणं झानं झायितुं; नम्हि केनचि उपसङ्कमितब्बो अझत्र एकेन भत्ताभिहारेनाति । यस्सदानि भवं गोविन्दो कालं मञती'ति ।
३१५. 'अथ खो, भो, महागोविन्दो ब्राह्मणो येन ते सत्त च ब्राह्मणमहासाला सत्त च न्हातकसतानि तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा ते सत्त च ब्राह्मणमहासाले सत्त च न्हातकसतानि एतदवोच- मय्हं खो, भो, एवं कल्याणो कित्तिसद्दो अब्भुग्गतो - सक्खि महागोविन्दो ब्राह्मणो ब्रह्मानं पस्सति, सक्खि महागोविन्दो ब्राह्मणो ब्रह्मना साकच्छेति सल्लपति मन्तेतीति । न खो पनाहं, भो, ब्रह्मानं पस्सामि, न ब्रह्मना साकच्छेमि, न
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(२.६.३१६-३१७)
६. महागोविन्दसुत्तं
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ब्रह्मना सल्लपामि, न ब्रह्मना मन्तेमि | सुतं खो पन मेतं ब्राह्मणानं वुद्धानं महल्लकानं आचरियपाचरियानं भासमानानं - यो वस्सिके चत्तारो मासे पटिसल्लीयति, करुणं झानं झायति, सो ब्रह्मानं पस्सति, ब्रह्मना साकच्छेति, ब्रह्मना सल्लपति, ब्रह्मना मन्तेतीति । तेन हि, भो, यथासुते यथापरियत्ते मन्ते वित्थारेन सज्झायं करोथ, अञमञञ्च मन्ते वाचेथ; इच्छामहं, भो, वस्सिके चत्तारो मासे पटिसल्लीयितुं, करुणं झानं झायितुं नम्हि केनचि उपसङ्कमितब्बो अञत्र एकेन भत्ताभिहारेनाति । यस्स दानि भवं गोविन्दो कालं मञ्जतीति ।
३१६. 'अथ खो, भो, महागोविन्दो ब्राह्मणो येन चत्तारीसा भरिया सादिसियो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा चत्तारीसा भरिया सादिसियो एतदवोच- मय्हं खो, भोती, एवं कल्याणो कित्तिसद्दो अब्भुग्गतो- सक्खि महागोविन्दो ब्राह्मणो ब्रह्मानं पस्सति, सक्खि महागोविन्दो ब्राह्मणो ब्रह्मना साकच्छेति सल्लपति मन्तेतीति । न खो पनाहं, भोती, ब्रह्मानं पस्सामि, न ब्रह्मना साकच्छेमि, न ब्रह्मना सल्लपामि, न ब्रह्मना मन्तेमि । सुतं खो पन मेतं ब्राह्मणानं वुद्धानं महल्लकानं आचरियपाचरियानं भासमानानं यो वस्सिके चत्तारो मासे पटिसल्लीयति, करुणं झानं झायति, सो ब्रह्मानं पस्सति, ब्रह्मना साकच्छेति, ब्रह्मना सल्लपति, ब्रह्मना मन्तेतीति, इच्छामहं, भोती, वस्सिके चत्तारो मासे पटिसल्लीयितुं, करुणं झानं झायितुं; नम्हि केनचि उपसमितब्बो अञत्र एकेन भत्ताभिहारेनाति । यस्स दानि भवं गोविन्दो कालं मचती'ति ।
___ ३१७. 'अथ खो, भो, महागोविन्दो ब्राह्मणो पुरत्थिमेन नगरस्स नवं सन्धागारं कारापेत्वा वस्सिके चत्तारो मासे पटिसल्लीयि, करुणं झानं झायि; नास्सुध कोचि उपसङ्कमति अञत्र एकेन भत्ताभिहारेन । अथ खो, भो, महागोविन्दस्स ब्राह्मणस्स चतुन्नं मासानं अच्चयेन अहुदेव उक्कण्ठना अहु परितस्सना- सुतं खो पन मेतं ब्राह्मणानं वुद्धानं महल्लकानं आचरियपाचरियानं भासमानानं - यो वस्सिके चत्तारो मासे पटिसल्लीयति, करुणं झानं झायति, सो ब्रह्मानं पस्सति, ब्रह्मना साकच्छेति ब्रह्मना सल्लपति ब्रह्मना मन्तेतीति । न खो पनाहं ब्रह्मानं पस्सामि, न ब्रह्मना साकच्छेमि न ब्रह्मना सल्लपामि न ब्रह्मना मन्तेमी'ति ।
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दीघनिकायो-२
(२.६.३१८-३१९)
ब्रह्मना साकच्छा
३१८. 'अथ खो, भो, ब्रह्मा सनमारो महागोविन्दस्स ब्राह्मणस्स चेतसा चेतोपरिवितक्कमञाय सेय्यथापि नाम बलवा पुरिसो समिञ्जितं वा बाहं पसारेय्य, पसारितं वा बाहं समिजेय्य; एवमेव ब्रह्मलोके अन्तरहितो महागोविन्दस्स ब्राह्मणस्स सम्मुखे पातुरहोसि । अथ खो, भो, महागोविन्दस्स ब्राह्मणस्स अहुदेव भयं अहु छम्भितत्तं अहु लोमहंसो यथा तं अदिठ्ठपुब्बं रूपं दिस्वा । अथ खो, भो, महागोविन्दो ब्राह्मणो भीतो संविग्गो लोमहट्ठजातो ब्रह्मानं सनकुमारं गाथाय अज्झभासि -
'वण्णवा यसवा सिरिमा, को न त्वमसि मारिस | अजानन्ता तं पुच्छाम, कथं जानेमु तं मयन्ति ।।
मं वे कुमारं जानन्ति, ब्रह्मलोके सनन्तनं । सब्बे जानन्ति मं देवा, एवं गोविन्द जानहि ।।
आसनं उदकं पज्जं, मधुसाकञ्च ब्रह्मनो । अग्घे भवन्तं पुच्छाम, अग्धं कुरुतु नो भवं ।।
पटिग्गण्हाम ते अग्छ, यं त्वं गोविन्द भाससि | दिठ्ठधम्महितत्थाय, सम्पराय सुखाय च । कतावकासो पुच्छस्सु, यं किञ्चि अभिपत्थित'न्ति ।।
३१९. 'अथ खो, भो, महागोविन्दस्स ब्राह्मणस्स एतदहोसि - कतावकासो खोम्हि ब्रह्मना सनङ्घमारेन । किं नु खो अहं ब्रह्मानं सनकुमारं पुच्छेय्यं दिठ्ठधम्मिकं वा अत्थं सम्परायिकं वाति ? अथ खो, भो, महागोविन्दस्स ब्राह्मणस्स एतदहोसि - कुसलो खो अहं दिट्ठधम्मिकानं अत्थानं, अजेपि मं दिट्ठधम्मिकं अत्थं पुच्छन्ति । यनूनाहं ब्रह्मानं सनमारं सम्परायिक व अत्थं पुच्छेय्यन्ति । अथ खो, भो, महागोविन्दो ब्राह्मणो ब्रह्मानं सनङ्कुमारं गाथाय अज्झभासि -
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(२.६.३२०-३२०)
६. महागोविन्दसुत्तं
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'पुच्छामि ब्रह्मानं सनङ्कुमारं,
___ कजी अकोिं परवेदियेसु । कत्थट्ठितो किम्हि च सिक्खमानो,
पप्पोति मच्चो अमतं ब्रह्मलोक'न्ति । ।
'हित्वा ममत्तं मनुजेसु ब्रह्मे,
____ एकोदिभूतो करुणेधिमुत्तो । निरामगन्धो विरतो मेथुनस्मा,
एत्थट्ठितो एत्थ च सिक्खमानो ।। पप्पोति मच्चो अमतं ब्रह्मलोक'न्ति ।।
३२०. 'हित्वा ममत्त'न्ति अहं भोतो आजानामि । इधेकच्चो अप्पं वा भोगक्खन्धं पहाय महन्तं वा भोगक्खन्धं पहाय अप्पं वा जातिपरिव पहाय महन्तं वा आतिपरिवर्ल्ड पहाय केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजति, 'इति हित्वा ममत्त'न्ति अहं भोतो आजानामि । “एकोदिभूतो ति अहं भोतो आजानामि । इधेकच्चो विवित्तं सेनासनं भजति अरनं रुक्खमूलं पब्बतं कन्दरं गिरिगुहं सुसानं वनपत्थं अब्भोकासं पलालपुर्ज, ‘इति एकोदिभूतो'ति अहं भोतो आजानामि । 'करुणेधिमुत्तो'ति अहं भोतो आजानामि । इधेकच्चो करुणासहगतेन चेतसा एकं दिसं फरित्वा विहरति, तथा दुतियं, तथा ततियं, तथा चतुत्थं | इति उद्धमधोतिरियं सब्बधि सब्बत्तताय सब्बावन्तं लोकं करुणासहगतेन चेतसा विपुलेन महग्गतेन अप्पमाणेन अवेरेन अब्यापज्जेन फरित्वा विहरति । ‘इति करुणेधिमुत्तो'ति अहं भोतो आजानामि । आमगन्धे च खो अहं भोतो भासमानस्स न आजानामि ।
के आमगन्धा मनुजेसु ब्रह्मे,
एते अविद्वा इध ब्रूहि धीर । केनावटा वाति पजा कुरुतु,
__आपायिका निवुतब्रह्मलोकाति ।।
कोधो मोसवज्जं निकति च दुब्भो,
कदरियता अतिमानो उसूया ।
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१७८
दीघनिकायो-२
इच्छा विविच्छा परहेठना च,
लोभो च दोसो च मदो च मोहो । ।
एतेसु युत्ता अनिरामगन्धा,
आपायिका निवुतब्रह्मलोकाति । ।
'यथा खो अहं भोतो आमगन्धे भासमानस्स आजानामि । ते न सुनिम्मदया अगारं अज्झावसता । पब्बजिस्सामहं भो, अगारस्मा अनगारियन्ति । यस्सदानि भवं गोविन्दो कालं मञ्ञती 'ति ।
रेणुराजआमन्तना
३२१. 'अथ खो, भो, महागोविन्दो ब्राह्मणो येन रेणु राजा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा रेणुं राजानं एतदवोच - अञ्ञ दानि भवं पुरोहितं परियेसतु, यो भो रज्जं अनुसासिस्सति । इच्छामहं भो, अगारस्मा अनगारियं पब्बजितुं । यथा खो पन मे सुतं ब्रह्म॒नो आमगन्धे भासमानस्स, ते न सुनिम्मदया अगारं अज्झावसता । पब्बजिस्सामहं, भो, अगारस्मा अनगारिय 'न्ति ।
आमन्तयामि राजानं, रेणुं भूमिपतिं अहं । त्वं पजानस्सु रज्जेन, नाहं पोरोहिच्चे रमे ।।
सचे ते ऊनं कामेहि, अहं परिपूरयामि ते । यो तं हिंसति वारेमि, भूमिसेनापति अहं । तुवं पिता अहं पुत्तो, मा नो गोविन्द पाजहि । ।
नमत्थि ऊनं कामेहि, हिंसिता न विज्जति । अमनुस्सवचो सुत्वा तस्माहं न गहे रमे ।।
अमनुस्सो कथंवण्णो, किं ते अत्थं अभासथ । यञ्च सुत्वा जहासि नो, गेहे अम्हे च केवली ।।
(२.६.३२१-३२१)
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(२.६.३२२-३२२)
६. महागोविन्दसुत्तं
१७९
उपवुत्थस्स मे पुब्बे, यिट्ठकामस्स मे सतो । अग्गि पज्जलितो आसि, कुसपत्तपरित्थतो।।
ततो मे ब्रह्मा पातुरहु, ब्रह्मलोका सनन्तनो। सो मे पहं वियाकासि, तं सुत्वा न गहे रमे ।।
सद्दहामि अहं भोतो, यं त्वं गोविन्द भाससि । अमनुस्सवचो सुत्वा, कथं वत्तेथ अञथा ।।
ते तं अनुवत्तिस्साम, सत्था गोविन्द नो भवं । मणि यथा वेळुरियो, अकाचो विमलो सुभो । एवं सुद्धा चरिस्साम, गोविन्दस्सानुसासनेति ।।
‘सचे भवं गोविन्दो अगारस्मा अनगारियं पब्बजिस्सति, मयम्पि अगारस्मा अनगारियं पब्बजिस्साम । अथ या ते गति, सा नो गति भविस्सती'ति ।
छ खत्तियआमन्तना
३२२. 'अथ खो, भो, महागोविन्दो ब्राह्मणो येन ते छ खत्तिया तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा ते छ खत्तिये एतदवोच- अनं दानि भवन्तो पुरोहितं परियेसन्तु, यो भवन्तानं रज्जे अनुसासिस्सति । इच्छामहं, भो, अगारस्मा अनगारियं पब्बजितुं । यथा खो पन मे सुतं ब्रह्मनो आमगन्धे भासमानस्स, ते न सुनिम्मदया अगारं अज्झावसता। पब्बजिस्सामहं, भो, अगारस्मा अनगारियन्ति । अथ खो, भो, ते छ खत्तिया एकमन्तं अपक्कम्म एवं समचिन्तेसुं- इमे खो ब्राह्मणा नाम धनलुद्धा; यंनून मयं महागोविन्दं ब्राह्मणं धनेन सिक्खेय्यामा'ति । ते महागोविन्दं ब्राह्मणं उपसङ्कमित्वा एवमाहंसुसंविज्जति खो, भो, इमेसु सत्तसु रज्जेसु पहूतं सापतेय्यं, ततो भोतो यावतकेन अत्थो, तावतकं आहरीयतन्ति । अलं, भो, ममपिदं पहूतं सापतेय्यं भवन्तानंयेव वाहसा । तमहं सब्बं पहाय अगारस्मा अनगारियं पब्बजिस्सामि । यथा खो पन मे सुतं ब्रह्मनो आमगन्धे भासमानस्स, ते न सुनिम्मदया अगारं अज्झावसता, पब्बजिस्सामहं, भो, अगारस्मा अनगारियन्ति । अथ खो, भो, ते छ खत्तिया एकमन्तं अपक्कम्म एवं समचिन्तेसुं
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१८०
दीघनिकायो-२
(२.६.३२३-३२३)
"इमे खो ब्राह्मणा नाम इत्थिलुद्धा; यंनून मयं महागोविन्दं ब्राह्मणं इत्थीहि सिक्खेय्यामा''ति । ते महागोविन्दं ब्राह्मणं उपसङ्कमित्वा एवमाहंसु- संविज्जन्ति खो, भो, इमेसु सत्तसु रज्जेसु पहूता इथियो, ततो भोतो यावतिकाहि अत्थो, तावतिका आनीयतन्ति । अलं, भो, ममपिमा चत्तारीसा भरिया सादिसियो। तापाहं सब्बा पहाय अगारस्मा अनगारियं पब्बजिस्सामि । यथा खो पन मे सुतं ब्रह्मनो आमगन्धे भासमानस्स, ते न सुनिम्मदया अगारं अज्झावसता, पब्बजिस्सामहं, भो, अगारस्मा अनगारियन्ति ।
३२३. सचे भवं गोविन्दो अगारस्मा अनगारियं पब्बजिस्सति, मयम्पि अगारस्मा अनगारियं पब्बजिस्साम, अथ या ते गति, सा नो गति भविस्सतीति ।
सचे जहथ कामानि, यत्थ सत्तो पुथुज्जनो । आरम्भव्हो दळ्हा होथ, खन्तिबलसमाहिता ।।
एस मग्गो उजुमग्गो, एस मग्गो अनुत्तरो । सद्धम्मो सब्भि रक्खितो, ब्रह्मलोकूपपत्तियाति ।।
तेन हि भवं गोविन्दो सत्त वस्सानि आगमेतु । सत्तन्नं वस्सानं अच्चयेन मयम्पि अगारस्मा अनगारियं पब्बजिस्साम, अथ या ते गति, सा नो गति भविस्सतीति ।
अतिचिरं खो, भो, सत्त वस्सानि, नाहं सक्कोमि भवन्ते सत्त वस्सानि आगमेतुं । को नु खो पन, भो, जानाति जीवितानं ! गमनीयो सम्परायो, मन्तायं बोद्धब्बं, कत्तब्धं कुसलं, चरितब्बं ब्रह्मचरियं, नत्थि जातस्स अमरणं । यथा खो पन मे सुतं ब्रह्मनो आमगन्धे भासमानस्स, ते न सुनिम्मदया अगारं अज्झावसता, पब्बजिस्सामहं, भो, अगारस्मा अनगारियन्ति । तेन हि भवं गोविन्दो छब्बस्सानि आगमेतु...पे०... पञ्च वस्सानि आगमेतु... चत्तारि वस्सानि आगमेतु... तीणि वस्सानि आगमेतु... द्वे वस्सानि आगमेतु... एकं वस्सं आगमेतु, एकस्स वस्सस्स अच्चयेन मयम्पि अगारस्मा अनगारियं पब्बजिस्साम, अथ या ते गति, सा नो गति भविस्सतीति |
___ अतिचिरं खो, भो, एकं वस्सं, नाहं सक्कोमि भवन्ते एकं वस्सं आगमेतुं । को नु खो पन, भो, जानाति जीवितानं! गमनीयो सम्परायो, मन्तायं बोद्धब्बं, कत्तब्धं
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(२.६.३२४-३२४)
६. महागोविन्दसुत्तं
१८१
कुसलं, चरितब्बं ब्रह्मचरियं, नत्थि जातस्स अमरणं । यथा खो पन मे सुतं ब्रह्मनो आमगन्धे भासमानस्स, ते न सुनिम्मदया अगारं अज्झावसता, पब्बजिस्सामहं, भो, अगारस्मा अनगारियन्ति । तेन हि भवं गोविन्दो सत्त मासानि आगमेतु, सत्तन्नं मासानं अच्चयेन मयम्पि अगारस्मा अनगारियं पब्बजिस्साम, अथ या ते गति, सा नो गति भविस्सतीति ।
अतिचिरं खो, भो, सत्त मासानि, नाहं सक्कोमि भवन्ते सत्त मासानि आगमेतुं । को नु खो पन, भो, जानाति जीवितानं । गमनीयो सम्परायो, मन्तायं बोद्धब्बं, कत्तब्बं कुसलं, चरितब्बं ब्रह्मचरियं, नत्थि जातस्स अमरणं । यथा खो पन मे सुतं ब्रह्मनो आमगन्धे भासमानस्स, ते न सुनिम्मदया अगारं अज्झावसता, पब्बजिस्सामहं, भो, अगारस्मा अनगारियन्ति ।
तेन हि भवं गोविन्दो छ मासानि आगमेतु...पे०... पञ्च मासानि आगमेतु... चत्तारि मासानि आगमेतु... तीणि मासानि आगमेतु... द्वे मासानि आगमेतु... एकं मासं आगमेतु... अद्धमासं आगमेतु, अद्धमासस्स अच्चयेन मयम्पि अगारस्मा अनगारियं पब्बजिस्साम, अथ या ते गति, सा नो गति भविस्सतीति।
____ अतिचिरं खो, भो, अद्धमासो, नाहं सक्कोमि भवन्ते अद्धमासं आगमेतुं । को नु खो पन, भो, जानाति जीवितानं! गमनीयो सम्परायो, मन्तायं बोद्धब्ब, कत्तब्बं कुसलं, चरितब्बं ब्रह्मचरियं, नत्थि जातस्स अमरणं । यथा खो पन मे सुतं ब्रह्मनो आमगन्धे भासमानस्स, ते न सुनिम्मदया अगारं अज्झावसता, पब्बजिस्सामहं, भो, अगारस्मा अनगारियन्ति । तेन हि भवं गोविन्दो सत्ताहं आगमेतु, याव मयं सके पुत्तभातरो रज्जेन अनुसासिस्साम, सत्ताहस्स अच्चयेन मयम्पि अगारस्मा अनगारियं पब्बजिस्साम, अथ या ते गति, सा नो गति भविस्सतीति । न चिरं खो, भो, सत्ताहं, आगमेस्सामहं भवन्ते सत्ताहन्ति ।
ब्राह्मणमहासालादीनं आमन्तना
३२४. 'अथ खो, भो, महागोविन्दो ब्राह्मणो येन ते सत्त च ब्राह्मणमहासाला सत्त च न्हातकसतानि तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा ते सत्त च ब्राह्मणमहासाले सत्त च
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दीघनिकायो-२
न्हातकसतानि एतदवोच - अञ्ञ दानि भवन्तो आचरियं परियेसन्तु, यो भवन्तानं मन्ते वाचेस्सति । इच्छामहं, भो, अगारस्मा अनगारियं पब्बजितुं । यथा खो पन मे सुतं ब्रह्मनो आमगन्धे भासमानस्स । ते न सुनिम्मदया अगारं अज्झावसता, पब्बजिस्सामहं, भो, अगारस्मा अनगारियन्ति । मा भवं गोविन्दो अगारस्मा अनगारियं पब्बजि । पब्बज्जा, भो, अप्पेसक्खा च अप्पलाभा च ब्रह्मञ्ञ महेसक्खञ्च महालाभञ्चाति । मा भवन्तो एवं अवचुत्थ - पब्बज्जा अप्पेसक्खा च अप्पलाभा च ब्रह्मञ्ञ महेसक्खञ्च महालाभञ्चाति । को नु खो, भो, अञ्ञत्र मया महेसक्खतरो वा महालाभतरो वा ! अहञ्हि, भो, एतरहि राजाव रञ्जं ब्रह्माव ब्राह्मणानं देवताव गहपतिकानं । तमहं सब्बं पहाय अगारस्मा अनगारियं पब्बजिस्सामि । यथा खो पन मे सुतं ब्रह्म॒नो आमगन्धे भासमानस्स, ते न सुनिम्मदया अगारं अज्झावसता । पब्बजिस्सामहं, भो, अगारस्मा अनगारियन्ति । सचे भवं गोविन्दो अगारस्मा अनगारियं पब्बजिस्सति, मयम्पि अगारस्मा अनगारियं पब्बजिस्साम, अथ या ते गति, सा नो गति भविस्सतीति ।
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भरियानं आमन्तना
३२५. 'अथ खो, भो, महागोविन्दो ब्राह्मणो येन चत्तारीसा भरिया सादिसियो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा चत्तारीसा भरिया सादिसियो एतदवोच - या भीतीनं इच्छति, सकानि वा आतिकुलानि गच्छतु अञ्ञ वा भत्तारं परियेसतु । इच्छामहं, भोती, अगारस्मा अनगारियं पब्बजितुं । यथा खो पन मे सुतं ब्रह्मनो आमगन्धे भासमानस्स, ते न सुनिम्मदया अगारं अज्झावसता । पब्बजिस्सामहं, भोती, अगारस्मा अनगारियन्ति । त्वञ्ञेव नो ञति जातिकामानं, त्वं पन भत्ता भत्तुकामानं । सचे भवं गोविन्दो अगारस्मा अनगारियं पब्बजिस्सति, मयम्पि अगारस्मा अनगारियं पब्बजिस्साम, अथ या ते गति, सा नो गति भविस्सतीति ।
महागोविन्दपब्बज्जा
३२६. ‘अथ खो, भो, महागोविन्दो ब्राह्मणो तस्स सत्ताहस्स अच्चयेन केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजि । पब्बजितं पन महागोविन्दं ब्राह्मणं सत्त च राजानो खत्तिया मुद्धावसित्ता सत्त च ब्राह्मणमहासाला सत्त च न्हातकसतानि चत्तारीसा च भरिया सादिसियों अनेकानि च खत्तियसहस्सानि
(२.६.३२५-३२६)
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(२.६.३२७-३२९)
६. महागोविन्दसुत्तं
१८३
अनेकानि च ब्राह्मणसहस्सानि अनेकानि च गहपतिसहस्सानि अनेकेहि च इत्थागारेहि इत्थियो केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा महागोविन्दं ब्राह्मणं अगारस्मा अनगारियं पब्बजितं अनुपब्बजिंसु । ताय सुदं, भो, परिसाय परिवुतो महागोविन्दो ब्राह्मणो गामनिगमराजधानीसु चारिकं चरति । यं खो पन, भो, तेन समयेन महागोविन्दो ब्राह्मणो गामं वा निगमं वा उपसङ्कमति, तत्थ राजाव होति रजं, ब्रह्माव ब्राह्मणानं, देवताव गहपतिकानं । तेन खो पन समयेन मनुस्सा खिपन्ति वा उपक्खलन्ति वा। ते एवमाहंसु - नमत्थु महागोविन्दस्स ब्राह्मणस्स, नमत्थु सत्त पुरोहितस्साति ।
___३२७. 'महागोविन्दो, भो, ब्राह्मणो मेत्तासहगतेन चेतसा एकं दिसं फरित्वा विहासि, तथा दुतियं, तथा ततियं, तथा चतुत्थं । इति उद्धमधो तिरियं सब्बधि सब्बत्तताय सब्बावन्तं लोकं मेत्तासहगतेन चेतसा विपुलेन महग्गतेन अप्पमाणेन अवेरेन अब्यापज्जेन फरित्वा विहासि । करुणासहगतेन चेतसा...पे०... मुदितासहगतेन चेतसा...पे०... उपेक्खासहगतेन चेतसा...पे०... अब्यापज्जेन फरित्वा विहासि सावकानञ्च ब्रह्मलोकसहब्यताय मग्गं देसेसि ।
३२८. 'ये खो पन, भो, तेन समयेन महागोविन्दस्स ब्राह्मणस्स सावका सब्बेन सब्बं सासनं आजानिंसु । ते कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं ब्रह्मलोकं उपपज्जिंसु । ये न सब्बेन सब्बं सासनं आजानिंसु, ते कायस्स भेदा परं मरणा अप्पेकच्चे परनिम्मितवसवत्तीनं देवानं सहब्यतं उपपज्जिंसु; अप्पेकच्चे निम्मानरतीनं देवानं सहब्यतं उपपज्जिंसु; अप्पेकच्चे तुसितानं देवानं सहब्यतं उपपज्जिंसु; अप्पेकच्चे यामानं देवानं सहब्यतं उपपज्जिंसु; अप्पेकच्चे तावतिंसानं देवानं सहब्यतं उपपज्जिंसु; अप्पेकच्चे चातुमहाराजिकानं देवानं सहब्यतं उपपज्जिंसु; ये सब्बनिहीनं कायं परिपूरेसुं ते गन्धब्बकायं परिपूरेसुं। इति खो, भो, सब्बेसंयेव तेसं कुलपुत्तानं अमोघा पब्बज्जा अहोसि अवञ्झा सफला सउद्रया'ति ।
___ ३२९. “सरति तं भगवा''ति ? “सरामहं, पञ्चसिख। अहं तेन समयेन महागोविन्दो ब्राह्मणो अहोसिं । अहं तेसं सावकानं ब्रह्मलोकसहब्यताय मग्गं देसेसिं । तं खो पन मे, पञ्चसिख, ब्रह्मचरियं न निब्बिदाय न विरागाय न निरोधाय न उपसमाय न अभिज्ञाय न सम्बोधाय न निब्बानाय संवत्तति, यावदेव ब्रह्मलोकूपपत्तिया ।
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१८४
दीघनिकायो-२
(२.६.३३०-३३०)
इदं खो पन मे, पञ्चसिख, ब्रह्मचरियं एकन्तनिब्बिदाय विरागाय निरोधाय उपसमाय अभिजाय सम्बोधाय निब्बानाय संवत्तति । कतमञ्च तं, पञ्चसिख, ब्रह्मचरियं एकन्तनिब्बिदाय विरागाय निरोधाय उपसमाय अभिज्ञाय सम्बोधाय निब्बानाय संवत्तति ? अयमेव अरियो अटुङ्गिको मग्गो। सेय्यथिदं- सम्मादिवि सम्मासङ्कप्पो सम्मावाचा सम्माकम्मन्तो सम्माआजीवो सम्मावायामो सम्मासति सम्मासमाधि। इदं खो तं, पञ्चसिख, ब्रह्मचरियं एकन्तनिब्बिदाय विरागाय निरोधाय उपसमाय अभिजाय सम्बोधाय निब्बानाय संवत्तति ।
३३०. “ये खो पन मे, पञ्चसिख, सावका सब्बेन सब्बं सासनं आजानन्ति, ते आसवानं खया अनासवं चेतोविमुत्तिं पञ्जाविमुत्तिं दिवेव धम्मे सयं अभिञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरन्ति; ये न सब्बेन सब्बं सासनं आजानन्ति, ते पञ्चन्नं ओरम्भागियानं संयोजनानं परिक्खया ओपपातिका होन्ति तत्थ परिनिब्बायिनो अनावत्तिधम्मा तस्मा लोका। ये न सब्बेन सबं सासनं आजानन्ति, अप्पेकच्चे तिण्णं संयोजनानं परिक्खया रागदोसमोहानं तनुत्ता सकदागामिनो होन्ति सकिदेव इमं लोकं आगन्त्वा दुक्खस्सन्तं करिस्सन्ति। ये न सब्बेन सब्बं सासनं आजानन्ति, अप्पेकच्चे तिण्णं संयोजनानं परिक्खया सोतापना होन्ति अविनिपातधम्मा नियता सम्बोधिपरायणा । इति खो, पञ्चसिख, सब्बेसंयेव इमेसं कुलपुत्तानं अमोघा पब्बज्जा अवझा सफला सउद्रया"ति।
इदमवोच भगवा । अत्तमनो पञ्चसिखो गन्धब्बपुत्तो भगवतो भासितं अभिनन्दित्वा अनुमोदित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा पदक्खिणं कत्वा तत्थेवन्तरधायीति ।
महागोविन्दसुत्तं निहितं छटुं।
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७. महासमयसुत्तं
३३१. एवं मे सुतं - एकं समयं भगवा सक्केसु विहरति कपिलवत्थुस्मिं महावने महता भिक्खुसङ्घेन सद्धिं पञ्चमत्तेहि भिक्खुसतेहि सब्बेहेव अरहन्तेहि; दसहि च लोकधातूहि देवता येभुय्येन सन्निपतिता होन्ति भगवन्तं दस्सनाय भिक्खुसङ्घञ्च । अथ खो चतुन्नं सुद्धावासकायिकानं देवतानं एतदहोसि - " अयं खो भगवा सक्केसु विहरति कपिलवत्थुस्मिं महावने महता भिक्खुसङ्घेन सद्धिं पञ्चमत्तेहि भिक्खुसतेहि सब्बेहेव अरहन्तेहि; दसहि च लोकधातूहि देवता येभुय्येन सन्निपतिता होन्ति भगवन्तं दस्सनाय भिक्खुसङ्घञ्च । यंनून मयम्पि येन भगवा तेनुपसङ्कमेय्याम; उपसङ्कमित्वा भगवतो सन्तिके पच्चेकं गाथं भासेय्यामा "ति ।
३३२. अथ खो ता देवता सेय्यथापि नाम बलवा पुरिसो समिञ्जितं वा बाहं पसारेय्य पसारितं वा बाहं समिजेय्य, एवमेव सुद्धावासेसु देवेसु अन्तरहिता भगवतो पुरतो पातुरहेसुं । अथ खो ता देवता भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं अट्ठेसु । एकमन्तं ठिता खो एका देवता भगवतो सन्तिके इमं गाथं अभासि -
“महासमयो पवनस्मिं, देवकाया समागता ।
आगतम्ह इमं धम्मसमयं दक्खिताये अपराजितसङ्घ "न्ति । ।
अथ खो अपरा देवता भगवतो सन्तिके इमं गाथं अभासि
" तत्र भिक्खवो समादहंसु, चित्तमत्तनो उजुकं अकं । सारथीव नेत्तानि गत्वा, इन्द्रियानि रक्खन्ति पण्डिता "ति । ।
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दीघनिकायो-२
(२.७.३३३-३३४)
अथ खो अपरा देवता भगवतो सन्तिके इमं गाथं अभासि -
__“छेत्वा खीलं छेत्वा पलिघं, इन्दखीलं ऊहच्च मनेजा ।
ते चरन्ति सुद्धा विमला, चक्खुमता सुदन्ता सुसुनागा''ति ।।
अथ खो अपरा देवता भगवतो सन्तिके इमं गाथं अभासि -
“येकेचि बुद्धं सरणं गतासे, न ते गमिस्सन्ति अपायभूमिं । पहाय मानुसं देहं, देवकायं परिपूरेस्सन्ती'ति ।।
देवतासनिपाता
३३३. अथ खो भगवा भिक्खू आमन्तेसि - “येभुय्येन, भिक्खवे, दससु लोकधातूसु देवता सन्निपतिता होन्ति तथागतं दस्सनाय भिक्खुसङ्घञ्च । येपि ते, भिक्खवे, अहेसुं अतीतमद्धानं अरहन्तो सम्मासम्बुद्धा, तेसम्पि भगवन्तानं एतंपरमायेव देवता सन्निपतिता अहेसु सेय्यथापि महं एतरहि। येपि ते, भिक्खवे, भविस्सन्ति अनागतमद्धानं अरहन्तो सम्मासम्बुद्धा, तेसम्पि भगवन्तानं एतंपरमायेव देवता सन्निपतिता भविस्सन्ति सेय्यथापि मम्हं एतरहि । आचिक्खिस्सामि, भिक्खवे, देवकायानं नामानि; कित्तयिस्सामि, भिक्खवे, देवकायानं नामानि; देसेस्सामि, भिक्खवे, देवकायानं नामानि । तं सुणाथ; साधुकं मनसिकरोथ; भासिस्सामी''ति । “एवं, भन्ते''ति खो ते भिक्खू भगवतो पच्चस्सोसुं।
३३४. भगवा एतदवोच -
"सिलोकमनुकस्सामि, यत्थ भुम्मा तदस्सिता । ये सिता गिरिगब्भरं, पहितत्ता समाहिता ।।
"पुथूसीहाव सल्लीना, लोमहंसाभिसम्भुनो । ओदातमनसा सुद्धा, विप्पसन्नमनाविला ।।
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(२.७.३३५-३३५)
" भिय्यो पञ्चसते ञत्वा, वने कापिलवत्थवे । ततो आमन्तयी सत्था, सावके सासने रते । ।
७. महास
"देवकाया अभिक्कन्ता, ते विजानाथ भिक्खवो । ते च आतप्पमकरुं, सुत्वा बुद्धस्स सासनं । ।
“तेसं पातुरहु जाणं, अमनुस्सानदस्सनं । अप्पेके सतमद्दक्खु, सहस्सं अथ सत्तरिं । ।
"सतं एके सहस्सानं, अमनुस्सानमद्दसुं । अप्पेकेनन्तमद्दक्खु, दिसा सब्बा फुटा अहुं । ।
“तञ्च सब्बं अभिज्ञाय, ववत्थित्वान चक्खुमा । ततो आमन्तयी सत्था, सावके सासने रते । ।
"देवकाया अभिक्कन्ता, ते विजानाथ भिक्खवो । ये वोहं कित्तयिस्सामि, गिराहि अनुपुब्बसो । ।
३३५. “सत्तसहस्सा ते यक्खा, भुम्मा कापिलवत्थवा । इद्धिमन्तो जुतिमन्तो, वण्णवन्तो यसस्सिनो | मोदमाना अभिक्कामुं, भिक्खूनं समितिं वनं । ।
"
'छसहस्सा हेमवता, यक्खा नानत्तवण्णिनो । इद्धिमन्तो जुतीमन्तो, वण्णवन्तो यसस्सिनो । मोदमाना अभिक्कामुं, भिक्खूनं समितिं वनं । ।
" साता गिरा तिसहस्सा, यक्खा नानत्तवण्णिनो । इद्धिमन्तो जुतिमन्तो, वण्णवन्तो यसस्सिनो | मोदमाना अभिक्कार्मु, भिक्खूनं समितिं वनं ।।
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दीघनिकायो-२
(२.७.३३६-३३६)
“इच्चेते सोळससहस्सा, यक्खा नानत्तवण्णिनो । इद्धिमन्तो जुतिमन्तो, वण्णवन्तो यसस्सिनो । मोदमाना अभिक्कामुं, भिक्खूनं समितिं वनं ।।
"वेस्सामित्ता पञ्चसता, यक्खा नानत्तवण्णिनो | इद्धिमन्तो जुतिमन्तो, वण्णवन्तो यसस्सिनो । मोदमाना अभिक्कामुं, भिक्खूनं समितिं वनं ।।
"कुम्भीरो राजगहिको, वेपुल्लस्स निवेसनं । भिय्यो नं सतसहस्सं, यक्खानं पयिरुपासति । कुम्भीरो राजगहिको, सोपागा समितिं वनं ।।
३३६. “पुरिमञ्च दिसं राजा, धतरट्ठो पसासति ।
गन्धब्बानं अधिपति, महाराजा यसस्सिसो ।।
"पुत्तापि तस्स बहवो, इन्दनामा महब्बला । इद्धिमन्तो जुतिमन्तो, वण्णवन्तो यसस्सिनो । मोदमाना अभिक्कामुं, भिक्खूनं समितिं वनं ।।
"दक्खिणञ्च दिसं राजा, विरूळहो तं पसासति । कुम्भण्डानं अधिपति, महाराजा यसस्सिसो ।।
"पुत्तापि तस्स बहवो, इन्दनामा महब्बला । इद्धिमन्तो जुतिमन्तो, वण्णवन्तो यसस्सिनो । मोदमाना अभिक्कामुं, भिक्खूनं समितिं वनं ।।
“पच्छिमञ्च दिसं राजा, विरूपक्खो पसासति । नागानञ्च अधिपति, महाराजा यसस्सिसो।।
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(२.७.३३७-३३७)
७. महासमयसुत्तं
/
"पुत्तापि तस्स बहवो, इन्दनामा महब्बला । इद्धिमन्तो जुतिमन्तो, वण्णवन्तो यसस्सिनो । मोदमाना अभिक्कामुं, भिक्खूनं समितिं वनं ।।
"उत्तरञ्च दिसं राजा, कुवेरो तं पसासति । यक्खानञ्च अधिपति, महाराजा यसस्सिसो।।
"पुत्तापि तस्स बहवो, इन्दनामा महब्बला । इद्धिमन्तो जुतिमन्तो, वण्णवन्तो यसस्सिनो । मोदमाना अभिक्कामुं, भिक्खूनं समितिं वनं ।।
"पुरिमं दिसं धतरट्ठो, दक्खिणेन विरूळहको । पच्छिमेन विरूपक्खो, कुवेरो उत्तरं दिसं ।।
"चत्तारो ते महाराजा, समन्ता चतुरो दिसा । दद्दल्लमाना अटुंसु, वने कापिलवत्थवे ।।
३३७. “तेसं मायाविनो दासा, आगुं वञ्चनिका सठा ।
माया कुटेण्डु विटेण्डु, विटुच्च विटुटो सह ।।
"चन्दनो कामसेट्ठो च, किन्निघण्डु निघण्डु च । पनादो ओपमओ च, देवसूतो च मातलि ।।
"चित्तसेनो च गन्धब्बो, नळोराजा जनेसभो । आगा पञ्चसिखो चेव, तिम्बरू सरियवच्चसा ।।
"एते चने च राजानो, गन्धब्बा सह राजुभि । मोदमाना अभिक्कामुं, भिक्खूनं समितिं वनं ।।
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१९०
दीघनिकायो-२
३३८. “ अथागुं नागसा नागा, वेसाला सहतच्छका । कम्बलस्सतरा आगुं, पायागा सह जातिभि । ।
“ यामुना धतरट्ठा च, आगू नागा यसस्सिनो । रावणो महानागो, सोपागा समितिं वनं । ।
,
“ये नागराजे सहसा हरन्ति दिब्बा दिजा पक्खि विसुद्धचक्खू । वेहायसा ते वनमज्झपत्ता, चित्रा सुपण्णा इति तेस नामं ।।
44
'अभयं तदा नागराजानमासि, सुपण्णतो खेममकासि बुद्धो । सहाहि वाचाहि उपव्हयन्ता, नागा सुपण्णा सरणमकंसु बुद्धं । ।
३३९. “जिता वजिरहत्थेन, समुदं असुरासिता । भातरो वासवस्सेते, इद्धिमन्तो यसस्सिनो ।।
“कालकञ्चा महाभिस्मा, असुरा दानवेघसा । वेपचित्ति सुचित्ति च, पहारादो नमुची सह । ।
" सतञ्च बलिपुत्तानं, सब्बे वेरोचनामका | सन्नव्हित्वा बलिसेनं, राहुभद्दमुपागमुं । समयो दानि भद्दन्ते, भिक्खूनं समितिं वनं । ।
३४०.‘“आपो च देवा पथवी, तेजो वायो तदागमुं । वरुणा वारणा देवा, सोमो च यससा सह । ।
"मेत्ता करुणा कायिका, आगुं देवा यसस्सिनो । दसेते दसधा काया, सब्बे नानत्तवण्णिनो । ।
"इद्धिमन्तो जुतिमन्तो, वण्णवन्तो यसस्सिनो । मोदमाना अभिक्कामुं, भिक्खूनं समितिं वनं । ।
(२.७.३३८-३४०)
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(२.७.३४०-३४०)
७. महासमयसुत्तं
१९१
"वेण्डुदेवा सहलि च, असमा च दुवे यमा । चन्दस्सूपनिसा देवा, चन्दमागुं पुरक्खत्वा ।।
"सूरियस्सूपनिसा देवा, सूरियमाणु पुरक्खत्वा । नक्खत्तानि पुरक्खत्वा, आगु मन्दवलाहका।।
वसूनं वासवो सेट्ठो, सक्कोपागा पुरिन्ददो । दसेते दसधा काया, सब्बे नानत्तवण्णिनो ।।
"इद्धिमन्तो जुतिमन्तो, वण्णवन्तो यसस्सिनो । मोदमाना अभिक्कामुं, भिक्खूनं समितिं वनं ।।
अथागुं सहभू देवा, जलमग्गिसिखारिव । अरिट्ठका च रोजा च, उमापुप्फनिभासिनो ।।
"वरुणा सहधम्मा च, अच्चुता च अनेजका । सूलेय्यरुचिरा आगुं, आगुं वासवनेसिनो । दसेते दसधा काया, सब्बे नानत्तवण्णिनो ।।
"इद्धिमन्तो जुतिमन्तो, वण्णवन्तो यसस्सिनो । मोदमाना अभिक्कामुं, भिक्खूनं समितिं वनं ।।
"समाना महासमना, मानुसा मानुसुत्तमा । खिड्डापदोसिका आणू, आणू मनोपदोसिका ।।
अथागु हरयो देवा, ये च लोहितवासिनो । पारगा महापारगा, आगुं देवा यसस्सिनो । दसेते दसधा काया, सब्बे नानत्तवण्णिनो ।।
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१९२
दीघनिकायो-२
(२.७.३४१-३४१)
"इद्धिमन्तो जुतिमन्तो, वण्णवन्तो यसस्सिनो । मोदमाना अभिक्कामुं, भिक्खून समितिं वनं ।।
"सुक्का करम्भा अरुणा, आगुं वेघनसा सह । ओदातगव्हा पामोक्खा, आगुं देवा विचक्खणा ।।
"सदामत्ता हारगजा, मिस्सका च यसस्सिनो । थनयं आग पज्जुन्नो, यो दिसा अभिवस्सति ।।
"दसेते दसधा काया, सब्बे नानत्तवण्णिनो | इद्धिमन्तो जुतिमन्तो, वण्णवन्तो यसस्सिनो । मोदमाना अभिक्कामुं, भिक्खूनं समितिं वनं ।।
खेमिया तुसिता यामा, कट्ठका च यसस्सिनो । लम्बीतका लामसेट्ठा, जोतिनामा च आसवा । निम्मानरतिनो आगुं, अथागुं परनिम्मिता ।।
"दसेते दसधा काया, सब्बे नानत्तवण्णिनो । इद्धिमन्तो जुतिमन्तो, वण्णवन्तो यसस्सिनो । मोदमाना अभिक्कामुं, भिक्खून समितिं वनं ।।
“सद्वैते देवनिकाया, सब्बे नानत्तवण्णिनो । नामन्वयेन आगच्छु, ये चझे सदिसा सह ।।
“पवुट्ठजातिमखिलं, ओघतिण्णमनासवं । दक्खेमोघतरं नागं, चन्दंव असितातिगं ।।
३४१.सुब्रह्मा परमत्तो च, पुत्ता इद्धिमतो सह ।
सनमारो तिस्सो च, सोपाग समितिं वनं ।।
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(२.७.३४२-३४३)
७. महासमयसुत्तं
१९३
"सहस्सं ब्रह्मलोकानं, महाब्रह्माभितिठ्ठति । उपपन्नो जुतिमन्तो, भिस्माकायो यसस्सिसो ।।
दसेत्थ इस्सरा आगुं, पच्चेकवसवत्तिनो । तेसञ्च मज्झतो आग, हारितो परिवारितो ।।
३४२. "ते च सब्बे अभिक्कन्ते, सइन्दे देवे सब्रह्मके ।
मारसेना अभिक्कामि, पस्स कण्हस्स मन्दियं ।।
"एथ गण्हथ बन्धथ, रागेन बद्धमत्थु वो । समन्ता परिवारेथ, मा वो मुञ्चित्थ कोचि नं ।।
"इति तत्थ महासेनो, कण्हो सेनं अपेसयि । पाणिना तलमाहच्च, सरं कत्वान भेरवं ।।
“यथा पावुस्सको मेघो, थनयन्तो सविज्जुको । तदा सो पच्चुदावत्ति, सङ्घद्धो असयंवसे ।।
३४३."तञ्च सब्बं अभिज्ञाय, ववत्थित्वान चक्खुमा ।
ततो आमन्तयी सत्था, सावके सासने रते ।।
"मारसेना अभिक्कन्ता, ते विजानाथ भिक्खवो । ते च आतप्पमकरूं, सुत्वा बुद्धस्स सासनं । वीतरागेहि पक्कामुं, नेसं लोमापि इञ्जयुं ।।
"सब्बे विजितसङ्गामा, भयातीता यसस्सिनो । मोदन्ति सह भूतेहि, सावका ते जनेसुता''ति ।।
महासमयसुत्तं निहितं सत्तम।
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८. सक्कपज्हसुत्तं
३४४. एवं मे सुतं - एकं समयं भगवा मगधेसु विहरति, पाचीनतो राजगहस्स अम्बसण्डा नाम ब्राह्मणगामो, तस्सुत्तरतो वेदियके पब्बते इन्दसालगुहायं । तेन खो पन समयेन सक्कस्स देवानमिन्दस्स उस्सुक्कं उदपादि भगवन्तं दस्सनाय । अथ खो सक्कस्स देवानमिन्दस्स एतदहोसि - “कहं नु खो भगवा एतरहि विहरति अरहं सम्मासम्बुद्धो"ति ? अद्दसा खो सक्को देवानमिन्दो भगवन्तं मगधेसु विहरन्तं पाचीनतो राजगहस्स अम्बसण्डा नाम ब्राह्मणगामो, तस्सुत्तरतो वेदियके पब्बते इन्दसालगुहायं, दिस्वान देवे तावतिंसे आमन्तेसि - “अयं, मारिसा, भगवा मगधेसु विहरति पाचीनतो राजगहस्स अम्बसण्डा नाम ब्राह्मणगामो, तस्सुत्तरतो वेदियके पब्बते इन्दसालगुहायं । यदि पन, मारिसा, मयं तं भगवन्तं दस्सनाय उपसङ्कमेय्याम अरहन्तं सम्मासम्बुद्ध''न्ति ? “एवं भद्दन्तवा''ति खो देवा तावतिंसा सक्कस्स देवानमिन्दस्स पच्चस्सोसुं ।
३४५. अथ खो सक्को देवानमिन्दो पञ्चसिखं गन्धब्बदेवपुत्तं आमन्तेसि – “अयं, तात पञ्चसिख, भगवा मगधेसु विहरति पाचीनतो राजगहस्स अम्बसण्डा नाम ब्राह्मणगामो, तस्सुत्तरतो वेदियके पब्बते इन्दसालगुहायं । यदि पन, तात पञ्चसिख, मयं तं भगवन्तं दस्सनाय उपसङ्कमेय्याम अरहन्तं सम्मासम्बुद्ध"न्ति ? “एवं भद्दन्तवा''ति खो पञ्चसिखो गन्धब्बदेवपुत्तो सक्कस्स देवानमिन्दस्स पटिस्सुत्वा बेलुवपण्डुवीणं आदाय सक्कस्स देवानमिन्दस्स अनुचरियं उपागमि ।
३४६. अथ खो सक्को देवानमिन्दो देवेहि तावतिंसेहि परिवुतो पञ्चसिखेन गन्धब्बदेवपुत्तेन पुरक्खतो सेय्यथापि नाम बलवा पुरिसो समिञ्जितं वा बाहं पसारेय्य पसारितं वा बाहं समिओय्य; एवमेव देवेसु तावतिंसेस अन्तरहितो मगधेसु पाचीनतो राजगहस्स अम्बसण्डा नाम ब्राह्मणगामो, तस्सुत्तरतो वेदियके पब्बते पच्चुट्टासि । तेन खो
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(२.८.३४७-३४८)
८. सक्कपतं
पन समयेन वेदियको पब्बतो अतिरिव ओभासजातो होति अम्बसण्डा च ब्राह्मणगामो यथा तं देवानं देवानुभावेन । अपिस्सुदं परितो गामेसु मनुस्सा एवमाहंसु - " आदित्तस्सु नामज्ज वेदियको पब्बतो झायतिसु नामज्ज वेदियको पब्बतो जलतिसु नामज्ज वेदियो पब्बतो किंसु नामज्ज वेदियको पब्बतो अतिरिव ओभासजातो अम्बसण्डा च ब्राह्मणगामो’ति संविग्गा लोमहट्ठजाता अहेसुं ।
,
३४७. अथ खो सक्को देवानमिन्दो पञ्चसिखं गन्धब्बदेवपुत्तं आमन्तेसि - " दुरुपसङ्कमा खो, तात पञ्चसिख, तथागता मादिसेन, झायी झानरता, तदन्तरं पटिसल्लीना । यदि पन त्वं तात पञ्चसिख, भगवन्तं पठमं पसादेय्यासि, तया, तात, पठमं पसादितं पच्छा मयं तं भगवन्तं दस्सनाय उपसङ्कमेय्याम अरहन्तं सम्मासम्बुद्ध”न्ति । “ एवं भद्दन्तवा "ति खो पञ्चसिखो गन्धब्बदेवपुत्तो सक्कस्स देवानमिन्दस्स पटिस्सुत्वा बेलुवपण्डुवीणं आदाय येन इन्दसालगुहा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा ‘“एत्तावता मे भगवा नेव अतिदूरे भविस्सति नाच्चासन्ने, सद्दञ्च सोस्सती 'ति एकमन्तं अट्ठासि ।
मे
पञ्चसिखगीतगाथा
३४८. एकमन्तं ठितो खो पञ्चसिखो गन्धब्बदेवपुत्तो बेलुवपण्डुवीणं अस्सावेसि, इमा च गाथा अभासि बुद्धूपसहिता धम्मूपसहिता सङ्घपसहिता अरहन्तूपसहिता कामूपसहिता -
"वन्दे ते पितरं भद्दे, तिम्बरुं सूरियवच्छसे । येन जातासि कल्याणी, आनन्दजननी मम ।।
" वातोव सेदतं कन्तो, पानीयंव पिपासतो । अङ्गीरसि पियामेसि, धम्मो अरहतामिव । ।
" आतुरस्सेव भेसज्जं भोजनंव जिघच्छतो परिनिब्बापय मं भद्दे, जलन्तमिव वारिना । ।
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दीघनिकायो-२
(२.८.३४८-३४८)
“सीतोदकं पोक्खरणिं, युत्तं किञ्जक्खरेणुना । नागो घम्माभितत्तोव, ओगाहे ते थनूदरं ।।
"अच्चङ्घसोव नागोव, जितं मे तुत्ततोमरं । कारणं नप्पजानामि, सम्मत्तो लक्खणूरुया ।।
"तयि गेधितचित्तोस्मि, चित्तं विपरिणामितं । पटिगन्तुं न सक्कोमि, वयस्तोव अम्बुजो ।।
“वामूरु सज मं भद्दे, सज मं मन्दलोचने । पलिस्सज मं कल्याणि, एतं मे अभिपत्थितं ।।
"अप्पको वत मे सन्तो, कामो वेल्लितकेसिया । अनेकभावो समुप्पादि, अरहन्तेव दक्खिणा ।।
“यं मे अत्थि कतं पुलं, अरहन्तेसु तादिसु । तं मे सब्बङ्गकल्याणि, तया सद्धिं विपच्चतं ।।
"यं मे अस्थि कतं पुझं, अस्मिं पथविमण्डले । तं मे सब्बङ्गकल्याणि, तया सद्धिं विपच्चतं ।।
"सक्यपुत्तोव झानेन, एकोदि निपको सतो । अमतं मुनि जिगीसानो, तमहं सूरियवच्छसे ।।
“यथापि मुनि नन्देय्य, पत्वा सम्बोधिमुत्तमं । एवं नन्देय्यं कल्याणि, मिस्सीभावं गतो तया ।।
“सक्को चे मे वरं दज्जा, तावतिंसानमिस्सरो । ताहं भद्दे वरेय्याहे, एवं कामो दळहो मम ।।
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(२.८.३४९-३४९)
८. सक्कपञ्चसुत्तं
१९७
“सालंव न चिरं फुल्लं, पितरं ते सुमेधसे । वन्दमानो नमस्सामि, यस्सा सेतादिसी पजा''ति ।।
३४९. एवं वुत्ते भगवा पञ्चसिखं गन्धब्बदेवपुत्तं एतदवोच – “संसन्दति खो ते, पञ्चसिख, तन्तिस्सरो गीतस्सरेन, गीतस्सरो च तन्तिस्सरेन; न च पन पञ्चसिख, तन्तिस्सरो गीतस्सरं अतिवत्तति, गीतस्सरो च तन्तिस्सरं । कदा संयूळ्हा पन ते, पञ्चसिख, इमा गाथा बुद्धूपसम्हिता धम्मूपसहिता सङ्कपसहिता अरहन्तूपसज्हिता कामूपसहिता''ति ? “एकमिदं, भन्ते, समयं भगवा उरुवेलायं विहरति नज्जा नेरञ्जराय तीरे अजपालनिग्रोधे पठमाभिसम्बुद्धो । तेन खो पनाहं, भन्ते, समयेन भद्दा नाम सूरियवच्छसा तिम्बरुनो गन्धब्बरञो धीता, तमभिकङ्खामि । सा खो पन, भन्ते, भगिनी परकामिनी होति; सिखण्डी नाम मातलिस्स सङ्गाहकस्स पुत्तो, तमभिकङ्खति । यतो खो अहं, भन्ते, तं भगिनिं नालत्थं केनचि परियायेन । अथाहं बेलुवपण्डुवीणं आदाय येन तिम्बरुनो गन्धब्बरो निवेसनं तेनुपसङ्कमिं; उपसङ्कमित्वा बेलुवपण्डुवीणं अस्सावेसिं, इमा च गाथा अभासिं बुद्धूपसम्हिता धम्मूपसहिता सङ्कपसहिता अरहन्तूपसहिता कामूपसज्हिता -
“वन्दे ते पितरं भद्दे, तिम्बरुं सूरियवच्छसे । येन जातासि कल्याणी, आनन्दजननी मम ।।...पे०...
सालंव न चिरं फुल्लं, पितरं ते सुमेधसे । वन्दमानो नमस्सामि, यस्सा सेतादिसी पजा'ति ।।
“एवं वुत्ते, भन्ते, भद्दा सूरियवच्छसा मं एतदवोच - 'न खो मे, मारिस, सो भगवा सम्मुखा दिट्ठो अपि च सुतोयेव मे सो भगवा देवानं तावतिंसानं सुधम्मायं सभायं उपनच्चन्तिया । यतो खो त्वं, मारिस, तं भगवन्तं कित्तेसि, होतु नो अज्ज समागमो'ति । सोयेव नो, भन्ते, तस्सा भगिनिया सद्धिं समागमो अहोसि । न च दानि ततो पच्छा''ति ।
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१९८
दीघनिकायो-२
(२.८.३५०-३५२)
सक्कूपसङ्कम ३५०. अथ खो सक्कस्स देवानमिन्दस्स एतदहोसि -- “पटिसम्मोदति पञ्चसिखो गन्धब्बदेवपुत्तो भगवता, भगवा च पञ्चसिखेना''ति । अथ खो सक्को देवानमिन्दो पञ्चसिखं गन्धब्बदेवपुत्तं आमन्तेसि- "अभिवादेहि मे त्वं, तात पञ्चसिख, भगवन्तं - 'सक्को, भन्ते, देवानमिन्दो सामच्चो सपरिजनो भगवतो पादे सिरसा वन्दती'ति" । "एवं भद्दन्तवा''ति खो पञ्चसिखो गन्धब्बदेवपुत्तो सक्कस्स देवानमिन्दस्स पटिस्सुत्वा भगवन्तं अभिवादेति - "सक्को, भन्ते, देवानमिन्दो सामच्चो सपरिजनो भगवतो पादे सिरसा वन्दती"ति । “एवं सुखी होतु, पञ्चसिख, सक्को देवानमिन्दो सामच्चो सपरिजनो; सुखकामा हि देवा मनुस्सा असुरा नागा गन्धब्बा ये चने सन्ति पुथुकाया"ति।
३५१. एवञ्च पन तथागता एवरूपे महेसक्खे यक्खे अभिवदन्ति । अभिवदितो सक्को देवानमिन्दो भगवतो इन्दसालगुहं पविसित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं अदासि । देवापि तावतिंसा इन्दसालगहं पविसित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं अट्रंस | पञ्चसिखोपि गन्धब्बदेवपुत्तो इन्दसालगुहं पविसित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं अठ्ठासि ।
तेन खो पन समयेन इन्दसालगुहा विसमा सन्ती समा समपादि, सम्बाधा सन्ती उरुन्दा समपादि, अन्धकारो गुहायं अन्तरधायि, आलोको उदपादि यथा तं देवानं देवानुभावेन ।
३५२. अथ खो भगवा सक्कं देवानमिन्दं एतदवोच – “अच्छरियमिदं आयस्मतो कोसियस्स, अब्भुतमिदं आयस्मतो कोसियस्स ताव बहुकिच्चस्स बहुकरणीयस्स यदिदं इधागमन"न्ति । चिरपटिकाहं, भन्ते, भगवन्तं दस्सनाय उपसमितुकामो; अपि च देवानं तावतिंसानं केहिचि केहिचि किच्चकरणीयेहि ब्यावटो; एवाहं नासक्खिं भगवन्तं दस्सनाय उपसङ्कमितुं । एकमिदं, भन्ते, समयं भगवा सावत्थियं विहरति सलळागारके । अथ ख्वाहं, भन्ते, सावत्थिं अगमासिं भगवन्तं दस्सनाय । तेन खो पन, भन्ते, समयेन भगवा अञ्जतरेन समाधिना निसिन्नो होति, भूजति च नाम वेस्सवणस्स महाराजस्स परिचारिका भगवन्तं पच्चुपट्ठिता होति, पञ्जलिका नमस्समाना तिट्ठति । अथ ख्वाहं, भन्ते, भूजतिं
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(२.८.३५३-३५३)
८. सक्कपहसुत्तं
१९९
एतदवोचं - ‘अभिवादेहि मे त्वं, भगिनि, भगवन्तं - सक्को, भन्ते, देवानमिन्दो सामच्चो सपरिजनो भगवतो पादे सिरसा वन्दती'ति । ‘एवं वुत्ते, भन्ते, सा भूजति मं एतदवोच - अकालो खो, मारिस, भगवन्तं दस्सनाय; पटिसल्लीनो भगवा'ति । 'तेन हि, भगिनि, यदा भगवा तम्हा समाधिम्हा वुट्टितो होति, अथ मम वचनेन भगवन्तं अभिवादेहि- सक्को, भन्ते, देवानमिन्दो सामच्चो सपरिजनो भगवतो पादे सिरसा वन्दती'ति । 'कच्चि मे सा, भन्ते, भगिनी भगवन्तं अभिवादेसि ? सरति भगवा तस्सा भगिनिया वचन'न्ति ? 'अभिवादेसि मं सा, देवानमिन्द, भगिनी, सरामहं तस्सा भगिनिया वचनं । अपि चाहं आयस्मतो नेमिसद्देन तम्हा समाधिम्हा वुट्ठितो'ति । ये ते, भन्ते, देवा अम्हेहि पठमतरं तावतिंसकायं उपपन्ना, तेसं मे सम्मुखा सुतं सम्मुखा पटिग्गहितं- 'यदा तथागता लोके उप्पज्जन्ति अरहन्तो सम्मासम्बद्धा. दिब्बा काया परिपूरेन्ति, हायन्ति असुरकाया'ति । तं मे इदं, भन्ते, सक्खिदिटुं यतो तथागतो लोके उप्पन्नो अरहं सम्मासम्बुद्धो, दिब्बा काया परिपूरेन्ति, हायन्ति असुरकाया'ति ।
गोपकवत्थु ३५३. “इधेव, भन्ते, कपिलवत्थुस्मिं गोपिका नाम सक्यधीता अहोसि बुद्धे पसन्ना धम्मे पसन्ना सङ्के पसन्ना सीलेसु परिपूरकारिनी। सा इत्थित्तं विराजेत्वा पुरिसत्तं भावेत्वा कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपन्ना । देवानं तावतिंसानं सहब्यतं अम्हाकं पुत्तत्तं अज्झुपगता। तत्रपि नं एवं जानन्ति – 'गोपको देवपुत्तो, गोपको देवपुत्तो'ति । अञपि, भन्ते, तयो भिक्खू भगवति ब्रह्मचरियं चरित्वा हीनं गन्धब्बकायं उपपन्ना । ते पञ्चहि कामगुणेहि समप्पिता समङ्गीभूता परिचारयमाना अम्हाकं उपट्टानं आगच्छन्ति अम्हाकं पारिचरियं । ते अम्हाकं उपट्ठानं आगते अम्हाकं पारिचरियं गोपको देवपुत्तो पटिचोदेसि- कुतोमुखा नाम तुम्हे मारिसा तस्स भगवतो धम्मं अस्सुत्थ - अहम्हि नाम इत्थिका समाना बुद्धे पसन्ना धम्मे पसन्ना सङ्घ पसन्ना सीलेसु परिपूरकारिनी इत्थित्तं विराजेत्वा पुरिसत्तं भावेत्वा कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपन्ना, देवानं तावतिंसानं सहब्यतं सक्कस्स देवानमिन्दस्स पुत्तत्तं अज्झुपगता । इधापि मं एवं जानन्ति 'गोपको देवपुत्तो गोपको देवपुत्तो'ति । तुम्हे पन, मारिसा, भगवति ब्रह्मचरियं चरित्वा हीनं गन्धब्बकायं उपपन्ना। दुद्दिवरूपं वत, भो, अद्दसाम, ये मयं अद्दसाम सहधम्मिके हीनं गन्धब्बकायं उपपन्ने''ति । तेसं, भन्ते, गोपकेन देवपुत्तेन पटिचोदितानं
199
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२००
दीघनिकायो-२
(२.८.३५४-३५४)
द्वे देवा दिवेव धम्मे सतिं पटिलभिंसु कायं ब्रह्मपुरोहितं, एको पन देवो कामे अज्झावसि ।
३५४. "उपासिका चक्खुमतो अहोसिं,
नामम्पि मय्हं अहु 'गोपिका'ति । बुद्धे च धम्मे च अभिप्पसन्ना,
सङ्घञ्चुपट्ठासिं पसन्नचित्ता ।।
"तस्सेव बुद्धस्स सुधम्मताय,
सक्कस्स पुत्तोम्हि महानुभावो । महाजुतीको तिदिवूपपन्नो,
जानन्ति मं इधापि 'गोपको'ति ।।
"अथद्दसं भिक्खवो दिट्ठपुब्बे,
गन्धब्बकायूपगते वसीने । इमेहि ते गोतमसावकासे,
ये च मयं पुब्बे मनुस्सभूता ।।
"अन्नेन पानेन उपट्टहिम्हा,
पादूपसङ्गय्ह सके निवेसने । कुतोमुखा नाम इमे भवन्तो,
बुद्धस्स धम्मानि पटिग्गहेसुं ।।
“पच्चत्तं वेदितब्बो हि धम्मो,
सुदेसितो चक्खुमतानुबुद्धो । अहहि तुम्हेव उपासमानो,
सुत्वान अरियान सुभासितानि ।।
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(२.८.३५४-३५४)
८. सक्कपञ्हसुत्तं
२०१
"सक्कस्स पुत्तोम्हि महानुभावो,
महाजुतीको तिदिवूपपन्नो । तुम्हे पन सेट्ठमुपासमाना,
अनुत्तरं ब्रह्मचरियं चरित्वा ।।
"हीनं कायं उपपन्ना भवन्तो,
अनानुलोमा भवतूपपत्ति । दुद्दिट्टरूपं वत अद्दसाम,
सहधम्मिके हीनकायूपपन्ने ।।
“गन्धब्बकायूपगता भवन्तो,
देवानमागच्छथ पारिचरियं । अगारे वसतो महं,
इमं पस्स विसेसतं ।।
"इत्थी हुत्वा स्वज्ज पुमोम्हि देवो,
दिब्बेहि कामेहि समङ्गिभूतो । ते चोदिता गोतमसावकेन,
संवेगमापादु समेच्च गोपकं ।।
"हन्द वियायाम ब्यायाम,
___ मा नो मयं परपेस्सा अहुम्हा' । तेसं दुवे वीरियमारभिंसु,
अनुस्सरं गोतमसासनानि ।। "इधेव चित्तानि विराजयित्वा,
कामेसु आदीनवमद्दसंसु । ते कामसंयोजनबन्धनानि,
पापिमयोगानि दुरच्चयानि ।।
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२०२
दीघनिकायो-२
(२.८.३५४-३५४)
“नागोव सन्नानि गुणानि छेत्वा,
___ देवे तावतिंसे अतिक्कमिंसु | सइन्दा देवा सपजापतिका,
सब्बे सुधम्माय सभायुपविठ्ठा ।।
“तेसं निसिन्नानं अभिक्कमिंसु,
वीरा विरागा विरजं करोन्ता । ते दिस्वा संवेगमकासि वासवो,
देवाभिभू देवगणस्स मज्झे ।।
"इमेहि ते हीनकायूपपन्ना,
देवे तावतिंसे अभिक्कमन्ति । संवेगजातस्स वचो निसम्म,
सो गोपको वासवमज्झभासि ।।
"बुद्धो जनिन्दत्थि मनुस्सलोके,
___ कामाभिभू सक्यमुनीति आयति । तस्सेव ते पुत्ता सतिया विहीना,
__चोदिता मया ते सतिमज्झलत्थु ।।
“तिण्णं तेसं आवसिनेत्थ एको,
गन्धब्बकायूपगतो वसीनो । द्वे च सम्बोधिपथानुसारिनो,
देवेपि हीळेन्ति समाहितत्ता ।।
“एतादिसी धम्मप्पकासनेत्थ,
न तत्थ किंकजति कोचि सावको । नितिण्णओघं विचिकिच्छछिन्नं,
बुद्धं नमस्साम जिनं जनिन्दं ।।
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(२.८.३५५-३५७)
८. सक्कपञ्चसुत्तं
२०३
यं ते धम्मं इधञाय,
___ विसेसं अज्झगंसु ते। कायं ब्रह्मपुरोहितं,
दुवे तेसं विसेसगू ।।
"तस्स धम्मस्स पत्तिया,
आगतम्हासि मारिस । कतावकासा भगवता,
पहं पुच्छेमु मारिसा"ति ।।
३५५. अथ खो भगवतो एतदहोसि - “दीघरत्तं विसुद्धो खो अयं यक्खो, यं किञ्चि में पऽहं पुच्छिस्सति, सब्बं तं अत्थसञ्हितंयेव पुच्छिस्सति, नो अनत्थसहितं । यञ्चस्साहं पुट्ठो ब्याकरिस्सामि, तं खिप्पमेव आजानिस्सती''ति ।
३५६. अथ खो भगवा सक्कं देवानमिन्दं गाथाय अज्झभासि -
"पुच्छ वासव मं पहं, यं किञ्चि मनसिच्छसि । तस्स तस्सेव पञ्हस्स, अहं अन्तं करोमि तेति ।।
पठमभाणवारो निहितो।
३५७. कतावकासो सक्को देवानमिन्दो भगवता इमं भगवन्तं पठमं पञ्हं अपुच्छि
- "किं संयोजना नु खो, मारिस, देवा मनुस्सा असुरा नागा गन्धब्बा ये चञ्चे सन्ति पुथुकाया, ते- 'अवेरा अदण्डा असपत्ता अब्यापज्जा विहरेमु अवेरिनो'ति इति च नेसं होति, अथ च पन सवेरा सदण्डा ससपत्ता सब्यापज्जा विहरन्ति सवेरिनो''ति ? इत्थं सक्को देवानमिन्दो भगवन्तं पञ्हं अपुच्छि। तस्स भगवा पहं पुट्ठो ब्याकासि -
"इस्सामच्छरियसंयोजना खो, देवानमिन्द, देवा मनुस्सा असुरा नागा गन्धब्बा ये
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२०४
दीघनिकायो-२
(२.८.३५८-३५८)
चछे सन्ति पुथुकाया, ते – 'अवेरा अदण्डा असपत्ता अब्यापज्जा विहरेमु अवेरिनो'ति इति च नेसं होति, अथ च पन सवेरा सदण्डा ससपत्ता सब्यापज्जा विहरन्ति सवेरिनो''ति । इत्थं भगवा सक्कस्स देवानमिन्दस्स पहं पुट्ठो ब्याकासि । अत्तमनो सक्को देवानमिन्दो भगवतो भासितं अभिनन्दि अनुमोदि - “एवमेतं, भगवा, एवमेतं, सुगत । तिण्णा मेत्थ कङ्खा विगता कथंकथा भगवतो पञ्हवेय्याकरणं सुत्वा''ति ।
३५८. इतिह सक्को देवानमिन्दो भगवतो भासितं अभिनन्दित्वा अनुमोदित्वा भगवन्तं उत्तरं पऽहं अपुच्छि -
___ "इस्सामच्छरियं पन, मारिस, किंनिदानं किंसमुदयं किंजातिकं किंपभवं; किस्मिं सति इस्सामच्छरियं होति; किस्मिं असति इस्सामच्छरियं न होती'ति ? "इस्सामच्छरियं खो, देवानमिन्द, पियाप्पियनिदानं पियाप्पियसमुदयं पियाप्पियजातिकं पियाप्पियपभवं; पियाप्पिये सति इस्सामच्छरियं होति, पियाप्पिये असति इस्सामच्छरियं न होती"ति ।
“पियाप्पियं खो पन, मारिस, किंनिदानं किंसमुदयं किंजातिकं किंपभवं; किस्मिं सति पियाप्पियं होति; किस्मिं असति पियाप्पियं न होती"ति ? “पियाप्पियं खो, देवानमिन्द, छन्दनिदानं छन्दसमुदयं छन्दजातिकं छन्दपभवं; छन्दे सति पियाप्पियं होति; छन्दे असति पियाप्पियं न होती''ति ।
___“छन्दो खो पन, मारिस, किंनिदानो किंसमुदयो किंजातिको किंपभवो; किस्मिं सति छन्दो होति; किस्मिं असति छन्दो न होती"ति ? “छन्दो खो, देवानमिन्द, वितक्कनिदानो वितक्कसमुदयो वितक्कजातिको वितक्कपभवो; वितक्के सति छन्दो होति; वितक्के असति छन्दो न होती''ति ।
“वितक्को खो पन, मारिस, किंनिदानो किंसमुदयो किंजातिको किंपभवो; किस्मिं सति वितक्को होति; किस्मिं असति वितक्को न होती"ति ? “वितक्को खो, देवानमिन्द, पपञ्चसञ्जासङ्खानिदानो पपञ्चसासङ्घासमुदयो पपञ्चसञ्जासङ्खाजातिको पपञ्चसञासङ्खापभवो; पपञ्चसञ्जासङ्घाय सति वितक्को होति; पपञ्चसञ्जासङ्खाय असति वितक्को न होती"ति ।
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(२.८.३५९-३६२)
" कथं पटिपन्नो पन, मारिस, भिक्खु पपञ्चसञ्ञासङ्घानिरोधसारुप्पगामिनिं पटिपदं पटिपन्नो होती 'ति ?
८. सक्क
वेदनाकम्मट्ठानं
३५९. “सोमनस्संपाहं, देवानमिन्द, दुविधेन वदामि - सेवितब्बम्पि, असेवितब्बम्पि । दोमनस्संपाहं, देवानमिन्द, दुविधेन वदामि - सेवितब्बम्पि, असेवितब्बम्पि । उपेक्खंपाहं, देवानमिन्द, दुविधेन वदामि - सेवितब्बम्पि, असेवितब्बम्पि ।
३६०. “सोमनस्संपाहं, देवानमिन्द, दुविधेन वदामि सेवितब्बम्पि, असेवितब्बम्पीति इति खो पनेतं वुत्तं किञ्चेतं पटिच्च वृत्तं ? तत्थ यं जञा सोमनस्सं 'इमं खो मे सोमनस्सं सेवतो अकुसला धम्मा अभिवन्ति, कुसला धम्मा परिहायन्ती 'ति, एवरूपं सोमनस्सं न सेवितब्बं । तत्थ यं जञा सोमनस्सं 'इमं खो मे सोमनस्सं सेवतो अकुसला धम्मा परिहायन्ति, कुसला धम्मा अभिवन्तीति, एवरूपं सोमनस्सं सेवितब्बं । तत्थ यं चे सवितक्कं सविचारं यं चे अवितक्कं अविचारं, ये अवितक्के अविचारे, ते पणीततरे । सोमनस्संपाहं, देवानमिन्द, दुविधेन वदामि सेवितब्बम्पि, असेवितब्बम्पीति । इति यं तं वृत्तं इदमेतं पटिच्च वृत्तं ।
२०५
३६१. “दोमनस्संपाहं, देवानमिन्द, दुविधेन वदामि सेवितब्बम्पि, असेवितब्बम्पीति । इति खो पनेतं वुत्तं किञ्चेतं पटिच्च वुत्तं ? तत्थ यं जञा दोमनस्सं 'इमं खो मे दोमनस्सं सेवतो अकुसला धम्मा अभिवढन्ति, कुसला धम्मा परिहायन्तीति, एवरूपं दोमनस्सं न सेवितब्बं । तत्थ यं जञा दोमनस्सं 'इमं खो मे दोमनस्सं सेवतो अकुसला धम्मा परिहायन्ति, कुसला धम्मा अभिवढन्ती 'ति, एवरूपं दोमनस्सं सेवितब्बं । तत्थ यं चे सवितक्कं सविचारं यं चे अवितक्कं अविचारं, ये अवितक्के अविचारे, ते पणीततरे । 'दोमनस्संपाहं, देवानमिन्द, दुविधेन वदामि सेवितब्बम्पि, असेवितब्बम्पी 'ति । इति यं तं वुत्तं इदमेतं पटिच्च वृत्तं ।
३६२. “उपेक्खंपाहं, देवानमिन्द, दुविधेन वदामि सेवितब्बम्पि, असेवितब्बम्पीति इति खो पनेतं वुत्तं किञ्चेतं पटिच्च वुत्तं ? तत्थ यं जञ्ञा उपेक्खं 'इमं खो मे उपेक्खं सेवतो अकुसला धम्मा अभिवड्ढन्ति, कुसला धम्मा परिहायन्ती 'ति, एवरूपा
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२०६
दीघनिकायो-२
(२.८.३६३-३६४)
उपेक्खा न सेवितब्बा । तत्थ यं जञा उपेक्खं 'इमं खो मे उपेक्खं सेवतो अकुसला धम्मा परिहायन्ति, कुसला धम्मा अभिवड्डन्ती'ति, एवरूपा उपेक्खा सेवितब्बा । तत्थ यं चे सवितक्कं सविचारं यं चे अवितक्कं अविचारं. ये अवितक्के अविचारे. ते पणीततरे । उपेक्खंपाहं, देवानमिन्द, दुविधेन वदामि सेवितब्बम्पि, असेवितब्बम्पीति । इति यं तं वुत्तं, इदमेतं पटिच्च वुत्तं ।
___३६३. “एवं पटिपन्नो खो, देवानमिन्द, भिक्खु पपञ्चसञ्जासङ्घानिरोधसारुप्पगामिनिं पटिपदं पटिपन्नो होती"ति । इत्थं भगवा सक्कस्स देवानमिन्दस्स पऽहं पुट्ठो ब्याकासि । अत्तमनो सक्को देवानमिन्दो भगवतो भासितं अभिनन्दि अनुमोदि - “एवमेतं, भगवा, एवमेतं, सुगत, तिण्णा मेत्थ कङ्खा विगता कथंकथा भगवतो पञ्हवेय्याकरणं सुत्वा''ति ।
पातिमोक्खसंवरो ३६४. इतिह सक्को देवानमिन्दो भगवतो भासितं अभिनन्दित्वा अनुमोदित्वा भगवन्तं उत्तरं पञ्हं अपुच्छि –
___ “कथं पटिपन्नो पन, मारिस, भिक्खु पातिमोक्खसंवराय पटिपन्नो होती''ति ? "कायसमाचारंपाहं, देवानमिन्द, दुविधेन वदामि- सेवितब्बम्पि, असेवितब्बम्पि । वचीसमाचारंपाहं, देवानमिन्द, दुविधेन वदामि- सेवितब्बम्पि, असेवितब्बम्पि | परियेसनंपाहं, देवानमिन्द, दुविधेन वदामि - सेवितब्बम्पि, असेवितब्ब'"म्पि।
___“कायसमाचारंपाहं, देवानमिन्द, दुविधेन वदामि सेवितब्बम्पि असेवितब्बम्पीति इति खो पनेतं वुत्तं, किञ्चेतं पटिच्च वुत्तं ? तत्थ यं जञा कायसमाचारं 'इमं खो मे कायसमाचारं सेवतो अकुसला धम्मा अभिवड्डन्ति, कुसला धम्मा परिहायन्ती'ति, एवरूपो कायसमाचारो न सेवितब्बो । तत्थ यं जञा कायसमाचारं ‘इमं खो मे कायसमाचार सेवतो अकुसला धम्मा परिहायन्ति, कुसला धम्मा अभिवड्वन्ती'ति, एवरूपो कायसमाचारो सेवितब्बो। 'कायसमाचारंपाहं, देवानमिन्द, दुविधेन वदामि- सेवितब्बम्पि, असेवितब्बम्पीति इति यं तं वुत्तं, इदमेतं पटिच्च वुत्तं ।
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(२.८.३६५-३६५)
८. सक्कपञ्चसुत्तं
२०७
“वचीसमाचारंपाहं, देवानमिन्द, दुविधेन वदामि- सेवितब्बम्पि, असेवितब्बम्पी'ति । इति खो पनेतं वुत्तं, किञ्चेतं पटिच्च वुत्तं ? तत्थ यं जञा वचीसमाचारं 'इमं खो मे वचीसमाचारं सेवतो अकुसला धम्मा अभिवड्डन्ति, कुसला धम्मा परिहायन्ती'ति, एवरूपो वचीसमाचारो न सेवितब्बो । तत्थ यं जञा वचीसमाचारं 'इमं खो मे वचीसमाचारं सेवतो अकुसला धम्मा परिहायन्ति, कुसला धम्मा अभिवड्डन्ती'ति, एवरूपो वचीसमाचारो सेवितब्बो । ‘वचीसमाचारंपाहं, देवानमिन्द, दुविधेन वदामि - सेवितब्बम्पि, असेवितब्बम्पीति इति यं तं वुत्तं, इदमेतं पटिच्च वुत्तं ।
___ “परियेसनंपाहं, देवानमिन्द, दुविधेन वदामि- सेवितब्बम्पि, असेवितब्बम्पीति । इति खो पनेतं वुत्तं, किञ्चेतं पटिच्च वुत्तं ? तत्थ यं जञा परियेसनं 'इमं खो मे परियेसनं सेवतो अकुसला धम्मा अभिवड्डन्ति, कुसला धम्मा परिहायन्ती'ति, एवरूपा परियेसना न सेवितब्बा। तत्थ यं जञा परियेसनं 'इमं खो मे परियेसनं सेवतो अकुसला धम्मा परिहायन्ति, कुसला धम्मा अभिवड्डन्ती'ति, एवरूपा परियेसना सेवितब्बा । 'परियेसनंपाहं, देवानमिन्द, दुविधेन वदामि - सेवितब्बम्पि, असेवितब्बम्पीति इति यं तं वुत्तं, इदमेतं पटिच्च वुत्तं ।
“एवं पटिपन्नो खो, देवानमिन्द, भिक्खु पातिमोक्खसंवराय पटिपन्नो होती"ति | इत्थं भगवा सक्कस्स देवानमिन्दस्स पहं पुट्ठो ब्याकासि । अत्तमनो सक्को देवानमिन्दो भगवतो भासितं अभिनन्दि अनुमोदि – “एवमेतं, भगवा, एवमेतं, सुगत । तिण्णा मेत्थ कङ्खा विगता कथंकथा भगवतो पञ्हवेय्याकरणं सुत्वा''ति ।
इन्द्रियसंवरो
३६५. इतिह सक्को देवानमिन्दो भगवतो भासितं अभिनन्दित्वा अनुमोदित्वा भगवन्तं उत्तरं पहं अपुच्छि -
"कथं पटिपन्नो पन, मारिस, भिक्खु इन्द्रियसंवराय पटिपन्नो होती''ति ? "चक्खुवि य्यं रूपंपाहं, देवानमिन्द, दुविधेन वदामि- सेवितब्बम्पि, असेवितब्बम्पि । सोतविद्येय्यं सपाहं, देवानमिन्द, दुविधेन वदामि - सेवितब्बम्पि, असेवितब्बम्पि | घानविनेय्यं गन्धंपाहं, देवानमिन्द, दुविधेन वदामि - सेवितब्बम्पि, असेवितब्बम्पि ।
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२०८
दीघनिकायो-२
(२.८.३६६-३६६)
जिव्हाविनेय्यं रसंपाहं, देवानमिन्द, दुविधेन वदामि-- सेवितब्बम्पि, असेवितब्बम्पि । कायविद्येय्यं फोट्ठब्बंपाहं, देवानमिन्द, दुविधेन वदामि - सेवितब्बम्पि, असेवितब्बम्पि । मनोविज्ञेय्यं धम्मपाहं, देवानमिन्द, दुविधेन वदामि - सेवितब्बम्पि, असेवितब्बम्पी"ति ।
एवं वुत्ते, सक्को देवानमिन्दो भगवन्तं एतदवोच
__ "इमस्स खो अहं, भन्ते, भगवता सङित्तेन भासितस्स एवं वित्थारेन अत्थं आजानामि । यथारूपं, भन्ते, चक्खुवि य्यं रूपं सेवतो अकुसला धम्मा अभिवड्डन्ति, कुसला धम्मा परिहायन्ति, एवरूपं चक्खुवि य्यं रूपं न सेवितब्बं । यथारूपञ्च खो, भन्ते, चक्खुवि य्यं रूपं सेवतो अकुसला धम्मा परिहायन्ति, कुसला धम्मा अभिवड्डन्ति, एवरूपं चक्खुवि य्यं रूपं सेवितब्बं । यथारूपञ्च खो, भन्ते, सोतविद्येय्यं सर्वे सेवतो...पे०... घानविद्येय्यं गन्धं सेवतो... जिव्हाविनेय्यं रसं सेवतो... कायविनेय्यं फोहब्बं सेवतो... मनोविज्ञेय्यं धम्म सेवतो अकुसला धम्मा अभिवड्डन्ति, कुसला धम्मा परिहायन्ति, एवरूपो मनोविज्ञेय्यो धम्मो न सेवितब्बो । यथारूपञ्च खो, भन्ते, मनोविज्ञेय्यं धम्म सेवतो अकुसला धम्मा परिहायन्ति, कुसला धम्मा अभिवड्वन्ति, एवरूपो मनोविज्ञ्जय्यो धम्मो सेवितब्बो ।
"इमस्स खो मे, भन्ते, भगवता सवित्तेन भासितस्स एवं वित्थारेन अत्थं आजानतो तिण्णा मेत्थ कङ्घा विगता कथंकथा भगवतो पञ्हवेय्याकरणं सुत्वा'ति ।
३६६. इतिह सक्को देवानमिन्दो भगवतो भासितं अभिनन्दित्वा अनुमोदित्वा भगवन्तं उत्तरं पञ्हं अपुच्छि -
“सब्बेव नु खो, मारिस, समणब्राह्मणा एकन्तवादा एकन्तसीला एकन्तछन्दा एकन्तअज्झोसानाति ? “न खो, देवानमिन्द, सब्बे समणब्राह्मणा एकन्तवादा एकन्तसीला एकन्तछन्दा एकन्तअज्झोसाना''ति ।
“कस्मा पन, मारिस, न सब्बे समणब्राह्मणा एकन्तवादा एकन्तसीला एकन्तछन्दा एकन्तअज्झोसाना''ति ? “अनेकधातु नानाधातु खो, देवानमिन्द, लोको। तस्मिं अनेकधातुनानाधातुस्मिं लोके यं यदेव सत्ता धातुं अभिनिविसन्ति, तं तदेव थामसा
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(२.८.३६७-३६७)
८. सक्कपञ्चसुत्तं
२०९
परामासा अभिनिविस्स वोहरन्ति - ‘इदमेव सच्चं मोघमञ'न्ति । तस्मा न सब्बे समणब्राह्मणा एकन्तवादा एकन्तसीला एकन्तछन्दा एकन्तअज्झोसानाति ।
"सब्बेव नु खो, मारिस, समणब्राह्मणा अच्चन्तनिट्ठा अच्चन्तयोगक्खेमी अच्चन्तब्रह्मचारी अच्चन्तपरियोसाना'"ति ? "न खो, देवानमिन्द, सब्बे समणब्राह्मणा अच्चन्तनिट्ठा अच्चन्तयोगक्खेमी अच्चन्तब्रह्मचारी अच्चन्तपरियोसाना''ति ।
“कस्मा पन, मारिस, न सब्बे समणब्राह्मणा अच्चन्तनिट्ठा अच्चन्तयोगक्खेमी अच्चन्तब्रह्मचारी अच्चन्तपरियोसाना"ति ? “ये खो, देवानमिन्द, भिक्खू तण्हासङ्खयविमुत्ता ते अच्चन्तनिट्ठा अच्चन्तयोगक्खेमी अच्चन्तब्रह्मचारी अच्चन्तपरियोसाना । तस्मा न सब्बे समणब्राह्मणा अच्चन्तनिट्ठा अच्चन्तयोगक्खेमी अच्चन्तब्रह्मचारी अच्चन्तपरियोसाना''ति ।
इत्थं भगवा सक्कस्स देवानमिन्दस्स पहं पुट्ठो ब्याकासि । अत्तमनो सक्को देवानमिन्दो भगवतो भासितं अभिनन्दि अनुमोदि - "एवमेतं, भगवा, एवमेतं, सुगत । तिण्णा मेत्थ कसा विगता कथंकथा भगवतो पञ्हवेय्याकरणं सुत्वा'ति ।
३६७. इतिह सक्को देवानमिन्दो भगवतो भासितं अभिनन्दित्वा अनुमोदित्वा भगवन्तं एतदवोच
“एजा, भन्ते, रोगो, एजा गण्डो, एजा सल्लं, एजा इमं पुरिसं परिकड्डति तस्स तस्सेव भवस्स अभिनिब्बत्तिया । तस्मा अयं पुरिसो उच्चावचमापज्जति । येसाहं, भन्ते, पञ्हानं इतो बहिद्धा अञ्जसु समणब्राह्मणेसु ओकासकम्मम्पि नालत्थं, ते मे भगवता ब्याकता। दीघरत्तानुसयितञ्च पन मे विचिकिच्छाकथंकथासल्लं, तञ्च भगवता अब्बुळ्हन्ति ।
"अभिजानासि नो त्वं, देवानमिन्द, इमे पञ्हे अछे समणब्राह्मणे पुच्छिता''ति ? "अभिजानामहं, भन्ते, इमे पञ्हे अझे समणब्राह्मणे पुच्छिता''ति । “यथा कथं पन ते, देवानमिन्द, ब्याकंसु ? सचे ते अगरु भासस्सूति । “न खो मे, भन्ते, गरु यत्थस्स भगवा निसिन्नो भगवन्तरूपो वा''ति । “तेन हि, देवानमिन्द, भासस्सू'ति । “येस्वाहं,
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दीघनिकायो-२
भन्ते, मञ्ञामि समणब्राह्मणा आरञ्ञिका पन्तसेनासनाति, त्याहं उपसङ्कमित्वा इमे पहे पुच्छामि, ते मया पुट्ठा न सम्पायन्ति, असम्पायन्ता ममयेव पटिपुच्छन्ति - ' को नामो आयस्मा'ति ? तेसाहं पुट्ठो ब्याकरोमि - ' अहं खो, मारिस, सक्को देवानमिन्दो'ति । ते ममंयेव उत्तर पटिपुच्छन्ति - 'किं पनायस्मा, देवानमिन्द, कम्मं कत्वा इमं ठानं पत्तो 'ति ? तेसाहं यथासुतं यथापरियत्तं धम्मं देसेमि । ते तावतकेनेव अत्तमना होन्ति - 'सक्को च नो देवानमिन्दो दिट्ठो, यञ्च नो अपुच्छिम्हा, तञ्च नो ब्याकासी 'ति । ते अञ्ञदत्थु ममयेव सावका सम्पज्जन्ति, न चाहं तेसं । अहं खो पन, भन्ते, भगवतो सावको सोतापन्नो अविनिपातधम्मो नियतो सम्बोधिपरायणो "ति ।
सोमनस्सपटिलाभकथा
३६८. “अभिजानासि नो त्वं, देवानमिन्द, इतो पुब्बे एवरूपं वेदपटिलाभं सोमनस्सपटिलाभ "न्ति ? 'अभिजानामहं, भन्ते, इतो पुब्बे एवरूपं वेदपटिलाभं सोमनस्सपटिलाभ”न्ति । “यथा कथं पन त्वं, देवानमिन्द, अभिजानासि इतो पुब्बे एवरूपं वेदपटिलाभं सोमनस्सपटिलाभ "न्ति ?
(२.८.३६८-३६९)
“भूतपुब्बं, भन्ते, देवासुरसङ्गामो समुपब्यूळ्हो अहोसि । तस्मिं खो पन, भन्ते, सङ्ग्रामे देवा जिनिंसु, असुरा पराजयिंसु । तस्स मय्हं, भन्ते, तं सङ्ग्रामं अभिविजिनित्वा विजितसङ्गामस्स एतदहोसि - ' या चेव दानि दिब्बा ओजा या च असुरा ओजा, उभयमेतं देवा परिभुजिस्सन्ती 'ति । सो खो पन मे, भन्ते, वेदपटिलाभो सोमनस्सपटिलाभो सदण्डावचरो ससत्थावचरो न निब्बिदाय न विरागाय न निरोधाय न उपसमाय न अभिज्ञाय न सम्बोधाय न निब्बानाय संवत्तति । यो खो पन मे अयं, भन्ते, भगवतो धम्मं सुत्वा वेदपटिलाभो सोमनस्सपटिलाभो, सो अदण्डावचरो असत्थावचरो एकन्तनिब्बिदाय विरागाय निरोधाय उपसमाय अभिज्ञाय सम्बोधाय निब्बानाय संवत्तती 'ति ।
३६९. “किं पन त्वं देवानमिन्द, अत्थदसं सम्पस्समानो एवरूपं वेदपटिलाभं सोमनस्सपटिलाभं पवेदेसी "ति ? “छ खो अहं, भन्ते, अत्थवसे सम्पस्समानो एवरूपं वेदपटिलाभं सोमनस्सपटिलाभं पवेदेमि |
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(२.८.३६९-३६९)
८. सक्क
"इधेव तिट्ठमानस्स, देवभूतस्स मे सतो । पुनरायु च मे लद्धो, एवं जानाहि मारिस" ।।
“इमं खो अहं, भन्ते, पठमं अत्थवसं सम्पस्समानो एवरूपं वेदपटिलाभं सोमनस्सपटिलाभं पवेदेमि ।
“चुताहं दिविया काया, आयुं हित्वा अमानुसं । अमूळहो गभमेस्सामि, यत्थ मे रमती मनो” ।।
“इमं खो अहं, भन्ते, दुतियं अत्थवसं सम्पस्समानो एवरूपं वेदपटिलाभं सोमनस्सपटिलाभं पवेदेमि ।
" स्वाहं अमूळ्हपञ्ञस्स, विहरं सासने रतो ।
आयेन विहरिस्सामि, सम्पजानो पटिस्सतो” । ।
“इमं खो अहं, भन्ते, ततियं अत्थवसं सम्पस्समानो एवरूपं वेदपटिलाभं सोमनस्सपटिलाभं पवेदेमि |
" आयेन मे चरतो च, सम्बोधि चे भविस्सति ।
अञ्ञाता विहरिस्सामि, स्वेव अन्तो भविस्सति" ।।
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“इमं खो अहं, भन्ते, चतुत्थं अत्थवसं सम्पस्समानो एवरूपं वेदपटिलाभं सोमनस्सपटिलाभं पवेदेमि |
" चुताहं मानुसा काया, आयुं हित्वान मानुसं ।
पुन देवो भविस्सामि, देवलोकम्हि उत्तमो" ।।
“इमं खो अहं, भन्ते, पञ्चमं अत्थवसं सम्यस्समानो एवरूपं वेदपटिलाभं सोमनस्सपटिलाभं पवेदेमि ।
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२१२
दीघनिकायो-२
(२.८.३७०-३७०)
"ते पणीततरा देवा, अकनिट्ठा यसस्सिनो। अन्तिमे वत्तमानम्हि, सो निवासो भविस्सति' ।।
"इमं खो अहं, भन्ते, छटुं सोमनस्सपटिलाभं पवेदेमि।
अत्थवसं सम्पस्समानो एवरूपं वेदपटिलाभं
वेदपटिलाभं
“इमे खो अहं, भन्ते, छ अत्थवसे सम्पस्समानो एवरूपं सोमनस्सपटिलाभं पवेदेमि ।
३७०.“अपरियोसितसङ्कप्पो, विचिकिच्छो कथंकथी ।
विचरिं दीघमद्धानं, अन्वेसन्तो तथागतं ।।
“यस्सु मञामि समणे, पविवित्तविहारिनो । सम्बुद्धा इति मञानो, गच्छामि ते उपासितुं । ।
"कथं आराधना होति, कथं होति विराधना । इति पुट्ठा न सम्पायन्ति, मग्गे पटिपदासु च ।।
“त्यस्सु यदा मं जानन्ति, सक्को देवानमागतो । त्यस्सु ममेव पुच्छन्ति, किं कत्वा पापुणी इदं ।।
"तेसं यथासुतं धम्मं, देसयामि जने सुतं । तेन अत्तमना होन्ति, दिट्ठो नो वासवोति च ।।
"यदा च बुद्धमद्दक्खिं, विचिकिच्छावितारणं । सोम्हि वीतभयो अज्ज, सम्बुद्धं पयिरुपासिय ।।
"तहासल्लस्स हन्तारं, बुद्धं अप्पटिपुग्गलं । अहं वन्दे महावीरं, बुद्धमादिच्चबन्धुनं ।।
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(२.८.३७१-३७१)
८. सक्कपञ्चसुत्तं
२१३
“यं करोमसि ब्रह्मनो, समं देवेहि मारिस । तदज्ज तुम्हं कस्साम, हन्द सामं करोम ते ।।
“त्वमेव असि सम्बुद्धो, तुवं सत्था अनुत्तरो । सदेवकस्मिं लोकस्मिं, नत्थि ते पटिपुग्गलो''ति ।।
३७१. अथ खो सक्को देवानमिन्दो पञ्चसिखं गन्धब्बपुत्तं आमन्तेसि - "बहूपकारो खो मेसि त्वं, तात पञ्चसिख, यं त्वं भगवन्तं पठमं पसादेसि । तया, तात, पठमं पसादितं पच्छा मयं तं भगवन्तं दस्सनाय उपसङ्कमिम्हा अरहन्तं सम्मासम्बुद्धं | पेत्तिके वा ठाने ठपयिस्सामि, गन्धब्बराजा भविस्ससि, भद्दञ्च ते सूरियवच्छसं दम्मि, सा हि ते अभिपत्थिता''ति ।
अथ खो सक्को देवानमिन्दो पाणिना पथविं परामसित्वा तिक्खत्तुं उदानं उदानेसि - “नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्सा"ति ।
इमस्मिञ्च पन वेय्याकरणस्मिं भञ्जमाने सक्कस्स देवानमिन्दस्स विरजं वीतमलं धम्मचक्खं उदपादि- "यं किञ्चि समुदयधम्म, सब्बं तं निरोधधम्म"न्ति। अ सञ्च असीतिया देवतासहस्सानं, इति ये सक्केन देवानमिन्देन अज्झिट्ठपञ्हा पुट्ठा, ते भगवता ब्याकता । तस्मा इमस्स वेय्याकरणस्स सक्कपञ्हात्वेव अधिवचनन्ति ।
सक्कपञ्हसुत्तं निहितं अट्ठमं।
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९. महासतिपट्ठानसुत्तं
३७२. एवं मे सुतं - एकं समयं भगवा कुरूसु विहरति कम्मासधम्मं नाम कुरूनं निगमो । तत्र खो भगवा भिक्खू आमन्तेसि - “भिक्खवो 'ति । “भद्दन्ते 'ति ते भिक्खू भगवतो पच्चस्सोसुं । भगवा एतदवोच -
उद्देसो
३७३.
" एकायनो अयं, भिक्खवे, मग्गो सत्तानं विसुद्धिया, सोकपरिदेवानं समतिक्कमाय दुक्खदोमनस्सानं अत्थङ्गमाय आयस्स अधिगमाय निब्बानस्स सच्छिकिरियाय, यदिदं चत्तारो सतिपट्ठाना ।
" कतमे चत्तारो ? इध, भिक्खवे, भिक्खु काये कायानुपस्सी विहरति आतापी सम्पजानो सतिमा विनेय्य लोके अभिज्झादोमनस्सं, वेदनासु वेदनानुपस्सी विहरति आतापी सम्पजानो सतिमा, विनेय्य लोके अभिज्झादोमनस्सं, चित्ते चित्तानुपस्सी विहरति आतापी सम्पजानो सतिमा विनेय्य लोके अभिज्झादोमनस्सं, धम्मेसु धम्मानुपस्सी विहरति आतापी सम्पजानो सतिमा विनेय्य लोके अभिज्झादोमनस्सं ।
उद्देो निति ।
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(२.९.३७४-३७४)
९. महासतिपट्टानसुत्तं
कायानुपस्सना आनापानपद
३७४. “कथञ्च पन, भिक्खवे, भिक्खु काये कायानुपस्सी विहरति ? इध, भिक्खवे, भिक्खु अरञ्जगतो वा रुक्खमूलगतो वा सुञागारगतो वा निसीदति पल्लङ्गं आभुजित्वा उजुं कायं पणिधाय परिमुखं सतिं उपट्ठपेत्वा। सो सतोव अस्ससति, सतोव पस्ससति । दीघं वा अस्ससन्तो 'दीर्घ अस्ससामी'ति पजानाति, दीर्घ वा पस्ससन्तो 'दीर्घ पस्ससामी'ति पजानाति । रस्सं वा अस्ससन्तो 'रस्सं अस्ससामी'ति पजानाति, रस्सं वा पस्ससन्तो 'रस्सं पस्ससामी'ति पजानाति । 'सब्बकायपटिसंवेदी अस्ससिस्सामी'ति सिक्खति, 'सब्बकायपटिसंवेदी पस्ससिस्सामी'ति सिक्खति । 'पस्सम्भयं कायसङ्खारं अस्ससिस्सामी'ति सिक्खति, ‘पस्सम्भयं कायसङ्घारं पस्ससिस्सामी'ति सिक्खति ।
“सेय्यथापि, भिक्खवे, दक्खो भमकारो वा भमकारन्तेवासी वा दीर्घ वा अञ्छन्तो 'दीघं अञ्छामी'ति पजानाति, रस्सं वा अञ्छन्तो 'रस्सं अञ्छामी'ति पजानाति । एवमेव खो, भिक्खवे, भिक्खु दीर्घ वा अस्ससन्तो ‘दीघं अस्ससामी'ति पजानाति, दीघं वा पस्ससन्तो 'दीघं पस्ससामी'ति पजानाति, रस्सं वा अस्ससन्तो 'रस्सं अस्ससामी'ति पजानाति, रस्सं वा पस्ससन्तो 'रस्सं पस्ससामी'ति पजानाति । 'सब्बकायपटिसंवेदी अस्ससिस्सामी'ति सिक्खति, ‘सब्बकायपटिसंवेदी पस्ससिस्सामी'ति सिक्खति, ‘पस्सम्भयं कायसङ्खारं अस्ससिस्सामी'ति सिक्खति, ‘पस्सम्भयं कायसङ्खारं पस्ससिस्सामी'ति सिक्खति । इति अज्झत्तं वा काये कायानुपस्सी विहरति, बहिद्धा वा काये कायानुपस्सी विहरति, अज्झत्तबहिद्धा वा काये कायानुपस्सी विहरति। समुदयधम्मानुपस्सी वा कायस्मिं विहरति, वयधम्मानुपस्सी वा कायस्मिं विहरति, समुदयवयधम्मानुपस्सी वा कायस्मिं विहरति । 'अस्थि कायोति वा पनस्स सति पच्चुपट्टिता होति यावदेव आणमत्ताय पटिस्सतिमत्ताय। अनिस्सितो च विहरति, न च किञ्चि लोके उपादियति। एवम्पि खो, भिक्खवे, भिक्खु काये कायानुपस्सी विहरति।
आनापानपब्बं निहितं ।
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दीघनिकायो-२
(२.९.३७५-३७६)
कायानुपस्सना इरियापथपब्बं
३७५. “पुन चपरं, भिक्खवे, भिक्खु गच्छन्तो वा 'गच्छामी'ति पजानाति, ठितो वा 'ठितोम्ही'ति पजानाति, निसिन्नो वा 'निसिन्नोम्ही ति पजानाति, सयानो वा 'सयानोम्ही'ति पजानाति, यथा यथा वा पनस्स कायो पणिहितो होति, तथा तथा नं पजानाति । इति अज्झत्तं वा काये कायानुपस्सी विहरति, बहिद्धा वा काये कायानुपस्सी विहरति, अज्झत्तबहिद्धा वा काये कायानुपस्सी विहरति । समुदयधम्मानुपस्सी वा कायस्मिं विहरति, वयधम्मानुपस्सी वा कायस्मिं विहरति, समुदयवयधम्मानुपस्सी वा कायस्मिं विहरति, 'अस्थि कायोति वा पनस्स सति पच्चुपट्ठिता होति । यावदेव आणमत्ताय पटिस्सतिमत्ताय अनिस्सितो च विहरति, न च किञ्चि लोके उपादियति। एवम्पि खो, भिक्खवे, भिक्खु काये कायानुपस्सी विहरति ।
इरियापथपब्बं निहितं ।
कायानुपस्सना सम्पजानपब्बं
३७६. "पुन चपरं, भिक्खवे, भिक्खु अभिक्कन्ते पटिक्कन्ते सम्पजानकारी होति, आलोकिते विलोकिते सम्पजानकारी होति, समिजिते पसारिते सम्पजानकारी होति, सङ्घाटिपत्तचीवरधारणे सम्पजानकारी होति, असिते पीते खायिते सायिते सम्पजानकारी होति, उच्चारपस्सावकम्मे सम्पजानकारी होति, गते ठिते निसिन्ने सुत्ते जागरिते भासिते तुण्हीभावे सम्पजानकारी होति। इति अज्झत्तं वा काये कायानुपस्सी विहरति, बहिद्धा वा काये कायानुपस्सी विहरति, अज्झत्तबहिद्धा वा काये कायानुपस्सी विहरति, समुदयधम्मानुपस्सी वा कायस्मिं विहरति, वयधम्मानुपस्सी वा कायस्मिं विहरति, समुदयवयधम्मानुपस्सी वा कायस्मिं विहरति, अत्थि कायोति वा पनस्स सति पच्चुपट्टिता होति । यावदेव आणमत्ताय पटिस्सतिमत्ताय अनिस्सितो च विहरति, न च किञ्चि लोके उपादियति। एवम्पि खो, भिक्खवे, भिक्खु काये कायानुपस्सी विहरति ।
सम्पजानपब्बं निहितं ।
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(२.९.३७७-३७८)
९. महासतिपट्ठानसुत्तं
२१७
कायानुपस्सना पटिकूलमनसिकारपबं ३७७. "पुन चपरं, भिक्खवे, भिक्खु इममेव कायं, उद्धं पादतला अधो केसमत्थका, तचपरियन्तं पूरं नानप्पकारस्स असुचिनो पच्चवेक्खति - ‘अत्थि इमस्मिं काये केसा लोमा नखा दन्ता तचो, मंसं न्हारु अट्ठि अट्ठिमिजं वक्कं, हदयं यकनं किलोमकं पिहकं पप्फासं, अन्तं अन्तगुणं उदरियं करीसं, पित्तं सेम्हं पुब्बो लोहितं सेदो मेदो, अस्सु बसा खेळो सिङ्घाणिका लसिका मुत्त'न्ति ।
"सेय्यथापि, भिक्खवे, उभतोमुखा पुतोळि पूरा नानाविहितस्स धञस्स, सेय्यथिदं सालीनं वीहीनं मुग्गानं मासानं तिलानं तण्डुलानं । तमेनं चक्खुमा पुरिसो मुञ्चित्वा पच्चवेक्खेय्य - ‘इमे साली, इमे वीही इमे मुग्गा इमे मासा इमे तिला इमे तण्डुला'ति । एवमेव खो, भिक्खवे, भिक्खु इममेव कायं उद्धं पादतला अधो केसमत्थका तचपरियन्तं पूरं नानप्पकारस्स असुचिनो पच्चवेक्खति - ‘अत्थि इमस्मिं काये केसा लोमा...पे०... मुत्त'न्ति ।
__इति अज्झत्तं वा काये कायानुपस्सी विहरति, बहिद्धा वा काये कायानुपस्सी विहरति, अज्झत्तबहिद्धा वा काये कायानुपस्सी विहरति, समुदयधम्मानुपस्सी वा कायस्मिं विहरति, वयधम्मानुपस्सी वा कायस्मिं विहरति, समुदयवयधम्मानुपस्सी वा कायस्मिं विहरति, अस्थि कायोति वा पनस्स सति पच्चुपट्ठिता होति । यावदेव जाणमत्ताय पटिस्सतिमत्ताय अनिस्सितो च विहरति, न च किञ्चि लोके - उपादियति। एवम्पि खो, भिक्खवे, भिक्खु काये कायानुपस्सी विहरति ।
पटिकूलमनसिकारपब्बं निहितं ।
कायानुपस्सना धातुमनसिकारपब्बं ३७८. “पुन चपरं, भिक्खवे, भिक्खु इममेव कायं यथाठितं यथापणिहितं धातुसो पच्चवेखति - ‘अत्थि इमस्मिं काये पथवीधातु आपोधातु तेजोधातु वायोधातू'ति ।
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दीघनिकायो-२
(२.९.३७९-३७९)
"सेय्यथापि, भिक्खवे, दक्खो गोघातको वा गोघातकन्तेवासी वा गाविं वधित्वा चतुमहापथे बिलसो विभजित्वा निसिन्नो अस्स । एवमेव खो, भिक्खवे, भिक्खु इममेव कायं यथाठितं यथापणिहितं धातुसो पच्चवेक्खति-- ‘अत्थि इमस्मिं काये पथवीधातु आपोधातु तेजोधातु वायोधातू'ति ।
इति अज्झत्तं वा काये कायानुपस्सी विहरति, बहिद्धा वा काये कायानुपस्सी विहरति, अज्झत्तबहिद्धा वा काये कायानुपस्सी विहरति, समुदयधम्मानुपस्सी वा कायस्मिं विहरति, वयधम्मानुपस्सी वा कायस्मिं विहरति, समुदयवयधम्मानुपस्सी वा कायस्मिं विहरति, अत्थि कायोति वा पनस्स सति पच्चुपट्टिता होति। यावदेव जाणमत्ताय पटिस्सतिमत्ताय अनिस्सितो च विहरति, न च किञ्चि लोके उपादियति। एवम्पि खो, भिक्खवे, भिक्खु काये कायानुपस्सी विहरति ।
धातुमनसिकारपब्बं निहितं ।
कायानुपस्सना नवसिवथिकपब्बं ३७९. “पुन चपरं, भिक्खवे, भिक्खु सेय्यथापि पस्सेय्य सरीरं सिवथिकाय छड्डितं एकाहमतं वा द्वीहमतं वा तीहमतं वा उद्घमातकं विनीलकं विपुब्बकजातं । सो इममेव कायं उपसंहरति – 'अयम्पि खो कायो एवंधम्मो एवंभावी एवंअनतीतो'ति ।
इति अज्झत्तं वा काये कायानुपस्सी विहरति, बहिद्धा वा काये कायानुपस्सी विहरति, अज्झत्तबहिद्धा वा काये कायानुपस्सी विहरति, समुदयधम्मानुपस्सी वा कायस्मिं विहरति, वयधम्मानुपस्सी वा कायस्मिं विहरति, समुदयवयधम्मानुपस्सी वा कायस्मिं विहरति, अत्थि कायोति वा पनस्स सति पच्चुपट्ठिता होति । यावदेव आणमत्ताय पटिस्सतिमत्ताय अनिस्सितो च विहरति, न च किञ्चि लोके उपादियति। एवम्पि खो, भिक्खवे, भिक्खु काये कायानुपस्सी विहरति ।
'पुन चपरं, भिक्खवे, भिक्खु सेय्यथापि पस्सेय्य सरीरं सिवथिकाय छड्डितं काकेहि
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(२.९.३७९-३७९)
९. महासतिपट्टानसुत्तं
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वा खज्जमानं कुललेहि वा खज्जमान गिज्झेहि वा खज्जमानं कङ्केहि वा खज्जमानं सुनखेहि वा खज्जमानं ब्यग्घेहि वा खज्जमानं दीपीहि वा खज्जमानं सिङ्गालेहि वा खज्जमानं विविधेहि वा पाणकजातेहि खज्जमानं । सो इममेव कायं उपसंहरति'अयम्पि खो कायो एवंधम्मो एवंभावी एवंअनतीतो'ति ।
इति अज्झत्तं वा काये कायानुपस्सी विहरति, बहिद्धा वा काये कायानुपस्सी विहरति, अज्झत्तबहिद्धा वा काये कायानुपस्सी विहरति, समुदयधम्मानुपस्सी वा कायस्मिं विहरति, वयधम्मानुपस्सी वा कायस्मिं विहरति, समुदयवयधम्मानुपस्सी वा कायस्मिं विहरति, अस्थि कायोति वा पनस्स सति पच्चुपट्टिता होति । यावदेव आणमत्ताय पटिस्सतिमत्ताय अनिस्सितो च विहरति, न च किञ्चि लोके उपादियति। एवम्पि खो, भिक्खवे, भिक्खु काये कायानुपस्सी विहरति ।
“पुन चपरं, भिक्खवे, भिक्खु सेय्यथापि पस्सेय्य सरीरं सिवथिकाय छड्डितं अट्ठिकसङ्खलिकं समंसलोहितं न्हारुसम्बन्धं...पे०... अट्ठिकसङ्खलिकं निमंसलोहितमक्खितं न्हारुसम्बन्धं...पे०... अट्ठिकसङ्खलिकं अपगतमंसलोहितं न्हारुसम्बन्धं...पे०... अद्विकानि अपगतसम्बन्धानि दिसा विदिसा विक्खित्तानि, अञ्जेन हत्थट्टिकं अञ्जन पादट्टिकं अञ्जन गोप्फकट्टिकं अञ्जेन जङ्घट्टिकं अञ्जेन ऊरुट्टिकं अञ्जेन कटिट्टिकं अञ्जन फासुकट्टिकं अनेन पिटिट्ठिकं अञ्जन खन्धद्विकं अञ्जन गीवट्ठिकं अञ्जेन हनुकट्टिकं अञ्चेन दन्तट्टिकं अञ्जेन सीसकटाहं । सो इममेव कायं उपसंहरति- 'अयम्पि खो कायो एवंधम्मो एवंभावी एवंअनतीतो'ति ।
___ इति अज्झत्तं वा काये कायानुपस्सी विहरति, बहिद्धा वा काये कायानुपस्सी विहरति, अज्झत्तबहिद्धा वा काये कायानुपस्सी विहरति, समुदयधम्मानुपस्सी वा कायस्मिं विहरति, वयधम्मानुपस्सी वा कायस्मिं विहरति, समुदयवयधम्मानुपस्सी वा कायस्मिं विहरति, अत्थि कायोति वा पनस्स सति पच्चुपट्टिता होति । यावदेव जाणमत्ताय पटिस्सतिमत्ताय अनिस्सितो च विहरति, न च किञ्चि लोके उपादियति। एवम्पि खो, भिक्खवे, भिक्खु काये कायानुपस्सी विहरति ।
"पुन चपरं, भिक्खवे, भिक्खु सेय्यथापि पस्सेय्य सरीरं सिवथिकाय छड्डितं अट्टिकानि सेतानि सङ्खवण्णपटिभागानि...पे०... अट्टिकानि पुञ्जकितानि
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२२०
दीघनिकायो-२
तेरोवस्सिकानि...पे०... अट्ठिकानि पूतीनि चुण्णकजातानि । सो इममेव कायं उपसंहरति – ‘अयम्पि खो कायो एवंधम्मो एवंभावी एवंअनतीतो 'ति । इति अज्झत्तं वा का कायानुपस्सी विहरति, बहिद्धा वा काये कायानुपस्सी विहरति, अज्झत्तबहिद्धा वा काये कायानुपस्सी विहरति । समुदयधम्मानुपस्सी वा कायस्मिं विहरति, वयधम्मानुपस्सी वा कायस्मिं विहरति, समुदयवयधम्मानुपस्सी वा कायस्मिं विहरति, 'अत्थि कायो 'ति वा पनस्स सति पच्चुपट्ठिता होति । यावदेव आणमत्ताय पटिस्सतिमत्ताय । अनिस्सितो च विहरति, न च किञ्चि लोके उपादियति । एवम्पि खो, भिक्खवे, भिक्खु काये कायानुपस्सी विहरति ।
नवसिवधिकपब्बं निट्ठितं ।
चुद्दस कायानुपस्सना निट्ठिता ।
वेदनानुपस्सना
३८०. " कथञ्च पन, भिक्खवे, भिक्खु वेदनासु वेदनानुपस्सी विहरति ? इध, भिक्खवे, भिक्खु सुखं वा वेदनं वेदयमानो 'सुखं वेदनं वेदयामी'ति जानाति । दुक्खं वा वेदनं वेदयमानो दुक्खं वेदनं वेदयामी'ति पजानाति । अदुक्खमसुखं वा वेदनं वेदयमानो 'अदुक्खमसुखं वेदनं वेदयामी'ति पजानाति । सामिसं वा सुखं वेदनं वेदयमानो 'सामिसं सुखं वेदनं वेदयामी'ति पजानाति । निरामिसं वा सुखं वेदनं वेदयमानो 'निरामिसं सुखं वेदनं वेदयामी'ति जानाति; सामिसं वा दुक्खं वेदनं वेदयमानो 'सामिसं दुक्खं वेदनं वेदयामी' ति पजानाति, निरामिसं वा दुक्खं वेदनं वेदयमानो 'निरामिसं दुक्खं वेदनं वेदयामी'ति पजानाति सामिसं वा अदुक्खमसुखं वेदनं वेदयमानो 'सामिसं अदुक्खमसुखं वेदनं वेदयामी'ति पजानाति, निरामिसं वा अदुक्खमसुखं वेदनं वेदयमानो 'निरामिसं अदुक्खमसुखं वेदनं वेदयामी'ति जानाति । इति अज्झत्तं वा वेदनासु वेदनानुपस्सी विहरति, बहिद्धा वा वेदनासु वेदनानुपस्सी विहरति, अज्झत्तबहिद्धा वा वेदनासु वेदनानुपस्सी विहरति । समुदयधम्मानुपस्सी वा वेदनासु विहरति, वयधम्मानुपस्सी वा वेदनासु विहरति, समुदयवयधम्मानुपस्सी वा वेदनासु विहरति, 'अत्थि वेदना'ति वा पनस्स सति पच्चुपट्ठिता
(२.९.३८०-३८०)
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९. महासतिपट्ठानसुत्तं
होति यावदेव आणमत्ताय पटिस्सतिमत्ताय । अनिस्सितो च विहरति, न च किञ्चि लोके उपादयति । एवम्पि खो, भिक्खवे, भिक्खु वेदनासु वेदनानुपस्सी विहरति ।
वेदनानुपस्सना निट्ठिता ।
(२.९.३८१-३८१)
चित्तानुपस्सना
३८१. “कथञ्च पन, भिक्खवे, भिक्खु चित्ते चित्तानुपस्सी विहरति ? इध, भिक्खवे, भिक्खु सरागं वा चित्तं ' सरागं चित्त न्ति पजानाति । वीतरागं वा चित्तं ' वीतरागं चित्त 'न्ति पजानाति । सदोसं वा चित्तं 'सदोसं चित्त 'न्ति पजानाति, वीतदोसं वा चित्तं 'वीतदोसं चित्त 'न्ति पजानाति । समोहं वा चित्तं ' समोहं चित्त 'न्ति पजानाति, वीतमोहं वा चित्तं ' वीतमोहं चित्त'न्ति पजानाति । सङ्घित्तं वा चित्तं 'सङ्घित्तं चित्त'न्ति पजानाति, विक्खित्तं वा चित्तं 'विक्खित्तं चित्त'न्ति पजानाति । महग्गतं वा चित्तं 'महग्गतं चित्त 'न्ति पजानाति, अमहग्गतं वा चित्तं ' अमहग्गतं चित्त'न्ति पजानाति । सउत्तरं वा चित्तं ‘सउत्तरं चित्तन्ति पजानाति, अनुत्तरं वा चित्तं 'अनुत्तरं चित्त 'न्ति पजानाति । समाहितं वा चित्तं 'समाहितं चित्तन्ति पजानाति, असमाहितं वा चित्तं 'असमाहितं चित्त 'न्ति पजानाति । विमुत्तं वा चित्तं 'विमुत्तं चित्तन्ति पजानाति । अविमुत्तं वा चित्तं 'अविमुत्तं चित्तन्ति पजानाति । इति अज्झत्तं वा चित्ते चित्तानुपस्सी विहरति, बहिद्धा वा चित्ते चित्तानुपस्सी विहरति, अज्झत्तबहिद्धा वा चित्ते चित्तानुपस्सी विहरति । समुदयधम्मानुपस्सी वा चित्तस्मिं विहरति, वयधम्मानुपस्सी वा चित्तस्मिं विहरति, समुदयवयधम्मानुपस्सी वा चित्तस्मिं विहरति । 'अत्थि चित्त'न्ति वा पनस्स सति होति यावदेव आणमत्ताय पटिस्सतिमत्ताय । अनिस्सितो च विहरति, न च किञ्चि लोके उपादयति । एवम्पि खो, भिक्खवे, भिक्खु चित्ते चित्तानुपस्सी विहरति ।
चित्तानुपस्सना निट्ठिता ।
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२२१
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२२२
दीघनिकायो-२
(२.९.३८२-३८२)
धम्मानुपस्सना नीवरणपब्बं
३८२. “कथञ्च पन, भिक्खवे, भिक्खु धम्मेसु धम्मानुपस्सी विहरति ? इध, भिक्खवे, भिक्खु धम्मेसु धम्मानुपस्सी विहरति पञ्चसु नीवरणेसु । कथञ्च पन, भिक्खवे, भिक्खु धम्मेसु धम्मानुपस्सी विहरति - पञ्चसु नीवरणेसु ?
“इध, भिक्खवे, भिक्खु सन्तं वा अज्झत्तं कामच्छन्दं 'अस्थि मे अज्झत्तं कामच्छन्दोति पजानाति, असन्तं वा अज्झत्तं कामच्छन्दं 'नत्थि मे अज्झत्तं कामच्छन्दो'ति पजानाति. यथा च अनप्पन्नस्स कामच्छन्दस्स उप्पादो होति तञ्च पजानाति, यथा च उप्पन्नस्स कामच्छन्दस्स पहानं होति तञ्च पजानाति, यथा च पहीनस्स कामच्छन्दस्स आयतिं अनुप्पादो होति तञ्च पजानाति ।
“सन्तं वा अज्झत्तं ब्यापादं ‘अस्थि मे अज्झत्तं ब्यापादो'ति पजानाति, असन्तं वा अज्झत्तं ब्यापादं 'नत्थि मे अज्झत्तं ब्यापादो'ति पजानाति, यथा च अनुप्पन्नस्स ब्यापादस्स उप्पादो होति तञ्च पजानाति, यथा च उप्पन्नस्स ब्यापादस्स पहानं होति तञ्च पजानाति, यथा च पहीनस्स ब्यापादस्स आयतिं अनुप्पादो होति तञ्च पजानाति ।
__“सन्तं वा अज्झत्तं थिनमिद्धं 'अस्थि मे अज्झत्तं थिनमिद्धन्ति पजानाति, असन्तं वा अज्झत्तं थिनमिद्धं 'नत्थि मे अज्झत्तं थिनमिद्धन्ति पजानाति, यथा च अनुप्पन्नस्स थिनमिद्धस्स उप्पादो होति तञ्च पजानाति, यथा च उप्पन्नस्स थिनमिद्धस्स पहानं होति तञ्च पजानाति, यथा च पहीनस्स थिनमिद्धस्स आयतिं अनुप्पादो होति तञ्च पजानाति ।
“सन्तं वा अज्झत्तं उद्धच्चकुक्कुच्चं ‘अत्थि मे अज्झत्तं उद्धच्चकुक्कुच्चन्ति पजानाति, असन्तं वा अज्झत्तं उद्धच्चकुक्कुच्चं 'नत्थि मे अज्झत्तं उद्धच्चकुक्कुच्च'न्ति पजानाति, यथा च अनुप्पन्नस्स उद्धच्चकुक्कुच्चस्स उप्पादो होति तञ्च पजानाति, यथा च उप्पन्नस्स उद्धच्चकुक्कुच्चस्स पहानं होति तञ्च पजानाति, यथा च पहीनस्स उद्धच्चकुक्कुच्चस्स आयतिं अनुप्पादो होति तञ्च पजानाति ।
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९. महासतिपट्ठानत्तं
" सन्तं वा अज्झत्तं विचिकिच्छं 'अत्थि मे अज्झत्तं विचिकिच्छा' ति पजानाति, असन्तं वा अज्झत्तं विचिकिच्छं 'नत्थि मे अज्झत्तं विचिकिच्छा' ति पजानाति, यथा च अनुप्पन्नाय विचिकिच्छाय उप्पादो होति तञ्च पजानाति, यथा च उप्पन्नाय विचिकिच्छाय पानं होति तञ्च जानाति, यथा च पहीनाय विचिकिच्छाय आयतिं अनुप्पादो होति तञ्च पजानाति ।
(२.९.३८३-३८३)
इति अज्झत्तं वा धम्मेसु धम्मानुपस्सी विहरति, बहिद्धा वा धम्मेसु धम्मानुपस्सी विहरति, अज्झत्तबहिद्धा वा धम्मेसु धम्मानुपस्सी विहरति । समुदयधम्मानुपस्सी वा धम्मेसु विहरति, वयधम्मानुपस्सी वा धम्मेसु विहरति, समुदयवयधम्मानुपस्सी वा धम्मेसु विहरति । 'अत्थि धम्मा'ति वा पनस्स सति पच्चुपट्ठिता होति यावदेव आणमत्ताय पटिस्सतिमत्ताय । अनिस्सितो च विहरति, न च किञ्चि लोके उपादियति । एवम्पि खो, भिक्खवे, भिक्खु धम्मेसु धम्मानुपस्सी विहरति पञ्चसु नीवरणेसु ।
नीवरणपब्बं निट्ठितं ।
धम्मानुपस्सना खन्धपब्बं
३८३. “पुन चपरं, भिक्खवे, भिक्खु धम्मेसु धम्मानुपस्सी विहरति पञ्चसु उपादानक्खन्धेसु । कथञ्च पन, भिक्खवे, भिक्खु धम्मेसु धम्मानुपस्सी विहरति पञ्चसु उपादानक्खन्धेसु ? इध, भिक्खवे, भिक्खु– ' इति रूपं, इति रूपस्स समुदयो, इति रूपस्स अत्थङ्गमो, इति वेदना, इति वेदनाय समुदयो, इति वेदनाय अत्थङ्गमो, इति सञ्ञ, इति सञ्ञाय समुदयो, इति सञ्ञाय अत्थङ्गमो, इति सङ्घारा, इति सङ्घारानं समुदयो, इति सङ्घारानं अत्थङ्गमो, इति विञ्ञाणं, इति विञ्ञाणस्स समुदयो, इति विञ्ञाणस्स अत्थङ्गमो 'ति, इति अज्झत्तं वा धम्मेसु धम्मानुपस्सी विहरति, बहिद्धा वा धम्मेसु धम्मानुपस्सी विहरति, अज्झत्तबहिद्धा वा धम्मेसु धम्मानुपस्सी विहरति । समुदयधमनुप धम्मेसु विहरति, वयधम्मानुपस्सी वा धम्मेसु विहरति, समुदयवयधम्मानुपस्सी वा धम्मेसु विहरति, 'अस्थि धम्मा'ति वा पनस्स सति पच्चुपट्ठिता होति । यावदेव आणमत्ताय पटिस्सतिमत्ताय, अनिस्सितो च विहरति, न च किञ्चि लोके
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२२४
दीघनिकायो-२
(२.९.३८४-३८४)
उपादियति। एवम्पि खो, भिक्खवे, भिक्खु धम्मेसु धम्मानुपस्सी विहरति पञ्चसु उपादानक्खन्धेसु ।
खन्धपब्बं निहितं ।
धम्मानुपस्सना आयतनपढ़
३८४. “पुन चपरं, भिक्खवे, भिक्खु धम्मेसु धम्मानुपस्सी विहरति छसु अज्झत्तिकबाहिरेसु आयतनेसु । कथञ्च पन, भिक्खवे, भिक्खु धम्मेसु धम्मानुपस्सी विहरति छसु अज्झत्तिकबाहिरेसु आयतनेसु ?
"इध, भिक्खवे, भिक्खु चक्खुञ्च पजानाति, रूपे च पजानाति, यञ्च तदुभयं पटिच्च उप्पज्जति संयोजनं तञ्च पजानाति, यथा च अनुप्पन्नस्स संयोजनस्स उप्पादो होति तञ्च पजानाति, यथा च उप्पन्नस्स संयोजनस्स पहानं होति तञ्च पजानाति, यथा च पहीनस्स संयोजनस्स आयतिं अनुप्पादो होति तञ्च पजानाति ।
__“सोतञ्च पजानाति, सद्दे च पजानाति, यञ्च तदुभयं पटिच्च उप्पज्जति संयोजन तञ्च पजानाति, यथा च अनुप्पन्नस्स संयोजनस्स उप्पादो होति तञ्च पजानाति, यथा च उप्पन्नस्स संयोजनस्स पहानं होति तञ्च पजानाति, यथा च पहीनस्स संयोजनस्स आयतिं अनुप्पादो होति तञ्च पजानाति ।
"घानञ्च पजानाति, गन्धे च पजानाति, यञ्च तदुभयं पटिच्च उप्पज्जति संयोजन तञ्च पजानाति, यथा च अनुप्पन्नस्स संयोजनस्स उप्पादो होति तञ्च पजानाति, यथा च उप्पन्नस्स संयोजनस्स पहानं होति तञ्च पजानाति, यथा च पहीनस्स संयोजनस्स आयतिं अनुप्पादो होति तञ्च पजानाति ।
“जिव्हञ्च पजानाति, रसे च पजानाति, यञ्च तदुभयं पटिच्च उप्पज्जति संयोजनं तञ्च पजानाति, यथा च अनुप्पन्नस्स संयोजनस्स उप्पादो होति तञ्च
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________________
(२.९.३८५-३८५)
९. महासतिपट्ठानसुत्तं
२२५
पजानाति, यथा च उप्पन्नस्स संयोजनस्स पहानं होति तञ्च पजानाति, यथा च पहीनस्स संयोजनस्स आयतिं अनुप्पादो होति तञ्च पजानाति ।
“कायञ्च पजानाति, फोटब्बे च पजानाति, यञ्च तदुभयं पटिच्च उप्पज्जति संयोजनं तञ्च पजानाति, यथा च अनुप्पन्नस्स संयोजनस्स उप्पादो होति तञ्च पजानाति, यथा च उप्पन्नस्स संयोजनस्स पहानं होति तञ्च पजानाति, यथा च पहीनस्स संयोजनस्स आयतिं अनुप्पादो होति तञ्च पजानाति ।
“मनञ्च पजानाति, धम्मे च पजानाति, यञ्च तदुभयं पटिच्च उप्पज्जति संयोजन तञ्च पजानाति, यथा च अनुप्पन्नस्स संयोजनस्स उप्पादो होति तञ्च पजानाति, यथा च उप्पन्नस्स संयोजनस्स पहानं होति तञ्च पजानाति, यथा च पहीनस्स संयोजनस्स आयतिं अनुप्पादो होति तञ्च पजानाति ।।
“इति अज्झत्तं वा धम्मेसु धम्मानुपस्सी विहरति, बहिद्धा वा धम्मेसु धम्मानुपस्सी विहरति, अज्झत्तबहिद्धा वा धम्मेसु धम्मानुपस्सी विहरति । समुदयधम्मानुपस्सी वा धम्मेसु विहरति, वयधम्मानुपस्सी वा धम्मेसु विहरति, समुदयवयधम्मानुपस्सी वा धम्मेसु विहरति । ‘अस्थि धम्मा'ति वा पनस्स सति पच्युपट्ठिता होति । यावदेव आणमत्ताय पटिस्सतिमत्ताय, अनिस्सितो च विहरति न च किञ्चि लोके उपादियति। एवम्पि खो, भिक्खवे, भिक्खु धम्मेसु धम्मानुपस्सी विहरति छसु अज्झत्तिकबाहिरेसु आयतनेसु ।
आयतनपब्बं निहितं ।
धम्मानुपस्सना बोज्झङ्गपद
३८५. "पुन चपरं, भिक्खवे, भिक्खु धम्मेसु धम्मानुपस्सी विहरति सत्तसु बोज्झङ्गेसु । कथञ्च पन, भिक्खवे, भिक्खु धम्मेसु धम्मानुपस्सी विहरति सत्तसु बोज्झङ्गेसु ? इध, भिक्खवे, भिक्खु सन्तं वा अज्झत्तं सतिसम्बोज्झङ्गं ‘अस्थि मे अज्झत्तं सतिसम्बोज्झङ्गो 'ति पजानाति, असन्तं वा अज्झत्तं सतिसम्बोज्झङ्गं 'नत्थि मे अज्झत्तं
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२२६
दीघनिकायो-२
(२.९.३८५-३८५)
सतिसम्बोज्झङ्गो'ति पजानाति, यथा च अनुप्पन्नस्स सतिसम्बोज्झङ्गस्स उप्पादो होति तञ्च पजानाति, यथा च उप्पन्नस्स सतिसम्बोज्झङ्गस्स भावनाय पारिपूरी होति तञ्च पजानाति ।
“सन्तं वा अज्झत्तं धम्मविचयसम्बोज्झङ्गं ‘अस्थि मे अज्झत्तं धम्मविचयसम्बोज्झङ्गो'ति पजानाति, असन्तं वा अज्झत्तं धम्मविचयसम्बोज्झङ्गं 'नत्थि मे अज्झत्तं धम्मविचयसम्बोज्झङ्गो'ति पजानाति, यथा च अनुप्पन्नस्स धम्मविचयसम्बोज्झङ्गस्स उप्पादो होति तञ्च पजानाति, यथा च उप्पन्नस्स धम्मविचयसम्बोज्झङ्गस्स भावनाय पारिपूरी होति तञ्च पजानाति ।
“सन्तं वा अज्झत्तं वीरियसम्बोज्झङ्गं ‘अत्थि मे अज्झत्तं वीरियसम्बोज्झङ्गो 'ति पजानाति, असन्तं वा अज्झत्तं वीरियसम्बोज्झङ्गं 'नत्थि मे अज्झत्तं वीरियसम्बोज्झङ्गो'ति पजानाति, यथा च अनुप्पन्नस्स वीरियसम्बोज्झङ्गस्स उप्पादो होति तञ्च पजानाति, यथा च उप्पन्नस्स वीरियसम्बोज्झङ्गस्स भावनाय पारिपूरी होति तञ्च पजानाति ।
"सन्तं वा अज्झत्तं पीतिसम्बोज्झङ्गं ‘अत्थि मे अज्झत्तं पीतिसम्बोज्झङ्गो ति पजानाति, असन्तं वा अज्झत्तं पीतिसम्बोज्झङ्गं 'नस्थि मे अज्झत्तं पीतिसम्बोज्झङ्गो 'ति पजानाति, यथा च अनुप्पन्नस्स पीतिसम्बोज्झङ्गस्स उप्पादो होति तञ्च पजानाति, यथा च उप्पन्नस्स पीतिसम्बोज्झङ्गस्स भावनाय पारिपूरी होति तञ्च पजानाति ।
"सन्तं वा अज्झत्तं पस्सद्धिसम्बोज्झङ्गं ‘अत्थि मे अज्झत्तं पस्सद्धिसम्बोज्झङ्गो 'ति पजानाति, असन्तं वा अज्झत्तं पस्सद्धिसम्बोज्झङ्गं 'नत्थि मे अज्झत्तं पस्सद्धिसम्बोज्झङ्गो 'ति पजानाति, यथा च अनुप्पन्नस्स पस्सद्धिसम्बोज्झङ्गस्स उप्पादो होति तञ्च पजानाति, यथा च उप्पन्नस्स पस्सद्धिसम्बोज्झङ्गस्स भावनाय पारिपूरी होति तञ्च पजानाति ।
“सन्तं वा अज्झत्तं समाधिसम्बोज्झङ्गं 'अस्थि मे अज्झत्तं समाधिसम्बोज्झङ्गो'ति पजानाति, असन्तं वा अज्झत्तं समाधिसम्बोज्झङ्गं 'नत्थि मे अज्झत्तं समाधिसम्बोज्झङ्गो 'ति पजानाति, यथा च अनुप्पन्नस्स समाधिसम्बोज्झङ्गस्स उप्पादो होति तञ्च पजानाति, यथा च उप्पन्नस्स समाधिसम्बोज्झङ्गस्स भावनाय पारिपूरी होति तञ्च पजानाति ।
“सन्तं वा अज्झत्तं उपेक्खासम्बोज्झङ्गं ‘अस्थि मे अज्झत्तं उपेक्खासम्बोज्झङ्गो'ति
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(२.९.३८६-३८६)
९. महासतिपट्ठानसुत्तं
२२७
पजानाति, असन्तं वा अज्झत्तं उपेक्खासम्बोज्झङ्गं 'नथि मे अज्झत्तं उपेक्खासम्बोज्झङ्गो'ति पजानाति, यथा च अनुप्पन्नस्स उपेक्खासम्बोज्झङ्गस्स उप्पादो होति तञ्च पजानाति, यथा च उप्पन्नस्स उपेक्खासम्बोज्झङ्गस्स भावनाय पारिपूरी होति तञ्च पजानाति ।
“इति अज्झत्तं वा धम्मेसु धम्मानुपस्सी विहरति, 'बहिद्धा वा धम्मेसु धम्मानुपस्सी विहरति, अज्झत्तबहिद्धा वा धम्मेसु धम्मानुपस्सी विहरति । समुदयधम्मानुपस्सी वा धम्मेसु विहरति, वयधम्मानुपस्सी वा धम्मेसु विहरति, समुदयवयधम्मानुपस्सी वा धम्मेसु विहरति । 'अत्थि धम्मा'ति वा पनस्स सति पच्युपट्टिता होति । यावदेव जाणमत्ताय पटिस्सतिमत्ताय अनिस्सितो च विहरति, न च किञ्चि लोके उपादियति। एवम्पि खो, भिक्खवे, भिक्खु धम्मेसु धम्मानुपस्सी विहरति सत्तसु बोज्झङ्गेसु ।
बोज्झङ्गपब्बं निहितं।
धम्मानुपस्सना सच्चपब्बं
३८६. “पुन चपरं, भिक्खवे, भिक्खु धम्मेसु धम्मानुपस्सी विहरति चतूसु अरियसच्चेसु । कथञ्च पन, भिक्खवे, भिक्खु धम्मेसु धम्मानुपस्सी विहरति चतूसु अरियसच्चेसु ? इध, भिक्खवे, भिक्खु 'इदं दुक्ख'न्ति यथाभूतं पजानाति, 'अयं दुक्खसमुदयो'ति यथाभूतं पजानाति, 'अयं दुक्खनिरोधोति यथाभूतं पजानाति, 'अयं दुक्खनिरोधगामिनी पटिपदा'ति यथाभूतं पजानाति ।
पठमभाणवारो निहितो ।
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२२८
दीघनिकायो-२
दुक्खसच्चनिद्देसो
३८७. “कतमञ्च, भिक्खवे, दुक्खं अरियसच्चं ? जातिपि दुक्खा, जरापि दुक्खा, मरणम्पि दुक्खं, सोकपरिदेवदुक्खदोमनस्सुपायासापि दुक्खा, अप्पियेहि सम्पयोगोपि दुक्खो, पियेहि विप्पयोगोपि दुक्खो, यम्पिच्छं न लभति तम्पि दुक्खं, सङ्घित्तेन पञ्चुपादानक्खन्धा दुक्खा ।
(२.९.३८७-३९३)
३८८. “कतमा च, भिक्खवे, जाति ? या तेसं ते सत्तानं तम्हि तम्हि सत्तनिकाये जाति सञ्जाति ओक्कन्ति अभिनिब्बत्ति खन्धानं पातुभावो आयतनानं पटिलाभो, अयं वुच्चति, भिक्खवे, जाति ।
३८९. “कतमा च भिक्खवे, जरा ? या तेसं ते सत्तानं तम्हि तम्हि सत्तनिकाये जरा जीरणता खण्डिच्चं पालिच्चं वलित्तचता आयुनो संहानि इन्द्रियानं परिपाको, अयं वुच्चति भिक्खवे, जरा ।
३९०. "कतमञ्च, भिक्खवे, मरणं ? यं तेसं ते सत्तानं तम्हा तम्हा सत्तनिकाया चुति चवनता भेदो अन्तरधानं मच्चु मरणं कालकिरिया खन्धानं भेदो कळेवरस्स निक्खेपो जीवितिन्द्रियस्सुपच्छेदो, इदं वुच्चति, भिक्खवे, मरणं ।
३९१. “ कतमो च, भिक्खवे, सोको ? यो खो, भिक्खवे, अञ्ञतरञ्ञतरेन ब्यसनेन समन्नागतस्स अञ्ञतरञ्ञतरेन दुक्खधम्मेन फुट्ठस्स सोको सोचना सोचितत्तं अन्तोसोको अन्तोपरिसोको, अयं वुच्चति, भिक्खवे, सोको ।
३९२. “ कतमो च, भिक्खवे, परिदेवो ? यो खो, भिक्खवे, अञ्ञतरञतरेन ब्यसनेन समन्नागतस्स अञ्ञतरञतरेन दुक्खधम्मेन फुट्ठस्स आदेवो परिदेवो आदेवना परिदेवना आदेवितत्तं परिदेवितत्तं, अयं वुच्चति, भिक्खवे परिदेवो ।
३९३. “कतमञ्च, भिक्खवे, दुक्खं ? यं खो, भिक्खवे, कायिकं दुक्खं कायिकं असातं कायसम्फस्सजं दुक्खं असातं वेदयितं इदं वुच्चति, भिक्खवे, दुक्खं ।
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९. महासतिपट्ठानत्तं
३९४.
'कतमञ्च, भिक्खवे, दोमनस्सं ? यं खो, भिक्खवे, चेतसिकं दुक्खं चेतसिकं असतं मनोसम्फस्सजं दुक्खं असातं वेदयितं इदं वुच्चति, भिक्खवे, दोमनस्सं ।
(२.९.३९४-३९८)
३९५. “ कतमो च, भिक्खवे, उपायासो ? यो खो, भिक्खवे, अञ्ञतरञ्ञतरेन ब्यसनेन समन्नागतस्स अञ्ञतरञतरेन दुक्खधम्मेन फुट्ठस्स आयासो उपायासो आयासितत्तं उपायासितत्तं, अयं वुच्चति, भिक्खवे, उपायासो ।
३९६. “कतमो च, भिक्खवे, अप्पियेहि सम्पयोगो दुक्खो ? इध यस्स ते होत अनिट्ठा अकन्ता अमनापा रूपा सद्दा गन्धा रसा फोटुब्बा धम्मा, ये वा पनस्स ते होन्ति अनत्थकामा अहितकामा अफासुककामा अयोगक्खेमकामा, या तेहि सद्धिं सङ्गति समागमो समोधानं मिस्सीभावो; अयं वुच्चति, भिक्खवे, अप्पियेहि सम्पयोगो दुक्खो ।
२२९
३९७. “कतमो च, भिक्खवे, पियेहि विप्पयोगो दुक्खो ? इध यस्स ते हन्ति इट्ठा कन्ता मनापा रूपा सद्दा गन्धा रसा फोट्टब्बा धम्मा, ये वा पनस्स ते होन्ति अत्थकामा हितकामा फासुककामा योगक्खेमकामा माता वा पिता वा भाता वा भगिनी वा मित्ता वा अमच्चा वा जातिसालोहिता वा, या तेहि सद्धिं असङ्गति असमागमो असमोधानं अमिस्सीभावो अयं वुच्चति, भिक्खवे, पियेहि विप्पयोगो दुक्खो ।
३९८. “कतमञ्च, भिक्खवे, यम्पिच्छं न लभति तम्पि दुक्खं ? जातिधम्मानं भिक्खवे, सत्तानं एवं इच्छा उप्पज्जति 'अहो वत मयं न जातिधम्मा अस्साम, न च वत नो जाति आगच्छेय्या'ति । न खो पनेतं इच्छाय पत्तब्बं, इदम्पि यम्पिच्छं न लभति तम्पि दुक्खं । जराधम्मानं, भिक्खवे, सत्तानं एवं इच्छा उप्पज्जति - 'अहो वत मयं न जराधम्मा अस्साम, न च वत नो जरा आगच्छेय्या'ति । न खो पनेतं इच्छाय पत्तब्बं, इदम्पि यम्पिच्छं न लभति तम्पि दुक्खं । ब्याधिधम्मानं, भिक्खवे, सत्तानं एवं इच्छा उप्पज्जति - 'अहो वत मयं न ब्याधिधम्मा अस्साम, न च वत नो ब्याधि आगच्छेय्या'ति । न खो पनेतं इच्छाय पत्तब्बं, इदम्पि यम्पिच्छं न लभति तम्पि दुक्खं । मरणधम्मानं, भिक्खवे, सत्तानं एवं इच्छा उप्पज्जति - 'अहो वत मयं न मरणधम्मा अस्साम, न च वत नो मरणं आगच्छेय्या'ति । न खो पनेतं इच्छाय पत्तब्बं, इदम्पि यम्पिच्छं न लभति तम्पि दुक्खं । सोकपरिदेवदुक्खदोमनस्सुपायासधम्मानं, भिक्खवे, त्
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२३०
दीघनिकायो-२
(२.९.३९९-४००)
एवं इच्छा उप्पज्जति - 'अहो वत मयं न सोकपरिदेवदुक्खदोमनस्सुपायासधम्मा अस्साम, न च वत नो सोकपरिदेवदुक्खदोमनस्सुपायासधम्मा आगच्छेय्यु'न्ति । न खो पनेतं इच्छाय पत्तब्ब, इदम्पि यम्पिच्छं न लभति तम्पि दुक्खं ।
३९९. “कतमे च, भिक्खवे, सवित्तेन पञ्चुपादानक्खन्धा दुक्खा ? सेय्यथिदंरूपुपादानक्खन्धो, वेदनुपादानक्खन्धो, सञ्जुपादानक्खन्धो, सङ्घारुपादानक्खन्धो, विाणुपादानक्खन्थो। इमे बुच्चन्ति, भिक्खवे, सवित्तेन पञ्चुपादानक्खन्धा दुक्खा। इदं वुच्चति, भिक्खवे, दुक्खं अरियसच्चं।
समुदयसच्चनिद्देसो
४००. “कतमञ्च, भिक्खवे, दुक्खसमुदयं अरियसच्चं? यायं तण्हा पोनोब्भविका नन्दीरागसहगता तत्रतत्राभिनन्दिनी, सेय्यथिदं- कामतण्हा भवतण्हा विभवतण्हा।
“सा खो पनेसा, भिक्खवे, तण्हा कत्थ उप्पज्जमाना उप्पज्जति, कत्थ निविसमाना निविसति ? यं लोके पियरूपं सातरूपं, एत्थेसा तण्हा उप्पज्जमाना उप्पज्जति, एत्थ निविसमाना निविसति ।
“किञ्च लोके पियरूपं सातरूपं ? चक्खु लोके पियरूपं सातरूपं, एत्थेसा तण्हा उप्पज्जमाना उप्पज्जति, एत्थ निविसमाना निविसति | सोतं लोके...पे०... घानं लोके... जिव्हा लोके... कायो लोके... मनो लोके पियरूपं सातरूपं, एत्थेसा तण्हा उप्पज्जमाना उप्पज्जति, एत्थ निविसमाना निविसति ।
“रूपा लोके... सद्दा लोके... गन्धा लोके... रसा लोके... फोटब्बा लोके... धम्मा लोके पियरूपं सातरूपं, एत्थेसा तण्हा उप्पज्जमाना उप्पज्जति, एत्थ निविसमाना निविसति ।
"चक्खुविाणं लोके... सोतविाणं लोके... घानविज्ञाणं लोके... जिव्हाविञआणं लोके... कायविञआणं लोके... मनोविज्ञआणं लोके पियरूपं सातरूपं, एत्थेसा तण्हा उप्पज्जमाना उप्पज्जति, एत्थ निविसमाना निविसति ।
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(२.९.४००-४००)
९. महासतिपट्ठानसुत्तं
२३१
"चक्खुसम्फस्सो लोके... सोतसम्फस्सो लोके... घानसम्फस्सो लोके... जिव्हासम्फस्सो लोके... कायसम्फस्सो लोके... मनोसम्फस्सो लोके पियरूपं सातरूपं, एत्थेसा तण्हा उप्पज्जमाना उप्पज्जति, एत्थ निविसमाना निविसति ।
"चक्खुसम्फस्सजा वेदना लोके... सोतसम्फस्सजा वेदना लोके... घानसम्फस्सजा वेदना लोके... जिव्हासम्फस्सजा वेदना लोके... कायसम्फस्सजा वेदना लोके... मनोसम्फस्सजा वेदना लोके पियरूपं सातरूपं, एत्थेसा तण्हा उप्पज्जमाना उप्पज्जति, एत्थ निविसमाना निविसति ।
___ “रूपसञा लोके... सदसञा लोके... गन्धसञा लोके... रससञा लोके... फोट्ठब्बसचा लोके... धम्मसञा लोके पियरूपं सातरूपं, एत्थेसा तण्हा उप्पज्जमाना उप्पज्जति, एत्थ निविसमाना निविसति ।
“रूपसञ्चेतना लोके... सद्दसञ्चेतना लोके... गन्धसञ्चेतना लोके... रससञ्चेतना लोके... फोटुब्बसञ्चेतना लोके... धम्मसञ्चेतना लोके पियरूपं सातरूपं, एत्थेसा तण्हा उप्पज्जमाना उप्पज्जति, एत्थ निविसमाना निविसति ।
“रूपतण्हा लोके... सद्दतण्हा लोके... गन्धतण्हा लोके... रसतण्हा लोके... फोट्ठब्बतण्हा लोके... धम्मतण्हा लोके पियरूपं सातरूपं, एत्थेसा तण्हा उप्पज्जमाना उप्पज्जति, एत्थ निविसमाना निविसति ।
“रूपवितक्को लोके... सद्दवितक्को लोके... गन्धवितक्को लोके... रसवितक्को लोके... फोट्ठब्बवितक्को लोके... धम्मवितक्को लोके पियरूपं सातरूपं, एत्थेसा तण्हा उप्पज्जमाना उप्पज्जति, एत्थ निविसमाना निविसति ।
“रूपविचारो लोके... सद्दविचारो लोके... गन्धविचारो लोके... रसविचारो लोके... फोट्ठब्बविचारो लोके... धम्मविचारो लोके पियरूपं सातरूपं, एत्थेसा तण्हा उप्पज्जमाना उप्पज्जति, एत्थ निविसमाना निविसति। इदं वुच्चति, भिक्खवे, दुक्खसमुदयं अरियसच्चं ।
231
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२३२
दीघनिकायो-२
निरोधसच्चनिद्देसो
४०१. " कतमञ्च, भिक्खवे, दुक्खनिरोधं अरियसच्चं ? यो तस्सायेव तण्हाय असेसविरागनिरोधो चागो पटिनिस्सग्गो मुत्ति अनालयो ।
सा खो पनेसा, भिक्खवे, तण्हा कत्थ पहीयमाना पहीयति, कत्थ निरुज्झमाना निरुज्झति ? यं लोके पियरूपं सातरूपं, एत्थेसा तण्हा पहीयमाना पहीयति, एत्थ निरुज्झमाना निरुज्झति ।
(२.९.४०१-४०१ )
“किञ्च लोके पियरूपं सातरूपं ? चक्खु लोके पियरूपं सातरूपं, एत्थेसा तहा पहीयमाना पहीयति, एत्थ निरुज्झमाना निरुज्झति । सोतं लोके... पे०... घानं लोके । जिव्हा लोके... कायो लोके... मनो लोके पियरूपं सातरूपं, एत्थेसा तण्हा पहीयमाना पीयति, एत्थ निरुज्झमाना निरुज्झति ।
" रूपा लोके... सद्दा लोके... गन्धा लोके... रसा लोके... फोट्टब्बा लोके... धम्मा लोके पियरूपं सातरूपं, एत्थेसा तण्हा पहीयमाना पहीयति, एत्थ निरुज्झमाना निरुज्झति ।
लोके.....
घानविञ्ञाणं
“चक्खुविञ्ञाणं लोके... सोतविणं लोके.... जिव्हाविञ्ञाणं लोके... कायविञ्ञाणं लोके... मनोविञ्ञाणं लोके पियरूपं सातरूपं, एत्थेसा तहा पहीयमाना पहीयति, एत्थ निरुज्झमाना निरुज्झति ।
"चक्खुसम्फस्सो लोके... सोतसम्फस्सो लोके... घानसम्फस्सो लोके.... जिव्हासम्फस्सो लोके... कायसम्फस्सो लोके... मनोसम्फस्सो लोके पियरूपं सातरूपं, एत्थेसा तहा पहीयमाना पहीयति, एत्थ निरुज्झमाना निरुज्झति ।
"चक्खुसम्फस्सजा वेदना लोके... सोतसम्फस्सजा वेदना लोके... घानसम्फस्सजा वेदना लोके... जिव्हासम्फस्सजा वेदना लोके... कायसम्फस्सजा वेदना लोके.... मनोसम्फस्सजा वेदना लोके पियरूपं सातरूपं, एत्थेसा तण्हा पहीयमाना पहीयति, एत्थ निरुज्झमाना निरुज्झति ।
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(२.९.४०२-४०२)
९. महासतिपट्टानसुत्तं
२३३
“रूपसचा लोके... सद्दसञा लोके... गन्धसञ्जा लोके... रससञा लोके... फोटब्बसञा लोके... धम्मसञआ लोके पियरूपं सातरूपं, एत्थेसा तण्हा पहीयमाना पहीयति, एत्थ निरुज्झमाना निरुज्झति ।
"रूपसञ्चेतना लोके... सद्दसञ्चेतना लोके... गन्धसञ्चेतना लोके... रससञ्चेतना लोके... फोठुब्बसञ्चेतना लोके... धम्मसञ्चेतना लोके पियरूपं सातरूपं, एत्थेसा तण्हा पहीयमाना पहीयति, एत्थ निरुज्झमाना निरुज्झति ।
“रूपतण्हा लोके... सद्दतण्हा लोके... गन्धतण्हा लोके... रसतण्हा लोके... फोटुब्बतण्हा लोके... धम्मतण्हा लोके पियरूपं सातरूपं, एत्थेसा तण्हा पहीयमाना पहीयति, एत्थ निरुज्झमाना निरुज्झति ।
__ “रूपवितक्को लोके... सद्दवितक्को लोके... गन्धवितक्को लोके... रसवितक्को लोके... फोट्ठब्बवितक्को लोके... धम्मवितक्को लोके पियरूपं सातरूपं, एत्थेसा तण्हा पहीयमाना पहीयति, एत्थ निरुज्झमाना निरुज्झति ।
"रूपविचारो लोके... सद्दविचारो लोके... गन्धविचारो लोके... रसविचारो लोके... फोहब्बविचारो लोके... धम्मविचारो लोके पियरूपं सातरूपं, एत्थेसा तण्हा पहीयमाना पहीयति, एत्थ निरुज्झमाना निरुज्झति । इदं वुच्चति, भिक्खवे, दुक्खनिरोधं अरियसच्चं ।
मग्गसच्चनिद्देसो ४०२. “कतमञ्च, भिक्खवे, दुक्खनिरोधगामिनी पटिपदा अरियसच्चं ? अयमेव अरियो अट्ठङ्गिको मग्गो सेय्यथिदं- सम्मादिट्ठि सम्मासङ्कप्पो सम्मावाचा सम्माकम्मन्तो सम्माआजीवो सम्मावायामो सम्मासति सम्मासमाधि ।
“कतमा च, भिक्खवे, सम्मादिट्ठि ? यं खो, भिक्खवे, दुक्खे आणं, दुक्खसमुदये आणं, दुक्खनिरोधे आणं, दुक्खनिरोधगामिनिया पटिपदाय आणं । अयं वुच्चति भिक्खवे, सम्मादिट्टि ।
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२३४
दीघनिकायो-२
(२.९.४०२-४०२)
“कतमो च, भिक्खवे, सम्मासङ्कप्पो ? नेक्खम्मसङ्कप्पो अब्यापादसङ्कप्पो अविहिंसासङ्कप्पो । अयं वुच्चति भिक्खवे, सम्मासङ्कप्पो ।
"कतमा च, भिक्खवे, सम्मावाचा ? मुसावादा वेरमणी पिसुणाय वाचाय वेरमणी फरुसाय वाचाय वेरमणी सम्फप्पलापा वेरमणी। अयं वुच्चति, भिक्खवे, सम्मावाचा ।
“कतमो च, भिक्खवे, सम्माकम्मन्तो ? पाणातिपाता वेरमणी अदिन्नादाना वेरमणी कामेसुमिच्छाचारा वेरमणी । अयं वुच्चति, भिक्खवे, सम्माकम्मन्तो ।
"कतमो च, भिक्खवे, सम्माआजीवो ? इध, भिक्खवे, अरियसावको मिच्छाआजीवं पहाय सम्माआजीवेन जीवितं कप्पेति । अयं वुच्चति, भिक्खवे, सम्माआजीवो ।
"कतमो च, भिक्खवे, सम्मावायामो ? इध, भिक्खवे, भिक्खु अनुप्पन्नानं पापकानं अकुसलानं धम्मानं अनुप्पादाय छन्दं जनेति वायमति वीरियं आरभति चित्तं पग्गण्हाति पदहति; उप्पन्नानं पापकानं अकुसलानं धम्मानं पहानाय छन्दं जनेति वायमति वीरियं आरभति चित्तं पग्गण्हाति पदहति; अनुप्पन्नानं कुसलानं धम्मानं उप्पादाय छन्दं जनेति वायमति वीरियं आरभति चित्तं पग्गण्हाति पदहति; उप्पन्नानं कुसलानं धम्मानं ठितिया असम्मोसाय भिय्योभावाय वेपुल्लाय भावनाय पारिपूरिया छन्दं जनेति वायमति वीरियं आरभति चित्तं पग्गण्हाति पदहति । अयं वुच्चति, भिक्खवे, सम्मावायामो ।
"कतमा च, भिक्खवे, सम्मासति ? इध, भिक्खवे, भिक्खु काये कायानुपस्सी विहरति आतापी सम्पजानो सतिमा विनेय्य लोके अभिज्झादोमनस्सं; वेदनासु वेदनानुपस्सी विहरति आतापी सम्पजानो सतिमा विनेय्य लोके अभिज्झादोमनस्सं चित्ते चित्तानुपस्सी विहरति आतापी सम्पजानो सतिमा विनेय्य लोके अभिज्झादोमनस्सं धम्मेसु धम्मानुपस्सी विहरति आतापी सम्पजानो सतिमा विनेय्य लोके अभिज्झादोमनस्सं। अयं बुच्चति, भिक्खवे, सम्मासति।
__“कतमो च, भिक्खवे, सम्मासमाधि ? इध, भिक्खवे, भिक्खु विविच्चेव कामेहि विविच्च अकुसलेहि धम्मेहि सवितक्कं सविचारं विवेकजं पीतिसुखं पठमं झानं उपसम्पज्ज विहरति । वितक्कविचारानं वूपसमा अज्झत्तं सम्पसादनं चेतसो एकोदिभावं
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(२.९.४०३-४०४)
९. महासतिपट्टानसुत्तं
२३५
अवितक्कं अविचारं समाधिजं पीतिसुखं दुतियं झानं उपसम्पज्ज विहरति । पीतिया च विरागा उपेक्खको च विहरति, सतो च सम्पजानो, सुखञ्च कायेन पटिसंवेदेति, यं तं अरिया आचिक्खन्ति 'उपेक्खको सतिमा सुखविहारी'ति ततियं झानं उपसम्पज्ज विहरति । सुखस्स च पहाना दुक्खस्स च पहाना पुब्बेव सोमनस्सदोमनस्सानं अत्थङ्गमा अदुक्खमसुखं उपेक्खासतिपारिसुद्धिं चतुत्थं झानं उपसम्पज्ज विहरति अयं वुच्चति, भिक्खवे, सम्मासमाधि । इदं वुच्चति, भिक्खवे, दुक्खनिरोधगामिनी पटिपदा अरियसच्चं ।
४०३. “इति अज्झत्तं वा धम्मेसु धम्मानुपस्सी विहरति, बहिद्धा वा धम्मसु धम्मानुपस्सी विहरति, अज्झत्तबहिद्धा वा धम्मेसु धम्मानुपस्सी विहरति । समुदयधम्मानुपस्सी वा धम्मेसु विहरति, वयधम्मानुपस्सी वा धम्मेसु विहरति, समुदयवयधम्मानुपस्सी वा धम्मेसु विहरति। 'अस्थि धम्मा'ति वा पनस्स सति पच्चुपट्ठिता होति यावदेव आणमत्ताय पटिस्सतिमत्ताय। अनिस्सितो च विहरति, न च किञ्चि लोके उपादियति। एवम्पि खो, भिक्खवे, भिक्खु धम्मेसु धम्मानुपस्सी विहरति चतूसु अरियसच्चेसु ।
सच्चपब्बं निहितं ।
धम्मानुपस्सना निट्ठिता।
४०४. “यो हि कोचि, भिक्खवे, इमे चत्तारो सतिपढाने एवं भावेय्य सत्तवस्सानि, तस्स दिन्नं फलानं अञ्जतरं फलं पाटिकचं दिढेव धम्मे अञाः सति वा उपादिसेसे अनागामिता।
“तिद्वन्तु, भिक्खवे, सत्तवस्सानि । यो हि कोचि, भिक्खवे, इमे चत्तारो सतिपट्ठाने एवं भावेय्य छ वस्सानि...पे०... पञ्च वस्सानि... चत्तारि वस्सानि... तीणि वस्सानि... द्वे वस्सानि... एकं वस्सं... तिठ्ठतु, भिक्खवे, एकं वस्सं । यो हि कोचि, भिक्खवे, इमे चत्तारो सतिपट्ठाने एवं भावेय्य सत्तमासानि, तस्स द्विन्नं फलानं अज्ञतरं फलं पाटिकङ्ख दिवेव धम्मे अञा; सति वा उपादिसेसे अनागामिता ।
“तिद्वन्तु, भिक्खवे, सत्त मासानि । यो हि कोचि, भिक्खवे, इमे चत्तारो सतिपट्टाने एवं भावेय्य छ मासानि...पे०... पञ्च मासानि... चत्तारि मासानि... तीणि
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२३६
दीघनिकायो-२
(२.९.४०५-४०५)
मासानि... द्वे मासानि... एकं मासं... अड्डमासं... तिठ्ठतु, भिक्खवे, अड्डमासो । यो हि कोचि, भिक्खवे, इमे चत्तारो सतिपट्टाने एवं भावेय्य सत्ताहं, तस्स द्विन्नं फलानं अञ्जतरं फलं पाटिकङ्गं दिढेव धम्मे अञ्जा सति वा उपादिसेसे अनागामिता"ति ।
४०५. “एकायनो अयं, भिक्खवे, मग्गो सत्तानं विसुद्धिया सोकपरिदेवानं समतिक्कमाय दुक्खदोमनस्सानं अत्थङ्गमाय आयस्स अधिगमाय निब्बानस्स सच्छिकिरियाय यदिदं चत्तारो सतिपट्ठानाति । इति यं तं वुत्तं, इदमेतं पटिच्च वुत्त''न्ति । इदमवोच भगवा । अत्तमना ते भिक्खू भगवतो भासितं अभिनन्दुन्ति ।
महासतिपट्टानसुत्तं निद्वितं नवमं ।
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१०. पायासिसुत्तं
४०६. एवं मे सुतं- एकं समयं आयस्मा कुमारकस्सपो कोसलेसु चारिकं चरमानो महता भिक्खुसङ्घन सद्धिं पञ्चमत्तेहि भिक्खुसतेहि येन सेतब्या नाम कोसलानं नगरं तदवसरि। तत्र सुदं आयस्मा कुमारकस्सपो सेतब्यायं विहरति उत्तरेन सेतब्यं सिंसपावने । तेन खो पन समयेन पायासि राजो सेतब्यं अज्झावसति सत्तुस्सदं सतिणकट्ठोदकं सधनं राजभोग्गं रञा पसेनदिना कोसलेन दिन्नं राजदायं ब्रह्मदेय्यं ।
पायासिराजञ्जवत्थु
४०७. तेन खो पन समयेन पायासिस्स राजञस्स एवरूपं पापकं दिट्ठिगतं उप्पन्नं होति- “इतिपि नत्थि परो लोको, नत्थि सत्ता ओपपातिका, नत्थि सुकतदुक्कटानं कम्मानं फलं विपाको''ति । अस्सोसुं खो सेतब्यका ब्राह्मणगहपतिका - "समणो खलु भो कुमारकस्सपो समणस्स गोतमस्स सावको कोसलेसु चारिकं चरमानो महता भिक्खुसङ्घन सद्धिं पञ्चमत्तेहि भिक्खुसतेहि सेतब्यं अनुप्पत्तो सेतब्यायं विहरति उत्तरेन सेतब्यं सिंसपावने । तं खो पन भवन्तं कुमारकस्सपं एवं कल्याणो कित्तिसद्दो अब्भुग्गतो- 'पण्डितो ब्यत्तो मेधावी बहुस्सुतो चित्तकथी कल्याणपटिभानो वुद्धो चेव अरहा च । साधु खो पन तथारूपानं अरहतं दस्सनं होती' "ति । अथ खो सेतब्यका ब्राह्मणगहपतिका सेतब्याय निक्खमित्वा सङ्घसङ्घी गणीभूता उत्तरेनमुखा गच्छन्ति येन सिंसपावनं ।
४०८. तेन खो पन समयेन पायासि राजो उपरिपासादे दिवासेय्यं उपगतो होति । अद्दसा खो पायासि राजो सेतब्यके ब्राह्मणगहपतिके सेतब्याय निक्खमित्वा सङ्घसङ्घी गणीभूते उत्तरेनमुखे गच्छन्ते येन सिंसपावनं, दिस्वा खत्तं आमन्तेसि - “किं
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२३८
दीघनिकायो-२
(२.१०.४०९-४०९)
नु खो, भो खत्ते, सेतब्यका ब्राह्मणगहपतिका सेतब्याय निक्खमित्वा सङ्घसङ्घी गणीभूता उत्तरेनमुखा गच्छन्ति येन सिंसपावन''न्ति ?
“अत्थि खो, भो, समणो कुमारकस्सपो, समणस्स गोतमस्स सावको कोसलेसु चारिकं चरमानो महता भिक्खुसङ्घन सद्धिं पञ्चमत्तेहि भिक्खुसतेहि सेतब्यं अनुप्पत्तो सेतब्यायं विहरति उत्तरेन सेतब्यं सिंसपावने । तं खो पन भवन्तं कुमारकस्सपं एवं कल्याणो कित्तिसद्दो अब्भुग्गतो- ‘पण्डितो ब्यत्तो मेधावी बहुस्सुतो चित्तकथी कल्याणपटिभानो वुद्धो चेव अरहा चा'ति । तमेते भवन्तं कुमारकस्सपं दस्सनाय उपसङ्कमन्ती''ति । “तेन हि, भो खत्ते, येन सेतब्यका ब्राह्मणगहपतिका तेनुपसङ्कम; उपसङ्कमित्वा सेतब्यके ब्राह्मणगहपतिके एवं वदेहि - ‘पायासि, भो, राजो एवमाह - आगमेन्तु किर भवन्तो, पायासिपि राजो समणं कुमारकस्सपं दस्सनाय उपसङ्कमिस्सती'ति । पुरा समणो कुमारकस्सपो सेतब्यके ब्राह्मणगहपतिके बाले अब्यत्ते सञ्जापेति- 'इतिपि अत्थि परो लोको, अस्थि सत्ता ओपपातिका, अत्थि सुकतदुक्कटानं कम्मानं फलं विपाको'ति । नत्थि हि, भो खत्ते, परो लोको, नत्थि सत्ता ओपपातिका, नत्थि सुकतदुक्कटानं कम्मानं फलं विपाको''ति । “एवं भो''ति खो सो खत्ता पायासिस्स राजञस्स पटिस्सुत्वा येन सेतब्यका ब्राह्मणगहपतिका तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा सेतब्यके ब्राह्मणगहपतिके एतदवोच- “पायासि, भो, राजञो एवमाह, आगमेन्तु किर भवन्तो, पायासिपि राजञो समणं कुमारकस्सपं दस्सनाय उपसङ्कमिस्सती"ति ।
४०९. अथ खो पायासि राजञो सेतब्यकेहि ब्राह्मणगहपतिकेहि परिवुतो येन सिंसपावनं येनायस्मा कुमारकस्सपो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा आयस्मता कुमारकस्सपेन सद्धिं सम्मोदि, सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं निसीदि । सेतब्यकापि खो ब्राह्मणगहपतिका अप्पेकच्चे आयस्मन्तं कुमारकस्सपं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदिसु; अप्पेकच्चे आयस्मता कुमारकस्सपेन सद्धिं सम्मोदिसु; सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु । अप्पेकच्चे येनायस्मा कुमारकस्सपो तेनञ्जलिं पणामेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु । अप्पेकच्चे नामगोत्तं सावेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु । अप्पेकच्चे तुण्हीभूता एकमन्तं निसीदिंसु ।
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(२.१०.४१०-४१२)
१०. पायासिसुत्तं
२३९
नथिकवादो
४१०. एकमन्तं निसिन्नो खो पायासि राजञो आयस्मन्तं कुमारकस्सपं एतदवोच – “अहन्हि, भो कस्सप, एवंवादी एवंदिट्ठी – 'इतिपि नत्थि परो लोको, नत्थि सत्ता ओपपातिका, नस्थि सुकतदुक्कटानं कम्मानं फलं विपाको' 'ति । नाहं, राजञ, एवंवादिं एवंदिठिं अद्दसं वा अस्सोसिं वा । कथहि नाम एवं वदेय्य – 'इतिपि नस्थि परो लोको, नत्थि सत्ता ओपपातिका, नत्थि सुकतदुक्कटानं कम्मानं फलं विपाको' ''ति ?
चन्दिमसूरियउपमा
४११. "तेन हि, राजञ, त वेत्थ पटिपुच्छिस्सामि, यथा ते खमेय्य, तथा नं ब्याकरेय्यासि । तं किं मञ्जसि राजञ, इमे चन्दिमसूरिया इमस्मिं वा लोके परस्मिं वा, देवा वा ते मनुस्सा वा"ति ? "इमे, भो कस्सप, चन्दिमसूरिया परस्मिं लोके, न इमस्मिं; देवा ते न मनुस्सा"ति । "इमिनापि खो ते, राजञ, परियायेन एवं होतुइतिपि अस्थि परो लोको, अत्थि सत्ता ओपपातिका, अस्थि सुकतदुक्कटानं कम्मानं फलं विपाको'ति ।
४१२. “किञ्चापि भवं कस्सपो एवमाह । अथ खो एवं मे एत्थ होति - इतिपि नत्थि परो लोको, नत्थि सत्ता ओपपातिका, नत्थि सुकतदुक्कटानं कम्मानं फलं विपाको"ति । “अत्थि पन, राजञ, परियायो, येन ते परियायेन एवं होति- इतिपि नत्थि परो लोको, नत्थि सत्ता ओपपातिका, नत्थि सुकतदुक्कटानं कम्मानं फलं विपाको"ति ? “अत्थि, भो कस्सप, परियायो, येन मे परियायेन एवं होति- इतिपि नत्थि परो लोको, नत्थि सत्ता ओपपातिका, नत्थि सुकतदुक्कटानं कम्मानं फलं विपाको'ति । “यथा कथं विय, राजञा''ति ? “इध मे, भो कस्सप, मित्तामच्चा जातिसालोहिता पाणातिपाती अदिन्नादायी कामेसुमिच्छाचारी मुसावादी पिसुणवाचा फरुसवाचा सम्फप्पलापी अभिज्झालू ब्यापन्नचित्ता मिच्छादिट्ठी । ते अपरेन समयेन आबाधिका होन्ति दुक्खिता बाळहगिलाना | यदाहं जानामि - 'न दानिमे इमम्हा आबाधा वुट्टहिस्सन्ती'ति । त्याहं उपसङ्कमित्वा एवं वदामि – 'सन्ति खो, भो, एके समणब्राह्मणा एवंवादिनो एवंदिट्ठिनो- ये ते पाणातिपाती अदिन्नादायी कामेसुमिच्छाचारी मुसावादी पिसुणवाचा फरुसवाचा सम्फप्पलापी अभिज्झालू ब्यापन्नचित्ता मिच्छादिट्ठी, ते कायस्स
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दीघनिकायो-२
(२.१०.५१३-५१३)
भेदा परं मरणा अपायं दुग्गतिं विनिपातं निरयं उपपज्जन्ती'ति । भवन्तो खो पाणातिपाती अदिन्नादायी कामेसुमिच्छाचारी मुसावादी पिसुणवाचा फरुसवाचा सम्फप्पलापी अभिज्झालू ब्यापन्नचित्ता मिच्छादिट्ठी । सचे तेसं भवतं समणब्राह्मणानं सच्चं वचनं, भवन्तो कायस्स भेदा परं मरणा अपायं दुग्गतिं विनिपातं निरयं उपपज्जिस्सन्ति । सचे, भो, कायस्स भेदा परं मरणा अपायं दुग्गतिं विनिपातं निरयं उपपज्जेय्याथ, येन मे आगन्त्वा आरोचेय्याथ - इतिपि अत्थि परो लोको, अस्थि सत्ता
ओपपातिका, अत्थि सुकतदुक्कटानं कम्मानं फलं विपाकोति । भवन्तो खो पन मे सद्धायिका पच्चयिका, यं भवन्तेहि दिटुं, यथा सामं दिलृ एवमेतं भविस्सती'ति । ते मे 'साधू'ति पटिस्सुत्वा नेव आगन्त्वा आरोचेन्ति, न पन दूतं पहिणन्ति । अयम्पि खो, भो कस्सप, परियायो. येन मे परियायेन एवं होति- इतिपि नत्थि परो लोको, नत्थि सत्ता ओपपातिका, नत्थि सुकतदुक्कटानं कम्मानं फलं विपाको"ति ।
चोरउपमा
५१३. "तेन हि, राजञ, त वेत्थ पटिपुच्छिस्सामि । यथा ते खमेय्य तथा नं ब्याकरेय्यासि । तं किं मञ्जसि, राजञ, इध ते पुरिसा चोरं आगुचारिं गहेत्वा दस्सेय्युं - 'अयं ते, भन्ते, चोरो आगुचारी; इमस्स यं इच्छसि, तं दण्डं पणेही'ति । ते त्वं एवं वदेय्यासि -- 'तेन हि, भो, इमं पुरिसं दळहाय रज्जुया पच्छाबाहं गाळहबन्धनं बन्धित्वा खुरमुण्डं करित्वा खरस्सरेन पणवेन रथिकाय रथिकं सिङ्घाटकेन सिङ्घाटकं परिनेत्वा दक्खिणेन द्वारेन निक्खमित्वा दक्खिणतो नगरस्स आघातने सीसं छिन्दथा'ति । ते ‘साधू'ति पटिस्सुत्वा तं पुरिसं दळहाय रज्जुया पच्छाबाहं गाळहबन्धन बन्धित्वा खुरमुण्डं करित्वा खरस्सरेन पणवेन रथिकाय रथिकं सिङ्घाटकेन सिङ्घाटकं परिनेत्वा दक्खिणेन द्वारेन निक्खमित्वा दक्खिणतो नगरस्स आघातने निसीदापेय्युं । लभेय्य नु खो सो चोरो चोरघातेसु - ‘आगमेन्तु ताव भवन्तो चोरघाता, अमुकस्मिं मे गामे वा निगमे वा मित्तामच्चा आतिसालोहिता, यावाहं तेसं उद्दिसित्वा आगच्छामी'ति, उदाहु विप्पलपन्तस्सेव चोरघाता सीसं छिन्देय्यु"न्ति ? “न हि सो, भो कस्सप, चोरो लभेय्य चोरघातेसु - ‘आगमेन्तु ताव भवन्तो चोरघाता अमुकस्मिं मे गामे वा निगमे वा मित्तामच्चा आतिसालोहिता, यावाहं तेसं उद्दिसित्वा आगच्छामी'ति । अथ खो नं विप्पलपन्तस्सेव चोरघाता सीसं छिन्देय्यु"न्ति । “सो हि नाम, राजञ्ञ, चोरो मनुस्सो मनुस्सभूतेसु चोरघातेसु न लभिस्सति - ‘आगमेन्तु ताव भवन्तो चोरघाता, अमुकस्मिं मे
HTTEE
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(२.१०.४१४-४१४)
१०. पायासिसुत्तं
गामे वा निगमे वा मित्तामच्चा आतिसालोहिता, यावाहं तेसं उद्दिसित्वा आगच्छामी 'ति । किं पन ते मित्तामच्चा जातिसालोहिता पाणातिपाती अदिन्नादायी कामेसुमिच्छाचारी मुसावादी पिसुणवाचा फरुसवाचा सम्फप्पलापी अभिज्झालू व्यापन्नचित्ता मिच्छादिट्ठी, ते कायस्स भेदा परं मरणा अपायं दुग्गतिं विनिपातं निरयं उपपन्ना लभिस्सन्ति निरयपालेसु – 'आगमेन्तु ताव भवन्तो निरयपाला, याव मयं पायासिस्स राजञस्स गन्त्वा आरोचेम - इतिपि अत्थि परो लोको, अत्थि सत्ता ओपपातिका, अत्थि सुकतदुक्कटानं कम्मानं फलं विपाको' "ति ? इमिनापि खो ते, राजञ्ञ, परियायेन एवं होतु - 'इतिपि अस्थि परो लोको, अत्थि सत्ता ओपपातिका, अत्थि सुकतदुक्कानं कम्मानं फलं विपाको' "ति ।
४१४. “ किञ्चापि भवं कस्सपो एवमाह । अथ खो एवं मे एत्थ होति - इतिपि नत्थि परो लोको, नत्थि सत्ता ओपपातिका, नत्थि सुकतदुक्कटानं कम्मानं फलं विपाको 'ति । "अत्थि पन, राजञ्ञ, परियायो येन ते परियायेन एवं होति - इतिपि नत्थि परो लोको, नत्थि सत्ता ओपपातिका, नत्थि सुकतदुक्कटानं कम्मानं फलं विपाको 'ति ? " अत्थि, भो कस्सप, परियायो, येन मे परियायेन एवं होति - इतिपि नत्थि परो लोको, नत्थि सत्ता ओपपातिका, नत्थि सुकतदुक्कटानं कम्मानं फलं विपाको 'ति । "यथा कथं विय, राजञा " ति ? " इध मे भो कस्सप, मित्तामच्चा ञतिसालोहिता पाणातिपाता पटिविरता अदिन्नादाना पटिविरता कामेसुमिच्छाचारा पटिविरता मुसावादा पटिविरता पिसुणाय वाचाय पटिविरता फरुसाय वाचाय पटिविरता सम्फप्पलापा पटिविरता अनभिज्झालू अब्यापन्नचित्ता सम्मादिट्ठी । ते अपरेन समयेन आबाधिका होन्ति दुक्खिता बाळहगिलाना । यदाहं जानामि - 'न दानिमे इमम्हा आबाधा वुट्ठहिस्सन्ती 'ति । त्याहं उपसङ्कमित्वा एवं वदामि - 'सन्ति खो, भो, एके समणब्राह्मणा एवंवादिनो एवंदिट्ठिनो - ये ते पाणातिपाता पटिविरता अदिन्नादाना पटिविरता कामेसुमिच्छाचारा पटिविरता मुसावादा पटिविरता पिसुणाय वाचाय पटिविरता फरुसाय वाचाय पटिविरता सम्फप्पलापा पटिविरता अनभिज्झालू अब्यापन्नचित्ता सम्मादिट्ठी । ते कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपज्जन्तीति । भवन्तो खो पाणातिपाता पटिविरता अदिन्नादाना पटिविरता कामेसुमिच्छाचारा पटिविरता मुसावादा पटिविरता पिसुणाय वाचाय पटिविरता फरुसाय वाचाय पटिविरता सम्फप्पलापा पटिविरता अनभिज्झालू अब्यापन्नचित्ता सम्मादिट्ठी । सचे तेसं भवतं समणब्राह्मणानं सच्चं वचनं, भवन्तो कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपज्जिरसन्ति । सचे, भो, कायस्स
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२४२
दीघनिकायो-२
भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपज्जेय्याथ, येन मे आगन्त्वा आरोचेय्याथइतिपि अत्थि परो लोको, अस्थि सत्ता ओपपातिका, अत्थि सुकतदुक्कटानं कम्मानं फलं विपाकोति । भवन्तो खो पन मे सद्धायिका पच्चयिका, यं भवन्तेहि दिट्ठ, यथा सामं दिट्ठ एवमेतं भविस्सती 'ति । ते मे 'साधू'ति पटिस्सुत्वा नेव आगन्त्वा आरोचेन्ति, न पन दूतं पहिणन्ति । अयम्पि खो, भो कस्सप, परियायो, येन मे परियायेन एवं होति - इतिपि नत्थि परो लोको, नत्थि सत्ता ओपपातिका, नत्थि सुकतदुक्कटानं कम्मानं फलं विपाको 'ति ।
गूथकूपपुरिसउपमा
४१५. “तेन हि, राजञ्ञ, उपमं ते करिस्सामि । उपमाय मिधेकच्चे विनू पुरिसा भासितस्स अत्थं आजानन्ति । सेय्यथापि, राजञ्ञ, पुरिसो गूथकूपे ससीसकं निमुग्गो अस्स । अथ त्वं पुरिसे आणापेय्यासि - 'तेन हि भो, तं पुरिसं तम्हा गूथकूपा उद्धरथा'ति । ते 'साधू' ति पटिस्सुत्वा तं पुरिसं तम्हा गूथकूपा उद्धरेय्युं । ते त्वं एवं वदेय्यासि – ‘तेन हि, भो, तस्स पुरिसस्स काया वेळुपेसिकाहि गूथं सुनिम्मज्जितं निम्मज्जथा’ति। ते ‘साधू'ति पटिस्सुत्वा तस्स पुरिसस्स काया वेळुपेसिकाहि गूथं सुनिमज्जितं निम्मज्जेय्युं । ते त्वं एवं वदेय्यासि - 'तेन हि भो, तस्स पुरिसस्स कार्य पण्डुमत्तिकाय तिक्खत्तुं सुब्बट्टितं उब्बट्टेथा'ति । ते तस्स पुरिसस्स काय पण्डुमत्तिकाय तिक्खत्तुं सुब्बट्टितं उब्बट्टेय्युं । ते त्वं एवं वदेय्यासि - 'तेन हि भो, तं पुरिसं तेलेन अब्भञ्जित्वा सुखुमेन चुण्णेन तिक्खत्तुं सुप्पधोतं करोथा'ति । ते तं पुरिसं तेलेन अब्भञ्जित्वा सुखमेन चुण्णेन तिक्खत्तुं सुप्पधोतं करेय्युं । ते त्वं एवं वदेय्यासि - 'तेन हि, भो, तस्स पुरिसस्स केसमस्सुं कप्पेथा 'ति । ते तस्स पुरिसस्स केसमस्सुं कप्पेयुं । ते त्वं एवं वदेय्यासि – ‘तेन हि भो, तस्स पुरिसस्स महग्घञ्च मालं महग्घञ्च विलेपनं महग्घानि च वत्थानि उपहरथा'ति । ते तस्स पुरिसस्स महग्घञ्च मालं महग्घञ्च विलेपनं महग्घानि च वत्थानि उपहरेय्युं । ते त्वं एवं वदेय्यासि - 'तेन हि भो, तं पुरिसं पासादं आरोपेत्वा पञ्चकामगुणानि उपट्ठापेथा 'ति । ते तं पुरिसं पासादं आरोपेत्वा पञ्चकामगुणानि उपट्ठापेय्युं ।
(२.१०.४१५-४१५)
“तं किं मञ्ञसि, राजञ्ञ, अपि नु तस्स पुरिसस्स सुन्हातस्स सुविलित्तस्स सुकप्पितके समस्सुस्स आमुक्कमालाभरणस्स ओदातवत्थवसनस्स उपरिपासादवरगतस्स
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(२.१०.४१६-४१६)
१०. पायासिसुत्तं
२४३
पञ्चहि कामगुणेहि समप्पितस्स समङ्गीभूतस्स परिचारयमानस्स पुनदेव तस्मिं गूथकूपे निमुज्जितुकामता अस्सा''ति ? “नो हिदं, भो कस्सप'। “तं किस्स हेतु" ? “असुचि, भो कस्सप, गूथकूपो असुचि चेव असुचिसङ्घातो च दुग्गन्धो च दुग्गन्धसङ्घातो च जेगुच्छो च जेगुच्छसङ्घातो च पटिकूलो च पटिकूलसङ्घातो चा"ति । “एवमेव खो, राजञ, मनुस्सा देवानं असुची चेव असुचिसङ्खाता च, दुग्गन्धा च दुग्गन्धसङ्खाता च, जेगुच्छा च जेगुच्छसङ्खाता च, पटिकूला च पटिकूलसङ्खाता च । योजनसतं खो, राजञ, मनुस्सगन्धो देवे उब्बाधति । किं पन ते मित्तामच्चा आतिसालोहिता पाणातिपाता पटिविरता अदिन्नादाना पटिविरता कामेसुमिच्छाचारा पटिविरता मुसावादा पटिविरता पिसुणाय वाचाय पटिविरता फरुसाय वाचाय पटिविरता सम्फप्पलापा पटिविरता अनभिज्झालू अब्यापन्नचित्ता सम्मादिट्ठी, कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपन्ना। ते आगन्त्वा आरोचेस्सन्ति - ‘इतिपि अत्थि परो लोको, अस्थि सत्ता ओपपातिका, अस्थि सुकतदुक्कटानं कम्मानं फलं विपाको'ति ? इमिनापि खो ते, राजञ, परियायेन एवं होतु - इतिपि अत्थि परो लोको, अस्थि सत्ता ओपपातिका, अत्थि सुकतदुक्कटानं कम्मानं फलं विपाको''ति ।
४१६. “किञ्चापि भवं कस्सपो एवमाह । अथ खो एवं मे एत्थ होति- इतिपि नत्थि परो लोको, नत्थि सत्ता ओपपातिका, नत्थि सुकतदुक्कटानं कम्मानं फलं विपाको''ति । अत्थि पन, राजञ, परियायो...पे०... अत्थि, भो कस्सप, परियायो...पे०... यथा कथं विय, राजञाति ? "इध मे, भो कस्सप, मित्तामच्चा जातिसालोहिता पाणातिपाता पटिविरता अदिन्नादाना पटिविरता कामेसुमिच्छाचारा पटिविरता मुसावादा पटिविरता सुरामेरयमज्जपमादट्ठाना पटिविरता, ते अपरेन समयेन आबाधिका होन्ति दक्खिता बाळ्हगिलाना। यदाहं जानामि – 'न दानिमे इमम्हा आबाधा वहिस्सन्तीति। त्याहं उपसमित्वा एवं वदामि - 'सन्ति खो. भो. एके समणब्राह्मणा एवंवादिनो एवंदिट्ठिनो - ये ते पाणातिपाता पटिविरता अदिन्नादाना पटिविरता कामेसुमिच्छाचारा पटिविरता मुसावादा पटिविरता सुरामेरयमज्जपमादट्ठाना पटिविरता, ते कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपज्जन्ति देवानं तावतिंसानं सहब्यतन्ति । भवन्तो खो पाणातिपाता पटिविरता अदिन्नादाना पटिविरता कामेसुमिच्छाचारा पटिविरता मुसावादा पटिविरता सुरामेरयमज्जपमादट्ठाना पटिविरता | सचे तेसं भवतं समणब्राह्मणानं सच्चं वचनं, भवन्तो कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपज्जिस्सन्ति, देवानं तावतिंसानं सहब्यतं । सचे, भो, कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं
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दीघनिकायो-२
(२.१०.४१७-४१८)
उपपज्जेय्याथ देवानं तावतिसानं सहब्यतं येन मे आगन्त्वा आरोचेय्याथ - इतिपि अस्थि परो लोको, अस्थि सत्ता ओपपातिका, अत्थि सुकतदुक्कटानं कम्मानं फलं विपाको 'ति । भवन्तो खो पन मे सद्धायिका पच्चयिका, यं भवन्तेहि दिट्टं, यथा सामं दिट्ठ एवमेतं भविस्सती 'ति । ते मे 'साधू'ति पटिस्सुत्वा नेव आगन्त्वा आरोचेन्ति, न पन दूतं पहिणन्ति । अयम्पि खो, भो कस्सप, परियायो, येन में परियायेन एवं होति - इतिपि नत्थि परो लोको, नत्थि सत्ता ओपपातिका, नत्थि सुकतदुक्कटानं कम्मानं फलं विपाको 'ति ।
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तावतिसदेवउपमा
४१७. “तेन हि, राजञ्ञ, तज्ञेवेत्थ पटिपुच्छिस्सामि यथा ते खमेय्य, तथा नं ब्याकरेय्यासि । यं खो पन, राजञ्ञ, मानुस्सकं वस्ससतं, देवानं तावतिसानं एसो एको रत्तिन्दिवो, ताय रत्तिया तिंसरत्तियो मासो, तेन मासेन द्वादसमासियो संवच्छरो, तेन संवच्छरेन दिब्बं वस्ससहस्सं देवानं तावतिंसानं आयुप्पमाणं । ये ते मित्तामच्चा ञतिसालोहिता पाणातिपाता पटिविरता अदिन्नादाना पटिविरता कामेसुमिच्छाचारा पटिविरता मुसावादा पटिविरता सुरामेरयमज्जपमादट्ठाना पटिविरता, ते कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपन्ना देवानं तावतिसानं सहब्यतं । सचे पन तेसं एवं भविस्सति – ‘याव मयं द्वे वा तीणि वा रत्तिन्दिवा दिब्बेहि पञ्चहि काम समपिता समङ्गीभूता परिचारेम, अथ मयं पायासिस्स राजञ्ञस्स गन्त्वा आरोचेय्याम - इतिपि अत्थि परो लोको, अत्थि सत्ता ओपपातिका, अत्थि सुकतदुक्कटानं कम्मानं फलं विपाको 'ति । अपि नु ते आगन्त्वा आरोचेय्युं - इतिपि अत्थि परो लोको, अस्थि सत्ता ओपपातिका, अत्थि सुकतदुक्कटानं कम्मानं फलं विपाको 'ति ? "नो हिदं भो कस्सप । अपि हि मयं भो कस्सप, चिरं कालङ्कतापि भवेय्याम । को पनेतं भोतो कस्सपस्स आरोचेति – ‘अत्थि देवा तावतिंसा' ति वा 'एवंदीघायुका देवा तावतिंसा 'ति वा । न मयं भोतो कस्सपस्स सद्दहाम - 'अत्थि देवा तावतिंसा' ति वा 'एवंदीघायुका देवा तावतिंसा'ति वाति ।
जच्चन्धउपमा
४१८. “ सेय्यथापि, राजञ्ञ, जच्चन्धो पुरिसो न पस्सेय्य कण्ह - सुक्का
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(२.१०.४१९-४१९)
१०. पायासिसुत्तं
२४५
रूपानि, न पस्सेय्य नीलकानि रूपानि, न पस्सेय्य पीतकानि रूपानि, न पस्सेय्य लोहितकानि रूपानि, न पस्सेय्य मञ्जिट्टकानि रूपानि, न पस्सेय्य समविसमं, न पस्सेय्य तारकानि रूपानि, न पस्सेय्य चन्दिमसूरिये । सो एवं वदेय्य - 'नत्थि कण्हसुक्कानि रूपानि, नत्थि कण्हसुक्कानं रूपानं दस्सावी । नत्थि नीलकानि रूपानि, नत्थि नीलकानं रूपानं दस्सावी । नत्थि पीतकानि रूपानि, नत्थि पीतकानं रूपानं दस्सावी । नत्थि लोहितकानि रूपानि, नत्थि लोहितकानं रूपानं दस्सावी । नत्थि मट्टिकानि रूपानि, नस्थि मजिट्ठकानं रूपानं दस्सावी । नत्थि समविसमं, नत्थि समविसमस्स दस्सावी। नत्थ तारकानि रूपानि, नत्थि तारकानं रूपानं दस्सावी । नत्थि चन्दिमसूरिया, नत्थि चन्दिमसूरियानं दस्सावी। अहमेतं न जानामि, अहमेतं न पस्सामि, तस्मा तं नत्थी'ति । सम्मा नु खो सो, राजञ, वदमानो वदेय्या''ति ? “नो हिदं, भो कस्सप । अस्थि कण्हसुक्कानि रूपानि, अस्थि कण्हसुक्कानं रूपानं दस्सावी । अत्थि नीलकानि रूपानि, अस्थि नीलकानं रूपानं दस्सावी...पे०... अस्थि समविसमं, अस्थि समविसमस्स दस्सावी । अत्थि तारकानि रूपानि, अस्थि तारकानं रूपानं दस्सावी । अस्थि चन्दिमसूरिया, अत्थि चन्दिमसूरियानं दस्सावी । 'अहमेतं न जानामि, अहमेतं न पस्सामि, तस्मा तं नत्थी'ति । न हि सो, भो कस्सप, सम्मा वदमानो वदेय्या'ति । “एवमेव खो त्वं, राजञ, जच्चन्धूपमो मजे पटिभासि यं मं त्वं एवं वदेसि"।
“को पनेतं भोतो कस्सपस्स आरोचेति - ‘अस्थि देवा तावतिंसा''ति वा, ‘एवंदीघायुका देवा तावतिंसा'ति वा ? न मयं भोतो कस्सपस्स सद्दहाम - ‘अत्थि देवा तावतिंसा'ति वा ‘एवंदीघायुका देवा तावतिंसाति वा''ति । “न खो, राजञ, एवं परो लोको दट्टब्बो, यथा त्वं मञ्जसि इमिना मंसचक्खुना। ये खो ते राजञ समणब्राह्मणा अरञवनपत्थानि पन्तानि सेनासनानि पटिसेवन्ति, ते तत्थ अप्पमत्ता आतापिनो पहितत्ता विहरन्ता दिब्बचक्टुं विसोधेन्ति । ते दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्कन्तमानुसकेन इमं चेव लोकं पस्सन्ति परञ्च सत्ते च ओपपातिके। एवञ्च खो, राजञ, परो लोको दट्ठब्बो; नत्वेव यथा त्वं मसि इमिना मंसचक्खुना। इमिनापि खो ते, राजञ, परियायेन एवं होतु - इतिपि अस्थि परो लोको, अस्थि सत्ता ओपपातिका, अस्थि सुकतदुक्कटानं कम्मानं फलं विपाको''ति ।
४१९. “किञ्चापि भवं कस्सपो एवमाह । अथ खो एवं मे एत्थ होति - इतिपि नत्थि परो लोको, नत्थि सत्ता ओपपातिका, नत्थ सुकतदुक्कटानं कम्मानं फलं
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दीघनिकायो-२
(२.१०.४२०-४२०)
विपाको''ति । अत्थि पन, राजञ, परियायो...पे०... अस्थि, भो कस्सप, परियायो...पे०... यथा कथं विय, राजञाति ? "इधाहं, भो कस्सप, पस्सामि समणब्राह्मणे सीलवन्ते कल्याणधम्मे जीवितुकामे अमरितुकामे सुखकामे दुक्खपटिकूले | तस्स मव्हं, भो कस्सप, एवं होति - सचे खो इमे भोन्तो समणब्राह्मणा सीलवन्तो कल्याणधम्मा एवं जानेय्युं- 'इतो नो मतानं सेय्यो भविस्सती'ति । इदानिमे भोन्तो समणब्राह्मणा सीलवन्तो कल्याणधम्मा विसं वा खादेय्यु, सत्थं वा आहरेय्युं, उब्बन्धित्वा वा कालङ्करेय्यु, पपाते वा पपतेय्युं । यस्मा च खो इमे भोन्तो समणब्राह्मणा सीलवन्तो कल्याणधम्मा न एवं जानन्ति - 'इतो नो मतानं सेय्यो भविस्सती'ति, तस्मा इमे भोन्तो समणब्राह्मणा सीलवन्तो कल्याणधम्मा जीवितुकामा अमरितुकामा सुखकामा दुक्खपटिकूला अत्तानं न मारेन्ति । अयम्पि खो, भो कस्सप, परियायो, येन मे परियायेन एवं होति - इतिपि नत्थि परो लोको, नत्थि सत्ता ओपपातिका, नत्थि सुकतदुक्कटानं कम्मानं फलं विपाको'ति ।
गब्भिनीउपमा
४२०. “तेन हि, राजञ, उपमं ते करिस्सामि । उपमाय मिधेकच्चे विजू पुरिसा भासितस्स अत्थं आजानन्ति । 'भूतपुब्बं, राजञ, अञ्जतरस्स ब्राह्मणस्स द्वे पजापतियो अहेसुं । एकिस्सा पुत्तो अहोसि दसवस्सुद्देसिको वा द्वादसवस्सुद्देसिको वा, एका गब्मिनी उपविजा । अथ खो सो ब्राह्मणो कालमकासि । अथ खो सो माणवको मातुसपत्तिं एतदवोच – यमिदं, भोति, धनं वा धनं वा रजतं वा जातरूपं वा, सब्बं तं मय्हं; नत्थि तुम्हेत्थ किञ्चि । पितु मे भोति, दायज्जं निय्यादेहीति । एवं वुत्ते सा ब्राह्मणी तं माणवकं एतदवोच - आगमेहि ताव, तात, याव विजायामि । सचे कुमारको भविस्सति, तस्सपि एकदेसो भविस्सति; सचे कुमारिका भविस्सति, सापि ते ओपभोग्गा भविस्सतीति । दुतियम्पि खो सो माणवको मातुसपत्तिं एतदवोच- यमिदं, भोति, धनं वा धनं वा रजतं वा जातरूपं वा, सब्बं तं मय्हं; नत्थि तुम्हेत्थ किञ्चि । पितु मे, भोति, दायज्जं निय्यादेहीति । दुतियम्पि खो सा ब्राह्मणी तं माणवकं एतदवोचआगमेहि ताव, तात, याव विजायामि । सचे कुमारको भविस्सति, तस्सपि एकदेसो भविस्सति; सचे कुमारिका भविस्सति सापि ते ओपभोग्गा भविस्सतीति । ततियम्पि खो सो माणवको मातुसपत्तिं एतदवोच - यमिदं, भोति, धनं वा धनं वा रजतं वा
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(२.१०.४२१-४२१)
१०. पायासिसुत्तं
२४७
जातरूपं वा, सब्बं तं मय्हं; नत्थि तुम्हेत्थ किञ्चि । पितु मे, भोति, दायज्जं निय्यादेही ति।
“अथ खो सा ब्राह्मणी सत्थं गहेत्वा ओवरकं पविसित्वा उदरं ओपादेसि - याव विजायामि यदि वा कुमारको यदि वा कुमारिकाति । सा अत्तानं चेव जीवितञ्च गब्भञ्च सापतेय्यञ्च विनासेसि । यथा तं बाला अब्यत्ता अनयब्यसनं आपन्ना अयोनिसो दायज्जं गवेसन्ती, एवमेव खो त्वं, राजञ, बालो अब्यत्तो अनयब्यसनं आपज्जिस्ससि अयोनिसो परलोकं गवेसन्तो; सेय्यथापि सा ब्राह्मणी बाला अब्यत्ता अनयब्यसनं आपन्ना अयोनिसो दायज्जं गवेसन्ती। न खो, राजञ, समणब्राह्मणा सीलवन्तो कल्याणधम्मा अपक्कं परिपाचेन्ति; अपि च परिपाकं आगमेन्ति । पण्डितानं अत्थो हि, राजञ, समणब्राह्मणानं सीलवन्तानं कल्याणधम्मानं जीवितेन । यथा यथा खो, राजञ, समणब्राह्मणा सीलवन्तो कल्याणधम्मा चिरं दीघमद्धानं तिठ्ठन्ति, तथा तथा बहुं पुञ्ज पसवन्ति, बहुजनहिताय च पटिपज्जन्ति बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सानं । इमिनापि खो ते, राजञ, परियायेन एवं होतु - इतिपि अस्थि परो लोको, अस्थि सत्ता ओपपातिका, अत्थि सुकतदुक्कटानं कम्मानं फलं विपाको"ति |
४२१. “किञ्चापि भवं कस्सपो एवमाह । अथ खो एवं मे एत्थ होति - ‘इतिपि नत्थि परो लोको, नत्थि सत्ता ओपपातिका, नस्थि सुकतदुक्कटानं कम्मानं फलं विपाको' ''ति । अस्थि पन, राजञ, परियायो...पे०... अस्थि, भो कस्सप, परियायो...पे०... यथा कथं विय, राजञाति ? “इध मे, भो कस्सप, पुरिसा चोरं आगुचारिं गहेत्वा दस्सेन्ति - 'अयं ते, भन्ते, चोरो आगुचारी; इमस्स यं इच्छसि, तं दण्डं पणेही ति । त्याहं एवं वदामि - तेन हि, भो, इमं पुरिसं जीवन्तंयेव कुम्भिया पक्खिपित्वा मुखं पिदहित्वा अल्लेन चम्मेन ओनन्धित्वा अल्लाय मत्तिकाय बहलावलेपनं करित्वा उद्धनं आरोपेत्वा अग्गिं देथा'ति । ते मे ‘साधू'ति पटिस्सुत्वा तं पुरिसं जीवन्तंयेव कुम्भिया पक्खिपित्वा मुखं पिदहित्वा अल्लेन चम्मेन ओनन्धित्वा अल्लाय मत्तिकाय बहलावलेपनं करित्वा उद्धनं आरोपेत्वा अग्गिं देन्ति । यदा मयं जानाम 'कालङ्कतो सो पुरिसो'ति, अथ नं कम्भिं ओरोपेत्वा उब्भिन्दित्वा मखं विवरित्वा सणिकं निल्लोकेम - 'अप्पेव नामस्स जीवं निक्खमन्तं पस्सेय्यामा ति । नेवस्स मयं जीवं निक्खमन्तं पस्साम । अयम्पि खो कस्सप, परियायो, येन मे परियायेन एवं होति - ‘इतिपि नत्थि परो लोको, नत्थि सत्ता ओपपातिका, नत्थि सुकतदुक्कटानं कम्मानं फलं विपाको' ''ति ।
।
भो
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दीघनिकायो-२
सुपिक उपमा
४२२. “तेन हि, राजञ्ञ, तज्ञेवेत्थ पटिपुच्छिस्सामि, यथा ते खमेय्य, तथा नं ब्याकरेय्यासि । अभिजानासि नो त्वं राजञ्ञ, दिवा सेय्यं उपगतो सुपिनकं पस्सिता आरामरामणेय्यकं वनरामणेय्यकं भूमिरामणेय्यकं पोक्खरणीरामणेय्यक' "न्ति ? " अभिजानामहं भो कस्सप, दिवासेय्यं उपगतो सुपिनकं पस्सिता आरामरामणेय्यकं वनरामणेय्यकं भूमिरामणेय्यकं पोक्खरणीरामणेय्यक "न्ति । " रक्खन्ति तं तम्हि समये खुज्जापि वामनकापि वेलासिकापि कोमारिकापी" ति ? " एवं भो कस्सप, रक्खन्ति मं तम्हि समये खुज्जापि वामनकापि वेलासिकापि कोमारिकापी 'ति । " अपि ता हं जीवं परसन्ति पविसन्तं वा निक्खमन्तं वा "ति ? "नो हिदं भो कस्सप " । "ता हि नाम, राजञ्ञ, तुम्हं जीवन्तस्स जीवन्तियो जीवं न पस्सिस्सन्ति पविसन्तं वा निक्खमन्तं वा । किं पन त्वं कालङ्कतस्स जीवं पस्सिस्ससि पविसन्तं वा निक्खमन्तं वा । इमिनापि खो ते, राजञ्ञ, परियायेन एवं होतु - इतिपि अस्थि परो लोको, अत्थि सत्ता ओपपातिका, अत्थि सुकतदुक्कटानं कम्मानं फलं विपाको 'ति ।
४२३. “ किञ्चापि भवं कस्सपो एवमाह । अथ खो एवं मे एत्थ होति - इतिपि नत्थि परो लोको, नत्थि सत्ता ओपपातिका, नत्थि सुकतदुक्कटानं कम्मानं फलं विपाको 'ति । अत्थि पन, राजञ्ञ, परियायो...पे०... अत्थि, भो कस्सप,
(२.१०.४२२-४२३)
परियायो...पे०... यथा कथं विय राजञ्ञति ? "इध मे भो कस्सप, पुरिसा चोरं आगुचारिं गत्वा दस्सेन्ति - 'अयं ते, भन्ते, चोरो आगुचारी; इमस्स यं इच्छसि तं दण्डं पणेही'ति । त्याहं एवं वदामि - 'तेन हि भो, इमं पुरिसं जीवन्तंयेव तुलाय तुलेत्वा जियाय अनस्सासकं मारेत्वा पुनदेव तुलाय तुलेथा'ति । ते मे 'साधू' ति पटिस्सुवा तं पुरिसं जीवन्तंयेव तुलाय तुलेत्वा जियाय अनस्सासकं मारेत्वा पुनदेव तुलाय तुलेति । यदा सो जीवति, तदा लहुतरो च होति मुदुतरो च कम्मञ्ञतरो च । यदा पन सो कालङ्कतो होति तदा गरुतरो च होति पत्थिन्नतरो च अकम्पञ्ञतरो च । अयम्पि खो, भो कस्सप, परियायो, येन मे परियायेन एवं होति - 'इतिपि नत्थि परो लोको, नत्थि सत्ता ओपपातिका, नत्थि सुकतदुक्कटानं कम्मानं फलं विपाको' 'ति ।
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१०. पायासिसुत्तं
सन्तत्त अयोगुळउपमा
४२४. “तेन हि, राजञ्ञ, उपमं ते करिस्सामि । उपमाय मिधेकच्चे वि पुरिसा भासितस्स अत्थं आजानन्ति । सेय्यथापि, राजञ्ञ, पुरिसो दिवसं सन्तत्तं अयोगुळं आदित्तं सम्पज्जलितं सजोतिभूतं तुलाय तुलेय्य । तमेनं अपरेन समयेन सीतं निब्बुतं तुलाय तुलेय्य । कदा नु खो सो अयोगुळो लहुतरो वा होति मुदुतरो वा कम्मत वा यदा वा आदित्तो सम्पज्जलितो सजोतिभूतो, यदा वा सीतो निब्बुतो 'ति ? " यदा सो, भो कस्सप, अयोगुळो तेजोसहगतो च होति वायोसहगतो च आदित्तो सम्पज्जलितो सजोतिभूतो, तदा लहुतरो च होति मुदुतरो च कम्मञ्ञतरो च । यदा पन सो अयोगुळी नेव तेजोसहगतो होति न वायोसहगतो सीतो निब्बुतो, तदा गरुतरो च होति पत्थिन्नतरो च अकम्मञ्ञतरो चा "ति । " एवमेव खो, राजञ्ञ, यदायं कायो आयुसहगतो च होति उस्मासहगतो च विञ्ञणसहगतो च तदा लहुतरो च होति मुदुतरो च कम्मञ्ञतरो च । यदा पनायं कायो नेव आयुसहगतो होति न उस्मासहगतो न विञ्ञाणसहगतो तदा गरुतरो च होति पत्थिन्नतरो च अकम्मञ्ञतरो च । इमिनापि खो ते, राजञ्ञ, परियायेन एवं होतु - 'इतिपि अस्थि परो लोको, अत्थि सत्ता ओपपातिका, अत्थि सुकतदुक्कटानं कम्मानं फलं विपाको' "ति ।
(२.१०.४२४-४२५)
४२५. “किञ्चापि भवं कस्सपो एवमाह । अथ खो एवं मे एत्थ होति इतिपि नत्थि परो लोको, नत्थि सत्ता ओपपातिका, नत्थि सुकतदुक्कटानं कम्मानं फलं विपाको ' "ति । अत्थि पन, राजञ्ञ, परियायो... पे०... अत्थि, भो कस्सप, परियायो...पे०... यथा कथं विय राजञ्ञति ? "इध मे भो कस्सप, पुरिसा चोरं आगुचारिं गत्वा दस्सेन्ति - 'अयं ते, भन्ते, चोरो आगुचारी; इमस्स यं इच्छसि तं दण्डं पणेही 'ति । त्याहं एवं वदामि - 'तेन हि, भो, इमं पुरिसं अनुपहच्च छविञ्च चम्मञ्च मंसञ्च न्हारुञ्च अट्ठिञ्च अट्ठिमिञ्जञ्च जीविता वोरोपेथ, अप्पेव नामस्स जीवं निक्खमन्तं परसेय्यामा 'ति । ते मे 'साधू'ति पटिस्सुत्वा तं पुरिसं अनुपहच्च छविञ्च... पे०... जीविता वोरोपेन्ति । यदा सो आमतो होति, त्याहं एवं वदामि - 'तेन हि भो, इमं पुरिसं उत्तानं निपातेथ, अप्पेव नामस्स जीवं निक्खमन्तं परसेय्यामा 'ति । ते तं पुरिसं उत्तानं निपातेन्ति । नेवस्स मयं जीवं निक्खमन्तं पस्साम । त्याहं एवं वदामि - 'तेन हि भो, इमं पुरिसं अवकुज्जं निपातेथ... पस्सेन निपातेथ... दुतियेन परसेन निपातेथ... उद्धं ठपेथ... ओमुद्धकं ठपेथ... पाणिना आकोटेथ... लेड्डुना आकोटेथ... दण्डेन आकोटेथ... सत्थेन आकोटेथ... ओधुनाथ
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२५०
दीघनिकायो-२
(२.१०.४२६-४२६)
सन्धुनाथ निद्धनाथ, अप्पेव नामस्स जीवं निक्खमन्तं पस्सेय्यामा ति । ते तं पुरिसं ओधुनन्ति सन्धुनन्ति निद्धनन्ति । नेवस्स मयं जीवं निक्खमन्तं पस्साम | तस्स तदेव चक्खु होति ते रूपा, तञ्चायतनं नप्पटिसंवेदेति । तदेव सोतं होति ते सद्दा, तञ्चायतनं नप्पटिसंवेदेति । तदेव घानं होति ते गन्धा, तञ्चायतनं नप्पटिसंवेदेति । साव जिव्हा होति ते रसा, तञ्चायतनं नप्पटिसंवेदेति । स्वेव कायो होति, ते फोट्टब्बा, तञ्चायतनं नप्पटिसंवेदेति । अयम्पि खो, भो कस्सप, परियायो, येन मे परियायेन एवं होति - 'इतिपि नत्थि परो लोको, नत्थि सत्ता ओपपातिका, नत्थि सुकतदुक्कटानं कम्मानं फलं विपाको' "ति।
सङ्खधमउपमा
४२६. "तेन हि, राजञ, उपमं ते करिस्सामि । उपमाय मिधेकच्चे विजू पुरिसा भासितस्स अत्थं आजानन्ति । 'भूतपुब्बं, राजञ, अञ्जतरो सङ्खधमो सङ्ख आदाय पच्चन्तिमं जनपदं अगमासि । सो येन अञतरो गामो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा मज्झे गामस्स ठितो तिक्खत्तुं सङ्ख उपलापेत्वा सङ्ख भूमियं निक्खिपित्वा एकमन्तं निसीदि । अथ खो, राजञ, तेसं पच्चन्तजनपदानं मनुस्सानं एतदहोसि- अम्भो कस्स नु खो एसो सद्दो एवंरजनीयो एवंकमनीयो एवंमदनीयो एवंबन्धनीयो एवंमुच्छनीयो'ति । सन्निपतित्वा तं सङ्खधमं एतदवोचुं- 'अम्भो, कस्स नु खो एसो सद्दो एवंरजनीयो एवंकमनीयो एवंमदनीयो एवंबन्धनीयो एवंमुच्छनीयो'ति । ‘एसो खो, भो, सङ्घो नाम यस्सेसो सद्दो एवंरजनीयो एवंकमनीयो एवंमदनीयो एवंबन्धनीयो एवंमुच्छनीयो'ति । "ते तं सङ्ख उत्तानं निपातेसुं- 'वदेहि, भो सङ्घ, वदेहि, भो सङ्घाति । नेव सो सङ्खो सद्दमकासि । ते तं सङ्ख अवकुज्जं निपातेसुं, पस्सेन निपातेसुं, दुतियेन पस्सेन निपातेसुं, उद्धं ठपेसुं, ओमुद्धकं ठपेसुं, पाणिना आकोटेसुं, लेड्डुना आकोटेसुं, दण्डेन आकोटेसुं, सत्थेन आकोटेसु, ओधुनिंसु सन्धुनिंसु निडुनिंसु - ‘वदेहि, भो सङ्ख, वदेहि, भो सङ्खा'ति । नेव सो सङ्खो सद्दमकासि ।
अथ खो, राजन, तस्स सङ्खधमस्स एतदहोसि - ‘याव बाला इमे पच्चन्तजनपदामनुस्सा, कथहि नाम अयोनिसो सङ्घसदं गवेसिस्सन्ती'ति । तेसं पेक्खमानानं सङ्गं गहेत्वा तिक्खत्तुं सङ्ख उपलापेत्वा सङ्ख आदाय पक्कामि । अथ खो, राजञ, तेसं पच्चन्तजनपदानं मनुस्सानं एतदहोसि- 'यदा किर, भो, अयं सङ्खो नाम
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(२.१०.४२७-४२८)
१०. पायासिसुत्तं
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पुरिससहगतो च होति वायामसहगतो च वायुसहगतो च, तदायं सङ्खो सदं करोति, यदा पनायं सङ्खो नेव पुरिससहगतो होति न वायामसहगतो न वायुसहगतो, नायं सङ्खो सदं करोती'ति । एवमेव खो, राजञ, यदायं कायो आयुसहगतो च होति उस्मासहगतो च विज्ञाणसहगतो च, तदा अभिक्कमतिपि पटिक्कमतिपि तिट्ठतिपि निसीदतिपि सेय्यम्पि कप्पेति, चक्खुनापि रूपं पस्सति, सोतेनपि सदं सुणाति, घानेनपि गन्धं घायति, जिव्हायपि रसं सायति, कायेनपि फोट्टब्बं फुसति, मनसापि धम्मं विजानाति । यदा पनायं कायो नेव आयसहगतो होति. न उस्मासहगतो. न विज्ञआणसहगतो. तदा नेव अभिक्कमति न पटिक्कमति न तिट्ठति न निसीदति न सेय्यं कप्पेति, चक्खुनापि रूपं न पस्सति, सोतेनपि सदं न सुणाति, घानेनपि गन्धं न घायति, जिव्हायपि रसं न सायति, कायेनपि फोटब् न फुसति, मनसापि धम्मं न विजानाति । इमिनापि खो ते, राजञ, परियायेन एवं होतु- ‘इतिपि अत्थि परो लोको, अत्थि सत्ता ओपपातिका, अस्थि सुकतदुक्कटानं कम्मानं फलं विपाको'ति ।
४२७. “किञ्चापि भवं कस्सपो एवमाह । अथ खो एवं मे एत्थ होति - ‘इतिपि नत्थि परो लोको, नत्थि सत्ता ओपपातिका, नत्थि सुकतदुक्कटानं कम्मानं फलं विपाको' 'ति । अत्थि पन, राजञ, परियायो...पे०... अत्थि, भो कस्सप, परियायो...पे०... यथा कथं विय राजञाति ? “इध मे, भो कस्सप, पुरिसा चोरं आगुचारिं गहेत्वा दस्सेन्ति'अयं ते, भन्ते, चोरो आगुचारी, इमस्स यं इच्छसि, तं दण्डं पणेही'ति । त्याहं एवं वदामि- 'तेन हि, भो, इमस्स पुरिसस्स छविं छिन्दथ, अप्पेव नामस्स जीवं पस्सेय्यामा'ति । ते तस्स पुरिसस्स छविं छिन्दन्ति । नेवस्स मयं जीवं पस्साम । त्याहं एवं वदामि - ‘तेन हि, भो, इमस्स पुरिसस्स चम्मं छिन्दथ, मंसं छिन्दथ, न्हाळं छिन्दथ, अष्टिं छिन्दथ, अट्ठिमिजं छिन्दथ, अप्पेव नामस्स जीवं पस्सेय्यामा'ति । ते तस्स पुरिसस्स अट्ठिमिजं छिन्दन्ति, नेवस्स मयं जीवं पस्सेय्याम | अयम्पि खो, भो कस्सप, परियायो, येन मे परियायेन एवं होति - ‘इतिपि नत्थि परो लोको, नत्थि सत्ता ओपपातिका, नस्थि सुकतदुक्कटानं कम्मानं फलं विपाको' ''ति ।
अग्गिकजटिलउपमा ४२८. “तेन हि, राजञ, उपमं ते करिस्सामि । उपमाय मिधेकच्चे विशू पुरिसा भासितस्स अत्थं आजानन्ति । 'भूतपुब्, राजञ, अञतरो अग्गिको जटिलो
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दीघनिकायो-२
(२.१०.४२८-४२८)
अरञायतने पण्णकुटिया सम्मति । अथ खो, राजञ, अञतरो जनपदे सत्थो वुट्ठासि । अथ खो सो सत्थो तस्स अग्गिकस्स जटिलस्स अस्समस्स सामन्ता एकरत्तिं वसित्वा पक्कामि | अथ खो, राजञ, तस्स अग्गिकस्स जटिलस्स एतदहोसि - यंनूनाहं येन सो सत्थवासो तेनुपसङ्कमेय्यं, अप्पेव नामेत्थ किञ्चि उपकरणं अधिगच्छेय्यन्ति । अथ खो सो अग्गिको जटिलो कालस्सेव वुट्ठाय येन सो सत्थवासो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा अद्दस तस्मिं सत्थवासे दहरं कुमारं मन्दं उत्तानसेय्यकं छड्डितं । दिस्वानस्स एतदहोसि - न खो मे तं पतिरूपं यं मे पेक्खमानस्स मनुस्सभूतो कालङ्करेय्य; यंनूनाहं इमं दारकं अस्समं नेत्वा आपादेय्यं पोसेय्यं वड्ढय्यन्ति । अथ खो सो अग्गिको जटिलो तं दारकं अस्सम नेत्वा आपादेसि पोसेसि वड्डेसि । यदा सो दारको दसवस्सद्देसिको वा होति द्वादसवस्सुद्देसिको वा, अथ खो तस्स अग्गिकस्स जटिलस्स जनपदे कञ्चिदेव करणीयं उप्पज्जि । अथ खो सो अग्गिको जटिलो तं दारकं एतदवोच - ‘इच्छामहं, तात, जनपदं गन्तुं; अग्गिं, तात, परिचरेय्यासि | मा च ते अग्गि निब्बायि । सचे च ते अग्गि निब्बायेय्य, अयं वासी इमानि कट्ठानि इदं अरणिसहितं, अग्गिं निब्बत्तेत्वा अग्गिं परिचरेय्यासी'ति । अथ खो सो अग्गिको जटिलो तं दारकं एवं अनुसासित्वा जनपदं अगमासि । तस्स खिड्डापसुतस्स अग्गि निब्बायि ।
“अथ खो तस्स दारकस्स एतदहोसि - ‘पिता खो मं एवं अवच- 'अग्गिं, तात, परिचरेय्यासि । मा च ते अग्गि निब्बायि । सचे च ते अग्गि निब्बायेय्य, अयं वासी इमानि कट्ठानि इदं अरणिसहितं, अग्गिं निब्बत्तेत्वा अग्गिं परिचरेय्यासीति । यंनूनाहं अग्गिं निब्बत्तेत्वा अग्गिं परिचरेय्य'न्ति । अथ खो सो दारको अरणिसहितं वासिया तच्छि - 'अप्पेव नाम अग्गिं अधिगच्छेय्य'न्ति । नेव सो अग्गिं अधिगच्छि । अरणिसहितं द्विधा फालेसि, तिधा फालेसि, चतुधा फालेसि, पञ्चधा फालेसि, दसधा फालेसि, सतधा फालेसि, सकलिकं सकलिकं अकासि, सकलिकं सकलिकं करित्वा उदुक्खले कोट्टेसि, उदुक्खले कोठूत्वा महावाते ओपुनि - 'अप्पेव नाम अग्गिं अधिगच्छेय्य'न्ति । नेव सो अग्गिं अधिगच्छि ।
अथ खो सो अग्गिको जटिलो जनपदे तं करणीयं तीरेत्वा येन सको अस्समो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा तं दारकं एतदवोच - 'कच्चि ते, तात, अग्गि न निब्बुतो'ति ? इध मे, तात, खिड्डापसुतस्स अग्गि निब्बायि । तस्स मे एतदहोसि - ‘पिता खो मं एवं अवच अग्गिं, तात, परिचरेय्यासि । मा च ते, तात, अग्गि निब्बायि ।
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१०. पायासिसुतं
सचे च ते अग्गि निब्बायेय्य, अयं वासी इमानि कट्ठानि इदं अरणिसहितं, अग्गिं निब्बत्तेत्वा अग्गिं परिचरेय्यासीति । यंनूनाहं अग्गिं निब्बत्तेत्वा अग्गिं परिचरेय्यन्ति । अथ ख्वाहं, तात, अरणिसहितं वासिया तच्छिं- 'अप्पेव नाम अग्गिं अधिगच्छेय्यन्ति । नेवाहं अग्गिं अधिगच्छिं । अरणिसहितं द्विधा फालेसिं, तिधा फालेसिं, चतुधा फालेसिं, पञ्चधा फालेसिं, दसधा फालेसिं, सतधा फालेसिं, सकलिकं सकलिकं अकासिं, सकलिकं सकलिकं करित्वा उदुक्खले कोट्टेसिं, उदुक्खले कोट्टेत्वा महावाते ओपुनिं - 'अप्पेव नाम अग्गिं अधिगच्छेय्यन्ति । नेवाहं अग्गिं अधिगच्छिन्ति । अथ खो तस्स अग्गिकस्स जटिलस्स एतदहोसि - 'याव बालो अयं दारको अब्यत्तो, कथञ्हि नाम अयोनिसो अग्गिं गवेसिस्सती 'ति । तस्स पेक्खमानस्स अरणिसहितं गहेत्वा अग्गिं निब्बत्तेत्वा तं दारकं एतदवोच - ' एवं खो, तात, अग्गि निब्बत्तेतब्बो । न त्वेव यथा त्वं बालो अब्यत्तो अयोनिसो अग्गिं गवेसी 'ति । 'एवमेव खो त्वं, राजञ्ञ, बालो अब्यत्तो अयोनिसो परलोकं गवेसिस्ससि । पटिनिस्सज्जेतं, राजञ्ञ, पापकं दिट्ठिगतं, पटिनिस्सज्जेतं राजञ्ञ, पापकं दिट्ठिगतं, मा ते अहोसि दीघरत्तं अहिताय दुक्खाया'ति ।
(२.१०.४२९-४३०)
४२९. “किञ्चापि भवं कस्सपो एवमाह, अथ खो नेवाहं सक्कोमि इदं पापकं दिट्ठगतं पटिनिस्सज्जितुं । राजापि मं पसेनदि कोसलो जानाति तिरोराजानोपि – 'पायासि राजञ एवंवादी एवंदिट्ठी - इतिपि नत्थि परो लोको, नत्थि सत्ता ओपपातिका, नत्थि सुकतदुक्कटानं कम्मानं फलं विपाको 'ति । सचाहं भो कस्सप इदं पापकं दिट्टिगतं पटिनिस्सज्जिस्सामि, भविस्सन्ति मे वत्तारो - 'याव बालो पायासि राजञ्ञो अब्यत्तो दुग्गहितगाही 'ति । कोपेनपि नं हरिस्सामि, मक्खेनपि नं हरिस्सामि, पलासेनपि नं हरिस्सामी 'ति ।
द्वे सत्थवाहउपमा
४३०. “तेन हि, राजञ्ञ, उपमं ते करिस्सामि, उपमाय मिधेकच्चे विञ्ञू पुरिसा भासितस्स अत्थं आजानन्ति । 'भूतपुब्बं राजञ्ञ, महासकटसत्थो सकटसहस्सं पुरथिमा जनपदा पच्छिमं जनपदं अगमासि । सो येन येन गच्छ, खिप्पंयेव परियादियति तिणकट्ठोदकं हरितकपण्णं । तस्मिं खो पन सत्थे द्वे सत्थवाहा अहेसुं एको पञ्चन्नं सकटसतानं, एको पञ्चन्नं सकटसतानं । अथ खो तेसं सत्थवाहानं एतदहोसि - अयं खो महासकटसत्थो सकटसहस्सं ते मयं येन येन गच्छाम, खिप्पमेव परियादियति
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दीघनिकायो-२
(२.१०.४३०-४३०)
तिणकट्ठोदकं हरितकपण्णं । यंनून मयं इमं सत्थं द्विधा विभजेय्याम - एकतो पञ्च सकटसतानि एकतो पञ्च सकटसतानी'ति । 'ते तं सत्थं द्विधा विभजिंसु एकतो पञ्च सकटसतानि एकतो पञ्च सकटसतानि । एको सत्थवाहो बहुं तिणञ्च कठ्ठञ्च उदकञ्च आरोपेत्वा सत्थं पयापेसि । द्वीहतीहपयातो खो पन सो सत्थो अद्दस पुरिसं काळं लोहितक्खं सन्नद्धकलापं कुमुदमालिं अल्लवत्थं अल्लकेसं कद्दममक्खितेहि चक्केहि भद्रेन रथेन पटिपथं आगच्छन्तं', दिस्वा एतदवोच- 'कुतो, भो, आगच्छसी'ति ? 'अमुकम्हा जनपदा'ति । 'कुहिं गमिस्ससी'ति ? 'अमुकं नाम जनपदन्ति । 'कच्चि, भो, पुरतो कन्तारे महामेघो अभिप्पवुट्टो ति ? ‘एवं, भो, पुरतो कन्तारे महामेघो अभिप्पवुट्ठो, आसित्तोदकानि वटुमानि, बहु तिणञ्च कट्ठञ्च उदकञ्च । छड्डेथ, भो, पुराणानि तिणानि कट्ठानि उदकानि, लहुभारेहि सकटेहि सीघं सीघं गच्छथ, मा योग्गानि किलमित्था'ति ।
“अथ खो सो सत्थवाहो सत्थिके आमन्तेसि - ‘अयं, भो, पुरिसो एवमाह - पुरतो कन्तारे महामेघो अभिप्पवुट्ठो, आसित्तोदकानि वटुमानि, बहु तिणञ्च कटुञ्च उदकञ्च । छड्डेथ, भो, पुराणानि तिणानि कट्ठानि उदकानि, लहुभारेहि सकटेहि सीघं सीघं गच्छथ, मा योग्गानि किलमित्थाति । छड्डेथ, भो, पुराणानि तिणानि कट्ठानि उदकानि, लहुभारेहि सकटेहि सत्थं पयापेथा'ति । ‘एवं, भो'ति खो ते सत्थिका तस्स सत्थवाहस्स पटिस्सुत्वा छड्डत्वा पुराणानि तिणानि कट्ठानि उदकानि लहुभारेहि सकटेहि सत्थं पयापेसुं। ते पठमेपि सत्थवासे न अद्दसंसु तिणं वा कटुं वा उदकं वा। दुतियेपि सत्थवासे... ततियेपि सत्थवासे... चतुत्थेपि सत्थवासे... पञ्चमेपि सत्थवासे... छठेपि सत्थवासे... सत्तमेपि सत्थवासे न अद्दसंसु तिणं वा कटुं वा उदकं वा। सब्बेव अनयब्यसनं आपज्जिंसु । ये च तस्मिं सत्थे अहेसुं मनुस्सा वा पसू वा, सब्बे सो यक्खो अमनुस्सो भक्खेसि । अट्टिकानेव सेसानि ।।
“यदा अञ्जासि दुतियो सत्थवाहो- 'बहुनिक्खन्तो खो, भो, दानि सो सत्थो'ति । बहुं तिणञ्च कट्ठञ्च उदकञ्च आरोपेत्वा सत्थं पयापेसि । द्वीहतीहपयातो खो पन सो सत्थो अद्दस पुरिसं काळं लोहितक्खं सन्नद्धकलापं कुमुदमालिं अल्लवत्थं अल्लकेसं कद्दममक्खितेहि चक्केहि भद्रेन रथेन पटिपथं आगच्छन्तं, दिस्वा एतदवोच- 'कुतो, भो, आगच्छसी'ति ? 'अमुकम्हा जनपदा'ति । 'कुहिं गमिस्ससी'ति ? 'अमुकं नाम जनपदन्ति । 'कच्चि, भो, पुरतो कन्तारे महामेघो अभिप्पवुट्ठो'ति ? ‘एवं, भो, पुरतो कन्तारे महामेघो अभिप्पवुट्ठो। आसित्तोदकानि वटुमानि, बहु तिणञ्च कट्ठञ्च उदकञ्च ।
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१०. पायासिसुत्तं
छड्डेथ, भो, पुराणानि तिणानि कट्ठानि उदकानि, लहुभारेहि सकटेहि सीघं सीघं गच्छथ, मा योग्गानि किलमित्था 'ति ।
(२.१०.४३१-४३१)
“अथ खो सो सत्थवाहो सत्थिके आमन्तेसि - 'अयं भो, पुरिसो एवमाह - पुरतो कन्तारे महामेघो अभिप्पवुट्टो, आसित्तोदकानि वटुमानि बहु तिणञ्च कट्ठञ्च उदकञ्च । छड्डेथ, भो, पुराणानि तिणानि कट्ठानि उदकानि, लहुभारेहि सकटेहि सीघं सीघं गच्छथ; मा योग्गानि किलमित्थाति । अयं भो पुरिसो नेव अम्हाकं मित्तो, न जातिसालोहितो, कथं मयं इमस्स सद्धाय गमिस्साम । न वो छड्डेतब्बानि पुराणानि तिणानि कट्ठानि उदकानि, यथाभतेन भण्डेन सत्थं पयापेथ । न नो पुराणं छड्डेस्सामा 'ति । एवं, भो'ति खो ते सत्थिका तस्स सत्थवाहस्स पटिस्सुत्वा यथाभतेन भण्डेन सत्थं पयापेसुं । ते पठमेपि सत्थवासे न अद्दसंसु तिणं वा कट्टं वा उदकं वा । दुतियेपि सत्थवासे... ततियेपि सत्थवासे... चतुत्थेपि सत्थवासे... पञ्चमेपि सत्थवासे... छट्ठेपि सत्थवासे... सत्तमेपि सत्थवासे न अद्दसंसु तिणं वा कट्टं वा उदकं वा । तञ्च सत्थं अद्दसंसु अनयब्यसनं आपन्नं। ये च तस्मिं सत्थेपि अहेसुं मनुस्सा वा पसू वा, तेसञ्च अट्टिकानेव अद्दसंसु तेन यक्खेन अमनुस्सेन भक्खितानं ।
1
“अथ खो सो सत्थवाहो सत्थिके आमन्तेसि - 'अयं खो, भो, सत्थो अनयब्यसनं आपन्नो, यथा तं तेन बालेन सत्थवाहेन परिणायकेन । तेन हि भो, यानम्हाकं सत्थे अप्पसारानि पणियानि तानि छड्डेत्वा, यानि इमस्मिं सत्थे महासारानि पणियानि, तानि आदियथा’ति । ‘एवं, भोति खो ते सत्थिका तस्स सत्थवाहस्स पटिस्सुत्वा यानि सकस्मिं सत्थे अप्पसारानि पणियानि तानि छड्डेत्वा यानि तस्मिं सत्थे महासारानि पणियानि, तानि आदियित्वा सोत्थिना तं कन्तारं नित्थरिंसु, यथा तं पण्डितेन सत्थवाहेन परिणायकेन । एवमेव खो त्वं, राजञ्ञ, बालो अब्यत्तो अनयब्यसनं आपज्जिस्ससि अयोनिसो परलोकं गवेसन्तो सेय्यथापि सो पुरिमो सत्थवाहो । येपि तव सोतब्बं सद्धातब्बं मञ्ञिस्सन्ति, तेपि अनयब्यसनं आपज्जिस्सन्ति, सेय्यथापि ते सत्थिका । पटिनिस्सज्जेतं, राजञ्ञ, पापकं दिट्ठिगतं; पटिनिस्सज्जेतं, राजञ्ञ, पापकं दिट्ठिगतं । मा ते अहोसि दीघरत्तं अहिताय दुक्खाया'ति ।
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४३१. “किञ्चापि भवं कस्सपो एवमाह, अथ खो नेवाहं सक्कोमि इदं पापकं दिट्ठिगतं पटिनिस्सज्जितुं । राजापि मं पसेनदि कोसलो जानाति तिरोराजानोपि - ‘पायासि
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दीघनिकायो-२
(२.१०.४३२-४३३)
राजो एवंवादी एवंदिट्ठी - इतिपि नत्थि परो लोको...पे०... विपाको'ति । सचाहं, भो कस्सप, इदं पापकं दिट्ठिगतं पटिनिस्सज्जिस्सामि, भविस्सन्ति मे वत्तारो- 'याव बालो पायासि राजञो, अब्यत्तो दुग्गहितगाही'ति । कोपेनपि नं हरिस्सामि, मक्खेनपि नं हरिस्सामि, पलासेनपि नं हरिस्सामी'ति ।
गूथभारिकउपमा
___ ४३२. "तेन हि, राजञ, उपमं ते करिस्सामि, उपमाय मिधेकच्चे विजू पुरिसा भासितस्स अत्थं आजानन्ति । 'भूतपुब्बं, राजञ, अञ्जतरो सूकरपोसको पुरिसो सकम्हा गामा अचं गामं अगमासि । तत्थ अद्दस पहूतं सुक्खगूथं छड्डितं । दिस्वानस्स एतदहोसि - अयं खो पहुतो सुक्खगूथो छड्डितो, मम च सूकरभत्तं; यंनूनाहं इतो सुक्खगूथं हरेय्यन्ति । सो उत्तरासङ्गं पत्थरित्वा पहूतं सुक्खगूथं आकिरित्वा भण्डिकं बन्धित्वा सीसे उब्बाहेत्वा अगमासि । तस्स अन्तरामग्गे महाअकालमेघो पावस्सि । सो उग्घरन्तं पग्घरन्तं याव अग्गनखा गूथेन मक्खितो गूथभार आदाय अगमासि । तमेनं मनुस्सा दिस्वा एवमाहंसु - कच्चि नो त्वं, भणे, उम्मत्तो, कच्चि विचेतो, कथहि नाम उग्घरन्तं पग्घरन्तं याव अग्गनखा गूथेन मक्खितो गूथभारं हरिस्ससीति । तुम्हे ख्वेत्थ, भणे, उम्मत्ता, तुम्हे विचेता, तथा हि पन मे सूकरभत्त'न्ति । एवमेव खो त्वं, राजन, गूथभारिकूपमो मछे पटिभासि । पटिनिस्सज्जेतं, राजञ, पापकं दिद्विगतं । पटिनिस्सज्जेतं, राजञ, पापकं दिट्टिगतं । मा ते अहोसि दीघरत्तं अहिताय दुक्खाया''ति ।
४३३. “किञ्चापि भवं कस्सपो एवमाह, अथ खो नेवाहं सक्कोमि इदं पापकं दिट्ठिगतं पटिनिस्सज्जितुं । राजापि मं पसेनदि कोसलो जानाति तिरोराजानोपि- 'पायासि राजञो एवंवादी एवंदिट्ठी- इतिपि नत्थि परो लोको...पे०... विपाको'ति । सचाहं, भो कस्सप, इदं पापकं दिट्ठिगतं पटिनिस्सज्जिस्सामि, भविस्सन्ति मे वत्तारो- 'याव बालो पायासि राजो अब्यत्तो दुग्गहितगाही'ति । कोपेनपि नं हरिस्सामि, मखेनपि नं हरिस्सामि, पलासेनपि नं हरिस्सामी"ति ।
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(२.१०.४३४-४३५)
१०. पायासिसुत्तं
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अक्खधुत्तकउपमा
४३४. “तेन हि, राजञ, उपमं ते करिस्सामि, उपमाय मिधेकच्चे विजू पुरिसा भासितस्स अत्थं आजानन्ति । 'भूतपुब्बं, राजञ, द्वे अक्खधुत्ता अक्खेहि दिब्बिंसु । एको अक्खधुत्तो आगतागतं कलिं गिलति । अहसा खो दुतियो अक्खधुत्तो तं अक्खधुत्तं आगतागतं कलिं गिलन्तं, दिस्वा तं अक्खधुत्तं एतदवोच – 'त्वं खो, सम्म, एकन्तिकेन जिनासि. देहि मे. सम्म. अक्खे पजोहिस्सामी'ति । ‘एवं सम्मा'ति खो सो अक्खधुत्तो तस्स अक्खधुत्तस्स अक्खे पादासि । अथ खो सो अक्खधुत्तो अक्खे विसेन परिभावत्वा तं अक्खधुत्तं एतदवोच - ‘एहि खो, सम्म, अक्खेहि दिब्बिस्सामा'ति । ‘एवं सम्मा'ति खो सो अक्खधुत्तो तस्स अक्खधुत्तस्स पच्चस्सोसि । दुतियम्पि खो ते अक्खधुत्ता अक्खेहि दिबिंसु । दुतियम्पि खो सो अक्खधुत्तो आगतागतं कलिं गिलति । अद्दसा खो दुतियो अक्खधुत्तो तं अक्खधुत्तं दुतियम्पि आगतागतं कलिं गिलन्तं, दिस्वा तं अक्खधुत्तं एतदवोच
“लित्तं परमेन तेजसा, गिलमक्खं पुरिसो न बुज्झति । गिल रे गिल पापधुत्तक, पच्छा ते कटुकं भविस्सतीति ।।
"एवमेव खो त्वं, राजञ, अक्खधुत्तकूपमो मझे पटिभासि | पटिनिस्सज्जेतं, राजञ, पापकं दिट्ठिगतं; पटिनिस्सज्जेतं, राजञ, पापकं दिट्ठिगतं । मा ते अहोसि दीघरत्तं अहिताय दुक्खाया'ति ।
४३५. “किञ्चापि भवं कस्सपो एवमाह, अथ खो नेवाहं सक्कोमि इदं पापकं दिट्ठिगतं पटिनिस्सज्जितुं । राजापि मं पसेनदि कोसलो जानाति तिरोराजानोपि - ‘पायासि राजञो एवंवादी एवंदिट्ठी - इतिपि नत्थि परो लोको...पे०... विपाको'ति । सचाहं, भो कस्सप, इदं पापकं दिविगतं पटिनिस्सज्जिस्सामि, भविस्सन्ति मे वत्तारो- ‘याव बालो पायासि राजो अब्यत्तो दुग्गहितगाही'ति । कोपेनपि नं हरिस्सामि, मक्खेनपि नं हरिस्सामि, पलासेनपि नं हरिस्सामी'ति ।
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दीघनिकायो-२
(२.१०.४३६-४३६)
साणभारिकउपमा
४३६. "तेन हि, राजञ, उपमं ते करिस्सामि, उपमाय मिधेकच्चे विजू पुरिसा भासितस्स अत्थं आजानन्ति । 'भूतपुब्बं, राजञ, अञ्जतरो जनपदो वुट्टासि । अथ खो सहायको सहायकं आमन्तेसि - 'आयाम, सम्म, येन सो जनपदो तेनुपसङ्कमिस्साम, अप्पेव नामेत्थ किञ्चि धनं अधिगच्छेय्यामा'ति । ‘एवं सम्मा'ति खो सहायको सहायकस्स पच्चस्सोसि । ते येन सो जनपदो, येन अञ्जतरं गामपट्ट तेनुपसङ्कमिंसु, तत्थ अद्दसंसु पहूतं साणं छड्डितं, दिस्वा सहायको सहायकं आमन्तेसि- 'इदं खो, सम्म, पहूतं साणं छड्डितं, तेन हि, सम्म, त्वञ्च साणभारं बन्ध, अहञ्च साणभार बन्धिस्सामि, उभो साणभारं आदाय गमिस्सामा'ति । ‘एवं सम्मा'ति खो सहायको सहायकस्स पटिस्सुत्वा साणभारं बन्धित्वा ते उभो साणभारं आदाय येन अञ्जतरं गामपट्ट तेनुपसङ्कमिंसु । तत्थ अद्दसंसु पहूतं साणसुत्तं छड्डितं, दिस्वा सहायको सहायकं आमन्तेसि - 'यस्स खो, सम्म, अत्थाय इच्छेय्याम साणं, इदं पहूतं साणसुत्तं छड्डितं । तेन हि, सम्म, त्वञ्च साणभारं छड्डेहि, अहञ्च साणभार छड्डेस्सामि, उभो साणसुत्तभारं आदाय गमिस्सामा'ति | अयं खो मे. सम्म. साणभारो दराभतो च ससन्नद्धो च. अलं मे त्वं पजानाहीति । अथ खो सो सहायको साणभारं छड्डत्वा साणसुत्तभारं आदियि ।
ते येन अञ्जतरं गामपट्ट तेनुपसङ्कमिंसु । तत्थ अद्दसंसु पहूता साणियो छड्डिता, दिस्वा सहायको सहायकं आमन्तेसि - ‘यस्स खो, सम्म, अत्थाय इच्छेय्याम साणं वा साणसुत्तं वा, इमा पहूता साणियो छड्डिता । तेन हि, सम्म, त्वञ्च साणभारं छड्डेहि, अहञ्च साणसुत्तभारं छड्डेस्सामि, उभो साणिभारं आदाय गमिस्सामा'ति । अयं खो मे, सम्म, साणभारो दूराभतो च सुसन्नद्धो च, अलं मे, त्वं पजानाहीति । अथ खो सो सहायको साणसुत्तभारं छड्डत्वा साणिभारं आदियि ।
ते येन अञ्जतरं गामपट्टे तेनुपसङ्कमिंसु। तत्थ अद्दसंसु पहूतं खोमं छड्डितं, दिस्वा...पे०... पहूतं खोमसुत्तं छड्डितं, दिस्वा... पहूतं खोमदुस्सं छड्डितं, दिस्वा... पहूतं कप्पासं छड्डितं, दिस्वा... पहूतं कप्पासिकसुत्तं छड्डितं, दिस्वा... पहूतं कप्पासिकदुस्सं छड्डितं, दिस्वा... पहूतं अयं छड्डितं, दिस्वा... पहूतं लोहं छड्डितं, दिस्वा... पहूतं तिपुं छड्डितं, दिस्वा... पहूतं सीसं छड्डितं, दिस्वा... पहूतं सज्झं छड्डितं, दिस्वा... पहूतं सुवण्णं छड्डितं, दिस्वा सहायको सहायकं आमन्तेसि - ‘यस्स खो सम्म अत्थाय
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(२.१०.४३७-४३७)
१०. पायासिसुत्तं
२५९
इच्छेय्याम साणं वा साणसुत्तं वा साणियो वा खोमं वा खोमसुत्तं वा खोमदुस्सं वा कप्पासं वा कप्पासिकसुत्तं वा कप्पासिकदुस्सं वा अयं वा लोहं वा तिपुं वा सीसं वा सज्झं वा, इदं पहूतं सुवण्णं छड्डितं । तेन हि, सम्म, त्वञ्च साणभारं छड्डेहि, अहञ्च सज्झभारं छड्डेस्सामि, उभो सुवण्णभार आदाय गमिस्सामा ति। अयं खो मे, सम्म, साणभारो दूराभतो च सुसन्नद्धो च, अलं मे त्वं पजानाहीति । अथ खो सो सहायको सज्झभारं छड्दुत्वा सुवण्णभारं आदियि ।
ते येन सको गामो तेनुपसङ्कमिंसु । तत्थ यो सो सहायको साणभारं आदाय अगमासि, तस्स नेव मातापितरो अभिनन्दिंसु, न पुत्तदारा अभिनन्दिंसु, न मित्तामच्चा अभिनन्दिंसु, न च ततोनिदानं सुखं सोमनस्सं अधिगच्छि। यो पन सो सहायको सुवण्णभारं आदाय अगमासि, तस्स मातापितरोपि अभिनन्दिंसु, पुत्तदारापि अभिनन्दिंसु, मित्तामच्चापि अभिनन्दिंसु, ततोनिदानञ्च सुखं सोमनस्सं अधिगच्छि । “एवमेव खो त्वं, राजञ, साणभारिकूपमो मछे पटिभासि । पटिनिस्सज्जेतं, राजञ, पापकं दिट्ठिगतं; पटिनिस्सज्जेतं, राजञ, पापकं दिट्टिगतं । मा ते अहोसि दीघरत्तं अहिताय दुक्खाया'ति ।
सरणगमनं
४३७. “पुरिमेनेव अहं ओपम्मेन भोतो कस्सपस्स अत्तमनो अभिरद्धो । अपि चाहं, इमानि विचित्रानि पञ्हापटिभानानि सोतुकामो एवाहं भवन्तं कस्सपं पच्चनीकं कातब्बं अमञिस्सं । अभिक्कन्तं, भो कस्सप, अभिक्कन्तं, भो कस्सप । सेय्यथापि, भो कस्सप, निक्कुज्जितं वा उक्कुज्जेय्य, पटिच्छन्नं वा विवरेय्य, मूळहस्स वा मग्गं आचिक्खेय्य, अन्धकारे वा तेलपज्जोतं धारेय्य 'चक्खुमन्तो रूपानि दक्खन्तीति । एवमेवं भोता कस्सपेन अनेकपरियायेन धम्मो पकासितो। एसाहं, भो कस्सप, तं भवन्तं गोतमं सरणं गच्छामि, धम्मञ्च, भिक्खुसङ्घञ्च । उपासकं मं भवं कस्सपो धारेतु अज्जतग्गे पाणुपेतं सरणं गतं ।
“इच्छामि चाहं, भो कस्सप, महायजं यजितुं, अनुसासतु मं भवं कस्सपो, यं ममस्स दीघरत्तं हिताय सुखाया''ति ।
259
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२६०
दीघनिकायो-२
(२.१०.४३८-४३८)
यञकथा
४३८. “यथारूपे खो, राजञ, यळे गावो वा हन्ति अजेळका वा हञ्जन्ति, कुक्कुटसुकरा वा हन्ति, विविधा वा पाणा संघातं आपज्जन्ति. पटिग्गाहका च होन्ति मिच्छादिही मिच्छासप्पा मिच्छावाचा मिच्छाकम्मन्ता मिच्छाआजीवा मिच्छावायामा मिच्छासती मिच्छासमाधी । एवरूपो खो, राजञ, यो न महप्फलो होति न महानिसंसो न महाजुतिको न महाविप्फारो। सेय्यथापि राजञ, कस्सको बीजनङ्गलं आदाय वनं पविसेय्य । सो तत्थ दुक्खेत्ते दुब्भूमे अविहतखाणुकण्टके बीजानि पतिट्ठापेय्य खण्डानि पूतीनि वातातपहतानि असारदानि असुखसयितानि । देवो च न कालेन कालं सम्माधारं अनुप्पवेच्छेय्य । अपि नु तानि बीजानि बुद्धिं विरूळ्हिं वेपुल्लं आपज्जेय्यु, कस्सको वा विपुलं फलं अधिगच्छेय्या'ति ? “नो हिदं भो कस्सप” । “एवमेव खो, राजञ, यथारूपे यळे गावो वा हञ्जन्ति, अजेळका वा हञ्जन्ति, कुक्कुटसूकरा वा हञ्जन्ति, विविधा वा पाणा संघातं आपज्जन्ति, पटिग्गाहका च होन्ति मिच्छादिट्ठी मिच्छासङ्कप्पा मिच्छावाचा मिच्छाकम्मन्ता मिच्छाआजीवा मिच्छावायामा मिच्छासती मिच्छासमाधी । एवरूपो खो, राजञ, यो न महप्फलो होति न महानिसंसो न महाजुतिको न महाविप्फारो ।
___“यथारूपे च खो, राजञ, यचे नेव गावो हञ्जन्ति, न अजेळका हचन्ति, न कुक्कुटसूकरा हञ्जन्ति, न विविधा वा पाणा संघातं आपज्जन्ति, पटिग्गाहका च होन्ति सम्मादिट्ठी सम्मासङ्कप्पा सम्मावाचा सम्माकम्मन्ता सम्माआजीवा सम्मावायामा सम्मासती सम्मासमाधी । एवरूपो खो, राजञ, यो महप्फलो होति महानिसंसो महाजुतिको महाविप्फारो । सेय्यथापि, राजञ, कस्सको बीजनङ्गलं आदाय वनं पविसेय्य, सो तत्थ सुखेत्ते सुभूमे सुविहतखाणुकण्टके बीजानि पतिठ्ठपेय्य अखण्डानि अपूतीनि अवातातपहतानि सारदानि सुखसयितानि। देवो च कालेन कालं सम्माधारं अनुप्पवेच्छेय्य । अपि नु तानि बीजानि वुद्धिं विरूळ्हिं वेपुल्लं आपज्जेय्यु, कस्सको वा विपुलं फलं अधिगच्छेय्या''ति ? “एवं, भो कस्सप" । “एवमेव खो, राजञ, यथारूपे यजे नेव गावो हञ्जन्ति, न अजेळका हञ्जन्ति, न कुक्कुटसूकरा हञ्जन्ति, न विविधा वा पाणा संघातं आपज्जन्ति, पटिग्गाहका च होन्ति सम्मादिट्ठी सम्मासङ्कप्पा सम्मावाचा सम्माकम्मन्ता सम्माआजीवा सम्मावायामा सम्मासती सम्मासमाधी । एवरूपो खो, राजञ, यो महप्फलो होति महानिसंसो महाजुतिको महाविप्फारो''ति ।
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(२.१०.४३९-४४०)
१०. पायासिसुत्तं
२६१
उत्तरमाणववत्थु
४३९. अथ खो पायासि राजञो दानं पट्ठपेसि समण-ब्राह्मण-कपणद्धिकवणिब्बक-याचकानं । तस्मिं खो पन दाने एवरूपं भोजनं दीयति कणाजकं बिलङ्गदुतियं, धोरकानि च वत्थानि गुळवालकानि । तस्मिं खो पन दाने उत्तरो नाम माणवो वावटो अहोसि । सो दानं दत्वा एवं अनुद्दिसति - “इमिनाहं दानेन पायासिं राजझमेव इमस्मिं लोके समागच्छिं, मा परस्मि''न्ति । अस्सोसि खो पायासि राजो - "उत्तरो किर माणवो दानं दत्वा एवं अनुद्दिसति- 'इमिनाहं दानेन पायासिं राजञमेव इमस्मिं लोके समागच्छिं, मा परस्मि' "न्ति । अथ खो पायासि राजञो उत्तरं माणवं आमन्तापेत्वा एतदवोच- "सच्चं किर त्वं, तात उत्तर, दानं दत्वा एवं अनुद्दिससि - 'इमिनाहं दानेन पायासिं राजञमेव इमस्मिं लोके समागच्छिं, मा परस्मि' "न्ति ? “एवं, भो” । “किस्स पन त्वं, तात उत्तर, दानं दत्वा एवं अनुद्दिससि - ‘इमिनाहं दानेन पायासिं राजञ्जमेव इमस्मिं लोके समागच्छिं, मा परस्मिन्ति ? ननु मयं, तात उत्तर, पुत्थिका दानस्सेव फलं पाटिकङ्खिनो''ति ? “भोतो खो दाने एवरूपं भोजनं दीयति कणाजकं बिलङ्गदुतियं, यं भवं पादापि न इच्छेय्य सम्फुसितुं, कुतो भुजितुं । धोरकानि च वत्थानि गळवालकानि, यानि भवं पादापि न इच्छेय्य सम्फसितं, कतो परिदहितं । भवं खो पनम्हाकं पियो मनापो. कथं मयं मनापं अमनापेन संयोजेमा"ति ? "तेन हि त्वं. तात उत्तर. यादिसाहं भोजनं भजामि. तादिसं भोजनं पट्टपेहि। यादिसानि चाहं वत्थानि परिदहामि, तादिसानि च वत्थानि पट्टपेही"ति । “एवं, भो''ति खो उत्तरो माणवो पायासिस्स राजञस्स पटिस्सुत्वा यादिसं भोजनं पायासि राजञो भुञ्जति, तादिसं भोजनं पट्ठपेसि । यादिसानि च वत्थानि पायासि राजञो परिदहति, तादिसानि च वत्थानि पट्ठपेसि ।
४४०. अथ खो पायासि राजो असक्कच्चं दानं दत्वा असहत्था दानं दत्वा अचित्तीकतं दानं दत्वा अपविद्धं दानं दत्वा कायस्स भेदा परं मरणा चातुमहाराजिकानं देवानं सहब्यतं उपपज्जि सुनं सेरीसकं विमानं । यो पन तस्स दाने वावटो अहोसि उत्तरो नाम माणवो। सो सक्कच्चं दानं दत्वा सहत्था दानं दत्वा चित्तीकतं दानं दत्वा अनपविद्धं दानं दत्वा कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपज्जि देवानं तावतिंसानं सहब्यतं ।
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२६२
दीघनिकायो-२
(२.१०.४४१-४४१)
पायासिदेवपुत्तो
४४१. तेन खो पन समयेन आयस्मा गवम्पति अभिक्खणं सुखं सेरीसकं विमानं दिवाविहारं गच्छति । अथ खो पायासि देवपुत्तो येनायस्मा गवम्पति तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा आयस्मन्तं गवम्पतिं अभिवादेत्वा एकमन्तं अट्टासि । एकमन्तं ठितं खो पायासिं देवपुत्तं आयस्मा गवम्पति एतदवोच- "कोसि त्वं, आवुसो''ति ? “अहं, भन्ते, पायासि राजञो''ति । “ननु त्वं, आवुसो, एवंदिट्ठिको अहोसि - 'इतिपि नत्थि परो लोको, नत्थि सत्ता ओपपातिका, नत्थि सुकतदुक्कटानं कम्मानं फलं विपाको'"ति ? "सच्चाहं, भन्ते, एवंदिट्ठिको अहोसिं - 'इतिपि नत्थि परो लोको, नत्थि सत्ता ओपपातिका, नत्थि सुकतदुक्कटानं कम्मानं फलं विपाको'ति । अपि चाहं अय्येन कुमारकस्सपेन एतस्मा पापका दिट्ठिगता विवेचितो''ति । “यो पन ते, आवुसो, दाने वावटो अहोसि उत्तरो नाम माणवो, सो कुहिं उपपन्नोति ? “यो मे, भन्ते, दाने वावटो अहोसि उत्तरो नाम माणवो, सो सक्कच्चं दानं दत्वा सहत्था दानं दत्वा चित्तीकतं दानं दत्वा अनपविद्धं दानं दत्वा कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपन्नो देवानं तावतिसानं सहब्यतं । अहं पन, भन्ते, असक्कच्चं दानं दत्वा असहत्था दानं दत्वा अचित्तीकतं दानं दत्वा अपविद्धं दानं दत्वा कायस्स भेदा परं मरणा चातुमहाराजिकानं देवानं सहब्यतं उपपन्नो सुझं सेरीसकं विमानं । तेन हि, भन्ते गवम्पति. मनस्सलोकं गन्त्वा एवमारोचेहि - 'सक्कच्चं दानं देथ, सहत्था दानं देथ, चित्तीकतं दानं देथ, अनपविद्धं दानं देथ । पायासि राजञो असक्कच्चं दानं दत्वा असहत्था दानं दत्वा अचित्तीकतं दानं दत्वा अपविद्धं दानं दत्वा कायस्स भेदा परं मरणा चातुमहाराजिकानं देवानं सहब्यतं उपपन्नो सुखं सेरीसकं विमानं । यो पन तस्स दाने वावटो अहोसि उत्तरो नाम माणवो, सो सक्कच्चं दानं दत्वा सहत्था दानं दत्वा चित्तीकतं दानं दत्वा अनपविद्धं दानं दत्वा कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपन्नो देवानं तावतिंसानं सहब्यत' "न्ति ।
अथ खो आयस्मा गवम्पति मनुस्सलोकं आगन्त्वा एवमारोचेसि- “सक्कच्चं दानं देथ, सहत्था दानं देथ, चित्तीकतं दानं देथ, अनपविद्धं दानं देथ । पायासि राजो असक्कच्चं दानं दत्वा असहत्था दानं दत्वा अचित्तीकतं दानं दत्वा अपविद्धं दानं दत्वा कायस्स भेदा परं मरणा चातुमहाराजिकानं देवानं सहब्यतं उपपन्नो सुझं सेरीसकं विमानं । यो पन तस्स दाने वावटो अहोसि उत्तरो नाम माणवो, सो सक्कच्चं दानं
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(२.१०.४४१-४४१)
१०. पायासिसुत्तं
२६३
दत्वा सहत्था दानं दत्वा चित्तीकतं दानं दत्वा अनपविद्धं दानं दत्वा कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपन्नो देवानं तावतिंसानं सहब्यतन्ति ।
पायासिसुत्तं निहितं दसमं।
महावग्गो निहितो।
तस्सुद्दानं
महापदान निदानं, निब्बानञ्च सुदस्सनं । जनवसभ गोविन्दं, समयं सक्कपञ्हकं । महासतिपट्ठानञ्च, पायासि दसमं भवे ।।
महावग्गपाळि निहिता।
263
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सद्दानुक्कमणिका
अकनिट्ठा- ४०, २१२ अकरणं-३८ अकालिको-७३,१६०,१६४,१६८ अकिलन्तकाया-१०,११ अकिलन्तरूपो- १०२ अकुसला धम्मा-४६,२०५, २०६, २०७,२०८ अक्खधुत्तकूपमो-२५७ अक्खधुत्ता-२५७ अक्खधुत्तं-२५७ अक्खाहतं-१३० अगरु-२०९ अग्गनखा-२५६ अग्गनगरं-६९ अग्गिको जटिलो - २५१, २५२ अग्गिदत्तो-६ अग्गुपट्ठाको-५, ९, ३९, ४०, ४१ अघाविनो-१११,११९ अङ्गमगधा- १४९,१५० अङ्गारथूपो - १२६ अङ्गेसु-१७२ अचिरवुट्टितो-७७ अचिरूपसम्पन्नो-११५ अच्चन्तनिट्ठा-२०९ अच्चन्तब्रह्मचारी-२०९ अच्चन्तयोगक्खेमी-२०९
अच्छरिया-१०९,११० अच्छोदका-९८ अजपालनिग्रोधे- ८७,१९७ अजातसत्तु-५६, ५७, १२३, १२५ अजितो केसकम्बलो-११३ अजेळका-२६० अज्झत्तबहिद्धा-२१५, २१६, २१७, २१८, २१९,
२२०, २२१, २२३, २२५, २२७, २३५ अज्झत्तिकबाहिरेसु-२२४, २२५ अज्झत्तं-५५, ८५, ८६, १३९, १५९, २१५, २१६,
२१७, २१८, २१९, २२०, २२१, २२२, २२३,
२२५, २२६, २२७,२३४, २३५ अज्झासयं-१६५, १६९ अज्झिट्ठपञ्हा-२१३ अज्झोसाननिरोधा-४७ अज्झोसानं-४६, ४७ अञ्छन्तो-२१५ अञ्जनवण्णानि-१४ अञ्जलिकरणीयो-७४ अञतित्थियपुब्बो- ११४ अञ्जा-११,१५, ५५, २३५, २३६ अट्ठअभिभायतनानि-८५ अट्ठङ्गिको मग्गो- ९२, ११३, १८४, २३३ अट्ठविमोक्खा - ५४, ८६ अट्ठिकसङ्खलिकं -२१९ अणुं-२८, २९ अण्णवं-७० अतक्कावचरो-२८, २९
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[२]
अतप्पा देवा - ४०
अतिक्कन्तमानुसकेन - ६८, ६९, २४५
अतिचिरं - १८०, १८१ अतिदूरे - १९५
अतिबाळ्ह - १७०
अतिविकालो - ११९
अतीतसत्थुकं - ११५ अतीतानागतपच्चुप्पन्नेसु - ६५ अत्थकरणे - १६
अत्थङ्गमञ्च - ५४ अत्थङ्गमो अत्थवसं १०७, १०८, २१०, २११, २१२
- २७, २८, २२३
अत्तदीपाविहरथ - ७८
अत्तदुतियो कुसिनारं पाविसि - १११, ११९
अत्तभावं - १५४, १५५, १६६, १६९
अत्तमना - ११, ४२, १०९, ११०, १४९, १५०, १५३, १५४, १६३, १६५, १७३, २१०, २१२, २३६
अत्तवादुपादानं - ४५ अत्तसमनुपस्सना - ५२
अत्तसरणा- ७८
अत्ता - ५२, ५३
अदण्डावचरी - २१०
अदस्सनं - १०६
अदिन्नादाना - १०, २३४, २४१, २४३, २४४
अदुक्खमसुखाय ५२ अदुक्खमसुखं - अद्धनियं - ९२
- ५२, १३९, २२०, २३५
अद्भुवा - १४६
अधिचित्ते - ३८
अधिपति - १८८, १८९ अधिप्पायो - १२०,१२२
अधिमुत्तो-५५,८६ अधिवचनपथ - ४९,५३ अधिवचनसम्फस्सो - ४८, ४९
अधिवचनं - ५३
अधिवासनं - ६६, ६९, ७५, ९६
दीघनिकायो-२
2
अनञ्ञसरणा- ७८
२२९
अनत्थकामा अनत्तस - ६२
अननुबोधा - ४३, ७१, ९३
अनन्तं - ५०, ५१, ५४, ५५, ८६ अनभिज्झालू - २४१, २४३ अनागामिता - २३५
अनाथपिण्डिकस्स आराम करेरिकुटिकायं - १
अनानुलोमा - २०१
अनालयो - २३२
अनावट - १३४ अनावत्तिधम्मो - ७२
अनाविलो – १०, १३१
अनासवोति - १०९
अनिच्चस - ६२
अनिच्चसुखदुक्खवोकिण्णं- - ५२
अनिच्चा - ५२, १०६, ११७, ११८, ११९, १२२,
१४६, १४७
अनिरामगन्धा - १७८
अनिस्सितो - २१५, २१६, २१७, २१८, २१९, २२०,
२२१, २२३, २२५, २२७, २३५
[ अ- अ ]
अनुकम्पं - १०१
अनुचरियं - १९४ अनुजानामि - ३७
अनुत्तरं - ६५, ६६, ७४, ८३, १०१, १०३, १०६,
२०१, २२१
अनुधम्मचारिनो - ८०, ८१, ८७
अनुधम्मचारी - १०४
अनुपरियायपथं – ६५
अनुपादा - ५४
अनुपादिसेसाय - ८४, १०१, १०३, १०६ अनुपुब्बिं – ३२, ३३, ३५ अनुप्पादो - २२२, २२३, २२४, २२५ अनुबुद्धी - ९३, १५८, १५९ अनुयन्ता - १२९, १३० अनुयुञ्जथ - १०७
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________________
[अ-अ]
सद्दानुक्कमणिका
अनुरुद्धो- ११७, ११८, ११९ अनुरुद्धं -११६, १२०,१२२ अनुलोमपटिलोमम्पि-५५ अनुसासनिया - १७०, १७३ अनुसासनी-७४ अनुसेतीति-५० अनूपघातो-३८ अनेकधातु - २०८ अनेकधातुनानाधातुस्मिं-२०८ अनेकपरियायेन-३३, ३४, ३५, १०१,११४, २५९ अनेकभावो- १९६ अनेजका - १९१ अनोमं -६ अन्तरधानं-२२८ अन्तराकथा-२,७,८ अन्तरेन यमकसालानं-१०१,१०४,१२७ अन्तलिक्खा - १२,१०४, १२३ अन्तेवासिकाभिसेकेन- ११५ अन्तोपरिसोको-२२८ अन्धकारतिमिसा-९,१२ अन्धकारो-१९८ अपगतमंसलोहितं - २१९ अपराजितसङ्घन्ति-१८५ अपरियोसितसङ्कप्पो-२१२ अपरिहानिया-५९,६०,६१,६२, ६३ अपविद्धं - २६१, २६२ अपायभूमि-१८६ अपायं-४३,६७,२४०,२४१ अपारुता-३१,१६० अप्पटिकूलो-१७३ अप्पटिपुग्गलो-११७ अप्पटिप्पस्सद्धा-१५८ अप्पटिविभत्तभोगी-६३ अप्पटिसंवेदनो मे अत्ता – ५२, ५३ अप्पटिसंवेदनं-५३ अप्पमत्तो-९३,११५
अप्पमाणा-८३ अप्पमादेनसम्पादेथ - ९२ अप्परजक्खजातिका - २९, ३०, ३१, ३६, ३७ अप्परजक्खे-३० अप्पलाभा-१८२ अप्पातको-१३३,१६५ अप्पाबाधो-१३३,१६५ अप्पोस्सुक्कताय-२९, ३० अफासुककामा-२२९ अब्भुताधम्मा- १०९,११० अब्भुतं -६, ७, ४३, ८२, ९८, ९९, १००, १०१,
११६,१६० अब्भोकासं-१७७ अब्याकतो-१४९, १५० अब्यापन्नचित्ता- २४१, २४३ अब्यापादसङ्कप्पो-२३४ अभयं-१९० अभिक्खणं-२६२ अभिज्झादोमनस्सं-७४, ७८,१५९, २१४,२३४ अभिज्झालू - २३९, २४०, २४१ अभिज्ञा -५५,७२, ९२, ११५, १८४ अभिनिक्खमनं - ३९, ४०, ४१ अभिनिष्फन्नो-१६४,१६८ अभिनिब्बत्ति-२२८ अभिप्पसन्नो-१५२ अभिभायतनानि-८५,८६ अभिभूसम्भवं नाम सावकयुगं-४ अभिरद्धो-२५९ अभिरूपो-१३२ अभिवदितो-१९८ अभिविजिय - १३, १५ अभिसङ्घतं - १३४ अभिसमयो-२३, २४, २५, २६, २७ अभिसम्परायो-७२ अभिसम्बुज्झति-८३, १०१,१०३ अभिसम्बुद्धो-३, ९, ३९,४०,४१
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[४]
दीघनिकायो-२
[अ-अ]
अभिसम्बुद्धोति-६६,१०६
अरूपभवो-४५ अभिसम्बोधि-३९,४०,४१
अरूपसची--५५, ८५, ८६ अभिसित्तो- १७०, १७१, १७२
अलङ्कता- १२६ अमतं-१७७, १९६
अल्लकप्पका बुलयो- १२४ अमनसिकारा-५४, ५५,७८,८६
अवकुज्ज-२४९, २५० अमनुस्सवचो-१७८, १७९
अवन्तीनं-१७२ अमनुस्सानदस्सनं -१८७
अविचारं-१३९, २०५, २०६, २३५ अमहग्गतं-२२१
अविज्जा-१५८ अमिस्सीभावो-२२९
अविज्जाविरागा-१५८,१५९ अमूळहपञस्स-२११
अविज्जासवाति-६४, ६६,७१,७४,७७, ९४, ९६ अमूळ्हो-२११
अवितक्कं-१३९, २०५, २०६, २३५ अम्बकाय-७६
अविनिपातधम्मो-७३,७४,११६,२१० अम्बगामो-९४
अविहतखाणुकण्टके-२६० अम्बपालिवने -७४,७७
अविहिंसा-२२ अम्बपालीगणिका-७५
अविहिंसासङ्कप्पो-२३४ अम्बलट्ठिका-६४
अविहेसु देवेसु-३८ अम्बवने-९६
अवीतरागा-११८,१२२ अम्बुजो-१९६
अवेच्चप्पसादेन समन्नागतो होति-७३ अयमन्तराकथा-६
असञसत्तायतनं-५४ अयोगक्खेमकामा-२२९
असत्थावचरो-२१० अयोगुळ - २४९
असत्थेन-१३,१५ अयोनिसो-२४७, २५०, २५३, २५५
असमा-१९१ अरज्ञगतो-२१५
असमाहितं-२२१ अरञ्जवनपत्थानि-२४५
असल्लीनेन-११८ अरणिसहितं-२५२,२५३
असारदानि-२६० अरहतो-१,३,४,५,६,९,२८,२९,३०,३१,३२, । असुचिना-११
३३, ३४, ३५, ३६, ३९, ४०, ४१, १०७, १०८, | असुचिनो-२१७ २१३
असुचिसङ्घातो-२४३ अरहं होति सम्मासम्बुद्धो-१३, १५
असुञो-११४ अरियधम्मस्सवनं-१५८
असुभसळ- ६२ अरियधम्म- १५८
असुरकायाति-१५३,१६३, १९९ अरियसच्चेसु-२२७, २३५
असुरा-१९०, १९८, २०३, २१० अरियसावको-७३,७४, २३४
असेसविरागनिरोधो-२३२ अरियो अट्ठङ्गिको मग्गो-९२, ११३, १८४, २३३ असंसट्ठो-१५८ अरुणवती-६
अस्सकानञ्च -१७२ अरुणो-६
अस्सत्थस्स मूले-३,३९,४१
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--------------------------------------------------------------------------
________________
[आ - आ]
सद्दानुक्कमणिका
अस्सरतनं-१२, १३, १५, १३०
आपन्नो-२३, २५५ अस्सराजा-१३०,१४६
आपायिका - १७७, १७८ अस्ससति-२१५
आपोधातु- २१७,२१८ अस्सासपस्सासो-११८
आपोसञ्जा-८३ अहमनुसासिस्सामीति-१३२
आबाधिकं-१८,१९ अहीनिन्द्रियं - १०,११
आबाधो-१०,७७,९७ अहोरत्तानं- १७०, १७१
आयागसेतुहि -१२६
आयुप्पमाणं-३,९,३९,४०,४१, २४४ आ
आयुसहगतो- २४९, २५१
आयुसंवत्तनिकं- १०३ आकासट्ठो-८३
आरक्खनिरोधा-४६ आकासानञ्चायतनसमापत्तिया-११६,११७
आरक्खाधिकरणं - ४६ आकासानञ्चायतनूपगा-५४
आरञिका - २१० आकासानञ्चायतनं-५४, ५५,८६,११६,११७ आरद्धचित्ता-११४ आकासे - १०५, ११८, १५५, १६९
आरद्धवीरिया-६२ आकिञ्चज्ञायतनसमापत्तिया-११६,११७
आरामरामणेय्यकं-२४८ आकिञ्चायतनूपगा-५४
आलयरता-२८, २९ आकिञ्चचायतनं-५५, ८६, ११६, ११७
आलयरामा-२८, २९ आकिण्णमनुस्सा-११०,१११, १२७
आलयसम्मुदिता-२८,२९ आकिण्णयक्खा-१११, १२७
आलोको - २५, २७, १५४, १६६, १९८ आगुचारी- २४०, २४७, २४८, २४९, २५१ आवसथागारं-६६,६७ आजीवको- १२१
आसनेसु-१५४, १६५, १६६ आतापी-७४,७८,११५, १५९, २१४, २३४ आसनं-६९,७६,१५३,१६२,१७६ आतुमायं-१००
आसभिं वाचं भासति-१२ आदिकल्याणं-३६, ३७
आसवा-१९२ आदिच्चो-१३७
आसवानञ्च-५५ आदिब्रह्मचरियं-१६५,१६९
आसित्तोदकानि--२५४, २५५ आदीनवसनं-६२
आहिण्डन्ता-१०६ आदीनवा दुस्सीलस्स-६७
आहुनेय्यो-७४ आदीनवं-३२, ३३, ३४, ३५, ५४
आळकमन्दा-११०,१२७ आनन्दो-५,४०,४१,४३, ५५, ५७,५९,६४,६६, | आळारस्स-९९
७१,७२,७४,७७,७९,८०,८२,८८,९१,९३, | आळारो कालामो-९९ ९४, ९६, ९७, ९८, १०१, १०४, १०५, १०८, आळारं - ९९ १०९, ११०, १११, ११२, ११३, ११४, ११६,
११८, ११९, १२७, १४९, १५०, १५१, १६१ आनिसंसा-६७, ६८
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________________
[६]
दीघनिकायो-२
[इ-उ]
इतिपि सो भगवा-७३ इस्थिरतनं-१२,१३,१५,१३१ इदप्पच्चयतापटिच्चसमुप्पादो-२८,२९ इदप्पच्चया-४३, ४४ इद्धानुभावन्ति-१५७ इद्धिपादा-७९,८९, ९०,९१,९२,१५७ इद्धिमा-८३,१३० इद्धिविकुब्बनताय-१५७ इद्धिविधं-१५७ इन्दनामा-१८८,१८९ इन्दसालगुहा -१९५,१९८ इन्दसालगुहायं- १९४ इन्द्रियानि-१४१,१८५ इसिगिलिपस्से- ८९, ९० इस्सामच्छरियसंयोजना-२०३
उदानं-७०, ८२,१०३, १३९, २१३ उदुम्बरस्स मूले-३ उदेनं चेतियं-७९, ९०, ९१ उद्धग्गलोमो-१४ उद्धमधोतिरियं-१७७ उपकरणं-२५२ उपक्किलेसे-६५, ६६ उपट्ठाको-५,९,३९,४०,४१, १०५ उपट्ठानसाला -५९ उपट्टानं-१४०, १९९ उपवत्तनं-१०३,१०४,१०५,१११,११२,११९ उपसन्तो नाम भिक्खु उपट्ठाको-५ उपसमाय-१८३,१८४, २१० उपसम्पदा-३८ उपादानक्खन्धेसु-२७,२८,२२३,२२४ उपादाननिरोधाभवनिरोधो-२७ उपादानपच्चया भवो-२५, ४४, ४५ उपादानं-२४,२५,२६,४४,४५ उपादिसेसे-२३५, २३६ उपायासो-२२९ उपेक्खको-१३९, २३५ उपेक्खा-२०६ उपेक्खासतिपारिसुद्धिं-१३९, २३५ उपेक्खासम्बोज्झङ्गोति-२२६, २२७ उपेक्खासहगतेन -१३९,१८३ उपेक्खं-२०५, २०६ उपोसथो नाम नागराजा-१३० उप्पलगन्धो-१३१ उप्पादवयधम्मिनो-११७,१४७ उप्पादवयधम्म-५२ उभतोभागविमटुं-८५, ८६ उभतोभागविमुत्ति-५५ उभतोभागविमुत्तो-५५ उभतोलोहितकूपधानानि-१४०, १४२, १४३, १४४,
१४५ उमापुप्फ-८५
उक्कट्ठायं-३८ उच्चारपस्सावकम्मे-७५,२१६ उच्छिन्ना -७१, ९३ उजुप्पटिपन्नो-७३ उजुमग्गो-१८० उज्जङ्गलनगरके-११०,१२७ उण्हीससीसो-१५ उण्हं-१५ उत्तमपुग्गलस्स-१२५ उत्तरसीसकं-१०४ उत्तरा-६ उत्तरो नाम माणवो-२६१,२६२ उदककिच्चं-१२ उदकमणिकं-६६ उदयब्बयानुपस्सी- २७
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________________
[ऊ-क]
उय्यानभूमिं - १६, १७, १८, १९, २०, २१, २२, १३३
उरुन्दा - १९८
उरुवेलायं - ८७, १९७ उस्मासहगतो - २४९, २५१
ऊ
ऊरुट्ठिकं - २१९
एकग्गता - १६०
एकन्तअज्झोसानाति - २०८, २०९
एकन्तछन्दा - २०८, २०९
एकन्तवादा - २०८, २०९
एकन्तसीला - २०८, २०९ एकसमोसरणा- ४८ एकेकलोमो - १४ एकोदिभावं - १३९, २३४ एकोदिभूतो- १७७
रावणो महानागो - १९०
एवंविमुक्तो - ६५ एवंसीलो - ६५
एहिपस्सिको - ७३, १६०, १६४, १६८
ओ
ओकासकम्मम्पि - २०९ ओघतिण्णमनासवं - १९२
ओदातगव्हा - १९२
ओदातनिदस्सनं - ८६
ओदातवत्थवसनस्स - २४२
सद्दानुक्कमणिका
ओपनेय्यिको - ७३, १६०, १६४, १६८ ओपपातिका- ७२, ७३, १४८, १४९, १५०, १६०,
१८४, २३७, २३८, २३९, २४०, २४१, २४२, २४३, २४४, २४५, २४६, २४७, २४८, २४९,
7
२५०, २५१, २५३, २६२ ओपमञ - १८९
ओपरज्जं - १४५
ओभासो - ९, १०, १२, १५४, १६६
ओरमत्तकेन - ६१
ओरम्भागियानं - ७२, ७३, १४८, १४९, १५०, १८४
ओसधितारका - ८६
ओळारिका - ६५, १५८
क
ककुधा नदी - ९८, १०१, १०२ ककुसन्धो - २, ३, ४१ कङ्क्षाधम्मो - ११२
कच्चायनो - ११३
कटुका- १९२
कणिकारपुप्फं - ८५
कहक्कानि रूपानि - २४५ कण्हसुक्कानं रूपानं - २४५ कण्हो - १९३
कतपुस - १०९
कन्तारे - २५४, २५५ कपिलवत्थु - ६, ४०, ४१
कपिलवत्थुवासी - १२३
कपिलवत्थुस्मिं - १२५, १८५, १९९
कपिसीसं आलम्बित्वा रोदमानो अट्ठासि - १०८
कप्पावसेसं - ७९, ८९, ९०, ९१
-
कप्पासिकदुस्सं - २५८, २५९ कप्पासिकसुखुमं – १४६ कप्पासिकसुत्तं - २५८, २५९ कप्पासं - १२१, २५८, २५९ कप्पं- ७९, ८०, ८८, ८९, ९०, ९१ कम्बलसुखमं - १४६
[७]
कम्बलस्सतरा - १९०
कम्मविपाकजं - १६, १३१
कम्मानं फलं विपाको २३९, २४१, २४७, २४८,
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________________
[८]
दीघनिकायो-२
[क-क]
२४९,२५०,२५१, २६२
कायानुपस्सी-७४, ७८, १५९, २१४, २१५, २१६, कम्मारपुत्तस्स- ९६, ९७, १०३
२१७, २१८, २१९, २२०, २३४ कम्मासधम्मं नाम कुरूनं निगमो-४३,२१४
कायिकं-२२८ करम्भा-१९२
कायेन-१३१, १३९, २३५ करुणा- १९०
कालकञ्चा-१९० करुणासहगतेन चेतसा - १७७
कालामो-९९ करुणेधिमुत्तो-१७७
कालिङ्गरो -१२६ करुणं झानं - १७४, १७५
कासिकोसलेसु-१४८, १४९,१५० करेरिकुटिकायं-१
कासीनं-१७२ करेरिमण्डलमाळे - १,२
काळसिला-९० कलन्दकनिवापे- ९०
काळसिलायं-८९ कलन्दकनिवापो-९०
काळसीसो- १३० कलिङ्गानं-१७२
काळिम्बो-७२ कलिं गिलति-२५७
किकी -६ कल्याणधम्मा-२४६,२४७
किङ्कारपटिस्साविनी-१३१ कल्याणपटिभानो-२३७, २३८
किङ्किणिका-१३६ कल्लचित्ते-३२, ३३, ३५
कित्तयमानरूपा-१४९, १५० कस्सपो-२,३,४१,११३,२३९,२४१,२४३,२४५, | कित्तिसद्दो- ६७,६८,१७३, १७४, १७५,२३७, २३८
२४७, २४८, २४९, २५१, २५३, २५५, २५६, किन्निघण्डु-१८९ २५७, २५९
किलमथो-२८,२९ कामच्छन्दं-३९, ४०,४१, २२२
किलोमकं-२१७ कामतण्हा-४८,२३०
कुक्कुटसूकरा-२६० कामभवो-४५
कुक्कुटो-७२ कामवितक्क-१३९
कुटेण्डु-१८९ कामसेट्ठो-१८९
कुमारकस्सपो-२३७,२३८ कामसंयोजनबन्धनानि-२०१
कुमारकीळं कीळि-१४५ कामुपादानं-४५
कुमारवण्णी-- १५५, १६९ कामेसुमिच्छाचारा-१०,२३४,२४१, २४३, २४४ कुम्भण्डानं -१८८ कायकम्म-६३
कुम्भीरो-१८८ कायसङ्खारा - १५८
कुरुपञ्चालेसु-१४८, १४९, १५० कायसङ्खारं-२१५
कुरूसु-४३, २१४ कायसमाचारं- २०६
कुलगण्ठिकजाता-४३ कायसम्फस्सजा वेदना-४५, २३१, २३२
कुलपरिवत्तसो-१११, ११२ कायसम्फस्सो-४८,१३१, २३१, २३२
कुवेरो-१८९ कायस्मिं - २१५, २१६, २१७, २१८, २१९, २२० कुसलकिरिया-२२ कायानुपस्सना- २१५, २१६, २१७, २१८, २२० कुसला धम्मा-२०५,२०६, २०७,२०८
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--------------------------------------------------------------------------
________________
ख - ग]
कुसलं - १८०, १८१
कुसावती - ११०, १११, १२७, १२८, १४६ कुसिनारा - ९७, १०३, १०४, १०५, ११०, १२०,
१२२, १२७
कुसिनारायं - १०१ ११२, ११९, १२३, १२४, १२५,
१२७
कुसिनारं - ९७, १११, ११९, १२१, १२२ कूटागारसाला - ९१
कूटागारं - १३६, १३९, १४१, १४६ केवलपरिपुण्णं - ३६, ३७
केवली - १७८
केसकम्बलो - ११३
कोटिगामे - ७१, ७२
कोटिगामो - ७१
कोणागमनो - २, ३, ४१
कोण्डञ - ३, ९, ३९, ४०
कोसम्बी - ११०, १२७
कोसलेसु - २३७, २३८
कोसिनारका - १११, ११९, १२०, १२१, १२२, १२३,
१२४
कोसियस्स - १९८
कोसेय्यसुखमं - १४६
कोळिया - १२४, १२५
ख
खण्डतिस्सं - ४, ९, ३९, ४० खण्डो १ - ३१, ३२, ३३
सद्दानुक्कमणिका
खत्ता - २३८
खत्तियपरिसा - ८४, ११०
खत्तियमहासाला - ११०, १२७
खत्तियो - २, ३, ९, ३९, ४०, ४१, १२३, १२४, १२५,
१२७, १५५, १६७ खन्तिबलसमाहिता - १८० खन्तिवादो - १२४ खन्धानं - २२८
9
खयधम्मा - ५२
खिड्डापदोसिका - १९१ खीणतिरच्छानयोनि - ७३, ७४ खीणपेत्तिविसयो- ७३, ७४
खीणासवानं ४, ५, ९, ३९, ४०, ४१ खुद्दकनगरके - ११०, १२७ खेमङ्करो - ५ खेमवती - ६
खेमो - ६, ३२, ३३, ३४ खोमदुस्सं - २५८, २५९
खोमसुत्तं - २५८, २५९ खोमं - २५८, २५९
ग
गङ्गा नदी - ७० गङ्गोदकं - १६४, १६८ गणाचरिया - ११३
गणिका – ७५, ७६
गणीभूता - २३७, २३८ गतयोब्बनं - १७
गन्धतण्हा - ४५, २३१,२३३
गन्धब्बकायं - १५६, १८३, १९९ गन्धब्बदेवपुत्तो - १९४, १९५, १९८ गन्धब्बपुत्त - १६२, १८४ गन्धब्बरज्ञ - १९७
गन्धब्बा - १८९, १९८, २०३ गन्धविचारो - २३१,२३३ गन्धवितक्को - २३१,२३३ गन्धसञ्चेतना - २३१,२३३ गन्धसञ्ञा - २३१,२३३ गन्धारपुरे - १२६ गब्मिनीउपमा - २४६ गम्भीरावभासो - ४३
गम्भीरो - २८, २९, ४३, १५६, १६७
गरुं - ५७, ५८, ६०, १०४, ११९, १२०, १२३
[९]
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--------------------------------------------------------------------------
________________
[१०]
दीघनिकायो-२
[घ-च]
घानं-२३०, २३२, २५०
गवम्पति-२६२ गहपतिपरिसा-८४ गहपतिमहासाला – ११०, १२७ गहपतिरतनं-१२, १३, १५, १३१,१३२ गळगळायन्ते-- ९९,१०० गामपट्ट-२५८ गाळहबन्धनं-२४० गिज्झकूटे-५६, ६४,८९, १६२ गिञ्जकावसथे-७२,७४,१४८ गिञ्जकावसथं-१५१,१५२ गिरिगुहं-१७७ गीतसद्देन-१११,१२८ गुळवालकानि-२६१ गूथकूपपुरिसउपमा-२४२ गूथकूपो-२४३ गेलञा-७७ गोघातकन्तेवासी-२१८ गोतम - ५७, ५९, ६९, ११३ गोतमके-९० गोतमकं चेतियं-७९, ९१ गोतमतित्थं-७० गोतमद्वारं-७० गोतमो-३, ३९,४१, ६९,७०, ११२, १२१ गोपकवत्थु - १९९ गोपको - १९९, २०२ गोपिका-१९९ गोविन्दिये-१७० गोविन्दो-१७०, १७१, १७२, १७३, १७४, १७५,
१७८,१७९,१८०,१८१,१८२ गोसालो-११३
चक्कच्छिन्नं- ९८ चक्करतनं-१२, १३, १५, १२९, १३० चक्कवत्तिं-११० चक्कानि-१३ चक्खुविज्ञाणं-२३०, २३२ चक्खुसम्फस्सजा वेदना-४५, २३१, २३२ चक्खुसम्फस्सो-४८, २३१, २३२ चक्खुं-२५, २७, १०५,१११,११८, ११९,१२२ चतुत्थं झानं-११६, ११७, १३९, २३५ चतुरङ्गिनिया-१२९, १३३,१४१ चतुरासीतिनगरसहस्सानं-१४६ चतूसु अरियसच्चेसु-२२७, २३५ चतूहि इद्धीहि-१३२, १३३ चन्दनगन्धो-१३१ चन्दनचुण्णानि-१०४ चन्दस्सूपनिसा-१९१ चन्दिमसूरिया परस्मिं लोके - २३९ चम्पा-११०,१२७,१७२ चातुमहापथे-१०७,१२१ चातुमहाराजिकपरिसा-८४ चातुमहाराजिकानं-१५६,१८३,२६१, २६२ चातुरन्तो-१२,१३,१५,११०,१२७,१४६ चापाले-८२,८८,९१ चापालं चेतियं-७९, ९१ चारिकं-२३, ३५, ३६, ३७,१८३, २३७, २३८ चित्तसङ्घारा-१५८ चित्तसमाधिप्पधानसङ्घारसमन्नागतंइद्धिपादंभावेति-१५७ चित्तसेनो-१८९ चित्तानुपस्सना-२२१ चित्तानुपस्सी-७४,७८, १५९, २१४, २२१, २३४ चित्तं - २८, २९, ३०,६४, ६६,७१,७४,७७, ९४,
९६, १०७, १०८, १२१, १३०, १९६, २२१,
घटथ-१०७ घानविज्ञाणं-२३०, २३२ घानसम्फस्सजा वेदना-४५,२३१,२३२
10
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________________
[छ -झ]
सद्दानुक्कमणिका
[११]
२३४ चित्रा सुपण्णा-१९० चिरट्ठितिको-१३२ चुन्द-९६,९७,१०३ चुन्दकं- १०२ चेतसिकं-२२९ चेतियचारिकं-१०६ चेतियं-७९, ९०, ९१, १२०, १२२ चेतिवंसेसु-१४८, १४९, १५० चेतोपरियाणं-६५ चेतोविमुत्तिं-५५, ७२, १८४ चेतोसमाधि-७८ चोरउपमा-२४० चोरघाता-२४० चोरपपाते -८९ चोरपपातो-९०
जनपदा-२५३ जनवसभो-१५१, १५२, १६१ जनिन्दं-२०२ जम्बुगामो-९४ जम्बुदीपे-३७,१२६ जरा-१७, १८, १९, २०, २१, २२८,२२९ जराधम्मा-१७,२२९ जरामरणनिरोधोति-२५ जरामरणं-२३, २५, २७, ४४,४५ जाति-१२, १७, १८, १९, २०, २१, २४, २५, २६,
४४,४५, ५३,११५, २२८, २२९ जातिजरामरणं-४९ जातिधम्मा-२२९ जातिनिरोधो-२७ जातिपच्चया-२३, २५, ४३,४४ जानता-१५७,१५८,१५९,१६० जालस्स-१३६ जिव्हञ्च-२२४ जिव्हाविज्ञाणं-२३०, २३२ जिव्हाविनेय्यं-२०८ जिव्हासम्फस्सजा वेदना-४५, २३१, २३२ जीवकम्बवने- ९० जीवकम्बवनं-९० जीवितसङ्खारं-७७ जीवितिन्द्रियस्सुपच्छेदो-२२८ जेतवने-१ जोतिपालो-१७०
छन्दजातिकं-२०४ छन्दरागनिरोधा-४७ छन्दरागं-४६,४७. छन्दसमाधिप्पधानसङ्खारसमन्नागतंइद्धिपादंभावेति-१५७ छन्दसमुदयं-२०४ छन्नो-११५ छम्भितत्तं-१७६ छविवण्णो-१०१,१४१ छिन्नवटुमे-६,७,८, ४२
जच्चन्धूपमो - २४५ जज्जरसकटं-७८ जटिलो-२५१, २५२ जनपदचारिकं-३७ जनपदत्थावरियप्पत्तो-१२,१३,१५,१२७
झानरता-१९५ झानसम्पत्ति-१३८ झानं-११६, ११७, १३९, १७४, १७५, २३४, २३५ झायति-१७४, १७५
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--------------------------------------------------------------------------
________________
[१२]
दीघनिकायो-२
[ञ-त]
१०९, १११, ११२, ११३, १५३, १५५, १५६,
१६३,१६७,१८६,२१२
तथावादी-१६५,१६९ आणदस्सनं-१५९
तदभिज्ञाविमुत्तो-५३ आणमत्ताय -२१५, २१६, २१७, २१८, २१९, २२०, तन्ताकुलकजाता - ४३ २२१,२२३, २२५, २२७,२३५
तपोदारामे-९० आणं उदपादि-२५, २७
तमोखन्धेन- २८,२९ आति-१८२
तारकानं-२४५ आतिपरिवर्ल्ड - १७७
तालवनं-१३६ आयप्पटिपन्नो-७३
तावतिसकायं-१५३,१६२,१९९ तावतिंसदेवउपमा-२४४ तावतिंसपरिसा-८४
तावतिसा-१६, ७६, १५३, १५४, १५५, १५६, ठितचित्तस्स – ११८
१५७,१५९,१६२,१६३,१६५,१६६,१६७,१६९, १९४,१९८ तावतिंसानमिस्सरो-१९६
तावतिंसे-१५४, १५६, १५७, १५९, १६३, १६५, तण्डुलानं - २१७
१६६, १६९, १९४, २०२ तण्हा-२४, २५, २६, ४४, ४५, ४६, ४८, २३०, ताळावचरं-११९ २३१, २३२, २३३
तिक्खिन्द्रिये-३० तण्हाक्खयो-२८,२९
तिण्णविचिकिच्छो-१६५, १६९ तण्हानिरोधाउपादाननिरोधो-२७
तिण्णं संयोजनानं परिक्खया-७२, ७३, १४८, १४९, तण्हानिरोधो-२७
१५०, १६०,१८४ तण्हापच्चया उपादानं-२५, ४४, ४५
तितिक्खा-३८ तण्हासङ्खयविमुत्ता-२०९
तिथियानं-१०९ तह-४६,४८
तिम्बरू-१८९ ततियज्झाना-११६,११७
तिलानं-२१७ ततियं झानं-११६,११७,१३९, २३५
तिस्सभारद्वाजं-४ तत्रतत्राभिनन्दिनी-२३०
तिस्सो-३१, ३२, ३३, ५२, १९२ तथाकारी-१६५,१६९
तीणि-१८०, १८१, २३५, २४४ तथागता-५६,१०५,११२,१९५, १९८,१९९ तुण्हीभावेन-६६, ६९,७५, ९६, १३५ तथागते अभिप्पसन्ना - १०७,११०,१२७
तुम्बथूपो - १२६ तथागतो-६,७,८,४२,५३,७८,७९,८२,८३,८४, | तुम्बं - १२५
८८, ८९, ९०, ९१, ९२, १०१, १०२, १०३, | तुसितकाया-८३
१०४, १०६, १०७,१०९, ११७, १४६, १९९ तुसिता-९ तथागतं-७३,८८,८९,९०,९१,१०४,१०५,१०६, | तुसितानं -१५६, १८३
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--------------------------------------------------------------------------
________________
[थ-द]
सद्दानुक्कमणिका
[१३]]
तेजोधातु-२१७,२१८ तेजोसहगतो-२४९ तेलपज्जोतं-३३, ३४, ३५,१०१, ११४, २५९ तेलपदीपो-६६
थिनमिद्धं - २२२ थूपारहा-१०७ थूपं-१०७,१२१
tv
दक्खिणेय्यो-७४ दक्खेमोघतरं-१९२ दक्खो -२१५, २१८ दन्तपुरं-१७२ दसवस्सुद्देसिको-२४६, २५२ दस्सनीयानि-१०६ दस्सनीयो --१३२ दस्सनेन - १०९, ११० दळहपाकारतोरणं-६५ दानकथं -३२,३३,३५ दानवेघसा-१९० दायपालो-३२ दिट्ठधम्मा-३२,३४,३५ दिट्ठिगतं-२३७, २५३,२५५, २५६, २५७, २५९ ।। दिदुपादानं-४५ दिद्वैव धम्मे अञ्जा-२३५, २३६ दिब्बचक्खु-१६, १३१ दिब्बपरिसा-१५३,१६२ दिब्बानिपि-१०४ दिब्बेन चक्खुना-६८,६९, २४५ दिवाविहारं-९९,१३६,२६२ दिसम्पति-१६९,१७०, १७१,१७२ दीघायुको - १३२
दीपिचम्मपरिवारानि-१४०,१४२,१४३,१४४,१४५ दुक्खक्खन्धस्स-२५,२७,४४ दुक्खदोमनस्सानं-२१४, २३६ दुक्खनिरोधगामिनी पटिपदा-७१,२३३,२३५ दुक्खनिरोधोति-२२७ दुक्खनिरोधं अरियसच्चं-७१,२३२,२३३ दुक्खसमुदयोति-२२७ दुक्खसमुदयं अरियसच्चं-७१, २३०, २३१ दुक्खस्सन्तकरो-९४ दुक्खं अरियसच्चं-७१, २२८, २३० दुग्गतिं - ४३, ६७, २४०, २४१ दुतियं झानं -११६, ११७, १३९, २३५ दुद्दसो-२८, २९ दुद्दसं-२८, २९ दुरनुबोधो-२८,२९ दुल्लभोति-१२६ दुस्सयुगं-१४६ दुस्सीलो-६७ देवकाया-१८५, १८७ देवता-७, ८, ३७, ३८,३९, ४०,४१, ६८, ६९,७०,
१०५, १०६,११८,११९, १२०,१८५, १८६ देवतानुकम्पितो-७० देवपुत्ता-१०,११ देवपुत्तं -१३५,२६२ देवमनुस्सानं-३६,३७,७३,९२,१५६,१६३,१६४,
१६८,२४७ देवसूतो-१८९ देवा-११,१६,३८,४०,५३,५४,७६,१२६,१५३,
१५४, १५५, १५६, १५७, १५९, १६२, १६३, १६५, १६६, १६७, १६९, १७६, १९०, १९१, १९२, १९४, १९८, १९९, २००, २०२, २०३,
२१०,२१२, २३९,२४४,२४५ देवानमिन्दो-११७,१३५,१५३,१५४, १६३,१६५,
१६६, १६८, १६९, १९४, १९५, १९८, १९९, २०३, २०४, २०६, २०७, २०८, २०९, २१०,
२१३
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________________
[१४]
दीघनिकायो-२
[ध-न]
देवासुरसङ्गामो-२१० देविन्दनागिन्दनरिन्दपूजितो-१२६ दोणो- १२४, १२५ दोमनस्सं - २०५, २२९ द्वत्तिंसमहापुरिसलक्खणेहि समन्नागतो-१२, १३, १५ द्वेपच्चया-१५२
धजग्गं-१३१ धस्स -२१७ धतरट्ठो-१५३,१६२, १८८,१८९ धनकरणीयं-१३१ धनवती-६ धनुपाकारं - १२३ धम्मचक्कप्पवत्तनं-३९,४०,४१ धम्मचक्कं-८३,१०६ धम्मचक्टुं -३२,३४,३५,२१३ धम्मचरिया-२२ धम्मतण्हा-४५,२३१,२३३ धम्मता-९,१०,११,१२ धम्मदीपा-७८ धम्मदेसना-३२,३४,३५ धम्मधरा-८०,८१,८७,९५ धम्मधातु-७,८,४१ धम्मन्वयो-६५ धम्मपरियायं-७३ धम्मपासादपोक्खरणी-१३३ धम्मपासादप्पमुखानि-१३९,१४१,१४३,१४४,१४५ धम्ममयं-३० धम्मराजा-१२,१३,१५,११०,१४६,१४९,१५० धम्मविचयसम्बोज्झङ्गोति-२२६ धम्मविचारो-२३१,२३३ धम्मवितक्को-२३१,२३३ धम्मविनयो-२३,३३ धम्मसञ्चेतना-२३१,२३३
धम्मसञ्जा-२३१,२३३ धम्मसरणा--७८ धम्मा-४६,४८, ५९,६०,६१,६२, ६३, ९२, ९३,
१०९, ११०, १३७, २०५, २०६, २०७, २०८,
२२९,२३०,२३२ धम्मादासं-७३ धम्मानुधम्मप्पटिपत्तिं-१५८ धम्मानुधम्मप्पटिपन्ना-८०,८१,८७,१०४ धम्मानुपस्सना-२२२,२२३,२२४,२२५,२२७,२३५ धम्मानुपस्सी-७४, ७८, १५९, २१४, २२२, २२३,
२२४, २२५, २२७, २३४, २३५ धम्मिको - १२,१३,१५,११०, १४६, १४९,१५० धम्मिकं-५८ धम्मी-१,२ धम्मूपसहिता-१९५,१९७ धम्मो-२८, २९, ३३, ३४, ३५,७३,७८, ९४, ९५,
१०१, ११४, ११५, १३५, १३६, १३७, १४१, १४६, १६०, १६४, १६८, १९५, २००, २०८,
२५९ धम्म --२८, २९, ३०, ३१, ३६, ३७, ८०, ८१, ८७,
१०९, ११०, ११२, ११३, १३५, १३७, १३८,
१४१,१५६, १९९, २०८,२१०, २१२, २५१ धातुथूपपूजा - १२५ धातुसो-२१७,२१८ धारणीयं-१०१ धीरो-९७ धुत्ता - १२८,१३७,१३८
नअत्तपञत्ति-५० नगरसहस्सानि-१३९, १४१, १४३,१४४,१४५ नदिका-९८ नन्दा-७२ नन्दीरागसहगता-२३० नप्पटिसंवेदेति-२५०
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--------------------------------------------------------------------------
________________
[ प प ]
नमुची - १९० नळोराजा - १८९
नागराजा - १२६, १३०, १४६
नागसहस्सानि - १४०, १४२, १४३, १४४, १४५
नागसा - १९०
नागापलोकितं - ९३
नातिका- ७२
नातिके- ७२ ७३ ७४, १४८, १५१
नातिकं - १५१
नानत्तकाया - ५३, ५४
नानत्तसञ्ञिनो - ५३, ५४
नानाधातु - २०८
नामरूपनिरोधा - २७
नामरूपनिरोधो - २७
नामरूपपच्चया - २५, ४४, ४८, ४९
नामरूपं - २५, २७, ४४, ४९
नासक्खिं - १९८
नालन्दा - ६४
नालन्दाय ६४, ६६ निकटो - ७२
निगण्ठो नाटपुत्तो - ११३
निग्रोधपरिमण्डलो - १४
निग्रोधस्स - ३
निघण्डु - १८९
नितिण्ण ओघं - २०२ निद्दारामतमनुयुत्ता - ६१ निधि - १३१
निपको - १९६ निपुणो- २८, २९
निब्बानगामिनी पटिपदा - १६४, १६८ निब्बानधातुया - ८४, १०१, १०३, १०६
निब्बानस्स - २१४, २३६
निब्बानाय - १८३, १८४, २१०
निब्बानं - २८, २९, ३८, ११८ निब्बिदाय - १८३, २१० निबुतो - २४९
सद्दानुक्कमणिका
निमित्तानि - १५४, १६६ निमुग्गपोसीन - ३० निमंसलोहितमक्खितं - २१९ निम्मानरतिनो - १९२
निम्मानरतीनं - १५६, १८३ निय्यानिका - ६३ निरयपाला - २४१
निरयं - ६७, २४०, २४१ निरामिसं वा सुखं - २२० निरुत्ति - ५३
निरोधधम्मा - ५२
निरोधस - ६२
निरोधो - २७, २८, २९
निरोधं - ३२, ३४, ३५ निवुतब्रह्मलोकाति- १७७, १७८ निस्सरणञ्च - ५४
नीलनिदस्सनं – ८५
नीलालङ्कारा - ७५ नीवरणेसु - २२२, २२३
नेक्खम्मसङ्कप्पो – २३४
तं ठानं विज्जति - ९१, १०९, ११८, १६५
15
मित्ते - १२, १५
नेरञ्जराय - ८७, १९७
नेवसञ्ञानासञ्ञायतन समापत्तिया - ११६, ११७
प
पकतिवण्णो१- १५४, १६६ पकुधो कच्चायनो - ११३
पगुणं - ३१ पच्चनीकं - २५९
पच्चनुभोन्ति - १५७
पच्चवेक्खति - २१७, २१८
[१५]
पच्चानुसिट्ठवचनापि - १५४, १६५
पच्चुपट्ठिता - १९८, २१५, २१६, २१७, २१८, २१९, २२०, २२१, २२३, २२५, २२७, २३५
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--------------------------------------------------------------------------
________________
[१६]
दीघनिकायो-२
[प-प]
पच्चेकसम्बुद्धो- १०७, १०८ पच्छानिपातिनी-१३१ पच्छाबाहं-२४० पच्छिमकं-९३ पजानाति-५३, ५४, १५८, २१५, २१६, २२०,
२२१,२२२, २२३, २२४, २२५, २२६, २२७ पज्जलितो-१७९ पञ्चन्नं -१०, ३७, ७२, ७३, ११६, १२३, १४८,
१४९,१५०, १८४, २५३ पञ्चसिख-१८३, १८४, १९४, १९५, १९७, १९८,
२१३ पञ्चसिखो - १५५, १६२, १६९, १८४, १८९, १९४,
१९५, १९८ पञ्चसु नीवरणेसु-२२२, २२३ पञ्चिन्द्रियानि-९२ पञ्चुपादानक्खन्धा - २२८,२३० पञत्तिपथो-४९,५३ पञत्तं-५७,६० पञवन्तो-६२ पञ्जा - २५, २७, ५३, ६४,६६,७१,७४,७७, ९३,
९४,९६ पापरिभावितं-६४, ६६,७१,७४, ७७, ९४, ९६ पाविमुत्तो-५४ पाविमुत्तिं -५५,७२, १८४ पञ्हापटिभानानि-२५९ पटिकूलसङ्घाता-२४३ पटिघसानं-५४, ५५, ८६ पटिच्चसमुप्पन्ना-५२ पटिच्चसमुप्पादो-४३ पटिनिस्सग्गो - २३२ पटिपज्जितब्बं - १०७,१२१ पटिपदा -७१,१६४, १६८, २३३, २३५ पटिसञ्चिक्खतो-२९, ३० पटिसल्लीनो-१९९ पटिसोतगामि-२८, २९ पटिसंवेदेति-२३५
पटिस्सतिमत्ताय-२१५, २१६, २१७, २१८, २१९,
२२०, २२१, २२३, २२५, २२७, २३५ . पठमाभिसम्बुद्धो-८७,१९७ पठमं झानं-११६, ११७, १३९, २३४ पण्डुकम्बलपरिवारानि-१४०, १४२, १४३, १४४,
१४५ पण्डुसुत्तं-१० पण्णकुटिया-२५२ पतिठ्ठापितो-६६ पत्तधम्मा--३२,३४,३५ पथवी-८३, ८४,१९० पथवीधातु-२१७२१८ पथवीसञ्जिनियो-१०५,११८ पदक्खिणं-३१, ३६, ३७, ६६, ६८, ७५, ७६, ८०,
९६, १००,१०१, १२२,१५१,१८४ पनादो-१८९ पपञ्चसञासङ्घानिरोधसारुप्पगामिनिं-२०५,२०६ पपञ्चसञ्जासङ्घापभवो-२०४ पपञ्चसासङ्घासमुदयो-२०४ पब्बज्जा-२३,३३,३९,४०,४१,१८२,१८३,१८४ पभावती-६ पमादाधिकरणं-६७ पमुदितो- १६९ परकाये -१५९ परचित्ते-१५९ परधम्मेसु-१५९ परनिम्मितवसवत्तीनं-१५६,१८३ परप्पवादा-११३, ११४ परलोकवज्जभयदस्साविने-३० परलोकं - २४७, २५३, २५५ परसेनप्पमद्दना-१३,१५ परिग्गहनिरोधा-४७ परिग्गह-४६ परिणायकरतनं-१३२, १४०, १४१ परितस्सना - १७५ परित्तत्तानुदिट्ठि-५०, ५१
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--------------------------------------------------------------------------
________________
[प-प]
सद्दानुक्कमणिका
[१७]
परित्तानि-८५
पहानसञ्ज-६२ परित्तं-३, ३९, ४१, ४९, ५०, ५१, ९२, ९८ पहारादो-१९० परिदेवो-२२८
पाकारविवरं-६५ परिनिब्बानकालो-८०, ८१, ८२, ८७, ८८
पाकारसन्धिं -६५ परिनिब्बानसमये-१२७
पाटलिगामिका-६६, ६८ परिनिब्बानं-८२, ८८,९१,९२,१०१,१०५, १०८, पाटलिगामे-६८,६९ १११,११२
पाटलिगामो-६६ परिनिब्बुतो - १०३, ११६, ११७, ११८, ११९, १२२, पाटलिया-३,९,३९,४० १२४
पाणातिपाता-१०,२३४, २४१, २४३, २४४ परिपाक-२४७
पाणातिपाती-२३९, २४०, २४१ परिपुण्णसङ्कप्पा-१७३
पाणिताळसद्देन-१११, १२८ परिब्बाजको-११२,११३,११४,११५
पातिमोक्खसंवराय -२०६, २०७ परिमुखं-२१५
पातिमोक्खुद्देसायाति-३६, ३७, ३८ परियायो-२३९, २४०, २४१, २४२, २४४, २४६, | पातिमोक्खं-३८ २४७,२४८, २५०,२५१
पापमित्ता- ६१ परियुट्टितचित्तो-७९,८०
पापसम्पवङ्का-६१ परियेसनानिरोधा-४८ .
पापिमयोगानि-२०१ परियेसनं -४६, ४८, २०७
पामोज्ज-१५८ परियोगाळ्हधम्मा-३२,३४,३५
पायागा-१९० परियोसानकल्याणं-३६, ३७
पायासि-५६,७५, १३१, २३७, २३८, २३९, २५३, परियोसितसङ्कप्पो-१६५, १६९
२५५, २५६,२५७,२६१,२६२,२६३ परिवितक्को - २३, ३५, ३६, ३८, १६०
पारगा-१९१ परिसुद्ध-३६, ३७
पारिपूरी-२२६,२२७ परो लोको-२३७, २३८, २३९, २४०, २४१, २४२, | पालिच्चं-२२८
२४३, २४४, २४५, २४६, २४७, २४८, २४९, . पावा-९६ २५०, २५१, २५३, २६२
पावाय - १२१, १२२ पलोकधम्म-९१,१०९,११८,१२२
पावारिकम्बवने - ६४,६६ पवारणाय-१६२
पावेय्यका-१२४ पविवित्तविहारिनो-२१२
पाहुनेय्यो-७४ पवुट्ठजातिमखिलं-१९२
पिण्डपाता-१०३ पवेधमानं-१७
पिप्पलिवनिया मोरिया-१२५ पसन्नचित्ता-१०६, २००
पिप्पलिवने - १२६ पसन्नचित्ते-३२, ३४, ३५
पियरूपं-२३०, २३१, २३२, २३३ पसेनदि कोसलो - २५३, २५५, २५६, २५७ पियवादिनी-१३१ पस्सद्धिसम्बोज्झङ्गोति-२२६
पियाप्पियनिदानं-२०४ पस्सम्भयं-२१५
पियाप्पियसमुदयं-२०४
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________________
[१८]
दीघनिकायो-२
[फ-ब]
पिसुणवाचा-२३९, २४०, २४१
फासुविहार-५६, ५७ पीतालङ्कारा-७५
फोहब्बतण्हा-४५, २३१,२३३ पीतिसम्बोज्झगोति-२२६
फोट्ठब्बवितक्को-२३१, २३३ पीतिसुखं - १३९, २३४, २३५
फोट्ठब्बसञ्चेतना-२३१,२३३ पीतिसोमनस्सजाता - १४९,१५०,१५३,१५४,१६३, | फोट्टब्बसञ्जा-२३१,२३३ १६५
फोहब्बा - २२९, २३०, २३२, २५० पुक्कुसो- ९९, १००,१०१, १०२
फोटब्बे-२२५ पुग्गलमत्तता-११४ पुञ्जकिरिया-२२ पुञ्जक्खेत्तं-७४ पुटभेदनं-६९
बन्धुजीवकपुष्फ-८६ पुण्डरीकस्स मूले अभिसम्बद्धो-३
बन्धुमतिया-२२, ३१,३२,३३,३५,३६, ३७ पुण्णमाय-१५३, १६२
बन्धुमती-५, ९,३४, ३६, ३७,३८,३९,४०,४१ पुथुज्जनो-१८०
बन्धुमन्तं-१२ पुनब्भवोति-१२,७१,९३
बन्धुमस्स-५,९,१८,१९,२१,३९, ४१ पुनरायु-२११
बन्धुमा-५,९,१२,१५,१६,१७,१८,१९,२०,२१, पुब्बनिमित्तं-१५४,१६६
३९,४० पुब्बुट्ठायिनी - १३१
बलानि-९२ पुब्बेनिवासपटिसंयुत्ता धम्मी कथा उदपादि-१,२ बहिद्धा-५५, ८५, ८६, ११४, १५६, १५९, १६७, पुरिन्ददो-१९१
२०९, २१५, २१६, २१७, २१८, २१९, २२०, पुरिसदम्मसारथि -७३
२२१, २२३, २२५, २२७, २३५ पुरिसपुग्गला-७४
बहुजनसुखाय - ३५, ३६, ३७, ७९, ८०, ८८, ८९, पुरिसयुगानि-७४
९०,९१, ९२, १५६, १६३, १६४, १६५, १६८, पुरिसवरुत्तमस्स - १२६
२४७ पूरणो कस्सपो-११३
बहुजनहिताय-३५, ३६, ३७, ७९, ८०, ८८, ८९, पोक्खरणी-१३७
९०, ९१, ९२, १५६, १६३,१६४,१६५,१६८, पोक्खरणीरामणेय्यकन्ति-२४८
२४७ पोनोब्मविका - २३०
बहुपुत्तं चेतियं-७९, ९१ बाराणसी-६,११०,१२७, १७२ बिम्बिसारो-१४९,१५०, १५२
बिलङ्गदुतियं-२६१ फरुसवाचा-२३९, २४०,२४१
बुद्धिजो-५ फस्सनिरोधावेदनानिरोधो-२७
बुद्धो-७३. ९४, १०२, १२४, १२६, १९०, २०२ फस्सनिरोधो-२७
बुलयो-१२४, १२५ फस्सपच्चया वेदना- २५, ४४
बेलुवपण्डुवीणं - १९४, १९५, १९७ फस्सो - २४, २५, २६,४४, ४८, ४९
बोज्झङ्गा - ९२
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________________
[भ-म]
सद्दानुक्कमणिका
बोज्झङ्गेसु-२२५, २२७ बोधिसत्तमाता-१०,११ बोधिसत्तो-९,१०,११, १२, २३, २७,८३
भगवन्तरूपो-२०९ ब्याकता-२०९, २१३
भगवाति - ११२, ११३, ११७, १८३, १९९ ब्याधिधम्मा - १८,१९,२२९
भण्डगामे - ९३, ९४ ब्यापन्नचित्ता-२३९,२४०,२४१
भण्डगामो- ९३ ब्यापादवितक्क-१३९
भण्डु-२२ ब्यापादं-२२२
भत्ताभिहारेन-१७५ ब्रह्मकायिका-५४
भद्दो-७२,१३० ब्रह्मदण्डो-११५
भरतो-१७३ ब्रह्मदत्तो-६, १७३
भवतण्हा-४८,७१,९३,२३० ब्रह्मदेय्यं - २३७
भवनिरोधा-२६,२७,४५ ब्रह्मपरिसा-८४
भवनिरोधो-२७ ब्रह्मपुरोहितं- २००,२०३
भवपच्चया-२४, २५, ४३, ४४, ४५ ब्रह्मयाचनकथा-२८
भवो-२४, २५, २६,४४, ४५ ब्रह्मलोकसहब्यताय-१८३
भिय्योसुत्तरं -४ ब्रह्मलोकं--१४५, १८३
भुसागारे - १०० ब्रह्मस्सरो-१४
भूजति -१९८,१९९ ब्रह्मा- १५४, १५५,१५६,१५७,१५९,१६०,१६१, भूतानुकम्पा-२२ १६६, १६७, १६८,१६९, १७६
भूमिचालस्स-८२, ८३, ८४ ब्रह्मानं-१६७,१७३,१७४, १७५, १७६
भूमिरामणेय्यक-२४८ ब्रह्मासहम्पति-११७
भूरिपञस्स-१५३,१५५, १६३,१६७ ब्रह्मनो-३०,१५४,१५६,१६०,१६१, १६६, १६७, | भोगनगरे - ९४, ९६
१६८, १६९, १७६, १७८, १७९, १८०, १८१,
१८२,२१३ ब्राह्मणगहपतिका - १३३, १३४, २३७, २३८ ब्राह्मणगामो-१९४, १९५
मक्खलि गोसालो-११३ ब्राह्मणपरिसा-८४
मगधमहामत्ता-६८,६९,७० ब्राह्मणमहासाला- ११०,१२७, १७४, १८१, १८२
मगधेसु-१४९,१५०,१९४ ब्राह्मणो-२, ३, ६, ५६, ५७, ५९, ६४, ६५, ८३, | मग्गो-२७, ९२, ११३, १८०, १८४, २१४, २३३,
१२४, १२५, १७०, १७१, १७२, १७३, १७४, २३६ १७५, १७६, १७८, १७९, १८१, १८२, १८३, | मच्छरियं-४६,४७ २४६
मज्झसूरसेनेसु-१४८,१४९,१५० मञ्चकं-१०४ मणिरतनं-११, १२, १३, १५, १३१ मद्दकुच्छिस्मिं-९०
19
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________________
[२०]
दीघनिकायो-२
[य-य]
मनुस्सगन्धो- २४३ मनोपदोसिका-१९१ मनोसम्फस्सजा वेदना-४५,२३१, २३२ मन्दवलाहका-१९१ मन्दारवपुष्फानि-१०४ मन्दारवपुष्फ-१२१ ममच्चयेन -११५ मयम्पि खत्तिया-१२३, १२४, १२५ मरणधम्मा-२०,२१,२२९ मरणधम्मो-२०,२१ मरणं- २०, २१, २२८, २२९ मल्लपामोक्खा - १२०,१२२ मल्लपुत्तो-९९, १००, १०१ मल्ला- १११,११९,१२०,१२१,१२२,१२३,१२४,
१२५
महासमयो-१८५ महासुदस्सनो-११०, १२७, १२९, १३०, १३१,
१३२, १३३, १३४, १३५, १३६, १३७, १३८,
१३९, १४०,१४१,१४२,१४५ महासेनो-१९३ मागधका-१४९,१५०,१५१,१६० मातलि-१८९ मातुगामे-१०६ मारपरिसा-८४ मारयाचनकथा-८० मारसेना-१९३ मारो-८०, ८७, ८८ मिगदायो-३२, ३३, ३४, ९० मिच्छाआजीवा-२६० मिच्छाकम्मन्ता-२६० मिच्छादिट्ठी-२३९, २४०, २४१, २६० मिच्छावाचा-२६० मिच्छावायामा-२६० मिच्छासङ्कप्पा-२६० मिच्छासती-२६० मिच्छासमाधी-२६० मिथिला-१७२ मुग्गानं-२१७ मुञ्जकेसो-१३० मुञ्जपब्बजभूता-४३ मुत्ति-२३२ मुदिन्द्रिये-३० मेत्तासहगतेन-१३९, १८३ मेधावी-६५,१०९,१३२,२३७,२३८ मोरिया--१२५
महग्गतं -२२१ महप्फलतरा-१०३ महाकस्सपेन-१२३ महाकस्सपो-१२१,१२२ महागोविन्दो-१७१,१७२,१७३,१७४, १७५, १७६,
१७८,१७९,१८१, १८२, १८३ महागोविन्दोत्वेव समझा उदपादि-१७१ महानगरानि -११०, १२७ महानिसंसतरा-१०३ महापथविं-१७२ महापारगा-१९१ महाब्रह्मा-२९, ३०, ३१, ३६, ३७, १६८ महाब्रह्मनो-२९ महाब्रह्मे-१६७ महाभूमिचालो-८२,११७ महाराजा-१५३,१६०,१६१,१६२, १८८,१८९ महाराजानो-१५३, १५४,१६२, १६५, १६६ महावने-१८५ महावनं-९१ महासकटसत्थो-२५३ महासमना-१९१
यक्खो -१५१,१५२,१६१,२०३,२५४ यज्ञदत्तो-६ यथाकारी-१६५,१६९
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--------------------------------------------------------------------------
________________
[र-व]
सद्दानुक्कमणिका
___ [२१]
यथावादी- १६५,१६९ यमकसालानं-१०१,१०४, १२७ यससंवत्तनिक-१०३ यामा-१९२
लम्बीतका-१९२ यामुना-१९०
लाभनिरोधा-४७ योगक्खेमकामा-२२९
लामसेट्ठा-१९२ योनिसोमनसिकारं-१५८
लिच्छविपरिसं-७६ लिच्छवी-७५,७६, १२३, १२५ लोकधातु-१०,१२
लोकधातूसु-१०५,१८६ रत्तचित्तेन-१०
लोकधातूहि-१८५ रत्तन्धकारतिमिसाय-१३१
लोकानुकम्पाय-३६, ३७, ७९, ८०, ८८, ८९, ९०, रत्तिन्दिवा-२४४
__ ९१, ९२, १५६, १६३, १६४, १६५, १६८, २४७ रमणीया-७९, ९०,९१, ९८
लोमहठ्ठजातो-१७६ रसे-२२४
लोमहंसनं-११८ रागदोसमोहक्खया-१०३
लोहितपक्खन्दिका-९७ राजगह-५९,८९, ९०,११०,१२७
लोहितवासिनो-१९१ राजञो- २३७, २३८, २३९, २५३, २५६, २५७, | लोहं - २५८, २५९
२६१,२६२ राजदायं-२३७ रामगामका-१२४ रूपतण्हा-४५,२३१,२३३
वचीकम्म-६३ रूपभवो-४५
वचीसङ्खारा-१५८ रूपविचारो-२३१,२३३
वचीसमाचारं-२०७ रूपवितक्को-२३१,२३३
वज्जिकरणीयानि-५७ रूपसञ्चेतना- २३१, २३३
वज्जिचेतियानि-५८ रूपसञ्जा-२३१, २३३
वज्जिधम्मे-५७ रूपस्स-२७, २२३
वज्जिमल्लेसु-१४८, १४९, १५० रूपा-२२९, २३०,२३२, २५०
वण्णसंवत्तनिकं- १०३ रूपिं-४९, ५०,५१
वनरामणेय्यकं-२४८ रूपी-४९,५०,५१,५४,८६
वन्दिते- १२३ रूपुपादानक्खन्धो-२३०
वयधम्मा-५२,९२,११६ रूपं-२७, १७६, २०८,२२३, २५१
वयधम्मानुपस्सी-२१५, २१६, २१७, २१८, २१९, रेणु-१७०,१७१,१७२,१७३, १७४, १७८
२२०,२२१,२२३,२२५, २२७,२३५ रोजा-१९१
वरुणा-१९० रोरुकं-१७२
वलाहको-१३०,१४६
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--------------------------------------------------------------------------
________________
[२२]
वस्सकारो - ५६, ५७, ५९ वस्वती - ६
वस्सूपनायिकाय - १५३ वायो - १९०
वायोधातूति - २१७, २१८ वायोसहगतो - २४९
वारणा - १९०
वालग्गकोटिनितुदनमत्तोपि - १०५
वासवो - २०२
वासेट्ठा - १११, ११९, १२०, १२१, १२२
विक्खित्तं - २२१
विगतकथंकथो - १६५,१६९
विचक्खणा - १९२
विचिकिच्छाकथङ्कथासल्लं - २०९
विचिकिच्छं - २२३
विजानाति - २५१
विज्जा - २५,२७, १५८ विज्जाचरणसम्पन्नो - ७३
विञ्ञाणञ्चायतनूपगा - ५४
विञ्ञाणञ्चायतनं - ५४, ५५, ८६, ११६, ११७
विञ्ञाणट्ठितियो - ५३
विञ्ञाणट्ठितीनं - ५४
विञ्ञाणनिरोधा - २७
विञ्ञणनिरोधो - २७
विञ्ञाणपच्चया नामरूपं - २५, ४४, ४९ विञ्ञाणसहगतो - २४९, २५१
विज्ञाणुपादानक्खन्धो- - २३०
विञ्ञाणं २५, २७, २८, ४४, ४९, २२३
२५६, २५७, २५८
विटुच्च - १८९ विटुटो - १८९
विटेण्डु - १८९
वितक्को - २०४
विदितधम्मा - ३२, ३४, ३५ विदिता - ६५
दीघनिकायो-२
विदिसा -२१९
विदेहानं - १७२
विधुरसञ्जीवं ४
विनिच्छ्यनिरोधा - ४७
विनिच्छ्यं पटिच्च छन्दरागो - ४६, ४७
विनिपातिका - ५४
विसुद्धचक्खू - १९०
विसुद्ध - २०३
विञ्जू - २४२, २४६, २४९, २५०, २५१, २५३, विसेसगू - २०३
विस्सकम्मं - १३५
विहार- ६, १०८ विहिंसावितक्क- १३९
वीतदोसं - २२१
वीतभयो - २१२
वीतमलं - ३२, ३४, ३५, २१३ वीतमोहं - २२१
विपस्सी - २, ३, ९, १५, १६, १७, १८, १९, २०, २१,
२२, २३, २७, २९, ३०, ३१, ३२, ३३, ३४, ३५, ३६, ३८, ३९, ४०
विपस्सीपि नाम कुमारो - २३
विप्पयोगो - २२९
विप्पसन्नमना - १५४, १६६
विभवतण्हा - ४८, २३० विमलो - १७९
विमानं - २६१, २६२ विमुत्तचित्तं - ५३
विमुत्तं - २२१
विमोक्खो - ५५, ८६, ११८. विरजं - ३२, ३४, ३५, २०२, २१३ विरागधम्मा - ५२
विरागो - २८, २९
विरूपक्खो - १५३, १६२, १८८, १८९
विरूळ्हको - १५३, १६२, १८९ विरूळ्हो - १८८
विवेकजं पीतिसुखं - १३९, २३४ विसाखा - ६
22
[व-व]
Page #334
--------------------------------------------------------------------------
________________
[स-स]
सद्दानुक्कमणिका
[२३]
वीतरागा-१०६,११८,११९,१२२
वेसालिं -७५,७६, ७७,७९, ९१, ९३ वीतरागं-२२१
वेसाली-७४,७९,९०,९१ वीमंसासमाधिप्पधानसङ्खारसमन्नागतं इद्धिपादं वेस्सभुस्स-३,४,५,६ भावेति-१५७
वेस्सभू-२,३,४१,१७३ वीरङ्गरूपा --१३,१५
वेस्सवणस्स-१५२,१६०,१६१, १९८ वीरियसमाधिप्पधानसङ्खारसमन्नागतं इद्धिपादं वेस्सवणो-१५३,१६०,१६१,१६२ भावेति-१५७
वेस्सामित्ता-१८८ वीरियसम्बोज्झगोति - २२६
वेहासङ्गमो-१३० वुद्धपब्बजितो- १२२
वेळुवगामको-७७ वूपसमो-११७, १४७
वेळुवने-९० वेघनसा-१९२ वेजयन्तरथप्पमुखानि - १४०,१४२,१४३, १४४,१४५ वेजयन्तरथो-१४६ वेह्रदीपको-१२४
सउद्रयाति-१८३,१८४ वेदना-२४, २५, २६, २७,४४,४५,४६,४८, ५२, सकटमुखं - १७२
५३,७७, ९७, १४५, २२३, २३१, २३२ सकदागामिनो-७३,१४८,१४९,१५०,१६०,१८४ वेदनाधम्मो - ५२,५३ ।
सकरणीयो-१०८ वेदनानिरोधातण्हानिरोधो-२७
सक्कतो- १०४ वेदनानिरोधो-२७
सक्कपञ्हात्वेव-२१३ वेदनानुपस्सना- २२०, २२१
सक्केसु-१८५ वेदनानुपस्सी-७४, ७८, १५९, २१४, २२०, २२१, | सक्को देवानमिन्दो-११७,१३५,१५३, १५४, १६३, २३४
१६५,१६६, १६८,१६९, १९४, १९५, १९८, वेदनापच्चया तण्हा-२५,४४, ४५
। २०३, २०४, २०६, २०७, २०८, २०९, २१३ वेदनुपादानक्खन्धो-२३०
सक्खिदिटुं-१९९ वेदपटिलाभो-२१०
सक्खिसावको-११५ वेदपटिलाभं-१५५,१६७, २१०,२११,२१२ सक्यधीता--१९९ वेदियको पब्बतो-१९५
सक्या-१२३, १२५ वेदेहिपुत्तो-५६, ५७, १२३, १२५
सग्गकथं-३२,३३,३५ वेपचित्ति-१९०
सग्गसंवत्तनिक-१०३ वेभारपस्से-८९, ९०
सग्गं लोकं-६८, १०६, १०७, १०८, १९९, २४१, वेरमणी-२३४
२४२,२४३,२४४,२६१, २६२,२६३ वेरोचनामका -१९०
सङ्खधमो- २५० वेसाला - १९०
सङ्खारा-२७, ९२, १०६, ११६, ११७, ११८, ११९, वेसालिका-७५, १२३
१२२, १४६,१४७,२२३ वेसालियं-५९, ७४, ७५, ७७,७९, ९०, ९१, ९३, | सङ्खारानं - २७, २८, ३३, ३४, ३५, २२३ १२५
सङ्घारुपादानक्खन्धो-२३०
Page #335
--------------------------------------------------------------------------
________________
[२४]
दीघनिकायो-२
[स-स]
सङ्गाहकस्स-१९७
सद्धस्स-१०६ सङ्घ-७३, ११५, ११६, १२४, १२५, १४९, १५०, | सनकुमारो-१५४, १५५, १५६, १५७, १५९, १६०, १६०,१९९
१६१,१६६,१६७,१६८,१६९,१७६, १९२ सज्झं-२५८,२५९
सन्तिकावचरो-१०५ सञ्चयो बेलट्ठपुत्तो-११३
सन्तुट्ठो-७२ सा- २७, २२३
सन्तो--२८,२९,१९६ सजावेदयितनिरोधंसमापज्जि-११६
सन्थता-१२० सञी समानो जागरो- ९९, १००
सन्दिट्टिको-७३,१६०,१६४,१६८ स पादानक्खन्धो-२३०
सन्धागारं-१११,११९,१७५ सतिपट्ठाना- २,१५९, २१४
सन्धिसमलसंकटीरा-१२० सतिमा-७४, ७८, १३९, १५९, २१४, २३४, २३५ सपरिक्खारो--१६० सतिसम्बोज्झङ्ग- ६२,२२५
सप्पसोण्डिकपब्भारो-९० सत्थवासे-२५२,२५४,२५५
सब्बकायपटिसंवेदी-२१५ सत्थवासो-२५२
सब्बनिहीनं-१५६,१८३ सत्थवाहस्स-२५४,२५५
सब्बफालिफुल्ला- १०४ सत्थवाहा-२५३
सब्बमित्तो-५ सत्थवाहो-२५४,२५५
सब्बसङ्घारसमथो-२८,२९ सत्था -७१,७३, ९२, ९३, ९४, १०२, १०८,११५, सब्बसेतो-१३०
११६, ११७, १४६, १६०, १६१, १७९, १८७, सब्बूपधिपटिनिस्सग्गो-२८,२९ १९३,२१३
सभायं-१५३, १५४, १६२, १६५, १९७ सत्त बोज्झङ्गा-९२
समचरिया-२२ सत्तपदवीतिहारेन - १२
समणपरिसा-८४,११० सत्तप्पतिट्ठो-१३०
समविपाका-१०३ सत्तबोज्झङ्गे-६५
समसमफला - १०३ सत्तमो सरीरनिखेपो-१४६
समाधि-६४,६६,७१,७४,७७, ९३, ९४, ९६ सत्तम्बं चेतियं-७९, ९१
समाधिपरिक्खारा-१६० सत्तरतनसमन्नागतो-१२,१३,१५,११०,१४६ समाधिपरिभाविता-६४,६६,७१,७४,७७,९४,९६ सत्तरतनानि-१२,१३,१५
समाधिसम्बोज्झङ्गं-६२,२२६ सत्तविज्ञाणट्ठिति-५३
समाना-१९१,१९९ सत्तसमाधिपरिक्खारा-१५९
समीपचारी-१०५ सत्तानं विसुद्धिया -२१४, २३६
समुदयधम्मानुपस्सी-२१५,२१६,२१७,२१८,२१९, सत्ताहपरिनिब्बुतो समणो गोतमो-१२१
२२०,२२१, २२३, २२५, २२७, २३५ सत्तिपञ्जरं- १२३
समुदयधम्म-३२,३४,३५,२१३ सदण्डावचरो-२१०
समुदयवयधम्मानुपस्सी-२१५, २१६, २१७, २१८, सद्दा-२२९, २३०, २३२, २५०
२१९, २२०, २२१, २२३, २२५, २२७,२३५ सई - ९९,१००,१४१, २०८,२५१
समेहि पादेहि-१२
24
Page #336
--------------------------------------------------------------------------
________________
[स-स]
सद्दानुक्कमणिका
[२५]]
समंसलोहितं-२१९
सवितक्कं- १३९, २०५, २०६, २३४ सम्पजानकारी होति-७५, २१६
ससत्थावचरो-२१० सम्पजानो - ९,७४,७५,७७,७८,८२,८३,८४,९७, | सहधम्मा-१९१
१०२, १०४, १३९, १४१, १५९, २११, २१४, सहलि-१९१ २३४,२३५
सळायतननिरोधा-२६,२७ सम्पयोगो-२२९
सळायतननिरोधो-२७ सम्पादेथाति-११६
सळायतनपच्चया-२४, २५ सम्फप्पलापा-२३४,२४१,२४३
सळायतनं-२५, २७ सम्बुद्धो-११७, २१३
साकेतं -११०, १२७ सम्बोधाय-२७,१८३,१८४,२१०
साखानगरके-११०, १२७ सम्बोधि-१४९,१५०,२११
सागरपरियन्तं-१३,१५ सम्बोधिपरायणा-७२,७३,१६०,१८४
साणभारिकउपमा-२५८ सम्बोधिमुत्तमं-१९६
साणसुत्तं-२५८,२५९ सम्मप्पधाना-९२
साणिभारं-२५८ सम्माआजीवो-१६०, १८४, २३३, २३४
साणं-२५८, २५९ सम्माकम्मन्तो - १६०,१८४, २३३,२३४
सातागिरा-१८७ सम्मााणं-१६०
सातोदका-९८ सम्मादिट्ठि-१६०,१८४, २३३
सामिसं सुखं-२२० सम्मावाचा - १६०, १८४, २३३, २३४,२६० सामुक्कंसिका-३२, ३४, ३५ सम्मावायामो-१६०,१८४,२३३,२३४
सारत्थे-१०७ सम्माविमुत्ति-१६०
सारन्ददे-५९, ९१ सम्मासङ्कप्पा-२६०
सारन्ददं चेतियं-७९,९१ सम्मासङ्कप्पो-१६०,१८४,२३३, २३४
सारिपुत्तमोग्गल्लानं-४, ३९, ४१ सम्मासति-१६०,१८४, २३३, २३४
सारिपुत्तो-६४ सम्मासमाधि-१६०,१८४,२३३,२३४,२३५ सालराजमूले-३८ सम्मासम्बुद्धा-६५, ६६, १०५, १०९, १६५, १८६, सालवने-१०१,१२७ १९९
सालवनं-१०३,१०४,१०५,१११,११२,११९ सम्मासम्बुद्धन- ३१, ३३, ३४, ३५, १५७, १५८, सालीनं-२१७ १५९, १६०
सावकयुगं-४,९, ३९, ४०, ४१ सम्मासम्बुद्धो लोके उदपादि-२,९,३९,४०
सावकसन्निपाततोपि-७,८,४२ सम्मासम्बोधिं -६५,६६,८३,१०१,१०३,१०६ सावकानं सन्निपाता-४, ९, ३९,४० सयमेव-१२३
सावको-९९,१०७,१०८,२०२,२१०,२३७,२३८ सरीरपूजाय-१०७
सावत्थि-१२७ सरीरपूजं-१०७,११०, १२७
सावत्थियं-१,१९८ सलळागारके-१९८
साळ्हो-७२ सविचारं-१३९, २०५, २०६, २३४
सिखण्डी-१९७
25
Page #337
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________________
[२६]
दीघनिकायो-२
सिखिस्स-३,४,५,६ सिखी-२,३,४१ सिङ्गीवण्णं-१०१, १०२ सिरीसस्स -३ सिंसपावने -२३७, २३८ सीतवने - ९० सीतोदका-९८ सीलपरिभावितो समाधि महप्फलो होति-६४,६६,७१,
७४,७७, ९४, ९६ सीलब्बतुपादानं-४५ सीलसम्पदाय-६७,६८ सीलसम्पन्नो-६७, ६८ सीसकटाहं-२१९ सीहसेय्यं-१०२,१०४,१४१ सुकतदुक्कटानं कम्मानं फलं विपाको-२३९, २४१,
२४७, २४८, २४९, २५०, २५१, २६२ सुखसंवत्तनिक-१०३ सुचित्ति-१९० सुञा-११३,११४, १४९,१५० सुदत्तो-७२ सुदस्सी-४० सुद्धावासेहि-३८ सुद्धोदनो-६,४०,४१ सुधम्मायं-१५३,१५४,१६२,१६५,१९७ सुनिधवस्सकारा-६८,६९,७० सुपण्णा-१९० सुपतिहितचित्तो-६६ सुपिनकउपमा-२४८ सुप्पतिट्टितपादो-१३ सुप्पतितो-६ सुप्पतित्था - ९८ सुभकिण्हा-५४ सुभगवने-३८ सुभद्दपरिब्बाजकवत्थु-११२ सुभद्दा देवी-१४१,१४३ सुभद्दो-७२, ११२,११३,११४,११५, १२२
सुमुत्ता-१२२ सुवण्णवण्णो-१४ सूकरपोसको-२५६ सूकरमद्दवं - ९६, ९७ सूरियवच्छसा- १९७ सेखो-१०८ सेतब्याय-२३७,२३८ सेतब्यं-२३७,२३८ सेतोदका - ९८ सेनियो-१४९, १५० सेय्यथापि-१०,११,१५, १६, २९, ३०,३१, ३२,
३४, ३५, ३६, ३७,३८,५३,५४,६५, ६९,७०, ७८,८५, ८६, १००, १०९, ११०,११४, १२३, १२७, १२८, १३०, १३१, १३३, १३५, १३६, १३७, १३८, १४५, १५५, १५८, १६४, १६६, १६७, १६८, १६९, १७६, १८५, १८६, १९४, २१५, २१७, २१८, २१९, २४२, २४४, २४७,
२४९, २५५, २५९, २६० सेरीसकं विमानं-२६१, २६२ सोकपरिदेवदुक्खदोमनस्सुपायासधम्मा-२३० सोकपरिदेवदुक्खदोमनस्सुपायासा-२५, २७, ४४ सोणुत्तरं-४ सोतापन्नो-११६,२१० सोत्थिजो-५ सोभवती-६ सोभो-६ सोमनस्सपटिलाभो-२१० सोमनस्सपटिलाभं- १५५,१६७, २१०,२११, २१२ सोमनस्सं-१५८,१५९, २०५, २५९ सोमो-१९० सोवीरानञ्च-१७२ संयोजनस्स - २२४, २२५ संवेजनीयानि-१०६
26
Page #338
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ह-ह]
ह
हथिगामो - ९४ हस्थिरतनं - १२, १३, १५, १३०
हारगजा - १९२ हारितो - १९३
हिरज्ञवतिया - १०३, १०४ हेमवता - १८७
सद्दानुक्कमणिका
27
[२७]
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________________
Page #340
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथानुक्कमणिका
अच्चङ्कुसोव नागोव - १९६ अट्ठदोणं चक्खुमतो सरीरं-१२६ अस्थायं इतरा पजा-१६० अथद्दसं भिक्खवो दिठ्ठपुब्बे - २०० अथागु नागसा नागा - १९० अथागुं सहभू देवा - १९१ अथागु हरयो देवा-१९१ अनिच्चा वत सङ्खारा-११७, १४७ अनूपवादो अनूपघातो-३८ अन्नेन पानेन उपट्ठहिम्हा-२०० अपरियोसितसङ्कप्पो-२१२ अपारुता तेसं अमतस्स द्वारा-३१ अप्पको वत मे सन्तो- १९६ अप्पमत्ता सतीमन्तो-९२ अभयं तदा नागराजानमासि-१९० अमनुस्सो कथंवण्णो-१७८ असल्लीनेन चित्तेन-११८
इच्चेते सोळससहस्सा - १८८ इच्छा विविच्छा परहेठना च- १७८ इति तत्थ महासेनो-१९३ इति बुद्धो अभिज्ञाय- ९४ इतो सत्त ततो सत्त-१५२ इत्थी हुत्वा स्वज्ज पुमोम्हि देवो-२०१ इदं दिस्वान नन्दन्ति-१५३, १५६, १६३, १६७ इद्धिमन्तो जुतिमन्तो-१९०, १९१, १९२ इधेव चित्तानि विराजयित्वा-२०१ इधेव तिट्ठमानस्स-२११ इमेहि ते हीनकायूपपन्ना- २०२
उत्तरञ्च दिसं राजा-१८९ उपवुत्थस्स मे पुब्बे-१७९ उपासिका चक्खुमतो अहोसिं--२००
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आतुरस्सेव भेसज्जं-१९५ आपो च देवा पथवी-१९० आमन्तयामि राजानं -१७८ आसनं उदकं पज्जं-१७६
एकस्मिं भासमानस्मिं-१५६ एका हि दाठा तिदिवेहि पूजिता-१२६ एकूनतिंसो वयसा सुभद्द-११४ एतादिसी धम्मप्पकासनेत्थ-२०२ एते चने च राजानो-१८९
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[३०]
दीघनिकायो-२
[क-त]
छेत्वा खीलं छेत्वा पलिघं - १८६
एस मग्गो उजुमग्गो- १८० एथगण्हथबन्धथ -१९३
जिता वजिरहत्थेन – १९०
कथं आराधना होति-२१२ कालकञ्चा महाभिस्मा-१९० किच्छेन मे अधिगतं -२८, २९ कुम्भीरो राजगहिको-१८८ के आमगन्धा मनुजेसु ब्रह्मे-१७७ कोधो मोसवज्जं निकति च दुब्भो- १७७
आयेन मे चरतो च-२११
खन्ती परमं तपो तितिक्खा-३८ खेमिया तुसिता यामा-१९२
गन्तवान बुद्धो नदिकं ककुधं-१०२ गन्धब्बकायूपगता भवन्तो - २०१
तञ्च सबं अभिज्ञाय - १८७, १९३ तण्हासल्लस्स हन्तारं- २१२ ततञ्च बलिपुत्तानं-१९० ततो नं अनुकम्पन्ति-७० ततो मे ब्रह्मा पातुरहु-१७९ तत्र भिक्खवो समादहसु-१८५ तदासि यं भिंसनकं- ११८ तदासु देवा मञ्जन्ति - १५६ तयि गेधितचित्तोस्मि- १९६ तस्स धम्मस्स पत्तिया-२०३ तस्सेव तेजेन अयं वसुन्धरा-१२६ तस्सेव बुद्धस्स सुधम्मताय- २०० तानि एतानि दिट्ठानि-७१ तिण्णं तेसं आवसिनेत्थ एको-२०२ तुलमतुलञ्च सम्भवं-८२ ते अछे अतिरोचन्ति-१५३, १५५, १६३, १६७ ते च सब्बे अभिक्कन्ते-१९३ ते तं अनुवत्तिस्साम–१७९ ते पणीततरा देवा - २१२ ते वुत्तवाक्या राजानो-१५४, १६६ तेसं निसिन्नानं अभिक्कमिंसु- २०२ तेसं पातुरहु आणं-१८७ तेसं मायाविनो रासा-१८९ तेसं यथासुतं धम्म-२१२
चतुन्नं अरियसच्चानं-७१ चत्तारो ते महाराजा - १८९ चत्तालीस समा दन्ता - १२६ चन्दनो कामसेट्ठो च-१८९ चित्तसेनो च गन्धब्बो-१८९ चुताहं दिविया काया-२११ चुताहं मानुसा काया- २११ चुन्दस्स भत्तं भुजित्वा - ९७
छसहस्सा हेमवता-१८७
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[द-य]
गाथानुक्कमणिका
[३१]
त्यस्सु यदा मं जानन्ति-२१२ त्वमेव असि सम्बुद्धो-२१३
बुद्धो जनिन्दत्थि मनुस्सलोके - २०२
दक्खिणञ्च दिसं राजा-१८८ ददतो पुओं पवड्डति-१०३ दन्तपुरं कलिङ्गानं -१७२ दसेते दसधा काया-१९२ दसेत्थ एस्सरा आगु-१९३ देवकाया अभिक्कन्ता-१८७ देविन्दनागिन्दनरिन्दपूजितो- १२६
भिय्यो पञ्चसते ञत्वा-१८७ भुत्तस्स च सूकरमद्दवेन -९७
नमत्थि ऊनं कामेहि-१७८ नवे देवे च पस्सन्ता-१५३, १५५, १६३, १६७ नागोव सन्नानि गुणानि छेत्वा-२०२ नाहु अस्सासपस्सासो-११८ न्हत्वा च पिवित्वा चुदतारि सत्था - १०२
महापदान निदानं-२६३ महासमयो पवनस्मिं-१८५ मारसेना अभिक्कन्ता-१९३ मिथिला च विदेहानं-१७२ मेत्ता करुणा कायिका-१९० मोदन्ति वत भो देवा-१५३, १५५, १६३, १६७ मं वे कुमारं जानन्ति-१७६
पच्चत्तं वेदितब्बो हि धम्मो-२०० पच्छिमञ्च दिसं राजा-१८८ पटिग्गण्हाम ते अग्धं -१७६ पटिसोतगामि निपुणं-२८, २९ परिपक्को वयो महं-९२ पवुट्ठजातिमखिलं--१९२ पुच्छ वासव में पहं-२०३ पुच्छामि ब्रह्मानं सनमारं-१७७ पुत्तापि तस्स बहवो- १८८, १८९ पुथूसीहाव सल्लीना-१८६ पुरिमं दिसं धतरट्ठो-१८९ पुरिमञ्च दिसं राजा-१८८
यथा निमित्ता दिस्सन्ति-१५४, १६६ यथा पावुस्सको मेघो- १९३ यथापि मुनि नन्देय्य - १९६ यदा च बुद्धमद्दखिं-२१२ यस्मिं पदेसे कप्पेति-७० या तत्थ देवता आसुं-७० यस्सु मञामि समणे - २१२ यामुना धतरट्ठा च-१९० ये नागराजे सहसा हरन्ति-१९० येकेचि बुद्धं सरणं गतासे-१८६ यो इमस्मिं धम्मविनये-९३ यं करोमसि ब्रह्मनो-२१३ यं मे अस्थि कतं पुनं-१९६
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[३२]
दीघनिकायो-२
[ल-ह]
लित्तं परमेन तेजसा -२५७
सातागिरा तिसहस्सा-१८७ सालंव न चिरं फुल्लं- १९७ सिङ्गीवण्णं युगमटुं- १०२ सिलोकमनुकस्सामि-१८६ सीतोदकं पोक्खरणिं- १९६ सीलं समाधि पञ्जा च-९३ सुक्का करम्भा अरुणा-१९२ सुणन्तु भोन्तो मम एकवाचं-१२४ सुब्रह्मा परमत्तो च-१९२ सूरियस्सूपनिसा देवा-१९१ सेले यथा पब्बतमुद्धनिहितो-३० सोकावतिण्णं जनतमपेतसोको-३१ स्वाहं अमूळ्हपञस्स-२११
वण्णवा यसवा सिरिमा-१७६ वरुणा सहधम्मा च-१९१ वन्दे ते पितरं भद्दे-१९५, १९७ वसूनं वासवो सेट्ठो-१९१ वातोव सेदतं कन्तो-१९५ वामूरु सज मं भद्दे - १९६ वेण्डुदेवा सहलि च-१९१ वेस्सामित्ता पञ्चसता - १८८
स
हन्द वियायाम ब्यायाम-२०१ हित्वा ममत्तं मनुजेसु ब्रह्मे-१७७ हीनं कायं उपपन्ना भवन्तो-२०१
सक्कस्स पुत्तोम्हि महानुभावो - २०१ सक्को चे मे वरं दज्जा-१९६ सक्यपुत्तोव झानेन - १९६ सचे जहथ कामानि - १८० सचे ते ऊनं कामेहि-१७८ सद्वैते देवनिकाया-१९२ सतञ्च बलिपुत्तानं -१९० सत्तभू ब्रह्मदत्तो च-१७३ सत्तसहस्सा ते यक्खा - १८७ सतं एके सहस्सानं-१८७ सदामत्ता हारगजा-१९२ सद्दहामि अहं भोतो- १७९ सब्बपापस्स अकरणं -३८ सब्बे विजितसङ्गामा-१९३ सब्बेव निक्खिपिस्सन्ति - ११७ सब्बेव भोन्तो सहिता समग्गा-१२५ समाना महासमना-१९१ सहस्सं ब्रह्मलोकानं-१९३
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संदर्भ-सूची पालि टेक्स्ट सोसायटी (लंदन) – १९८२
पालि टेक्स्ट सोसायटी पृष्ठ संख्या
पालि टेक्स्ट सोसायटी प्रथम वाक्यांश
वि. वि. वि. वि. वि. वि. पृष्ठ संख्या पंक्ति संख्या
or rM49 mAAAA
एवं मे सुतं पटिक्कन्तानं खत्तियो जातिया आयुप्पमाणं अहोसि अग्गं भद्दयुगं सम्मबुद्धस्स एको बन्धुमती नाम अथ खो तेसं छिन्नवटुमे परियादिन्नवट्टे एवंजच्चा ते पुब्बेनिवासपटिसंयुत्तं नाम देवी माता कामेसुमिच्छाचारा च बोधिसत्तमाता सेम्हेन अमक्खितो जाते खो पन भवन्ति, सेय्यथिदं सुखुमत्ता छविया इदम्पिमस्स महापुरिसस्स पदुमं वा पुण्डरीकं अनुसासति । तत्र उय्यानभूमिं निय्यन्तो अद्दसा खो अद्दसा खो
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[३४]
दीघनिकायो-२
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मुत्तकरीसे पलिपन्नं एसो खो देव न खो देव मा हेव नेमित्तानं हि सम्मसारथि अच्छादेत्वा दुक्खस्स निस्सरणं बोधिसतस्स तण्हा, तण्हापच्चया अभिसमयो वेदनाय बोधाय, यदिदं सम्मासमबुद्धस्स एतदहोसि एतदहोसि ब्रह्मे इमा एवमेव खो अरहन्तं सम्मासम्बुद्धं च पुरोहितपुत्तो सरणं गच्छाम सम्मासमबुद्धो सङ्घारानं आदीनवं अभिक्कन्तं भन्ते भिक्खवे धम्म विपस्सिं भगवन्तं अपि च भन्ते सेसानि । तिण्णं मत्त ता च भगवतो अरहतो अप्पकं आयुप्पमाणं एकमन्तं ठिता पि अनुस्सरति एवं मे सुतं अत्थीतिस्स सोकपरिदेवदुक्खदोमनस्सुपायासा किम्हिचि सेय्यथिदं पटिच्च आरक्खो परिग्गहो
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नो तं भन्ते
फस्स पच्चया वेदना
एतं वृत्तं
इत्यत्तं पञ्ञापनाय पनस्स होति
पनस्स न होति
खयधम्मा
हेव खो मे
नानत्तकाया नानत्तसञ्ञिनो
नो हेतं भन्ते
एवं सुतं
अनयव्यसनं आपादेस्सामि
सुतं, वज्जी
सुतं मे तं
परिहानि, को पन
करिस्सन्ति, वुद्धियेव
भविस्सन्ति न कम्मरता
भविस्सन्ति, आरद्धविरिया
यावकीवञ्च भिक्खवे यावकीवञ्च भिक्खवे एकमन्तं निसीदि
आसभी वाचा पावारिकम्बवने
अथ खो भगवा
पञ्चिमे
देवताय सहस्सेव
पुटभेदनं
ततो न अनुकम्पन्ति अथ खो भगवा
चतुन्नं अरियसच्चानं दत्तो नाम भन्ते लोक | परोपञ्ञास
ञयपटिपन्नो
सतिमा विनेय्य
वेसालिं अनुप्पत्तो
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भिक्खवे लिच्छविपरिसं एकमन्तं निसीदि यथासम्भत्तं वस्सं किम पन आनन्द ये हि केचि अथ खो भगवा यस्स कस्सचि पटिविज्झितुं, न धम्मानुधम्मपटिपन्ना आचरियकं उग्गहेत्वा भगवा एतमत्थं पठमो हेतु अनुपादिसेसाय धम्मिया च कथाय अज्झत्तं अरूपसञ्जी अज्झत्तं अरूपसी पट्ठपेसन्ति विवरिस्सन्ति पापिम परिनिब्बायिस्सामि एवं वुत्ते आयस्मा आमन्तेसिं रमणीयं सप्पसोण्डिकपब्भारो एकमिदाहं आनन्द परिनिब्बानं भविस्सति ब्रह्मचरियं यो इमस्मिं धम्मविनये अथ खो भगवा अनुबुद्धं पटिविद्धं एवं भन्ते अद्धा इदं तस्स अद्धा इदं तस्स अधिवासनं विदित्वा सुदं भगवा सातोदिका सीतोदिका तेन खो पन समानो जागरो इदानि भन्ते
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धम्मञ्च भिक्खुसङ्घञ्च भगवतो कायं उट्ठानसनं समसमफला समसमविपाका अथ खो भगवा ओकिरन्ति अज्झोकिरन्ति आयस्मा उपवाणो छिन्नपपातं पपतन्ति इमानि खो आनन्द वत्थेन वेठेन्ति पच्चेकसम्बुद्धस्स थूपो एवं भन्तेति अयं कालो उपासिकानं एवमेव खो भिक्खवे च बहुजना च परिनिब्बानं अहोसि अथ खो सुभद्दस्स समणस्स गोतमस्स अब्भनंसु दुतियो पि समणो अलत्थ खो अथ खो भगवा विप्पटिसारिनो अहुवत्थ हन्द दानि भिक्खवे परिनिब्बुते भगवति परिनिब्बुतो, अतिखिप्पं तेन खो पन मल्लानं एतदहोसि नच्चेहि गीतेहि वत्थेन वेठेसुं एतं आवुसो भगवता वन्दिते च पनायस्मता भगवतो सरीरानं भगवा अम्हाकं वेसालिका पि लिच्छवी देविन्दनागिन्दनरिन्दपूजितो
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एवं
जनपदत्थावरियप्पत्तो फलिकमयं
च एवमेव खो चक्करतनं
मुसा न भासितब्बा
खोतं आनन्द पच्छानिपातिनी
रञ्ञो आनन्द
पुन च परं
सोवण्णमया थम्मा
पट्टपेसि
देवपुत्त सक्कस
वेरियमयाथम्भा
परिक्खित्तो अहोसि
होत
रूपिमयानि पत्तानि
अथ खो आनन्द उपेक्खासहगतेन
चतुरासीतिगृहपतिसहस्सानि
द्वे चत्तासं
अथ खो आनन्द
इमानि ते देव
दुकूलसन्दनानि
इमानि ते देव
इमानि ते देव
वलाहक अस्सराजपमुखानि
महासुदरसनस्स सीहचम्मपरिवारानि
तेसं खो पन
समारके सब्रह्मके
एवं सुतं
अस्सोसुं खो खोपन पि अहे
येन खो पनस्सु
चेव जनपदानञ्च
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भवन्तो यमअभिसम्पराया न हनून दीघरत्तं अविनिपातो पुरक्खत्वा तेन सुदं भन्ते सच्छिकत्वा व नं अथ भन्ते ब्रह्मा पच्चेक पल्लङ्केसु सक्कस्स देवानमिन्दस्स इद्धिपादानं भावितत्ता चित्तसंखारा पटिप्पस्सम्भन्ति इमे खो भो तेन सम्माआजीवो समन्नागता, ये हि भासतो सम्मुखा एवं मे सुतं विरूपक्खो तेन सुदं भन्ते सावज्ज इदं नेव अतीतंसे एवं वुत्ते भन्ते अथ भन्ते देवा सोमनस्सपटिलाभं अस्थि च सक्केन अतीतंसे आदिब्रह्मचरियं अत्थ खो आमन्तयति राजा दिसम्पति अद्धगतो वयोअनुप्पत्तो अथ खो भो एवं देवोति खो भो अथ खो भो ते अथ खो भो अथ खो महागोविन्दो अथ खो भो महागोविन्दो अञआय सेय्यथापि
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अथ खो भो महागोविन्दोस्स एकोदिभूतो ति कोधो मोसवज्जं अमनुस्सो कथंवण्णो एवं समचिन्तेसुं सचे भवं गोविन्दो भवन्ते एकं वस्सं तेन हि भवं अगारं अज्झावसता गामनिगमराजधानीसु सहव्यतं उप्पज्जिंसु अभिज्ञा सच्छिकत्वा एवं मे सुतं सम्मिजेय्य एवमेवं अथ खो अपरा भीय्यो पञ्चसते वेस्सामित्ता पञ्चसता पुत्तापि तस्स वेहासया ते वसूनं वासवो खेमिया तुसिता एथगण्हथ एवं मे सुतं अयं तात दुरुपसंकमा खो तात आतुरस्सेव भेसज्ज यम मे अस्थि पठमाभिसम्बुद्धो सो येव नो भन्ते देवानं देवानुभावेन तेन हि भगिनि यदा पटिचोदेसि कुतोमुखा नाम तेसं दुवे वीरियं तिण्णं तेसं कतावकासो सक्को
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अभिनन्दित्वा अनुमोदित्वा सोमनस्सं पहमं सेवितब्बं पि कायसमाचारं पहं एवं पटिपन्नो सेवितब्बं यथारूपं अच्चन्तनिट्ठा अच्चन्तयोगक्खेमी अभिजानासि नो अभिजानामहं भन्ते सम्पस्समानो इमं खो अहं यं करोमसे देवतासहस्सानं एवं मे सुतं कथञ्च भिक्खवे इति अज्झत्तं वा काये इति अज्झत्तं वा काये नहारू अट्ठी विहरति समुदयवयधम्मानुपस्सी इति अज्झत्तं वा काये अञ्जेन पिट्टिकण्टकं कायानुपस्सी विहरति वयधम्मानुपस्सी होति यावदेव अज्झत्तं उद्धुच्चकुक्कुच्चन्ति इति सङ्खाराणं समुदयो तदुभयं पटिच्च ...पे०... सन्तं वा अज्झत्तं कतमञ्च भिक्खवे अञ्जतरञतरेन कतमञ्च भिक्खवे कतमञ्च भिक्खवे ... जिव्हासम्फस्सो तण्हा उप्पज्जमाना मनोसम्फस्सो लोके यं खो भिक्खवे
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भिय्योभावाय बहिद्धा वा धम्मेसु ...एकं मासं... एवं मे सुतं सुकटदुक्कटानं कम्मानं अस्थि खो भो सम्मोदनीयं कथं नस्थि सुकटदुक्कटानं पटिस्सुत्वा नेव आगच्छामीति मिच्छाचारा पटिविरता इति पि नत्थि विलेपनं महग्यानि सुकटदुक्कटानं सामं दिट्ठ भोतो कस्सपस्स दस्सावी अस्थि एव मे एत्थ होति महं नत्थि गवेसेन्तो सेय्यथापि करित्वा उद्धनं नो हिदं भो कस्सप पि इधेकचे इच्छसि तं दण्डं नप्पटिसंवेदेति सा येव ... पाणिना आकोटेसुं .. एवं मे एत्थ एतदहोसि यन्नूनाहं अथ खो सो अग्गि निब्बत्तेतब्बो पञ्चन्नं सकटसतानं कट्ठञ्च उदकञ्च अपनद्धकलापं कुमुदमालिं कटुं वा उदकं वा पि नत्थि परलोको तथा हि पन मे
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आगतागतं कलिं तेनउपसंकमिंसु ते येनचतरं सोमनस्सं अधिगच्छि मिच्छादिट्ठी मिच्छासंकप्पा पतिट्ठापेय्य अक्खण्डानि उत्तरो किर माणवो अथ खो पायासि अय्येन कुमारकस्सपेन अनपविद्धं दानं
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May the merits and virtues earned by the donors and selfless workers of Vipassana Research Institute, Igatpuri
be shared by all beings.
May all those who come in contact with
the Buddha Dhamma through this meritorious deed put the Dhamma into practice and attain the best
fruits of the Dhamma.
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DEDICATION OF MERIT *****0%BN****$ MINO*0****
May the merit and virtue
accrued from this work adorn the Buddha's Pure Land, repay the four great kindnesses above,
and relieve the suffering of those on the three paths below.
May those who see or hear of these efforts
in generate Bodhi-mind, spend their lives devoted to the Buddha Dharma,
and finally be reborn together in
the Land of Ultimate Bliss. Homage to Amita Buddha! NAMO AMITABHA
Printed and Donated for free distribution by The Corporate Body of the Buddha Educational Foundation 11th Floor, 55 Hang Chow South Road Sec 1, Taipei, Taiwan R.O.C. Tel: 886-2-23951198 , Fax: 886-2-23913415 Email: overseas@budaedu.org.tw
Printed in Taiwan 1998, 1200 copies
IN046-2002
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________________ C. 1. FOOT, ಅವ ಬಲ್ಲCON C. A SC TAX IMಲ 6s for G S ಬಾರಾ ಟದ ಆ ಪರಿ 1920ರಂದು INC - 2 ISE 31-74 14-05 ...,